+ भगवान सुमतिनाथ चरित -
पर्व - 51

  कथा 

कथा :

अथानन्‍तर जो लोग सुमतिनाथ की बुद्धि को ही बुद्धि मानते हैं अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित मत में ही जिनकी बुद्धि प्रवृत्‍त रहती है उन्‍हें अविनाशी लक्ष्‍मी की प्राप्‍ति होती है । इसके सिवाय जिनके वचन सज्‍जन पुरूषोंके द्वारा ग्राह्य हैं ऐसे सुमतिनाथ भगवान् हम सबके लिए सद्बुद्धि प्रदान करें ॥1॥

अखण्‍ड घातकीखण्‍ड द्वीप में पूर्व मेरूपर्वत से पूर्व की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्‍तर तट पर एक पुष्‍कलावती नाम का उत्‍तम देश है ॥2॥

उसकी पुण्‍डरीकिणी नगरी में रतिषेण नाम का राजा था । वह राजा राज - सम्‍पदाओंसे सहित था, उसे किसी प्रकार का व्‍यसन नहीं था और पूर्व भाग में उपार्जित विशाल पुण्‍यकर्म के उदय से प्राप्‍त हुए राज्‍य का नीति - पूर्वक उपभोग करता था । उसका वह राज्‍य शत्रुओं से रहित था, क्रोधके कारणों से रहित था और निरन्‍तर वृद्धि को प्राप्‍त होता रहता था ॥3-4॥

राजा रतिषेण की जो राजविद्या थी वह उसी की थी वैसी राजविद्या अन्‍य राजाओं में नहीं पाई जाती थी । आन्‍वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्‍ड़ इन चारों विद्याओं में चौथी दण्‍डविद्या का वह कभी प्रयोग नहीं करता था क्‍योंकि उसकी प्रजा प्राण-दण्‍ड आदि अनेक दण्‍डों में से किसी एक भी मार्ग में नहीं जाती थी ॥5॥

इन्द्रियों के विषय में अनुराग रखनेवाले मनुष्‍य को जो मानसिक तृप्‍ति होती है उसे काम कहते हैं । वह काम, अपने इष्‍ट समस्‍त पदार्थों की संपत्ति रहने से राजा रतिषेण को कुछ भी दुर्लभ नहीं था ॥6॥

वह राजा अर्जन, रखण, वर्धन और व्‍यय इन चारों उपायों से धन संचय करता था और आगम के अनुसार अर्हन्‍त भगवान् को ही देव मानता था । इस प्रकार अर्थ और धर्म को वह काम की अपेक्षा सुलभ नहीं मानता था अर्थात् काम की अपेक्षा अर्थ तथा धर्म पुरूषार्थका अधिक सेवन करता था ॥7॥

इस प्रकार लीलापूर्वक पृथिवी का पालन करनेवाले और परस्‍पर की अनुकूलता से धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्ग की वृद्धि करनेवाले राजा रतिषेण का जब बहुत-सा समय व्‍यतीत हो गया तब एक दिन उसके ह्णदय में निम्‍नांकित विचार उत्‍पन्‍न हुआ ॥8॥

वह विचार करने लगा कि इस संसार में जीव का कल्‍याण करनेवाला कया है ? और पर्यायरूपी भँवरों में रहनेवाले दुर्जन्‍म तथा दुर्मरण रूपी सर्पों से दूर रहकर यह जीव सुख को किस प्रकार प्राप्‍त कर सकता है ? अर्थ और काम से तो सुख हो नहीं सकता क्‍योंकि उनसे संसार की ही वृद्धि होती है । रहा धर्म, सो जिस धर्म में पाप की संभावना है उस धर्म से भी सुख नहीं हो सकता । हां, पापरहित एक मुनिधर्म है उसी से इस जीव को उत्‍तम सुख प्राप्‍त हो सकता है । इस प्रकार विरक्‍त राजा के ह्णदय में उत्‍तम फल देनेवाला विचार उत्‍पन्‍न हुआ ॥9-11॥

तदनन्‍तर संसार का अन्‍त करनेवाले राजा रतिषेण ने राज्‍य का भारी भार अपने अतिरथ नामक पुत्र के लिए सौंप कर तपका हलका भार धारण कर लिया ॥12॥

उसने अर्हन्‍नन्‍दन जिनेन्‍द्र के समीप दीक्षा धारण की, ग्‍यारह अंगों का अध्‍ययन किया और मोह-शत्रु को जीतनेकी इच्छा से अपने शरीर में भी ममता छोड़ दी ॥13॥

