+ अपराजित बलभद्र तथा अनन्तवीर्य नारायण चरित -
पर्व - 62

  कथा 

कथा :

संसार को नष्‍ट करनेवाले जिन शान्तिनाथ भगवान् का ज्ञान, पर्याय सहित समस्‍त द्रव्‍योंको जानकर आगे जानने योग्‍य द्रव्‍य न रहने से विश्रान्‍त हो गया वे शान्तिनाथ भगवान् तुम सबकी शान्ति के लिए हों ॥1॥

पदार्थ के यथार्थ-स्‍वरूप को देखनेवाला विद्वान् पहले वक्‍ता, श्रोता तथा कथा के भेदों का वर्णन कर पीछे गम्‍भीर अर्थ से भरी हुई धर्म-कथा कहे ॥2॥

विद्वान् होना, श्रेष्‍ठ चारित्र धारण करना, दयालु होना, बुद्धिमान् होना, बोलने में चतुर होना, दूसरों के इशारे को समझ लेना, प्रश्‍नों के उपद्रव को सहन करना, मुख अच्‍छा होना, लोक-व्‍यवहार का ज्ञाता होना, प्रसिद्धि तथा पूजा से युक्‍त होना और थोड़ा बोलना, इत्‍यादि धर्मोपदेश देने वाले के गुण हैं ॥3-4॥

यदि वक्‍ता तत्‍त्‍वों का जानकार होकर भी चारित्र से रहित होगा तो यह कहे अनुसार स्‍वयं आचरण क्‍यों नहीं करता ऐसा सोचकर साधारण मनुष्‍य उसकी बात को ग्रहण नहीं करेंगे ॥5॥

यदि वक्‍ता सम्‍यक् चारित्र से युक्‍त होकर भी शास्‍त्र का ज्ञाता नहीं होगा तो वह थोड़े से शास्‍त्र ज्ञान से उद्धत हुए मनुष्‍यों के हास्‍य-युक्‍त वचनों से समीचीन मोक्ष-मार्ग की हँसी करावेगा ॥6॥

जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन जीव का अबाधित स्‍वरूप है उसी प्रकार विद्वत्‍ता और सच्‍चरित्रता वक्‍ता का मुख्‍य लक्षण है ॥7॥

'यह योग्‍य है ? अथवा अयोग्‍य है ?' इस प्रकार कही हुई बात का अच्‍छी तरह विचार कर सकता हो, अवसर पर अयोग्‍य बात के दोष कह सकता हो, उत्‍तम बात को भक्ति से ग्रहण करता हो, उपदेश-श्रवण के पहले ग्रहण किये हुए असार उपदेश में जो विशेष आदर अथवा हठ नहीं करता हो, भूल हो जाने पर जो हँसी नहीं करता हो, गुरू-भक्‍त हो, क्षमावान् हो, संसार से डरनेवाला हो, कहे हुए वचनों को धारण करने में तत्‍पर हो, तोता, मिट्टी अथवा हंस के गुणों से सहित हो वह श्रोता कहलाता है ॥8-10॥

जिसमें जीव अजीव आदि पदार्थों का अच्‍छी तरह निरूपण किया जाता हो, हितेच्‍छु मनुष्‍यों को शरीर, संसार और भोगों से वैराग्‍य प्राप्‍त कराया जाता हो, दान पूजा तप और शील की विशेषताएँ विशेषता के साथ बतलाई जाती हों, जीवों के लिए बन्‍ध, मोक्ष तथा उनके कारण और फलों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया जाता हो, जिसमें सत् और असत् की कल्‍पना युक्ति से की जाती हो, जहाँ माता के समान हित करनेवाली दया का खूब वर्णन हो और जिसके सुनने से प्राणी सर्व परिग्रह का त्‍याग कर मोक्ष प्राप्‍त करते हों वह तत्‍त्‍व-धर्म-कथा कहलाती है इसका दूसरा नाम धर्मकथा भी है ॥11-14॥

इस प्रसार वक्‍ता, श्रोता और धर्मकथा के पृथक्-पृथक् लक्षण कहे । अब इसके आगे शान्तिनाथ भगवान् का विस्‍तृत चरित्र कहता हूँ ॥15॥

अथानन्‍तर-जो समस्‍त द्वीपों का स्‍वामी है और लवण-समुद्र का नीला जल ही जिसके बड़े शोभायमान वस्‍त्र हैं ऐसे जम्‍बू-द्वीपरूपी महाराज के मुख की शोभा को धारण करनेवाला, छह-खण्‍डों से सुशोभित, लवण-समुद्र तथा हिमवान्-पर्वत के मध्‍य में स्थित भरत नाम का एक अभीष्‍ट क्षेत्र है ॥16-17॥

वहाँ भोगभूमि में उत्‍पन्‍न होने वाले भोगों को आदि लेकर चक्रवर्ती दश प्रकार के भोग, तीर्थंकरों का ऐश्‍वर्य और अघातिया कर्मों के भय से प्रकट होनेवाली सिद्धि-मुक्ति भी प्राप्‍त होती है इसलिए विद्वान लोग उसे स्‍वर्ग-लोक से भी श्रेष्‍ठ कहते हैं । उस क्षेत्र में ऐरावत क्षेत्र के समान वृद्धि और हृास के द्वारा परिवर्तन होता रहता है ॥18-19॥

उसके ठीक बीच में भरत-क्षेत्र का आधा विभाग करनेवाला, पूर्व से पश्चिम तक लम्‍बा तथा ऊँचा विजयार्ध पर्वत सुशोभित होता है जो कि उज्‍ज्‍वल यश के समूह के समान जान पड़ता है ॥20॥

अथवा चाँदी का बना हुआ वह विजयार्ध पर्वत ऐसा जान पड़ता है कि स्‍वर्ग-लोक को जीतने से जिसे संतोष उत्‍पन्‍न हुआ है ऐसी पृथिवी रूपी स्‍त्री का इकट्ठा हुआ मानो हास्‍य ही हो ॥21॥

हमारे ऊपर पड़ी हुई वृष्टि सदा सफल होती है और तुम लोगों के ऊपर पड़ी हुई वृष्टि कभी सफल नहीं होती इस प्रकार वह पर्वत अपने तेज से सुमेरू पर्वतों की मानो हँसी ही करता रहता है ॥22॥

ये नदियाँ चंचल स्‍वभाववाली हैं, कुटिल हैं, जल से (पक्ष में जड़-मूर्खों से) आढय-सहित हैं, और जलधि-समुद्र (पक्ष में जडधि-मूर्ख) को प्रिय हैं इसलिए घृणा से ही मानो उसने गंगा-सिन्‍धु इन दो नदियों को अपने गुहारूपी मुख से वमन कर दिया था ॥23॥

वह पर्वत चक्रवर्ती को अनुकरण करता था क्‍योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने आश्रय में रहने वाले देव और विद्याधरों के द्वारा सदा सेवनीय होता है और समस्‍त इन्द्रिय-सुखों का स्‍थान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अपने-अपने आश्रय में रहने वाले देव और विद्याधरों से सदा सेवित था और समस्‍त इन्द्रिय-सुखों का स्‍थान था ॥24॥

उस विजयार्ध पर्वत की दक्षित श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल नाम की नगरी है जो अपनी पताकाओं से आकाश को मानो बलाकाओं से सहित ही करती रहती है ॥25॥

वह मेघों को चूमने वाले रत्‍नमय कोट से घिरी हुई है इसलिए ऐसी जान पड़ती है मानो रत्‍न की वेदिका से घिरी हुई जम्‍बूद्वीप की भूमि ही हो ॥26॥

वहाँ धर्म, अर्थ और काम ये तीन पुरूषार्थ हर्ष से बढ़ रहे थे और दरिद्र शब्‍द कहीं बाहर से भी नहीं दिखाई देता था-सदा छुपा रहता था ॥27॥

जिस प्रकार अन्‍य मतावलम्बियों के लिए दुर्गम-कठिन प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोग इन चार उपायों के द्वारा पदार्थों की परीक्षा सुशोभित होती है उसी प्रकार शत्रुओं के लिए दुर्गम-दु:ख से प्रवेश करने के योग्‍य चार गोपुरों से वह नगरी सुशोभित हो रही थी ॥28॥

जिस प्रकार जिनेन्‍द्र भगवान् की विद्या में अचारित्र-असंयम का उपदेश देनेवाले वचन नहीं हैं उसी प्रकार उस नगरी में शीलरूपी आभूषण से रहित कुलवती स्त्रियाँ नहीं थीं ॥29॥

ज्‍वलनजटी विद्याधर उस नगरी का राजा था, जो अत्‍यन्‍त कुशल था और जिस प्रकार मणियों का आकर-खान समुद्र है उसी प्रकार वह गुणी मनुष्‍यों आकर था ॥30॥

जिस प्रकार सूर्य के प्रताप से नये पत्ते मुरझा जाते हैं उसी प्रकार उसके प्रताप से शत्रु मुरझा जाते थे-कान्‍ति हीन हो जाते थे और जिस प्रकार वर्षा से लताएँ बढ़ने लगती हैं उसी प्रकार उसकी नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ रही थी ॥31॥

जिस प्रकार यथा-समय यथा-स्‍थान बोये हुए धान उत्‍तम फल देते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा यथा-समय यथा स्‍थान-प्रयोग किये हुए साम आदि उपाय बहुत फल देते थे ॥32॥

जिस प्रकार आगे की संख्‍या पिछली संख्‍याओं से बड़ी होती है उसी प्रकार वह राजा पिछले समस्‍त राजाओं को अपने गुणों और स्‍थानों से जीतकर बड़ा हुआ था ॥33॥

उसकी समस्‍त सिद्धियाँ देव और पुरूषार्थ दोनोंके आधीन थीं, वह मंत्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा आदि बाह्य प्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्‍वराष्‍ट्र तथा परराष्‍ट्र का विचार करता था, उत्‍साह शक्‍ति, मन्‍त्र शक्ति और प्रभुत्‍व श‍क्ति इन तीन शक्‍तियों तथा इनसे निष्‍पन्‍न होने वाली तीन सिद्धियों की अनुकूलता से उसे सदा योग और क्षेम का समागम होता रहता था, साथ ही वह सन्‍धि विग्रह यान आदि छह गुणों की अनुकूलता रखता था इसलिए उसका राज्‍य निरन्‍तर बढ़ता ही रहता था ॥34-35॥

उसी विजयार्ध पर द्युतिलक नाम का दूसरा नगर था । राजा चन्‍द्राभ उसमें राज्‍य करता था, उसकी रानी का नाम सुभद्रा था । उन दोनों के वायुवेगा नाम की पुत्री थी । उसने अपनी वेग विद्या के द्वारा समस्‍त वेगशाली विद्याधर राजाओं को जीत लिया था । उसकी कान्‍ति चमकती हुई बिजली के प्रकाश को जीतने वाली थी ॥36–37॥

जिस प्रकार भाग्‍यशाली पुरूषार्थी मनुष्‍य की बुद्धि उसकी त्रिवर्ग सिद्धि का कारण होती है उसी प्रकार समस्‍त गुणों से विभूषित वह वायुवेगा राजा ज्‍वलनजटी की त्रिवर्गसिद्धि का कारण हई थी ॥38॥

प्रतिपदा के चन्द्रमा की रेखा के समान वह सब मनुष्‍यों के द्वारा स्‍तुत्‍य थी । तथा अनुराग से भरी हुई द्वितीय भूमि के समान वह अपने ही पुरूषार्थ से राजा ज्‍वलन के भोगने योग्‍य हुई थी ॥39॥

वायुवेगा के प्रेम की प्रेरणा से ज्‍वलनजटी ने अनेक ऋद्धियों से युक्‍त राज-लक्ष्‍मी को उसका परिकर (दासी) बना दिया था सो ठीक ही है क्‍योंकि अलभ्‍य वस्‍तु के विषय में मनुष्‍य क्‍या नहीं करता है ? ॥40॥

बड़े कुल में उत्‍पन्‍न होने से तथा अनुराग से युक्‍त होने के कारण उस पतिव्रता के एक-पतिव्रत था और प्रेम की अधिकता से उस राजा के एक-पत्‍नीव्रत था ऐसा लोग कहते हैं ॥41॥

जिस प्रकार इन्‍द्राणी में इन्‍द्र की लोकोत्‍तर प्रीति होती है उसी प्रकार उसमें ज्‍वलनजटी की लोकोत्‍तर प्रीति थी फिर उसके रूपादि गुणों का पृथक् पृथक् क्‍या वर्णन किया जावे ॥42॥

जिस प्रकार दया और सम्‍यग्‍ज्ञान के मोक्ष होता है उसी प्रकार उन दोनों के अपनी कीर्ति की प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला अर्ककीर्ति नाम का पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ ॥43॥

जिस प्रकार नीति और पराक्रम के लक्ष्‍मी होती है उसी प्रकार उन दोनों के सब का मन हरनेवाली स्‍वयंप्रभा नाम की पुत्री भी उत्‍पन्‍न हुई जो अर्ककीर्ति के साथ इस प्रकार बढ़ने लगी जिस प्रकार कि चन्‍द्रमा के साथ उसकी प्रभा बढ़ती है ॥44॥

वह मुख से कमल को, नेत्रों से उत्‍पल को, आभा से मणिमय दर्पण को और कान्ति से चन्‍द्रमा को जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो भौंहरूप पताका ही फहरा रही हो ॥45॥

लता में फूल के समान ज्‍यों ही उसके शरीर में यौवन उत्‍पन्‍न हुआ त्‍यों ही उसने कामी विद्याधरों में काम-ज्‍वर उत्‍पन्‍न कर दिया ॥46॥

कुछ कुछ पीले और सफेद कपोलों की कान्ति से सुशोभित मुख-मण्‍डल पर उसके नेत्र बड़े चंचल हो रहे थे जिनसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कमर को पतली देख उसके टूट जाने के भय से ही नेत्रों को चंचल कर रही हो ॥47॥

उस दुबली-पतली स्‍वयम्‍प्रभा की इन्‍द्रनील मणि के समान कान्तिवाली पतली रोमावली ऐसी जान पड़ती थी मानो उछलकर ऊँचे स्‍थूल और निविड़ स्‍तनों पर चढ़ना ही चाहती हो ॥48॥

यद्यपि कामदेव ने उसका स्‍पर्श नहीं किया था तथापि प्राप्‍त हुए यौवन से ही वह कामदेव के विकार को प्रकट करती हुई-सी मनुष्‍यों के दृष्टिगोचर हो रही थी ॥49॥

अथानन्‍तर किसी एक दिन जगन्‍नन्‍दन और नाभिनन्‍दन नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज मनोहर नामक उद्यान में आकर विराजमान हुए । उनके आगमन की खबर देनेवाले वनपाल से यह समाचार जानकर राजा चतुरंग सेना, पुत्र तथा अन्‍त:पुर के साथ उनके समीप गया । वहाँ वन्‍दना कर उसने श्रेष्‍ठ धर्म का स्‍वरूप सुना, बड़े आदर से सम्‍यग्‍दर्शन तथा दान शील आदि व्रत ग्रहण किये, तदनन्‍तर भक्ति-पूर्वक उन चारण-ऋद्धिधारी मुनियों को प्रणाम कर वह नगर में वापिस आ गया ॥50-52॥

स्‍वयंप्रभा ने भी वहाँ समीचीन धर्म ग्रहण किया । एक दिन उसने पर्व के समय उपवास किया जिससे उसका शरीर कुछ म्‍लान हो गया । उसने अर्हन्‍त भगवान् की पूजा की तथा उनके चरण-कमलों के संपर्क से पवित्र पापहारिणी विचित्र माला विनय से झुककर दोनों हाथों से पिता के लिए दी ॥53-54॥

राजा ने भक्ति-पूर्वक वह माला ले ली और उपवास से थकी हुई स्‍वयंप्रभा की ओर देख, 'जाओ पारण करो' यह कर उसे विदा किया ॥55॥

पुत्री के चले जाने पर राजा मन ही मन विचार करने लगा कि जो यौवन से परिपूर्ण समस्‍त अंगों से सुन्‍दर है ऐसी यह पुत्री किसके लिए देनी चाहिये ॥56॥

उसने उसी समय मन्त्रिवर्ग को बुलाकर प्रकृत बात कही, उसे सुनकर सुश्रुत नाम का मंत्री परीक्षा कर तथा अपने मन में निश्‍चय कर बोला ॥57॥

नीलान्‍जना है, उन दोनों के अश्‍वग्रीव, नीलरथ, नीलकण्‍ठ, सुकण्‍ठ और वज्रकण्‍ठ नाम के पाँच पुत्र हैं । इनमें अश्‍वग्रीव सबसे बड़ा है ॥58-59॥

अश्‍वग्रीव की स्‍त्री का नाम कनकचित्रा है उन दोनोंके रत्‍नग्रीव, रत्‍नांगद, रत्‍नचूड तथा रत्‍नरथ आदि पाँच सौ पुत्र हैं । शास्‍त्रज्ञान का सागर हरिश्‍मश्रु इसका मंत्री है तथा शतबिन्‍दू निमित्‍तज्ञानी है-पुरोहित है जो कि अष्‍टांग निमित्‍तज्ञान में अतिशय निपुण है ॥60-61॥

