कथा :
कमल दिन में ही फूलता है, रातमें बन्द हो जाता है अत: उसमें स्थिर न रह सकनेके कारण जिस प्रकार प्रभा की शोभा नहीं होती और इसीलिए उसनें कमल को छोड़कर जिनका आश्रय ग्रहण किया था उसी प्रकार लक्ष्मी ने भी कमल को छोड़कर जिनका आश्रय लिया था वे पद्मप्रभ स्वामी हम सबकी रक्षा करें ॥1॥ दूसरे धातकीखण्डद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्स देश है । उसके सुसीमा नगर में महाराज अपराजित राज्य करते थे । महाराजअपराजित वास्तव में अपराजित थे क्योंकि उन्हें शत्रु कभी भी नहीं जीत सकते थे और उन्होंने अन्तरंग तथा बहिरंग के सभी शत्रुओं को जीत लिया था ॥2–3॥ वह राजा कुटिल मनुष्यों को अपने पराक्रम से ही जीत लेता था अत: बाहुबलसे सुशोभित उस राजा की सप्तांग सेना केवल बाह्य आडम्बर मात्र थी ॥4॥ उसके सत्य से मेघ किसानों की इच्छानुसार बरसते थे और वर्ष के आदि, मध्य तथा अन्त में बोये जानेवाले सभी धान्य फल प्रदान करते थे ॥5॥ उसके दान के कारण दारिद्रय शब्द आकाश के फूलके समान हो रहा था और पृथिवी पर पहले जिन मनुष्यों में दरिद्रता थी वे अब कुबेर के समान आचरण करने लगे थे ॥6॥ जिस प्रकार उत्तम खेत में बोये हुए बीज सजातीय अन्य बीजों को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार उस राजा के उक्त तीनों महान् गुण सजातीय अन्य गुणों को उत्पन्न करते थे ॥7॥ इस राजा की रूपादि सम्पत्ति अन्य मनुष्यों के समान इसे कुमार्ग में नहीं ले गई थी सो ठीक ही है क्योंकि वृक्षों को उखाडने वाला क्या मेरू पर्वत को भी कम्पित करने में समर्थ है ? ॥8॥ वह राजा राजाओं के योग्य सन्धि विग्रहादि छह गुणों से सुशोभित था और छह गुण उससे सुशोभित थे । उसका राज्य दूसरों के द्वारा घर्षणीय -तिरस्कार करने के योग्य नहीं था पर वह स्वयं दूसरोंका घर्षक -तिरस्कार करने वाला था ॥9॥ इस प्रकार अनेक भावोंमें उपार्जित पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त तथा अनेक मित्रों में बटे हुए राज्य का उसने चिरकाल तक उपभोग किया ॥10॥ तदनन्तर वह विचार करने लगा कि इस संसार में समस्त पर्याय क्षणभंगुर हैं, सुख पर्यायों के द्वारा भोगा जाता है और कारण का विनाश होने पर कार्य की स्थिति कैसे हो सकती है ? ॥11॥ इस प्रकार ऋजुसूत्र नय से सब पदार्थों को भंगुर स्मरण करते हुए उस राजा ने अपने आत्मा को वश करनेवाले सुमित्र पुत्र के लिए राज्य दे दिया, वन में जाकर पिहितास्त्रव जिनेन्द्र को दीक्षा-गुरू बनाया, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधिमण के द्वारा शरीर छोड़कर अत्यन्त रमणीय ऊर्ध्व-ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया ॥12–14॥ इकतीस सागर उसकी आयु थी, दो हाथ ऊँचा शरीर था, शुल्क लेश्या थी, चार सौ पैंसठ दिन में श्वासोच्छवास ग्रहण करता था, इकतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार से संतुष्ट होता था, अपने तेज, बल तथा अवधि- ज्ञान से सप्तमी पृथिवी को व्याप्त करता था और वहीं तक उसकी विकिया-ऋद्धि थी । इस प्रकार अहमिन्द्र सम्बन्धी सुख उसे प्राप्त थे । आयु के अन्त में जब वह वहां से चय कर पृथिवी पर अवतार लेने के लिए उद्यत हुआ ॥15–17॥ तब इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री धरण नाम का एक बडा राजा था । उसकी सुसीमा नाम की रानी थी जो रत्नवृष्टि आदि अतिशयों से सम्मानित थी । माघकृष्ण षष्ठी के दिन प्रात: काल के समय जब चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा का संयोग हो रहा था तब रानी सुसीमा ने हाथी आदि सोलह स्वप्न देखने के बाद मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । पति से स्वप्नों का फल जानकर बहुत ही हर्षित हुई ॥18–20॥ कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशीके दिन त्वष्टृ योग में उसने लाला कमल की कलिका के समान कान्तिवाले अपराजित पुत्र को उत्पन्न किया ॥21॥ इस पुत्र की उत्पत्ति होते ही गुणों की उत्पत्ति हुई, दोष समूह नाश हुआ और हर्ष से प्राणियों का शोक शान्त हो गया ॥22॥ स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग चलानेवाले भगवान् के उत्पन्न होते ही मोहरूपी शत्रु कान्ति-रहित हो गया तथा 'अब मैं नष्ट हुआ' यह सोचकर काँपने लगा ॥23॥ उस समय विद्वानों में निम्न प्रकार का वार्तालाप हो रहा था कि जब भगवान् सब को प्रबुद्ध करेंगे तब बहुत से लोग मोह -निद्रा को छोड़ देवेंगे, प्राणियों का जन्मजात विरोध नष्ट हो जावेगा, लक्ष्मी विकास को प्राप्त होगी और कीर्ति तीनों जगत् में फैल जावेगी ॥24–25॥ उसी समय इन्द्रों ने मेरू पर्वत पर, ले जाकर क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया, हर्ष से पद्मप्रभ नाम रक्खा, स्तुति की, तदनन्तर महाकान्तिमान् जिन-बालक को वापिस लाकर माता की गोद में रक्खा, हर्षित होकर नृत्य किया और फिर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया ॥26–27॥ चन्द्रमा के समान उनके बाल्यकाल की सब बड़े हर्ष से प्रशंसा करते थे सो ठीक ही है क्योंकि जो सबको आह्लादित कर वृद्धि को प्राप्त होता है उससे कौन पराड्.मुख रहता है ? ॥28॥ भगवान् पद्मप्रभ के शरीर की जैसी सुन्दरता थी वैसी सुन्दरता न तो शरीर रहित कामदेवमें थी और न अन्य किसी मनुष्य में भी । यथार्थ में उनकी सुन्दरता की किसी से उपमा नहीं दी जा सकती थी ॥29॥ इसी प्रकार उनके रूप का भी पृथक् पृथक् वर्णन नहीं करना चाहिये क्योंकि जो जो गुण उनमें विद्यमान थे विद्वान् लोग उन गुणों की अन्य मनुष्यों में रहनेवाले गुणों के साथ उपमा नहीं देते थे ॥30॥ स्त्रियाँ पुरूषों की इच्छा करती हैं और पुरूष स्त्रियों की इच्छा करते हैं परन्तु उन पद्मप्रभ की, स्त्रियाँ और पुरूष दोनों ही इच्छा करते थे सो ठीक ही है । क्योंकि जिनका भाग्य अल्प है वे इनके सौभाग्य को नहीं पा सकते हैं ॥31॥ जिस प्रकार मत्त भौरों की पंक्ति आममंजरी में परम संतोष को प्राप्त होती है उसी प्रकार सब मनुष्यों की दृष्टि उनके शरीर में ही परम संतोष प्राप्त करती थी ॥32॥ हम तो ऐसा समझते हैं कि समस्त इन्द्रियों के सुख यदि उन पद्मप्रभ भगवान् में पूर्णता को प्राप्त नहीं थे तो फिर अण्प पुण्य के धारक दूसरे किन्हीं भी मनुष्यों में पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकते थे ॥33॥ जब सुमतिनाथ भगवान् की तीर्थ परम्परा के नब्बे हजार करोड़ सागर बीत गये तब भगवान् पद्मप्रभ उत्पन्न हुए थे ॥34॥ तीस लाख पूर्व उनकी आयु थी, दो सौ पचास धनुष ऊँचा शरीर था और देव लोग उनकी पूजा करते थे । उनकी आयु का जव एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने एकछत्र राज्य प्राप्त किया । उनका वह राज्य क्रम-प्राप्त था -वंश-परम्परा से चला आ रहा था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन मनुष्य उस राज्य की इच्छा नहीं करते हैं जो अन्य रीति से प्राप्त होता है ॥