+ भगवान चन्‍द्रप्रभ चरित -
पर्व - 54

  कथा 

कथा :

जो स्‍वयं शुद्ध हैं और जिन्‍होंने अपनी प्रभाके द्वारा समस्‍त सभाको एक वर्णकी बनाकर शुद्ध कर दी, वे चन्‍द्रप्रभ स्‍वामी हम सबकी शुद्धिके लिए हों ॥1॥

शरीर की प्रभाके समान जिनकी वाणी भी हर्षित करनेवाली तथा पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली थी और जो आकाश में देवरूपी ताराओंसे घिरे रहते थे उन चन्‍द्रप्रभ स्‍वामीको नमस्‍कार करता हूँ ॥2॥

जिनका नाम लेना भी जीवों के समस्‍त पापोंको नष्‍ट कर देना है फिर सुना हुआ उनका पवित्र चरित्र क्‍यों नहीं नष्‍ट कर देगा ? इसलिए मैं पहलेके सात भवोंसे लेकर उनका पवित्र चरित्र क्‍यों नहीं नष्‍ट कर देगा ? इसलिए मैं पहलेके सात भवोंसे लेकर उनका चरित्र कहूंगा । हे भव्‍य श्रेणिक ! तुझे उसे श्रद्धा रखकर सुनना चाहिये ॥3–4॥

दान, पूजा तथा अन्‍य कारण यदि सम्‍यज्ञान से सुशोभित होते हैं तो वे मुक्‍तिके कारण होते हैं और चूँकि वह सम्‍यग्‍ज्ञान इस पुराण के सुनने से होता है अत: हितकी इच्‍छा करनेवाले पुरूषोंके द्वारा अवश्‍य ही सुननेके योग्‍य हैं ॥5॥

अर्हन्‍त भगवान् ने अनुयोगोंके द्वारा जो चार प्रकार के सूक्‍त बतलाये हैं उनमें पुराण प्रथम सूक्‍त है ! भगवान् ने इन पुराणोंसे ही सुननेका क्रम बतलाया है ॥6॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थका उपदेश देनेवाले भगवान् ऋषभदेव आदिके पुराणोंको जो जीभ कहती है, जो कान सुनते हैं और जो मन सोचता है वही जीभ है, वही कान है और वही मन है, अन्‍य नहीं ॥7॥

इस मध्‍यम लोक में एक पुष्‍करद्वीप है । उसके बीच में मानुषोत्‍तर पर्वत है । यह पर्वत चारों ओरसे बलयके आकार गोल है तथा मनुष्‍यों के आवागमन की सीमा है ॥8॥

उसके भीतरी भाग में दो सुमेरू पर्वत हैं एक पूर्व मेरू और दूसरा पश्चिम मेरू । पूर्व मेरूके पश्चिमकी ओर विदेहक्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्‍तर तट पर एक सुगन्‍धि नाम का बड़ा भारी देश है । जो कि योग्‍य किला, वन, खाई, खानें और बिना वोये होनेवाली धान्‍य आदि पृथिवीके गुणों से सुशोभित है ॥9-10॥

उस देशके सभी मनुष्‍य क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र वर्णमें विभक्‍त थे तथा नेत्र विशेषके समान स्‍नेह से भरे हुए, सूक्ष्‍म पदार्थों को देखने वाले एवं दर्शनीय थे ॥11॥

उस देशके किसान तपस्वियोंका अतिक्रमण करते थे अर्थात् उनसे आगे बढ़े हुए थे । जिस प्रकार तपस्‍वी ऋजु अर्थात् सरलपरिणामी होते हैं उसी प्रकार वहाँके किसान भी सरलपरिणामी – भोले भाले थे, जिस प्रकार तपस्‍वी धार्मिक होते हैं उसी प्रकार किसान भी धार्मिक थे – धर्मात्‍मा थे अथवा खेतीकी रक्षाके लिए धर्म – धनुषसे सहित थे, जिस प्रकार तपस्‍वी वीतदोष – दोषों से रहित होते हैं उसी प्रकार किसान भी वीतदोष – निर्दोष थे अथवा खेतीकी रक्षाके लिए दोषाएँ – रात्रियाँ व्‍यतीत करते थे, जिस प्रकार तपस्‍वी क्षुधा तृषा आदिके कष्‍ट सहन करते हैं उसी प्रकार किसान भी क्षुधा तृषा आदिके कष्‍ट सहन करते थे । इस प्रकार सादृश्‍य होने पर भी किसान तपस्वियों से आगे बढ़े हुए थे उसका कारण था कि तपस्‍वी मनुष्‍यों के आरम्‍भ सफल भी होते थे और निष्‍फल भी चले जाते थे परन्‍तु किसानोंके आरम्‍भ निश्चित रूप से सफल ही रहते थे ॥12॥

वहांके सरोवर अत्‍यन्‍त निर्मल थे, सुख से उपभोग करने के योग्‍य थे, कमलोंसे सहित थे, सन्‍तापका छेद करनेवाले थे, अगाध – गहरे थे और मन तथा नेत्रोंको हरण करनेवाले थे ॥13॥

वहांके खेत राजा के भाण्‍डारके समान जान पड़ते थे, क्‍योंकि जिस प्रकार राजाओं के भण्‍डार सब प्रकार के अनाजसे परिपूर्ण रहते हैं उसी प्रकार वहांके खेत भी सब प्रकार के अनाजसे परिपूर्ण रहते थे, राजाओं के भण्‍डार जिस प्रकार हमेशा सबको संतुष्‍ट करते हैं उसी प्रकार वहांके खेत भी हमेशा सबको सन्‍तुष्‍ट रखते थे, और राजाओं के भंडार जिस प्रकार सम्‍पन्‍न -सम्‍पत्ति से युक्‍त रहते हैं उसी प्रकार वहां के खेत भी धान्‍यरूपी सम्‍पत्तिसे सम्‍पन्‍न रहते थे अथवा ‘समन्‍तान् पन्‍ना: सम्‍पन्‍ना:’ सब ओरसे प्राप्‍त करने योग्‍य थे ॥14॥

वहांके गाँव इतने समीप थे कि मुर्गा भी एकसे उड़ कर दूसरे पर जा सकता था, उत्‍तम थे, उनमें बहुतसे किसान रहते थे, पशु धन धान्‍य आदिसे परिपूर्ण थे । उनमें निरंतर काम – काज होते रहते थे तथा सब प्रकारसे निराकुल थे ॥15॥

वे गांव दण्‍ड आदिकी बाधासे रहित होने के कारण सर्व सम्‍पत्तियों से सुशोभित थे, वर्णाश्रमसे भरपूर थे और वहीं रहने वाले लोगोंका अनुकरण करनेवाले थे ॥16॥

वह देश ऐसे मार्गोंसे सहित था जिनमें जगह – जगह कंधों पर्यन्‍त पानी भरा हुआ था, अथवा जो असंचारी – दुर्गम थे, अथवा जो असंवारि – आने जानेकी रूकावटसे रहित थे । वहांके वृक्ष फलोंसे लदे हुए तथा कांटोंसे रहित थे । आठ प्रकार के भयोंमें से वहाँ एक भी भय दिखाई नहीं देता था और वहांके वन समीपवर्ती गलियों रूपी स्त्रियों के आश्रय थे ॥17॥

नीतिशास्‍त्रके विद्वानोंने देशके जो जो लक्षण कहे हैं यह देश उन सबका लक्ष्‍य था अर्थात् वे सब लक्षण इसमें पाये जाते थे ॥18॥

उस देशमें धनकी हानि सत्‍पात्रको दान देते समय होती थी अन्‍य समय नहीं । समीचीन क्रिया की हानि फल प्राप्‍त होने पर ही होती थी अन्‍य समय नहीं । उन्‍नतिकी हानि विनयके स्‍थान पर होती थी अन्‍य स्‍थान पर नहीं, और प्राणों की हानि आयु समाप्‍त होने पर ही होती थी अन्‍य समय नहीं ॥19॥

ऊँचे उठे हुए पदार्थोंमें यदि कठोरता थी तो स्त्रियों के स्‍तनोंमें ही थी अन्‍यत्र नहीं थी । प्रपात यदि था तो हाथियोंमें ही था अर्थात् उन्‍हींका मद झरता था अन्‍य मनुष्‍योंमें प्रपात अर्थात् पतन नहीं था । अथवा प्रपात था तो गुहा आदि निम्‍न स्‍थानवर्ती वृक्षोंमें ही था अन्‍यत्र नहीं ॥20॥

वहाँ यदि दण्‍ड था तो छत्र अथवा तराजूमें ही था वहांके मनुष्‍योंमें दण्‍ड नहीं था अर्थात् उनका कभी जुर्माना नहीं होता था । तीक्ष्‍णता – तेजस्विता यदि थी तो कोतवाल आदिमें ही, वहांके मनुष्‍योंमें तीक्ष्‍णता नहीं-क्रूरता नहीं थी । रूकावट केवल पुलोंमें ही थी वहांके मनुष्‍योंमें किसी प्रकारकी रूकावट नहीं थी । और अपवाद यदि था तो व्‍याकरण शास्‍त्रमें ही था वहांके मनुष्‍योंमें अपवाद - अपयश नहीं था ॥21॥

