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सुकुमाल मुनि की कथा

  कथा 

कथा :

जिनके नाम-मात्र ही का ध्यान करने से हर प्रकार की धन-सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है, उन परम-पवित्र जिनभगवान् को नमस्कार कर सुकुमाल-मुनि की कथा लिखी जाती है ।

अतिबल कौशाम्बी के जब राजा थे, तब ही का यह आख्यान है । यहाँ एक सोमशर्मा पुरोहित रहता था । इसकी स़्त्री का नाम काश्यपी था । इसके अग्निभूत और वायुभूति नामक दो लड़के हुए । माँ-बाप के अधिक लाडले होने से ये कुछ पढ़-लिख न सके । और सच है पुण्य के बिना किसी को विद्या आती भी तो नहीं । काल की विचित्र गति से सोमशर्मा की असमय में ही मौत हो गर्इ । ये दोनों भार्इ तब निरे मूर्ख थे । इन्हें मूर्ख देखकर अतिबल ने इनके पिता का पुरोहित पद, जो इन्हें मिलता, किसी और को दे दिया । यह ठीक है कि मूर्खों का कहीं आदर-सत्कार नहीं होता । अपना अपमान हुआ देखकर इन दोनों भाइयों को बड़ा दु:ख हुआ । तब इनकी कुछ अक्ल ठिकाने आर्इ । अब इन्हें कुछ लिखने-पढ़ने की सूझी । ये राजगृह में अपने काका सूर्यमित्र के पास गये और अपना सब हाल इन्होंने उनसे कहा । इनकी पढ़ने की इच्छा देखकर सूर्यमित्र ने इन्हें स्वयं पढ़ाना शुरू किया और कुछ ही वर्षों में इन्हें अच्छा विद्वान बना दिया । दोनों भार्इ जब अच्छे विद्वान हो गये तब वे पीछे अपने शहर लौट आये । आकर इन्होंने अतिबल को अपनी विद्या का परिचय कराया । अतिबल इन्हें विद्वान् देखकर बहुत खुश हुआ और इनके पिता का पुरोहित पद उसने पीछा इन्हें ही दे दिया । सच है सरस्वती की कृपा से संसार में क्या नहीं होता ।

एक दिन संध्या के समय सूर्यमित्र सूर्य को अर्घ्य चढ़ा रहा था । उसकी अंगुली में राजकीय एक रत्नजड़ी बहुमूल्य अंगुठी थी । अर्घ्य चढ़ाते समय वह अॅंगूठी अंगुली में से निकलकर महल के नीचे तालाब में जा गिरी । भाग्य से वह एक खिले हुए कमल में पड़ी । सूर्य अस्त होने पर कमल मूँद गया । अंगूठी कमल के अन्दर बन्द हो गर्इ जब वह पूजा-पाठ करके उठा और उसकी नजर उॅगली पर पड़ी तब उसे मालूम हुआ कि अॅंगूठी कहीं पर गिर पड़ी । अब तो उसके डर का ठिकाना न रहा । राजा जब अंगूठी माँगेगा तब उसे क्या जवाब दूँगा, इसकी उसे बड़ी चिन्ता होने लगी । अॅंगूठी को शोध के लिये इसने बहुत कुछ यत्न किया, पर इसे उसका कुछ पता न चला । तब किसी के कहने से यह अवधिज्ञानी सुधर्ममुनि के पास गया और हाथ जोड़कर इसने उनसे अंगूठी के बाबत पूछा कि प्रभो, क्या कृपाकर मुझे आप यह बतलावेंगे कि मेरी अॅंगूठी कहाँ चली गर्इ और हे करूणा के समुद्र, वह कैसे प्राप्त होगी ? मुनि ने उत्तर में यह कहा कि सूर्य को अर्घ्य देते समय तालाब में एक खिले हुए कमल में अॅंगूठी गिर पड़ी है । वह सबेरे मिल जायेगी । वही हुआ । सूर्योदय होते ही जैसे कमल खिला सूर्यमित्र को उसमें अँगूठी मिली । सूर्यमित्र बड़ा खुश हुआ । उसे इस बात का अचम्भा होने लगा कि मुनि ने यह बात कैसे बतलार्इ ? हो न हो, उनसे अपने को यह भी विद्या सीखनी चाहिये । यह विचारकर सूर्यमित्र, मुनिराज के पास गया । उन्हें नमस्कार कर उसने प्रार्थना कि हे योगिराज, मुझे भी आप अपनी विद्या सिखा दीजिये, जिससे मैं भी दूसरे के ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे सकूँ । आपकी मुझपर बड़ी कृपा होगी, यदि आप मुझे अपनी यह विद्या पढ़ा देंगे । तब मुनिराज ने कहा -- भार्इ, मुझे इस विद्या के सिखाने में कोर्इ इंकार नहीं है । पर बात यह है कि बिना जिनदीक्षा लिये यह विद्या आ नहीं सकती । सूर्यमित्र तब केवल विद्या के लोभ से दीक्षा लेकर मुनि हो गया । मुनि होकर इसने गुरू से विद्या सिखाने को कहा । सुधर्म मुनिराज ने तब सूर्यमित्र को मुनियों के आचार-विचार के शास्त्र तथा सिद्धान्त शास्त्र पढ़ाये । अब तो एकदम सूर्यमित्र की आँखें खुल गर्इ । यह गुरू के उपदेश रूपी दिये के द्वारा अपने हृदय के अज्ञानन्धकार को नष्टकर जैन-धर्म का अच्छा विद्वान हो गया । सच है, जिन भव्य-पुरूषों ने सच्चे-मार्ग को बतलाने वाले और संसार के अकारण बन्धु गुरूओं की भक्ति सहित सेवा-पूजा की है, उनके सब काम नियम से सिद्ध हुए हैं ।