इस प्रकार अश्‍वग्रीव सम्‍पूर्ण राज्‍य का अधिपति है और दोनों श्रेणियों का स्‍वामी है अत: इसके लिए ही कन्‍या देनी चाहिये ॥62॥

इसके बाद सुश्रुत मंत्री के द्वारा कही हुई बात का विचार करता हुआ बहुश्रुत मंत्री राजा से अपने ह्णदय की बात कहने लगा । वह बोला कि सुश्रुत मंत्री ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि ठीक है तो भी निम्‍नांकित बात विचारणीय है । कुलीनता, आरोग्‍य, अवस्‍था, शील, श्रुत, शरीर, लक्ष्‍मी, पक्ष और परिवार, वर के ये नौ गुण कहे गये हैं । अश्‍वग्रीव में यद्यपि ये सभी गुण विद्यमान हैं किन्‍तु उसकी अवस्‍था अधिक है, अत: कोई दूसरा वर जिसकी अवस्‍था कन्‍या के समान हो और गुण अश्‍वग्रीव के समान हों, खोजना चाहिये ॥63-65॥

गगनवल्‍लभपुर का राजा चित्ररथ प्रसिद्ध है, मेघपुर में श्रेष्‍ठ राजा पद्मरथ रहता है, चित्रपुरका स्‍वामी अरिन्‍जय है । त्रिपुरनगर में विद्याधरों का राजा ललितांगद रहता है, अश्‍वपुर का राजा कनकरथ विद्या में अत्‍यन्‍त कुशल है, और महारत्‍नपुर का राजा धनन्‍जय समस्‍त विद्याधरों का स्‍वामी है । इनमें से किसी एक के लिए कन्‍या देनी चाहिये यह निश्‍चय है ॥66–68॥

बहुश्रुत के वचन ह्णदय में धारण कर तथा विचार कर स्‍मृतिरूपी नेत्र को धारण करनेवाला श्रुत नाम का तीसरा मन्‍त्री निम्‍नांकित मनोहर वचन कहने लगा ॥69॥

यदि कुल, आरोग्‍य, वय और रूप आदि से सहित वर के लिए कन्‍या देना चाहते हों तो मैं कुछ कहता हूं उसे थोड़ा सुनिये ॥70॥

इसी विजयार्ध पर्वत की उत्‍तर श्रेणी में सुरेन्‍द्रकान्‍तार नाम का नगर है उसके राजा का नाम मेघवाहन है । उसके मेघमालिनी नाम की वल्‍लभा है । उन दोनों के विद्युत्‍प्रभ नाम का पुत्र और ज्‍योतिर्माला नाम की निर्मल पुत्री है । खगेन्‍द्र मेघवाहन इन दोनों पुत्र-पुत्रियों से ऐसा समृद्धिमान सम्‍पन्‍न हो रहा था जैसा कि कोई पुण्‍य-कर्म और सुबुद्धिसे होता है । अर्थात् पुत्र पुण्‍य के समान था और पुत्री बुद्धि के समान थी ॥71-72॥

किसी एक दिन मेघवाहन स्‍तुति करने के लिए सिद्धकूट गया था । वहाँ वरधर्म नाम के अवधिज्ञानी चारण‍ऋद्धिधारी मुनि की वन्‍दना कर उसने पहले तो धर्म का स्‍वरूप सुना और बाद में अपने पुत्र के पूर्व भव पूछे । मुनि ने कहा कि हे विद्याधर ! चित्‍त लगाकर सुनो, मैं कहता हूँ ॥73-74॥

जम्‍बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्‍सकावती नाम का देश है उसमें प्रभाकरी नाम की नगरी है वहाँ सुन्‍दर आकार वाला नन्‍दन नाम का राजा राज्‍य करता था ॥75॥

जयसेना स्‍त्री के उदर से उत्‍पन्‍न हुआ विजयभद्र नाम का इसका पुत्र था । उस विजयभद्र ने किसी दिन मनोहर नामक उद्यान में फला हुआ आम का वृक्ष देखा फिर कुछ दिन बाद उसी वृक्ष को फल-रहित देखा । यह देख उसे वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया और पिहितास्‍त्रव गुरू से चार हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥76-77॥

आयु के अन्‍त में माहेन्‍द्र स्‍वर्ग के चक्रक नामक विमान में सात सागर की आयु वाला देव हुआ । वहाँ चिरकाल तक दिव्‍य-भोगों का उपभोग करता रहा ॥78॥

वहाँ से च्‍युत होकर यह तुम्‍हारा पुत्र हुआ है और इसी भव से निर्वाण को प्राप्‍त होगा । श्रुतसागर मन्‍त्री कहने लगा कि मैं भी स्‍तुति करने के लिए सिद्धकूट जिनालय में वरधर्म नामक चारण मुनि के पास गया था वहीं यह सब मैंने सुना है ॥79॥

इस प्रकार विद्युत्‍प्रभ वरके योग्‍य समस्‍त गुणों से सहित है उसे ही यह कन्‍या दी जावे और उसकी पुण्‍यशालिनी बहिन ज्‍योतिर्माला को हमलोग अर्ककीर्ति के लिए स्‍वीकृत करें ॥80॥

इस प्रकार श्रुतसागर के वचन सुनकर विद्वानों में अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ सुमति नाम का मन्‍त्री बोला कि इस कन्‍या को पृथक्-पृथक् अनेक विद्याधर राजा चाहते हैं इ‍सलिए विद्युत्प्रभ को कन्‍या नहीं देनी चाहिये क्‍योंकि ऐसा करने से बहुत राजाओं के साथ वैर हो जाने की सम्‍भावना है मेरी समझ से तो स्‍वयंवर करना ठीक होगा । ऐसा कहकर वह चुप हो गया ॥81-82॥

सब लोगों ने यही बात स्‍वीकृत कर ली, इसलिए विद्याधर राजा ने सब मन्त्रियों को विदा कर दिया और संभिन्‍नश्रोतृ नामक निमित्‍तज्ञानी से पूछा कि स्‍वयंप्रभा का ह्णदयवल्‍लभ कौन होगा ? पुराणों के अर्थ को जाननेवाले निमित्‍तज्ञानी ने राजा के लिए निम्‍नप्रकार उत्‍तर दिया ॥83-84॥

इसी जम्‍बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में एक पुष्‍कलावती नाम का देश है उसकी पुण्‍डरीकिणी नगरी के समीप ही मधुक नाम के वन में पुरूरवा नाम का भीलों का राजा रहता था । किसी एक दिन मार्ग भूल जाने से इधर-उधर घूमते हुए सागरसेन मुनिराज के दर्शन कर उसने मार्ग में ही पुण्‍य का संचय किया तथा मद्य मांस मधु का त्‍याग कर दिया । इस पुण्‍य के प्रभाव से वह सौधर्म स्‍वर्ग में उत्‍पन्‍न हुआ और वहां से च्‍युत होकर तुम्‍हारी अनन्‍तसेना नाम की स्‍त्री के मरीचि नाम का पुत्र हुआ है । यह मिथ्‍या मार्ग के उपदेश देने में तत्‍पर है इसलिए चिरकाल तक इस संसाररूपी चक्र में भ्रमण कर सुरम्‍यदेश के पोदनपुर नगर के स्‍वामी प्रजापति महाराज की मृगावती रानी से त्रिपृष्‍ठ नाम का पुत्र होगा ॥85-90॥

उन्‍हीं प्रजापति महाराज की दूसरी रानी भद्रा के एक विजय नाम का पुत्र होगा जो कि त्रिपृष्‍ठ का बड़ा भाई होगा । ये दोनों भाई श्रेयान्‍सनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में अश्‍वग्रीव नामक शत्रु को मार कर तीन खण्‍ड़ के स्‍वामी होंगे और पहले बलभद्र नारायण कहलावेंगे । त्रिपृष्‍ठ संसार में भ्रमण कर अन्तिम तीर्थंकर होगा ॥91-92॥

आपका भी जन्‍म राजा कच्‍छ के पुत्र नमि के वंश में हुआ है अत: बाहुबली स्‍वामी के वंश में उत्‍पन्‍न होनेवाले उस त्रिपृष्‍ठ के साथ आपका सम्‍बन्‍ध है ही ॥93॥

इसलिए तीन खण्‍ड की लक्ष्‍मी और सुख के स्‍वामी त्रिपृष्‍ठ के लिए यह कन्‍या देनी चाहिये, यह कल्‍याण करने वाली कन्‍या उसका मन हरण करनेवाली हो ॥94॥

त्रिपृष्‍ठ को कन्‍या देने से आप भी समस्‍त विद्याधरों के स्‍वामी हो जावेंगे इ‍सलिए भगवान् आदिनाथ के द्वारा कही हुई इस बात का निश्‍चय कर आपको यह अवश्‍य ही करना चाहिये ॥95॥

इस प्रकार निमित्‍तज्ञानी के वचनों को ह्णदय में धारण करण कर रथनूपुर नगर के राजा ने बड़े हर्ष से उस निमित्‍तज्ञानी की पूजा की ॥96॥

और उसी समय उत्‍तम लेख और भेंट के साथ इन्‍दु नाम का एक दूत प्रजापति महाराज के पास भेजा ॥97॥

'यह त्रिपृष्‍ठ स्‍वयंप्रभा का पति होगा' यह बात प्रजापति महाराज ने जयगुप्‍त नामक निमित्‍तज्ञानी से पहले ही जान ली थी इसलिये उसने आकाश से उतरते हुए विद्याधरराज के दूत का, पुष्‍पकरण्‍डक नाम के वन में बड़े उत्‍सव से स्‍वागत-सत्‍कार किया ॥98-99॥

महाराज उस दूत के साथ अपने राजभवन में प्रविष्‍ट होकर जब सभागृह में राजसिंहासन पर विराजामान हुए तब मन्‍त्री ने दूत के द्वारा लाई हुई भेंट समर्पित की । राजा ने उस भेंट को बड़े प्रेम से देखकर अपना अनुराग प्रकट किया और दूत को सन्‍तुष्‍ट करते हुए कहा कि हम तो इस भेंट से ही सन्‍तुष्‍ट हो गये ॥100-101॥

तदनन्‍तर दूत ने सन्‍देश सुनाया कि यह श्रीमान् त्रिपृष्‍ठ समस्‍त कुमारों में श्रेष्‍ठ है अत: इसे लक्ष्‍मी के समान स्‍वयम्‍प्रभा नाम की इस कन्‍या से आज सुशोभित किया जावे । इस यथार्थ सन्‍देश को सुनकर प्रजापति महाराज हर्ष दुगुना हो गया । वे मस्‍तक पर भुजा रखते हुए बोले कि जब विद्याधरोंके राजा स्‍वयं ही अपने जमाई का यह तथा अन्‍य महोत्‍सव करने के लिए चिन्तित हैं तब हमलोग क्‍या चीज है ? ॥102-104॥

इस प्रकार उस समय आये हुए दूत को महाराज प्रजापति ने कार्य की सिद्धि से प्रसन्‍न किया, उसका सम्‍मान किया और बदले की भेंट देकर शीघ्र ही विदा कर दिया ॥105॥

वह दूत भी शीघ्र ही जाकर रथनूपुरनगर के राजा के पास पहुँचा और प्रणाम कर उसने कल्‍याणकारी कार्य सिद्ध होने की खबर दी ॥106॥

समय उस नगर में जगह-जगह तोरण बांधे गये थे, चन्‍दन का छिड़काव किया था, सब जगह उत्‍सुकता ही उत्‍सुकता दिखाई दे रही थी, और पताकाओं की पंक्ति रूप चंचल भुजाओं से वह ऐसा जान पड़ता था मानो बुला ही रहा हो । महाराज प्रजापति ने अपनी सम्‍पत्ति के अनुसार उसकी अगवानी की । इस प्रकार उसने बड़े हर्ष से नगर में प्रवेश किया ॥107-109॥

प्रवेश करने के बाद महाराज प्रजापति ने उसे स्‍वयं ही योग्‍य स्‍थान पर ठहराया और पाहुने के योग्‍य उसका सत्‍कार किया । इस सत्‍कार से उसका ह्णदय तथा मुख दोनों ही प्रसन्‍न हो गये ॥110॥

विवाह के योग्‍य सामग्री से उसने समस्‍त पृथिवी तल को सन्‍तुष्‍ट किया और दूसरी प्रभा के समान अपनी स्‍वयंप्रभा नाम की पुत्री त्रिपृष्‍ठ के लिए देकर सिद्ध करने के लिए सिंहवाहिनी और गरूड़वाहिनी नाम की दो विद्याएँ दीं । इस तरह वे सब मिलकर सुखरूपी समुद्र में गोता लगाने लगे ॥111-112॥

इधर अश्‍वग्रीव प्रतिनारायण के नगर में विनाश को सूचित करनेवाले तीन प्रकार के उत्‍पात बहुत शीघ्र साथ ही साथ होने लगे ॥113॥

जिस प्रकार तीसरे काल के अन्‍त में पल्‍य का आठवाँ भाग बाकी रहने पर नई नई बातों को देखकर भोगभूमि के लोग भयभीत होते हैं उसी प्रकार उन अभूतपूर्व उत्‍पातों को देखकर वहां के मनुष्‍य सहसा भयभीत होने लगे ॥114॥

अश्‍वग्रीव भी घबड़ा गया । उसने सलाह कर एकान्‍त में शतबिन्‍दु नामक निमित्‍तज्ञानी से 'यह क्‍या है ?' इन शब्‍दों द्वारा उनका फल पूछा ॥115॥

शतबिन्‍दु ने कहा कि जिसने सिन्‍धु देश में पराक्रमी सिंह मारा है, जिसने तुम्‍हारे प्रति भेजी हुई भेंट जबर्दस्‍ती छीन ली और रथनूपूर नगर के राजा ज्‍वलनजटी ने जिसके लिए आपके योग्‍य स्‍त्रीरत्‍न दे दिया है उससे आपको क्षोभ होगा ॥116-117॥

ये सब उत्‍पात उसी के सूचक हैं । तुम इसका प्रतिकार करो । इस प्रकार निमित्‍तज्ञानी के द्वारा कही बात को ह्णदय में रखकर अश्‍वग्रीव अपने मन्त्रियों से क‍हने लगा कि आत्‍मज्ञानी मनुष्‍य शत्रु और रोग को उत्‍पन्‍न होते ही नष्‍ट कर देते हैं परन्‍तु हमने व्‍यर्थ ही अहंकारी रहकर यह बात भुला दी ॥118-119॥

अब भी यह दुष्‍ट आप लोगों के द्वारा विष के अंकुर के समान शीघ्र ही छेदन कर देने के योग्‍य है ॥120॥

उन मन्त्रियों ने भी गुप्‍त रूप से भेजे हुए दूतों के द्वारा उन सबकी खोज लगा ली और निमित्‍तज्ञानी ने जिन सिंहवध आदि की बातें कहीं थीं उन सबका पता चला कर निश्‍चय कर लिया कि इस पृथिवी पर प्रजापति का पुत्र त्रिपृष्‍ठ ही बड़ा अहंकारी है । वह अपने पराक्रम से सब राजाओं पर आक्रमण कर उन्‍हें जीतना चाहता है ॥121-122॥

वह हम लोगों के विषय में कैसा है ? अनुकूल प्रतिकूल कैसे विचार रखता है इस प्रकार सरल चित्‍त-निष्‍कपट दूत भेजकर उसकी परीक्षा करनी चाहिये - मन्त्रियों ने ऐसा पृथक्-पृथक् राजा से कहा ॥123॥

उसी समय उसने उक्‍त बात सुनकर चिन्‍तागति और मनोगति नाम के दो विद्वान् दूत त्रिपृष्‍ठ के पास भेजे ॥124॥

उन दूतों ने जाकर पहले अपने आने की राजा के लिए सूचना दी, फिर राजा के दर्शन किये, अनन्‍तर विनय से नम्रीभूत होकर यथा योग्‍य भेंट दी ॥125॥

फिर कहने लगे कि राजा अश्‍वग्रीव ने आज तुम्‍हें आज्ञा दी है कि मैं रथावर्त नाम के पर्वत पर जाता हूँ आप भी आइये ॥126॥

हम दोनों तुम्‍हें लेने के लिए आये हैं । आप को उसकी आज्ञा मस्‍तक पर रखकर आना चाहिये । ऐसा उन दोनों ने जोर से कहा । यह सुनकर त्रिपृष्‍ठ बहुत क्रुद्ध हुआ और कहने लगा कि अश्‍वग्रीव (घोड़े जैसी गर्दनवाले) खरग्रीव, (गधे जैसी गर्दन वाले) क्रौन्‍चग्रीव (क्रौन्‍च पक्षी जैसी गर्दन वाले) और कमेलक ग्रीव (ऊँट जैसी गर्दनवाले) ये सब मैंने देखे हैं । हमारे लिए वह अपूर्व आदमी नहीं जिससे कि देखा जावें ॥127-128॥

जब वह त्रिपृष्‍ठ कह चुका तब दूतों ने फिर से कहा कि वह अश्‍वग्रीव सब विद्याधरों का स्‍वामी है, सबके द्वारा पूजनीय है और आपका पक्ष करता है इसलिए उसका अपमान करना उचित नहीं है ॥129॥