उसने दर्शनविशुद्धि, विनयसम्‍पन्‍नता आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृतिका बन्‍ध किया सो ठीक ही है क्‍योंकि जिससे अभीष्‍ट पदार्थ की सिद्धि होती है बुद्धिमान् पुरूष वैसा ही आचरण करते हैं ॥14॥

उसने अन्‍त समयमें संन्‍यासमरण कर उत्‍कृष्‍ट आयु का बन्‍ध किया तथा वैजयन्‍त विमान में अ‍हमिन्‍द्र पद प्राप्‍त किया । वहां उसका एक हाथ ऊँचा शरीर था । वह सोलह माह तथा पन्‍द्रह दिन में एक बार श्‍वास लेता था, तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार ग्रहण करता था, शुल्‍क-लेश्‍या का धारक था, अपने तेज तथा अवधिज्ञान से लोकनाड़ीको व्‍याप्‍त करता था, उतनी ही दूर तक विक्रिया कर सकता था, और लोकनाड़ी उखाड़ कर फेंकनेकी शक्ति रखता था ॥15-17॥

इस संसार में अहमिन्‍द्र का सुख ही मुख्‍य सुख है, वही निर्द्वन्‍द है, प्रवीचारसे रहित है और राग से शून्‍य है । अहमिन्‍द्र का सुख राजा रतिषेणके जीव को प्राप्‍त हुआ था ॥18॥

आयु के अन्‍त में समाधिमरण कर जब वह अहमिन्‍द्र यहाँ अवतार लेने को हुआ तब इस जम्‍बूद्वीप-सम्‍बन्‍धी भरत-क्षेत्रकी अयोध्‍यानगरी में मेघरथ नाम का राजा राज्‍य करता था । वह भगवान् वृषभदेव के वंश तथा गोत्रमें उत्‍पन्‍न हुआ था, क्षत्रिय था, शत्रुओं से रहित था और अतिशय प्रशंसनीय था । मंगला उसकी पट्टरानी थी जो रत्‍नवृष्टि आदि अतिशयों से सम्‍मान को प्राप्‍त थी ॥19-20॥

उसने श्रावण-शुक्ल द्वितिया के दिन मघा नक्षत्र में हाथी आदि सोलह स्वप्न देखकर अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । उसी समय वह अ‍हमिन्‍द्र रानी के गर्भ में आया ॥21॥

अपने पति से स्‍वप्‍नों का फल जानकर रानी बहुत ही हर्षित हुई । तदनन्‍तर नौवें चैत्र माह के शुल्‍क पक्ष की एकादशी के दिन चित्रा नक्षत्र तथा पितृ योग में उसने तीन ज्ञान के धारक, सत्‍पुरूषों में श्रेष्‍ठ और त्रिभुवन के भर्ता उस अहमिन्‍द्र के जीव को उत्‍पन्‍न किया ॥22-23॥

सदा की भांति इन्‍द्र लोग जिन-बालक को सुमेरू-पर्वत पर ले गये, वहां उन्‍होंने जन्‍माभिषेक-सम्‍बन्‍धी उत्‍सव किया, सुमति नाम रक्‍खा और फिर घर वापिस ले आये ॥24॥

अभिनन्‍दन स्‍वामी के बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जाने पर उत्‍कृष्‍ट पुण्‍य को धारण करनेवाले भगवान् सुमतिनाथ उत्‍पन्‍न हुए थे । उनकी आयु भी इसी समय में शामिल थी ॥25॥

इनकी आयु चालीस लाख पूर्व की थी, शरीर की ऊंचाई तीन सौ धनुष थी, तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति थी, और आकार स्‍वभावसे ही सुन्‍दर था ॥26॥

वे देवों के द्वारा लाये हुए बाल्‍यकाल के योग्‍य समस्‍त पदार्थों से वृद्धि को प्राप्‍त होते थे । उनके शरीर के अवयव ऐसे जान पड़ते थे मानो चन्‍द्रमाकी किरणें ही हों ॥27॥

उनके पतले, टेढ़े, चिकने तथा जामुनके समान कान्ति वाले शिरके केश ऐसे जान पड़ते थे मानो मुख में कमल की आशंका कर भौंरे ही इकठ्ठे हुए हों ॥28॥

मैंने देवों के द्वारा अभिषेकके बाद तीन लोक के राज्‍य का पट्ट प्राप्‍त किया है । यह सोच कर ही मानो उनका ललाटतट ऊंचाईको प्राप्‍त हुआ था ॥29॥

