
कथा :
जगद्गुरू तीर्थकर भगवान् को नमस्कार कर पात्र दान के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है । जिन भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमा से जन्मी पवित्र जिनवाणी ज्ञानरूपी महा समुद्र से पार करने लिए मुझे सहायता दे, मुझे ज्ञान-दान दे । उन साधु रत्नों को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक हैं, परिग्रह करक-कामिनी आदि से रहित वीतरागी हैं और सांसारिक सुख तथा मोक्ष सुख की प्राप्ति के कारण है । पूर्वाचार्यो ने दान को चार हिस्सों में बांटा हैं, जैसे आहार-दान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान । और ये ही दान पवित्र है । योग्य पात्रों को यदि ये दान दिये जाये तो इनका फल अच्छी जमीन में बोये हुए बड़ के बीज की तरह अनन्त गुणा होकर फलता है । जैसे एक ही बाबड़ी का पानी अनेक वृक्षों में जाकर नाना रूप में परिणत होता है उसी तरह पात्रों के भेद से दान के फल में भी भेंद हो जाता है । इसलिए जहाँ तक बने अच्छे सुपात्रों को दान देना चाहिए । सब पात्रों में जैनधर्म का आश्रम लेने वाले को अच्छा पात्र समझना चाहिये, औरों को नहीं । क्योंकि जब एक कल्पवृक्ष हाथ लग गया फिर औरों से क्या लाभ ? जैनधर्म में पात्र तीन बतलाये गये हैं । उत्तम पात्र-----मुनि, मध्यम पात्र-----व्रती श्रावक और जघन्य पात्र-----अव्रतसम्यग्दृष्टि । इन तीन प्रकार के पात्रों को दान देकर भव्य पुरूष जो सुख लाभ करते हैं उसका वर्णन मुझसे नहीं किया जा सकता । परन्तु संक्षेप में यह समझ लीजिए कि धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, खान-पान, भोग-उपभोग आदि जितनी उत्तम-उत्तम सुख-सामग्री है वह तथा इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरूषों की पदवियाँ, अच्छे सत्यपुरूषों की संगति, दिनों-दिन ऐश्वर्यादि की बढ़वारी, ये सब पात्रदान के फल से प्राप्त होते हैं । न यही, किन्तु इस पात्रदान के फल से मोक्ष प्राप्ति भी सुलभ है । राजा श्रेयांस ने दान के ही फल से मुक्ति लाभ किया था । इस प्रकार पात्रदान का अचिन्त्य फल जानकर बुद्धिवानों को इस ओर अवश्य अपने ध्यान को खींचना चाहिए। जिन-जिन सत्यपुरूषों ने पात्रदान आज तक फल पाया है, उन सबके नाम मात्रका उल्लेख भी जिन भगवान् के बिना और कोई नहीं कर सकता, तब उनके सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना मुझसे मतिहीन मनुष्यों के लिए तो असंभव ही है। आचार्यों ने ऐसे दानियों में सिर्फ चार जनों का उल्लेख शास्त्रों में किया है । इस कथा में उन्हींका संक्षिप्त चरित में पुराने शास्त्र के अनुसार लिखूँगा । उन दानियों के नाम है-----श्रीषेण, वृषभसेना, कैण्डेश और एक पशु बराह-सूअर । इनमें श्रीषेण ने आहारदान, वृषभसेना ने औषधिदान, कैण्डेश ने शास्त्रदान और सूअर ने अभयदान दिया था । उनकी क्रम से कथा लिखी जाती है । प्राचीन काल में श्रीषेण राजा ने आहारदान दिया । उसके फल से वे शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए । श्रीशान्तिनाथ भगवान् जय लाभ करें, जो सब प्रकार का सुख देकर अन्त में मोक्ष सुख के देनेवाला है और जिनका पवित्र चरित्र का सुनना परम शान्ति का कारण है । ऐसे परोपकारी भगवान् का परम पवित्र और जीव मात्र का हित करने वाला चरित आप लोग भी सुनें, जिसे सुनकर आप सुख लाभ करेंगे । प्राचीन काल में इसी भारतवर्ष