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श्रीदत्त मुनि की कथा

  कथा 

कथा :

केवलज्ञान रूपी सर्वोच्च लक्ष्मी के जो स्वामी हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर श्रीदत्तमुनि की कथा लिखी जाती है । जिन्होंने देवों द्वारा दिये हुए कष्ट को बड़ी शान्ति से सहा ।

श्रीदत्त इलावर्द्धनपुरी के राजा जितशत्रु की रानी इला के पुत्र थे । अयोध्या के राजा अंशुमान की राजकुमारी अंशुमती से इनका ब्याह हुआ था । अंशुमती ने एक तोते को पाल रखा था । जब ये पति-पत्नी विनोद के लिए चौपड़ वगैरह खेलते तब तोता कौन कितनी बार जीता इसके लिए अपने पैर के नख से रेखा खींच दिया करता था । पर इसमें यह दुष्टता थी कि जब श्रीदत्त जीतता तब तो यह एक ही रेखा खींच दिया करता था । और जब अपनी मालकिन की जीत होती तब दो रेखाएँ खींच दिया करता था । आश्‍चर्य है कि पक्षी भी ठगार्इ कर सकते हैं । श्रीदत्त तोते की इस चाल को कर्इ बार तो सहन कर गया । पर आखिर उसे तोते पर बहुत गुस्सा आया । सो उसने तोते की गरदन पकड़कर मरोड़ दी । तोता उसी दम मर गया । बड़े कष्ट के साथ मरकर वह व्यन्तर देव हुआ ।

इधर साँझ को एक दिन श्रीदत्त अपने महल पर बैठा हुआ प्रकृति देवी की सुन्दरता को देख रहा था । इतने में एक बादल का बड़ा भारी टुकड़ा उसकी आँखो के सामने से गुजरा । वह थोड़ी दूर न गया होगा कि देखते ही देखते छिन्न-भिन्न हो गया । उसकी इस क्षणनश्वरता का श्रीदत्त के चित्त पर बहुत असर पड़ा । संसार की सब वस्तुएँ उसे बिजली कि तरह नाश्वान देख पड़ने लगी । सर्प के समान भयंकर विषय भोगों से उसे डर लगने लगा । शरीर जिसे कि वह बहुत प्यार करता था सर्व अपवित्रता का स्थान जान पड़ने लगा । उसे ज्ञान हुआ कि ऐसे दु:खमय और देखते देखते नष्ट होनेवाले संसार के साथ जो प्रेम करते हैं, माया-ममता बढ़ाते हैं वे बड़े बेसमझ हैं । वह अपने लिए बहुत पछताया कि हाय ! मैं कितना मूर्ख हूँ जो अबतक अपने हित को न शोध सका । मतलब यह कि संसार की दशा से उसे बड़ा वैराग्य हुआ और अन्त में यह सुख की कारण जिन-दीक्षा ले ही गया ।

इसके बाद श्रीदत्त मुनि ने बहुत से देशों नगरों का भ्रमण कर अनेक भव्य-जनों को सम्बोधा, उन्हे आत्महित की ओर लगाया । घूमते-फिरते वे एक बार अपने शहर की ओर आ गये । समय जाड़े का था । एक दिन श्रीदत्त मुनि शहर बाहर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे उन्हें ध्यान में खड़ा देख उस तोते के जीव को जिसे श्रीदत्त ने गरदन मरोड़ मार डाला था और जो मरकर व्यन्तर हुआ था अपने बैरी पर बड़ा क्रोध आया । उस बैर का बदला लेने के अभिप्राय में उसने मुनि पर बड़ा उपद्रव किया । एक तो वैसे ही जाड़े का समय उसपर इसने बड़ी जोर की ठंडी मार हवा चलार्इ, पानी बरसाया, ओले गिराये । मतलब यह कि उसने अपना बदला चुकाने में कोर्इ बात उठा न रखकर मुनि को बहुत कष्ट दिया । श्रीदत्त मुनिराज ने इन सब कष्टों को बड़ी शान्ति और धीरज के साथ सहा । व्यन्तर इनका पूरा दुश्मन था पर तब भी इन्होंने उस पर रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया । वे बैरी और हितु को सदा समान भाव से देखते थे । अन्त में शुक्ल-ध्यान द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर वे कभी नाश न होनेवाले मोक्ष स्थान को चले गये ।

जितशत्रु राजा के पुत्र श्रीदत्त मुनि देवकृत कष्टों को बड़ी शान्ति के साथ सहकर अन्त में शुक्ल-ध्यान द्वारा सब कर्मों का नाशकर मोक्ष गये । वे केवलज्ञानी भगवान मुझे अपनी भक्ति प्रदान करें जिससे मुझे भी शान्ति प्राप्त हो ।