
कथा :
लोक और अलोक के प्रकाश करनेवाले उन्हें देख-जानकर स्वरूप् को समझाने वाले श्रीसर्वज्ञ भगवान को नमस्कार कर बत्तीस सेठ-पुत्रों की कथा लिखी जाती है । कौशाम्बी में बत्तीस सेठ थे । उनके नाम इन्द्रदत्त, जिनदत्त, सागरदत्त आदि । इनके पुत्र भी बत्तीस ही थे । उनके नाम समुद्रदत्त, वसुमित्र, नागदत्त, जिनदास आदि थे । ये सब ही धर्मात्मा थे, जिनभगवान के सच्चे भक्त थे, विद्वान थे, गुणवान थे और सम्यक्त्व रूपी रत्न से भूषित थे । इन सब की परस्पर में बड़ी मित्रता थी । यह एक इनके पुण्य का उदय कहना चाहिए जो सब ही धनवान सब ही गुणवान सब ही धर्मात्मा और सब की परस्पर में गाढ़ी मित्रता । बिना पुण्य के ऐसा योग कभी मिल ही नहीं सकता । एक दिन ये सब ही मित्र मिलकर एक केवलज्ञानी योगिराज की पूजा करने को गये । भक्ति से इन्होंने भगवान की पूजा की और फिर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना । भगवान से पूछने पर इन्हें जान पड़ा इनकी उमर अब बहुत थोड़ी रह गर्इ है । तब इस अन्त समय के आत्महित साधने के योग को जाने देना उचित न समझ इन सबही ने संसार का भटकना मिटानेवाली जिनदीक्षा ले ली । दीक्षा लेकर तपस्या करते हुए ये यमुना नदी के किनारे पर आये । यहीं इन्होंने प्रायोपगमन संन्यास ले लिया । भाग्य से इन्हीं दिनों में खूब जोर की वर्षा हुर्इ । नदी नाले सब पूर आ गये । यमुना भी खूब चढ़ी । एक जोर का ऐसा प्रवाह आया कि ये सभी मुनि उसमें बह गये । अन्त में समाधि-पूर्वक शरीर छोड़कर स्वर्ग गये । सच है महापुरूषों का चरित्र सुमेरू से कही स्थिर शाली होता है । स्वर्ग में दिव्य-सुखों को भोगते हुए वे सब जिनेन्द्र-भगवान की भक्ति में सदा लीन रहते हैं । कर्मों को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान सदा जयलाभ करें । उनका पवित्र शासन संसार में सदा रहकर जीवों का हित साधन करे । उनका सर्वोच्च चारित्र अनेक प्रकार के दु:सह कष्टों को सहकर भी मेरू सदृश स्थिर रहता है उसकी तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती है । वह संसार में सर्वोत्तम आदर्श है, भव-भ्रमण मिटाने वाला है, परम-सुख का स्थान है और मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि आत्म-शत्रुओं का नाश करने वाला है, उन्हें जड़-मूल से उखाड़ फैंक देने वाला है । हे भव्यजन ! आप भी इस उच्च आदर्श की प्राप्त करने का प्रयत्न करिये ताकि आप भी परम सुख मोक्ष के पात्र बन सकें । जिनेन्द्र भगवान इसके लिए आप सबको शक्ति प्रदान करें यही भावना है । |