जब सूर्यमित्र मुनि अपने मुनि-धर्म में खूब कुशल हो गये तब वे गुरू की आज्ञा लेकर अकेले ही विहार करने लगे । एक बार वे विहार करते हुए कौशाम्बी में आये । अग्निभूति ने इन्हें भक्ति-पूर्वक दान दिया । उसने अपने छोटे भार्इ वायुभूति से बहुत प्रेरणा और आग्रह इसलिए किया कि वह सूर्यमित्र मुनि की वन्दना करें, उसे जैन-धर्म से कुछ प्रेम हो । कारण वह जैनधर्म से सदा विरूद्ध रहता था । पर अग्निभूति के इस आग्रह का परिणाम उलटा हुआ । वायुभूति ने खिसियाकर मुनि की अधिक निन्दा की और उन्हें बुरा-भला कहा । सच है, जिन्हें दुर्गतियों में जाना होता है कि प्रेरणा करने पर भी ऐसे पुरूषों का श्रेष्ठधर्म की ओर झुकाव नहीं होता, किन्तु वह उलटा पाप के कीचड़ में अधिक-अधिक फँसता है । अग्निभूति को अपने भार्इ की दुर्बुद्धि पर बड़ा दु:ख हुआ । और यही कारण था जब मुनिराज आहार कर वन में गये तब अग्निभूति भी उनके साथ-साथ चला गया । और वहाँ धर्मोंपदेश सुनकर वैराग्य हो जाने से दीक्षा लेकर वह भी तपस्वी हो गया । अपना और दूसरों का हित करना अबसे अग्निभूति के जीवन का उद्देश्य हुआ ।

अग्निभूति के मुनि हो जाने की बात जब इसकी स्त्री सती सोमदत्ता को ज्ञात हुर्इ तो उसे अत्यन्त दु:ख हुआ । उसने वायुभूति से जाकर कहा -- देखा, तुमने मुनि को वन्दना न कर उनकी बुरार्इ की, सुनती हूँ उससे दुखी होकर तुम्हारे भार्इ भी मुनि हो गये । यदि वे अब तक मुनि न हुए हों तो चलो उन्हें हम समझा लावें । वायुभूति ने गुस्सा होकर कहा – हाँ तुम्हें गर्ज हो तो तुम भी उस बदमाश नंगे के पास जाओ ! मुझे तो कुछ गर्ज नहीं है । यह कहकर वायुभूति अपनी भौजी को एक लात मारकर चलता बना । सोमदत्ता को उसके मर्मभेदी वचनो को सुनकर बड़ा दु:ख हुआ । उसे क्रोध भी अत्यन्त आया । पर अबला होने से उस समय वह कर कुछ नहीं सकी । तब उसने निदान किया कि पापी, तूने जो इस समय मेरा मर्म भेदा है और मुझे लातों से ठुकराया है, और इसका बदला स्त्री होने से मैं इस समय न भी ले सकी तो कुछ चिन्ता नहीं, पर याद रख इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में सही, पर बदला लूँगी अवश्य और इसी पाँव को, जिससे कि तूने मुझे लात मारी है और मेरे हृदय भेदने वाले तेरे इसी हृदय को मैं खाऊॅंगी तभी मुझे सन्तोष होगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी मूर्खता को धिक्कार है जिसके वश हुए प्राणी अपने पुण्य-कमल को ऐसे नीच निदानों द्वारा भस्म कर डालते हैं ।

‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ इस कहावत के अनुसार तीव्र-पाप का फल प्राय: तुरन्त मिल जाता है । वायुभूति ने मुनि-निन्दा द्वारा जो तीव्र-पाप कर्म बाँधा, उसका फल उसे बहुत जल्दी मिल गया । पूरे सात दिन भी न हुए होंगे कि वायुभूति के सारे शरीर से कोढ़ निकल आया । सच है, जिनकी सारा संसार पूजा करता है और जो धर्म के सच्चे मार्ग को दिखाने वाले हैं ऐसे महात्माओं की निन्दा करनेवाला पापी पुरूष किन महा-कष्टों को नहीं सहता । वायुभूति कोढ़ के दुख से मरकर कौशाम्बी में ही एक नट के यहाँ गधा हुआ । गधा मरकर जंगली सूअर हुआ । इस पर्याय से मरकर इसने चम्पापुर में एक चाण्डाल के यहाँ कुत्ती का जन्म धारण किया, कुत्ती मरकर चम्पापुरी में ही एक दूसरे चाण्डाल के यहाँ लड़की हुर्इ । यह जन्म ही से अन्धी थी । इसका सारा शरीर बदबू कर रहा था । इसलिये इसके माता-पिता ने इसे छोड़ दिया । पर भाग्य सभी का बलवान् होता है । इसलिए इसकी भी किसी तरह रक्षा हो गर्इ । यह एक जांबू के झाड़ के नीचे पड़ी-पड़ी जांबू खाया करती थी ।