यह सुनकर त्रिपृष्‍ठ ने कहा कि वह खग अर्थात् पक्षियों का ईश है-स्‍वामी है इसलिए पक्ष अर्थात् पंखों से चले इसके लिए मनाई नहीं है परन्‍तु मैं उसे देखने के लिए नहीं जाऊंगा ॥130॥

यह सुनकर दूतों ने फिर कहा कि अहंकार से ऐसा नहीं कहना चाहिये । चक्रवर्ती के देखे बिना शरीर में भी स्थिति नहीं हो सकती फिर भूमि पर स्थिर रहने के लिए कौन समर्थ है ? ॥131॥

दूतों के वचन सुनकर त्रिपृष्‍ठ ने फिर कहा कि तुम्‍हारा राजा चक्र फिराना जानता है सो क्‍या वह घट आदि को बनाने वाला (कुम्‍भकार) कर्ता कारक है, उसका क्‍या देखना है ? यह सुनकर दूतों को क्रोध आ गया । वे कुपित होकर बोले कि यह कन्‍या-रत्‍न जो कि चक्रवर्ती के भोगने योग्‍य है क्‍या अब तुम्‍हें हजम हो जावेगा ? और चक्रवर्ती के कुपित होने पर रथनूपुर का राजा ज्‍वलनजटी तथा प्रजापति अपना नाम भी क्‍या सुरक्षित रख सकेगा । इतना कह वे दूत वहाँ से शीघ्र ही निकल कर अश्‍वग्रीव के पास पहुँचे और नमस्‍कार कर त्रिपृष्‍ठ के वैभव का समाचार कहने लगे ॥132-135॥

अश्‍वग्रीव यह सब सुनने के लिए असमर्थ हो गया, उसकी आंखे रूखी हो गई और उसी समय उसने युद्ध प्रारम्‍भ की सूचना देने वाली भेरी बजवा दी ॥136॥

उस भेरी का शब्‍द दिग्‍गजों का मद नष्‍ट कर दिशाओं के अन्‍त तक व्‍याप्‍त हो गया सो ठीक ही है क्‍योंकि चक्रवर्ती के कुपित होने पर ऐसे कौन महापुरूष हैं जो भयभीत नहीं होते हों ॥137॥

वह अश्‍वग्रीव चतुरंग सेना के साथ रथावर्त पर्वत पर जा पहुँचा, वहाँ उल्‍काएँ गिरने लगीं, पृथिवी हिलने लगी और दिशाओं में दाह दोष होने लगे ॥138॥

जिनका ओज चारों ओर फैल रहा है और जिन्‍होंने अपने प्रतापरूपी अग्नि के द्वारा शत्रुरूपी इन्‍धन की राशि भस्‍म कर दी है ऐसे प्रजापति के दोनों पुत्रों को जब इस बात का पता चला तो इसके संमुख आये ॥139॥

वहाँ दोनों सेनाओं में महान् संग्राम हुआ । दोनों सेनाओं का समान क्षय हो रहा था इसलिए यमराज सचमुच ही समवर्तिता-मध्‍यस्‍थता को प्राप्‍त हुआ था ॥140॥

चिरकाल तक युद्ध करने के बाद त्रिपृष्‍ठ ने सोचा कि सैनिकों का व्‍यर्थ ही क्षय क्‍यों किया जाता है । ऐसा सोचकर वह युद्ध के लिए अश्‍वग्रीव के सामने आया ॥141॥

जन्‍मान्‍तर से बँधे हुए भारी बैर के कारण अश्‍वग्रीव बहुत क्रुद्ध था अत: उसने बाण-वर्षा के द्वारा शत्रु को आच्‍छादित कर लिया ॥142॥

जब वे दोनों द्वन्‍द्व-युद्ध से एक दूसरे को जीतने के लिए समर्थ न हो सके तब महाविद्याओं के बल से उद्धत हुए दोनों मायायुद्ध करने के लिए तैयार हो गये ॥143॥

अश्‍वग्रीव ने चिरकाल तक युद्ध कर शत्रु के सन्‍मुख चक्र फेंका और नारायण त्रिपृष्‍ठ ने वही चक्र लेकर क्रोध से उसकी गर्दन छेद डाली ॥144॥

शत्रुओं के नष्‍ट करने वाले त्रिपृष्‍ठ और विजय आधे भरत क्षेत्र का आधिपत्‍य पाकर सूर्य और चन्‍द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥145॥

भूमिगोचरी राजाओं, विद्याधर राजाओं और मागधादि देवों के द्वारा जिनका अभिषेक किया गया था ऐसे त्रिपृष्‍ठ नारायण पृथिवी में श्रेष्‍ठता को प्राप्‍त हुए ॥146॥

प्रथम नारायण त्रिपृष्‍ठ ने हर्षित होकर स्‍वयंप्रभा के पिता के लिए दोनों श्रेणियों का अधिपत्‍य प्रदान किया सो ठीक ही है क्‍योंकि श्रीमानों के आश्रय से क्‍या नहीं होता है ? ॥147॥

असि, शंख, धनुष, चक्र, शक्ति, दण्‍ड और गदा ये सात नारायण के रत्‍न थे । देवों के समूह इनकी रक्षा करते थे ॥148॥

रत्‍नमाला, देदीप्‍यमान हल, मुसल और गदा ये चार मोक्ष प्राप्‍त करने वाले बलभद्र के महारत्‍न थे ॥149॥

नारायण की स्‍वयंप्रभा को आदि लेकर सोलह हजार स्त्रियाँ थीं और बलभद्र की कुलरूप तथा गुणों से युक्‍त आठ हजार रानियाँ थीं ॥150॥

ज्‍वलनजटी विद्याधर ने कुमार अर्ककीर्ति के लिए ज्‍योतिर्माला नाम की कन्‍या बड़ी विभूति के साथ प्राजापत्‍य विवाह से स्‍वीकृत की ॥151॥

अर्ककीर्ति और ज्‍योतिर्माला के अमिततेज नाम का पुत्र तथा सुतारा नाम की पुत्री हुई । ये दोनों भाई-बहिन ऐसे सुन्‍दर थे मानों शुक्‍लपक्ष के पडिवा के चन्‍द्रमा की रेखाएँ ही हों ॥152॥

इधर त्रिपृष्‍ठ नारायण के स्‍वयंप्रभा रानी से पहिले श्रीविजय नाम का पुत्र हुआ, फिर विजयभद्र पुत्र हुआ फिर, ज्‍योतिप्रभा नाम की पुत्री हुई ॥153॥

महान् अभ्‍युदय को प्राप्‍त हुए प्रजापति महाराज को कदाचित् वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया जिससे पिहितास्‍त्रव गुरू के पास जाकर उन्‍होंने समस्‍त परिग्रह का त्‍याग कर दिया और श्रीजिनेन्‍द्र भगवान् का वह रूप धारण कर लिया जिससे सुख स्‍वरूप परमात्‍मा का स्‍वभाव प्राप्‍त होता है ॥154-155॥

छह बाह्य और छह आभ्‍यन्‍तर के भेद से बारह प्रकार के तपश्‍चरण में निरन्‍तर उद्योग करने वाले प्रजापति मुनि ने चिरकाल तक तपस्‍या की और आयु के अन्‍त में चित्‍त को स्थिर कर क्रम से मिथ्‍यात्‍व, अविरति, प्रमाद, सकषायता तथा सयोगकेवली अवस्‍था का त्‍याग कर परमोत्‍कृष्‍ट अवस्‍था-मोक्ष पद प्राप्‍त किया ॥156–157॥

विद्याधरों के राजा ज्‍वलनजटी ने भी जब यह समाचार सुना तब उन्‍होंने अर्ककीर्ति के लिए राज्‍य देकर जगन्‍नन्‍दन मुनि के समीप दिगम्‍बर दीक्षा धारण कर ली ॥158॥

याचना नहीं करना, बिना दिये कुछ ग्रहण नहीं करना, सरलता रखना, त्‍याग करना, किसी चीज की इच्‍छा नहीं रखना, क्रोधादि का त्‍याग करना, ज्ञानाभ्‍यास करना और ध्‍यान करना-इन सब गुणों को वे प्राप्‍त हुए थे ॥159॥

वे समस्‍त पापों का त्‍याग कर निर्द्वन्‍द्व हुए । निराकार होकर भी साकार हुए तथा उत्‍तम निर्वाण पद को प्राप्‍त हुए ॥160॥

इधर विजय बलभद्र का अनुगामी त्रिपृष्‍ठ कठिन शत्रुओं पर विजय प्राप्‍त करता हुआ तीन खण्‍ड की अखण्‍ड पृथिवी के भोगों का इच्‍छानुसार उपभोग करता रहा ॥161॥

किसी एक दिन त्रिपृष्‍ठ ने स्‍वयंवर की विधि से अपनी कन्‍या ज्‍योति:प्रभा के द्वारा जामाता अमिततेज के गले में वरमाला ड़लवाई ॥162॥

अनुराग से भरी सुतारा भी इसी स्‍वयंवर की विधि से श्रीविजय के वक्ष:स्‍थल पर निवास करने वाली हुई ॥163॥

इस प्रकार परस्‍पर में जिन्‍होंने अपने पुत्र-पुत्रियों के सम्‍बन्‍ध किये हैं ऐसे ये समस्‍त परिवार के लोग स्‍वच्‍छन्‍द जल से भरे हुए प्रफुल्लित सरोवर की शोभा को प्राप्‍त हो रहे थे ॥164॥

आयु के अन्‍त में अर्ध-चक्रवर्ती त्रिपृष्‍ठ तो सातवें नरक गया और विजय बलभद्र श्रीविजय नामक पुत्र के लिए राज्‍य देकर तथा विजयभद्र को युवराज बनाकर पापरूपी शत्रु को नष्‍ट करने के लिए उद्यत हुए । यद्यपि उनका चित्‍त नारायण के शोक से व्‍याप्‍त था तथापि निकट समय में मोक्षगामी होने से उन्‍होंने सुवर्णकुम्‍भ नामक मुनिराज के पास जाकर सात हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥165-167॥

घातिया कर्म नष्‍ट कर केवलज्ञान उत्‍पन्‍न किया और देवों के द्वारा पूज्‍य अनगार-केवली हुए ॥168॥

यह सुनकर अर्ककीर्ति ने अमित-तेज को राज्‍यपर बैठाया और स्‍वयं विपुलमति नामक चारणमुनि से तप धारण कर लिया ॥169॥

कुछ समय बाद उसने अष्‍ट-कर्मों को नष्‍ट कर अभिवांछित अष्‍टम पृथिवी प्राप्‍त कर ली सो ठीक ही है क्‍योंकि इस संसार में जिन्‍होंने आशा का त्‍याग कर दिया है उन्‍हें कौन-सी वस्‍तु अप्राप्‍य है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥170॥

इधर अमिततेज और श्रीविजय दोनों में अखण्‍ड़ प्रेम था, दोनों का काल बिना किसी आकुलताके सुख से व्‍यतीत हो रहा था ॥171॥

किसी दिन कोई एक पुरूष श्रीविजय राजा के पास आया और आशीर्वाद देता हुआ बोला कि हे राजन् ! मेरी बात पर चित्‍त लगाइये ॥172॥

आज से सातवें दिन पोदनपुर के राजा के मस्‍तक पर महावज्र गिरेगा, अत: शीघ्र ही इसके प्रतीकार का विचार कीजिये ॥173॥

यह सुनकर युवराज कुपित हुआ, उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गई । वह उस निमित्‍तज्ञानी से बोला कि यदि तू सर्वज्ञ है तो बता कि उस समय तेरे मस्‍तक पर क्‍या पड़ेगा ? ॥174॥

निमित्‍तज्ञानी ने भी कहा कि उस समय मेरे मस्‍तक पर अभिषेक के साथ रत्‍नवृष्टि पड़ेगी ॥175॥

उसके अभिमानपूर्ण वचन सुनकर राजा को आश्‍चर्य हुआ । उसने कहा कि हे भद्र ! तुम इस आसन पर बैठो, मैं कुछ कहता हूँ ॥176॥

कहो तो स‍ही, आप का गोत्र क्‍या है ? गुरू कौन है, क्‍या-क्‍या शास्‍त्र आपने पढ़े हैं, क्‍या-क्‍या निमित्‍त आप जानते हैं, आपका क्‍या नाम है ? और आपका यह आदेश किस कारण हो रहा है ? यह सब राजा ने पूछा ॥177॥

निमित्‍तज्ञानी कहने लगा कि कुण्‍डलपुर नगर में सिंहरथ नाम का एक बड़ा राजा है । उसके पुरोहित का नाम सुरगुरू है और उसका एक शिष्‍य बहुत ही विद्वान् है ॥178॥

किसी एक दिन बलभद्र के साथ दीक्षा लेकर मैंने उसके शिष्‍य के साथ अष्‍टांग निमित्‍तज्ञान का अध्‍ययन किया है और उपदेश के साथ उनका श्रवण भी किया है ॥179॥

अष्‍टांग निमित्‍त कौन हैं और उनके लक्षण क्‍या हैं ? यदि यह आप जानना चाहते हैं तो हे आयुष्‍मन् विजय ! तुम सुनो, मैं तुम्‍हारे प्रश्‍न के अनुसार सब कहता हूँ ॥180॥

आगम के जानकार आचार्यों ने अन्‍तरिक्ष, भौम, अंग, स्‍वर, व्‍यन्‍जन, लक्षण, छिन्‍न और स्‍वप्‍न इनके भेद से आठ तरह के निमित्‍त कहे हैं ॥181॥

चन्‍द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ये पाँच प्रकार के ज्‍योतिषी आकाशमे रहते हैं अथवा आकाशके साथ सदा उनका साहचर्य रहता है इसलिए इन्‍हें अन्‍तरिक्-आकाश कहते हैं । इनके उदय अस्‍त आदि के द्वारा जो जय-पराजय, हानि, वृद्धि, शोक, जीवन, लाभ, अलाभ तथा अन्‍य बातों का यथार्थ निरूपण होता है उसे अन्‍तरिक्ष-निमित्‍त कहते हैं ॥182-183॥

पृथिवी के जुदे-जुदे स्‍थान आदि के भेद से किसी की हानि वृद्धि आदि का बतलाना तथा पृथिवी के भीतर रखे हुए रत्‍न आदि का कहना सो भौम-निमित्‍त है ॥184॥

अंग-उपांग के स्‍पर्श करने अथवा देखने से जो प्राणियों के तीन काल में उत्‍पन्‍न होने वाले शुभ-अशुभ का निरूपण होता है वह अंग-निमित्‍त कहलाता है ॥185॥

मृदंग आदि अचेतन और हाथी आदि चेतन पदार्थों के सुस्‍वर तथा दु:स्‍वर के द्वारा इष्‍ट-अनिष्‍ट पदार्थ की प्राप्ति की सूचना देने वाला ज्ञान स्‍वर-निमित्‍त ज्ञान है ॥186॥

शिर मुख आदि में उत्‍पन्‍न हुए तिल आदि चिह्न अथवा घाव आदि से किसी का लाभ अलाभ आदि बतलाना सो व्‍यन्‍जन निमित्‍त है ॥187॥

शरीर में पाये जानेवाले श्रीवृक्ष तथा स्‍वस्तिक आदि एक सौ आठ लक्षणों के द्वारा भोग ऐश्‍वर्य आदि की प्राप्ति का कथन करना लक्षण-निमित्‍त ज्ञान है ॥188॥

वस्‍त्र तथा शस्‍त्र आदि में मूषक आदि जो छेद कर देते हैं वे देव, मानुष और राक्षस के भेद से तीन प्रकार के होते हैं उनसे जो फल कहा जाता है उसे छिन्‍न-निमित्‍त कहते हैं ॥189॥

शुभ-अशुभ के भेद से स्‍वप्‍न दो प्रकार के कहे गये हैं उनके देखने से मनुष्‍यों की वृद्धि तथा हानि आदि का यथार्थ कथन करना स्‍वप्‍न-निमित्‍त कहलाता है ॥190॥

यह कहकर वह निमित्‍तज्ञानी कहने लगा कि क्षुधा प्‍यास आदि बाईस परिषहों से मैं पीडित हुआ, उन्‍हें सह नहीं सका इसलिए मुनिपद छोड़कर पद्यिनीखेट नाम के नगर में आ गया ॥191॥

वहाँ सोमशर्मा नाम के मेरे मामा रहते थे । उनके हिरण्‍यलोमा नाम की स्‍त्री से उत्‍पन्‍न चन्‍द्रमा के समान मुख वाली एक चन्‍द्रानना नाम की पुत्री थी । वह उन्‍होंने मुझे दी ॥192॥

मैं धन कमाना छोड़कर निरन्‍तर निमित्‍त-शास्‍त्र के अध्‍ययनमें लगा रहता था अत: धीरे-धीरे चन्‍द्रानना के पिता के द्वारा दिया हुआ धन समाप्‍त हो गया । मुझे निर्धन देख वह बहुत विरक्‍त अथवा खिन्‍न हुई ॥193॥

