कथा :
जिन धर्मनाथ भगवान् से अत्यन्त निर्मल उत्तम क्षमा आदि दश धर्म उत्पन्न हुए वे धर्मनाथ भगवान् हम लोगोंका अधर्म दूर कर हमारे लिए सुख प्रदान करें ॥1॥ पूर्व घातकीखण्ड द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है । उसमें सुसीमा नाम का महानगर है ॥2॥ वहाँ राजा दशरथ राज्य करता था, वह बुद्धि, बल और भाग्य तीनों से सहित था । चूँकि उसने समस्त शत्रु अपने वश कर लिये थे इसलिए युद्ध आदिके उद्योगसे रहित होकर वह शान्तिसे रहता था ॥3॥ प्रजाकी रक्षा करने में सदा उसकी इच्छा रहती थी और वह बन्धुओं तथा मित्रोंके साथ निश्चिन्ततापूर्वक धर्म-प्रधान सुखों का उपभोग करता था ॥4॥ एक बार वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन सबलोग उत्सव मना रहे थे उसी समय चन्द्र ग्रहण पड़ा उसे देखकर राजा दशरथका मन भोगों से एकदम उदास हो गया ॥5॥ यह चन्द्रमा सुन्दर है, कुवलयों-नीलकमलों (पक्षमें-महीमण्डल) को आनन्दित करनेवाला है और कलाओंसे परिपूर्ण है । जब इसकी भी ऐसी अवस्था हुई है तब अन्य पुरूष की क्या अवस्था होगी ॥6॥ ऐसा मानकर उसने महारथ नामक पुत्र के लिए राज्यभार सौंपा और स्वयं परिग्रहरहित होनेसे भारहीन होकर संयम धारणा कर लिया ॥7॥ उसने ग्यारह अंगो का अध्ययन कर सोलह कारण-भावनाओं का चिन्तवन किया, तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृतिका बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधिमरण कर अपनी बुद्धि को निर्मल बनाया ॥8॥ अब वह सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ, तैंतीस सागर उसकी स्थिति थी, एक हाथ ऊँचा उसका शरीर था, चार सौ निन्यानवें दिन अथवा साढ़े सोलह माह में एक बार कुछ श्वास लेता था ॥9॥ लोक नाड़ी के अन्त तक उसके निर्मल अवधिज्ञान का विषय था, उतनी ही दूर तक फलने वाली विक्रिया तेज तथा बलरूप सम्पत्तिसे सहित था ॥10॥ तीस हजार वर्ष में एक बार मानसिक आहार लेता था, द्रव्य और भाव सम्बन्धी दोनों शुल्क-लेश्याओं से युक्त था ॥11॥ इस प्रकार वह सर्वार्थसिद्धि में प्रवीचार रहित उत्तम सुख का अनुभव करता था । वह पुण्यशाली जब वहाँसे चयकर मनुष्य लोक में जन्म लेने के लिए तत्पर हुआ ॥12॥ तब इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर था उसमें कुरूवंशी काश्यपगोत्री महातेजस्वी और महालक्ष्मीसम्पन्न महाराज भानु राज्य करते थे उनकी महादेवीका नाम सुप्रभा था, देवों ने रत्नवृष्टि आदि सम्पदाओं के द्वारा उसका सम्मान बढ़ाया था । रानी सुप्रभाने वैशाख शुल्क त्रयोदशीके दिन रेवती नक्षत्र में प्रात:काल के समय सोलह स्वप्न देखे ॥13–15॥ जागकर उसने अपने अवधिज्ञानी पति से उन स्वप्नों का फल मालूम किया और ऐसा हर्षका अनुभव किया मानो पुत्र ही उत्पन्नहो गया हो ॥16॥ उसी समय अन्तिम अनुत्तरविमान से (सर्वार्थसिद्धि) चयकर वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ । इन्द्रों ने आकर गर्भ-कल्याणक का उत्सव किया ॥17॥ नव माह बीत जाने पर माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरूयोग में उसने अवधिज्ञानरूपी नेत्रों के धारक पुत्र को उत्पन्न किया ॥18॥ उसी समय इन्द्रों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर बहुत भारी सुवर्ण-कलशों में भरे हुए क्षीरसागरके जलसे उनका अभिषेक कर आभूषण पहिनाये तथा हर्ष से धर्मनाथ नाम रक्खा ॥19॥ जब अनन्तनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण काल बीत चुका और अन्तिम प्रलय का आधा भाग जब धर्म-रहित हो गया तब धर्मनाथ भगवान् का जन्म हुआ था, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी । उनकी आयु दशलाख वर्ष की थी, शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी, शरीर की ऊँचाई एक सौ अस्सी हाथ थी । जब उनके कुमारकाल के अढ़ाईलाख वर्ष बीत गये तब उन्हें राज्य का अभ्युदय प्राप्त हुआ था ॥20–23॥ वे अत्यन्त ऊँचे थे, अत्यन्त शुद्ध थे, दर्शनीय थे, उत्तम आश्रय देने वाले थे, और सबका पोषण करनेवाले थे अत: शरद्ऋतुके मेघके समान थे ॥24॥ अथवा किसी उत्तम हाथी के समान थे क्योंकि जिस प्रकार उत्तम हाथी भद्र जातिका होता है उसी प्रकार वे भी भद्र प्रकृति थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार बहु दान-बहुत मदसे युक्त होता है उसी प्रकार वे भी बहु दान-बहुत दानसे युक्त थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार सुलक्षण-अच्छे-अच्छे लक्षणों से सहित होता है उसी प्रकार वे भी सुलक्षण-अच्छे सामुद्रिक चिह्नोंसे सहित थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार महान् होता है उसी प्रकार वे भी महान्-श्रेष्ठ थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार सुकर-उत्तम सूँड़से सहित होता है उसी प्रकार वे भी सुकर-उत्तम हाथोंसे सहित थे, और उत्तम हाथी जिस प्रकार सुरेभ-उत्तम शब्दसे सहित होता है उसी प्रकार वे भी सुरेभ-उत्तम मधुर शब्दोंसे सहित थे ॥25॥ वे दुर्जनों का निग्रह और सज्जनों का अनुग्रह करते थे सो द्वेष अथवा इच्छा के वश नहीं करते थे किन्तु गुण और दोषकी अपेक्षा करते थे अत: निग्रह करते हुए भी वे प्रजाके पूज्य थे ॥26॥ उनकी समस्त संसार में फैलने वाली कीर्ति यदि लता नहीं थी तो वह कवियों के प्रवचनरूपी जल के सेक से आज भी क्यों बढ़ रही है ॥27॥ सुख से संभोग करने के योग्य तथा अपने गुणों से अनुरक्त पृथिवी उनके लिए उत्तम नायिकाके समान इच्छानुसार फल देने वाली थी ॥28॥ जब अन्य भव्य जीव इन धर्मनाथ भगवान् के प्रभाव से अपने कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर निर्मल सुख प्राप्त करेंगे तब इनके सुख का वर्णन कैसे किया जा सकता है ? ॥29॥ जब पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत गया तब किसी एक दिन उल्कापात देखने से इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया । विरक्त होकर वे इस प्रकार चिन्तवन करने लगे -'मेरा यह शरीर कैसे, कहाँ और किससे उत्पन्न हुआ है ? किमात्मक है, किसका पात्र है और आगे चलकर क्या होगा -- ऐसा विचार न कर मुझ मूर्खने इसके साथ चिरकाल तक संगति की । पाप का संचय कर उसके उदय से मैं आज तक दु:ख भोगता रहा । कर्म से प्रेरित हुए मुझ दुर्मतिने दु:खको ही सुख मानकर कभी शाश्वत-स्थायी सुख प्राप्त नहीं किया । मैं व्यर्थ ही अनेक भवोंमें भ्रमण कर थक गया । ये ज्ञान दर्शन आदि मेरे गुण हैं यह मैंने कल्पना भी नहीं की किन्तु इसके विरूद्ध बुद्धि के विपरीत होनेसे रागादिको अपना गुण मानता रहा । स्नेह तथा मोहरूपी ग्रहोंसे ग्रसा हुआ यह प्राणी बार-बार परिवारके लोगों तथा धनका पोषण करता हुआ पाप उपार्जन करता है और पाप के संचयसे अनेक दुर्गतियोंमें भटकता है' । इस प्रकार भगवान् को स्वयं बुद्ध जानकर लौकान्तिक देव आये और बड़ी भक्ति के साथ इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे देव ! आज आप कृतार्थ-कृतकृत्य हुए ॥30-36॥ उन्होंने सुधर्म नाम के ज्येष्ठ पुत्र के लिए राज्य दिया, दीक्षा-कल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव प्राप्त किया, नागदत्ता नाम की पालकी में सवार होकर ज्येष्ठ देवों के साथ शालवन के उद्यान में जाकर दो दिन के उपवास का नियम लिया और माघशुल्का त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एकहजार राजाओं के साथ मोक्ष प्राप्त करानेवाली दीक्षा धारण कर ली ॥37-39॥ दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया । वे दूसरे दिन आहार लेने के लिए पताकाओं से सजी हुई पाटलिपुत्र नाम की नगरी में गये ॥40॥ वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले धन्यषेण राजा ने उन उत्तम पात्र के लिए दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥41॥ तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर उन्होंने उसी पुरातन वन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे दो दिनके उपवास का नियम लेकर योग धारण किया और पौषशुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में कवलज्ञान प्राप्त किया । देवों ने चतुर्थ कल्याणक की उत्तम पूजा की ॥42–43॥ वे अरिष्टसेनको आदि लेकर तैंतालीस गणधरोंके स्वामी थे, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारियों से आवृत थे, चालीस हजार सात सौ शिक्षकों से सहित थे, तीन हजार छह सौ तीन प्रकार के अवधिज्ञानियों से युक्त थे, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी उनके साथ थे, सात हजार विकियाऋद्धि के धारक उनकी शोभा बढ़ा रहे थे, चार हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे, दो हजार आठ सौ वादियोंके समूह उनकी वन्दना करते थे, इस तरह सब मिलाकर चौंसठ हजार मुनि उनके साथ रहते थे, सुव्रताको आदि लेकर बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ उनकी पूजा करती थीं, वे दो लाख श्रावकों से सहित थे, चार लाख श्राविकाओंसे आवृत थे, असंख्यात देव-देवियों और संख्यात तिर्यंचोंसे सेवित थे ॥44–49॥ इस प्रकार बारह सभाओंकी सम्पत्तिसे सहित तथा धर्म की ध्वजासे सुशोभित भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया ॥