निस्त्रिंश शब्‍द कृपाणमें ही आता था अर्थात् कृपाण ही (त्रिंशद्भ्‍योऽगुंलिभ्‍यो निर्गत इति निस्त्रिंश:) तीस अंगुलसे बड़ी रहती थी, वहांके मनुष्‍योंमें निस्त्रिंश - क्रूर शब्‍दका प्रयोग नहीं होता था । विश्‍वाशित्‍व अर्थात् सब चीजें खा जाना यह शब्‍द अग्निमें ही था वहांके मनुष्‍यों में विश्‍वाशित्‍व - सर्वभक्षकपना नहीं था । तापकत्‍व अर्थात् संताप देना केवल सूर्यमें था वहांके मनुष्‍योंमें नहीं था, और मारकत्‍व केवल यमराज के नामोंमें था वहांके मनुष्‍योंमें नहीं था ॥22॥

जिस प्रकार सूर्य दिन में ही रहता है उसी प्रकार धर्म शब्‍द केवल जिनेन्‍द्र प्रणीत धर्म में ही रहता था । यही कारण था कि वहाँ पर उल्‍लुओं के समान एकान्‍त वादोंका उद्गम नहीं था ॥23॥

उस देशमें सदा यथास्‍थान रखे हुए यन्‍त्र, शस्‍त्र, जल, जौ, घोड़े और रक्षकों से भरे हुए किले थे ॥24॥

जिस प्रकार ललाटके बीच में तिलक होता है उसी प्रकार अनेक शुभस्‍थानोंसे युक्‍त उस देशके मध्‍य में श्रीपुर नाम का नगर है । वह श्रीपुर नगर अपनी सब तरहकी मनोहर वस्‍तुओंसे देवनगर के समान जान पड़ता था ॥25॥

खिले हुए नीले तथा लाल कमलोंके समूह ही जिनके नेत्र हैं ऐसे स्‍वच्‍छ जलसे भरे हुए सरोवररूपी मुखोंके द्वारा वह नगर शत्रुनगरोंकी शोभाकी मानो हँसी ही उड़ाता था ॥26॥

उस देशमें अनेक प्रकार के फूलों के स्‍वादिष्‍ट केशरके रसको पीनेवाले भौंरे भ्रमरियोंके समूह के साथ पान - गोष्‍ठीका आनन्‍द प्राप्‍त करते थे ॥27॥

उस नगर में बड़े - बड़े ऊँचे पक्‍के भवन बने हुए थे, उनमें मृदंगोंका शब्‍द हो रहा था । जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो ‘आप लोग यहाँ विश्राम कीजिये’ इस प्रकार वह नगर मेघोंको ही बुला रहा था ॥28॥

ऐसा मालूम होता था कि वह नगर सर्व वस्‍तुओं का मानो खान था । यदि ऐसा न होता तो निरन्‍तर उपभोगमें आने पर वे समाप्‍त क्‍यों नहीं होतीं ? ॥29॥

उस नगर में जो वस्‍तु दिखाई देती थी वह अपने वर्गमें सर्वश्रेष्‍ठ रहती थी अत: देवोंको भी भ्रम हो जाता था कि क्‍या यह स्‍वर्ग ही है ? ॥30॥

वहांके रहने वाले सभी लोग उत्‍तम कुलोंमें उत्‍पन्‍न हुए थे, व्रतसहित थे तथा सम्‍यग्‍दृष्टि थे अत: वहांके मरे हुए जीव स्‍वर्ग में ही उत्‍पन्‍न होते थे ॥31॥

‘स्‍वर्ग में क्‍या रक्‍खा ? वह तो ऐसा ही है’ यह सोच कर वहांके सम्‍यग्‍दृष्टि मनुष्‍य मोक्ष के लिए ही धर्म करते थे, स्‍वर्ग की इच्छा से नहीं ॥32॥

उस नगर में विवेकी मनुष्‍य उत्‍सवके समय मंगलके लिए और शोकके समय उसे दूर करने के लिए जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा किया करते थे ॥33॥

वहांके जैनवादी लोग अपरिमित सुख देनेवाले धर्म, अर्थ और कामको साध्‍य पदार्थों के समान उन्‍हींसे उत्‍पन्‍न हुए हेतुओंसे सिद्ध करते थे ॥34॥

उस नगरको घेरे हुए जो कोट था वह ऐसा जान पड़ता था मानो पुष्‍करवरद्वीप के बीच में पड़ा हुआ मानुषोत्‍तर पर्वत ही हो । वह कोट अपने रत्‍नों की किरणोंमें ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य के संतापके भय से छिप ही गया हो ॥35॥

नमस्कार करने वाले शत्रु राजाओं के मुकुटों में लगे हुए रत्नों की किरणों रुपी जल में जिसके चरण, कमल के समान विकसित हो रहे हैं ऐसा, इंद्र के समान कान्ति का धारक श्रीषेण नाम का राजा उस श्रीपुर नगर का स्‍वामी था ॥36॥

जिस प्रकार शक्तिशाली मन्‍त्रके समीप सर्प विकाररहित हो जाते हैं उसी प्रकार विजयी श्रीषेणके पृथिवी का पालन करने पर सब दुष्‍ट लोग विकाररहित हो गये थे ॥37॥

उसने साम, दान आदि उपायोंका ठीक - ठीक विचार कर यथास्‍थान प्रयोग किया था इसलिए वे दाताके समान बहुत भारी इच्छित फल प्रदान करते थे ॥38॥

उसकी विनय करनेवाली श्रीकान्‍ता नाम की स्‍त्री थी । वह श्रीकान्‍ता किसी अच्‍छे कवि की वाणी के समान थी । क्‍योंकि जिस प्रकार अच्‍छे कवि की वाणी सती अर्थात् दु:श्रवत्‍व आदि दोषों से रहित होती है उसी प्रकार वह भी सती अर्थात् पतिव्रता थी और अच्‍छे कवि की वाणी जिस प्रकार मृदुपदन्‍यासा अर्थात् कोमलकान्‍तपदविन्‍यास से युक्‍त होती है उसी प्रकार वह भी मृदुपदन्‍यासा अर्थात् कोमल चरणों के निक्षेप से सहित थी ॥39॥

स्त्रियों के रूप आदि जो गुण हैं वे सब उसमें सुख देनेवाले उत्‍पन्‍न हुए थे । वे गुण पुत्र के समान पालन करने योग्‍य थे और गुरूओं के समान सज्‍जनोंके द्वारा वन्‍दनीय थे ॥40॥

जिस प्रकार स्‍यादेवकार - स्‍यात् एव शब्‍दसे ( किसी अपेक्षासे पदार्थ ऐसा ही है ) से युक्‍त नय किसी विद्वान के मन को आनन्दित करते हैं उसी प्रकार उसकी कान्‍ता के रूप आदि गुण पतिके मन को आनन्दित करते थे ॥41॥

वह स्‍त्री अन्‍य स्त्रियों के लिए आदर्शके समान थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो नाम-कर्म रूपी विधाता ने अपनी बुद्धि की प्रकर्षता बतलानेके लिए गुणों की पेटी ही बनाई हो ॥42॥

वह दम्‍पती देवदम्‍पतीके समान पापरहित, अविनाशी, कभी नष्‍ट न होनेवाले और समान तृप्ति को देनेवाले उत्‍कृष्‍ट सुख को प्राप्‍त करता था ॥43॥

वह राजा निष्‍पुत्र था अत: शोक से पीड़ि‍त होकर पुत्र के लिए अकेला अपने मन में निम्‍न प्रकार विचार करने लगा ॥44॥

स्त्रियाँ संसार की लता के समान हैं और उत्‍तम पुत्र उनके फल के समान है । यदि मनुष्‍य के पुत्र नहीं हुए तो इस पापी मनुष्‍य के लिए पुत्रहीन पापिनी स्त्रियों से क्‍या प्रयोजन है ? ॥45॥

जिसने दैवयोग से पुत्र का मुखकमल नहीं देखा है वह छह खण्‍ड की लक्ष्‍मी का मुख भले ही देख ले पर उससे क्‍या लाभ है ॥46॥

उसने पुत्र प्राप्‍त करने के लिए पुरोहितके उपदेशसे पाँच वर्णके अमूल्‍य रत्‍नों से मिले सुवर्णकी जिन-प्रतिमाएँ बनवाईं । उन्‍हें आठ प्रातिहार्यों तथा भृंगार आदि आठ मंगल-द्रव्‍य से युक्‍त किया, प्रतिष्‍ठा-शास्‍त्र में कही हुई क्रियाओं के क्रम से उनकी प्रतिष्‍ठा कराई, महाभिषेक किया, जिनेन्‍द्र भगवान् के संसर्ग से मंगल रूप हुए गन्‍धोदकसे रानी के साथ स्‍वयं स्‍नान किया, जिनेन्‍द्र भगवान् की स्‍तुति की तथा इस लोक और परलोक सम्‍बन्‍धी अभ्‍युदयको देनेवाली आष्‍टाह्निकी पूजा की ॥47–50॥