मैंने कुछ कौंडियां इकट्ठी कर रक्‍खी थीं । सारे दिन भोजन के समय 'वह तुम्‍हारा दिया हुआ धन है' ऐसा कह कर उसने क्रोधवश वे सब कौंडि़यां हमारे पात्र में डाल दीं ॥194॥

उनमें से एक अच्‍छी कौड़ी स्‍फटिक-मणि के बने हुए सुन्‍दर थाल में जा गिरी, उस पर जलाई हुई अग्नि के फुलिंगे पड़ रहे थे (?) उसी समय मेरी स्‍त्री मेरे हाथ धुलाने के लिए जल की धारा छोड़ रही थी उसे देख कर मैंने निश्‍चय कर लिया कि मुझे संतोष पूर्वक अवश्‍य ही धन का लाभ होगा । आपके लिए यह आदेश इस समय अमोघजिह्न नामक मुनिराज ने किया है । इस प्रकार निमित्‍तज्ञानी ने कहा । उसके युक्तिपूर्ण वचन सुन कर राजा चिन्‍ता से व्‍यग्र हो गया । उसने निमित्‍तज्ञानी को तो विदा किया और मन्त्रियों से इस प्रकार कहा-कि इस निमित्‍तज्ञानीकी बात पर विश्‍वास करो और इसका शीघ्र ही प्रतिकार करो क्‍योंकि मूल का नाश उपस्थित होने पर विलम्‍ब कौन करता है ? ॥195-198॥

यह सुनकर सुमति मन्‍त्री बोला कि आपकी रक्षा करने के लिए आपको लोहे की सन्‍दूक के भीतर रखकर समुद्र के जल के भीतर बैठाये देते हैं ॥199॥

यह सुनकर सुबुद्धि नाम का मंत्री बोला कि नहीं, वहाँ तो मगरमच्‍छ आदि का भय रहेगा इसलिए विजयार्ध पर्वत की गुफा में रख देते हैं ॥200॥

सुबुद्धि की बात पूरी होते ही बुद्धिमान् तथा प्राचीन वृत्‍तान्‍त को जानने वाला बुद्धिसागर नाम का मन्‍त्री यह प्रसिद्ध कथानक कहने लगा ॥201॥

इस भरत क्षेत्र के सिंहपुर नगर में मिथ्‍या-शास्‍त्रों के सुनने से अत्‍यन्‍त घमण्‍डी सोम नाम का परिव्राजक रहता था । उसने जिनदास के साथ वाद-विवाद किया परन्‍तु वह हार गया ॥202॥

आयु के अन्‍त में मर कर उसी नगर में एक बड़ा भारी भैंसा हुआ । उस पर एक वैश्‍य चिरकाल तक नमक का बहुत भारी बोझ लादता रहा ॥203॥

जब वह बोझ ढोनेमें असमर्थ हो गया तब उसके पालकों ने उसकी उपेक्षा कर दी-खाना-पीना देना भी बन्‍द कर दिया । कारण वश उसे जाति-स्‍मरण हो गया और वह नगर भर के साथ वैर करने लगा । अन्‍त में मर कर वहीं के श्‍मशान में पापी राक्षस हुआ । उस नगर के कुम्‍भ और भीम नाम के दो अधिपति थे । कुम्‍भ के रसोइया का नाम रसायनपाक था, राजा कुम्‍भ मांसभोजी था, एक दिन मांस नहीं था इसलिए रसोइया ने कुम्‍भ को मरे हुए बच्‍चे का मांस खिला दिया ॥204-206॥

वह पापी उसके स्‍वाद से लुभा गया इसलिए उसी समय से उसने मनुष्‍य का मांस खाना शुरू कर दिया, वह वास्‍तवमें नरक गति प्राप्‍त करने का उत्‍सुक था ॥207॥

राजा प्रजा का रक्षक है इसलिए जब तक प्रजा की रक्षा करने में समर्थ है तभी तक राजा रहता है परन्‍तु यह तो मनुष्‍यों को खाने लगा है अत: त्‍याज्‍य है ऐसा विचार कर मन्त्रियों ने उस राजा को छोड़ दिया ॥208॥

उसका रसोइया उसे नर-मांस देकर जीवित रखता था परन्‍तु किसी समय उस दुष्‍ट ने अपने रसोइया को ही मारकर विद्या सिद्ध कर ली और उस राक्षस को वश कर लिया ॥209॥

अब वह राजा प्रतिदिन चारों ओर घूमता हुआ प्रजा को खाने लगा जिससे समस्‍त नगरवासी भयभीत हो उस नगर को छोड़कर बहुत भारी भय के साथ कारकट नामक नगर में जा पहुँचे परन्‍तु अत्‍यन्‍त पापी कुम्‍भ राजा उस नगर में भी आकर प्रजा को खानें लगा ॥210–211॥

उसी समय से लोग उस नगर को कुम्‍भकारकटपुर कहने लगे । मनुष्‍यों ने देखा कि यह नरभक्षी है इसलिए डर कर उन्‍होंने उसकी व्‍यवस्‍था बना दी कि तुम प्रतिदिन एक गाडी भात और एक मनुष्‍य को खाया करो । उसी नगर में एक चण्‍डकौशिक नाम का ब्राह्मण रहता था । सोमश्री उसकी स्‍त्री थी, चिरकाल तक भूतों की उपासना करने के बाद उन दोनों ने मौण्‍डकौशिक नाम का पुत्र प्राप्‍त किया ॥212–214॥

किसी एक दिन कुम्‍भ के आहार के लिए मौण्‍डकौशिक की बारी आई । लोग उसे गाडी पर डालकर ले जा रहे थे कि कुछ भूत उसे ले भागे, कुम्‍भ नें हाथ में दण्‍ड ले‍कर उन भूतों का पीछा किया, भूत उसके आक्रमण से डर गये, इसलिए उन्‍होंने मुण्‍डकौशिक को भय से एक बिल में डाल दिया परन्‍तु एक अजगर ने वहाँ उस ब्राह्मण को निगल लिया ॥215–216॥

इसलिए महाराज को विजयार्ध की गुहा में रखना ठीक नहीं है । बुद्धिसागर के ये हितकारी वचन सुनकर सूक्ष्‍म बुद्धि का धारी मतिसागर मंत्री कहने लगा कि निमित्‍तज्ञानी के ये हितकारी वचन सुनकर सूक्ष्‍म-बुद्धि का धारी मतिसागर मंत्री कहने लगा कि निमित्‍तज्ञानी ने यह तो कहा नहीं है कि महाराज के ऊपर ही वज्र गिरेगा । उसका तो कहना है कि जो पोदनपुर का राजा होगा उस पर वज्र गिरेगा इसलिए किसी दूसरे मनुष्‍य को पोदनपुर का राजा बना देना चाहिये ॥217–218॥

उसकी यह बात सबने मान ली और कहा कि आपका कहना ठीक है । अनन्‍तर सब मन्त्रियों ने मिलकर राजा के सिंहासन पर एक यक्ष का प्रतिबिम्‍ब रख दिया और 'तुम्‍हीं पोदनपुरके राजा हो' यह कहकर उसकी पूजा की । इधर राजा ने राज्‍य के भोग उपभोग सब छोड़ दिये, पूजा दान आदि सत्‍कार्य प्रारम्‍भ कर दिये और अपने स्‍वभाव वाली मण्‍डली को साथ लेकर जिन चैत्‍यालय में शान्ति कर्म करता हुआ बैठ गया ॥219-221॥

सातवें दिन उस यक्ष की मूर्ति पर बड़ा भारी शब्‍द करता हुआ भयंकर वज्र अकस्‍मात् बड़ी कठोरता से आ पड़ा ॥222॥

उस उपद्रव के शान्‍त होने पर नगरवासियों ने बड़े हर्ष से बढ़ते हुए नगाड़ों के शब्‍दों से बहुत भारी उत्‍सव किया ॥223॥

राजा ने बड़े हर्ष के साथ उस निमित्‍तज्ञानी को बुलाकर उसका सत्‍कार किया और पद्यिनी खेट के साथ-साथ उसे सौ गाँव दिये ॥224॥

श्रेष्‍ठ मंत्रियों ने तीन लोक के स्‍वामी अरहन्‍त भगवान् की विधि-पूर्वक भक्ति के साथ शान्ति-पूजा की, महाभिषेक किया और राजा को सिंहासन पर बैठा कर सुर्वणमय कलशों से उनका राज्‍याभिषेक किया तथा उत्‍तम राज्‍य में प्रतिष्ठित किया ॥225-226॥

इसके बाद उसका काल बहुत भारी सुख से बीतने लगा । किसी एक दिन उसने अपनी माता से आकाशगामिनी विद्या लेकर सिद्ध की और सुतारा के साथ रमण करने की इच्छा से ज्‍योतिर्वन की ओर गमन किया । वह वहाँ अपनी इच्‍छानुसार लीला-पूर्वक विहार करता हुआ रानी के साथ बैठा था, यहाँ चमरचंचपुर का राजा इन्‍द्राशनि, रानी आसुरी का लक्ष्‍मी सम्‍पन्‍न अशनिघोष नाम का विद्याधर पुत्र भ्रामरी विद्या को सिद्ध कर अपने नगर को लौट रहा था । बीच में सुतारा को देख कर उस पर उसकी इच्‍छा हुई और उसे हरण करने का उद्यम करने लगा ॥227-230॥

उसने एक कृत्रिम हरिण के छल से राजा को सुतारा के पास से अलग कर दिया और वह दुष्‍ट श्र‍ीविजया का रूप बनाकर सुतारा के पास लौट कर वापिस आया ॥231॥

कहने लगा कि हे प्रिये ! वह मृग तो वायु के समान वेग से चला गया । मैं उसे पकड़ने के लिए असमर्थ रहा अत: लौट आया हूँ, अब सूर्य अस्‍त हो रहा है इसलिए हम दोनों अपने नगर की ओर चलें ॥232॥

इतना कहकर उस धूर्त विद्याधर ने सुतारा को विमान पर बैठाया और वहाँ से चल दिया । बीच में उसने अपना रूप दिखाया जिसे देख कर 'यह कौन है' ऐसा कहती हुई सुतारा बहुत ही विह्वल हुई । इधर उसी अशिनघोष विद्याधर के द्वारा प्रेरित हुई वैताली विद्या सुतारा का रूप रखकर बैठ गई ॥233–234॥

जब श्रीविजय वापिस लौटकर आया तब उसने कहा कि मुझे कुक्‍कुट साँप ने डस लिया है । इतना कह कर उसने बड़े संभ्रम से ऐसी चेष्‍टा बनाई जैसे मर रही हो । उसे देख राजा ने जाना कि इसका विष मणि, मन्‍त्र तथा औषधि आदि से दूर नहीं हो सकता । अन्‍त में निराश होकर स्‍नेह से भरा पोदनाधिपति उस कृत्रिम सुतारा के साथ मरने के लिए उत्‍सुक हो गया । उसने एक चिता बनाई, सूर्यकान्‍तमणि से उत्‍पन्‍न अग्नि के द्वारा उसका इन्‍धन प्रज्‍वलित किया और शोक से व्‍याकुल हो उस कपटी सुतारा के साथ चिता पर आरूढ़ हो गया ॥235-237॥

उसी समय वहाँ से कोई दो विद्याधर जा रहे थे उनमें एक महा तेजस्‍वी था उसने विद्याविच्‍छेदिनी नाम की विद्या का स्‍मरण कर उस भयभीत वैताली को बायें पैर से ठोकर लगाई जिससे उसने अपना असली रूप दिखा दिया । अब वह श्रीविजय के सामने खड़ी रहने के लिए भी समर्थ न हो सकी अत: अदृश्‍यता को प्राप्‍त हो गई ॥238-239॥

यह देख राजा श्रीविजय बहुत भारी आश्‍चर्य को प्राप्‍त हुए । उन्‍होंने कहा कि यह क्‍या है ? उत्‍तर में विद्याधर उसकी कथा इस प्रकार कहने लगा ॥240॥

इस जम्‍बूद्वीप सम्‍बन्‍धी भरत क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक ज्‍योति:प्रभ नाम का नगर है। मैं वहाँ का राजा संभिन्‍न हूँ, यह सर्वकल्‍याणी नाम की मेरी स्‍त्री है और यह दीपशिख नाम का मेरा पुत्र है। मैं अपने स्‍वामी रथनूपुर नगर के राजा अमिततेज के साथ शिखरनल नाम से प्रसिद्ध विशाल उद्यान में विहार करने के लिए गया था । वहाँ से लौटते समय मैंने मार्ग में सुना कि एक स्‍त्री अपने विमान पर बैठी हुई रो रही है और कह रही है कि 'मेरे स्‍वामी श्रीविजय कहाँ हैं ? हे रथनूपुर के नाथ ! कहाँ हो ? मेरी रक्षा करो ।' इस प्रकार उसके करूण शब्‍द सुनकर मैं वहाँ गया और बोला कि तू कौन है ? तथा किसे हरण कर ले जा रहा है ? मेरी बात सुन कर वह बोला कि मैं चमरचन्‍च नगर का राजा अशनिघोष नाम का विद्याधर हूँ। इसे जबर्दस्‍ती लिए जा रहा हूँ, यदि आप में शक्ति है तो आओ और इसे छुड़ाओ ॥241-246॥

यह सुनकर मैंने निश्‍चय किया कि यह तो मेरे स्‍वामी अमिततेज की छोटी बहिन को ले जा रहा है। मैं साधारण मनुष्‍य की तरह कैसे चला जाऊँ ? इसे अभी मारता हूँ। ऐसा निश्‍चय कर मैं उसके साथ युद्ध करने के लिए तत्‍पर हुआ ही था कि उस स्‍त्री ने मुझे रोककर कहा कि आग्रह वश वृथा युद्ध मत करो, पोदनपुर के राजा ज्‍योतिर्वन में मेरे वियोग के कारण शोकाग्नि से पीडि़त हो रहे हैं तुम वहाँ जाकर उनसे मेरी दशा कह दो । इस प्रकार हे राजन् , मैं तुम्‍हारी स्‍त्री के द्वारा भेजा हुआ यहाँ आया हूँ। यह तुम्‍हारे बैरी की आज्ञा-कारिणी वैताली देवी है। ऐसा उस हितकारी विद्याधर ने बड़े आदर से कहा। इस प्रकार संभिन्‍न विद्याधर के द्वारा कही हुई बात को पोदनपुर के राजा ने बड़े आदर से सुना और कहा कि आपने यह बहुत अच्‍छा किया। आप मेरे सन्मित्र हैं अत: इस समय आप शीघ्र ही जाकर यह समाचार मेरी माता तथा छोटे भाई आदि से कह दीजिये । ऐसा कहने पर उस विद्याधर ने अपने दीपशिख नामक पुत्र को शीघ्र ही पोदनपुर की ओर भेज दिया ॥247-252॥

उधर पोदनपुर में भी बहुत उत्‍पातों का विस्‍तार हो रहा था, उसे देखकर अमोघजिह्व और जयगुप्‍त नाम के निमित्‍तज्ञानी बड़े संयम से कह रहे थे कि स्‍वामी को कुछ भय उत्‍पन्‍न हुआ था परन्‍तु अब वह दूर हो गया है, उनका कुशल समाचार लेकर आज ही कोई मनुष्‍य आवेगा । इसलिए आप लोग स्‍वस्‍थ रहें, भय को प्राप्‍त न हों । इस प्रकार वे दोनों ही विद्याधर, स्‍वयंप्रभा आदि को धीरज बँधा रहे थे ॥253-255॥

उसी समय दीपशिख नाम का बुद्धिमान् विद्याधर आकाश से पृथिवी-तल पर आया और विधि-पूर्वक स्‍वयंप्रभा तथा उसके पुत्र को प्रणाम कर कहने लगा कि महाराज श्रीविजय की सब प्रकार की कुशलता है, आप लोग भय छोडि़ये, इस प्रकार सब समाचार ज्‍यों के त्‍यों कह दिये ॥256-257॥

उस बात को सुनने से, जिस प्रकार दावानल से लता म्‍लान हो जाती है, अथवा बुझने वाले दीपक की शिखा जिस प्रकार प्रभाहीन हो जाती है, अथवा वर्षा ऋतु के मेघ का शब्‍द सुनने वाली कलहंसी जिस प्रकार शोक युक्‍त हो जाती है अथवा जिस प्रकार किसी स्‍याद्वादी विद्वान् के द्वारा विघ्‍वस्‍त हुई दु:श्रुति ( मिथ्‍याशास्‍त्र ) व्‍याकुल हो जाती है उसी प्रकार स्‍वयंप्रभा भी म्‍लान शरीर, प्रभारहित, शोकयुक्‍त तथा अत्‍यनत आकुल हो गई थी ॥258–259॥

वह उस विद्याधर को तथा पुत्र को साथ लेकर उस वन के बीच पहुँच गई ॥260॥

पोदनाधिपति ने छोटे भाई के साथ आती हुई माता को दूर से ही देखा और सामने जाकर उसके चरणों में नमस्‍कार किया ॥261॥