50॥ अन्त में विहार बन्द कर वे पर्वतराज सम्मेद-शिखर पर पहुँचे और एक माहका योग निरोध कर आठ सौ नौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हुए । तथा ज्येष्ठ-शुल्का चतुर्थी के दिन रात्रिके अन्त भाग में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती नामक शुल्क-ध्यान को पूर्ण कर पुष्य नक्षत्र में मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त हुए ॥51-52॥ उसी समय सब ओर से देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक का उत्सव किया तथा वन्दना की ॥53॥ जो पहले भव में शत्रुओं को जीतनेवाले दशरथ राजा हुए, फिर अहमिन्द्रता को प्राप्त हुए तथा जिनके द्वारा कहे हुए दश धर्म पापों के साथ युद्ध करने में दश रथों के समान आचरण करते हैं वे धर्मनाथ भगवान् तुम सबकी रक्षा करें ॥54॥ जिन्होंने समस्त घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जिनका केवलज्ञान अत्यन्त निश्चल है, जिन्होंने श्रेष्ठ धर्म का प्रतिपादन किया है, जो तीनों शरीरोंके नष्टहो जानेसे अत्यन्त निर्मल है, जो स्वयं अनन्त सुख से सम्पन्न है और जिन्होंने समस्त आत्माओं को शान्त कर दिया है ऐसे धर्मनाथ जिनेन्द्र तुम सबके लिए अनन्त सुख प्रदान करें ॥55॥ अथानन्तर इन्हीं धर्मनाथ भगवान् के तीर्थ में श्रीमान् सुदर्शन नाम का बलभद्र तथा सभा में सबसे बलवान् पुरूषसिंह नाम का नारायण हुआ ॥56॥ अत: यहाँ उनका तीन भव का चरित कहता हूं । इसी राजगृह नगर में राजा सुमित्र राज्य करता था, वह बड़ा अभिमानी था, बड़ा मल्ल था, उसने बहुत मल्लोंको जीत लिया था इसलिए परीक्षक लोग उनकी पूजा किया करते थे-उसे पूज्य मानते थे, वह सदा दूसरोंको तृणके समान तुच्छ मानता था, और दुष्ट हाथी के समान मदोन्मत्त था ॥57-58॥ किसी समय मदसे उद्धत तथा मल्ल-युद्ध को जानने वाला राजसिंह नाम का राजा उसका गर्व शान्त करने के लिए राजगृह नगरी में आया ॥59॥ उसने बहुत देर तक युद्ध करने के बाद रंगभूमि में स्थित राजा सुमित्र को हरा दिया जिससे वह दाँत उखाड़े हुए हाथी के समान बहुत दु:खी हुआ ॥60॥ मान भंग होनेसे उसका ह्णदय एकदम टूट गया, वह राज्य का भार धारण करने में समर्थ नहीं रहा अत: उसने राज्य पर पुत्रको नियुक्त कर दिया सो ठीक ही है; क्योंकि मान ही मानियोंके प्राण हैं ॥61॥ निर्वेद भरा हुआ राजा सुमित्र कृष्णाचार्य के पास पहुँचा और उनके द्वारा कहे हुए धर्मोपदेशको सुनकर दीक्षित हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्यों को यही योग्य है ॥62॥ यद्यपि उसने क्रम-क्रम से । सिंहनिष्क्रीडित आदि कठिन तप किये तो भी उसके ह्णदय में अपने पराजयका संल्केश बना रहा अत: अन्त में उसने ऐसा विचार किया कि यदि मेरी इस तपश्चर्याका फल अन्य जन्ममें प्राप्त हो तो मुझे ऐसा महान् बल और पराक्रम प्राप्त होवे जिससे मैं शत्रुओं को जीत सकूँ ॥63-64॥ ऐसा निदान कर वह संन्याससे मरा और माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की स्थिति वाला देव हुआ । वह वहाँ भोगों को भोगता हुआ चिरकाल तक सुख से स्थित रहा ॥65॥ तदनन्तर इसी जम्बूद्वीप में मेरूपर्वत के पूर्व की ओर वीतशोकापुरी नाम की नगरी है उसमें ऐश्वर्य शाली नरवृषभ नाम का राजा राज्य करता था । उसने बाह्याभ्यन्तर प्रकृतिके कोपसे रहित राज्य भोगा, बहुत भारी सुख भोगे और अन्त में विरक्त होकर समस्त राज्य त्याग दिया और दमवर मुनिराज के पास दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ॥66-67॥ अपनी विशाल आयु कठिन तप से बिताकर वह सहस्त्रार स्वर्ग में अठारह सागर की स्थितिवाला देव हुआ ॥68॥ प्राणप्रिय देवांगनाओं को निरन्तर देखने से उसने अपने टिपकार रहित नेत्रोंका फल प्राप्त किया और आयु के अन्त में शान्तचित्त होकर इसी जम्बूद्वीप के खगपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेनकी विजया रानीसे सुदर्शन नाम का पुत्र हुआ ॥69- 70॥ इसी राजा की अम्बिका नाम की दूसरी रानी के सुमित्रा का जीव नारायण हुआ । वे दोनों भाई पैंतालीस धनुष ऊँचे थे और दश लाख वर्ष की आयु के धारक थे ॥71॥ एक दूसरेके अनुकूल बुद्धि, रूप और बलसे सहित उन दोनों भाइयोंने समस्त शत्रुओं पर आक्रमण कर आत्मीय लोगों को अपने गुणों से अनुरक्त बनाया था ॥72॥ यद्यपि उन दोनों की लक्ष्मी अविभक्त थी-परस्पर बाँटी नहीं गई थी तो भी उनके लिए कोई दोष उत्पन्न नहीं करती थी सो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त शुद्ध है उनके लिए सभी वस्तुएँ शुद्धता के लिए ही होती हैं ॥73॥ अथानन्तर इसी भरतक्षेत्रके कुरूजांगल देशमें एक हस्तिनापुर नाम का नगर है उसमें मधुक्रीड़ नाम का राजा राज्य करता था । वह सुमित्रको जीतनेवाले राजसिंहका जीव था । उसने समस्त शत्रुओं के समूहको जीत लिया था, वह तेज से बढ़ते हुए बलभद्र और नारायणको नहीं सह सका इसलिए उस बलवान् ने कर-स्वरूप अनेकों श्रेष्ठ रत्न माँगनेके लिए दण्डगर्भ नाम का प्रधानमंत्री भेजा ॥74- 76॥ जिस प्रकार हाथी के कण्ठ का शब्द सुनकर सिंह क्रुद्ध हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्य के समान तेजके धारक दोनों भाई प्रधानमंत्रीके शब्द सुनकर क्रुद्ध हो उठे ॥77॥ और कहने लगे कि वह मूर्ख खेलनेके लिए साँपों भरा हुआ कर माँगता है सो यदि वह पास आया तो उसके लिए वह कर अवश्य दिया जावेगा ॥78॥ इस प्रकार क्रोधसे वे दोनों भाई कठोर शब्द कहने लगे और उस मंत्रीने शीघ्र ही जाकर राजा मधुक्रीड़को इसकी खबर दी ॥79॥ राजा मधुक्रीड़ भी उनके दुर्वचन सुनकर क्रोधसे लाल शरीर हो गया और उनके साथ युद्ध करने के लिए बहुत बड़ी सेना लेकर चला ॥80॥ युद्ध करने में चतुर नारायण भी उसके सामने आया, उसपर आक्रमण किया, चिरकाल तक उसके साथ युद्ध किया और अन्त में उसीके चलाये हुए चक्र से शीघ्र ही उसका शिर काट डाला ॥81॥ दोनों भाई तीन खण्ड के अधीश्वर बनकर राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करते रहे । उनमें नारायण, आयु का अन्त होने पर सातवें नरक गया ॥82॥ उसके शोक से बलभद्र ने धर्मनाथ तीर्थकर की शरणमे जाकर दीक्षा ले ली और पापोंके समूहको नष्ट कर परम पद प्राप्त किया ॥83॥ देखो, दोनों ही भाई शत्रुसेना को नष्ट करने वाले थे, अभिमानी थे, शूर वीर थे, पुण्य के फलका उपभोग करनेवाले थे, और तीन खण्ड़के स्वामी थे फिर भी इस तरह दुष्ट कर्म के द्वारा अलग-अलग कर दिये गये । मोहके उदय से पाप का फल नारायणको ही प्राप्त हुआ इसलिए पापोंकी अधीनताको धिक्कार है ॥84॥ पुरूषसिंह नारायण, पहले प्रसिद्ध राजगृह नगर में सुमित्र नाम का राजा था, फिर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँसे च्युत होकर इस खगपुर नगर में पुरूषसिंह नाम का नारायण हुआ और उसके पश्चात् भयंकर सातवें नरकमें नारकी हुआ ॥85॥ मधुक्रीड़ प्रतिनारायण पहले मदोन्मत्त हाथियोंको वश करने वाला राजसिंह नाम का राजा था, फिर मार्गभ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसाररूपी वन में भ्रमण करता रहा, तदनन्तर धर्ममार्गका अवलम्बन कर हस्तिनापुर नगर में मधुक्रीड हुआ और उसके पश्चात् दुर्गतिको प्राप्त हुआ ॥86॥ सुदर्शन बलभद्र, पहले प्रसिद्ध वीतशोक नगर में नरवृषभ नामक राजा था, फिर चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर सहस्त्रार स्वर्ग में देव हुआ, फिर वहाँसे चय कर खगपुर नगर में शत्रुओं का पक्ष नष्ट करने वाला बलभद्र हुआ और फिर क्षमा का घर होता हुआ मरणरहित होकर क्षायिक सुख को प्राप्त हुआ ॥87॥ इन्हीं धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में तीसरे मघवा चक्रवर्ती हुए इसलिए तीसरे भव से लेकर उनका पुराण कहता हूँ ॥88॥ श्रीवासुपूज्य तीर्थंकर के तीर्थ में नरपति नाम का एक बड़ा राजा था वह भाग्योदयसे प्राप्त हुए भोगों को भोग कर विरक्त हुआ और उत्कृष्ण तपश्चरण कर मरा । अन्त में पुण्योदय से मध्यम ग्रैवेयकमें अहमिन्द्र हुआ ॥89-90॥ सत्ताईस सागर तक मनोहर दिव्य भोगों को भोगकर वह वहाँ से च्युत हुआ और धर्मनाथ तीर्थंकर के अन्तराल में कोशल नामक मनोहर देश की अयोध्यापुरीके स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा सुमित्र की भद्रारानी से मघवान् नाम का पुण्यात्मा पुत्र हुआ । यही आगे चलकर भरत क्षेत्रका स्वामी चक्रवती होगा । उसने पाँच लाख वर्षकी कल्याणकारी उत्कृष्ट आयु प्राप्त की थी । साढ़े चालीस धनुष ऊँचा उसका शरीर था, सुवर्ण के समान शरीर की कान्ति थी । वह प्रतापी छह खण्डोंसे सुशोभित पृथिवी का पालनकर चौदह महारत्नों से विभूषित एवं नौ निधियों का नायक था । वह मनुष्य, विद्याधर और इन्द्रोंको अपने चरण युगलमें झुकाता था । चक्रवर्तियोंकी विभूतिके प्रमाण में कही हुई-छयानबे हजार देवियोंके साथ इच्छानुसार दश प्रकार के भोगों को भोगता हुआ वह अपने मनोरथ पूर्ण करता था । किसी एक दिन मनोहर नामक उद्यान में अकस्मात अभयघोष नामक केवली पधारे । उस बुद्धिमान ने उनके दर्शन कर तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, वन्दना की, धर्म का स्वरूप सुना, उनके समीप तत्त्वोंके सद्धावका ज्ञान प्राप्त किया, विषयों से अत्यन्त विरक्त होकर प्रियमित्र नामक पुत्र के लिए साम्राज्य पदकी विभूति प्रदान की और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर संयम धारण कर लिया ॥