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अक्षरहीन अर्थ की कथा

  कथा 

कथा :

जिन भगवान के चरणों को नमस्कार कर अक्षरहीन अर्थ की कथा लिखी जाती है ।

मगधदेश की राजधानी राजगृह के राजा जब वीरसेन थे, उस समय की यह कथा है । वीरसेन की रानी का नाम वीरसेना था । इनके एक पुत्र हुआ, उसका नाम रक्खा गया सिंह । सिंह को पढ़ाने के लिए वीरसेन महाराज ने सोमशर्मा ब्राह्मण को रक्खा । सोमशर्मा सब विषयों का अच्छा विद्वान् था ।

पोदनापुर के राजा सिंहरथ के साथ वीरसेन की बहुत दिनों से शत्रुता चली आती थी । सो मौका पाकर वीरसेन ने उसपर चढ़ार्इ कर दी । वहाँ से वीरसेन ने अपने यहाँ एक राज्य-व्यवस्था की बाबत पत्र लिखा । और-और समाचारों के सिवा पत्र में वीरसेन ने एक यह भी समाचार लिख दिया था कि राजकुमार सिंह के पठन-पाठन की व्यवस्था अच्छी तरह करना । इसके लिए उन्होंने यह वाक्य लिया था कि ‘सिंहोध्यापयितव्य:’ । जब यह पत्र पहुंचा तो इसे एक अर्धदग्ध ने बांच कर सोचा -- ’ध्ये’ धातु का अर्थ है स्मृति या चिन्ता करना । इसलिए इसका अर्थ हुआ कि ‘राजकुमार पर अब राज्य-चिन्ता का भार डाला जाय’ । उसे अब पढ़ाना उचित नहीं । बात यह थी कि उक्त वाक्य के पृथक पद करने से -- ‘सिंह:अध्यापयितव्य:’ ऐसे पद होते हैं और इनका अर्थ होता है – सिंह को पढ़ाना, पर उस बाँचने वाले अर्धदग्ध ने इस वाक्य के -- ’सिंह:ध्यापयितव्य’ ऐसे पद समझकर इसके सन्धिस्थ अकार पर ध्यान न दिया और केवल ‘ध्यै’ धातु से बने हुए ‘ध्यापयितव्य:’ का चिन्ता अर्थ करके राजकुमार का लिखना- पढना छुड़ा दिया । व्याकरण के अनुसार तो उक्त वाक्य के दोनों ही तरह पद होते हैं और दोनों ही शुद्ध हैं, पर यहाँ केवल व्याकरण की ही दरकार न थी । कुछ अनुभव भी होना चाहिए था । पत्र बाँचने वाले में इस अनुभव की कमी होने से उसने राजकुमार का पठन-पाठन छुड़ा दिया । इसका फल यह हुआ कि जब राजा आये और अपने कुमार का पठन-पाठन छूटा हुआ देखा तो उन्होंने उसके कारण की तलाश की । यथार्थ बात मालूम हो जाने पर उन्हें उस अर्धदग्ध – मूर्ख पत्र बाँचनेवाले पर बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने इस मूर्खता की उसे बड़ी कड़ी सजा दी । इस कथा से भव्य-जनों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वे कभी ऐसा प्रमाद न करें, जिससे कि अपने कार्य को किसी भी तरह की हानि पहुँचे ।

जिसप्रकार गुणहीन औषधि से कोर्इ लाभ नहीं होता, वह शरीर के किसी रोग को नहीं मिटा सकती, उसी तरह अक्षर-रहित शास्त्र या मन्त्र वगैरह भी लाभ नहीं पहुँचा सकते । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे सदा शुद्ध रीति से शास्त्राभ्यास करें – उसमें किसी तरह का प्रमाद न करें, जिससे कि हानि होने की संभावना है ।