में मलय नाम का एक अति प्रसिद्ध देश था । रत्नसंचयपुर इसी की राजधानी थी । जैनधर्म का इस सारे देश में खूब प्रचार था । उस समय इसके राजा श्रीषेण थे । श्रीषेण धर्मज्ञ, उदारमना, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी, दानी और बड़े विचारशील थे । पुण्य से प्राय: अच्छे-अच्छे सभी गुण उन्हें प्राप्त थे । उनका प्रतिद्वंदी या शत्रु कोई न था । वे राज्य निर्विध्न किया करते थे । सदाचार में उस समय उनका नाम सबसे ऊँचा था । उनकी दो रानियाँ थी । उनके नाम थे सिंहनन्दिता और अनन्दिता । दोनों ही अपनी-अपनी सुन्दरता में अद्वितीय थीं, विदुषी और सती थी । इन दोनों के दो पुत्र हुए । उनके नाम इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन थे । दोनों ही भाई सुन्दर थे, गुणी थे, शूरवीर थे और हृदय के बड़े शुद्ध थे । इस प्रकार श्रीषेण धन-सम्पत्ति, राज्य-वैभव, कुटुम्ब-परिवार आदि से पूरे सुखी थे । प्रजा का नीति के साथ पालन करते हुए वे अपने समय को बड़े आनन्द के साथ बिताते थे । यहाँ एक सात्यकि ब्राह्मण रहता था । इसकी स्त्री का नाम जंघा था । इसके सत्यभामा नाम की एक लड़की थी । रत्नसंचयपुर के पास बल नाम का एक गांव बसा हुआ था । उसमें धरणीजट नाम का ब्राह्मण वेदों का अच्छा विद्वान् था । अग्नीला इसकी स्त्री थी । अग्नीला से दो लड़के हुए । उनके नाम इन्द्रभूति और अग्निभूति थे । इसके यहाँ एक दासी-पुत्र (शूद्र) का लड़का रहता था । उसका नाम कपिल था । धरणीजट जब अपने लड़कों को वेदादिक पढ़ाया करता, उस समय कपिल भी बड़े ध्यान से उस पाठ को चुपचाप छुपे हुए सुन लिया करता था । भाग्य से कपिल की बुद्धि बड़ी तेज थी । सो वह अच्छा विद्वान् हो गया । एक दासीपुत्र भी पढ़-लिखकर महाविद्वान् बन गया, इसका धारणीजट को बड़ा आश्चर्य हुआ । पर सच तो यह है कि बेचारा मनुष्य करे भी क्या, बुद्धि तो कर्मों के अनुसार होती है न ? जब सर्व साधारण में कपिल के विद्वान् हो जाने की चर्चा उठी तब धरणीजट पर ब्राह्मण लोग बड़े बिगड़े और उसे डराने लगे कि तूने यह बड़ा भारी अन्याय किया जो दासी-पुत्र को पढ़ाया । इसका फल तुझे बहुत बुरा भोगना पड़ेगा । अपने पर अपने जातीय भाइयों को इस प्रकार क्रोध उलगते देख धरणीजट बड़ा घबराया । तब डर से उसने कपिल को अपने घर से निकाल दिया । कपिल उस गाँव से निकल रास्ते में ब्राह्मण बन गया और इसी रूप में वह रत्नसंचयपुर आ गया । कपिल विद्वान् और सुन्दर था । इसे उस सात्यकि ब्राह्मण ने देखा, जिसका कि ऊपर जिकर आ चुका है । इसके गुण रूप को देखकर सात्यकि बहुत प्रसन्न हुआ । उसके मन पर यह बहुत चढ़ गया । तब सात्यकि ने इसे ब्राह्मण ही समझ अपनी लड़की सत्यभामा का इसके साथ ब्याह कर दिया । कपिल अनायास इस स्त्री–रत्न को प्राप्त कर सुख से रहने लगा । राजा ने इसके पाण्डित्य की तारीफ सुन इसे अपने यहाँ पुराण कहने को रख लिया । इस तरह कुछ वर्ष बीते । एक बार सत्यभामा ऋतुमती हुई । सो उस समय भी कपिल ने उससे संसर्ग करना चाहा । उसके इस दुराचार को देखकर सत्यभामा को इसके विषय में सन्देह हो गया । उसने इस पापी को ब्राह्मण न समझ इससे प्रेम करना छोड़ दिया । वह इससे अलग रह दु:ख के साथ अपनी जिन्दगी बिताने लगी । इधर धरणीजट के कोई ऐसा पाप का उदय आया कि जिससे उसकी सब धन-दौलत बरबाद हो गई । वह भिखारी-सा हो गया । उसे मालूमहुआ कि कपिल रत्नसंचयपुर में अच्छी हालत में