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भद्रबाहु मुनिराज की कथा

  कथा 

कथा :

संसार कल्याण करनेवाले और देवों द्वारा नमस्कार किये गये श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर पंचम श्रुत-केवली श्रीभद्रबाहु मुनिराज की कथा लिखी जाती है, जो कथा सबका हित करनेवाली है ।

पुण्ड्रवर्द्धन देश के कोटीपुर नामक नगर के राजा पद्मरथ के समय वहाँ सोमशर्मा नाम का एक पुरोहित ब्राह्मण हो गया है । इस की स्त्री का नाम श्रीदेवी था । कथा-नायक भद्रबाहु इसी के लड़के थे । भद्रबाहु बचपन से ही शान्त और गम्भीर प्रकृति के थे । उनके भव्य चेहरे को देखने से यह झट से कल्पना होने लगती थी कि ये आगे चलकर कोर्इ बड़े भारी प्रसिद्ध महापुरूष होंगे । क्योंकि यह कहावत बिलकुल सच्ची है कि ‘पूत के पग पालने में ही नजर आ जाते हैं’ । अस्तु !

जब भद्रबाहु आठ वर्ष के हुए और इनकी यज्ञोपवीत और मौञ्जी बन्धन हो चुका था तब एक दिन की बात है कि ये अपने साथी बालकों के साथ खेल रहे थे । खेल था गोलियों का । सब अपनी-अपनी हुशियारी और हाथों की सफार्इ गोलियों को एक पर एक रखकर दिखला रहे थे । किसी ने दो, किसी ने चार किसी ने छह और किसी-किसी ने अपनी होशियारी से आठ गोलियाँ तक ऊपर तले चढ़ा दी । पर हमारे कथानायक भद्रबाहु इन सबसे बढ़कर निकले । इन्होंने एक साथ कोर्इ चौदह गोलियाँ तले ऊपर चढ़ा दी । सब बालक देखकर दंग रह गये । इसी समय एक घटना हुर्इ । वह यह कि श्री वर्द्धमान भगवान को निर्वाण लाभ किये बाद होने वाले पाँच श्रुतकेवलियों में चौदह महापूर्व के जाननेवाले चौथे श्रुतकेवली श्रीगोवर्द्धनाचार्य गिरनार की यात्रा को जाते हुए इस ओर आ गये । उन्होंने भद्रबाहु के खेल की इस चकित करने वाली चतुरता को देखकर निमित्‍त ज्ञान से समझ लिया कि पाँचवें होने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु ये ही होने चाहिए । भद्रबाहु से उनका नाम वगैरह जानने पर उन्हें और भी दृढ़ निश्चय हो गया । वे भद्रबाहु को साथ लेकर उसके घर पर गये । सोमशर्मा से उन्होंने भद्रबाहु को पढ़ाने के लिए माँगा । सोमशर्मा ने कुछ आनाकानी न कर अपने लड़के को आचार्य महाराज के सुपुर्द कर दिया । आचार्य ने भद्रबाहु को अपने स्थान पर लाकर खूब पढ़ाया और सब विषयो में उसे आदर्श विद्वान बना दिया । जब आचार्य ने देखा कि भद्रबाहु अच्छा विद्वान् हो गया है तब उन्होंने उसे वापिस घर लौटा दिया । इसलिए की कहीं सोमशर्मा यह न समझ ले कि मेरे लड़के को बहकाकर इन्होंने साधु बना लिया । भद्रबाहु घर गये सही पर उनका मन घर में न लगने लगा । उन्होंने माता-पिता से अपने साधु होने की प्रार्थना की । माता-पिता को उनकी इस इच्छा से बड़ा दु:ख हुआ । भद्रबाहु उन्हें समझा बुझाकर शान्त किया और आप सब माया मोह छोड़कर गोवर्द्धनाचार्य द्वारा दीक्षा ले योगी हो गये । सच है, जिसने तत्वों का स्वरूप समझ लिया वह फिर गृह-जंजाल को क्यों अपने सिर पर उठायेगा ? जिसने अमृत चख लिया है वो फिर क्यों खारा जल पीयेगा ? मुनि हूए बाद भद्रबाहु अपने गुरू महाराज गोवर्द्धचार्य का स्वर्गवास हो गया तब उनके बाद उनके पट्ट पर भद्रबाहु श्रुतकेवली ही बैठे । अब भद्रबाहु आचार्य अपने संघ को साथ लिये अनेक देशों और नगरों में अपने उपदेशामृत द्वारा भव्य-जन रूपोधान को बढ़ाते हुए उज्जैन की ओर आये और सारे संघ को एक पवित्र स्थान में ठहराकर आप आहार के लिए शहर में गये । जिस घर में इन्होंने पहले ही पाँव दिया वहाँ एक बालक पलने में झूल रहा था और जो अभी स्पष्ट बोलना तक न जानता था इन्हें घर में पाँव रखते देख वह सहसा बोल उठा कि ‘महाराज’ जाइए ! जाइए!! एक अबोध बालक को बोलता देखकर भद्रबाहु आचार्य बड़े चकित हुए । उन्हेंने उस पर निमित-ज्ञान से विचार किया तो उन्हें जान पड़ा कि यहाँ बारह वर्ष का भयानक दुभिक्ष पड़ेगा और वह इतना भीषण रूप धारण करेगा कि धर्म-कर्म की रक्षा तो दूर रहे, पर मनुष्यों को अपनी जान बचाना भी कठिन हो जायगा । भद्रबाहु आचार्य उसी समय अन्तराय कर लौट आये । शाम के समय उन्होंने अपने सारे संघ को इकट्ठा कर उनसे कहा साधुओं यहाँ बारह वर्ष का बड़ा भारी अकाल पड़ने वाला है, और तब धर्म-कर्म का निर्वाह होना कठिन ही नहीं असम्भव हो जायगा । इसलिए आप लोग दक्षिण दिशा की ओर जायें और मेरी आयु बहुत ही थोड़ी रह गर्इ है, इसलिए मैं इधर ही रहूँगा । यह कहकर उन्होंने दशपूर्व के जाननेवाले अपने प्रधान शिष्य श्रीविशाखाचार्य को चरित्र की रक्षा के लिए सारे संघ सहित दक्षिण की ओर रवाना कर दिया । दक्षिण की ओर जानेवाले मुनि उधर सुख शान्ति से रहें । उनका चारित्र निर्विघ्न पला । और सच है गुरू के वचनों को मानने वाले शिष्य सदा सुखी रहते हैं ।

सारे संघ को चला गया देख उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को उसके वियोग का बहुत रंज हुआ । उससे फिर वे भी दीक्षा ले मुनि बन गये और भद्रबाहु आचार्य की सेवा में रहे । आचार्य की आयु थोड़ी रह गर्इ थी, इसलिए उन्होंने उज्जैन में ही किसी एक बड़े के झाड़ के नीचे समाधि ले ली और भूख-प्यास आदि की परीषह जीत कर अन्त में स्वर्ग-लाभ किया । वे जैन-धर्म के सार-तत्त्व को जाननेवाले महान्त पस्वी श्रीभद्रबाहु आचार्य हमें सुखमयी सन्मार्ग में लगावें ।

सोमशर्मा ब्राह्यण के वंश के एक चमकते हुए रत्न जिन-धर्म रूप समुद्र के बढ़ाने को पूर्ण चन्द्रमा और मुनियों के योगियों के शिरोमणि श्रीभद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली हमें वह लक्ष्मी दे जो सर्वोच्च सुख की देनेवाली है, सब धन-दौलत, विभव-सम्पत्ति में श्रेष्ठ है ।