इस प्रकार कुछ दिन व्‍यतीत होने पर कुछ कुछ जागती हुई रानीने हाथी सिंह चन्‍द्रमा और लक्ष्‍मी का अभिषेक ये चार स्‍वप्‍न देखे ॥51॥

उसी समय उसके गर्भ धारण हुआ तथा क्रम से आलस्‍य आने लगा, अरूचि होने लगी, तन्‍द्रा आने लगी और बिना कारण ही ग्‍लानि होने लगी ॥52॥

उसके दोनों स्‍तन चिरकाल व्‍यतीत हो जाने पर भी परस्‍पर एक दूसरेको जीतने में समर्थ नहीं हो सके थे अत: दोनोंके मुख प्रतिदिन कालिमा को धारण कर रहे थे ॥53॥

'स्त्रियों के लिये लज्‍जा ही प्रशंसनीय आभूषण है अन्‍य आभूषण नहीं' यह स्‍पष्‍ट करने के लिए ही मानो उसकी समस्‍त चेष्‍टाएँ लज्‍जासे सहित हो गई थीं ॥54॥

जिस प्रकार रात्रिके अन्‍त भाग में आकाशके ताराओं के समूह अल्‍प रह जाते हैं उसी प्रकार भार धारण करने में समर्थ नहीं होनेसे उसके योग्‍य आभूषण भी अल्‍प रह गये थे – विरल हो गये थे ॥55॥

जिस प्रकार अल्‍प धनवाले मनुष्‍य की विभूतियाँ परिमित रहती हैं उसी प्रकार उसके वचन भी परिमित थे और नई मेघमाला के शब्‍दके समान रुक-रुक कर बहुत देर बाद सुनाई देते थे ॥56॥

इस प्रकार उसके गर्भके चिह्न निकटवर्ती मनुष्‍यों के लिए कुतूहल उत्‍पन्‍न कर रहे थे । वे चिह्न कुछ प्रकट थे और कुछ अप्रकट थे ॥57॥

यह समाचार कहा । यद्यपि यह समाचार दासियोंके मुख की प्रसन्‍नतासे पहले ही सूचित हो गया था तो भी उन्‍होंने कहा था ॥58॥

गर्भ धारण का समाचार सुनकर राजा का मुख-कमल ऐसा विकसित हो गया जैसा कि सूर्योदयसे कमल और चन्‍द्रोदयसे कुमुद विकसित हो जाता है ॥59॥

जो वंशरूपी समूद्रको वृद्धिंगत करने के लिए चन्‍द्रोदयके समान है अथवा कुलको अलंकृत करने के लिए तिलकके समान है ऐसा पुत्रका प्रादुर्भाव किसके संतोषके लिए नहीं होता ? ॥60॥

जिसका मुखकमल अभी देखने को नहीं मिला है, केवल गर्भ में ही स्थित है ऐसा भी जब मुझे इस प्रकार संतुष्‍ट कर रहा है तब मुख दिखाने पर कितना संतुष्‍ट करेगा इस बात का क्‍या कहना है ॥61॥

ऐसा मान कर राजा ने उन दासियोंके लिये इच्‍छित पुरस्‍कार दिया और द्विगुणित आनन्दित होता हुआ कुछ आम जनों के साथ वह रानी के घर गया ॥62॥

वहाँ उसने नेत्रोंको सुख देनेवाली रानीको ऐसा देखा मानो मेघ से युक्‍त आकाश ही हो, अथवा रत्‍नगर्भा पृथिवी हो अथवा उदय होने के समीपवर्ती सूर्यसे युक्‍त पूर्व दिशा ही हो ॥63॥

राजा को देखकर रानी खड़ी होनेकी चेष्‍ठा करने लगी परन्‍तु 'हे देवि, बैठी रहो' इस प्रकार राजा के मना किये जाने पर बैठी रही ॥64॥

राजा एक ही शय्या पर चिरकाल तक रानी के साथ बैठा रहा और लज्‍जा सहित रानी के साथ योग्‍य वार्तालाप कर हर्षित होता हुआ वापिस चला गया ॥65॥

तदनन्‍तर कितने ही दिन व्‍यतीत हो जाने पर पुण्‍य-कर्म के उदय से अथवा गुरू शुक्र आदि शुभ ग्रहोंके विद्यमान रहते हुए उसने जिस प्रकार इन्‍द्र की दिशा ( प्राची ) सूर्य को उन्‍नत करती है, शरद्-ऋतु पके हुए धानको उत्‍पन्‍न करती है और कीर्ति महोदय को उत्‍पन्‍न करती है उसी प्रकार उसी प्रकार रानीने उत्‍तम पुत्र उत्‍पन्‍न किया ॥66- 67॥

जिसका भाग्‍य बढ रहा है और जो सम्‍पूर्ण लक्ष्‍मी पानेके योग्‍य है ऐसे उस पुत्रका बन्‍धुजनोंने 'श्रीवर्मा' यह शुभ नाम रक्‍खा ॥68॥

और थोड़ी सेनावाले राजा को विजय मिलनेसे संतोष होता है उसी प्रकार उस पुत्र-जन्‍मसे राजा को संतोष हुआ था ॥69॥

उस पुत्र के शरीर के तेज से जिनकी कान्‍ति नष्‍ट हो गई है ऐसे रत्‍नोंके दीपक रात्रिके समय सभा-भवन में निरर्थक हो गये थे ॥70॥

उसके शरीर की वृद्धि वैद्यक शास्‍त्रमें कही हुई विधिके अनुसार होती थी और अच्‍छी क्रियाओं को करनेवाली बुद्धिकी वृद्धि व्‍याकरण आदि शास्‍त्रोंके अनुसार हुई थी ॥71॥

जिस प्रकार यह जम्‍बूद्वीप ऊँचे मेरू पर्वत से सुशोभित होता है उसी प्रकार पृथिवी – मंडलका पालन करनेवाला यह लक्ष्‍मी - सम्‍पन्‍न राजा उस श्रेष्‍ठ पु्त्रसे सुशोभित हो रहा था ॥72॥

किसी एक दिन शिवंकर वनके उद्यान में श्रीपद्म नाम के जिनराज अपनी इच्छा से पधारे थे । वनपालसे यह समाचार सुनकर राजा ने उस दिशामें सात कदम जाकर शिरसे नमस्‍कार किया और बड़ी विनयके साथ उसी समय जिनराज के पास जाकर तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, नमस्‍कार किया और यथास्‍थान आसन ग्रहण किया । राजा ने उनसे धर्म का स्‍वरूप पूछा, उनके कहे अनुसार वस्‍तु तत्‍वका ज्ञान प्राप्‍त किया, शीघ्र ही भोगोंकी तृष्‍णा छोड़ी, धर्म की तृष्‍णा में अपना मन लगाया, श्री वर्मा पुत्र के लिए राज्‍य दिया और उन्‍हीं श्रीपद्म जिनेन्‍द्र के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥73–76॥

जिनेन्‍द्र भगवान् के उपदेश से जिसका मिथ्‍यादर्शनरूपी महान्‍धकार नष्‍ट हो गया है । ऐसे श्रीवर्मा ने भी वह चतुर्थ गुणस्‍थान धारण किया जो कि मोक्ष की पहली सीढ़ी कहलाती है ॥77॥

चतुर्थ गुणस्‍थान के सन्निधानमें जिस पुण्‍य-कर्म का संचय होता है वह स्‍वयं ही इच्‍छानुसार समस्‍त पदार्थों को सन्निहित - निकटस्‍थ करता रहता है । उन पदार्थों से श्रीवर्मा ने इच्‍छित सुख प्राप्‍त किया था ॥78॥

किसी समय राजा श्रीवर्मा आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन जिनेन्‍द्र भगवान् की उपासना और पूजा कर अपने आप्‍तजनों के साथ रात्रि में महलकी छत पर बैठा था ॥79॥

वहाँ उल्‍कापात देखकर वह भोगों से विरक्‍त हो गया । उसने श्रीकान्‍त नामक बड़े पुत्र के लिए राज्‍य दे दिया और श्रीप्रभ जिनेन्‍द्र के समीप दीक्षा लेकर चिरकाल तक तप किया तथा अन्‍त में श्रीप्रभ नामक पर्वत पर विधिपूर्वक संन्‍यासमरण किया ॥80-81॥

जिससे प्रथम स्‍वर्गके श्रीप्रभ विमान में दो सागर की आयु वाला श्रीधर नाम का देव हुआ ॥82॥

