+ सुकौशल मुनि की कथा -
सुकौशल मुनि की कथा

  कथा 

कथा :

जग-पवित्र जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी और गुरूओं को नमस्कार कर सुकोशल मुनि की कथा लिखी जाती है ।

अयोध्या में प्रजापाल राजा के समय में एक सिद्धार्थ नाम के नामी सेठ हो गये हैं । उनके कोर्इ बत्तीस अच्छी-अच्छी सुन्दर स्त्रियाँ थीं । पर खोटे भाग्य से इनमें किसी के कोर्इ सन्तान न थी । स्त्री कितनी भी सुन्दर हो, गुणवती हो, पर बिना सन्तान के उसकी शोभा नहीं होती । जैसे बिना फल-फूल के लताओं की शोभा नहीं होती । इन स्त्रियों में जो सेठ की खास प्राण-प्रिया थी, जिसपर सेठ महाशय का अत्यन्त प्रेम था, वह पुत्र-प्राप्ति के लिए सदा कुदेवों की पूजा-मानता किया करती थी । एक दिन उसे कुदेवों की पूजा करते एक मुनिराज ने देख लिया । उन्होंने तब उससे कहा -- बहिन, जिस आशा से तू इन कुदेवों की पूजा करती है वह आशा ऐसा करने से सफल न होगी । कारण सुख-सम्पत्ति, सन्तान प्राप्ति, नीरोगता, मान-मर्यादा, सद्बुद्धि आदि जितनी अच्छी बातें हैं, उन सबका कारण पुण्य है । इसलिए यदि तू पुण्य-प्राप्ति के लिए कोर्इ उपाय करे तो अच्छा हो । मैं तुझे तेरे हित की बात कहता हूँ कि इन यक्षादिक कुदेवों की पूजा-मानता छोड़कर, जो कि पुण्य-बन्ध का कारण नहीं है, जिनधर्म का विश्वास कर । इससे तू सत्य पर आ जायेगी और फिर तेरी आशा भी पूरी होने लगेगी । जयावती को मुनि का उपदेश रूचा और वह अब से जिन-धर्म पर श्रद्धा करने लगी । चलते समय उसे ज्ञानी मुनि ने यह भी कह दिया था कि जिसकी तुझे चाह है वह चीज तुझे सात वर्ष के भीतर-भीतर अवश्य प्राप्त होगी । तू चिन्ता छोड़कर धर्म का पालन कर । मुनि का यह अन्तिम वाक्य सुनकर जयावती को बड़ी भारी खुशी हुर्इ । और क्यों न हो ? जिसकी कि वर्षों से उसके हृदय में भावना थी वही भावना तो अब सफल होने को है न ! अस्तु ।

मुनि का कथन सत्य हुआ । जयावती ने धर्म के प्रसाद से पुत्र-रत्न का मुँह देख पायी । उसका नाम रखा गया सुकोशल । सुकोशल खूबसूरत और साथ ही तेजस्वी था ।

सिद्धार्थ सेठ विषय-भोगों को भोगते-भोगते कंटाल गये थे । उनके हृदय की ज्ञानमयी आँखों ने उन्हें अब संसार का सच्चा स्वरूप बतलाकर बहुत डरा दिया था । वे चाहते तो नहीं थे कि एक मिनट भी संसार में रहें, पर अपनी सम्पत्ति को सम्हाल लेने वाला कोर्इ न होने से पुत्र-दर्शन तक, उन्हें लाचारी से घर में रहना पड़ा । अब सुकोशल हो गया, इसका उन्हें बड़ा आनन्द हुआ । वे पुत्र का मुख-चन्द्र देखकर और अपने सेठ-पद का उसका ललाट पर तिलककर आप श्रीनयंधर मुनिराज के पास दीक्षा लेने गये ।

अभी बालक को जन्मते ही तो देर न हुर्इ कि सिद्धार्थ सेठ घर-बार छोड़कर येागी हो गये । उनकी इस कठोरता पर जयावती को बड़ा गुस्सा आया । न केवल सिद्धार्थ पर ही उसे गुस्सा आया, किन्तु नयंधर मुनि पर भी । इसलिए कि उन्हें इस सिद्धार्थ को दीक्षा देना उचित न था और इसी कारण मुनिमात्र पर उसकी अश्रद्धा हो गर्इ । उसने अपने घर में मुनियों का आना-जाना बन्द करा दिया । बड़े दु:ख की बात है कि यह जीव मोह के वश हो धर्म को भी छोड़ बैठता है । जैसे जन्म का अन्धा हाथ में आये चिन्तामणि को खो बैठता है ।