सूर्यमित्र मुनि अग्निभूति को साथ लिये हुए भाग्य से इस ओर आ निकले । उस जन्म की दु:खिनी लड़की को देखकर अग्निभूति के हृदय में कुछ मोह, कुछ दु:ख हुआ । उन्होंने गुरू से पूछा -- प्रभो, इसकी दशा बड़ी कष्ट में है । यह कैसे जी रही है ? ज्ञानी सूर्यमित्र मुनि ने कहा – तुम्हारे भार्इ वायुभूति ने धर्म से परान्मुख होकर जो मेरी निन्दा की थी, उसी पाप के फल से उसे कर्इ भव पशु पर्याय में लेने पड़े । अन्त में वह कुत्ती की पर्याय से मरकर यह चाण्डाल-कन्या हुर्इ है । पर अब इसकी उमर बहुत थोड़ी रह गर्इ है । इसलिये जाकर तुम इसे व्रत लिवाकर संन्यास दे आओ । अग्निभूति ने वैसा ही किया । उस चाण्डाल कन्या को पाँच अणुव्रत देकर उन्होंने संन्यास लिवा दिया । चाण्डाल कन्या मरकर व्रत के प्रभाव से चम्पापुर में नागशर्मा ब्राह्मण के यहाँ नागश्री नाम की कन्या हुर्इ । एक दिन नागश्री वन में नाग-पूजा करने को गर्इ थी । पुण्य से सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि भी विहार करते हुए इस ओर आ गये । उन्हें देखकर नागश्री के मन में उनके प्रति अत्यन्त भक्ति हो गर्इ । नागश्री को देखकर अग्निभूति मुनि के मन में कुछ प्रेम का उदय हुआ । और होना उचित ही था । क्योंकि थी तो वह उनके पूर्व जन्म की भार्इन ? अग्निभूति ने इसका कारण अपने गुरू से पूछा । उन्होनें प्रेम होने का कारण जो पूर्व जन्म का भातृ-भाव था, वह बता दिया । तब अग्निभूति ने उसे धर्म का उपदेश दिया और सम्यक्त्व तथा पाँच अणुव्रत उसे ग्रहण करवाये । नागश्री व्रत ग्रहणकर जब जाने लगी तब उन्होंने उससे कह दिया कि हाँ, देख बच्ची, तुझसे यदि तेरे पिताजी इन व्रतों को लेने के लिए नाराज हों, तो तू हमारे व्रत हमें ही आकर सौंप जाना । सच है, मुनि लोग वास्तव में सच्चे मार्ग दिखाने वाले होते हैं ।