तीन ज्ञान को धारण करनेवाले भगवान् के कान सब लक्षणों से युक्‍त थे और पांच वर्ष के बाद भी उन्‍होंने किसी के शिष्‍य बनने का तिरस्‍कार नहीं प्राप्‍त किया था ॥30॥

उनकी भौंहें बड़ी ही सुन्‍दर थीं, भौहों के संकेत मात्रसे दिये हुए धन-समूह से उन्‍होंने याचकों को संतुष्‍ट कर दिया था अत: उनकी भौंहों की शोभा बड़े-बड़े विद्वानों के द्वारा भी नहीं कही जा सकती थी ॥31॥

समस्‍त इष्‍ट पदार्थों के देखने से उत्‍पन्‍न होनेवाले अपरिमित सुख को प्राप्‍त हुए उनके दोनों नेत्र विलास पूर्ण थे, स्‍नेहसे भरे थे, शुक्‍ल कृष्‍ण और लाल इस प्रकार तीन वर्ण के थे तथा अत्‍यन्‍त सुशोभित होते थे ॥32॥

मुख-कमल की सुगन्धि का पान करनेवाली उनकी नाक, 'मेरे बिना मुख की शोभा नहीं हो सकती' इस बात का अहंकार धारण करती हुई ही मानो ऊंची उठ रही थी ॥33॥

उनके दोनों कपोलों की लक्ष्‍मी उत्‍तमांग अर्थात् मस्‍तक का आश्रम होने तथा संख्‍यामें दो होने के कारण वक्ष:स्‍थल पर रहनेवाली लक्ष्‍मी को जीतती हुई-सी शोभित हो रही थी ॥34॥

उनके दांतोकी पंक्ति कुन्‍द पुष्‍पके सौन्‍दर्यको जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो मुख कमल में निवास करनेसे संतुष्‍ट हो हँसती हुई सरस्‍वती ही हो ॥35॥

जिन्‍होंने समस्‍त देवोंको तिरस्‍कृत कर दिया है, सुमेरू पर्वत की शोभा बढ़ाई है और छह रसों के सिवाय सप्‍तम अलौकिक रसके आस्‍वादसे सुशोभित हैं ऐसे उनके अधरों (ओठों) की अधर (तुच्‍छ) संज्ञा नहीं थी ॥36॥

जिससे समस्‍त पदार्थों का उल्‍लेख करनेवाली दिव्‍यध्‍वनि प्रकट हुई है ऐसे उनके मुख की शोभा तो कही ही नहीं जा सकती । उनके मुख की शोभा वचनों से प्रिय तथा उज्‍ज्‍वल थी अथवा वचनरूपी वल्‍लभा-सरस्‍वतीसे देदीप्‍यमान थी ॥37॥

जब कि अपनी-अपनी वल्‍लभाओं से सहित देवेनद्र भी उस पर सतृष्‍ण भ्रमर जैसी अवस्‍था को प्राप्‍त हो गये थे तब उनके मुख-कमल के हाव का क्‍या वर्णन किया जावे ? ॥38॥

जिन्‍होंने स्‍याद्वाद सिद्धान्‍त से समस्‍त वादियों को कुण्ठित कर दिया है ऐसे भगवान् सु‍मतिनाथ के कण्‍ठ में जब इन्‍द्रों ने तीन लोक के अधिपतित्‍व की कण्‍ठी बाँध रक्‍खी थी तब उसकी क्‍या प्रशंसा की जावे ? ॥39॥

शिरसे भी ऊँचे उठे हुए उनकी भुजाओं के शिखर ऐसे जान पड़ते थे मानो वक्ष:स्‍थल पर रहने वाली लक्ष्‍मी के क्रीड़ा-पर्वत ही हों ॥40॥

घुटनों तक लटकने वाली विजयी सुमतिनाथ की भुजाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो पृथिवी की लक्ष्‍मी को हरण करने के लिए वीर लक्ष्‍मी ने ही अपनी भुजाएँ फैलाई हों ॥41॥

उनके वक्ष:स्‍थल की शोभा का पृथक्-पृथक् वर्णन कैसे किया जा सकता है जब कि उस पर मोक्षलक्ष्‍मी और अभ्‍युदयलक्ष्‍मी साथ ही साथ निवास करती थीं ॥42॥

उनका मध्‍यभाग कृश होने पर भी कृश नहीं था क्‍योंकि वह मोक्षलक्ष्‍मी और अभ्‍युदयलक्ष्‍मी से युक्‍त उनके भारी शरीर को लीलापूर्वक धारण कर रहा था ॥43॥