वय: प्राप्त होने पर सुकोशल का अच्छे-अच्छे घराने की कोर्इ बत्तीस कन्या-रत्नों से ब्याह हुआ । सुकोशल के दिन अब बड़े ऐशो आराम के साथ बीतने लगे । माता का उसपर अत्यन्त प्यार होने से नित नर्इ वस्तुएँ उसे प्राप्त होती थी । सैंकड़ो दास-दासियाँ उसकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करती थी । वह जो कुछ चाहता वह कार्य उसकी आँखों के इशारे-मात्र से होता था । सुकोशल को कभी कोर्इ बात के लिए चिन्ता न करनी पड़ती थी । सच है, जिनके पुण्य का उदय होता है उन्हें सब सुख-सम्पत्ति सहज में प्राप्त हो जाती है ।

एक दिन सुकोशल, उसकी माँ, उसकी स्त्री और उसकी धाय के साथ महल पर आ बैठा अयोध्या की शोभा तथा मन को लुभाने वाली प्रकृति देवी को, नर्इ-नर्इ सुन्दर छटाओं को देख-देखकर बड़ा ही खुश हो रहा था । उसकी दृष्टि कुछ दूर तक गर्इ । उसने एक मुनिराज को देखा । ये मुनि इसके पिता सिद्धार्थ ही थे । इस समय कर्इ अन्य नगरों और गाँवों में विहार करते हुए ये आ रहे थे । इनके बदन पर नाम-मात्र के लिए भी वस्त्र न देखकर सुकोशल को बड़ा चकित हुआ । इसलिए कि पहले कभी उसने मुनि को देखा नहीं था । उनका अजब वेश देखकर सुकोशल ने माँ से पूछा -- माँ, यह कौन हैं ? सिद्धार्थ को देखते ही जयावती की आँखों से खून बरस गया । वह कुछ घृणा और कुछ उपेक्षा को लिए बोली-- बेटा, होगा कोर्इ भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब ! परन्तु अपनी माँ के इस उत्तर से सुकोशल को सन्तोष नहीं हुआ । उसने फिर पूछा -- माँ, यह तो बड़ा ही खूबसूरत और तेजस्वी देख पड़ता है । तुम इसे भिखारी कैसे बताती हो ? जयावती को अपने स्वामी से घृणा करते देख सुकोशल की धाय सुनन्दा से न रहा गया । वह बोल उठी – अरी ओ, तू इन्हें जानती है कि ये हमारे मालिक हैं । फिर भी तू इनके सम्बन्ध में ऐसा उलटा सुझा रही है ? तुझे यह योग्य नहीं । क्या हो गया यदि ये मुनि हो गये तो ? इसके लिए क्या तुझे इनकी निन्दा करनी चाहिए ? इसकी बात पूरी भी न हो पार्इ थी कि सुकोशल की माँ ने उसे आँख के इशारे से रोककर कह दिया कि चुप क्यों नहीं रह जाती । तुझसे कौन पूछता है, जो बीच में ही बोल उठी ! सच है, दुष्ट स्त्रियों के मन में धर्म-प्रेम कभी नहीं होता । जैसे जलती हुर्इ आग का बीच का भाग ठंडा नहीं होता ।

सुकोशल ठीक तो न समझ पाया, पर उसे इतना ज्ञान हो गया कि माँ ने मुझे सच्ची बात नहीं बतलार्इ । इतने में रसोइया सुकोशल को भोजन कर आने के लिए बुलाने आया । उसने कहा -- प्रभो चलिए! बहुत समय हो गया । सब भोजन ठंडा हुआ जाता है । सुकोशल ने तब भोजन के लिए इंकार कर दिया । माता और स्त्रियों ने बहुत आग्रह किया, पर वह भोजन करने को नहीं गया । उसने साफ-साफ कह दिया कि जब-तक मैं उस महापुरूष का सच्चा-सच्चा हाल न सुन लूँगा तबतक भोजन नहीं करूँगा । जयावती को सुकोशल के इस आग्रह से कुछ गुस्सा आ गया, सो वह तो वहाँ से चल दी पीछे सुनन्‍दा ने सिद्धार्थ मुनि की सब बातें सुकोशल से कह दीं । सुनकर सुकोशल को कुछ दु:ख भी हुआ, पर साथ ही वैराग्य ने उसे सावधान कर दिया । वह उसी समय सिद्धार्थ मुनिराज के पास गया और उन्हें नमस्कार कर धर्म का स्वरूप सुनने की उसने इच्छा प्रकट की । सिद्धार्थ ने उसे मुनिधर्म और ग्रहस्थ धर्म का खुलासा स्वरूप समझा दिया । सुकोशल को मुनिधर्म बहुत पसन्द पड़ा । वह मुनिधर्म की भावना भाता हुआ घर आया और सुभद्रा के गर्भस्थ सन्तान को अपने सेठ-पद का तिलक कर तथा सब माया-ममता, धन-दौलत और स्वजन-परिजन को छोड़-छाड़कर श्री सिद्धार्थ मुनि के पास ही दीक्षा लेकर योगी बन गया । सच है, जिसे पुण्योदय से धर्म पर प्रेम है और जो अपना हित करने के लिए सदा तैयार रहता है, उस महापुरूष को कौन झूठी-सच्ची सुझाकर अपने कैद में रख सकता है, उसे धोखा दे ठग सकता है ?