इसके बाद नागश्री उन मुनिराजों के भक्ति से हाथ जोड़कर और प्रसन्न होती हुर्इ अपने घर पर आ गर्इ । नागश्री के साथ की और लड़कियों ने उसके व्रत लेने की बात को नागशर्मा से जाकर कह दिया । नागशर्मा ने तब कुछ क्रोध का सा भाव दिखाकर नागश्री से कहा -- बच्ची, तू बड़ी भोली है, जो झट से हरएक के बहकाने में आ जाती है । भला, तू नहीं जानती कि अपने पवित्र ब्राह्मण-कुल में उन नंगे मुनियों के दिये व्रत नहीं लिये जाते । वे अच्छे लोग नहीं होते । इसलिए उनके व्रत तू छोड़ दे । तब नागश्री बोली – तो पिताजी, उन मुनियों ने मुझे आते समय यह कह दिया था कि यदि तुझसे तेरे पिताजी इन व्रतों को छोड़ देने के लिए आग्रह करें तो तू पीछे हमारे व्रत हमें ही दे जाना । तब आप चलिए मैं उन्हें उनके व्रत दे आती हूँ । सोमशर्मा नागश्री का हाथ पकड़े क्रोध से गुर्राता हुआ मुनियों के पास चला । रास्ते में नागश्री ने एक जगह कुछ गुलगंपाड़ा होता सुना । उस जगह बहुत से लोग इकट्ठे हो रहे थे और एक मनुष्य उनके बीच में बॅंधा हुआ पड़ा हुआ था । उसे कुछ निर्दयी लोग बड़ी क्रूरता से मार रहे थे । नागश्री ने उसकी यह दशा देखकर सोमशर्मा से पूछा -- पिताजी, बेचारा यह पुरूष इसप्रकार निर्दयता से क्यों मारा जा रहा है ? सोमशर्मा बोला -- बच्ची, इसपर एक बनिये के लड़के वरसेन का कुछ रूपया लेना था । उसने इससे अपने रूपयों का तकादा किया । इस पापी ने उसे रूपया न देकर जान से मार डाला । इसलिए उस अपराध के बदले अपने राजा साहब ने इसे प्राण-दंड की सजा दी है, और वह योग्य है । क्योंकि एक को ऐसी सजा मिलने से अब दूसरा कोर्इ ऐसा अपराध न करेगा । तब नागश्री ने जरा जोर देकर कहा – तो पिताजी, यही व्रत तो उन मुनियों ने मुझे दिया है, फिर आप उसे क्यों छुड़ाने को कहते हैं ? सोमशर्मा लाजवाब होकर बोला – अस्तु पुत्री, तू इस व्रत को न छोड़, चल बाकी के व्रत तो उनके उन्हें दे आयें । आगे चलकर नागश्री ने एक ओर पुरूष को बँधा देखकर पूछा – और पिताजी, यह क्यों बाँधा गया है ? सोमशर्मा ने कहा -- पुत्री, यह झूठ बोलकर लोगों को ठगा करता था । इसके फन्दे में फॅंसकर बहुतों को दर-दर का भिखारी बनना पड़ा है । इसलिए झूठ बोलने के अपराध में इसकी यही दशा की जा रही है । तब फिर नागश्री ने कहा – तो पिताजी, यही व्रत तो मैंने भी लिया है । अब तो मैं उसे कभी नहीं छोड़ूंगी । इसी प्रकार चोरी, परस्त्री, लोभ आदि से दुख पाते हुए मनुष्यों को देखकर नागश्री ने अपने पिता को लाजवाब कर दिया ओर व्रतों को नहीं छोड़ा । तब सोमशर्मा ने हार खाकर कहा -- अच्छा, यदि तेरी इच्छा इन व्रतों को छोड़ने की नहीं है तो न छोड़, पर तू मेरे साथ उन मुनियों के पास तो चल । मैं उन्हें दो बातें कहूँगा कि तुम्हें क्या अधिकार था जो तुमने मेरी लड़की को बिना मेरे पूछे व्रत दे दिये ? फिर वे आगे से किसी को इस प्रकार व्रत न दे सकेंगे । सच है, दुर्जनों को कभी सत्पुरूषों से प्रीति नहीं होती । तब ब्राह्मण देवता अपनी होश निकालने को मुनियों के पास चले । उसने उन्हें दूर से ही देखकर गुस्से में आ कहा – क्यों रे नंगे । तुमरे मेरी लड़की को व्रत देकर क्यों ठग लिया ? बतलाओ, तुम्हे इसका क्या अधिकार था ? कवि कहता है कि ऐसे पापियों के विचारों को सुनकर बड़ा ही खेद होता है । भला, जो व्रत, शील, पुण्य के कारण हैं, उनसे क्या कोर्इ ठगाया जा सकता है ? नहीं । सोमशर्मा को इसप्रकार गुस्सा हुआ देखकर सूर्यमित्र मुनि बड़ी धीरता और शान्ति के साथ बोले -- भार्इ, जरा धीरज धर, क्यों इतनी जल्दी कर रहा है । मैंने इसे व्रत दिये हैं, पर अपनी लड़की समझकर, और सच पूछो तो यह है भी मेरी ही लड़की । तेरा तो इसपर कुछ भी अधिकार नहीं हैं । तू भले ही यह कह कि यह मेरी लड़की है, पर वास्तव में यह तेरी लड़की नहीं है । यह कहकर सूर्यमित्र मुनि ने नागश्री को पुकारा । नागश्री झट से आकर उनके पास बैठ गर्इ । अब तो ब्राह्मण देवता बड़े घबराये । वे ‘अन्याय-अन्याय’ चिल्लाते हुए राजा के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले -- देव, नंगे साधुओं ने मेरी नागश्री लड़की को जबरदस्ती छुड़ा लिया । वे कहते हैं कि यह तेरी लड़की नहीं, किन्तु हमारी लड़की है । राजाधिराज, सारा शहर जानता है कि नागश्री मेरी लड़की है । महाराज, उन पापियों से मेरी लड़की दिलवा दीजिए । सोमशर्मा की बात से सारी राज-सभा बड़े विचार में पड़ गर्इ । राजा की भी अकल में कुछ न आया । तब वे सबको साथ लिए मुनि के पास आये और उन्हें नमस्कार कर बैठ गये । फिर यही झगड़ा उपस्थित हुआ । सोमशर्मा तो नागश्री को अपनी लड़की बताने लगा और सूर्यमित्र मुनि अपनी । मुनि बोले -- अच्छा, यदि वह तेरी लड़की है तो बतला तूने इसे क्या पढ़ाया ? और सुन, मैंने इसे सब शास्त्र पढ़ाया है, इसलिए मैं अभिमान से कहता हूँ कि यह मेरी ही लड़की है । तब राजा बोले – अच्छा प्रभो, यह आप ही की लड़की सही, पर आपने इसे जो पढ़ाया है उसकी परीक्षा इसके द्वारा दिलवाइए । जिससे कि हमें विश्वास हो । तब सूर्यमित्र मुनि अपने वचनरूपी किरणों द्वारा लोगों के चित्त में ठसे हुए मूर्खतारूप गाढ़े अन्धकार को नाश करते हुये बोले – हे नागश्री, हे पूर्व जन्म में वायुभूति का भव धारण करनेवाली, पुत्री, तुझे मैंने जो पूर्व-जन्म में कर्इ शास्त्र पढ़ाये हैं, उनकी इस उपस्थित मंडली के सामने तू परीक्षा दे । सूर्यमित्र मुनि का इतना कहना हुआ कि नागश्री ने जन्मान्तर का पढ़ा-पढ़ाया सब विषय सुना दिया । राजा तथा और सब मंडली को इससे बड़ा अचम्भा हुआ । उन्होंने मुनिराज से हाथ जोड़कर कहा – प्रभो, नागश्री की परीक्षा से उत्पन्न हुआ विनोद हृदयभूमि में अठखेलियाँ कर रहा है । इसलिए कृपाकर आप अपने और नागश्री के सम्बन्ध की सब बातें खुलासा कहिए । तब अवधिज्ञानी सूर्यमित्र मुनि ने वायुभूति के भव से लगाकर नागश्री के जन्म तक की सब घटना उनसे कह सुनार्इ । सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्हें यह सब मोह की लीला जान पड़ी । मोह को ही सब दु:ख का मूल-कारण समझकर उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ । वे उसी समय और भी बहुत से राजाओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण कर गये । सोमशर्मा भी जैन-धर्म का उपदेश सुनकर मुनि हो गया और तपस्या कर अच्युत स्वर्ग में देव हुआ । इधर नागश्री को भी अपना पूर्व का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ । वह दीक्षा लेकर आर्यिका हो गर्इ और अन्त में शरीर छोड़कर तपस्या के फल से अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुर्इ । अहा ! संसार में गुरू चिन्तामणि के समान है, सबसे श्रेष्ठ है । यही कारण है कि जिनकी कृपा से जीवों को सब सम्पदाएँ प्राप्त हो सकती हैं ।