उनकी आवर्त के समान गोल नाभि गहरी थी यह कहने की आवश्‍यकता नहीं क्‍योंकि यदि वह वैसी नहीं होती तो उनके शरीर में अच्‍छी ही नहीं जान पड़ती ॥44॥

समस्‍त अच्‍छे परमाणुओं ने विचार किया - हम किसी अच्‍छे आश्रय के विना रूप त‍था शोभा को प्राप्‍त नहीं हो सकते ऐसा विचार कर ही समस्‍त अच्‍छे परमाणु उनकी कमर पर आ कर स्थित हो गये थे और इसीलिए उनकी कमर अत्‍यन्‍त सुन्‍दर हो गई थी ॥45॥

केले के स्‍तम्‍भ आदि पदार्थ अन्‍य मनुष्‍यों की जांघों की उपमानता को भले ही प्राप्‍त हो जावें परन्‍तु भगवान् सुमतिनाथ के जांघों के सामने वे गोलाई आदि गुणों से उपमेय ही बने रहते थे ॥46॥

विधाता ने उनके सुन्‍दर घुटने किसलिए बनाये थे यह बात मैं ही जानता हूँ अन्‍य लोग नहीं जानते और वह बात यह है कि इनकी ऊरूओं तथा जंघाओं में शोभा सम्‍बन्‍धी ईर्ष्‍या न हो इस विचार से ही बीच में घुटने बनाये थे ॥47॥

विधाता ने उनकी जंघाएँ वज्र से बनाई थीं, यदि ऐसा न होता तो वे कृश होने पर भी त्रिभुवन के गुरू अथवा त्रिभुवन में सबसे भारी उनके शरीर के भार को कैसे धारण करतीं ॥48॥

यह पृथिवी संपूर्ण रूप से हमारे तलवों के नीचे आकर लग गई है यह सोचकर ही मानो उनके दोनों पैर हर्ष से कछुवेकी पीठके समान शुभ कान्ति के धारक हो गये थे ॥49॥

इन भगवान् सुमतिनाथ में कर्मों को नष्‍ट करनेवाले इतने धर्म प्रकट होंगे यह कहने के लिए ही मानो विधाता ने उनकी दश अंगुलियाँ बनाई थीं ॥50॥

उनके चरणों के नख ऐसी शंका उत्‍पन्‍न करते थे कि मानो उनसे श्रेष्‍ठ कान्ति प्राप्‍त करने के लिए ही चन्‍द्रमा दश रूप बनाकर उनके चरणों की सेवा करता था ॥51॥

इस प्रकार लक्षणों तथा व्‍यंजनोंसे सुशोभित उनके सर्व शरीर की शोभा मुक्तिरूपी स्‍त्रीको स्‍वीकृत करेगी इसमें कुछ भी संशय नहीं था ॥52॥

इस प्रकार भगवान् की कुमार अवस्‍था स्‍वभाव से ही सुन्‍दरता धारण कर रही थी, यद्यपि उस समय उन्‍हें यौवन नहीं प्राप्‍त हुआ था तो भी वे कामदेव के बिना ही अधिक सुन्‍दर थे ॥53॥

तदनन्‍तर यौवन प्राप्‍त कर कामदेव ने भी उनमें अपना स्‍थान बना लिया सो ठीक ही है क्‍योंकि ऐसे कौन सत्‍पुरूष हैं जो स्‍थान पाकर स्‍वयं नहीं ठहर जाते ॥54॥

इस प्रकार क्रम-क्रम से जब उनके कुमार-काल के दश लाख पूर्व बीत चुके तब उन्‍हें स्‍वर्गलोक के साम्राज्‍य का तिरस्‍कार करनेवाला मनुष्‍योंका साम्राज्‍य प्राप्‍त हुआ ॥55॥

शुक्‍ललेश्‍या को धारण करनेवाले भगवान् सुमतिनाथ न कभी हिंसा करते थे, न झूठ बोलते थे और न चोरी तथा परिग्रह सम्‍बन्‍धी आनन्‍द उन्‍हें स्‍वप्‍न में भी कभी प्राप्‍त होता था । भावार्थ-वे हिंसानन्‍द, मृषानन्‍द, स्‍तेयानन्‍द और परिग्रहानन्‍द इन चारों रौद्रध्‍यानसे रहित थे ॥56॥