एक-मात्र पुत्र और वह भी योगी बन गया । इस दु:ख से जयावती के हृदय पर बड़ी गहरी चोट लगी । वह पुत्र-दु:ख से पगली सी बन गर्इ । खाना-पीना उसके लिए जहर हो गया । उनकी सारी जिन्दगी ही धूलघानी हो गर्इ । वह दु:ख और चिन्ता के मारे दिनों-दिन सूखने लगी । जब देखो तब ही उसकी आँखें आँसुओं से भरी रहती । मरते दम तक वह पुत्र-शोक को न भूल सकी । इसी चिन्ता, दु:ख, आर्त्त-ध्यान से उसके प्राण निकले । इस प्रकार बुरे भावों से मरकर मगध देश के मोद्गिल नाम के पर्वत पर उसने व्याघ्री का जन्म लिया । उसके तीन बच्चे हुए । यह अपने बच्चों के साथ पर्वत पर ही रहती थी । सच है, जो जिनेन्द्र भगवान् के पवित्र-धर्म को छोड़ बैठते हैं, उनकी ऐसी ही दुर्गति होती है ।

विहार करते हुए सिद्धार्थ और सुकोशल मुनि ने भाग्य से इसी पर्वत पर आकर योग धारण कर लिया । योग पूरा हुए बाद जब ये भिक्षा के लिए शहर में जाने के लिए पर्वत पर से नीचे उतर रहे थे उसी समय वह व्याघ्री, जो कि पूर्व जन्म में सिद्धार्थ की स्त्री और सुकोशल की माता थी, इन्हें खाने- को दौड़ी और जब-तक कि ये संन्यास लेकर बैठते हैं, उसने इन्हें खा लिया । ये पिता-पुत्र समाधि से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर देव हुए । वहाँ से आकर अब वे निर्वाण लाभ करेंगे । ये दोनों मुनिराज आप भव्य जनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ।

जिस समय व्याघ्री ने सुकोशल को खाते-खाते उनका हाथ खाना शुरू किया, उस समय उसकी दृष्टि सुकोशल के हाथों के लांछनों (चिन्हों) पर जा पड़ी । उन्हें देखते ही इसे अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान हो गया । जिसे वह खा रही है, वह उसी का पुत्र है, जिसपर उसका बेहद प्यार था, उसे ही वह खा रही है, यह ज्ञान होते ही उसे जो दु:ख, जो आत्म-ग्लानि हुर्इ , वह लिखी नहीं जा सकती । वह सोचती है, हाय! मुझ सी पापिनी कौन होगी जो अपने ही प्यारे पुत्र को मैं आप ही खा रही हूँ ! धिक्कार है मुझसी मूर्खिनी को जो पवित्र धर्म को छोड़कर अनन्त संसार को अपना वास बनती है । उस मोह को, उस संसार को धक्किार है जिसके वश हो यह जीव अपने हित-अहित को भूल जाता है और फिर कुमार्ग में फँसकर दुर्गतियों में दु:ख उठाता है । इसप्रकार अपने किये कर्मों की बहुत कुछ आलोचना कर उस व्याघ्री ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अन्त में शुद्धभावों से मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में देव हुर्इ । सच है, जीवों की शक्ति अद्भुत् ही हुआ करती है और जैनधर्म का प्रभाव भी संसार से बड़ा ही उत्तम है । नहीं तो कहाँ तो पापिनी व्याघ्री और कहाँ उसे स्वर्ग की प्राप्ति ! इसलिए जो आत्म-सिद्धि के चाहने वाले हैं, उन भव्यजनों को स्वर्ग-मोक्ष को देनेवाले पवित्र जैन-धर्म का पालन करना चाहिए ।

श्री मूल-संघ रूपी अत्यन्त ऊँचे उदयाचल से उदय होने वाले मेरे गुरू श्री मल्लिभूषण रूपी सूर्य संसार में सदा प्रकाश करते रहें ।

वे प्रभाचन्द्राचार्य विजय लाभ करें जो ज्ञान के समुद्र हैं । देखिए, समुद्र में रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किये हैं । समुद्र में तरंगें होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किये हैं । समुद्र में तरेंगे होती हैं, ये भी सप्त-भंगी रूपी तरंगों से युक्त हैं, स्याद्वाद विद्या के बड़े ही विद्वान् हैं । समुद्र की तरंगे जैसे कूड़़ा-करकट निकाल बाहर फेंक देती है, इसी तरह से अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्व रूपी कूड़े-करकट को हटाकर दूर करते थे, अन्य मतों के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजयलाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द रूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि भयानक मगरमच्छ न थे । समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिनेन्द्र भगवान् का वचनमयी निर्मल अमृत समाया हुआ था । और समुद्र में अनेक तरह के बिकने योग्य वस्तुएँ रहती हैं, ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्य रूपी विक्रय-वस्तु को धारण किये थे ।