वह देव अणिमा, महिमा आ‍दि आठ गुणों से युक्‍त था, सात हाथ ऊँचा उसका शरीर था, वैकियिक शरीर का धारक था, पीतलेश्‍या वाला था, एक माह में श्‍वास लेता था; दो हजार वर्ष में अमृतमय पुद्गलों का मानसिक आहार लेता था, काय-प्रवीचार से संतुष्‍ट रहता था, प्रथम पृथिवी तक उसका अवधिज्ञान था, बल तेज तथा विक्रिया भी प्रथम पृथिवी तक थी, इस तरह अपने पुण्‍य कर्म के परिपाकसे प्राप्‍त हुए सुख का उपभोग करता हुआ वह सुख से रहता था ॥83-85॥

धातकीखण्‍ड द्वीप की पूर्व दिशा में जो इष्‍वाकार पर्वत है उससे दक्षिण की ओर भरत-क्षेत्र में एक अलका नाम का सम्‍पन्‍न देश है । उसमें अयोध्‍या नाम का नगर है । उसमें अजितंजय राजा सुशोभित था । उसकी अजितसेना नाम की वह रानी थी जो कि पुत्र-सुख को प्रदान करती थी ॥86-87॥

किसी एक दिन पुत्र-प्राप्‍ति के लिए उसने जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा की और रात्रि को पुत्रकी चिन्‍ता करती हुई सो गई । प्रात: काल नीचे लिखे हुए आठ शुभ स्‍वप्‍न उसने देखे । हाथी, बैल, सिंह, चन्‍द्रमा, सूर्य, कमलों से सुशोभित सरोवर, शंख और पूर्ण कलश । राजा अजितंजयसे उसने स्‍वप्‍नों का निम्‍न प्रकार फल ज्ञात किया । हे देवि ! हाथी देखने से तुम पुत्र को प्राप्‍त करोगी; बैलके देखने से वह पुत्र गंभीर प्रकृति का होगा; सिंह के देखने से अनन्‍तबलका धारक होगा, चन्‍द्रमा के देखने से सबको संतुष्‍ट करनेवाला होगा, सूर्य के देखने से तेज और प्रतापसे युक्‍त होगा, सरोवरके देखने से सबको शंख, चक्र आदि बत्‍तीस लक्षणों से सहित होगा, शंख देखने से चक्रवर्ती होगा और पूर्ण कलश देखने से निधियोंका स्‍वामी होगा ॥88–91॥

स्‍वप्‍नों का उक्‍त प्रकार फल जानकर रानी बहुतही संतुष्‍ट हुई । तदनन्‍तर कुछ माह बाद उसने पूर्वोक्‍त श्रीधरदेव को उत्‍पन्‍न किया । राजा ने शत्रुओं को जीतनेवाले इस पुत्र का अजितसेन नाम रक्‍खा ॥92॥

राजा उस तेजस्‍वी पुत्र से ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि धुलिरहित दिन सूर्य से सुशोभित होता है । यथार्थमें ऐसा पुत्र ही कुल का आभूषण होता है ॥93॥

दूसरे दिन स्‍वयंप्रभ नामक तीर्थंकर अशोक वन में आये । राजा ने परिवार के साथ जाकर उनकी पूजा की, स्‍तुति की, धर्मोपदेश सुना और सज्‍जनों के छोड़ने योग्‍य राज्‍य शत्रुओं को जीतनेवाले अजितसेन पुत्र के लिए देकर संयम धारण कर लिया तथा स्‍वयं केवलज्ञानी बन गए ॥94–95॥

इधर अनुराग से भरी हुई राज्‍य-लक्ष्‍मी ने कुमार अजितसेन को अपने वश कर लिया जिससे वह युवावस्‍था में ही प्रौढ़की तरह मुख्‍य सुखों का अनुभव करने लगा ॥96॥

उसके पुण्‍य-कर्म के उदय से चक्रवर्ती के चक्ररत्‍न आदि जो-जो चेतन-अचेतन सामग्री उत्‍पन्‍न होती है वह सब आकर उत्‍पन्‍न हो गई ॥97॥

उसके समस्‍त दिशाओं के समूह को जीतनेवाला चक्ररत्‍न प्रकट हुआ । चक्ररत्‍न के प्रकट होते ही उस विजयी के लिए दिग्विजय करना नगर के बाहर घूमने के समान सरल हो गया ॥98॥

इस चक्रवर्ती के कारण कोई भी दु:खी नहीं था और यद्यपि यह छह खण्‍ड का स्‍वामी था फिर भी परिग्रह में इसकी आसक्ति नहीं थी । यथा‍र्थ में पुण्‍य तो वही है जो पुण्‍य-कर्म का बन्‍ध करनेवाला हो ॥99॥

उसके साम्राज्‍य में प्रजा को यदि दु:ख था तो अपने अशुभ-कर्मोदय से था और सुख था तो उस राजा के द्वारा सम्यक् रक्षा होने से था । य‍ही कारण था कि प्रजा उसकी वन्‍दना करती थी ॥100॥

देव और विद्याधर राजाओं के मुकुटों के अग्रभाग पर चमकने वाले रत्‍नों की किरणों को निष्‍प्रभ बनाकर उसकी उन्‍नत आज्ञा ही सुशोभित होती थी ॥101॥

यदि निरन्‍तर उदय रहने वाले और कमलों को आनन्दित करने वाले सूर्य का बल प्राप्‍त नहीं होता तो इन्‍द्र स्‍वयं अधिपति हो कर भी अपनी दिशा की रक्षा कैसे करता ! ॥102॥

विधाता अवश्‍य ही बुद्धि-हीन है क्‍योंकि यदि वह बुद्धिहीन नहीं होता तो आग्‍नेय दिशाकी रक्षा के लिए अग्निको क्‍यों नियुक्‍त करता ? भला, जो अपने जन्‍मदाता को जलाने वाला है उससे भी क्‍या कहीं किसी की रक्षा हुई हैं ? ॥103॥

क्‍या विधाता यह नहीं जानता था कि यमराज पालक है या मारक ? फिर भी उसने उसी सर्व-भक्षी पापी को दक्षिण दिशा का रक्षक बना दिया ॥104॥

जो कुत्‍ते के स्‍थानपर रहता है, दीन है, सदा यमराज के समीप रहता है और अपने जीवन में भी जिसे संदेह है ऐसा नैऋत किसकी रक्षा कर सकता है ? ॥105॥

जो जल भूमि में विद्यमान बिल में मकरादि हिंसक जन्‍तुके समान रहता है, जिसके हाथ में पाश है, जो जलप्रिय है - जिसे जल प्रिय है (पक्ष में जिसे जड - मूर्ख प्रिय है) और जो नदीनाश्रय है- समुद्रमें रहता है (पक्ष में दीन मनुष्‍यों का आश्रय नहीं है) ऐसा वरूण प्रजा की रक्षा कैसे कर सकता है ? ॥106॥

जो अग्नि का मित्र है, स्‍वयं अस्थिर है और दूसरों को चलाता रहता है उस वायु को विधाता ने वायव्‍य दिशा का रक्षक स्‍थापित किया सो ऐसा वायु क्‍या कहीं ठहर सकता है ? ॥107॥

जो लोभी है वह कभी पुण्‍य-संचय नहीं कर सकता और जो पुण्‍यहीन है वह कैसे रक्षक हो सकता है जब कि कुबेर कभी किसी को धन नहीं देता तब उसे विधाता ने रक्षक कैसे बना दिया ? ॥108॥

ईशान अन्तिम दशा को प्राप्‍त है, गिनती उसकी सबसे पीछे होती है, पिशाचों से घिरा हुआ है और दुष्‍ट है इसलिए यह ऐशान दिशा का स्‍वामी कैसे हो सकता है ? ॥109॥

ऐसा जान पड़ता है कि विधाता ने इन सब को बुद्धि की विकलता से ही दिशाओं का रक्षक बनाया था और इस कारण उसे भारी अपयश उठाना पड़ा था । अब विधाता ने अपना सारा अपयश दूर करने के लिए ही मानो इस एक अजितसेन को समस्‍त दिशाओं का पालन करने में समर्थ बनाया था ॥110॥

इस प्रकार के उदार वचनों की माला बनाकर सब लोग जिसकी स्‍तुति करते हैं और अपने पराक्रम से जिसने समस्‍त दिशाओं को व्‍याप्‍त कर लिया है ऐसा अजितसेन इन्‍द्रादि देवों का उल्‍लंघन करता था ॥111॥

उसका धन दान देनेमें, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा में, आयु सुख में और शरीर भोगोपभोग में सदा वृद्धि को प्राप्‍त होता रहता था ॥112॥

उसके पुण्य की वृद्धि दूसरे के अधीन नहीं थी, कभी नष्ट नहीं होती थी और उसमें कभी किसी तरह की बाधा नहीं आती थी । इस प्रकार वह तृष्णा-रहित होकर गुणों का पोषण करता हुआ बड़े आराम से सुख को प्राप्‍त होता था ॥113॥

उसके वचनों में सत्‍यता थी, चित्‍तमें दया थी, धार्मिक कार्योंमें निर्मलता थी, और प्रजाकी अपने गुणों के समान रक्षा करता था फिर वह राजर्षि क्‍यों न हो ? ॥114॥

