+ भगवान सुपार्श्‍वनाथ चरित -
पर्व - 53

  कथा 

कथा :

जिन्‍होंने जीवाजीवादि तत्‍त्‍वों को सत्‍तव असत्‍त्‍व आदि किसी एक रूप से निश्चित नहीं किया है फिर भी उनके जानकार वही हैं ऐसे सुपार्श्‍वनाथ भगवान् मेरे गुरू हों ॥1॥

धातकीखण्‍ड के पूर्व विदेह-क्षेत्र में सीता नदी के उत्‍तर तट पर सुकच्‍छ नाम का देश है । उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिषेण नाम का राजा राज्‍य करता था ॥2॥

वह राजा बुद्धि और पराक्रम से युक्‍त था, उसके अनुचर सदा उसमें अनुराग रखते थे, यही नहीं दैव भी सदा उसके अनुकूल रहता था । इसलिए उसकी राज्‍यलक्ष्‍मी सबको सुख देनेवाली थी ॥3॥

उसके शरीर की न तो वैद्म लोग रक्षा करते थे और न राज्‍यकी मंत्री ही रक्षा करते थे फिर भी पुण्‍योदय से उसके शरीर और राज्‍य दोनों ही कुशलयुक्‍त थे ॥4॥

धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरूषार्थ परस्‍परका उपकार करते हुए उसी एक राजा में स्थित थे इसलिए यह उस राजाका उपकारीपना ही था ॥5॥

शत्रुओं को जीतनेवाले इस राजा नन्दिषेण को जीतनेकी इच्‍छा सिर्फ इस लोक सम्‍बन्‍धी ही नहीं थी किन्‍तु समीचीन मार्गकी रक्षा करते हुए इसके परलोक के जीतनेकी भी इच्‍छा थी ॥6॥

इस प्रकार वह श्रीमान् तथा बुद्धिमान राजा बन्‍धुओं, मित्रों तथा सेवकोंके साथ राज्‍य-सुख का अनुभव करता हुआ शीघ्र ही विरक्‍त हो गया ॥7॥

वह विचार करने लगा कि यह जीव दर्शनमोह तथा चारित्रमोह इन दोनों मोहकर्म के उदय से मिली हुई मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे कर्मों को बाँधकर उन्‍हीं के द्वारा प्रेरित हुआ चारों गतियोंमें उत्‍पन्‍न होता है ॥8॥

अत्‍यन्‍त दु:खसे तरने योग्‍य इस अनादि संसार में चक्रकी तरह चिरकाल से भ्रमण करता हुआ भव्‍य प्राणी दु:खसे दूषित हुआ कदाचित कालादि लब्धियाँ पाकर अतिशय कठिन मोक्षमार्ग को पाता है फिर भी मोहित हुआ स्त्रियों आदिके साथ क्रीडा करता है । मैं भी ऐसा ही हूँ अत: कामियोंमें मुख्‍य मुझको बार-बार धिक्‍कार है ॥9–10॥

मैं समस्‍त कर्मों को नष्‍ट कर निर्मल हो ऊर्ध्‍वगामी बनकर सबका हित करनेवाले सर्वज्ञ-निरूपित निर्वाणलोकको नहीं प्राप्‍त हो रहा हूँ यह दु:ख की बात है ॥11॥

इस प्रकार विचार कर उत्‍तम ह्णदयको धारण करनेवाले राजा नन्दिषेण ने अपने पद पर सज्‍जनोत्‍तम धनपति नामक अपने पुत्रको विराजमान किया और स्‍वयं अनेक राजाओं के साथ पाप कर्म को नष्‍ट करता हुआ बड़े हर्ष से पूज्‍य अर्हन्‍नन्‍दन मुनिका शिष्‍य बन गया ॥12–13॥

तदनन्‍तर ग्‍यारह अंग का धारी होकर उसने आगम में कही हुई दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍ध किया और आयु के अन्‍त में संन्‍यास मरण कर मध्‍यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्‍यम विमान में अहमिन्‍द्र का जन्‍म धारण किया । वहाँ उसके शुल्‍क लेश्‍या थी, और दो हाथ ऊँचा शरीर था ॥14–15॥