91–99॥ वह शुद्ध सम्यग्दर्शन तथा निर्दोष चरित्रका धारक था, शास्त्रज्ञान रूपी सम्पत्तिसे सहित था, उसके द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का विघात कर दिया था ॥100॥ अब वे नौ केवललब्धियोंके स्वामी हो गये तथा धर्मनाथ तीर्थं करके समान धर्म का उपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को अतिशय श्रेष्ठ मोक्ष पदवी प्राप्त कराने लगे ॥101॥ अन्त में शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ भेदके द्वारा उन्होंने अघाति चतुष्कका क्षय कर दिया और पुण्य-पाप कर्मोंसे विर्निमुक्त होकर अविनाशी मोक्ष प्राप्त किया ॥102॥ तीसरा चक्रवर्ती मघवा पहले वासुपूज्य स्वामी के तीर्थ में नरपति नाम का राजा था, फिर उत्तम शान्तिसे युक्त श्रेष्ठ चारित्रके प्रभाव से बड़ी ऋद्धिका धारक अहमिन्द्र हुआ, फिर समस्त पुण्य से युक्त मघवा नाम का तीसरा चक्रवर्ती हुआ और तत्पश्चात मोक्ष के श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ ॥103॥ अथानन्तर-मघवा चक्रवर्ती के बाद ही अयोध्या नगरी के अधिपति, सूर्य वंशके शिरोमणि राजा अनन्तवीर्यकी सहदेवी रानी के सोलहवें स्वर्गसे आकर सनत्कुमार नाम का पुत्र हुआ । वह चक्रवर्ती की लक्ष्मी का प्रिय वल्लभ था ॥104-105॥ उसकी आयु तीन लाख वर्षकी थी, और शरीर की ऊँचाई पूर्व चक्रवर्ती के शरीर की ऊँचाईके समान साढ़े व्यालीस धनुष थी । सुवर्ण के समान कान्तिवाले उस चक्रवर्ती ने समस्त पृथिवीको अपने अधीन कर लिया था ॥106॥ दश प्रकार के भोगके समागमसे उसकी समस्त इन्द्रियाँ सन्तृप्त हुईं थीं । वह याचकेंके संकल्प को पूर्ण करनेवाला मानो बड़ा भारी कल्पवृक्ष ही था ॥107॥ हिमवान् पर्वत से लेकर दक्षिण समुद्र तककी पृथिवीके बीच जितने राजा थे उन सबके ऊपर आधिपत्यको विस्तृत करता हुआ वह बहुत भारी लक्ष्मी का उपभोग करता था ॥108॥ इस प्रकार इधर इनका समय सुख से व्यतीत हो रहा था उधर सौधर्म इन्द्र की सभा में देवों ने सौधर्मेन्द्रसे पूछा कि क्या कोई इस लोक में सनत्कुमार इन्द्रके रूपको जीतनेवाला है ? सौधर्मेनद्रने उत्तर दिया कि हाँ, सनत्कुमार चक्रवर्ती सर्वांग सुन्दर है । उसके समान रूपवाला पुरूष कभी किसी ने स्वप्न में भी नहीं देखा है । सौधर्मेन्द्रके वचन सुनकर दो देवोंको कौतुहल उत्पन्न हुआ और वे उसका रूप देखनेकी इच्छा से पृथिवीपर आये । जब उन्होंने सनत्कुमार चक्रवर्ती को देखा तब ‘सौधर्मेन्द्रका कहना ठीक है’ ऐसा कहकर वे बहुत ही हर्षित हुए ॥109–112॥ उन देवों ने सनत्कुमार चक्रवर्ती को अपने आनेका कारण बतलाकर कहा कि हे बुद्धिमन् ! चक्रवर्तिन् ! चित्तको सावधानकर सूनिये-यदि इस संसार में आपके लिये रोग, बढ़ापा, दु:ख तथा मरणकी सम्भावना न हो तो आप अपने सौन्दर्यसे तीर्थंकरको भी जीत सकते हैं ॥