मैं तो ऐसा मानता हूं कि सुजनता उसका स्‍वाभाविक गुण था । यदि ऐसा न होता तो प्राण हरण करनेवाले पापी शत्रु पर भी वह विकार को क्‍यों नहीं प्राप्‍त होता ॥115॥

उसके राज्‍य में न तो कोई मूलहर था - मूल पूँजी को खानेवाला था, न कोई कदर्य था - अतिशय कृपण था और न कोई तादात्विक था - भविष्‍यत् का विचार न रख वर्तमान में ही मौज उड़ानेवाला था, किन्‍तु सभी समीचीन कार्यों में खर्च करनेवाले थे ॥116॥

इस प्रकार जब वह राजा पृथिवी का पालन करता था तब सब ओर सुराज्‍य हो रहा था और प्रजा उस बुद्धिमान् राजा को ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्‍त हो रही थी ॥117॥

जब नव यौवन प्राप्‍त हुआ तब उस राजा के पूर्वोपार्जित पुण्‍य कर्म के उदय से चौदह-रत्‍न और नौ-निधियाँ प्रकट हुई थीं ॥118॥

भाजन, भोजन, शय्या, सेना, सवारी, आसन, निधि, रत्‍न, नगर और नाटय इन दश भोगों का वह अनुभव करता था ॥119॥

श्रद्धा आदि गुणों से संपन्‍न उस राजा ने किसी समय एक माह का उपवास करनेवाले अरिन्‍दम नामक साधु के लिए आहार-दान देकर नवीन पुण्‍यका बन्‍ध किया तथा रत्‍न-वृष्टि आदि पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये सो ठीक ही है क्‍योंकि उत्‍तम कार्योंके करने में तत्‍पर रहनेवाले मनुष्‍यों को क्‍या दुर्लभ हैं ? ॥120–121॥

दूसरे दिन वह राजा, गुप्‍तप्रभ जिनेन्‍द्रकी वन्‍दना करने के लिए मनोहर नामक उद्यान में गया । वहाँ उसने जिनेन्‍द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए श्रेष्‍ठ धर्म रूपी रसायन का पान किया, अपने पूर्व भव के सम्‍बन्‍ध सुने, जिनसे भाई के समान प्रेरित हो शीघ्र ही वैराग्‍य प्राप्‍त कर लिया । वह जितशत्रु नामक पुत्र के लिए राज्‍य देकर त्रैलोक्‍य-विजयी मोह राजा को जीतने के लिए तत्‍पर हो गया तथा बहुत से राजाओं के साथ उसने तप धारण कर लिया । इस प्रकार निरतिचार तप तप कर आयु के अन्‍त में वह नभस्तिलक नामक पर्वत के अग्रभाग पर शरीर छोड़ सोलहवें स्‍वर्ग के शान्‍तकार विमान में अच्‍युतेन्‍द्र हुआ । वहाँ उसकी बाईस सागर की आयु थी, तीन हाथ ऊँचा तथा धातु-उपधातुओं से रहित देदीप्‍यमान शरीर था, शुक्‍ल-लेश्‍या थी, वह ग्‍यारह माह में एक बार श्‍वास लेता था, बाईस हजार वर्ष बाद एक बार अमृतमयी मानसिक आहार लेता था, उसके देशावधिज्ञान-रूपी नेत्र छठवीं पृथिवी तक के पदार्थों को देखते थे, उसका समीचीन तेज, बल तथा वैक्रियिक शरीर भी छठवीं पृथिवी तक व्‍याप्‍त हो सकता था ॥122–128॥

इस प्रकार निर्मल सम्‍यग्‍दर्शन को धारण करनेवाला वह अच्‍युतेन्‍द्र चिरकाल तक स्‍वर्ग के सुख भोग आयु के अन्‍त में कहाँ उत्‍पन्‍न हुआ यह कहते हैं ॥129॥

पूर्व धातकीखण्‍ड द्वीप में सीता नदी के दाहिने तट पर एक मंगलावती नाम का देश था । उसके रत्‍नसंचय नगर में कनकप्रभ राजा राज्‍य करते थे । उनकी कनकमाला नाम की रानी थी । वह अहमिन्‍द्र उन दोनों दम्‍पत्यिों के शुभ स्‍वप्‍नों द्वारा अपनी सूचना देता हुआ पद्यनाभ नाम का पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ । पद्यनाभ, बालकोचित सेवा - विशेष के द्वारा निरन्‍तर वृद्धि को प्राप्‍त होता रहता था ॥130–131॥

उपयोग तथा क्षमा आदि सब गुणों की पूर्णता हो जाने पर राजा ने उसे व्रत देकर विद्यागृह में प्रविष्‍ट कराया ॥132॥

कुलीन विद्वानों के साथ रहनेवाला वह राजकुमार, दास तथा महावत आदि को दूर कर समस्‍त विद्याओं के सीखने में उद्यम करने लगा ॥133॥

उसने इन्द्रियों के समूह को इस प्रकार जीत रक्‍खा था कि वे इंद्रियाँ सब रूप से अपने विषयों के द्वारा केवल आत्‍मा के साथ ही प्रेम बढ़ाती थीं ॥134॥

वह बुद्धिमान् विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगति ‍करता था । शास्‍त्रों से निर्णय कर विनय करना कृत्रिम विनय है और स्‍वभाव से ही विनय करना स्‍वाभाविक विनय है ॥135॥

जिस प्रकार चन्द्रमा का पाकर गुरु और शुक्र गृह अत्यन्त सुशोभित होते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण कलाओं को धारण करने वाले अतिशय सुन्दर उस राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों प्रकार के विमान अतिशय सुशोभित हो रहे थे ॥136॥

वह बुद्धिमान् राजकुमार सोलहवें वर्ष में यौवन प्राप्‍त कर ऐसा सुशोभित हुआ जैसा कि विनयवान् जितेन्द्रिय संयमी वन को पाकर सुशोभित होता है ॥137॥

जिस प्रकार भद्र जाति के हाथी को देखकर उसका शिक्षक हर्षित होता है उसी प्रकार रूप, वंश, अवस्‍था और शिक्षा से सम्‍पन्‍न तथा विकार से रहित पुत्र को देखकर पिता बहुत ही हर्षित हुए । उन्‍होंने जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा के साथ उसकी विद्या की पूजा की तथा संस्‍कार किये हुए रत्‍न के समान उसकी बुद्धि दूसरे कार्य में लगाई ॥138–139॥

जिस प्रकार शुद्धपक्ष - शुक्‍लपक्ष के आश्रय से कलाओं के द्वारा बालचन्‍द्र को पूर्ण किया जाता है उसी प्रकार बलवान् राजा ने उस सुन्‍दर पुत्र को अनेक स्त्रियों से पूर्ण किया था अर्थात् उसका अनेक स्त्रियों के साथ विवाह किया था ॥140॥

जिस प्रकार सूर्य के किरणें उत्‍पन्‍न होती हैं उसी प्रकार उसकी सोमप्रभा आदि रानियों के सुवर्णनाभ आदि शुभ पुत्र उत्‍पन्‍न हुए ॥141॥

इस प्रकार पुत्र - पौत्रादि से घिरे हुए श्रीमान् और बुद्धिमान् राजा कनकप्रभ सुख से अपने राज्‍य का पालन करते थे ॥142॥

किसी दिन उन्‍होंने मनोहर नामक वन में पधारे हुए श्रीधर नामक जिनराज से धर्म का स्‍वरूप सुनकर अपना राज्‍य पुत्र के लिए दे दिया तथा संयम धारण कर क्रम-क्रम से निर्वाण प्राप्‍त कर लिया ॥143॥

पद्यनाभ ने भी उन्‍हीं जिनराज के समीप श्रावक के व्रत लिये तथा मन्त्रियों के साथ स्‍वराष्‍ट्र और पर-राष्‍ट्र की नीति का विचार करता हुआ वह सुख से रहने लगा ॥144॥

परस्‍पर के समान प्रेम से उत्‍पन्‍न हुए और कामदेव के पूर्व रंग की शुभ पुष्‍पांजलि के समान अत्‍यन्‍त कोमल स्त्रियों की विनय, हँसी, स्‍पर्श, विनोद, मनोहर बातचीत और चंचल चितवनों के द्वारा वह चित्‍त की परम प्रसन्‍नता को प्राप्‍त होता था ॥145–146॥

कामदेव रुपी कल्पवृक्ष से उत्पन्न हुए, स्त्रियों के प्रेम से प्राप्त हुए और पके हुए भोगोपभोग रुपी उत्तम फल ही राजा पद्मनाभ के वैराग्य की सीमा हुए थे अर्थात् इन्हीं भोगोपभोगों से उसे वैराग्य उत्‍पन्‍न हो गया था ॥147॥

ये सब भोगोपभोग पूर्वभव में किये हुए पुण्‍य-कर्म के फल हैं इस प्रकार मूर्ख मनुष्‍यों को स्‍पष्‍ट रीति से बतलाता हुआ वह तेजस्‍वी पद्मनाभ सुखी हुआ था ॥148॥