यहाँ से विहारकर सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिराज अग्नि-मन्दिर नाम के पर्वत पर पहुँचे । वहाँ तपस्या द्वारा घातिया कर्मों का नाशकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया, और त्रिलोक-पूज्य हो अन्त में बाकी के कर्मों का भी नाशकर परम सुखमय, अक्षयानन्त मोक्ष लाभ किया । वे दोनों केवलज्ञानी मुनिराज मुझे और आप लोगों का उत्तम सुख को भी दें।

अवन्ति देश के प्रसिद्ध उज्जैन शहर में एक इन्द्रदत्त नाम का सेठ है । यह बड़ा धर्मात्मा और जिनभगवान् का सच्चा भक्त है । उसकी स्त्री का नाम गुणवती है । वह नाम के अनुसार सचमुच गुणवती और बड़ी सुन्दरी है । सोमशर्मा का जीव, जो अच्युत स्वर्ग में देव हुआ था वह वहाँ अपनी आयु पूरी कर पुण्य के उदय से इस गुणवती सेठानी के सुरेन्द्रदत्त नाम का सुशील और गुणी पुत्र हुआ । सुरेन्द्रदत्त का ब्याह उज्जैन ही में रहने वाले सुभद्र सेठ की लड़की यशोभद्रा के साथ हुआ । इनके घर में किसी बात की कमी नहीं थी । पुण्य के उदय से इन्हें सबकुछ प्राप्त था । इसलिए बड़े सुख के साथ इनके दिन बीतते थे । ये अपनी इस सुख अवस्था में भी धर्म को न भूलकर सदा उसमें सावधान रहा करते थे ।

एक दिन यशोभद्रा ने एक अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा – क्यों योगिराज, क्या मेरी आशा इस जन्म में सफल होगी ? मुनिराज ने यशोभद्रा का अभिप्राय जानकर कहा -- हाँ होगी, और अवश्य होगी । तेरे होने वाला पुत्र भव्य है और मोक्ष में जाने वाला, बुद्धिमान और अनेक अच्छे-अच्छे गुणों का धारक होगा । पर साथ ही एक चिन्ता यह होगी कि तेरे स्वामी पुत्र का मुख देखकर ही जिनदीक्षा ग्रहण कर जायेंगे, जो दीक्षा स्वर्ग-मोक्ष का सुख देनेवाली है । अच्छा, और एक बात यह है कि तेरा पुत्र भी जब कभी किसी जैन मुनि को देख पायेगा तो वह भी उस समय सब विषय भोगों को छोड़-छाड़कर योगी बन जायगा ।

इसके कुछ महीनों बाद यशोभद्रा सेठानी के पुत्र हुआ । नागश्री के जीव ने, जो स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ था, अपनी स्वर्ग की आयु पूरी हुए बाद यशोभद्रा के यहाँ जन्म लिया । भार्इ-बन्धुओं ने इसके जन्म का बहुत कुछ उत्सव मनाया । इसका नाम सुकुमाल रक्खा गया । उधर सुरेन्द्र पुत्र के पवित्र दर्शनकर और उसे अपने सेठ-पद का तिलक कर आप मुनि हो गया ।

जब सुकुमाल बड़ा हुआ तब उसकी माँ को यह चिन्ता हुर्इ कि कहीं यह भी कभी किसी मुनि को देखकर मुनि न हो जाय, इसके लिए यशोभद्रा ने अच्छे घराने की कोर्इ बत्तीस सुन्दर कन्याओं के साथ उसका विवाह कर उन सबके रहने को एक जुदा ही बड़ा भारी महल बनवा दिया और उसमें सब प्रकार की विषय-भोगों की एक से एक उत्तम वस्तु इकट्ठी करवा दी, जिससे कि सुकुमाल नाम सदा विषयों में फॅंसा रहे । इसके सिवा पुत्र के मोह से उसने इतना और किया कि अपने घर में जैन मुनियों का आना-जाना बन्द करवा दिया ।