है । राजा द्वारा उसे धनमान खूब प्राप्त है । वह उसी समय सीधा कपिल के पास आया । उसे दूर ही से देखकर कपिल मन ही मन धरणीजट पर बड़ा गस्सा हुआ । अपनी बढ़ी हुई मान-मर्यादा के समय इसका अचानक आ जाना कपिल को बहुत खटका । पर वह कर क्या सकता था । उसे साथ ही इस बात का बड़ा भय हुआ । कि कहीं वह मेरे सम्बन्ध में लोगों को भड़का न दे । यही सब विचार कर वह उठा और बड़ी प्रसन्नता से सामने जाकर धरणीजट को इसने नमस्कार किया और बड़े मान से लाकर उसे ऊँचे आसन पर बैठाया । इसके बाद उसने-----पिताजी, मेंरी माँ, भाई आदि सब सुख से तो है न ? इस प्रकार कुशल समाचार पूछ कर धरणीजट को स्नान, भोजन कराया और उसका वस्त्रादि से खूब सत्कार किया । फिर सबसे आगे एक खास मानकी जगह बैठाकर कपिल ने सब लोगों को धरणीजट का परिचय कराया कि ये ही मेरे पिता जी हैं । बड़े विद्वान् और आचार-विचारवान् है । कपिल ने यह सब मायाचार इसीलिए किया था कि कहीं उसकी माता का सब भेद खुल न जाय । धरणीजट द्ररिद्री हो रहा था । धन की उसे चाह थी ही, सो उसने उसे अपना पुत्र मान लेने में कुछ भी आनाकानी न की । धन के लोभ से उसे यह पाप स्वीकार कर लेना पड़ा । ऐसे लोभ को धिक्कार है, जिसके वश हो मनुष्य हर एक पापकर्म कर डालता है । तब धरणीजट वहीं रहने लग गया । यहाँ रहते इसे कई दिन हो चुके । सबके साथ इसका थोड़ा बहुत परिचय भी हो गया । एक दिन मौका पाकर सत्यभामा ने इसे कुछ थोड़ा बहुत द्रव्य देकर एकान्त में पूछा-----महाराज, आप ब्राह्मण है और मेंरा विश्वास है कि ब्राह्मण देव कभी झूठ नहीं बोलते । इसलिए कृपाकर मेरे सन्देह को दूर कीजिए । मुझे आपके इन कपिलजी का दुराचार देख यह विश्वास नहीं होता कि ये आप सरीखे पवित्र ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न हुए हों, तब क्या वास्तव में ये ब्राह्मण ही हैं या कुछ गोलमाल है । धरणीजट को कपिल से इसलिए द्वेष ही हो रहा था । कि भरी सभा में कपिल ने उसे अपना पिता बता उसका अपमान किया था । और दूसरे उसे धन की चाह थी, सो उसके मन के माफिक धन सत्यभामा ने उसे पहले ही दे दिया था । तब वह कपिल की सच्ची हालत क्यों छिपायेंगा ? जो हो, धरणीजट सत्यभामा को सब हाल कहकर और प्राप्त धन लेकर रत्नसंचयपुरसे चल दिया । सुनकर कपिल पर सत्यभामा की घृणा पहले से कोई सौ गुणी बढ़ गई । उसने तब उससे बोलना-चालना तक छोडकर एकान्तवार स्वीकार कर लिया, पर अपने कुलाचार की मान-मार्यदा को न छोड़ा । सत्यभामा को इस प्रकार अपने से घृणा करते देख कपिल उससे बलात्कार करने पर उतारू हो गया । तब सत्यभामा घर से भागकर श्रीषेण महाराज की शरण में आ गई और उसने सब हाल उनसे कह दिया । श्रीषेण ने तब उस पर दयाकर उसे अपनी लड़की की तरह अपने यहीं रख लिया । कपिल सत्यभामा के अन्याय की पुकार लेकर श्रीषेण के पास पहुँचा । उसके व्यभिचार की हालत उन्हें पहले ही मालूम हो चुकी थी, इसलिए उसका कुछ न सुनकर श्रीषेण ने उस लम्पटी और कपटी ब्राह्मण को अपने देश ही से निकाल दिया । जो ठीक ही है राजों को सज्जनों की रक्षा और दुष्टों को सजा करनी ही चाहिए । ऐसा न करने पर वे अपने कर्त्तव्य से च्युत होते हैं और प्रजा के धनहारी हैं । एक दिन श्रीषेण के यहाँ आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण ऋद्धि के धारी मुनिराज पृथिवों को अपने पाँवों से पवित्र करते हुए आहार के लिये आये । श्रीषेण ने बड़ी भक्ति