35–36॥ जब भगवान् पद्मप्रभ को राज्यपट्ट बाँधा गया तब सबको ऐसा हर्ष हुआ मानो मुझे ही राज्यपट्ट बाँधा गया हो । उनके देश में आठों महाभय समूल नष्ट हो गये थे ॥37॥ दरिद्रता दूर भाग गई, धन स्वच्छदन्ता से बढ़ने लगा, सब मंगल प्रकट हो गये और सब सम्पदाओं का समागम हो गया ॥38॥ उस समय दाता लोग कहा करते थे कि किस मनुष्य को किस पदार्थ की इच्छा है और याचक लोग कहा करते थे कि किसी को किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है ॥39॥ इस प्रकार जब भगवान् पद्मप्रभ को राज्य प्राप्त हुआ तब संसार मानो सोने से जाग पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि राजाओं का राज्य वही है जो प्रजाको सुख देनेवाला हो ॥40॥ जब उनकी आयु सोलह पूर्वांग कम लाख पूर्व की रह गई तब किसी समय दरवाजे पर बँधे हुए हाथीकी दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवोंका ज्ञान हो गया और तत्त्वों के स्वरूप को जाननेवाले वे संसार को इस प्रकार धिक्कार देने लगे । वे पाप तथा दु:खों को देनेवाले काम-भोगों में विरक्त हो गये । वे विचारने लगे कि इस संसार में ऐसा कौन-सा पदार्थ है जिसे मैंने देखा न हो, छुआ न हो, सूँघा न हो, सुना न हो, और खाया न हो जिससे वह नये के समान जान पड़ता है ॥41–43॥ यह जीव अपने पूर्वभवों में जिन पदार्थो का अनन्त बार उपभोग कर चुका है उन्हें ही बार-बार भोगता है अत: अभिलाषा रूप सागर के बीच पड़े हुए इस जीव से क्या कहा जावे ? ॥44॥ घातिया कर्मों के नष्ट होने पर इसके केवलज्ञानरूपी उपयोग में जब तक सारा संसार नहीं झलकने लगता तब तक मिथ्यात्व आदिसे दूषित इन्द्रियों के विषयों से इसे तृप्ति नहीं हो सकती ॥45॥ यह शरीर रोगरूपी साँपों की वामी है तथा यह जीव देख रहा है कि हमारे इष्टजन इन्हीं रोगरूपी साँपों से काटे जाकर नष्ट हो रहे हैं फिर भी यह शरीर में अविनाशी मोह कर रहा है यह बड़ा आश्चर्य है । क्या आज तक कहीं किसी जीवने आयु के साथ सहवास किया है ? अर्थात् नहीं किया ॥46–47॥ जो हिंसादि पाँच पापों को धर्म मानता है, और इन्द्रिय तथा पदार्थ के सम्बन्ध से होनेवाले सुख को सुख हिंसादि पाँच पापों को धर्म मानता है, और इन्द्रिय तथा पदार्थ के सम्बन्ध से होनेवाले सुख को सुख समझता है उसी विपरीतदर्शी मनुष्य के लिए यह संसार रूचता है - अच्छा मालूम होता है ॥48॥ जिस कार्य से पाप और पुण्य दोनों उपलेपों का नाश हो जाता है, विद्वानोंको सदा उसी का ध्यान करना चाहिये, उसीका आचरण करना चाहिये और उसीका अध्ययन करना चाहिये ॥49॥ इस प्रकार संसार, शरीर और भोग इन तीनोंके वैराग्यसे जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है, लौकान्तिक देवों ने जिनका उत्साह बढ़ाया है और चतुर्निकाय देवों ने जिनके दीक्षा-कल्याणक का अभिषेकोत्सव किया है ऐसे भगवान् पद्मप्रभ, निवृत्ति नाम की पालकी पर सवार होकर मनोहर नाम के वन में गये और वहाँ वेला का नियम लेकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीके दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ आदर पूर्वक उन्होंने शिक्षा के समान दीक्षा धारण कर ली ॥50–52॥ जिन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे विद्वानोंमें श्रेष्ठ पद्मप्रभ स्वामी दूसरे दिन चर्याके लिए वर्धमान नामक नगर में प्रविष्ट हुए ॥