उन्‍हें न कभी अनिष्‍ट-संयोग होता था, न कभी इष्‍ट-वियोग होता था, न कभी वेदनाजन्‍य दु:ख होता था और न वे कभी निदान ही करते थे । इस प्रकार वे चारों आर्तध्‍यानसम्‍बन्‍धी संल्‍केशसे रहित थे ॥57॥

गुण, पुण्‍य और सुखोंको धारण करनेवाले भगवान् अनेक गुणों की वृद्धि करते थे, नवीन पुण्‍य कर्म का संचय करते थे और पुरातन समस्‍त पुण्‍य कर्मोंके विपाकका अनुभव करते थे ॥58॥

अनुराग से भरे हुए देव, विद्याधर और भूमिगोचरी मानव सदा उनकी सेवा किया करते थे, उन्‍होंने इस-लोक सम्‍बन्‍धी समस्‍त आरम्‍भ दूर कर दिये थे, और वे सर्व सम्‍पदाओं से परिपूर्ण थे ॥59॥

वे मनुष्‍य तथा देवोंमें होनेवाले काम-भोगोंमें, न्‍यायपूर्ण अर्थ में तथा हितकारी धर्म में श्रेष्‍ठ सुख को प्राप्‍त हुए थे ॥60॥

वे दिव्‍य अंगराग, माला, वस्‍त्र और आभूषणों से सुशोभित, सुन्‍दर, समान अवस्‍थावाली तथा स्‍वेच्‍छा से प्राप्‍त हुई स्त्रियों के साथ रमण करते थे ॥61॥

समान प्रेमसे संतोषित दिव्‍य लक्ष्‍मी और मानुष्‍य लक्ष्‍मी दोनों ही उन्‍हें सुख पहुँचाती थीं सो ठीक ही है क्‍योंकि मध्‍यस्‍थ मनुष्‍य किसे प्‍यारा नहीं होता ? ॥62॥

संसार में सुख वही था जो इनके इन्द्रियगोचर था, क्‍योंकि स्‍वर्ग में भी जो सारभूत वस्‍तु थी उसे इन्‍द्र इन्‍हीं के लिए सुरक्षित रखता था ॥63॥

इस प्रकार दिव्य-लक्ष्मी और राज्य-लक्ष्मी इन दोनों में समय व्यतीत करते हुए भगवान सुमतिनाथ संसार से विरक्‍त हो गये सो ठीक ही है क्‍योंकि निकट भव्‍यपना इसीको कहते हैं ॥64॥

भगवान् ने विचार किया कि अल्‍प सुखकी इच्‍छा रखनेवाले बुद्धिमान् मानव, इस विषयरूपी मांस में क्‍यों लम्‍पट हो रहे हैं । यदि ये संसार के प्राणी मछली के समान आचरण न करें तो इन्‍हें पापरूपी वंसीका साक्षात्‍कार न करना पड़े ॥65॥

जो परम चातुर्य को प्राप्‍त नहीं हैं ऐसा मूर्ख प्राणी भले ही अहितकारी कार्योंमें लीन रहे परन्‍तु मैं तो तीन ज्ञानों से सहित हूँ फिर भी अहितकारी कार्यों में कैसे लीन हो गया ? ॥66॥

जब तक यथेष्‍ट वैराग्‍य नहीं होता और यथेष्‍ट सम्‍यग्‍ज्ञान नहीं होता तब तक आत्‍मा की स्‍व-स्‍वरूप में स्थिरता कैसे हो सकती है ? और जिसके स्‍वस्‍वरूप में स्थिरता नहीं है उसके सुख कैसे हो सकता है ? ॥67॥

राज्‍य करते हुए जब उन्‍हें उन्‍तीस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग बीत चुके तब अपनी आत्‍मा में उन्‍होंने पूर्वोक्‍त विचार किया ॥68॥

उसी समय सारस्‍वत आदि समस्‍त लौकान्तिक देवों ने अच्‍छे-अच्‍छे स्‍तोत्रों द्वारा उनकी स्‍तुति की, देवों ने उनका अभिषेक किया और उन्‍होंने उनकी अभय नामक पालकी उठाई ॥69॥

इस प्रकार भगवान् सुमतिनाथ ने वैशाख सुदी नवमीके दिन मघा नक्षत्र में प्रात:काल के समय सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ वेला का नियम लेकर दीक्षा धारण कर ली । संयम के प्रभाव से उसी समय मन:पर्ययज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया ॥70-71॥