113–114॥ ऐसा कहकर वे दोनों देव शीघ्र ही अपने स्थानपर चले गये । राजा सनत्कुमार उन देवों के वचनों से ऐसा प्रतिबुद्ध हुआ मानो काललब्धिने ही आकर उसे प्रतिबुद्ध कर दिया हो ॥115॥ वह चिन्तवन करने लगा कि मनुष्यों के रूप, यौवन, सौन्दर्य, सम्पत्ति और सुख आदि बिजलीरूप लताके विस्तारसे पहले ही नष्ट हो जानेवाले हैं ॥116॥ मैं इन नश्वर सम्पत्तियोंको छोड़कर पापोंका जीतने वाला बनूँगा और शीघ्र ही इस शरीर को छोड़कर अशरीर अवस्था को प्राप्त होऊँगा ॥117॥ ऐसा विचारकर उन्होंने देवकुमार नामक पुत्र के लिए राज्य देकर शिवगुप्त जिनेन्द्र के समीप अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ले ली ॥118॥ वे अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों से पूज्य थे, ईर्या आदि पाँच समितियोंका पालन करते थे, छह आवश्यकों से उन्होंने अपने आपको वश कर लिया था, इन्द्रियों की सन्ततिको रोक लिया था, वस्त्रका त्यागकर रखा था, वे पृथिवीपर शयन करते थे, कभी दातौन नहीं करते थे; खड़े - खड़े एक बार भोजन करते थे । इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों से अत्यन्त शोभायमान थे ॥119-120॥ तीन कालमें योगधारण करना, वीरासन आदि आसन लगाना तथा एक करवटसे सोना आदि शास्त्रोंमें कहे हुए उत्तरगुणोंका निरन्तर यथायोग्य आचरण करते थे ॥121॥ वे पृथिवीके समान क्षमाके धारक थे, पानीके समान आश्रित मनुष्यों के सन्तापको दूर करते थे, पर्वत के समान अकम्प थे, परमाणुके समान नि:संग थे, आकाशके समान निर्लेप थे, समुद्र के समान गम्भीर थे, चन्द्रमा के समान सबको आह्लादित करते थे, सूर्य के समान देदीप्यमान थे, तपाये हुए सुवर्ण के समान भीतर-बाहर शुद्ध थे, दर्पणके समान समदर्शी थे, कछुवेके समान संकोची थे, साँपके समान कहीं अपना स्थिर निवास नहीं बनाते थे, हाथी के समान चुपचाप गमन करते थे, श्रृगालके समान सामने देखते थे, उत्तम सिंह के समान शूरवीर थे और हरिणके समान सदा विनिद्र-जागरूक रहते थे । उन्होंने सब परिषह जीत लिये थे, सब उपसर्ग सह लिये थे और विक्रिया आदि अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर ली थीं ॥122–126॥ उन्होंने क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ होकर दो शुक्लध्यानोंके द्वारा घातिया कर्मों को नष्टकर केवलज्ञान उत्पन्न किया था ॥127॥ तदनन्तर अनेक देशोंमें विहारकर अनेक भव्य जीवों को समीचीन धर्म का उपदेश दिया और कुमार्ग में चलनेवाले मनुष्यों के लिए दुर्गम मोक्षका समीचीन मार्ग सबको बतलाया ॥128॥ जब उनकी आयु अन्तर्मुहुर्तकी रह गई तब तीनों योगोंका निरोध कर उन्होंने समस्त कर्मोंके क्षयसे प्राप्त होनेवाला अविनाशी मोक्षपद प्राप्त किया ॥129॥ जिन्होंने अपने जिनेन्द्र के समान शरीरसे सनत्कुमार इन्द्रको जीत लिया, जिन्होंने अपने पराक्रमके बलसे दिशाओं के समूह पर आक्रमण किया और धर्मचक्र द्वारा पापोंका समूह नष्ट किया वे श्रीसनत्कुमार भगवान् तुम सबके लिए शीघ्र ही लक्ष्मी प्रदान करें ॥130 |