कथा :
पदार्थ के सत्य होनेसे जिनके वचनोंकी सत्यता सिद्ध है और ऐसे सत्य वचन ही जिन यथार्थ वक्ता की सत्यताको प्रकट करते हैं ऐसे अभिनन्दन स्वामी वन्दना करनेवाले लोगों को आनन्दित करते हुए हम सबकी रक्षा करें ॥1॥ जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक मंगलावली नाम का देश सुशोभित है ॥2॥ उसके रत्नसंचय नगर में महाबल नाम का राजा था । वह बहुत भारी राजसम्पत्तिसे सहित तथा चारों वर्णों और आश्रमों का आश्रय था-रक्षा करने वाला था ॥3॥ उसके पृथिवी की रक्षा करते समय 'अन्याय' यह शब्द ही नहीं सुनाई पड़ता था और समस्त प्रजा किसी प्रतिबन्धके बिना ही अपने-अपने मार्ग में प्रवृत्ति करती थी ॥4॥ शत्रुओं को नष्ट करनेवाले उस राजा में सन्धि-विग्रह आदि छह गुणोंका समूह भी निर्गुणताको प्राप्त हो गया था और इस तरह निर्गुण होने पर भी वह राजा त्याग तथा सत्य आदि गुणों से गुणवान् था ॥5॥ वह राजा लक्ष्मी का एक ही पति था । यद्यपि सरस्वती कीर्ति और वीरलक्ष्मी उसकी सौतें थीं तो भी राजा सब पर प्रसन्नचित्त रहता था । उसकी कीर्ति अन्य मनुष्यों के वचनों तथा कानों में रहती है, सरस्वती उसके वचनों में रहती है, वीरलक्ष्मी वक्ष:स्थल पर रहती है और मैं सर्वांग में रहती हूं यह विचार कर ही लक्ष्मी अत्यन्त सन्तुष्ट रहती थी ॥6–7॥ स्त्रीरूपी कल्पलता से रमणीय उसका शरीररूपी कल्पवृक्ष, वह जिस जिसकी इच्छा करता था वही वही सुख प्रदान करता था ॥8॥ जिसके नेत्ररूपी भ्रमर सुन्दर स्त्रियों के मुखरूपी कमलों की सेवा करने में सदा सतृष्ण रहते हैं ऐसे उस राजा महाबलने बहुत लम्बा समय सुख से काल की एक कलाके समान व्यतीत कर दिया ॥9॥ किसी समय इच्छानुसार मिलनेवाले भोगोपभोगोंमें अतृप्ति होनेसे उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे उस उदारचेताने धनपाल नामक पुत्र के लिए राज्य देकर विमलवाहन गुरूके पास पहुँच संयम धारण कर लिया । वह ग्यारह अंग का पाठी हुआ और सोलह कारण भावनाओं का उसने चिन्तवन किया ॥10-11॥ सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करनेसे उससे पंचकल्याणकरूपी फल को देनेवाले तीर्थंकर नामकर्म-बन्ध किया जिससे यह तीर्थंकर होगा । सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्यों को क्या नहीं प्राप्त होता ? ॥12॥ आयु के अन्त में समाधिमरण कर वह विजय नाम के पहले अनुत्तर में तैंतीस सागर की आयुवाला अहमिन्द्र हुआ ॥13॥ विजय विमान में जो शरीर की ऊंचाई, लेश्या, अवधिज्ञान का क्षेत्र तथा श्वासोच्छवासादिका प्रमाण बतलाया है वह उन सबसे सहित था, पांचो इन्द्रियों के सुख का अनुभव करता था, चित्त शान्त था, वैराग्यरूपी सम्पत्तिसे उपलक्षित हो भक्ति-पूर्वक अर्हन्त भगवान् का ध्यान करता हुआ वहां रहता था और आयु के अन्त में समस्त कर्मो-का क्षय करने के लिए इस पृथिवीतल पर अवतार लेगा ॥14–15॥ जब अवतार लेनेका समय हुआ तब इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अयोध्या नगरी का स्वामी इक्ष्वाकु वंशी काश्यपगोत्री तथा आश्चर्यकारी वैभवको धारण करनेवाला एक स्वयंवर नाम का राजा था । सिद्धार्था उसकी पटरानी का नाम था । अहमिन्द्र के अवतार लेने के छह माह पूर्व से सिद्धार्था ने रत्नवृष्टि आदि पूजाको प्राप्त किया और वैशाख मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि के दिन सातवें शुभ नक्षत्र (पुनर्वसु) में सोलह स्वप्न देखनेके बाद अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । उसी समय वह अहमिन्द्र उसके गर्भ में आया ॥