चार सौ पाँच दिन में श्‍वास लेता था और सत्‍ताईस हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता था ॥16॥

उसकी विक्रिया ऋद्धि, अवधिज्ञान, बल और कान्‍ति सप्‍तमी पृथिवी तक थी तथा सत्‍ताईस सागर उसकी आयु थी । इस प्रकार समस्‍त सुख भोगकर आयु के अन्‍त में वह पृथिवी तल पर अवतीर्ण होनेको हुआ तब इस जम्‍बूद्वीप के भारतवर्ष सम्‍बन्‍धी काशी देशमें बनारस नाम की नगरी थी । उसमें सुप्रतिष्‍ठ महाराज राज्‍य करते थे । सुप्रतिष्‍ठका जन्‍म भगवान् वृषभदेव के इक्ष्‍वाकु-वंश में हुआ था । उनकी रानी का नाम था पृथिवीषेणा था । रानी पृथिवाषेणाके घर के आंगन में देवरूपी मेघोंने छह माह तक उत्‍कृष्‍ट रत्‍नों की वर्षा की थी । उसने भाद्रपद शुल्‍क षष्‍ठी के दिन विशाखा नक्षत्र में सोलह शुभ स्‍वप्‍न देखकर मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । उसी समय वह अहमिन्‍द्र रानी के गर्भ में आया । पतिके मुखसे स्‍वप्‍नों का फल जानकर रानी पृथिवीषेणा बहुत ही हर्षित हुई । तदनन्‍तर ज्‍येष्‍ठशुल्‍क द्वादशी के दिन अग्निमित्र नामक शुभयोग में उसने ऐरावत हाथी के समान उन्‍नत और बलवान् अहमिन्‍द्र को पुत्र रूप से उत्‍पन्‍न किया ॥17–22॥

इन्‍द्रों ने सुमेरू पर्वत के मस्‍तक पर उसका जन्‍मकालीन महोत्‍सव किया, उसके चरणों में अपने मुकुट झुकाये और 'सुपार्श्‍व' ऐसा नाम रक्‍खा ॥23॥

पद्मप्रभ जिनेन्‍द्र के बाद नौ हजार करोड़ बीत जाने पर भगवान् सुपार्श्‍वनाथ का जन्‍म हुआ था । उनकी आयु भी इसी अन्‍तराल में सम्मिलित थी ॥24॥

उनकी आयु बीस लाख पूर्व की थी, और शरीर की ऊँचाई दो सौ धनुष थी, वे अपनी कान्ति से चन्‍द्रमा को लज्जित करते थे । इस तरह उन्‍होंने यौवन-अवस्‍था प्राप्‍त की ॥25॥

जब उनके कुमार-काल के पाँच लाख पूर्व व्‍यतीत हो गये तब उन्‍होंने दानी की भाँति धन का त्‍याग करने के लिए साम्राज्‍य स्‍वीकार किया ॥26॥

उस समय इन्‍द्र शुश्रूषा आदि बुद्धि के आठ गुणों से श्रेष्‍ठ, सर्वशास्‍त्रोंमें निपुण झुण्‍डके झुण्‍ड नटों को, देखने योग्‍य तथा नृत्‍य करने में निपुण नर्तकोंको, उत्‍तम कण्‍ठवाले गायकों को, श्रवण करने योग्‍य साढ़ेसात प्रकार के वादित्र-वादकों को, हास्‍य-विनोद करने में चतुर, अनेक विद्याओं और कलाओं में निपुण अन्‍य अनेक मनुष्‍यों को, ऐसे ही गुणों से सहित अनेक स्त्रियोंको तथा गन्‍धर्वों की श्रेष्‍ठ सेना को बुलाकर अनेक प्रकार के विनोदोंसे भगवान् को सुख पहुँचाता था ॥27–29॥