विद्वानों में श्रेष्‍ठ पद्मनाभ भी, श्रीधर मुनि के समीप धर्म का स्‍वरूप जानकर अपने ह्णदय में संसार और मोक्ष का यथार्थ स्‍वरूप इस प्रकार विचारने लगा ॥149॥

उसने विचार किया कि 'जब तक औदयिक भाव रहता है तब तक आत्‍माको संसार-भ्रमण करना पड़ता है, औदयिक भाव तब तक रहता है जब तक कि कर्म रहते हैं और कर्म तब तक रहते हैं जब तक कि उनके कारण विद्यमान रहते हैं ॥150॥

कर्मों के कारण मिथ्‍यात्‍वादिक पाँच हैं । उनमें से जहाँ मिथ्‍यात्‍व रहता है वहाँ बाकी के चार कारण अवश्‍य रहते हैं ॥151॥

जहाँ असंयम रहता है वहाँ उसके सिवाय प्रमाद, कषाय और योग ये तीन कारण रहते हैं । जहाँ प्रमाद रहता है वहाँ उसके सिवाय योग और कषाय ये दो कारण रहते हैं । जहाँ कषाय रहती है वहाँ उसके सिवाय योग कारण रहता है और जहाँ कषाय का अभाव है वहाँ सिर्फ योग ही बन्‍ध का कारण रहता है ॥152॥

अपने-अपने गुणस्‍थान में मिथ्‍यात्‍वादि कारणों का नाश होने से वहाँ उनके निमित्‍त से होनेवाला बन्‍ध भी नष्‍ट हो जाता है ॥153॥

पहले सत्‍ता, बन्‍ध और उदय नष्‍ट होते हैं, उनके पश्‍चात् चौदहवें गुणस्‍थान तक अपने-अपने काल के अनुसार कर्म नष्‍ट होते हैं तथा कर्मोंके नाश होने से संसार का नाश हो जाता है ॥154॥

जो पाप रूप है और जन्‍म-मरण ही जिसका लक्षण है ऐसे संसार के नष्‍ट हो जाने पर आत्‍मा के क्षायिक-भाव ही शेष रह जाते हैं । उस समय यह आत्‍मा अपने आप में उन्‍हीं क्षायिक-भावों के साथ बढ़ता रहता है ॥155॥

इस प्रकार जिनेन्‍द्र देव के द्वारा कहे हुए तत्‍त्‍व को नहीं जाननेवाला यह प्राणी, जिसका अन्‍त मिलना अत्‍यन्‍त कठिन है ऐसे संसाररूपी दुर्गम वन में अन्‍धे के समान चिरकाल से भटक रहा है ॥156॥

अब मैं असंयम आदि कर्म-बन्‍ध के समस्‍त कारणों को छोड़कर शुद्ध श्रद्धान आदि मोक्ष के पाँचों कारणों को प्राप्‍त होता हूं - धारण करता हूं' ॥157॥

इस प्रकार अन्‍तरंग में हिताहित का यथार्थ स्‍वरूप जानकर पद्मनाभ ने बाह्य सम्‍पदाओं की प्रभुता सुवर्णनाभ के लिए दे दी और बहुत से राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली । अब वह मोक्ष के कारणभूत चारों आराधनाओं का आचरण करने लगा, सोलह कारण - भावनाओं का चिन्‍तवन करने लगा तथा ग्‍यारह अंगों का पारगामी बनकर उसने तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍ध किया । जिसे अज्ञानी जीव नहीं कर सकते ऐसे सिंहनिष्‍क्रीडित आदि कठिन तप उसने किये और आयु के अन्‍त में समाधिमरण-पूर्वक शरीर छोड़ा जिससे वैजयन्‍त विमान में तैंतीस सागर की आयु का धारक अहमिन्‍द्र हुआ । उसके शरीर का प्रमाण तथा लेश्‍यादि की विशेषता पहले कहे अनुसार थी । इस तरह वह दिव्‍य सुख का उपभोग करता हुआ रहता था ॥158–162॥

तदनन्‍तर जब उसकी आयु छह माह की बाकी रह गई तब इस जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक चन्‍द्रपुर नाम का नगर था । उसमें इक्ष्‍वाकुवंशी काश्‍यपगोत्री तथा आश्‍चर्यकारी वैभवको धारण करनेवाला महासेन नाम का राजा राज्‍य करता था । उसकी महादेवीका नाम लक्ष्‍मणा था । लक्ष्‍मणाने अपने घर के आंगन में देवों के द्वारा बरसाई हुई रत्‍नों की धारा प्राप्‍त की थी । श्री हृी आदि देवियाँ सदा उसे घेरे रहती थीं । देवोपनीत वस्‍त्र, माला, लेप तथा शय्या आदिके सुखों का समुचित उपभोग करनेवाली रानी ने चैत्रकृष्‍ण पंचमी के दिन पिछली रात्रिमें सोलह स्‍वप्‍न देखकर संतोष लाभ किया । सूर्योदयके समय उसने उठकर अच्‍छे-अच्‍छे वस्‍त्राभरण धारण किये तथा प्रसन्‍नमुख होकर सिंहासन पर बैठे हुए पति से अपने सब स्‍वप्‍न निवेदन किये ॥163–167॥

राजा महासेनने भी अवधिज्ञान से उन स्‍वप्‍नों का फल जानकर रानी के लिए पृथक्-पृथक् बतलाया जिन्‍हें सुनकर वह बहुत ही हर्षित हुई ॥168॥

श्री हृी धृति आदि देवियाँ उसकी कान्ति, लज्‍जा, धैर्य, कीर्ति, बुद्धि और सौभाग्‍य-सम्‍पत्तिको सदा बढ़ाती रहती थीं ॥169॥

इस प्रकार कितने ही दिन व्‍यतीत हो जानेपर उसने पौषकृष्‍ण एकादशी के दिन शक्रयोग में देव पूजित, अचिन्‍त्‍य प्रभाके धारक और तीन ज्ञान से सम्‍पन्‍न उस अहमिन्‍द्र पुत्र को उत्‍पन्‍न किया ॥170॥

उसी समय इन्‍द्र ने आकर महामेरूकी शिखर पर विद्यमान सिंहासन पर उक्‍त जिन-बालक को विराजमान किया, क्षीरसागरके जलसे उनका अभिषेक किया, सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया, तीन लोक के राज्‍यकी कण्‍ठी बाँधी और फिर प्रसन्‍नता से हजार नेत्र बनाकर उन्‍हें देखा । उनके उत्‍पन्‍न होते ही यह कुवलय अर्थात् पृथ्‍वी-मण्‍डल का समूह अथवा नील-कमलों का समूह अत्‍यन्‍त विकसित हो गया था इसलिए इन्‍द्र ने व्‍यवहार की प्रसिद्धि के लिए उनका 'चन्‍द्रप्रभ' यह सार्थक नाम रक्‍खा ॥171–173॥

इन्‍द्र ने इन त्रिलोकीनाथ के आगे आन्‍नद नाम का नाटक किया । तदनन्‍तर उन्‍हें लाकर उनके माता - पिता के लिए सौंप दिया ॥174॥

'तुम भोगोपभोगकी योग्‍य वस्‍तुओं के द्वारा भगवान् की सेवा करो' इस प्रकार कुवेर के लिए संदेश देकर इन्‍द्र अपने स्‍थान पर चला गया ॥175॥

'यद्यपि विद्वान् लोग स्‍त्री-पर्याय को निन्‍द्य बतलाते हैं तथापि लोगों का कल्‍याण करनेवाले जगत्‍पति भगवान् को धारण करने से यह लक्ष्‍मणा बड़ी ही पुण्‍यवती है, बड़ी ही पवित्र है,' इस प्रकार देव लोग उसकी स्‍तुति कर महान् फल को प्राप्‍त हुए थे तथा 'इस प्रकार की स्‍त्री-पर्याय श्रेष्‍ठ है' ऐसा देवियों ने भी स्‍वीकृत किया था ॥176–177॥

भगवान् सुपार्श्‍वनाथ के मोक्ष जाने के बाद जब नौ सौ करोड़ सागर का अन्‍तर बीत चुका तब भगवान् चन्‍द्रप्रभ उत्‍पन्‍न हुए थे । उनकी आयु भी इसी अन्‍तर में सम्मिलित थी ॥178॥

दश लाख पूर्व की उनकी आयु थी, एक सौ पचास धनुष ऊँचा शरीर था, द्वितीया के चन्‍द्रमा की तरह वे बढ़ रहे थे तथा समस्‍त संसार उनकी स्‍तुति करता था ॥179॥

'हे स्‍वामिन् ! आप इधर आइये' इस प्रकार कुतूहलवश कोई देवी उन्‍हें बुलाती थी । वे उसके फैलाये हुए हाथों पर कमलों के समान अपनी हथेलियाँ रख देते थे । उस समय कारण के बिना ही प्रकट हुई मन्‍द मुस्‍कान से उनका मुखकमल बहुत ही सुन्‍दर दिखता था । वे कभी मणिजटित पृथिवी पर लड़खड़ाते हुए पैर रखते थे ॥180–181॥