16–18॥ राजा से स्वप्नों का फल सुनकर वह बहुत सन्तुष्ट हुई और माघ मास के शुल्क पक्ष की द्वादशी के दिन अदिति योग में उसने पुण्योदय से उत्तम पुत्र उत्पन्न किया ॥19॥ उस पुत्र के प्रभाव से इन्द्रका आसन कम्पायमान हो गया जिससे उस बुद्धिमान् ने अवधिज्ञान के द्वारा त्रिलोकीनाथका जन्म जान लिया ॥20॥ इन्द्र ने अपनी शचीदेवी द्वारा उस दिव्य मानवको प्राप्त किया और उसे लेकर देवों से आवृत हो शीघ्रता से सुमेरू पर्वत पर पहुँचा । वहां दिव्य सिंहासनपर विराजमानकर बाल सूर्य के समान प्रभावाले बालकका क्षीरसागरके जलसे अभिषेक किया, आभूषण पहनाये और अभिनन्दन नाम रक्खा ॥21-22॥ उस समय जिसने विक्रिया-वश बहुत-सी भुजाएँ बना ली हैं, हजार नेत्र कर लिये हैं और जो अनेक भाव तथा रसों से सहित हैं ऐसे इन्द्र ने आश्चर्यकारी करणों से प्रारम्भ किये हुए अंगहारों द्वारा आकाशरूपी आंगन में भक्ति से ताण्डव नृत्य किया और अनेक अभिनय दिखलाये । उस समय उसका राग परम सीमाको प्राप्त था, साथ ही वह अन्य अनेक धीरोदात्त नटोंको भी नृत्य करा रहा था ॥23–24॥ जन्माभिषेकसे वापिस लौटकर इन्द्र अयोध्यानगरी में आया तथा मायामयी बालक को दूर कर माता-पिता के सामने सचमुचके बालक को रख कर स्वर्ग चला गया ॥25॥ श्री संभवनाथ तीर्थंकर के बाद दश लाख करोड़ वर्ष का अन्तराल बीत जानेपर अभिनन्दननाथ स्वामी अवतीर्ण हुए थे, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी वे मति श्रुत अवधि इन तीन ज्ञानों से सुशोभित थे, पचास लाख पूर्व उनकी आयु थी, साढ़े तीन सौ धनुष ऊँचा शरीर था, वे बाल चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त थे, अथवा जिसका अनुभाग प्रकट हो रहा है ऐसे पुण्य कर्म के समूह के समान जान पड़ते थे ॥26–27॥ गुणों से सबको आह्लादित करते हुए वे शोभा अथवा लक्ष्मी की वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे । उनकी कान्ति सुवर्ण के समान देदीप्यमान थी । कामदेव के सारथिके समान कुमार अवस्थाके जब साढ़े बारह लाख पूर्व बीत गये तब ‘तुम राज्य का उपभोग करो’ इस प्रकार राज्य देकर इनके पिता वनको चले गये । उसी समय इन्होंने राज्य प्राप्त किया ॥28–29॥ उस समय चन्द्रमा इनकी कान्ति को चाहता था, सूर्य इनके तेजकी इच्छा करता था, इन्द्र इनका वैभव चाहता था और इच्छाएं इनकी शान्ति चाहती थीं ॥30॥ अपने उत्कृष्ट अनुभागबन्ध की अनन्तगुणी वृद्धि होने से उनके सभी पुण्य परमाणु प्रत्येक समय फल देते रहते थे ॥31॥ उन्होंने अन्य सबके तेज को जीतकर तथा सब प्रजा को प्रसन्न कर चन्द्रमा और सूर्य को भी जीत लिया था इस तरह वे अपने ही तेज से सुशोभित हो रहे थे ॥32॥ समस्त राजा लोग इन्हें अपने मुकुट झुकाते थे इसमें उनकी क्या स्तुति थी । क्योंकि ये जन्म से ही ऐसे पुण्यात्मा थे कि इन्द्र भी इनके चरणों की पूजा करता था ॥33॥ जब मोक्ष-लक्ष्मी भी इन्हें अपने कटाक्षों का विषय बनाती थी तब राज्य-लक्ष्मी इनमें अनुराग करने लगी इसमें आश्चर्य की क्या बात है ॥34॥ उनके कभी नष्ट नहीं होनेवाला शुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन था और तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति थी । सो ठीक ही है क्योंकि तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले मनुष्य के इससे बढ़कर दूसरी कौनसी आत्म-सम्पत्ति है ? ॥35॥ वे भगवान् कुमार-अवस्था में धीर और उद्धत थे, संयमी अवस्था में धीर और प्रशान्त थे तथा अन्तिम अवस्था में धीर और उदात्त अवस्था को प्राप्त हुए थे ॥