+ गजकुमार मुनि की कथा -
गजकुमार मुनि की कथा

  कथा 

कथा :

जो अपने गुणों से संसार में प्रसिद्ध हुए और सब कामों को करके सिद्धि, कृत्यकृत्यता लाभ की है, उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर गजकुमार मुनि की कथा लिखी जाती है ।

नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र हुर्इ प्रसिद्ध द्वारका के अर्धचक्री वासुदेव की रानी गन्धर्वसेना से गजकुमार का जन्म हुआ था । गजकुमार बड़ा वीर था । उसके प्रताप को सुनकर ही शत्रुओं की विस्तृत मानरूपी बेल भस्म हो जाती थी ।

पोदनपुर के राजा अपराजित ने तब बड़ा उपद्रव उठा रखा था । वासुदेव ने उसे अपने काबू में लाने के लिये अनेक यत्न किये, पर वह किसी तरह इनके हाथ न पड़ा । तब इन्होंने शहर में यह डोंडी पिटवार्इ कि जो मेरे शत्रु अपराजित को पकड़कर लाकर मेरे सामने उपस्थित करेगा, उसे उसका मनचाहा वर मिलेगा । गजकुमार डोंडी सुनकर पिता के पास गया और हाथ जोड़कर उसने स्वयं अपराजित पर चढ़ार्इ करने की प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना मंजूर हुर्इ । वह सेना लेकर अपराजित पर जा चढ़ा । दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ । अन्त में विजयलक्ष्मी ने गजकुमार का साथ दिया । अपराजित को पकड़कर लाकर उसने पिता के सामने उपस्थित कर दिया । गजकुमार की इस वीरता को देखकर वासुदेव बहुत खुश हुए । उन्होंने उसकी इच्छानुसार वर देकर उसे सन्तुष्ट किया ।

ऐसे बहुत कम अच्छे पुरूष निकलते हैं जो मन-चाहा वर लाभ कर सदाचारी और सन्तोषी बने रहें । गजकुमार की भी यही दशा हुर्इ । उसने मनचाहा वर पिताजी से लाभकर अन्याय की ओर कदम बढ़ाया । वह पापी जबरदस्ती अच्छे-अच्छे घरों की सती स्त्रियों की इज्जत लेने लगा । वह ठहरा राजकुमार, उसे कौन रोक सकता था ! और जो रोकने की कुछ हिम्मत करता तो वह उसकी आँखो का काँटा खटकने लगता और फिर गजकुमार उसे जड़मूल से उखाड़कर फेंकने का यत्न करता । उस काम को, उस दुराचार को धिक्कार है, जिसके वश हो मूर्ख-जनों को लज्जा और भय भी नहीं रहता है ।

इसी तरह गजकुमार ने अनेक अच्छी-अच्छी कुलीन स्त्रियों की इज्जत ले डाली । पर इसके दबदबे से किसी ने चूँ तक न किया । एक दिन पांसुल सेठ की सुरति नाम की स्त्री पर इसकी नजर पड़ी और इसने उसे खराब भी कर दिया । यह देख पांसुल का हृदय क्रोधाग्नि से जलने लगा । पर वह बेचारा इसका कुछ कर नहीं सकता था । इसीलिये उसे भी चुपचाप घर में बैठ रह जाना पड़ा ।

एक दिन भगवान् नेमिनाथ भव्य-जनों के पुण्योदय से द्वारका में आये । बलभद्र, वासुदेव तथा और भी बहुत से राजे-महाराजे बड़े आनन्द के साथ भगवान् की पूजा करने को गये । खूब भक्ति-भावों से उन्होंने स्वर्ग-मोक्ष का सुख देनेवाले भगवान् की पूजा-स्तुति की, उनका ध्यान-स्मरण किया । बाद गृहस्थ और मुनिधर्म का भगवान् के द्वारा उन्होंने उपदेश सुना, जो कि अनेक सुखों को देनेवाला है । उपदेश सुनकर सभी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने बार-बार भगवान् की स्तुति की । सच है, साक्षात् सर्वज्ञ भगवान् क दिया सर्वोपदेश सुनकर किसे आनन्द या खुशी न होगी । भगवान् के उपदेश का गजकुमार के हृदय पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा । वह अपने किये पाप-कर्मों पर बहुत पछताया । संसार से उसे बड़ी घृणा हुर्इ । वह उसी समय भगवान् के पास ही दीक्षा ले गया, जो संसार के भटकने को मिटाने वाली है । दीक्षा लेकर गजकुमार मुनि विहार कर गये । अनेक देशों और नगरों में विहार करते, और भव्यजनों को धर्मोपदेश द्वारा शान्तिलाभ कराते अन्त में वे गिरनार-पर्वत के जंगल में आये । उन्हें अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी । इसलिए वे प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्म-चिंतवन करने लगे । तब इनकी ध्यान-मुद्रा बड़ी निश्चल और देखने योग्य थी ।

इनके संन्यास का हाल पांसुल सेठ को जान पड़ा, जिसकी स्त्री को गजकुमार ने अपने दुराचारीपने की दशा में खराब किया था । सेठ को अपना बदला चुकाने का बड़ा अच्छा मौका हाथ लग गया । वह क्रोध से भर्राता हुआ गजकुमार मुनि के पास पहुँचा और उनके सब सन्धि स्थानों में लोहे के बड़े-बड़े कीलें ठोककर चलते बना । गजकुमार मुनि पर उपद्रव तो बड़ा ही दु:सह हुआ पर वे जैन-तत्त्व के अच्छे अभ्यासी थे, अनुभवी थे इसलिये उन्होंने इस घोर कष्ट को एक तिनके के चुभने की बराबर भी न गिन बड़ी शान्ति और धीरता के साथ शरीर छोड़ा । यहाँ से ये स्वर्ग में गये । वहाँ अब चिरकाल तक वे सुख भोगेंगे । अहा ! महापुरूषों का चरित बड़ा ही अचंभा पैदा करनेवाला होता है । देखिये कहाँ तो गजकुमार मुनि को ऐसा दु:सह कष्ट और कहाँ सुख देनेवाली पुण्य समाधि ! इसका कारण सच्चा तत्त्व-ज्ञान है । इसलिये इस महत्ता को प्राप्त करने के लिए तत्त्व-ज्ञान अभ्यास करना सबके लिए आवश्यक है ।

सारे संसार के प्रभु कहलाने वाले जिनेन्द्र-भगवान के द्वारा सुख के कारण धर्म का उपदेश सुनकर जो गजकुमार अपनी दुर्बुद्धि को छोड़कर पवित्र बुद्धि के धारक और बड़े भारी सहन-शील योगी हो गये, वे हमें भी सुबुद्धि और शान्ति प्रदान करें, जिससे हम भी कर्तव्य के लिये कष्ट सहने में समर्थ हो सकें ।