इस प्रकार उस अवस्‍था के योग्‍य भोलीभाली शुद्ध चेष्‍टाओं से बाल्‍यकाल को बिताकर वे सुखाभिलाषी मनुष्‍यों के द्वारा चाहने योग्‍य कौमार अवस्‍था को प्राप्‍त हुए ॥182॥

उस समय वहाँ के लोगों में कौतुकवश इस प्रकार की बातचीत होती थी कि हम ऐसा समझते हैं कि विधाता ने इनका शरीर अमृत से ही बनाया है ॥183॥

उनकी द्रव्य लेश्या अर्थात् शरीर की कान्ति पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति को जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों बाह्य वस्तुओं को देखने के लिए अधिक होने से भाव लेश्या ही बाहर निकल आई हो ॥ भावार्थ- उनका शरीर शुक्‍ल था और भाव भी शुक्‍ल - उज्‍ज्‍वल थे ॥184॥

उनके यश और लेश्या से ज्योतिषी देवों की कान्ति छिप गई ठी इसलिए 'भोगभूमि लौट आई है' यह समझ कर लोग संतुष्‍ट होने लगे थे ॥185॥

(ये बाल्य अवस्था से ही अमृत का भोजन करते हैं अत: इनके शरीर की कान्ति मनुष्यों से भिन्‍न है तथा अन्‍य सब की कान्ति को पराजित करती है ।) उनके शरीर की कान्ति ऐसी सुशोभित होती थी मानो सूर्य और चन्‍द्रमा की मिली हुई कान्ति हो । इसीलिए तो उनके समीप निरन्‍तर कमल और कुमुद दोनों ही खिले रहते थे ॥186॥

कुन्‍द के फूलों की हँसी उड़ानेवाले उनके गुण चन्‍द्रमा की किरणों के समान निर्मल थे । इसीलिए तो वे भव्‍य जीवों के मनरूपी नीलकमलों के समूह को विकसित करते रहते थे ॥187॥

लक्ष्‍मी इन्‍हीं के साथ उत्‍पन्‍न हुई थी इसलिए वह इन्‍हीं की बहिन थी । 'लक्ष्‍मी चन्‍द्रमा की बहिन है' यह जो लोक में प्रसिद्धि है वह अज्ञानी लोगों ने मिथ्‍या कल्‍पना कर ली है ॥188॥

जिस प्रकार चन्‍द्रमा का उदय होने पर यह लोक हर्षित हो उठता है, सुशोभित होने लगता है और निराकुल होकर बढ़ने लगता है उसी प्रकार सब प्रकार के संताप को हरने वाले चन्‍द्रप्रभ भगवान् का जन्‍म होने पर यह सारा संसार हर्षित हो रहा है, सुशोभित हो रहा है और निराकुल होकर बढ़ रहा है ॥189॥

'कारण के अनुकूल ही कार्य होता है' यदि यह लोकोक्ति सत्य है तो लोगों को मानना पड़ता है कि इनकी लक्ष्मी और कीर्ति इन्हीं के गुणों से निर्मल हुई थीं । भावार्थ- उनके गुण निर्मल थे अत: उनसे जो लक्ष्‍मी और कीर्ति उत्‍पन्‍न हुई थी वह भी निर्मल ही थी ॥190॥

जो बहुत भारी विभूति से सम्‍पन्‍न हैं, जो स्‍नान आदि मांगलिक कार्यों से सजे रहते हैं और अलंकारों से सुशोभित हैं ऐसे अतिशय कुशल भगवान् कभी मनोहर बीणा बजाते थे, कभी मृदंग आदि बाजों के साथ गाना गाते थे, कभी कुबेर के द्वारा लाये हुए आभूषण तथा वस्‍त्र आदि देखते थे, कभी वादी-प्रतिवादियों के द्वारा उपस्‍थापित पक्ष आदि की परीक्षा करते थे और कभी कुतूहलवश अपना दर्शन करने के लिए आये हुए भव्‍य जीवों को दर्शन देते थे इस प्रकार अपना समय व्‍यतीत करते थे ॥191-193॥

जब भगवान् कौमार अवस्‍था में ही थे तभी धर्म आदि गुणों की वृद्धिहो गई थी और पाप आदि का क्षय हो गया था, फिर संयम धारण करने पर तो कहना ही क्‍या है ? ॥194॥

इस प्रकार दो लाख पचास हजार पूर्व व्‍यतीत होने पर उन्‍हें राज्‍याभिषेक प्राप्‍त हुआ था और उससे वे बहुत ही हर्षित तथा सुन्‍दर जान पड़ते थे ॥195॥

जो अपनी हथेली-प्रमाण मण्‍डल की राहु से रक्षा नहीं कर सकता ऐसे सूर्य का तेज किस काम का ? तेज तो इन भगवान् चन्‍द्रप्रभ का था जो कि तीन लोक की रक्षा करते थे ॥196॥

जिनके जन्‍म के पहले ही इन्‍द्र आदि देव किंकरता स्‍वीकृत कर लेते हैं ऐसे अन्‍य ऐश्‍वर्य आदिसे घिरे हुए इन चन्‍द्रप्रभ भगवान् को किसकी उपमा दी जावे ? ॥197॥

वे स्त्रियों के कपोल -तलमें अथवा हाथी-दाँत के टुकड़े में कामदेव से मुसकाता हुआ अपना मुख देखकर सुखी होते थे ॥198॥

जिस प्रकार कोई दानी पुरूष दान देकर सुखी होता है उसी प्रकार श्रृंगार चेष्‍टाओं को करने वाले भगवान्, अपनी ओर देखनेवाली उत्‍सुक स्त्रियों के ‍लिए अपने मुखका रस समर्पण करनेसे सुखी होते थे ॥199॥

मुख में कमल की आशंका होनेसे जो पास हीमें मँडरा रहे हैं ऐसे भ्रमरोंको छोड़कर स्‍त्री का मुख-कमल देखनेमें उन्‍हें और कुछ बाधक नहीं था ॥200॥

चंचल सतृष्‍ण, योग्‍य अयोग्‍य का विचार नहीं करनेवाले और मलिन मधुप - भ्रमर भी (पक्षमें मद्यपायी लोग भी) जब प्रवेश पा सकते हैं तब संसार में ऐसा कार्य ही कौन है जो नहीं किया जा सकता हो ॥201॥

इस प्रकार साम्राज्‍य - सम्‍पदा का उपभोग करते हुए जब उनका छह लाख पचास हजार पूर्व तथा चौबीस पूर्वांग का लम्‍बा समय सुख पूर्वक क्षणभर के समान बीत गया तब वे एक दिन आभूषण धारण करने के घर में दर्पणमें अपना मुख-कमल देख रहे थे ॥202–203॥

वहाँ उन्‍होंने मुख पर स्थित किसी वस्‍तु को वैराग्‍य का कारण निश्चित किया और इस प्रकार विचार करने लगे । 'देखो यह शरीर नश्‍वर है तथा इससे जो प्रीति की जाती है वह भी ईति के समान दु:खदायी है' ॥204॥

वह सुख ही क्‍या है जो अपनी आत्‍मासे उत्‍पन्‍न न हो, वह लक्ष्‍मी ही क्‍या है जो चंचल हो, वह यौवन ही क्‍या है जो नष्‍ट हो जानेवाला हो, और वह आयु ही क्‍या है जो अवधि से सहित हो - सान्‍त हो ॥205॥

जिसके आगे वियोग होनेवाला है ऐसा बन्‍धुजनों के साथ समागम किस काम का ? मैं वही हूँ, पदार्थ वही हैं, इन्द्रियाँ भी वही हैं, प्रीति और अनुभूति भी वही है, तथा प्रवृत्ति भी वही है किन्‍तु इस संसार की भूमि में यह सब बार - बार बदलता रहता है ॥206–207॥

इस संसार में अब तक क्‍या हुआ है और आगे क्‍या होनेवाला है यह मैं जानता हूं, फिर भी बार बार मोह को प्राप्‍त हो रहा हूँ यह आश्‍चर्य है ॥208॥

मैं आज तक अनित्‍य पदार्थों को नित्‍य समझता रहा, दु:ख को सुख स्‍मरण करता रहा, अपवित्र पदार्थों को पवित्र मानता रहा और परको आत्‍मा जानता रहा ॥209॥

इस प्रकार अज्ञान से आकान्‍त हुआ यह जीव, जिसका अन्‍त अत्‍यन्‍त कठिन है ऐसे संसाररूपी सागर में चार प्रकार के विशाल दु:ख तथा भयंकर रोगों के द्वारा चिरकाल से पीडित हो रहा है ॥210॥

इस प्रकार काल-लब्धि को पाकर संसार का मार्ग छोड़ने की इच्छा से वे बड़े लम्‍बे पुण्‍य-कर्म के द्वारा खिन्‍न हुए के समान व्‍याकुल हो गये थे ॥211॥