36॥ उनकी उत्साह, मन्त्र और प्रभुत्व इन तीनों शक्तियोंने धर्मानुबन्धिनी सिद्धि को फलीभूत किया था सो ठीक ही है क्योंकि शक्तियां वही हैं जो कि दोनों लोकों में हित करने वाली हैं ॥37॥ उनकी कीर्ति में शास्त्र भरे पड़े थे, स्तुति में वर्ण और अक्षरों से अकिंत अनेक गीत थे, मनुष्यों की दृष्टि में उनकी प्रीति थी, और उनका स्मरण सदा गुणों के विवेचन के समय होता था ॥38॥ वे उत्पन्न होने के पूर्व ही समस्त उत्त्म गुणों से परिपूर्ण थे । यदि ऐसा न होता तो गर्भ में ही उनकी सेवा करने के लिए देवों के आसन कम्पायमान क्यों होते ? ॥39॥ उनका उत्तम रत्नत्रय प्रचुर मात्रा में पूर्वभव से साथ आया था तथा अन्य गुणों की क्या बात ? उनकी बुद्धि के गुण भी विद्वानों के द्वारा वर्णनीय थे ॥40॥ उनके उत्साह गुण का वर्णन अलग से तो करना ही नहीं चाहिये क्योंकि वे तीनों लोकों के कण्टक स्वरूप मोह शत्रु को अन्य समस्त पापों के साथ नष्ट करना ही चाहते थे ॥41॥ जन्म के समय भी उनका प्रताप ऐसा था कि दोपहर के सूर्य को भी प्रताप-रहित करता था फिर इस समय उसे दूसरा सह ही कौन सकता था ? ॥42॥ इनके गुण इस प्रकार बढ़ रहे थे मानो परस्पर में एक दूसरे का उल्लंघन ही करना चाहते हों । सो ठीक है क्योंकि एक साथ बढ़ने वालों की ईर्ष्या को कौन रोक सकता है ? ॥43॥ इस प्रकार संसार के श्रेष्ठतम विशाल भोगों के समूह का उपभोग करनेवाले भगवान् अभिनन्दननाथ केवलज्ञान-रूपी सूर्य का उदय होने के लिए उदयाचल के समान थे ॥44॥ जब उनके राज्यकाल के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व बीत गये और आयु के आठ पूर्वांग शेष रहे तब वे एक दिन आकाश में मेघोंकी शोभा देख रहे थे कि उन मेघों में प्रथम तो एक सुन्दर महल का आकार प्रकट हुआ परन्तु थोड़े ही देर में वह नष्ट हो गया । इस घटना से उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया । वे सोचने लगे कि ये विनाशीक भोग इस संसार में रहते हुए मुझे अवश्य ही नष्ट कर देंगे । क्या टूटकर गिरनेवाली शाखा अपने ऊपर स्थित मनुष्य को नीचे नहीं गिरा देती ? ॥45॥ यद्यपि मैंने इस शरीर को सभी मनोरथों अथवा समस्त इष्ट पदार्थों से परिपुष्ट किया है तो भी यह निश्चित है कि वेश्या के समान यह मुझे छोड़ देगा । इस तरह विचार कर वे शरीर से विरक्त हो गये ॥46–48॥ उन्होंने यह भी विचार किया कि आयु के रहते हुए मरण होता है, आयु के न रहने पर मरण नहीं होता । इसलिए जो मरण से डरते हैं उन्हें सबसे पहिले आयु से डरना चाहिये ॥49॥ समस्त सम्पदाओं का हाल गन्धर्वनगर के ही समान है अर्थात् जिस प्रकार यह मेघों का बना गन्धर्वनगर देखते-देखते नष्ट हो गया उसी प्रकार संसार की समस्त सम्पदाएं भी नष्ट हो जाती हैं यह बात विद्वानों की कौन कहे मूर्ख भी जानते हैं ॥50॥ जिस समय भगवान् ऐसा विचार कर रहे थे उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी पूजा की । देवों ने भगवान् का निष्क्रमण कल्याणक किया । तदनन्तर जितेन्द्रिय भगवान् हस्तचित्रा नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर अग्रउद्यान में आये । वहाँ उन्होंने माघ शुल्क द्वादशी के दिन शाम के समय अपने जन्म नक्षत्र का उदय रहते वेला का नियम लेकर एक हजार प्रसिद्ध राजाओं के साथ जिन-दीक्षा धारण कर ली । उसी समय उन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ॥51–53॥ दूसरे दिन भोजन करने की इच्छा से उन्होंने साकेत ( अयोध्या ) नगर में प्रवेश किया । वहां इन्द्रदत्त राजा ने पडगाह कर उन्हें आहार दिया तथा पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥54॥ तदनन्तर छद्मस्थ अवस्थाके अठारह वर्ष मौन से बीत जाने पर वे एक दिन दीक्षावन में असन वृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर ध्यानारूढ हुए ॥55॥ पौष शुल्क चतुर्दशी के दिन शाम के समय सातवें पुनर्वसु नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान हुआ, समस्त देवों ने उनकी पूजा की ॥56॥ वज्रनाभि आदि एक सौ तीन गणधर, शरीरसे ममत्व छोड़नेवाले दो हजार पाँच सौ पूर्वधारी, दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार केवलज्ञानी, उन्नीस हजार विकिया ऋद्धि के धारक, ग्यारह हजार छह सौ पचास मन:पर्यज्ञानी और ग्यारह हजार प्रचण्ड़ वादी उनके चरणों की निरन्तर वन्दना करते थे ॥57–60॥ इस तरह वे सब मिलाकर तीन लाख मुनियों के स्वामी थे, मेरूषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकाओं से सहित थे, तीन लाख श्रावक उनके चरण युगलकी पूजा करते थे, पाँच लाख श्राविकाएँ उनकी स्तुति करती थीं, असंख्यात देव-देवियों के द्वारा वे स्तुत्य थे, और संख्यात तिर्यंच उनकी सेवा करते थे ॥61–63॥ इस प्रकार शिष्ट और भव्य जीवोंकी बारह सभाओं के नायक भगवान् अभिनन्दननाथ ने धर्मवृष्टि करते हुए इस आर्यखण्ड की वसुधा पर दूर-दूर तक विहार किया ॥64॥ इच्छा के विना ही विहार करते हुए वे सम्मेद गिरि पर जा पहुँचे । वहाँ एक मास तक दिव्य-ध्वनि से रहित होकर ध्यानारूढ रहे, उस समय वे ध्यान काल में होनेवाली योगनिरोध आदि क्रियाओं से युक्त थे, समुच्छिन्न क्रिया-प्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती नामक दो ध्यानों से सहित थे, अत्यन्त निर्मल थे, और प्रतिमायोग को धारण किये हुए थे । वहीं से उन्होंने वैशाख शुल्क षष्ठी के दिन प्रात:काल के समय पुनर्वसु नामक सप्तम नक्षत्र में अनेक मुनियों के साथ परमपद-मोक्ष प्राप्त किया ॥65–66॥ उसी समय भक्ति से जिनके आठों अंग झुक रहे हैं ऐसे इन्द्र ने आकर उन त्रिलोकीनाथ की पूजा की, स्तुति की और तदनन्तर यथा-क्रम से स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया ॥67॥ जिन्होंने इन्द्रों के द्वारा पंच कल्याणकों में उत्पन्न होनेवाली पुण्यमयी लक्ष्मी प्राप्त की, जिन्होंने कर्म क्षय से होनेवाली तथा अनन्त-चतुष्टय से देदीप्यमान अविनाशी अंतरंग लक्ष्मी प्राप्त की जो रूप से रहित होने पर भी निर्मल गुणों के धारक रहे, मोक्ष-लक्ष्मी ने जिनका आलिंगन किया, जिनका उदय कभी नहीं हो सकता और जो पूर्वोक्त लक्ष्मियों से युक्त रहे ऐसे श्री अभिनन्दन जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ॥68॥ जो पहले रत्नसंचय नगर के राजा महाबल हुए, तदनन्तर विजय नामक अनुत्तर विमान में विजयी अहमिन्द्र हुए, फिर ऋषभनाथ तीर्थंकर के वंश में अयोध्या नगरी के अधिपति अभिनन्दन राजा हुए वे अभिनन्दन स्वामी तुम सबकी रक्षा करें ॥69॥ जिन्होंने निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों से विभाग कर समस्त पदार्थों का विचार किया है, अपने भवकी विभूति को नष्ट करने के लिए देवों ने भक्ति से जिनकी स्तुति की है, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, निर्भय हैं और संसार के प्राणियों का भय दूर करनेवाले हैं ऐसे अभिनन्दन जिनेन्द्र, हे भव्य जीवों ! तुम सबकी विभूति को करनेवाले हों ॥70॥ |