पुत्र को देखकर स्‍वयंप्रभा के नेत्र हर्षाश्रुओं से व्‍याप्‍त हो गये । वह कहने लगी कि 'हे पुत्र ! उठ, मैंने अपने पुण्‍योदय से तेरे दर्शन पा लिये, तू चिरंजीव रह' इस प्रकार कहकर उसने श्रीविजय को अपनी दोनों भुजाओं से उठा लिया, उसका स्‍पर्श किया और बहुत भारी संतोष का अनुभव किया । अथानन्‍तर - जब श्रीविजय सुख से बैठ गये तब उसने सुतारा के हरण आदि का समाचार पूछा ॥262–263॥

श्री विजय ने कहा कि यह संभिन्‍न नामक विद्याधर अमिततेज का सेवक है। हे माता ! आज इसने मेरा जो उपकार किया है वह तुझने भी नहीं किया ॥264॥

ऐसा कहकर उसने जो-जो बात हुई थी वह सब कह सुनाई। तदनन्‍तर स्‍वयंप्रभा ने छोटे पुत्र को तो नगर की रक्षा के लिए वापिस लौटा दिया और बड़े पुत्र को साथ लेकर वह आकाशमार्ग से रथनूपुर नगर को चली । अपने देश में घूमने वाले गुप्‍तचरों के कहने से अमिततेज को इस बात का पता चल गया जिससे उसने बड़े वैभव के साथ उसकी अगवानी की तथा संतुष्‍ट होकर जिसमें बड़ी ऊँची पताकाएँ फहरा रही हैं और तोरण बाँधे गये हैं ऐसे अपने नगर में उसका प्रवेश कराया ॥265-267॥

उस विद्याधरों के स्‍वामी अमिततेज ने उनका पाहुने के समान सम्‍पूर्ण स्‍वागत सत्‍कार किया और उनके आने का कारण जानकर इन्‍द्राशनि के पुत्र अशनिघोष के पास मरीचि नाम का दूत भेजा । उसने दूत से असह्य वचन कहे। दूत ने वापिस आकर वे सब वचन अमिततेज से कहे। उन्‍हें सुनकर अमिततेज ने मन्त्रियों के साथ सलाह कर मद से उद्धत हुए उस अशनिघोष को नष्‍ट करने का दृढ़ निश्‍चय कर लिया । उच्‍च अभिप्राय वाले अपने बहनोई को उसने शत्रुओं का विध्‍वंस करने के लिए वंश-परम्‍परागत युद्धवीर्य, प्रहरणावरण और बन्‍धमोचन नाम की तीन विद्याएँ बड़े आदर से दीं ॥268-271॥

तथा रश्मिवेग सुवेग आदि पाँच सौ पुत्रों के साथ-साथ पोदनपुर के राजा श्रीविजय से अहंकारी शत्रु पर जाने के लिए कहा ॥272॥

और स्‍वयं सहस्‍त्ररश्मि नामक अपने बड़े पुत्र के साथ समस्‍त विद्याओं को छेदने वाली महाज्‍वाला नाम की विद्या को सिद्ध करने के लिए विद्याएँ सिद्ध करने की जगह ह्रीमन्‍त पर्वत पर श्री सन्‍जयन्‍त मुनि की विशाल प्रतिमा के समीप गया ॥273-274॥

इधर जब अशनिघोष ने सुना कि श्रीविजय युद्ध के लिए रश्मिवेग आदि के साथ आ रहा है तब उसने क्रोध से सुघोष, शतघोष, सहस्‍त्रघोष आदि अपने पुत्र भेजे । उसके वे समस्‍त पुत्र तथा अन्‍य लोग पन्‍द्रह दिन तक युद्ध कर अन्‍त में पराजित हुए । जिसकी समस्‍त घोषणाएँ अपने नाश को सूचित करने वाली हैं ऐसे अशनिघोष ने जब यह समाचार सुना तब वह क्रोध से सन्‍तप्‍त होकर स्‍वयं ही युद्ध करने के लिए गया ॥275-277॥

इधर युद्ध में श्रीविजय ने अशनिघोष के दो टुकड़े करने के लिए प्रहार किया उधर भ्रामरी विद्या से उसने दो रूप बना लिये। श्रीविजय ने नष्‍ट करने के लिए उन दोनों के दो-दो टुकड़े किये तो उधर अशनिघोष ने चार रूप बना लिये । इस प्रकार वह सारी सेना अशनिघोष की माया से भर गई ॥278-279॥

इतने में ही रथनूपुर का राजा अमिततेज विद्या सिद्ध कर आ गया और आते ही उसने महाज्‍वाला नाम की विद्या को आदेश दिया। अशनिघोष उस विद्या को सह नहीं सका ॥280॥

इसलिए पन्‍द्रह दिन तक युद्ध कर भागा और भय से नाभेयसीम नाम के पर्वत पर गजध्‍वज के समीपवर्ती विजय तीर्थंकर के समवसरण में जा घुसा । अमिततेज तथा श्रीविजय आदि भी क्रोधित हो उसका पीछा करते-करते उसी समवसरण में जा पहुँचे। वहाँ मानस्‍तम्‍भ देखकर उन सबकी चित्‍त-वृत्तियाँ शान्‍त हो गई । सबने जगत्‍पति जिनेनद्र भगवान् की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, उन्‍हें प्रणाम किया और बैररूपी विष को उगलकर वे सब वहाँ साथ-साथ बैठ गये ॥281-283॥

उसी समय शीलवती आसुरीदेवी मुरझाई हुई लता के समान सुतारा को शीघ्र ही लाई और श्रीविजय तथा अमिततेज को समर्पित कर बोली कि आप दोनों हमारे पुत्र का अपराध क्षमा कर देने के योग्‍य हैं ॥284-285॥

तिर्यन्‍चों का जो जन्‍मजात बैर छूट नहीं सकता वह भी जब जिनेन्‍द्र भगवान् के समीप आकर छूट जाता है तब मनुष्‍यों की तो बात ही क्‍या कहना है ? ॥286॥

जब जिनेन्‍द्र भगवान् के स्‍मरण से अनादि काल के बँधे हुए कर्म छूट जाते हैं तब उनके समीप बैर छूट जावें इसमें आश्‍चर्य ही क्‍या है ? ॥287॥

जो बड़े दु:ख से निवारण किया जाता है ऐसा यमराज भी जब जिनेन्‍द्र भगवान् के स्‍मरण मात्र से अनायास ही रोक दिया जाता है तब दूसरा ऐसा कौन शत्रु है जो रोका न जा सके ? ॥288॥

इसलिए बुद्धिमानों को यमराज का प्रतिकार करने के लिए तीनों लोकों के नाथ अर्हन्‍त भगवान् का ही स्‍मरण करना चाहिये । वही इस लोक तथा परलोक में हित के करने वाले हैं ॥289॥

अथानन्‍तर विद्याधरों के स्‍वामी अमिततेज ने हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से भगवान् को नमस्‍कार किया और तत्‍त्‍वार्थ को जानने की इच्‍छा से सद्धर्म का स्‍वरूप पूछा ॥290॥

जिसमें कषायरूपी मगरमच्‍छ तैर रहे हैं और जो अनेक दु:खरूपी लहरों से भरा हुआ है ऐसे संसाररूपी विकराल सागर का पार कौन पा सकता है ? यह बात जिनेन्‍द्र भगवान् से ही पूछी जा सकती है किसी दूसरे से नहीं क्‍योंकि उन्‍होंने ही संसाररूपी सागर को पार कर पाया है। हे भगवन् ! एक आप ही जगत् के बन्‍धु हैं अत: हम स‍ब शिष्‍यों को आप सद्धर्म का स्‍वरूप बतलाइये ॥291-292॥

रत्‍नत्रय रूपी महाधन को धारण करने वाले पुरूष आपकी दिव्‍यध्‍वनि रूपी बड़ी भारी नाव के द्वारा ही इस संसार - रूपी समुद्र से निकल कर सुख देने वाले अपने स्‍थान को प्राप्‍त करते हैं ॥293॥

ऐसा विद्याधरोंके राजा ने भगवान् से पूछा । तदनन्‍तर भगवान् दिव्‍यध्‍वनिके द्वारा कहने लगे सो ठीक ही है क्‍योंकि जिस प्रकार पूर्व वृष्टिके द्वारा चातक पक्षी संतोषको प्राप्‍त होते हैं उसी प्रकार भव्‍य जीव दिव्‍यध्‍वनि के द्वारा संतोष को प्राप्‍त होते हैं ॥294॥

हे विद्याधर भव्‍य ! सुन, इस संसार के कारण कर्म हैं और कर्म के कारण मिथ्‍यात्‍व असंयम आदि हैं ॥295॥

मिथ्‍यात्‍व कर्म के उदय से उत्‍पन्‍न हुआ जो परिणाम ज्ञान को भी विपरीत कर देता है उसे मिथ्‍यात्‍व जानो। यह मिथ्‍यात्‍व बन्‍ध का कारण है ॥296॥

अज्ञान, संशय, एकान्‍त, विपरीत और विनयके भेदसे ज्ञानी पुरूष उस मिथ्‍यात्‍व को पांच प्रकार का मानते हैं ॥297॥

पाप और धर्मके नाम से दूर रहने वाले जीवों के मिथात्‍व कर्म के उदय से जो परिणाम होता है वह अज्ञान मिथ्‍यात्‍व है ॥298॥

आप्‍त तथा आगम आदिके नाना होने के कारण जिसके उदय से तत्‍त्‍वके स्‍वरूपमें दोलाय मानता-चन्‍चलता बनी रहती है उसे हे श्रेष्‍ठ विद्वान् ! तुम संशय मिथ्‍यात्‍व जानो ॥299॥

द्रव्‍य पर्यायरूप पदार्थमें अथवा मोक्ष का साधन जो सम्‍यग्‍दर्शन सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक् चारित्र है उसमें किसी एक का ही एकान्‍त रूप से निश्‍चय करना एकान्‍त मिथ्‍यादर्शन है ॥300॥

आत्‍मा में जिसका उदय रहते हुए ज्ञान ज्ञायक और ज्ञेयके यथार्थ स्‍वरूप का विपरीत निर्णय होता है उसे विपरीत मिथ्‍यादर्शन जानो ॥301॥

मन, वचन और कायके द्वारा जहाँ सब देवों को प्रणाम किया जाता है और समस्‍त पदार्थों को मोक्ष का उपाय माना जाता है उसे विनय मिथ्‍यात्‍व कहते हैं ॥302॥

व्रतरहित पुरूष की जो मन वचन कायकी क्रिया है उसे असंयम कहते हैं । इस विषयके जानकार मनुष्‍योंने प्राणी-असंयम और इन्द्रिय असंयमके भेदसे असंयमके दो भेद कहे हैं ॥303॥

जब तक जीवों के अप्रत्‍याख्‍यानावरण चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक अर्थात् चतुर्थगुण स्‍थान तक असंयम बन्‍ध का कारण माना गया है ॥304॥

छठवें गुणस्‍थानोंमें व्रतोंमें संशय उत्‍पन्‍न करनेवाली जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं । यह प्रमाद छठवें गुणस्‍थान तक बन्‍ध का कारण होता है ॥305॥

प्रमाद के पन्‍द्रह भेद कहे गये हैं। ये संज्‍वलन कषाय का उदय होने से होते हैं तथा सामायिक, छेदोपस्‍थापना और परिहार विशुद्धि इन तीन चारित्रों से युक्‍त जीव के प्रायश्चित्‍तके कारण बनते हैं ॥306॥

सातवें से लेकर दशवें तक चार गुणस्‍थानोंमें संज्‍वलन क्रोध मान माया लोभके उदय से जो परिणाम होते हैं उन्‍हें कषाय कहते हैं । इन चार गुणस्‍थानों यह कषाय ही बन्‍ध का कारण है ॥307॥

जिनेन्‍द्र भगवान् ने इस कषायके सोलह भेद कहे हैं । यह कषाय उपशान्‍तमोह गुणस्‍थान के इसी ओर स्थितिबन्‍ध तथा अनुभाग बन्‍ध का कारण माना गया है ॥308॥

आत्‍मा के प्रदेशोंमें जो संचार होता है उसे योग कहते हैं । यह योग ग्‍यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्‍थानोंमें सातावेदनीके बन्‍ध का कारण माना गया है । इन गुणस्‍थानोंमें यह एक ही बन्‍ध का कारण है ॥309॥

मनोयोग चार प्रकार का है, वचन योग चार प्रकार का है और काय-योग सात प्रकार का है । ये सभी योग यथायोग्‍य जहाँ जितने संभव हो उतने प्रकृति और प्रदेश बन्‍धके कारण हैं। हे आर्य ! जिनका अभी वर्णन किया है ऐसे इन मिथ्‍यात्‍व आदि पाँचके द्वारा यह जीव अपने अपने योग्‍य स्‍थानोंमें एक सौ बीस कर्मप्रकृतियों से सदा बँधता रहता है ॥310-311॥

इन्‍हीं प्रकृतियोंके कारण यह जीव गति आदि पर्यायोंमें बार बार घूमता रहता है, प्रथम गुणस्‍थान में इस जीव के सभी जीव समान होते हैं, वहाँ यह जीव तीन अज्ञान और तीन अदर्शनोंसे सहित होता है, उसके औदयिक, क्षायापशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं, संयम का अभाव होता है कोई जीव भव्‍य रहता है और कोई अभव्‍य होता है। इस प्रकार संसार चक्रके भँवर रूपी गढ्डेमें पड़ा हुआ यह जीव जन्‍म जरा मरण रोग सुख दु:ख आदि विविध भेदोंको प्राप्‍त करता हुआ अनादि काल से इस संसार में निवास कर रहा है। इनमें से कोई जीव कालादि लब्धियों का निमित्‍त पाकर अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोंसे मिथ्‍यात्‍वादि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी का विच्‍छेद कर उपशम सम्‍यग्‍दर्शन प्राप्‍त करता है । तदनन्‍तर अप्रत्‍याख्‍यानावरण कषायके क्षयोपशमसे श्रावक के बारह व्रत ग्रहण करता है। कभी प्रत्‍याख्‍यानावरण कषायके क्षयोपशमसे महाव्रत प्राप्‍त करता है । कभी अनन्‍तानुबन्‍धी क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्‍यात्‍व सम्‍यड्.मिथ्‍यात्‍व और सम्‍यक्‍त्‍व प्रकृति इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन प्राप्‍त करता है । कभी मोहकर्मरूपी शत्रु के उच्‍छेदसे उत्‍पन्‍नहुए क्षायिक चारित्रसे अलंकृत होता है । तदनन्‍तर द्वितीय शुक्‍लध्‍यान का धारक होकर तीन घा‍तिया कर्मों का क्षय करता है, उस समय नव केवललब्धियों की प्राप्तिसे अर्हन्‍त होकर सबके द्वारा पूज्‍य हो जाता है। कुछ समय बाद तृतीय शुक्‍ल ध्‍यान के द्वारा समस्‍त योगों को रोक देता है और समुच्छिन्‍नक्रियाप्रतिपाती नामक चौथे शुक्‍ल ध्‍यान के प्रभाव से समस्‍त कर्मबन्‍धको नष्‍ट कर देता है । इस प्रकार हे भव्‍य ! तेरे समान भव्‍य प्राणी क्रम-क्रम से प्राप्‍त हुए तीन प्रकार क सन्‍मार्गके द्वारा संसार-समुद्र से पार होकर सदा सुख से बढ़ता रहता है ॥312-320॥

इस प्रकार समस्‍त विद्याधरोंकास्‍वामी अमिततेज, श्रीजिनेन्‍द्र भगवान् के द्वारा कही हुई जन्‍मसे लेकर निर्वाण पर्यन्‍त की प्रक्रिया को सुनकर ऐसा संतुष्‍ट हुआ मानो उसने अमृत का ही पान किया हो ॥321॥

ऊपर कही हुई कालादि चार लब्धियों की प्राप्तिसे उस समय उसने सम्‍यग्‍दर्शनसे शुद्ध होकर अपने आपको श्रावकोंके व्रतसे विभूषित किया॥322॥

उसने भगवान् से पूछा कि हे भगवन् ! मैं अपने चित्‍तमें स्थित एक दूसरी बात आपसे पूछना चा‍हता हूं । बात यह है कि इस अशनिघोष ने मेरा प्रभाव जानते हुए भी मेरी छोटी बहिन सुतारा का हरण किया है सो किस कारण से किया है ? उत्‍तरमें जिनेन्‍द्र भगवान् भी उसका कारण इस प्रकार कहने लगे ॥323-324॥

जम्‍बूद्वीप के मगध देशमें एक अचल नाम का ग्राम है। उसमें धरणीजट नाम का ब्राह्मण रहता था ॥325॥

उसकी स्‍त्री का नाम अग्रिला था और उन दोनों के इन्‍द्रभूति तथा अग्निभूति नाम के दो पुत्र थे । इनके सिवाय एक कपिल नाम दासीपुत्र भी था । जब वह ब्राह्मण अपने पुत्रों को वेद पढ़ाता था तब कपिल को अलग रखता था परन्‍तु कपिल इतना सूक्ष्‍मबुद्धि था कि उसने अपने आप ही शब्‍द तथा अर्थ-दोनों रूप से वेदोंको जान लिया था । जब ब्राह्मण को इस बात का पता चला तब उसने कुपित होकर ‘तूने यह अयोग्‍य किया’ यह कहकर उस दासी-पुत्र को उसी समय घर सके निकाल दिया । कपिल भी दु:खी होता हुआ वहाँसे रत्‍नपुर नामक नगर में चला गया ॥326-328॥