एक दिन किसी बाहर के सौदागर ने आकर राजा प्रद्योतन को एक बहुमूल्य रत्न-कम्बल दिख लाया, इसलिए कि वह उसे खरीद ले पर उसकी कीमत बहुत अधिक होने से राजा ने उसे नहीं लिया । रत्न-कम्बल की बात यशोभद्रा सेठानी को मालूम हुर्इ । उसने उस सौदागर को बुलवाकर उससे वह कम्बल सुकुमाल के लिए मोल ले लिया । पर वह रत्नों की जड़ार्इ के कारण अत्यन्त ही कठोर था, इसीलिए सुकुमाल ने उसे पसन्द न किया । तब यशोभद्रा ने उसे उसके टुकड़े करवाकर अपनी बहुओं के लिए उसकी जूतियाँ बनवा दी । एक दिन सुकुमाल की प्रिया जूतियाँ खोलकर पाँव् धो रही थी । इतने में एक चील माँस के लोभ से एक जूता को उठा ले उड़ी । उसकी चोंच से छूटकर वह जूती एक वेश्या के मकान की छत पर गिरी । उस जूतों को देखकर वेश्या को बड़ा आश्चर्य हुआ । वह उसे राजघराने की समझकर राजा के पास ले गर्इ । राजा भी उसे देखकर दंग रह गये कि इतनी कीमती जिसके यहाँ जूतियाँ पहरी जाती हैं तब उसके धन का क्या ठिकाना होगा । मेरे शहर में इतना भारी धनी कौन है ? इसका अवश्य पता लगाना चाहिए । राजा ने जब इस विषय की खोज की तो उन्हें सुकुमाल सेठ का समाचार मिला कि इनके पास बहुत धन है और वह जूती उनकी स्त्री की है । राजा को सुकुमाल को देखने की बड़ी उत्कंठा हुर्इ । वे एक दिन सुकुमाल से मिलने को आये । राजा को अपने घर आये देख सुकुमाल की माँ यशोभद्रा को बड़ी खुशी हुर्इ उसने राजा का खूब अच्छा आदर-सत्कार किया । राजा ने प्रेमवश हो सुकुमाल को भी अपने पास सिंहासन पर बैठा लिया । यशोभद्रा ने उन दोनों की एक साथ आरती उतारी । दिये की तथा हार की ज्योति से मिलकर बढ़े हुए तेज को सुकुमाल की आँखें न सह सकी, उन में पानी आ गया । इस का कारण पूछने पर यशोभद्रा ने राजा से कहा -- महाराज, आज इसको इतनी उमर हो गर्इ, कभी इसने रत्नमयी दीये को छोड़कर ऐसे दीये को नहीं देखा । इसलिए इसकी आँखों में पानी आ गया है । यशोभद्रा जब दोनों को भोजन कराने बैठी तब सुकुमाल अपनी थाली में परोसे हुये एक-एक चावल को बीन-बीन कर खाने लगा । देखकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने यशोभद्रा से इसका भी कारण पूछा । यशोभद्रा ने कहा -- राजराजेश्वर, इसे जो चावल खाने को दिये जाते हैं वे खिले हुए कमलों में रखे जाकर सुगन्धित किये होते हैं । पर आज वे चावल थोड़े से होने से मैंने उन्हें दूसरे चावलों के साथ मिलाकर बना लिया । इससे यह एक-एक चावल चुन-चुनकर खाता है । राजा सुनकर बहुत ही खुश हुये । उन्होंने पुण्यात्मा सुकुमाल की बहुत ही प्रशंसा कर कहा – सेठानी जी, अब तक तो आपके कुँवर-साहब केवल आपके ही घर के सुकुमाल थे, पर अब मैं इनका अवन्ति-सुकुमाल नाम रखकर इन्हें सारे देश का सुकुमाल बनाता हूँ । मेरा विश्वास है कि मेरे देश-भर में इस सुन्दरता का इस सुकुमारता का यही आदर्श है । इसके बाद राजा सुकुमाल को संग लिए महल के पीछे जल-क्रीड़ा करने बावड़ी पर गये । सुकुमाल के साथ उन्होंने बहुत देर तक जल-क्रीड़ा की । खेलते समय राजा की उॅंगली में से अँगुठी निकलकर क्रीड़ा-सरोवर में गिर गर्इ । राजा उसे ढूँढ़ने लगे । वे जल के भीतर देखते है तो उन्हें उसमें हजारों बड़े-बड़े सुन्दर और कीमती भूषण देख पड़े । उन्हें देखकर राजा की अकल चकरा गर्इ । वे सुकुमाल के अनन्त वैभव को देखकर बड़े चकित हुए । वे यह सोचते हुए, कि यह सब पुण्य की लीला है, कुछ शरमिन्‍दा से होकर महल लौट आये ।

सज्जनों, सुनो -- धन-धान्यादि सम्पदा का मिलना, पुत्र, मित्र और सुन्दर स्त्री का प्राप्त होना, बन्धु-बान्धवों का सुखी होना, अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषणों का होना, दुमंजले, तिमंजले आदि मनोहर महलों में रहने को मिलना, खाने-पीने को अच्छी-से-अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होना, विद्वान होना, नीरोग होना, आदि जितनी सुख सामग्री हैं, वह सब जिनेन्द्र-भगवान् के उपदेश किये मार्ग पर चलने से जीवों को मिल सकती हैं । इसलिए दु:ख देनेवाले खोटे मार्ग को छोड़कर बुद्धिमानों को सुख का मार्ग और स्वर्ग-मोक्ष के सुख का बीज पुण्य-कर्म करना चाहिए । पुण्य जिन-भगवान् की पूजा करने से, पात्रों को दान देने से तथा व्रत, उपवास, ब्रह्यचर्य के धारण करने से होता है ।

