
कथा :
जिनके सर्व-श्रेष्ठ ज्ञान में यह सारा संसार परमाणु के समान देख पड़ता है, उन सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर निह्नव, जिसप्रकार जो बात हो उसे उसी प्रकार न कहना, उसे छुपाना, इस सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है । उज्जैन के राजा धृतिषेण की रानी मलयावती के चण्डप्रद्योत नाम का एक पु़त्र था । वह जैसा सुन्दर था वैसा ही गुणवान भी था । पुण्य के उदय से उसे सभी सुख-सामग्री प्राप्त थी । एक बार दक्षिण देश के बेनातट नगर में रहने वाले सोमशर्मा ब्राह्मण का कोलसंदीव नाम का विद्वान पुत्र उज्जैन में आया । वह कर्इ भाषाओं का जानने वाला था । इसलिये धृतिषेण ने चण्डप्रद्योत को पढ़ाने के लिये उसे रख लिया । कालसंदीव ने चण्डप्रद्योत को कर्इ भाषाओं का ज्ञान कराये बाद एक म्लेच्छ-अनार्य भाषा को पढ़ाना शुरू किया । इस भाषा का उच्चारण बड़ा ही कठिन था । राजकुमार को उसके पढ़ने में बहुत दिक्कत पड़ा करती थी । एक दिन कोर्इ ऐसा ही पाठ आया, जिसका उच्चारण बहुत क्लिष्ट था । राजकुमार से उसका ठीक-ठीक न बन सका । कालसंदीव ने उसे शुद्ध-उच्चारण कराने की बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता प्राप्त न हुर्इ । इससे कालसन्दीव को कुछ गुस्सा आ गया । गुस्से में आकर उसने राजकुमार को एक लात मार दी । चण्डप्रद्योत था तो राजकुमार ही, सो उसका भी कुछ मिजाज बिगड़ गया । उसने अपने गुरू-महाराज से तब कहा – अच्छा महाराज, आपने जो मुझे मारा है, मैं भी इसका बदला लिये बिना न छोडूँगा । मुझे आप राजा होने दीजिए, फिर देखिएगा कि मै भी आपके इसी पाँव को काटकर ही रहूँगा । सच है, बालक कम-बुद्धि हुआ ही करते हैं । कालसन्दीव कुछ दिनों तक और यहाँ रहा, फिर वह यहाँ से दक्षिण की ओर चला गया । उधर कालसन्दीव को एक दिन किसी मुनि का उपदेश सुनने का मौका मिला । उपदेश सुनकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । वह मुनि हो गया । इधर धृतिषेण राजा भी चण्डप्रद्योत को सब राज-काज सौंपकर साधु बन गया । राज्य की बागडोर चण्डप्रद्योत के हाथ में आर्इ । इसमें कोर्इ सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योत ने भी राज्य-शासन बड़ी नीति के साथ चलाया । प्रजा के हित के लिये उसने कोर्इ बात उठा न रखी । एक दिन चण्डप्रद्योत पर एक यवनराज का पत्र आया । भाषा उसकी अनार्य थी । उस पत्र को कोर्इ राज-कर्मचारी न बाँच सका । तब राजा ने उसे देखा तो वह उससे बॅंच गया । पत्र पढ़कर राजा को अपने गुरू कालसन्दीव पर बड़ी भक्ति हो गर्इ । उसने बचपन की अपनी प्रतिज्ञा को उसी समय भुला दिया । इसके बाद राजा ने कालसन्दीव का पता-लगाकर उन्हें अपने शहर बुलाया और बड़ी भक्ति से उनके चरणों की पूजा की । सच है, गुरूओं के वचन भव्य-जनों को उसी तरह सुख देने वाले होते हैं जैसे रोगी को औषधि । कालसन्दीव मुनि यहाँ श्वेतसन्दीव नाम के किसी एक भव्य को दीक्षा देकर फिर विहार कर गये । मार्ग में पड़ने वाले शहरों और गाँवों में उपदेश करते हुए वे विपुलाचल पर महावीर भगवान् के समवशरण में गये, जो कि बड़ी शान्ति का देनेवाला था । भगवान् के दर्शनकर उन्हें बहुत शान्ति मिली । वन्दना कर भगवान् उपदेश सुनने के लिये वे वहीं बैठ गये । श्वेतसन्दीव मुनि भी इन्हीं के साथ थे । वे आकर समवशरण के बाहर आतापन-योग द्वारा तप करने लगे । भगवान् के दर्शन कर जब महामण्डलेश्वर श्रेणिक जाने लगे तब उन्होंने श्वेतसन्दीव मुनि को देखकर पूछा – आपके गुरू कौन हैं, किनसे आपने यह दीक्षा ग्रहण की ? उत्तर में श्वेतसंदीव मुनि ने कहा -- राजन्, मेरे गुरू श्रीवर्द्धमान् भगवान् हैं । इतना कहना था कि उनका सारा शरीर काला पड़ गया । यह देख श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने पीछे जाकर गणधर भगवान् से इसका कारण पूछा । उन्होंने कहा – श्वेतसन्दीव के असल गुरू हैं कालसंदीव, जो कि यहीं बैठे हुए हैं । उनका इन्होंने निह्नव किया – सच्ची बात न बतलार्इ । इसलिये उनका शरीर काला पड़ गया है । तब श्रेणिक ने श्वेतसंदीव को समझाकर उनकी गलती उन्हें सुझार्इ और कहा -- महाराज, आपकी अवस्था के योग्य ऐसी बातें नहीं हैं । ऐसी बातों से पाप-बन्ध होता है । इसलिए आगे से आप कभी ऐसा न करेंगे, यह मेरी आपसे प्रार्थना है । श्रेणिक की इस शिक्षा का श्वेतसंदीव मुनि के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा । वे अपनी भूल पर बहुत पछताये । इस आलोचना से उनके परिणाम बहुत उन्नत हुए । यहाँ तक कि उसी समय शुक्ल-ध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवल-ज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया । वे सारे संसार द्वारा अब पूजे जाने लगे । अन्त में अघातिया कर्मों को नष्टकर उन्होंने मोक्ष का अनन्त सुख-लाभ किया । श्वेतसंदीव मुनि के इस वृत्तान्त से भव्य-जनों को शिक्षा लेनी चाहिये कि वे अपने गुरू आदि का निह्नव न करें – सच्ची बात के छिपाने का यत्न न करें । क्योंकि गुरू स्वर्ग-मोक्ष के देनेवाले हैं, इसलिए सेवा करने योग्य हैं । वे श्रीश्वेतसंदीव मुनि मेरे बढ़ते हुए संसार को, भव-भ्रमण की शान्ति कर, मेरा संसार का भटकना मिटाकर मुझे कभी नाश न होने वाला और अनन्त मोक्ष-सुख दें, जो केवल-ज्ञान रूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, भव्य-जनों को हित की ओर लगाने वाले हैं, देव, विद्याधर चक्रवर्ती आदि महापुरूषों द्वारा पूज्य हैं, और अनन्त-चतुष्टय -- अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त हैं तथा और भी अनन्त गुणों के समुद्र हैं । |