रत्‍नपुर में एक सत्‍यक नामक ब्राह्मण रहता था । उसने कपिल को अध्‍ययनसे सम्‍पन्‍न तथा योग्‍य देख जम्‍बू नामक स्‍त्रीसे उत्‍पन्‍न हुई अपनी कन्‍या समर्पित कर दी ॥329॥

इस प्रकार राजपूज्‍य एवं समस्‍त शास्‍त्रोंके सारपूर्ण अर्थके ज्ञाता कपिलने जिसको कोई खण्‍डन न कर सके ऐसी व्‍याख्‍या करते हुए रत्‍नपुर नगर में कुछ वर्ष व्‍यतीत किये ॥330॥

कपिल विद्वान् अवश्‍य था परन्‍तु उसका आचरण ब्राह्मण कुलके योग्‍य नहीं था अत: उसकी स्‍त्री सत्‍यभामा उसके दुश्‍चरित का विचार कर सदा संशय करती रहती थी कि यह किसका पुत्र है ? ॥331॥

इधर धरिणीजट दरिद्र हो गया । उसने परम्‍परासे कपिलके प्रभाव की सब बातें जान लीं इसलिए वह अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए कपिलके पास गया । उसे आया देख कपिल मन ही मन बहुत कुपित हुआ परन्‍तु बाह्यमें उसने उठकर अभिवादन-प्रणाम किया । उच्‍च आसन पर बैठाया और कहा कि कहिये मेरी माता तथा भाइयों की कुशलता तो है न ? मेरे सौभाग्‍यसे आप यहाँ पधारे यह अच्‍छा किया इस प्रकार पूजकर स्‍नान वस्‍त्र आसन आदिसे उसे संतुष्‍ट किया और कहीं हमारी जाति का भेद खुल न जावे इस भय से उसने उसके मनको अच्‍छी तरह ग्रहण कर लिया ॥332-334॥

दरिद्रता से पीडित हुआ पापी ब्राह्मण भी कपिलको अपना पुत्र कहकर उसके साथ पुत्र जैसा व्‍यवहार करने लगा सो ठीक है क्‍योंकि स्‍वार्थी मनुष्‍यों की मर्यादा का पालन नहीं होता ॥335-336॥

इस प्रकार अपने समाचारों को छिपाते हुए उन‍पिता-पुत्र के कितने हीदिन निकल गये । एक दिन कपिलके परोक्षमें सत्‍यभामाने ब्राह्मणको बहुत-सा धन देकर पूछा कि आप सत्‍य कहिये । क्‍या यह आपका ही पुत्र है ? इसके दुश्‍चरित्रसे मुझे विश्‍वास नहीं होता कि यह आपका ही पुत्र है । धरिणीजट ह्णदय में तो कपिलके साथ द्वेष रखता ही था और इधर सत्‍यभामाके दिये हुए सुवर्ण तथा धनको साथ लेकर घर जाना चाहता था इसलिए सब वृत्‍तान्‍त सच-सच कहकर घर चला गया सो ठीक ही है क्‍योंकि दुष्‍ट मनुष्‍यों के लिए कोई भी कार्य दुष्‍कर नहीं हैं ॥337-339॥

अथानन्‍तर उस नगर का राजा श्रीषेण था । उसके सिंहनन्दिता और अनिन्दिता नाम की दो रानियां थीं । उन दोनोंको इन्‍द्र और चन्द्रमाके समान सुन्‍दर मनुष्‍योंमें उत्‍तम इन्‍द्रसेन और उपेन्‍द्र सेन नाम के दो पुत्र थे । वे दोनों ही पुत्र अत्‍यन्‍त नम्र थे अत: माता – पिता उनसे बहुत प्रसन्‍न रहते थे ॥340–341॥

उस समय अन्‍याय की घोषणा करने वाला वह वनावटी ब्राह्मण कपिल राजा के पास ही बैठा था, शोकके कारण उसने अपना हाथ अपने मस्‍तक पर लगा रक्‍खा था, उसे देखकर और उसका सब हाल जानकर श्रीषेण राजा ने विचार किया कि पापी विजातीय मनुष्‍यों का संग्रह करने योग्‍य कुछ भी कार्य नहीं है । इसीलिए राजा लोग ऐसे कुलीन मनुष्‍यों का संग्रह करते हैं जो आदि मध्‍य और अन्‍त में भी विकार को प्राप्‍त नहीं होते ॥343–345॥

जो स्‍वयं अनुरक्‍त हुआ पुरूष विरक्‍त स्‍त्रीमें अनुराग की इच्‍छा करता है वह इन्‍द्रनील मणिमें लाल तेजकी इच्‍छा करता है ॥346॥

इत्‍यादि विचार करते हुए राजा ने उस दुराचारीको शीघ्र ही अपने देशसे निकाल दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि धर्मात्‍मा पुरूष मर्यादा की हानि को सहन नहीं करते ॥347॥

किसी एक दिन राजा ने घर पर आये हुए आदित्‍यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनियोंको पडिगाह कर स्‍वयं आ‍हार दान दिया, पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये और दश प्रकार के कल्‍पवृक्षोंके भोग प्रदान करनेवाली उत्‍तरकुरूकी आयु बांधी । राजा की दोनों रानियोंने तथा उत्‍तम कार्य करनेवाली सत्‍यभामाने भी दानकी अनुमोदनासे उसी उत्‍तरकुरूकी आयु का बन्‍ध किया सो ठीक ही है क्‍योंकि साधुओं के समागम से क्‍या नहीं होता ? ॥348–350॥

अथानन्‍तर कौशाम्‍बी नगरी में राजा महाबल राज्‍य करते थे, उनकी श्रीमती नाम की रानी थी और उन दोनोंके श्रीकान्‍ता नाम की पुत्री थी । वह श्रीकान्‍ता मानो सुन्‍दरता की सीमा ही थी ॥351॥

राजा महाबलने वह श्रीकान्‍ता विवाहकी विधिपूर्वक इन्‍द्रसेनके लिए दी थी । श्रीकान्‍ताके साथ अनन्‍तमति नाम की एक साधारण स्‍त्री भी गई थी । उसके साथ उपेन्‍द्रसेन का स्‍नेहपूर्ण समागम हो गया और इस निमित्‍तको लेकर बगीचामें रहनेवाले दोनों भाइयोंमें युद्ध होनेकी तैयारी हो गई । जब राजा ने यह समाचार सुना तब वे उन्‍हें रोकनेके लिए गये परन्‍तु वे दोनों ही कामी तथा क्रोधी थे अत: राजा उन्‍हें रोकनेमें असमर्थ रहे । राजा को दोनों ही पुत्र अत्‍यन्‍त प्रिय थे । साथ ही उनके परिणाम अत्‍यन्‍त आर्द्र – कोमल थे अत: वे पुत्रों का दु:ख सहनमें समर्थ नहीं हो सके । फल यह हुआ कि वे विष – पुष्‍प सूँघ कर मर गये ॥352–355॥

वही विष – पुष्‍प सूँघकर राजाकी दोनों स्त्रियाँ तथा सत्‍यभामा भी प्राणरहित हो गईं सो ठीक ही है क्‍यों‍कि कर्मोंकी प्रेरणा विचित्र होती है ॥356॥

धातकीखण्‍ड़के पूर्वार्ध भाग में जो उत्‍तरकुरू नाम का प्रदेश है उसमें राजा तथा सिंह नन्दिता दोनों दम्‍पती हुए और अनिन्‍दिता नाम की रानी आर्य तथा सत्‍यभामा उसकी स्‍त्री हुई । इस प्रकार वे सब वहाँ भोगभूमिके भोग भोगते हुए सुख से रहने लगे ॥357–358॥

अथानन्‍तर कोई एक विद्याधर युद्ध करनेवाले दोनों भाइयोंके बीच प्रवेश कर कहने लगा कि तुम दोनों व्‍यर्थ ही क्‍यों युद्ध करते हो ? यह तो तम्‍हारी छोटी बहिन है । उसके वचन सुनकर दोनों कुमारों ने आश्‍चर्यके साथ पूछा कि यह कैसे ? उत्‍तरमें पुष्‍कलावती नाम का देश है । उसमें विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर आदित्‍याभ नाम का नगर है । उसमें सुकुण्‍डली नाम का विद्याधर राज्‍य करता है । सुकुण्‍डलीकी स्‍त्री का नाम मित्रसेना है । मैं उन दोनों का मणिकुण्‍डल नाम का पुत्र हूँ । मैं किसी समय पुण्‍डरीकिणी नगरी गया था, वहाँ अमितप्रभ जिनेनद्रसे सनातनधर्म का स्‍वरूप सुनकर मैंने अपने पूर्वभव पूछे । उत्‍तरमें वे कहने लगे ॥361-363॥

कि तीसरे पुष्‍करवर द्वीप में पश्चिम मेरूपर्वत से पश्चिमकी ओर सरिद् नाम का एक देश है । उसके मध्‍य में वीतशोक नाम का नगर है । उसके राजा का नाम चक्रध्‍वज था, चक्रध्‍वजकी स्‍त्री का नाम कनकमालिका था । उन दोनोंके कनकलता और पद्यसलता नाम की दो पुत्रियाँ उत्‍पन्‍न हुई ॥364-365॥

उसी राजाकी एक विद्यन्‍मति नाम की दूसरी रानी थी उसके पद्यावती नाम की पुत्री थी । इस प्रकार इन सबका समय सुख से बीत रहा था । किसी दिन काललब्धिके निमित्‍तसे रानी कनकमाला और उसकी दोनों पुत्रियोंने अमितसेना नाम की गणिनीके वचनरूपी रसायन का पान किया जिससे वे तीनों ही मरकर प्रथम स्‍वर्ग में देव हुए । इधर पद्यावती ने देखा कि एक वेश्‍या दो कामियों को प्रसन्‍न कर रही है उसे देख पद्यावती ने भी वैसे ही होने की इच्‍छा की । मरकर वह स्‍वर्ग में अप्‍सरा हुई ॥366-368॥

तदनन्‍तर कनकमाला का जीव, वहाँसे चयकर मणिकुण्‍डली नाम का राजा हुआ है और दोनों पुत्रियोंके जीव रत्‍नपुर नगर में राजपुत्र हुए हैं । जिस अप्‍सरा का उल्‍लेख ऊपर आ चुका है वह स्‍वर्गसे चय कर अनन्‍तमति हुई है । इसी अनन्‍तमतिको लेकर आज तुम दोनों राजपुत्रों का युद्ध हो रहा है ॥369-370॥

इस प्रकार जिनेन्‍द्र देव की कही हुई वाणी सुनकर, अन्‍याय करने वाले और धर्म को न जानने वाले तुम लोगों को रोकने के लिए मैं यहाँ आया हूँ ॥371॥

इस प्रकार विद्याधरके वचनों से दोनों का कलह दूर हो गया, दोनों को आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया, दोनों को शीघ्र ही वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया, दोनों ने सुधर्मगुरूके पास दीक्षा ले ली, दोनों ही मोक्षमार्ग के अन्‍त तक पहुँचे, दोनों ही क्षायिक अनन्‍तज्ञानादि गुणों के धारक हुए और दोनों ही अन्‍त में निर्वाणको प्राप्‍त हुए ॥372-373॥

तथा अनन्‍तमतिने भी ह्णदय में श्रावक के सम्‍पूर्ण व्रत धारण किये और अन्‍त में स्‍वर्गलोक प्राप्‍त किया सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंके अनुग्रहसे कौन सी वस्‍तु नहीं मिलती? ॥374॥

राजा श्रीषेण का जीव भोगभूमिसे चलकर सौधर्म स्‍वर्गके श्रीप्रभ विमान में श्रीप्रभ नाम का देव हुआ, रानी सिंहनन्दिता का जीव उसी स्‍वर्गके श्रीनिलय विमान में विद्युत्‍प्रभा नाम की देवी हुई ॥375॥

सत्‍यभामा ब्राह्मणी और अनिन्दिता नाम की रानी के जीव क्रमश: विमलप्रभ विमान में शुक्‍लप्रभा नाम की देवी और विमलप्रभ नाम के देव हुए ॥376॥

राजा श्रीषेण का जीव पांच पल्‍य प्रमाण आयु के अन्‍त में वहाँसे चय कर इस तरह की लक्ष्‍मी से सम्‍पन्‍न तू अर्ककीर्ति का पुत्र हुआ है ॥377॥

सिंहनन्दिता तुम्‍हारी ज्‍योति:प्रभा नाम की स्‍त्री हुई है, देवी अनिन्दिता का जीव श्रीविजय हुआ है, सत्‍यभामा सुतारा हुई है और पहले का दुष्‍ट कपिल चिरकाल तक दुर्गतियोंमें भ्रमण कर संभूतरमण नाम के वन में ऐरावती नदी के किनारे तापसियोंके आश्रममें कौशिक नामक तापसकी चपलवेगा स्‍त्रीसे मृगश्रृंग नाम का पुत्र हुआ है ॥378-380॥

वहाँ पर उस दुष्‍टने बहुत समय तक खोटे तापसियोंके व्रत पालन किये । किसी एक दिन चपलवेग विद्याधरकी लक्ष्‍मी देखकर उस मूर्खने मनमें, विद्वान् जिसकी निन्‍दा करते हैं ऐसा निदान बन्‍ध किया । उसीके फलसे यह अशनिघोष हुआ है और पूर्व स्‍नेहके कारण ही इसने सुतारा का हरण किया है ॥381-382॥

तेरा जीव आगे होने वाले नौवें भवमें सज्‍जनोंको शान्ति देनेवाला पाँचवाँ चक्रवर्ती और शान्तिनाथ नाम का सोलहवाँ तीर्थकर होगा ॥383॥

इस प्रकार जिनेन्‍द्ररूपी चन्‍द्रमाकी फैली हुई वचनरूपी चाँदनी की प्रभाके सम्‍बन्‍धसे विद्याधरोंके इन्‍द्र अमिततेज का ह्णदयरूपी कुमुदोंसे भरा सरोवर खिल उठा ॥384॥

उसी समय अशनिघोष, उसकी माता स्‍वयम्‍प्रभा, सुतारा तथा अन्‍य कितने ही लोगोंने विरक्‍त होकर श्रेष्‍ठ संयम धारण किया ॥385॥

चक्रवर्ती के पुत्र को आदि लेकर बाकीके सब लोग जिनेन्‍द्र भगवान् की स्‍तुति कर तथा तीन प्रदक्षिणाएँ देकर अमिततेजके साथ यथायोग्‍य स्‍थान पर चले गये ॥386॥

इधर अर्ककीर्तिका पुत्र अमिततेज समस्‍त पर्वोंमें उपवास करता था, यदि कदाचित् ग्रहण किये हुए व्रतकी मर्यादा का भंग होता था तो उसके योग्‍य प्रायश्चित लेता था, सदा महापूजा करता था, आदरसे पात्रदानादि करता था, धर्म-कथा सुनता था, भव्‍यों को धर्मोपदेश देता था, नि:शन्कित आदि गुणों का विस्‍तार करता था, दर्शनमोह को नष्‍ट करता था, सूर्य के समान अपरिमित तेज का धारक था और चन्‍द्रमा के समान सुख से देखने योग्‍य था ॥387-389॥

वह संयमीके समान शान्‍त था, पिताकी तरह प्रजा का पालन करता था और दोनों लोकों के हित करने वाले धार्मिक कार्योंकी निरन्‍तर प्रवृत्ति रखता था ॥390॥

प्रज्ञप्ति, कामरूपिणी, अग्निस्‍तम्भिनी, उदकस्‍तम्भिनी, विश्‍वप्रवेशिनी, अप्रतिघातगामिनी, आकाशगामिनी, उत्‍पादिनी, वशीकरणी, दशमी, आवेशिनी, माननीयप्रस्‍थापिनी, प्रमोहनी, प्रहरणी, संक्रामणी, आवर्तनी, संग्रहणी, भंजनी, विपाटिनी, प्रावर्तकी, प्रमोदिनी, प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापिनी, निक्षेपणी, शर्वरी, चांडाली, मातंगी, गौरी, षडन्गिका, श्रीमत्‍कन्‍या, शतसंकुला, कुभाण्‍डी, विरलवेगिका, रोहिणी, मनोवेगा, महावेगा, चण्‍डवेगा, चपलवेगा, लघुकरी, पर्णलघु, वेगावती, शीतदा, उष्‍णदा, वेताली, महाज्‍वाला, सर्वविद्याछेदिनी, युद्धवीर्या, बन्‍धमोचनी, प्रहारावरणी, भ्रामरी, अभोगिनी इत्‍यादि कुल और जाति में उत्‍पन्‍न हुई अनेक विद्याएँ सिद्ध कीं । उन सब विद्याओं का पारगामी होकर वह योगीके समान सुशोभित हो रहा ॥391-400॥

दोनों श्रेणियों का अधिपति होनेसे वह सब विद्याधरों का राजा था और इस प्रकार विद्याधरों का चक्रवर्तीपना पाकर वह चिरकाल तक भोग भोगता रहा ॥401॥