एक दिन जैन तत्व के परम विद्वान सुकुमाल के मामा गणधराचार्य सुकुमाल की आयु बहुत थोड़ी रही जानकर उसके महल के पीछे के बगीचें में आकर ठहरे और चातुर्मास लग जाने से उन्होंने वहीं योग धारण कर लिया । यशोभद्रा को उनके आने की खबर हुर्इ । वह जाकर उसे कह आर्इ । कि प्रभो, जबतक आपका योग पूरा न हो तबतक आप कभी ऊॅंचे से स्वाध्याय या पठन-पाठन न कीजिएगा । जब उसका योग पूरा हुआ तब उन्होंने अपने योग-सम्बन्धी सब क्रियाओं के अन्त में लोक-प्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरू किया । उसमें उन्होंने अच्युत स्वर्ग के देवों की आयु, उनके शरीर की ऊँचार्इ आदि का खूब अच्छी तरह वर्णन किया । उसे सुनकर सुकुमाल को जाति-स्मरण हो गया । पूर्व-जन्म में पाये दु:खों को याद कर वह काँप उठा । वह उसी समय चुपके से महल से निकलकर मुनिराज के पास आ गया और उन्हें भक्ति से नमस्कार कर उनके पास बैठ गया । और मुनि ने उससे कहा -- बेटा, अब तुम्हारी आयु सिर्फ तीन दिन की रह गर्इ है, इसलिए अब तुम्हें इन विषय-भोगों को छोड़कर अपना आत्म-हित करना उचित है । ये विषय-भोग पहले कुछ अच्छे से मालूम होते हैं, पर इनका अन्त बड़ा ही दु:खदायी है । जो विषय-भोगों की धुन में ही मस्त रहकर अपने हित की ओर ध्यान नहीं देते, उन्हें कुगतियों के अनन्त दु:ख उठाना पड़ता है । तुम समझो सियाले में आग बहुत प्यारी लगती है, पर जो उसे छुएगा वह तो जलेगा ही । यही हाल इन ऊपर के स्वरूप से मन को लुभाने वाले विषयों का है । इसलिये ऋषियों ने इन्हें ‘भोगाभुजंग भोगाभा:’ अर्थात् सर्प के समान भयंकर कहकर उल्लेख किया है । विषयों को भोगकर आज तक कोर्इ सुखी नहीं हुआ, तब फिर ऐसी आशा करना कि इनसे सुख मिलेगा, नितान्त भूल है । मुनिराज का उपदेश सुनकर सुकुमाल को बड़ा वैराग्य हुआ । वह उसी समय सुख देने वाली जिनदीक्षा लेकर मुनि हो गया । मुनि होकर सुकुमाल वन की ओर चल दिया । उसका यह अन्तिम जीवन बड़ा ही करुणा से भरा हुआ है । कठोर से कठोर चित्त वाले मनुष्यों तक के हृदयों को हिला देने वाला है । सारी जिन्दगी में कभी जिनकी आँखो से आँसू न झरे हो, उन आँखों में भी सुकुमाल का यह जीवन आँसू ला देने वाला है । पाठकों को सुकुमाल की सुकुमारता का हाल मालूम है कि यशोभद्रा ने जब उसकी आरती उतारी थी, तब जो मंगल द्रव्‍य सरसों उस पर डाली गई थी, उन सरसों के चुभने को सुकुमाल सह न सका था । यशोभद्रा ने उसके लिये रत्नों का बहुमूल्य कम्बल खरीदा था, पर उसने उसे कठोर होने से ही ना-पास कर दिया था । उसकी माँ का उस पर इतना प्रेम था, उसने उसे इस प्रकार लाड़-प्यार से पाला था कि सुकुमाल को कभी जमीन पर तक पाँव देने का मौका नहीं आया था । उसी सुकुमार सुकुमाल ने अपने जीवनभर के रूप से बहे प्रवाह को कुछ ही मिनटों के उपदेश से बिलकुल ही उल्टा बहा दिया । जिसने कभी यह नहीं जाना कि घर बाहर क्या है, वह अब अकेला भयंकर जंगल में जा बसा । जिसने स्वप्न में भी कभी दु:ख नहीं देखा, वही अब दुखों का पहाड़ अपने सिर पर उठा लेने को तैयार हो गया । सुकुमाल दीक्षा लेकर वन की ओर चला । कंकरीली जमीन पर चलने से उसके फूलों से कोमल पाँवों में कंकर-पत्थरों के गड़ने से घाव हो गये । उनसे खून की धारा बह चली । पर धन्य सुकुमाल की सहनशीलता जो उसने उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं झाँका । अपने कर्तव्य में वह इतना एक-निष्ठ हो गया, इतना तन्मय हो गया कि उसे इस बात का भान ही न रहा कि मेरे शरीर की क्या दशा हो रही है । सुकुमाल की सहनशीलता की इतने में समाप्ति नहीं हो गर्इ । अभी और आगे बढ़िये और देखिये कि वह अपने को इस परीक्षा में कहाँ तक उत्तीर्ण करता है ।

पाँवों से खून बहता जाता है और सुकुमाल मुनि चले जा रहे हैं । चलकर वे एक पहाड़ी की गुफा में पहुँचे । वहाँ वे ध्यान लगाकर बारह-भावनाओं का विचार करने लगे । उन्होंने प्रायोपगमन संन्यास एक पाँव से खड़े रहने का ले लिया, जिसमें कि किसी से अपनी सेवा-सुश्रुषा भी कराना मना किया है । सुकुमाल मुनि तो इधर आत्म-ध्यान में लीन हुए । अब जरा इनके वायुभूति के जन्म को याद कीजिये ।

जिस समय वायुभूति के बड़े भार्इ अग्निभूति मुनि हो गये थे, तब इनकी स्त्री ने वायुभूति से कहा था कि देखो, तुम्हारे कारण से ही तुम्हारे भार्इ मुनि हो गये सुनती हूँ, तुमने अन्याय कर मुझे दु:ख के सागर में ढकेल दिया । चलो, जब तक वे दीक्षा न ले जाँय उसके पहले उन्हें हमतुम समझा-बुझाकर घर लौटा लावें । इस पर गुस्सा होकर वायुभूति ने अपनी भाभी को बुरी-भली सुना डाली थी, और फिर ऊपर से उसपर लात भी जमा दी थी । तब उसने निदान किया था कि पापी, तूने, मुझे निर्बल समझ मेरा जो अपमान किया है, मुझे कष्ट पहुँचाया है, यह ठीक है कि मैं इस समय इसका बदला नहीं चुका सकती । पर याद रख कि इस जन्म में नहीं तो पर जन्म में सही, पर बदला लूँगी और घोर बदला लूँगी ।