इसी प्रकार चक्षु और कर्ण के सिवाय शेष तीन इन्द्रियों के उत्‍कृष्‍ट विषयों से भी इन्‍द्र, भगवान् को निरन्‍तर सुखी रखता था । यथार्थ में संसार में सुख वही था जिसका कि भगवान् सुपार्श्‍वनाथ उपभोग करते थे ॥30॥

प्रशस्‍त नाम-कर्म के उदय से उनके नि:स्‍वेदत्‍व आदि आठ अतिशय प्रकट हुए थे, वे सर्वप्रिय तथा सर्वहितकारी वचन बोलते थे, उनका व्‍यापाररहित अतुल्‍य बल था, वे सदा प्रसन्‍न रहते थे, उनकी आयु अनपवर्त्‍य थी - असमय में कटनेवाली नहीं थी, गुण, पुण्‍य और सुख रूप थे, उनका शरीर कल्‍याणकारी था, वे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से सहित थे, प्रियंगु के पुष्‍प के समान उनकी कान्‍ति थी, उनके अशुभ कर्म का अनुभाग अत्‍यन्‍त मन्‍द था, शुभ कर्म का अनुभाग अत्‍यन्‍त उत्‍कृष्‍ट था, उनका कण्‍ठ मानो मोक्ष-स्‍वर्ग तथा मानवोचित ऐश्‍वर्यकी कण्‍ठीसे ही सुशोभित था । उनके चरणों में नखों में समस्‍त इन्‍द्रों के मुखकमल प्रतिबिम्बित हो रहे थे, इस प्रकार लक्ष्‍मी को धारण करनेवाले प्रकृष्‍टज्ञानी भगवान् सुपार्श्‍वनाथ अगाध संतोषसागरमें वृद्धि को प्राप्‍त हो रहे थे ॥31–34॥

जिनके प्रत्‍याख्‍यानावरण और संज्‍वलन सम्‍बन्‍धी क्रोध, मान, माया लोभ इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देश-संयम हो जाता है ॥35॥

इसलिए यद्यपि उनके भोगोंपभोग की वस्‍तुओं की प्रचुरता थी तो भी वे अपनी आत्‍माको अपने वश रखते थे, उनकी वृत्ति नियमित थी तथा असंख्‍यातगुणी निर्जरा का कारण थी ॥36॥

जब उनकी आयु बीस पूर्वागं कम एक लाख पूर्व की रह गई तब किसी समय ऋतु का परिवर्तन देखकर वे 'समस्‍त पदार्थ नश्‍वर हैं' ऐसा चिन्‍तवन करने लगे ॥37॥

उनके निर्मल सम्‍यग्ज्ञान रूपी दर्पणमें काललब्‍धि के कारण समस्‍त राज्‍य - लक्ष्‍मी छायाकी क्रीडा के समान नश्‍वर जान पड़ने लगी ॥38॥

मैं नहीं जान सका कि यह राज्‍यलक्ष्‍मी इसी प्रकार शीघ्र ही नष्‍ट हो जानेवाली तथा माया से भरी हुई है । मुझे धिक्‍कार हो, धिक्‍कार हो । सचमुच ही जिनके चित्‍त भोगों के राग से अन्‍धे हो रहे हैं ऐसे कौन मनुष्‍य हैं जो मोहित न होते हों ॥39॥

इस प्रकार भगवान् के मनरूपी सागरमें चन्‍द्रमा के समान उत्‍कृष्‍ट आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हुआ और उसी समय लौकान्‍तिक देवों ने आकर समयानुकूल पदार्थों से भगवान् की स्‍तुति की ॥40॥

तदनन्‍तर भगवान् सुपार्श्‍वनाथ, देवों के द्वारा उठाई हुई मनोगति नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर सहेतुक वन में गये और वहाँ ज्‍येष्‍ठशुल्‍क द्वादशी के दिन सायंकाल के समय, गर्भके विशाखा नखत्रमें वेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयमी हो गये - दीक्षित हो गये । उसी समय उन्‍हें मन:पर्ययज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया ॥41-42॥