53॥ शुक्ल कान्ति के धारक राजा सोमदत्त ने उन्हें दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि पात्रदानसे क्या नहीं होता है ? ॥54॥ शुभ आस्त्रवों से पुण्य का संचय, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह-जय तथा चारित्र इन छह उपायों से कर्म समूह का संवर और तपके द्वारा निर्जरा करते हुए उन्होंने छद्मस्थ अवस्था के छह माह मौन से व्यतीत किये । तदनन्तर क्षपक-श्रेणी पर आरूढ़ होकर उन्होंने चार घातिया-कर्मों का नाश किया तथा चैत्र शुक्ल पौर्णमासी के दिन जब कि सूर्य मध्याह्ण से कुछ नीचे ढल चुका था तब चित्रा नक्षत्र में उन पर कल्याणकारी भगवान् ने केवलज्ञान प्राप्त किया ॥55–57॥ उसी समय इन्द्रों ने आकर उनकी पूजा की । जगत् का हित करनेवाले भगवान्, वज्र चामर आदि एक सौ दश गणधरोंसे सहित थे, दो हजार तीन सौ पूर्वधारियों से युक्त थे, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षकों से उपलक्षित थे, दश हजार अवधिज्ञानी और बारह हजार केवलज्ञानी उनके साथ थे, सौलह हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारकों से समृद्ध थे, दश हजार तीन सौ मन:पर्ययज्ञानी उनकी सेवा करते थे, और नौ हजार छह सौ श्रेष्ठ वादियों से युक्त थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख तीस हजार मुनि सदा उनकी स्तुति करते थे । रात्रिषेणाको आदि लेकर चार लाख बीस हजार आर्यिकाएँ सब ओरसे उनकी स्तुति करतीं थीं । तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच उनके साथ थे ॥58-64॥ इस प्रकार धर्मोपदेशके द्वारा भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते और पुण्यकर्म के उदय से धर्मात्मा जीवों को सुख प्राप्त कराते हुए भगवान् पद्मप्रभ सम्मेद शिखर पर पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक माह तक ठहर कर योग-निरोध किया तथा एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया ॥65-66॥ तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में उन्होंने समुच्छिन्न-क्रिया प्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान के द्वारा कर्मों का नाश कर निर्वाण प्राप्त किया । उसी समय इन्द्र आदि देवों ने आकर उनके निर्वाण-कल्याणक की पूजा की ॥67-68॥ सेवा करने योग्य क्या है ? कमलों को जीत लेने से लक्ष्मी ने भी जिन्हें अपना स्थान बनाया है ऐसे इन्हीं पद्मप्रभ भगवान् के चरणयुगल सेवन करने योग्य हैं । सुनने योग्य क्या है ? सब लोगों को विश्वास उत्पन्न करानेवाले इन्हीं पद्मप्रभ भगवान् के सत्य वचन सुनने के योग्य हैं, और ध्यान करने योग्य क्या है ? अतिशय निर्मल इन्हीं पद्मप्रभ भगवान् के दिग्दिगन्त तक फैले हुए गुणों के समूह का ध्यान करना चाहिये इस प्रकार उक्त स्तुतिके विषयभूत भगवान् पद्मप्रभ तुम सबकी रक्षा करें ॥69॥ जो पहले सुसीमा नगरी के अधिपति, शत्रुओं के जीतनेवाले, अपराजित नाम के लक्ष्मी-सम्पन्न राजा हुए, फिर तप धारण कर तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध करते हुए अन्तिम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए और तदनन्तर कौशाम्बी नगरी में अनन्तगुणों से सहित, इक्ष्वाकुवंश के अग्रणी, निज-परका कल्याण करनेवाले छठवें तीर्थंकर हुए वे पद्मप्रभ स्वामी सब लोगों का कल्याण करें ॥70॥ |