इसके बाद वह मरकर अनेक कुयोनियो में भटकी । अन्त में वायुभूति तो यह सुकुमाल हुए और उसकी भौजी सियारनी हुर्इ । जब सुकुमाल मुनिवन की ओर रवाना हुए और उनके पाँवों में कंकर, पत्थर, काँटे वगैरह लगकर खून बहने लगा, तब यही सियारनी अपने पिल्लों को साथ लिए उस खून को चाटती-चाटती वहीं आ गर्इ जहाँ सुकुमाल मुनि ध्यान में मग्न हो रहे थे । सुकुमाल को देखते ही पूर्व-जन्म के संस्कार से सियारनी को अत्यन्त क्रोध आया । वह उनकी ओर घूरती हुर्इ उनके बिलकुल नजदीक आ गर्इ । उसका क्रोध भाव उमड़ा । उसने सुकुमाल को खाना शुरू कर दिया । उसे खाते देखकर उसके पिल्ले भी खाने लग गये । जो कभी एक तिनके का चुभ जाना भी नहीं सह सकता था, वह आज ऐसे घोर कष्ट को सहकर भी सुमेरू सा निश्चल बना हुआ था । जिसके शरीर को एक साथ चार हिंसक जीव बड़ी निर्दयता से खा रहे हैं, तब भी जो रंचमात्र हिलता-डुलता तक नहीं । उस महात्मा की इस अलौकिक सहन-शक्ति का किन शब्दों में उल्लेख किया जाय, यह बुद्धि में नहीं आता । तब भी जो लोग एक ना-कुछ चीज काँटे के लग जाने से तलमला उठते हैं, वे अपने हृदय में जरा गंभीरता के साथ विचारकर देखें कि सुकुमाल मुनि को आदर्श सहन-शक्ति कहाँ तक बढ़ी चढ़ी थी और उनका हृदय कितना उच्च था । सुकुमाल मुनि की यह सहन-शक्ति उन कर्तव्यशील मनुष्यों को अप्रत्यक्षरूप में शिक्षा कर रही है कि अपने उच्च और पवित्र कामों में आने वाले विघ्नों की परवाह मत करो । विघ्नों को आने दो और खूब आने दो । आत्मा की अनन्त शक्तियों के सामने ये विघ्न कुछ चीज नहीं, किसी गिनती में नहीं । तुम अपने पर विश्वास करो, भरोसा करो । हर एक कामों में आत्मदृढ़ता, आत्मविश्वास, उनके सिद्ध होने का मूल-मंत्र है । जहाँ ये बातें नहीं वहाँ मनुष्यता भी नहीं । तब कर्तव्यशीलता तो फिर योजनों की दूरी पर है । सुकुमाल यद्यपि सुखिया जीव थे, पर कर्तव्यशीलता उनके पास थी । इसीलिए देखने वालों के भी हृदय को हिला देने वाले कष्ट में भी वे अचल रहे ।

सुकुमाल मुनि को उस सियारनी ने पूर्व-बैर के सम्बन्ध में तीन दिन तक खाया । पर वे मेरू के समान धीर रहे । दु:ख की उन्होंने कुछ परवाह न की । यहाँ तक कि अपने को खाने वाली सियारनी पर भी उनके बुरे भाव न हुए । शत्रु और मित्र को समभावों से देखकर उन्होंने अपना कर्तव्य पालन किया । तीसरे दिन सुकुमाल शरीर छोड़कर अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुए ।

वायुभुति की भौजी ने निदान के वश सियारनी होकर अपने बैर का बदला चुका लिया । सच है, निदान करना अत्यन्त दु:खों का कारण है । इसीलिए भव्य-जनों को यह पाप का कारण निदान कभी नहीं करना चाहिए । इस पाप के फल से सियारनी मरकर कुगति में गर्इ ।

कहाँ वे मन को अच्छे लगने वाले भोग और कहाँ यह दारूण तपस्या । सच तो यह है कि महापुरूषों का चरित्र कुछ विलक्षण हुआ करता है । सुकुमाल मुनि अच्युत स्वर्ग में देव होकर अनेक प्रकार के दिव्य-सुखों को भोगते हैं और जिनभगवान् की भक्ति में सदा लीन रहते हैं । सुकुमाल मुनि की इस वीर-मृत्यु के उपलक्ष्य में स्वर्ग के देवों ने आकर उनका बड़ा उत्सव मनाया । ‘जयजय’ शब्द द्वारा महाकोलाहल हुआ । इसी दिन से उज्जैन में महाकाल नाम के कुतीर्थ की स्थापना हुर्इ, जिसके कि नाम से अगणित जीव रोज वहाँ मारे जाने लगे । और देवों ने जो सुगन्ध जल की वर्षा की थी, उससे वहाँ की नदी गन्धवती नाम से प्रसिद्ध हुर्इ ।

जिसने दिन-रात विषय-भोगों में ही फँसे रहकर अपनी सारी जिन्दगी बितार्इ, जिसने कभी दु:ख का नाम भी न सुना था, उस महापुरूष सुकुमाल ने मुनिराज द्वारा अपनी तीन दिन की आयु सुनकर उसी समय माता, स्त्री, पुत्र आदि स्वजनों को, धन-दौलत को और विषय-भोगों को छोड़-छाड़कर जिनदीक्षा ले ली और अन्त में पशुओं द्वारा दु:सह कष्ट सहकर भी जिसने बड़ी धीरज और शान्ति के साथ मृत्यु को अपनाया । वे सुकुमाल मुनि मुझे कर्तव्य के लिए कष्ट सहने की शक्ति प्रदान करें ।