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परशुराम की कथा

  कथा 

कथा :

संसार समुद्र से पार करनेवाले जिनेन्द्रभगवान् को नमस्कार कर परशुराम का चरित्र लिखा जता है जिसे सुनकर आश्चर्य होता है ।

अयोध्या का राजा कार्त्तवीर्य अत्यन्त मूर्ख था । उसकी रानी का नाम पद्मावती था । अयोध्या के जंगल में यमदग्नि नाम के एक तपस्वी का आश्रम था । इस तपस्वी की स्त्री का नाम रेणुका था । इसके दो लड़के थे । इसमें एक का नाम श्वेतराम था और दूसरे का महेन्द्रराम । एक दिन की बात है रेणुका के भार्इ वरदत्त मुनि उस ओर आ निकले । वे एक वृक्ष के नीचे ठहरे । उन्हें देखकर रेणुका बड़े प्रेम से उनसे मिलने को आर्इ और उनके हाथ जोड़कर वहीं बैठ गर्इ । बुद्धिमान वरदत्त मुनि ने उससे कहा -- बहिन, मैं तुझे कुछ धर्म का उपदेश सुनाता हूँ । तू उसे जरा सावधानी से सुन । देख, सब जीव सुख को चाहते हैं, पर सच्चे सुख को प्राप्त करने की कोर्इ बिरला ही खोज करता है और इसीलिये प्राय: लोग दुखी देखे जाते हैं । सच्चे सुख का कारण पवित्र सम्यग्दर्शन का ग्रहण करना है । जो पुरूष सम्यवत्व प्राप्त कर लेते हैं, वे दुर्गतियों में फिर नहीं भटकते । संसार का भ्रमण भी उनका कम हो जाता है । उनमें कितने तो उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं । सम्यवत्व का साधारण रूप यह है कि सच्चे देव, सच्चे गुरू और सच्चे शास्त्र पर विश्वास लाना । सच्चे देव वे हैं, जो भूख और प्यास, राग और द्वेष, क्रोध और लोभ, मान और माया आदि अठारह दोषों से रहित हों, जिनका ज्ञान इतना बढ़ा-चढ़ा हो कि उसमें संसार का कोर्इ पदार्थ अजाना न रह गया हो, जिन्हें स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती और बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी पूजते हों, और जिनका उपदेश किया पवित्र-धर्म इस लोक में और परलोक में भी सुख का देनेवाला हो तथा जिस पवित्र-धर्म का इन्द्रादि देव भी पूजा-भक्ति कर अपना जीवन कृतार्थ समझते हों । धर्म का स्वरूप उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव आदि दश लक्षणों द्वारा प्राय: प्रसिद्ध है और सच्चे गुरू वे कहलाते हैं, जो शील और संयम के पालनेवाले हो, ज्ञान और ध्यान का साधन ही जिनके जीवन का खास उद्देश्य हो और जिनके पास परिग्रह रत्ती भर भी न हो । इन बातों पर विश्वास करने को सम्यवत्व कहते हैं । इसके सिवा गृहस्थों के लिए पात्र-दान करना, भगवान् की पूजा करना, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत धारण करना, पर्वों में उपवास वगैरह करना आदि बातें भी आवश्यक हैं । यह गृहस्थ धर्म कहलाता है । तू इसे धारण कर । इससे तुझे सुख प्राप्त होगा । भार्इ के द्वारा धर्म का उपदेश सुन रेणुका बहुत प्रसन्न हुर्इ । उसने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ सम्यवत्व-रत्न द्वारा अपने आत्मा को विभूषित किया । और सच भी है, यही सम्यवत्व तो भव्यजनों का भूषण है । रेणुका का धर्म-प्रेम देखकर वरदत्त मुनि ने उसे एक ‘परश’ और दूसरी ‘कामधेनु’ ऐसी दो महाविद्याएँ दी, जो कि नाना प्रकार का सुख देने वाली है । रेणुका को विद्या देकर जैन-तत्व के परम-विद्वान् वरदत्त मुनि विहार कर गये । इधर सम्यक्त्वशालिनी रेणुका घर आकर सुख से रहने लगी । रेणुका को धर्म पर अब खूब प्रेम हो गया । वह भगवान् की बड़ी भक्त हो गयी ।

एक दिन राजा कार्तवीर्य हाथी पकड़ने को इसी वन की ओर आ निकला । घूमता हुआ वह रेणुका के आश्रम में आ गया । यमदग्नि तापस ने उसका अच्छा आदर-सत्कार किया और उसे अपने यही जिमाया भी । भोजन कामधेनु नाम की विद्या की सहायता से बहुत उत्तम तैयार किया गया था । राजा भोजन कर बहुत ही प्रसन्न हुआ । और क्यों न होता ? क्योंकि सारी जिन्दगी में उसे कभी ऐसा भोजन खाने को ही न मिला था । उस कामधेनु को देखकर उस पापी राजा के मन में पाप आया । यह कृतघ्न तब उस बेचारे तापसी को जान से मारकर गौ को ले गया । सच है, दुर्जनों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जो उनका उपकार करते हैं, वे दूध पिलाये सर्प की तरह अपने उन उपकारक की ही जान के लेनेवाले हो उठते हैं ।

राजा के जाने के थोड़ी देर बाद ही रेणुका के दोनों लड़के जंगल से लकड़ियॉ वगैरह लेकर आ गये । माता को रोते हुये देखकर उन्होंने उसका कारण पूछा । रेणुका ने सब हाल उनसे कह दिया । माता की दु:खभरी बातें सुनकर श्वेतराम के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । वह कार्तवीर्य से अपने पिता का बदला लेने के लिए उसी समय माता से ‘परशु’ नाम की विद्या को लेकर अपने छोटे भार्इ को साथ लिए चल पड़ा । राजा के नगर में पहुँचकर उसने कार्तवीर्य को युद्ध के लिए ललकारा । यद्यपि एक ओर कार्तवीर्य की प्रचण्ड सेना थी और दूसरी ओर सिर्फ ये दो ही भार्इ थे; पर तब भी परशु विद्या के प्रभाव से इन दोनों भाइयों ने ही कार्तवीर्य की सारी सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया और अन्त में कार्तवीर्य को मारकर अपने पिता का बदला लिया । मरकर पाप के फल से कार्तवीर्य नरक गया । सो ठीक ही है, पापियों की ऐसी गति होती ही है । उस तृष्णा को धिक्कार है जिसके वश हो लोग न्याय-अन्याय को कुछ नहीं देखते और फिर अनेक कष्टों को सहते हैं । ऐसे ही अन्यायों द्वारा तो पहले भी अनेक राजों-महाराजाओं का नाश हुआ । और ठीक भी है जिस वायु से बड़े-बड़े हाथी तक नष्ट हो जाते हैं तब उसके सामने बेचारे कीट-पतंगादि छोटे-छोटे जीव तो ठहर ही कैसे सकते हैं । श्वेतराम ने कार्तवीर्य को परशु-विद्या से मारा था, इसलिए फिर अयोध्या में वह 'परशुराम' इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

संसार में जो शूरवीर, विद्वान्, सुखी, धनी हुए देखे जाते हैं वह पुण्य की महिमा है । इसलिए जो सुखी, विद्वान्, धनवान्, वीर आदि बनाना चाहते हैं, उन्हें जिन-भगवान् का उपदेश किया पुण्य-मार्ग ग्रहण करना चाहिए ।