आगे होनेवाले केवलज्ञानादि गुणों से मुझे समृद्ध होना चाहिए । ऐसा स्‍मरण करते हुए वे दूतीके समान सद्बुद्धिके साथ समागमको प्राप्‍त हुए थे ॥212॥

मोक्ष प्राप्‍त करानेवाली उनकी सद्बुद्धि अपने आप दीक्षा-लक्ष्‍मी को प्राप्‍त हो गई थी । इस प्रकार जिन्‍होंने आत्‍म-तत्‍त्‍व को समझ लिया है ऐसे भगवान् चन्‍द्रप्रभ के समीप लौकान्तिक देव आये और यथायोग्‍य स्‍तुति कर ब्रह्मस्‍वर्ग को वापिस चले गये । तदनन्‍तर महाराज चन्‍द्रप्रभ भी वरचन्‍द्र नामक पुत्र का राज्‍याभिषेक कर देवों के द्वाराकी हुई दीक्षा-कल्‍याण की पूजाको प्राप्‍त हुए और देवों के द्वारा उठाई हुई विमला नाम की पालकी में सवार होकर सर्वर्तुक नामक वन में गये । वहाँ उन्‍होंने दो दिनके उपवास का नियम लेकर पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ निर्ग्रन्‍थ दीक्षा कर ली । दीक्षा लेते ही उन्‍हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्‍त हो गया । दूसरे दिन वे चर्या के लिए नलिन नामक नगर में गये । वहाँ गौर वर्णवाले सोमदत्‍त राजा ने उन्‍हें नवधा-भक्ति पूर्वक उत्‍तर आहार देकर दान से संतुष्‍ट हुए देवों के द्वारा प्रकटित रत्नवृष्टि आदि पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये । भगवान् अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों को धारण करते थे, ईर्या आदि पाँच समितियों का पालन करते थे, मन वचन काय की निरर्थक प्रवृत्ति रूप तीन दण्‍डों का त्‍याग करते थे ॥213–219॥

उन्‍होंने कषायरूपी शत्रु का निग्रह कर दिया था, उनकी विशुद्धता निरन्‍तर बढ़ती रहती थी, वे तीन गुप्‍तियों से युक्‍त थे, शील सहित थे, गुणी थे, अन्‍तरंग और बहिरंग दोनों तपोंको धारण करते थे, वस्‍तु वृत्ति और वचन के भेद से निरन्‍तर पदार्थ का चिन्‍तन करते थे, उत्‍तम क्षमा आदि दश धर्मो में स्थित रहते थे, समस्‍त परिषह सहन करते थे, 'यह शरीरादि पदार्थ अनित्‍य हैं, अशुचि हैं और दु:ख रूप हैं' ऐसा बार-बार स्‍मरण रखते थे तथा समस्‍त पदार्थों में माध्‍यस्‍थ्‍य भाव रखकर परमयोगको प्राप्‍त हुए थे ॥220–222॥

इस प्रकार जिन-कल्‍प मुद्रा के द्वारा तीन माह बिताकर वे दीक्षावन में नागवृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर स्थित हुए । वह फाल्‍गुन कृष्‍ण सप्‍तमी के सांयकाल का समय था और उस दिन अनुराधा नक्षत्र का उदय था । सम्‍यग्‍दर्शन को घातनेवाली प्रकृतियों का तो उन्‍होंने पहलेही क्षय कर दिया अब अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप तीन परिणामोंके संयोग से क्षपक श्रेणी को प्राप्‍त हुए । वहाँ उनके द्रव्‍य तथा भाव दोनों ही रूप से चौथा सूक्ष्‍मसाम्‍पराय चारित्र प्रकट हो गया ॥223–225॥

वहाँ उन्‍होंने प्रथम शुक्‍लध्‍यान के प्रभाव से मोहरूपी शत्रु को नष्‍ट कर दिया जिससे उनका सम्‍यग्‍दर्शन अवगाढ सम्‍यग्‍दर्शन हो गया । उस समय चार ज्ञानों से देदीप्‍यमान चन्‍द्रप्रभ भगवान् अत्‍यन्‍त सुशोभित हो रहे थे ॥226॥

बारहवें गुणस्‍थान के अन्‍त में उन्‍होंने द्वितीय शुक्‍लध्‍यान के प्रभाव से मोहातिरिक्‍त तीन घातिया कर्मों का क्षय कर दिया । उपयोग जीव का ही खास गुण है क्‍योंकि वह जीव के सिवाय अन्‍य द्रव्‍यों में नहीं पाया जाता । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्‍तराय कर्म जीव के उपयोग गुण का घात करते हैं इसलिए घातिया कहलाते हैं । उन भगवान् के घातिया कर्मों का नाश हुआ था और अघातिया कर्मों में से भी कितनी ही प्रकृतियों का नाश हुआ था । इस प्रकार वे परमावगाढ़ सम्‍यग्‍दर्शन, अन्तिम यथाख्‍यात चारित्र, क्षायिक ज्ञान, दर्शन तथा ज्ञानादि पाँच लब्धियाँ पाकर शरीर सहित सयोगकेवली जिनेन्‍द्र हो गये ॥227–229॥

उस समय वे सर्वज्ञ थे, समस्‍त लोक के स्‍वामी थे, सबका हित करनेवाले थे, सबके एक मात्र रक्षक थे, सर्वदर्शी थे, समस्‍त इन्‍द्रों के द्वारा वन्‍दनीय थे और समस्‍त पदार्थों का उपदेश देने वाले थे ॥230॥

चौंतीस अतिशयों के द्वारा उनके विशेष वैभव का उदय प्रकट हो रहा था और आठ प्रातिहार्यों के द्वारा तीर्थंकर नाम-कर्म का उदय व्‍यक्‍त हो रहा था ॥231॥

वे देवों के देव थे, उनके चरण - कमलों को समस्‍त इन्‍द्र अपने मुकुटों पर धारण करते थे, अपनी प्रभा से उन्‍होंने समस्‍त संसार को आनन्दित किया था, तथा वे समस्‍त लोक के आभूषण थे ॥232॥

गति, जीव, समास, गुणस्‍थान, नय, प्रमाण आदिके विस्‍तार का ज्ञान करानेवाले श्रीमान् चन्‍द्रप्रभ जिनेन्‍द्र आकाश में स्थित थे ॥233॥

सिंहों के द्वारा धारण किया हुआ उनका सिंहासन ऐसा सुशोभित हो रहा था कि सिंह जाति ने क्रूरता - प्रधान शूर - वीरता के द्वारा पहले जिस पाप का संचय किया था उसे हरने के लिए मानो उन्‍होंने भगवान् का सिंहासन उठा रक्‍खा था ॥234॥

समस्‍त दिशाओं को प्रकाशित करती हुई उनके शरीर की प्रभा ऐसी जान पड़ती थी मानो देदीप्‍यमान केवलज्ञान की कान्ति ही तदाकार हो गई हो ॥235॥

हंसों के कंधो के समान सफेद देवों के चामरों से जिनकी प्रभा की दीर्घता प्रकट हो रही है ऐसे भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो गंगानदी की लहरें ही उनकी सेवा कर रही हों ॥236॥

जिस प्रकार सूर्य का एक ही प्रकाश देखनेवालों के लिए समस्‍त पदार्थों का प्रकाश कर देता है उसी प्रकार भगवान् की एक ही दिव्‍य-ध्‍वनि सुननेवालों के लिए समस्‍त पदार्थों का प्रकाश कर देती थी ॥237॥

भगवान् का छत्रत्रय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग जुदा - जुदा होकर यह कह रहा हो कि मोक्ष की प्राप्ति हम तीनों से ही हो सकती है अन्‍य से नहीं ॥238॥

लाल-लाल अशोक वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भगवान् के आश्रय से ही मैं अशोक - शोक-रहित हुआ हूँ अत: उनके प्रति अपने पत्रों और फूलों के द्वारा अनुराग ही प्रकट कर रहा हो ॥239॥

आकाश से पड़ती हुई फूलों की वर्षा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो भगवान् की सेवा करने के लिए भक्ति से भरी हुई ताराओं की पंक्ति ही आ रही हो ॥240॥

समुद्र की गर्जना को जीतनेवाले देवों के नगाड़े ठीक इस तरह शब्‍द कर रहे थे मानों वे दिशाओं को यह सुना रहे हों कि भगवान् ने मोहरूपी शत्रु को जीत लिया है ॥241॥

उनकी प्रभा के मध्‍य में प्रसन्‍नता से भरा हुआ मुख-मण्‍डल ऐसा सुशोभित होता था मानो आकाश-गंगा में कमल ही खिल रहा हो अथवा चन्‍द्रमा का प्रतिबिम्‍ब ही हो ॥242॥

जिस प्रकार तारागणों से सेवित शरद्-ऋतु का चन्‍द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार बारह सभाओं से सेवित भगवान् गन्‍धकुटी के मध्‍य में सुशोभित हो रहे थे ॥243॥