से उनका आह्वान कर उन्हें पवित्र आहार कराया । इस पात्रदान से उनके यहाँ स्वर्ग के देवों ने रत्नों की वर्षा को, कल्पवृक्षों के सुन्दर और सुगन्धित फूल बरसाये, दुन्दुगी बाजे बजे, मन्द-सुगन्ध वायु बहा और जय-जयकार हुआ, खूब बधाइयाँ मिली । और सच है, सुपात्रों को दिये दान के फल से क्या नहीं हो पाता । इसके बाद श्रीषेण ने और बहुत वर्षों तक राज्य-सुख भोगा। अन्त में मरकर वे बातकीखण्ड द्वीप के पूर्वभाग उत्तर-कुरू भोगभूमि में उत्पन्न हुए । सच है, साधुओंकी संगति से जब मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है तब कौन ऐसी उससे भी बढ़कर वस्तु होगी जो प्राप्त न हो। श्रीषेण की दोनों रानियाँ तथा सत्यभामा भी इसी उत्तर कुरू भोगभूमि में जाकर उत्पन्न हुई । ये सब और आनन्द से रहते है । यहाँ इन्हें कोई खाने-कमानेकी चिन्ता नहीं करना पड़ती है । पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को निराकुलता से ये आयु पूर्ण होने तक भोगेंगे । यहाँ की स्थिति बड़ी अच्छी है होने वाले कष्ट नहीं सता पाते । इनकी कोई प्रकार के अपघात से मौत नहीं होती। न अधिक गर्मी होती है; किन्तु सदा एकसी सुन्दर ऋतु रहती है । यहाँ न किसी की सेवा करनी पड़ता है और न किसी के द्वारा अपमान सहना पड़ता है । न यहाँ युद्ध है और न कोई किसी का बैरी ही है । यहाँ के लोगों के भाव सदा पवित्र रहते है । आयु पूरी होने तक ये इसी तरह सुख से रहते है । अन्त में स्वाभाविक सरल भावों से मृत्यु लाभ कर ये दानी महात्मा कुछ बाकी बचे पुण्य फल से स्वर्ग में जाते है । श्रीषेण ने भी भोगभूमि का खूब सुख भोगा । अन्त में वे स्वर्ग में गये । स्वर्ग में भी मनचाहा दिव्य सुख भोगकर अन्त में वे मनुष्य हुए । इस जन्म में ये कई बार अच्छे अच्छे राजघराने में उत्पन्न हुए । पुण्य से फिर स्वर्ग गये। वहाँ की आयु पूरी कर अब की बार भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध शहर हस्तिनागपुर के राजा विश्वसेन की रानी ऐरा के यहाँ इन्होंने अवतार लिया । यही सोलहवें श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकर के नाम से संसार में प्रख्यात हुए । इनके जन्म समय में स्वर्ग के देवों ने आकर बड़ा उत्सव किया था, इन्हें सुमेंरू पर्वत पर ले जाकर क्षीर समुद्र के स्फटिक से पवित्र और निर्मल जल से इनका अभिषेक किया था । भगवान् शान्तिनाथ ने अपना जीवन बड़ी ही पवित्रता के साथ इन्होंने धर्म का पवित्र उपदेश देकर अनेक जनों को संसार से पार किया, दु:खों से उनकी रक्षा कर उन्हें सुखी किया । अपना संसार के प्रति जो कर्त्तव्य था उसे पूरा कर इन्होंने निर्वाण लाभ किया । यह सब पात्रदान का फल है । इसलिए जो लोग पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च सुख लाभ करेंगे । यह बात ध्यान में रखकर सत्पुरूषों का कर्त्तव्य है, कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें । यही दान स्वर्ग और मोक्ष के सुख का देने वाला है । मूलसंघ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। रत्नत्रय-----सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारी थे । इन्हीं गुरू महाराज की कृपा से मुझे अल्पबुद्धि नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने पात्रदान के सम्बन्ध में श्रीशान्तिनाथ भगवान् को पवित्र कथा लिखी है । यह कथा मेरे परम शान्ति की कारण हो । |