+ भगवान सुविधिनाथ चरित -
पर्व - 55

  कथा 

कथा :

जिन्‍होंने विशाल तथा निर्मल मोक्षमार्ग में अनेक शिष्‍योंको लगाया और स्‍वयं लगे एवं जो सुविधि रूप हैं - उत्‍तम मोक्षमार्ग की विधि रूप हैं अथवा उत्‍तम पुण्‍य से सहित हैं वे सुविधिनाथ भगवान् हम सबके लिए सुविधि - मोक्षमार्ग की विधि अथवा उत्‍तम पुण्‍य प्रदान करें ॥1॥

पुष्‍करार्धद्वीप के पूर्व दिग्‍भागमें जो मेरू पर्वत है उसके पूर्व विदेह-क्षेत्र में सीतानदी के उत्‍तर तट पर पुष्‍कलावती नाम का एक देश है । उसकी पुण्‍डरीकिणी नगरी में महापद्म नाम का राजा राज्‍य करता था । उस राजा ने अपने भुजदण्‍डों से शत्रुओं के समूह खण्डित कर दिये थे, वह अत्‍यन्‍त पराक्रमी था, वह किसी पुराने मार्ग को अपनी वृत्ति के द्वारा नया कर देता था और फिर आगे होनेवाले लोगों के लिए वही नया मार्ग पुरानाहो जाता था ॥2–4॥

जिस प्रकार कोई गोपाल अपनी गाय का अच्‍छी तरह भरण-पोषण कर उसकी रक्षा करता है और गाय द्रवीभूत होकर बड़ी प्रसन्‍नता के साथ उसे दूध देती हुई सदा संतुष्‍ट रखती है उसी प्रकार वह राजा अपनी पृथिवी का भरण-पोषण कर उसकी रक्षा करता था और वह पृथिवी भी द्रवीभूत हो बड़ी प्रसन्‍नता के साथ अपने में उत्‍पन्‍न होनेवाले रत्‍न आदि श्रेष्‍ठ पदार्थों के द्वारा उस राजा को संतुष्‍ट रखती थी ॥5॥

वह बुद्धिमान् सब लोगों को अपने गुणों के द्वारा अपनेमें अनुरक्‍त बनाता था और सब लोग भी सब प्रकारसे उस बुद्धिमान् को प्रसन्‍न रखते थे ॥6॥

उसने मंत्री पुरोहित आदि जिन कार्यकर्ताओं को नियुक्‍त किया था तथा उन्‍हें बढ़ाया था वे सब अपने-अपने उपकारों से उस राजा को सदा बढ़ाते र‍हते थे ॥7॥

जिस प्रकार मुनियों में अनेक गुण-वृद्धि को प्राप्‍त होते हैं उसी प्रकार उस सदाचारी और शास्‍त्र-ज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुण-वृद्धि को प्राप्‍त हो रहे थे तथा जिस प्रकार संस्‍कार किये हुए मणि सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उस राजा में अनेक गुण सुशोभित हो रहे थे ॥8॥

वह राजा यथायोग्‍य रीतिसे विभाग कर अपने आश्रित परिवार के साथ अखण्‍ड रूप से चिरकाल तक अपनी राज्‍य-लक्ष्‍मी का उपभोग करता रहा सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्जन पुरूष लक्ष्‍मी को सर्वसाधारण के उपभोग के योग्‍य समझते हैं ॥9॥

नीति के जाननेवाले राजा को इन्‍द्र और यम के समान कहते हैं परन्‍तु वह पुण्‍यात्‍मा इन्‍द्र के ही समान था क्‍योंकि उसकी सब प्रजा गुणवती थी अत: उसके राज्‍य में कोई दण्‍ड देने के योग्‍य नहीं था ॥10॥

उसके सुख की परम्परा निरंतर बनी रहती थी और उसके भोगोपभोग के योग्य पदार्थ भी सदा उपस्थित रहते थे अत: विशाल पुण्य का धारी वह राजा अपने सुख के विरह को कभी जानता ही नहीं था ॥11॥

इस प्रकार अपने पुण्‍य के माहात्‍म्‍य से जिसके महोत्‍सव निरन्‍तर बढ़ते रहते हैं ऐसे राजा महापद्मने किसी दिन अपने वनपाल से सुना कि मनोहर नामक उद्यानमें महान् ऐश्‍वर्य के धारक भूतहित नाम के जिनराज स्थित हैं । वह उनकी वन्‍दना के लिए बड़े वैभव से गया और समस्‍त जीवों के स्‍वामी जिनराज की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर उसने पूजा की, वन्‍दना की तथा हाथ जोड़कर अपने योग्‍य स्‍थान पर बैठकर उनसे धर्मोपदेश सुना । उपदेश सुनने से उसे आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया और वह इस प्रकार विचार करने लगा ॥12–14॥