किसी एक दिन विद्याधरोंके अधिपति अमिततेजने दमवर नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि को विधिपूर्वक आहार दान देकर पश्‍चाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥402॥

किसी एक दिन अमिततेज तथा श्रीविजयने मस्‍तक झुकाकर अमरगुरू और देवगुरू नामक दो श्रेष्‍ठ मुनियोंको नमस्‍कार किया, धर्म का यथार्थ स्‍वरूप देखा, उनके वचनामृत का पान किया और ऐसा संतोष प्राप्‍त किया मानो अजर-अमरपना ही प्राप्‍त कर लिया हो ॥403-404॥

तदनन्‍तर श्रीविजयने अपने तथा पिता के पूर्वभवों का सम्‍बन्‍ध पूछा जिससे समस्‍त पापोंको नष्‍ट करनेवाले पहले भगवान् अमरगुरू कहने लगे ॥405॥

उन्‍होंने विश्‍वनन्‍दीके भव से लेकर समस्‍त वृतान्‍त कह सुनाया । उसे सुनकर अमिततेजने भोगों का निदान बन्‍ध किया ॥406॥

अमिततेज तथा श्रीविजय दोनोंने कुछ काल तक विद्याधरों तथा भूमि-गोचरियोंके सुखामृत का पान किया । तदनन्‍तर दोनों ने विपुलमति और विमलमति नाम के मुनियों के पास ‘अपनी आयु एक मास मात्र की रह गई है’ ऐसा सुनकर अर्कतेज तथा श्रीदत्‍त नाम के पुत्रों के लिए राज्‍य दे दिया, बड़े आदर से आष्‍टाह्नि क पूजा की तथा नन्‍दन नामक मुनिराज के समीप चन्‍दन वन में सब परिग्रह का त्‍याग कर प्रायोपगमन संन्‍यास धारण कर लिया । अन्‍त में समाधिमरण कर शुद्ध बुद्धि का धारक विद्याधरों का राजा अमिततेज तेरहवें स्‍वर्गके नन्‍द्यावर्त विमान में रविचूल नाम का देव हुआ और श्रीविजय भी इसी स्‍वर्गके स्‍वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ । वहाँ दोनोंकी आयु बीस सागर की थी । आयु समाप्‍त होने पर वहाँसे च्‍युत हुए ॥407-411॥

उनमेंसे रविचूल नाम का देव नन्‍द्यावर्त विमानसे च्‍युत होकर जम्‍बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में स्थित वत्‍सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर और उनकी रानी वसुन्‍धराके अपराजित नाम का पुत्र हुआ । मणिचूल देव भी स्‍वस्तिक विमानसे च्‍युत होकर उसी राजा की अनुमति नाम की रानीसे अनन्‍तवीर्य नाम का लक्ष्‍मी सम्‍पन्‍न पुत्र हुआ ॥412-414॥

वे दोनों ही भाई जम्‍बूद्वीप के चन्‍द्रमाओं के समान सुशोभित होते थे क्‍योंकि जिस प्रकार चन्‍द्रमा कान्ति से युक्‍त होता है उसी प्रकार वे भी उत्‍तम कान्ति से युक्‍त थे, जिस प्रकार चन्‍द्रमा कुवलय-नील कमलों को आह्लादित करता है उसी प्रकार वे भी कुवलय-पृथिवी-मण्‍डल को आह्लादित करते थे, जिस प्रकार चन्‍द्रमा तृष्‍ण-तृषा और आताप को दूर करता है। उसी प्रकार वे भी तृष्‍णा रूपी आताप दु:ख को दूर करते थे और जिस प्रकार चन्‍द्रमा कलाधर-सोलह कलाओं का धारक होता है उसी प्रकार वे भी अनेक कलाओं-अनेक चतुराइयोंके धारक थे ॥415॥

अथवा वे दोनेां भाई बालसूर्यसे समान जान पड़ते थे क्‍योंकि जिस प्रकार बालसूर्य पद्यानन्‍दकर-कमलों को आनन्दित करनेवाला होता है उसी प्रकार वे दोनों भाई भी पद्यानन्‍दकर-लक्ष्‍मी को आनन्दित करने वाले थे, जिस प्रकार बालसूर्य भास्‍वद्वपु-देदीप्‍यमान शरीर का धारक होता है उसी प्रकार वे दोनों भाई भी देदीप्‍यमान शरीर के धारक थे, जिस प्रकार बालसूर्य ध्‍वस्‍ततामस-अन्‍धकार को नष्‍ट करने वाला होता है उसी प्रकार वे दोनों भाई भी ध्‍वस्‍ततामस-अज्ञानान्‍धकार को नष्‍ट करने वाले थे, जिस प्रकार बालसूर्य नित्‍योदय होते हैं- उनका उद्गमन निरन्‍तर होता रहता है उसी प्रकार वे दोनों भाई भी नित्‍योदय थे-उनका ऐश्‍वर्य निरन्‍तर विद्यमान रहता था और जिस प्रकार बालसूर्य जगन्‍नेत्र-जगच्‍चक्षु नाम को धारण करने वाले हैं उसी प्रकार वे दोनों भाई भी जगन्‍नेत्र-जगत् के लिए नेत्रके समान थे ॥416॥

वे दोनों भाई कलावान् थे परन्‍तु कभी किसी को ठगते नहीं थे, प्रताप सहित थे परन्‍तु किसी को

दाह नहीं पहुँचाते थे, दोनों करों-दोनों प्रकार के टैक्‍सों से (आयात और निर्यात करों से) रहित होने पर भी सत्‍कार उत्‍तम कार्य करने वाले अथवा उत्‍त्‍म हाथों से सहित थे इस प्रकार वे अत्‍यन्‍त सुशोभित हो रहे थे ॥417॥

रूप की अपेक्षा उन्‍हें कामदेव की उपमा नहीं दी जा सकती थी क्‍योंकि वह अशरीरता को प्राप्‍त हो चुका था तथा नीति की अपेक्षा परस्‍पर एक दूसरे को जीतने वाले गुरू तथा शुक्र उनके समान नहीं थे । भावार्थ – लोक में सुन्‍दरताके लिए कामदेवकी उपमा दी जाती है परन्‍तु उन दोनों भाइयोंके लिए कामदेव की उपमा संभव नहीं थी क्‍योंकि वे दोनों शरीरसे सहित थे और कामदेव शरीर से रहित था । इसी प्रकार लोक में नीतिविज्ञताके लिए गुरू – बृहस्‍पति और शुक्र – शुक्राचार्य की उपमा दी जाती है परन्‍तु उन दोनों भाइयोंके लिए उनकी उपमा लागू नहीं होती थी क्‍योंकि गुरू और शुक्र परस्‍पर एक दूसरे को जीतने वाले थे परन्‍तु वे दोनों परस्‍पर में एक दूसरेको नहीं जीत सकते थे ॥418॥

सूर्य के द्वारा रची हुई छाया कभी घटती है तो कभी बढ़ती है परन्‍तु उन दोनों भाइयोंके द्वारा की हुई छाया बढ़ते हुए वृक्ष की छायाके समान निरन्‍तर बढ़ती ही रहती है ॥419॥

वे न कभी युद्ध करते थे और न कभी शत्रुओं पर चढ़ाई ही करते थे फिर भी शत्रु राजा उन दोनों के साथ सदा सन्धि करने के लिए उत्‍सुक बने रहते थे ॥420॥

इस तरह जिन्‍हें राज्‍य–लक्ष्‍मी अपने कटाक्षों का विषय बना रही है ऐसे वे दोनों भाई नवीन अवस्‍था को पाकर शुक्‍लपक्ष की अष्‍टमी के चन्‍द्रमा के समान बढ़ते ही रहते थे ॥421॥

‘अब मेरे दोनों योग्‍य पुत्रों की अवस्‍था राज्‍य का उपभोग करने के योग्‍य हो गई, ऐसा विचार कर किसी एक दिन इनके पिताने भोगोंमें प्रीति करना छोड़ दिया ॥422॥

उसी समय इच्‍छा रहित राजा ने देव तुल्‍य दोनों भाइयों को बुलाकर उनका अभिषेक किया तथा एकको राज्‍य देकर दूसरे को युवराज बना दिया ॥423॥

तथा स्‍वयं, स्‍वयंप्रभ नामक जिनेन्‍द्र के चरणोंके समीप जाकर संयम धारण कर लिया । धरणेन्‍द्र की ऋद्धि देखकर उसने निदान बन्‍ध किया । उससे दूषित होकर बालतप करता रहा । वह सांसारिक सुख प्राप्‍त करने का इच्‍छुक था । आयु के अन्‍त में विशुद्ध परिणामोंमें मरा और धरणेन्‍द्र अवस्‍था को प्राप्‍त हुआ ॥424-425॥

इधर जिस प्रकार उत्‍तम भूमिमें बीज तथा उससे उत्‍पन्‍न हुए अंकुर जलके सिंचनसे वृद्धि को प्राप्‍त होते हैं उसी प्रकार वे दोनों भाई राज्‍य तथा युवराज का पद पाकर नीति रूप जल के सिंचनसे वृद्धि को प्राप्‍त हुए ॥426॥

जिस प्रकार सूर्य की तेजस्‍वी किरणें प्रकट होकर सबसे पहले समस्‍त पर्वतोंके मस्‍तकों-शिखरों पर अपना स्‍थान जमाती हैं उसी प्रकार उन दोनों भाइयों की प्रकट हुई प्रतापपूर्ण नीति की किरणोंने आक्रमण कर सर्व-प्रथम समस्‍त राजाओं के मस्‍तकों पर अपना स्‍थान जमाया था ॥427॥

जिनका पुण्‍य प्रकट हो रहा है ऐसे दोनों भाइयोंकी राजलक्ष्मियाँ नई थीं और स्‍वयं भी दोनों तरूण थे इसलिए सदृश समागमके कारण उनमें जो प्रीति उत्‍पन्‍न हुई थी उसने उनकी भोगासक्ति को ठीक ही बढ़ा दिया था ॥428॥

उनके बर्बरी और चिलातिका नाम की दो नृत्‍यकारिणी थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानों नृत्‍य–विद्या ने ही अपनी सामर्थ्‍य से दो रूप धारण कर लिये हों ॥429॥

किसी एक दिन दोनों राजा बड़े हर्षके साथ उन नृत्‍यकारिणियों का नृत्‍य देखते हुए सुख से बैठे थे कि उसी समय नारदजी आ गये ॥430॥

दोनों भाई नृत्‍य देखनेमें आसक्‍त थे अत: नारदजी का आदर नहीं कर सके । वे क्रूर तो पहलेसे ही थे इस प्रकरणसे उनका अभिप्राय और भी खराब हो गया । वे उन दोनों भाइयोंके समीप आते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्य और चन्‍द्रमा के समीप राहु आ रहा हो । अत्‍यन्‍त जलती हुई क्रोधाग्नि की शिखाओंसे उनका मन संतप्‍त हो गया । जिस प्रकार जेठके महीने में दोपहर के समय सूर्य जलने लगता है उसी प्रकार उस समय नारदजी जल रहे थे-अत्‍यन्‍त कुपित हो रहे थे । कलहप्रेमी नारदजी उसी समय सभा के ’ बीचसे बाहर निकल आये और क्रोधजन्‍य वेगसे शीघ्र ही शिवमन्दिर नगर जा पहुँचे ॥431-433॥

वहाँ सभाके बीच में राजा दमितारि अपने आसन पर बैठा था और ऐसा जान पड़ता था मानो अस्‍ताचल की शिखर पर स्थित पतनोन्‍मुख सूर्य ही हो ॥434॥

उसने नारदजी को आता हुआ देख लिया अत: शीघ्र ही उठकर उनका पडिगाहन किया, प्रणाम किया और ऊँचे सिंहासन पर बैठाया ॥435॥

जब नारदजी आशीर्वाद देकर बैठ गये तब उसने पूछा कि आप क्‍या उद्देश्‍य लेकर हमारे यहाँ पधारे हैं ? क्‍या मुझे सम्‍पत्ति देनेके लिए पधारे हैं अथवा कोई बड़ा भारी पद प्रदान करने के लिए आपका समागम हुआ है ? यह सुनकर नारदजी का मुखकमल खिल उठा । वे राजा को हर्ष उत्‍पन्‍न करते हुए प्रीति बढ़ाने वाले वचन कहने लगे ॥436-437॥

उन्‍होंने कहा कि हे राजन् ! मैं तुम्‍हारे लिए सारभूत वस्‍तुएँ खोजने के लिए निरन्‍तर घूमता रहता हूँ । मैंने आज दो नृत्‍यकारिणी देखी हैं जो आपके ही देखने योग्‍य हैं ॥438॥

वे इस समय ठीक स्‍थानोंमें स्थित नहीं हैं । मैं ऐसी अनिष्‍ट बात सहनेके लिए समर्थ नहीं हूँ इसीलिए आपके पास आया हूँ, क्‍या कभी चूड़ामणिकी स्थिति चरणोंके बीच सहन की जा सकती है ? ॥439॥

इस समय जिनसे कोई लड़ने वाला नहीं है, जो नवीन लक्ष्‍मी के मदसे उद्धत हो रहे हैं और जो झूठमूठके ही विजिगीषु बने हुए हैं ऐसे प्रभाकरी नगरी के स्‍वामी राजा अपराजित तथा अनन्‍तवीर्य हैं । वे सप्‍त-व्‍यसनोंमें आसक्‍त होकर प्रभादी हो रहे हैं इसलिए सरलता से नष्‍ट किये जा सकते हैं । वे सप्‍त-व्‍यसनोंमें आसक्‍त होकर प्रभादी हो रहे हैं इसलिए सरलता से नष्‍ट किये जा सकते हैं । संसार का सारभूत वह नृत्‍यकारिणियों का जोड़ा उन्‍हींके घर में अवस्थित है । उसे आप सुख से ग्रहण कर सकते हैं, दूत भेजनेसे वह आज ही लीलामात्रमें तुम्‍हारे पास आ जावेगा इसलिए अत्‍यन्‍त दुर्लभ वस्‍तु जब हाथके समीप ही विद्यमान है तब समय बिताना अच्‍छा नहीं ॥440-442॥

इस प्रकार यमराज के समान पापी नारदने जिसे प्रेरणा दी है तथा जिसका मरण अत्‍यन्‍त निकट है ऐसा दमितारि नारदकी बातमें आ गया ॥443॥

नृत्‍यकारिणी की बात सुनते ही उसका चित्‍त मुग्‍ध हो गया । उसने उसी समय वत्‍सकावती देश के पराक्रमी राजा अपराजित और अनन्‍तवीर्यके पास प्रकृत अर्थ को निवेदन करने वाला दूत भेंटके साथ भेजा । वह दूत भी राजा की आज्ञा से बीच में दिन नहीं बिताता हुआ-शीघ्र ही प्रभाकरीपुरी पहुँचा । उस समय दोनों ही भाई प्रोषधोपवास का व्रत लेकर जिन मंदिरमें बैठे हुए थे । उन्‍हें देखकर बुद्धिमान् दूतने मन्‍त्रीके मुखसे अपने आने का समाचार भेजा और अपने साथ लाई हुई भेंट दोनों भाइयोंके लिए यथायोग्‍य समर्पण की ॥444-447॥

वह कहने लगा कि दिव्‍य लोहेके पिण्‍डके समान देदीप्‍यमान राजा दमितारिकी प्रतापरूपी अग्नि निरन्‍तर जलती रहती है, वह अपराधी तथा झूठमूठ के अभिमानी मनुष्‍यों को शीघ्र ही जला डालती है ॥448॥

उसका नाम लेते ही स्‍वभावसे बैरी मनुष्‍यों का ह्णदय फट जाता है । वे भय से इतने विह्णल हो जाते हैं कि विनम्र होकर शीघ्र ही बैर तथा अस्‍त्र दोनों ही छोड़ देते हैं ॥449॥

उसका चित्‍त बड़ा निर्मल है, वह अपने वंशके सब लोगों के साथ विभाग कर राज्‍य का उपभोग करता है इसलिए परिवारमें उत्‍पन्‍न हुए शत्रु उसके हैं ही नहीं ॥450॥

जब तिरस्‍कार को न चाहने वाले लोग उसकी आज्ञाको माला के समान अपने मस्‍तक पर धारण करते हैं तब उस राजा के कृत्रिम शत्रु तो हो ही कैसे सकते हैं ? ॥451॥

वह अपने चरणपीठके समीप नम्रीभूत हुए समस्‍त विद्याधरोंके मुकुटके अग्रभाग में मणियोंकी किरणों से इन्‍द्रधनुष बनाया करता है ॥452॥

शत्रुओं को जीतनेसे उत्‍पन्‍न हुआ उसका यश कुन्‍द पुष्‍प तथा चन्‍द्रमा के समान शोभायमान है, उसके ऐसे मनोहर यश को कन्‍याएँ दिग्‍गजोंके दाँतोंके समीप निरन्‍तर गाती रहती हैं ॥453॥

जिस प्रकार महावतों के द्वारा बड़े-बड़े दुर्जेय हाथी वश कर लिये जाते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा भी बड़े-बड़े दुर्जेय राजा वश कर लिये गये थे इसलिए उसका ‘दमितारि’ वह नाम सार्थक प्रसिद्धि को धारण करता है ॥454॥

