+ अभिमान करने वाली की कथा -
अभिमान करने वाली की कथा

  कथा 

कथा :

निर्मल केवल-ज्ञान के धारी जिन-भगवान् को नमस्कार कर मान करने से बुरा फल प्राप्त करनेवाले की कथा लिखी जाती है । इस कथा को सुनकर जो लोग मान के छोड़ने का यत्न करेंगे सुख-लाभ करेंगे ।

बनारस के राजा वृषभध्वज प्रजा का हित चाहनेवाले और बड़े बुद्धिमान् थे । इनकी रानी का नाम वसुमती था । वसुमती बड़ी सुन्दरी थी । राजा का इस पर अत्यन्त प्रेम था ।

गंगा के किनारे पर पलास नाम का एक गाँव बसा हुआ था । इसमें अशोक नाम का एक गुवाल रहता था । यह गुवाल राजा को गाँव के लगान में कोर्इ एक हजार घी के भरे घड़े दिया करता था । इसकी स्त्री नन्दा पर इसका प्रेम न था । इसलिए कि वह बांझ थी । और यह सच है, सुन्दर या गुणवान स्त्री भी बिना पुत्र के शोभा नहीं पाती है और न उसपर पति का पूरा प्रेम होता है । वह फल-रहित लता की तरह निष्फल समझी जाती है । अपनी पहली स्त्री को नि:सन्तान देखकर अशोक गुवाल ने एक और ब्याह कर लिया । इस नर्इ स्त्री का नाम सुनन्दा था । कुछ दिनों तक तो इन दोनों सौतों में लोक-लाज से पटती रही, पर जब बहुत ही लड़ार्इ-झगड़ा होने लगा तब अशोक ने इनसे तंग आकर अपनी जितनी धन-सम्पत्ति थी उसे दोनों के लिये आधी-आधी बाँट दिया । नन्दा को अलग घर में रहना पड़ा और सुनन्दा अशोक के पास ही रही । नन्दा में एक बात बड़ी अच्छी थी । वह एक तो समझदार थी । दूसरे वह अपने दूघ दुहने के लिये बरतन वगैरह को बड़ा साफ रखती । उसे सफार्इ बड़ी पसन्द थी । इसके सिवा वह अपने नौकर गुवालों पर बड़ा प्रेम करती । उन्हें अपना नौकर न समझ अपने कुटुम्ब की तरह मानती । वह उनका बड़ा आदर-सत्कार करती । उन्हें हर एक त्यौहारों के मौकों पर दान-मानादि से बड़ा खुश रखती । इसलिए वे गुवाल लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उसके कामों को अपना ही समझकर किया करते थे । जब वर्ष पूरा होता तो नन्दाराज लगान के हजार घी के घड़ों में से अपना आधा हिस्सा पाँच-सौ घड़े अपने स्वामी को प्रति वर्ष दे दिया करती थी । पर सुनंदा में ये सब बातें न थीं । उसे अपनी सुन्दरता का बड़ा अभिमान था । इसके सिवा यह बड़ी शौकीन थी । साज–सिंगार में ही उसका सब समय चला जाता था । वह अपने हाथों से कोर्इ काम करना पसन्द न करती थी । सब नौकर-चाकरों द्वारा ही होता था । इसपर भी उसका अपने नौकरों के साथ अच्छा बरताव न था । सदा उनके साथ वह माथा-फोड़ी किया करती थी । किसी का अपमान करती, किसी को गालियाँ देती और किसी को भला-बुरा कहकर झिटकारती । न वह उन्हें कभी त्यौहारों पर कुछ दे-लेकर प्रसन्न करती । गर्ज यह कि सब नौकर-चाकर उससे प्रसन्न न थे । जहाँ तक उनका बस चलता वे भी सुनन्दा को हानि पहुँचाने का यत्न करते थे । यहाँ तक कि वे जो गायों को चराने जंगल को ले जाते, सो वहाँ उनका दूध तक दुहकर पी लिया करते थे । इससे सुनन्दा के यहाँ पहले वर्ष में ही घी बहुत थोड़ा हुआ । वह राज-लगान का अपना आधा हिस्सा भी न दे सकी । उसके इस आधे हिस्से को भी बेचारी नन्दा ने ही चुकाया । सुनन्दा की यह दशा देखकर अशोक ने घर से निकाल बाहर की । नन्दा को अपना गया अधिकार पीछे प्राप्त हुआ । पुण्य से वह पीछे अशोक की प्रेम-पात्र हुर्इ । घरबार, धन-दौलत की वह मालकिन हुर्इ । जिस प्रकार नन्दा अपने घर-गृहस्थी के काम को अच्छी तरह चलाने के लिये सदा दान-मानादि किया करती उसी प्रकार अपने पारमार्थिक कामों के लिये भव्य-जनों को भी अभिमान रहित होकर जैन-धर्म की उन्नति के कार्यों में दान-मानादि करते रहना चाहिए । उससे वे सुखी होंगे और सम्यग्ज्ञान लाभ करेंगे ।

जो स्वर्ग-मोक्ष का सुख देनेवाले जिन-भगवान् की बड़ी भक्ति से पूजा-प्रभावना करते हैं, भगवान् के उपदेश किये शास्त्रों के अनुसार चल उनका सत्कार करते हैं, पवित्र जैन-धर्म पर श्रद्धा-विश्वास करते हैं और सज्जन धर्मात्माओं का आदर-सत्कार करते हैं वे संसार में सर्वोच्च यश-लाभ करते हैं और अन्त में कर्मों का नाशकर परम-पवित्र केवल-ज्ञान, कभी नाश न होने वाला सुख प्राप्त करते हैं ।