अनादि कालीन मिथ्‍यात्‍व के उदय से दूषित हुआ यह आत्‍मा, अपने ही आत्‍मा में अपने ही आत्‍मा के द्वारा दु:ख उत्‍पन्‍न कर पागल की तरह अथवा मतवाले की तरह अन्‍धा हो रहा है तथा किसी भूताविष्‍ट के समान अविचारी हो रहा है । जो जो कार्य आत्‍मा के लिए अहितकारी हैं मोहोदय से यह प्राणी चिरकाल से उन्‍हीं का आचरण करता चला आ रहा है । संसाररूपी अटवी में भटक-भटक कर यह मोक्ष के मार्ग से भ्रष्‍ट हो गया है । इस प्रकार चिन्‍तवन कर वह संसार से भयभीत हो गया तथा मोक्ष-मार्ग को प्राप्‍त करने की इच्छा से धनद नामक पुत्र के लिए अपना ऐश्‍वर्य प्रदान कर संसार से डरनेवाले अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गया ॥15–18॥

क्रम-क्रम से वह ग्‍यारह अंगरूपी समुद्र का पारगामी हो गया, सोलह कारण भावनाओं के चिन्‍तवन में तत्‍पर रहने लगा और तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍ध कर अन्‍त में उसने समाधिमरण धारण किया ॥19॥

समाधिमरण के प्रभाव से वह प्राणत स्‍वर्ग का इन्‍द्र हुआ । वहाँ बीस सागर की उसकी आयु थी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था, शुक्‍ल-लेश्‍या थी, दश-दश माह में श्‍वास लेता था, बीस हजार वर्ष बाद आ‍हार लेता था, मानसिक प्रवीचार करता था, धूम्रप्रभा पृथिवी तक उसका अ‍वधिज्ञान था, विक्रिया बल और तेज की सीमा भी उसके अवधिज्ञान की सीमा के बराबर थी तथा अणिमा महिमा आदि आठ उत्‍कृष्‍ट गुणों से उसका ऐश्‍वर्य बढ़ा हुआ था ॥20–22॥

वहाँ का दीर्घ सुख भोगकर जब वह यहाँ आने के लिए उद्मत हुआ तब इस जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र की काकन्‍दी नगरी में इक्ष्‍वाकुवंशी काश्‍यपगोत्री सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा राज्‍य करता था । सुन्‍दर कान्ति को धारण करनेवाली जयरामा उसकी पट्टरानी थी ॥23–24॥

उस रानी ने देवों के द्वारा अतिशय श्रेष्‍ठ रत्रवृष्टि आदि सम्‍मान को पाकर फाल्‍गुनकृष्‍ण नवमीके दिन प्रभात काल के समय मूल नक्षत्र में जब कि उसने नेत्र कुछ - कुछ बाकी बची हुई निद्रासे मलिन हो रहे थे, सोलह स्‍वप्‍न देखे । स्‍वप्‍न देखकर उसने अपने पतिसे उनका फल जाना और जानकर बहुत ही हर्षित हुई ॥25–26॥

मार्गशीर्ष शुक्‍ल प्रतिपदाके दिन जैत्रयोग में उस महादेवीने वह उत्‍तम पुत्र उत्‍पन्‍न किया । उसी समय इन्‍द्रों ने देवों के साथ आकर उनका क्षीरसागरके जलसे अभिषेक किया, आभूषण प‍हिनाये और कुन्‍द के फूलके समान कान्ति से सुशोभित शरीर की दीप्तिसे विराजित उन भगवान् का पुष्‍पदन्‍त नाम रक्‍खा ॥27–28॥

श्री चन्‍द्रप्रभ भगवान् के बाद जब नब्‍बै करोड़ सागरका अन्‍तर बीत चुका था तब श्री पुष्‍पदन्‍त भगवान् हुए थे । उनकी आयु भी इसी अन्‍तरमें शामिल थी ॥29॥

दो लाख पूर्व की उनकी आयु थी, सौ धनुष ऊँचा शरीर था और पचास लाख पूर्व तक उन्‍होंने कुमार - अवस्‍थाके सुख प्राप्‍त किये थे ॥30॥