यद्यपि उसकी प्रतापरूपी अग्निने समस्‍त शत्रुरूपी इन्‍धनको जला डाला है तो भी अग्निकुमार देव के समान भयंकर दिखनेवाले उसकी प्रताप रूपी अग्नि निरन्‍तर जलती रहती है ॥455॥

उसी श्रीमान् दमितारि राजा ने दोनों नृत्‍यकारिणियाँ माँगनेके लिए मुझे आपके पास भेजा है सो प्रीति बढ़ानेके लिए आपको अवश्‍य देना चाहिए ॥456॥

आपकी नृत्‍यकारिणियाँ पृथिवीमें प्रसिद्ध हैं अत: उसीके योग्‍य हैं । नृत्‍यकारिणियोंके देनेसे वह तुम दोनों पर प्रसन्‍न होगा और अच्‍छा फल प्रदान करेगा । इस प्रकार उस दूतने कहा । राजा ने उसे सुनकर दूत को तो विश्राम करने के लिए भेजा और म‍न्त्रियोंको बुलाकर पूछा कि इस परिस्थितिमें क्‍या करना चाहिए ? ॥457-458॥

उनके पुण्‍य कर्म के उदय से तीसरे भवकी विद्या देवताएँ शीघ्र ही आ पहुँचीं और अपना स्‍वरूप

दिखाकर स्‍वयं ही कहने लगीं कि हम लोग आपके द्वारा अपने इष्‍ट कार्य में लगानेके योग्‍य हैं । आप लोग अस्‍थान में व्‍यर्थ ही व्‍याकुल न हों – ऐसा उन्‍होंने बड़े आदरसे कहा ॥459-460॥

देवताओं की बात सुन दोनों भाइयोंने अपना राज्‍य का भार अपने मन्त्रियों पर रखकर नर्तकियों का वेष धारण किया और दूतसे कहा कि चलो चलें, राजा ने हम दोनों को भेजा है । इस प्रकार दूतके साथ वार्तालाप कर वे दोनों शिवमन्दिर नगर पहुँचे और किसी गूढ़ अर्थ की आलोचना करते हुए राजभवन में प्रविष्‍ट हुए ॥461-462॥

वहाँ उन्‍होंने विद्याधरों के राजा दमितारिके यथायोग्‍य दर्शन किये । राजा दमितारिने संतुष्‍ट होकर उनके साथ शान्तिपूर्ण शब्‍दोंमें संभाषण किया, उनका आदर-सत्‍कार किया, दूसरे दिन मनको हरण करने वाले अंगहार, करण, रस और भावोंसे परिपूर्ण उनका नृत्‍य देखकर बहुत ही हर्ष तथा संतोष का अनुभव किया ॥463-464॥

एक दिन उसने उन दोनोंसे कहा कि ‘हे सुन्‍दरियो ! आप अपनी सुन्‍दर नृत्‍यकला हमारी पुत्री को सिखला दीजिये’ यह कहकर उसने अपनी कनकश्री नाम की पुत्री उन दोनों के लिए सौंप दी ॥465॥

वे दोनों उस राजपुत्री को लेकर यथायोग्‍य नृत्‍य कराने लगे । एक दिन उन्‍होंने भावी चक्रवर्ती के गुणों से गुम्फित निम्‍न प्रकार का गीत गाया ॥466॥

‘जिसने अपने कुल बल आदि गुणों के द्वारा पृथिवी पर समस्‍त राजाओं को जीत लिया है, जो अपनी शरीर की सम्‍पत्तिसे कामदेव को भी लज्जित करता है, संसार में अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ है, और जो सुन्‍दर स्त्रियों के विलास तथा मनोहर चितवनों का घर है, ऐसा अनन्‍तवीर्य इस नाम से प्रसिद्ध पृ‍थिवी का स्‍वामी तुम सबकी रक्षा करें’ ॥467॥

उस गीत के सुनते ही जिसके शरीर में कामदेवने प्रवेश किया है ऐसी राजपुत्रीने उन दोनोंसे पूछा कि ‘जिसकी स्‍तुति की जा रही है वह कौन है ?’ यह कहिये ॥468॥

उत्‍तरमें उन्‍होंने कहा कि ‘वह प्रभाकरीपुरीका अधिपति है, राजा स्तिमितसागरसे उत्‍पन्‍न हुआ है, महामणिके समान राजाओं के मस्‍तक पर स्थित चूड़ामणिके समान जान पड़ता है, स्‍त्रीरूपी कल्‍पलताके चढ़नेके लिए मानो कल्‍पवृक्ष ही है, और स्‍त्रीरूपी भ्रमरीके उपयोग करने के योग्‍य मुखकमलसे सुशोभित है’ ॥469–470॥

इस प्रकार उन दोनोंके द्वारा अत्‍यन्‍तवीर्यके रूप तथा लावण्‍य आदि का वर्णन सुनकर जिसकी प्रीति दूनी हो गई है ऐसी विद्याधर की पुत्री कनकश्री बोली ‘क्‍या वह देखने को मिल सकता है ?’ । उत्‍तरमें उन्‍होंने कहा कि ‘हे कन्‍ये ! तुझे अच्‍छी तरह मिल सकता है’ । ऐसा कहकर उन्‍होंने अनन्‍तवीर्य का साक्षात् रूप दिखा दिया ॥471–472॥

उसे देखकर कनकश्री कामज्‍वरसे विह्वल हो गई और उसे लेकर वे दोनों नृत्‍यकारिणी आकाशमार्ग से चली गई ॥473॥

विद्याधरोंके स्‍वामी दमितारिने यह बात अन्‍त:पुरके अधिकारियोंके कहनेसे सुनी और उन दोनों को वापिस लानेके लिए अपने योद्धा भेजे ॥474॥

बलवान् बलभद्रने योद्धाओं का आगमन देख, कन्‍या सहित छोटे भाईको दूर रक्‍खा और स्‍वयं लौटकर युद्ध किया ॥475॥

जब बलभद्रने चिरकाल तक युद्ध कर उन योद्धाओं को यमराज के पास भेज दिया तब दमितारिने कुपित होकर युद्ध करने में समर्थ दूसरे योद्धाओं को आज्ञा दी ॥476॥

वे योद्धा भी, जिस प्रकार समुद्र में पहाड़ डूब जाते हैं उसी प्रकार बलभद्र की खड्गधाराके विशाल पानीमें डूब गये । यह सुनकर दमितारिको बड़ा आश्‍चर्य हुआ ॥477॥

उसमें मन्‍त्रियों को बुलाकर कहा कि ‘यह प्रभाव नृत्‍यकारिणियों का नहीं हो सकता, ठीक बात क्‍या है ? आप लोग कहें ? मन्त्रियों ने सब बात ठीक – ठीक जानकर राजा से कहीं ॥478॥

उस समय जिस प्रकार इन्‍धन पाकर अग्नि प्रज्‍वलित हो उठती है, अथवा सिंह का क्रोध भडक उठता है उसी प्रकार राजा दमितारि भी कुपित हो स्‍वयं युद्ध करने के लिए अपनी सेना साथ लेकर चला ॥479॥

परन्‍तु विद्या और पराक्रम से युक्‍त एक बलभद्रने ही उन सबको मार गिराया सिर्फ दमितारिको ही बाकी छोड़ा ॥480॥

इधर जिस प्रकार मदोन्‍मत्‍त हाथी के ऊपर सिंह आ टूटता है उसी प्रकार बड़े भाईको मारनेके लिए आते हुए यमराज के समान दमितारिको देखकर अनन्‍तवीर्य उस पर टूट पड़ा ॥481॥

अधिक पराक्रमी अनन्‍तवीर्यने उसके साथ अनेक प्रकार का युद्ध किया, तथा विद्या और बलके मदसे उद्धत उस दमितारिको मद रहित कर निश्‍चेष्‍ट बना दिया था ॥482॥

अबकी वार विद्याधरोंके राजा दमितारिने चक्र लेकर राजा अनन्‍तवीर्यके सामने फेंका परन्‍तु वह चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके दाहिने कन्‍धेके समीप ठहर गया ॥483॥

जिस प्रकार योगिराज धर्मचक्रके द्वारा मृत्‍युको नष्‍ट करते हैं उसी प्रकार पराक्रमी भावी नारायण ने उसी चक्रके द्वारा दमितारिको नष्‍ट कर दिया – मार डाला ॥484॥

इस तरह युद्ध समाप्‍त कर दोनों भाई आकाश में जा रहे थे कि पूज्‍य पुरूषों का कहीं उल्‍लंधन न हो जावे इस भय से ही मानों उनका विमान सहसा रूक गया ॥485॥

यह विमान किसी ने कील दिया है अथवा किसी अन्‍य कारणसे आगे नहीं जा रहा है ऐसा सोचकर वे दोनों भाई चारों ओर देखने लगे । देखते ही उन्‍हें समवसरण दिखाई दिया ॥486॥

‘ये मानस्‍तम्‍भ हैं, ये सरोवर हैं, ये चार वन हैं और ये गन्‍धकुटी के बीच में कोई जिनराज विराजमान हैं’ ऐसा कहते हुए अनन्‍तवीर्य और उनके भाई बलदेव वहाँ उतरे । उतरते ही उन्‍हें मालूम हुआ कि ये जिनराज, शिवमन्दिर नगर के स्‍वामी हैं, राजा कनकपुंख और रानी जयदेवीके पुत्र हैं, दमितारिके पिता हैं और कीर्तिधर इनका नाम है । इन्‍होंने विरक्‍त होकर शान्तिकर मुनिराज के समीप पारमेश्‍वरी दीक्षा धारण की थी । एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर जब इन्‍हें केवलज्ञान प्राप्‍त हुआ तब इन्‍द्र आदि देवों ने बड़ी भक्ति से इनकी पूजा की थी । ऐसा कह कर उन दोनों भाइयोंने जिनराज की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, बार बार नमस्‍कार किया, धर्मकथाएँ सुनीं और अपने पापोंको नष्‍ट कर दोनों ही भाई वहाँ पर बैठ गये ॥487-491॥

कनकश्री भी उनके साथ गई थी । उसने अपने पितामह को भक्तिपूर्वक नमस्‍कार किया और घातिया कर्मों को नष्‍ट करनेवाले उक्‍त जिनराजसे अपने भवान्‍तर पूछे ॥492॥

ऐसा पूछने पर परोपकार करना ही जिनकी समस्‍त चेष्‍टाओं का फल है ऐसे जिनेन्‍द्रदेव अपने वचनामृत रूप जलसे कनकश्री को संतुष्‍ट करने के लिए इस प्रकार कहने लगे ॥493॥

इसी जम्‍बूद्वीप के भरतक्षेत्रकी भूमि पर एक शंख नाम का नगर था । उसमें देविल नाम का वैश्‍य रहता था । उसकी बन्‍धुश्री नाम की स्‍त्रीसे तू श्रीदत्‍ता नाम की बड़ी और सती पुत्री हुई थी । तेरी और भी छोटी बहिनें थीं जो कुष्‍ठी, लँगड़ी, टोंटी, बहरी, कुबड़ी, कानी और खंजी थीं । तू इन सबका पालन स्‍वयं करती थी । तूने किसी समय सर्वशैल नामक पर्वत पर स्थित सर्वयश मुनिराजकी बन्‍दना की, शान्ति प्राप्‍त की , अहिंसा व्रत लिया, और परिणाम निर्मल कर धर्मचक्र नाम का उपवास किया ॥494-497॥

किसी दूसरे दिन तूने सुव्रता नाम की आर्यिकाके लिए विधिपूर्वक आहार दिया, उन आर्यिकाने पहले उपवास किया था इसलिए आहार लेने के बाद उन्‍हें वमन हो गया और सम्‍यग्‍दर्शन न होनेसे तूने उन आर्यिकासे घृणा की । तूने जो अहिंसा व्रत तथा उपवास धारण किया था उसके पुण्‍य से तू आयु के अन्‍त में मर कर सौधर्म स्‍वर्ग में सामानिक जाति की देवी हुई और वहांसे चय कर राजा दमितारि की मन्‍दरमालिनी नाम की रानीसे कनकश्री नाम की पुत्री हुई है । तूने आर्यिकासे जो घृणा की थी उसका फल यह हुआ कि ये लोग तेरे बलवान् पिताको मारकर तुझे जबर्दस्‍ती ले आये तथा तूने दु:ख उठाया । यही कारण है कि बुद्धिमान् लोग कभी साधुओंमें घृणा नहीं करते हैं ॥498-501॥

यह सुनकर विद्याधर की पुत्री शोक से बहुत ही पीडि़त हुई । अनन्‍तर जिनेन्‍द्र देव की वन्‍दना कर नारायण और बलभद्रके साथ प्रभाकरीपुरीको चली गई ॥ इधर सुघोष और विद्युदृंष्‍ट्र कनकश्री के भाई थे । वे बलसे उद्धत थे और शिवमन्दिरनगर में ही नारायण तथा बलभद्रके द्वारा भेजे हुए अनन्‍तसेन के साथ युद्ध कर रहे थे । यह देखकर बलभद्र तथा नारायणा को बहुत क्रोध आया, उन्‍होंने उन दोनोंको बाँध लिया । यह सुनकर कनकश्री उनके दु:खको सहन नहीं कर सकी और जिस प्रकार बढ़ते हुए तेजवाले तरूण सूर्य से युक्‍त चन्‍द्रमा की रेखा कान्तिहीन तथा क्षीण हो जाती है उसी प्रकार वह भी पक्षबल के बिना कान्तिहीन तथा क्षीण हो गई ॥502-505॥

शोकरूपी दावानल से मुरझाकर वह वनलता के समान दु:खी हो गई । उसने काम-भोग की सब इच्‍छा छोड़ दी, वह केवल भाइयों का दु:ख दूर करना चाहती थी । उसने दोनों भाइयों को समझाया तथा बलभद्र और नारायण को प्रार्थना कर उन्‍हें बन्‍धन से छुड़वाया । स्‍वयंप्रभनामक तीर्थकर से धर्म रूपी रसायन का पान किया और सुप्रभ नाम की गणिनीके समीप दीक्षा धारण कर ली । अन्‍त में आयु समाप्‍त होने पर सौधर्मस्‍वर्ग में देव पद प्राप्‍त किया सो ठीक ही है क्‍योंकि कर्म का उदय बड़ा विचित्र है ॥506-508॥

जिन्‍होंने विद्याके बल से बड़े-बड़े उपाय किये हैं, जो बहुत पुण्‍यवान् हैं, विद्वान् लोग जिनकी स्‍तुति करते हैं, जो अच्‍छे कार्य ही प्रारम्‍भ करते हैं, परस्‍पर मिले रहते हैं, बड़े-बड़े शत्रुओं को मारकर जिनकी आत्‍माएं शान्‍त हैं और नीतिके अनुसार ही जो पराक्रम दिखाते हैं ऐसे उन दोनों भाइयों ने कृतकृत्‍य हो कर बहुत भारी उत्‍सवोंसे युक्‍त नगरी में एक साथ प्रवेश किया ॥509॥

अलंध्‍य शान्तिको धारणकरने वाले अपराजित ने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध विद्याधरों को जीत कर विद्याधरों के स्‍वामी का पद तथा बलभद्र का पद प्राप्‍त किया और इस तरह केवल नाम से ही नहीं किन्‍तु भाव से भी अपना अपराजित नाम चिरकाल तक प्रकट किया ॥510॥

शत्रुओं की शक्ति को दमन करनेवाले दमितारि को जिसने युद्ध में उसी के चक्र से मारकर उससे तीन खण्‍ड का राज्‍य प्राप्‍त किया, जो अपने वीर्य से सूर्य को जीतता था तथा शूरवीरों में अत्‍यन्‍त शूर था ऐसा अनन्‍तवीर्य पृथिवीमें सर्व श्रेष्‍ठ था ॥511॥

वन्‍दी जन उस अनन्‍तवीर्य नारायण की उस समय इस प्रकार स्‍तुति करते थे कि तू निरन्‍तर आलोचना की हुई मन्‍त्रशक्तिके अनुसार चलता है, देदीप्‍यमान प्रतापाग्नि की ज्‍वालाओं से तूने शत्रुओं के वंश रूपी बांसो के वन को भस्‍म कर डाला है, तू सब नारायणों में श्रेष्‍ठ नारायण है; जो शत्रु तुझे कुपित करता है वह क्षणभर में यमराज की जलती हुई ज्‍वालाओंसे आलीढ व्‍याप्‍त हुआ दिखाई देता है ॥512॥

जिसके शत्रु रूपी बादलों का उपरोध नष्‍ट हो गया है, जो सदा अपने बड़े भाई के बतलाये हुए मार्ग पर चलता है, काल-लब्धि से जिसे विशुद्धता प्राप्‍त हुई है, जिसने अपनी दीप्ति से समस्‍त दिग्मण्डल को व्‍याप्‍त कर लिया है और जिसका तेज अत्‍यन्‍त उग्र है ऐसा वह नारायण अपनी नगरी में उस प्रकार निवास करता था जिस प्रकार कि सूर्य शरद्ऋतु में निवास करता है ॥513॥