दूसरे दिन वे भिक्षाके लिए सौमनस नामक नगर में गये । वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति के धारक पद्म राजा ने पडगाह कर आहार दिया तथा स्‍वयं प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त की ॥72॥

उन्‍होंने सर्वपाप की निवृत्ति रूप सामायिक संयम धारण किया था, वे मौन से रहते थे, उनके समस्‍त पाप शान्‍त हो चुके थे, वे अत्‍यन्‍त सहिष्‍णु-सहनशील थे और जिसे दूसरे लोग नहीं सह सकते ऐसे तपको बड़ी सावधानीके साथ तपते थे ॥73॥

उन्‍होंने छद्मस्‍थ रहकर बीस वर्ष बिताये । तदनन्‍तर उसी सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास लेकर योग धारण किया ॥74॥

और चैत्र शुक्‍ल एकादशी के दिन जब सूर्य पश्चिम दिशा की ओर ढल रथा था तब केवलज्ञान उत्‍पन्‍न किया ॥75॥

देवों ने उनके ज्ञान-कल्‍याणक की पूजा की । सप्‍त ऋद्धियों के धारक अमर आदि एक सौ सोलह गणधर निरन्‍तर सम्‍मुख रह कर उनकी पूजा करते थे, दो हजार चार सौ पूर्वधारी निरन्‍तर उनके साथ रहते थे, वे दो लाख चौअन हजार तीन सौ पचास शिक्षकों से सहित थे, ग्‍यारह हजार अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, तेरह हजार केवलज्ञानी उनकी स्‍तुति करते थे, आठ हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारण करनेवाले उनका स्‍तवन करते थे, दश हजार चार सौ मन:पर्ययज्ञानी उन्‍हें घेरे रहते थे, और दश हजार चार सौ पचास वादी उनकी वंदना करते थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख बीस हजार मुनियों से वे सुशोभित हो रहे थे ॥76-80॥

अनन्‍तमती आदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ उनकी अनुगामिनी थीं, तीन लाख श्रावक उनकी पूजा करते थे, पाँच लाख श्राविकाएँ उनके साथ थीं ॥81॥

असंख्‍यात देव-देवियों और संख्‍यात तिर्यंचोसे वे सदा घिरे रहते थे । इस प्रकार देवों के द्वारा पूजित हुए भगवान् सुमतिनाथ ने अठारह क्षेत्रों में विहार कर भव्‍य जीवों के लिए उपदेश दिया था । जिस प्रकार अच्‍छी भूमिमें बीज बोया जाता है और उससे महान् फलकी प्राप्ति होती हैउसी प्रकार भगवान् ने प्रशस्‍त अप्रशस्‍त सभी भाषाओंमें भव्‍य जीवों के लिए दिव्‍य ध्‍वान रूपी बीज बोया था और उससे भव्‍य जीवों को रत्‍नत्रयरूपी महान् फलकी प्राप्ति हुई थी ॥82-83॥

अन्‍त में जब उसकी आयु एक मासकी रह गई तब उन्‍होंने विहार करना बन्‍द कर सम्‍मेदगिरि पर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और वहीं से चैत्र शुक्‍ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्‍त किया । देवों ने उनका निर्वाणकल्‍याणक किया ॥84-85॥

जो पहले शत्रु राजाओं को नष्‍ट करने के लिए यमराज के दण्‍ड के समान अथवा इन्‍द्रके समान पुण्‍डरीकिणी नगरी के अधिपति राजा रतिषेण थे, फिर वैजयन्‍त विमान में अहमिन्‍द्र हुए और फिर अनन्‍त लक्ष्‍मी के धारक, समस्‍त गुणों से सम्‍पन्‍न तथा कृतकृत्‍य सुमतिनाथ तीर्थंकर हुए वे तुम सबको सिद्धि प्रदान करें ॥86॥

जो भगवान् स्‍वर्गावतरण के समय गर्भकल्‍याण के उत्‍सवमें 'सद्योजात' कहलाये, जन्‍माभिषेक के समय इन्‍द्रों के व्रजसे विरचित आभूषणों से सुशोभित होकर 'वाम' कहलाये, दीक्षा- कल्‍याण के समय 'अघोर' कहलाये, केवलज्ञान की प्राप्‍ति होने पर 'ईशान' कहलाये और निर्वाण होने पर 'तत्‍पुरूष' कहलाये ऐसे रागद्वेश रहित अतिशय पूज्‍यभगवान् सुमतिनाथ का शान्‍ति के लिए हे भव्य जीवों ! आश्रय ग्रहण करो ॥87॥