अथानन्‍तर अच्‍युतेन्‍द्रादि देव जिसे पूज्‍य समझते हैं ऐसा साम्राज्‍य पाकर उन पुष्पदन्‍त भगवान् ने इष्‍ट पदार्थों के संयोगसे युक्‍त सुख का अनुभव किया । उस समय बड़े - बड़े पूज्‍य पुरूष उनकी स्‍तुति किया करते थे ॥31॥

सब स्त्रियों से, इन्द्रियों से और इस राज्य से जो भगवान सुविधिनाथ को जो सुख मिलता था और भगवान सुविधिनाथ से उन स्त्रियों जो सुख मिलता था उन दोनों में विद्वान लोग किसको बड़ा अथवा बहुत कहें ॽ ॥32॥

भगवान् पुण्‍यवान् रहें किन्‍तु मैं उन स्त्रियोंको भी बहुत पुण्‍यात्‍मा समझता हूँ क्‍योंकि मोक्षका सुख जिनके समीप है ऐसे भगवान् को भी वे प्रसन्‍न करती थीं - क्रीड़ा कराती थीं ॥33॥

वे भगवान् स्‍वर्गके श्रेष्‍ठ सुख - रूपी समुद्रमें मग्‍न रहकर पृथिवी पर आये थे अर्थात् स्‍वर्गके सुखोंसे उन्‍हें संतोष नहीं हुआ था इसलिए पृथि‍वी पर आये थे । इससे कहना पड़ता है कि यथार्थ भोग्‍य वस्‍तुएँ वहीं थी जो कि भगवान् को अभिलाषा उत्‍पन्‍न कराती थीं- अच्‍छी लगती थीं ॥34॥

जो भगवान् अनन्‍त बार अहमिन्‍द्र पद पाकर भी उससे संतुष्‍ट नहीं हुए वे यदि मनुष्‍य-लोक के इस सुख से संतुष्‍ट हुए तो कहना चाहिए कि सब सुखोंमें यही सुख प्रधान था ॥35॥

इस प्रकार प्रेम - पूर्वक राज्‍य करते हुए जब उनके राज्‍य - काल के पचास हजार पूर्व और अट्ठाईस पूर्वांग बीत गये तब वे एक दिन दिशाओं का अवलोकन कर रहे थे । उसी समय उल्‍कापात देखकर उनके मन में इस प्रकार विचार उत्‍पन्‍न हुआ कि यह उल्‍का नहीं है किन्‍तु मेरे अनादिकालीन महामोह रूपी अन्‍धकार को नष्‍ट करनेवाली दीपिका है ॥36–37॥

इस प्रकार उस उल्‍काके निमित्‍तसे उन्‍हें निर्मल आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया । वे स्‍वयंबुद्ध भगवान् इस निमित्‍तसे प्रतिबुद्ध होकर तत्‍त्‍वका इस प्रकार विचार करने लगे कि आज मैंने स्‍पष्‍ट देख लिया कि यह संसार विड़म्‍बना रूप है । कर्मरूपी इन्‍द्रजालिया ही इसे उल्‍टा कर दिखलाया है ॥38-39॥

काम, शोक, भय, उन्‍माद, स्‍वप्‍न और चोरी आदिसे उपद्रुत हुए प्राणी सामने रक्‍खे हुए असत् पदार्थ को सत् समझने लगते है ॥40॥

इस संसार में न तो कोई वस्‍तु स्थिर है, न शुभ है, न कुछ सुख देनेवाली है और न कोई पदार्थ मेरा है, मेरा तो मेरा आत्‍मा ही है, यह सारा संसार मुझसे जुदा है और मैं इससे जुदा हूँ, इन दो शब्‍दोंके द्वारा ही जो कुछ कहा जाता है वही सत्‍य है, फिर भी आश्‍चर्य है कि मोहोदयसे शरीरादि पदार्थोंमें इस जीव की आत्‍मीय बुद्धि हो रही है ॥41–42॥

शरीरादिक ही मैं हूँ, मेरा सब सुख शुभ है, नित्‍य है इस प्रकार अन्‍य पदार्थोंमें जो मेरी पिपर्यय-बुद्धि हो रही है उसी से मैं अनेक दु:ख देनेवाले जरा, मरण और मृत्‍यु रूपी बड़े - बड़े मकरोंसे भयंकर इस संसाररूपी समुद्रमें भ्रमण कर रहा हूँ । ऐसा विचार कर वे राज्‍य-लक्ष्‍मी को छोड़नेकी इच्‍छा करने लगे ॥43–44॥