दूसरे दिन वे चर्याके लिए सोमखेट नामक नगर में गये । वहाँ सुवर्ण के समान कान्‍तिवाले महेन्‍द्रदत्‍त नाम के राजा ने पडगाह कर देवों से पूजा प्राप्‍त की ॥43॥

सुपार्श्‍वनाथ भगवान् छद्मस्‍थ अवस्‍था में नौ वर्ष तक मौन रहे । तदनन्‍तर उसी सहेतुक वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर वे शिरीष वृक्ष के नीचे ध्‍यानारूढ़ हुए । वहीं फाल्‍गुन (?) कृष्‍ण षष्‍ठी के दिन सांयकाल के समय गर्भावतार के विशाखा नक्षत्र में उन्‍हें केवलज्ञान उत्‍पन्‍न हुआ जिसमें देवों ने उनकी पूजा की ॥44–45॥

वे बलको आदि लेकर पंचानवे गुणधरों से सदा घिरे रहते थे, दो हजार तीस पूर्वधारियों के अधिपति थे, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक उनके साथ रहते थे, नौ हजार अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे, ग्‍यारह हजार केवलज्ञानी उनके सहगामी थे, पन्‍द्रह हजार तीन सौ विक्रियाऋद्धि के धारक उनकी पूजा करते थे, नौ हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे, और आठ हजार छह सौ वादी उनकी वन्‍दना करते थे । इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख मुनियों के स्‍वामी थे । मीनार्याको आदि लेकर तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ उनके साथ रहती थीं, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ उनकी पूजा करती थीं, असंख्‍यात देव-देवियाँ उनकी स्‍तुति करती थीं और संख्‍यात तिर्यंच उनकी वनदना करते थे ॥46–51॥

इस प्रकार लोगों को धर्मामृतरूपी वाणी ग्रहण कराते हुए वे पृथिवीपर विहार करते थे । अन्‍त में जब आयु का एक माह रह गया तब विहार बन्‍द कर वे सम्‍मेदशिखर पर जा पहुँचे । वहाँ एक हजार मुनियों के साथ उन्‍होंने प्रतिमा-योग धारण किया और फाल्‍गुन कृष्‍ण सप्‍तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदयके समय लोकका अग्रभाग प्राप्‍त किया – मोक्ष पधारे ॥52–53॥

तदनन्‍तर पुण्‍यवान् कल्‍पवासी उत्‍तम देवों ने निर्वाण-कल्‍याणक किया, तथा 'यहाँ निर्वाण-क्षेत्र है' इस प्रकार सम्‍मेदशिखर को निर्वाण-क्षेत्र ठहराकर स्‍वर्ग की ओर प्रयाण किया ॥54॥

अत्‍यन्‍त बुद्धिमान् और निपुण जिन सुपार्श्‍वनाथ भगवान् ने दु:ख से निवारण करने के योग्‍य पापरूपी बड़े भारी शत्रुओं के समूह को निष्‍क्रिय कर दिया, मौन रखकर उसके साथ युद्ध किया, कुछ काल तक समवसरण में प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त की, अत्‍यन्‍त दुष्‍ट दुर्वासनाको दूर किया और अन्‍त में निर्वाण की अवधि को प्राप्‍त किया, वे श्रेष्‍ठतम भगवान् सुपार्श्‍वनाथ हम सब परिचितों को चिरकाल के लिए शीघ्र ही अपने समीपस्‍थ करें ॥55॥

जो पहले भवमें क्षेमपुर नगर के स्‍वामी तथा सबके द्वारा स्‍तुति करने योग्‍य नन्‍दिषेण राजा हुए, फिर तप कर नव ग्रैवेयकों में से मध्‍य के ग्रैवेयक में अहमिन्‍द्र हुए, तदनन्‍तर बनारस नगरी में शत्रुओं को जीतनेवाले और इक्ष्‍वाकु वंश के तिलक महाराज सुपार्श्‍व हुए वे सप्‍तम तीर्थंकर तुम सबकी रक्षा करें ॥56॥