लौकान्तिक देवों ने उनकी पूजा की । उन्‍होंने सुमति नामक पुत्र के लिए राज्‍य का भार सौंप दिया, इन्‍द्रों ने दीक्षा-कल्‍याणक कर उन्‍हें घेर लिया ॥45॥

वे उसी समय सूर्यप्रभा नाम की पालकी पर सवार होकर पुष्‍पकवन में गये और मार्गशीर्षके शुक्‍लपक्ष की प्रतिपदाके दिन सायंकाल के समय बेलाका नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये । दीक्षा लेते ही उन्‍हें मन:पर्ययज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया । वे दूसरे दिन आ‍हारके लिए शैलपुर नामक नगर में प्रविष्‍ट हुए । वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले पुष्‍पमित्र राजा ने उन्‍हें भोजन कराकर पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥46–48॥

इस प्रकार छद्मस्‍थ अवस्‍था में तपस्‍या करते हुए उनके चार वर्ष वीत गये । तदनन्‍तर कार्तिक शुक्‍ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय मूल - नक्षत्र में दो दिनका उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए और उसी दीक्षावन में घातिया कर्मरूपी पाप-कर्मों को नष्‍ट कर अनन्‍तचतुष्‍टय को प्राप्‍त हो गये ॥49–50॥

चतुर्णिकाय देवों के इन्‍द्रों ने उनके अचिन्‍त्‍य वैभवकी रचना की - समवसरण बनाया और वे समस्‍त पदार्थों का निरूपण करनेवाली दिव्‍यध्‍वनिसे सुशोभित हुए ॥51॥

वे सात ऋद्धियोंको धारण करनेवाले विदर्भ आदि अट्ठासी गणधरोंसे सहित थे, पन्‍द्रह सौ श्रुतकेवलियोंके स्‍वामी थे; एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षकोंके रक्षक थे, आठ हजार चार सौ अवधि - ज्ञानियों से सेवित थे, सात हजार केवलज्ञानियों और तेरह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारकों से वेष्टित थे, सात हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानियों और छह हजार छह सौ वादियोंके द्वारा उनके मंगलमय चरणों की पूजा होती थी, इस प्रकारवे सब मिलाकर दो लाख मुनियों के स्‍वामी थे, घोषार्याको आदि लेकर तीन लाख अस्‍सी हजार आर्यिकाओं से सहित थे, दो लाख श्रावकों से युक्‍त थे, पाँच लाख श्राविकाओं से पूजित थे, असंख्‍यात देवों और संख्‍यात तिर्यंचो से सम्‍पन्‍न थे । इस तरह बारह सभाओं से पूजित भगवान् पुष्‍पदन्‍त आर्य देशों में बिहार कर सम्‍मेदशिखर पर पहुँचे और योग निरोध कर भाद्रशुक्‍ल अष्‍टमी के दिन मूल नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्‍त हो गये । देव आये और उनका निर्वाण-कल्‍याणक कर स्‍वर्ग चले गये ॥52–59॥

जिन्‍होंने स्‍वयं चलकर मोक्ष का कठिन मार्ग दूसरों के लिए सरल तथा शुद्ध कर दिया है, जिन्‍होंने चित्‍त में उपशम भाव को धारण करनेवाले भक्‍तों के लिए स्‍वर्ग और मोक्ष का मार्ग प्राप्‍त करने की उत्‍तम विधि बतलाई है, जो मोक्ष-लक्ष्‍मी के स्‍वामी हैं, जिनके दाँत खिले हुए पुष्‍प के समान हैं, जो स्‍वयं देदीप्‍यमान हैं और जिनका मुख दाँतों की कान्ति से सुशोभित है ऐसे भगवान् पुष्‍पदन्‍त को हम नमस्‍कार करते हैं ॥60॥

हे देव ! आपका शरीर शान्‍त है, वचन कानों को हरनेवाले हैं, चरित्र सब का उपकार करनेवाला है और आप स्‍वयं संसाररूपी विशाल रेगिस्‍तान के बीच में 'सघन' - छायादार वृक्ष के समान हैं अत: हम सब आपका ही आश्रय लेते हैं ॥61॥

जो पहले महापद्म नामक राजा हुए, फिर स्‍वर्ग में चौदहवें कल्‍प के इन्‍द्र हुए और तदनन्‍तर भरत क्षेत्र में महाराज सुविधि नामक नौवें तीर्थंकर हुए ऐसे सुविधिनाथ अथवा पुष्‍पदन्‍त हम सबको लक्ष्‍मी प्रदान करें ॥62॥