
कथा :
जिस पर चमर ढुर रहे हैं ऐसा सिंहासन पर बैठा हुआ अर्द्धचक्री-नारायण अनन्तवीर्य इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो छह खण्डोंसे सुशोभित पूर्ण चक्रवर्ती ही हो ॥1॥ इसी प्रकार अपराजित भी अपने योग्य रत्न आदि का स्वामी हुआ था और बलभद्र का पद प्राप्तकर प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होता रहता था ॥2॥ जिनका स्नेह दूसरे भवोंसे सम्बद्ध होने के कारण निरन्तर बढ़ता रहता है और जो स्वच्छन्द रीति से अखण्ड श्रेष्ठ सुख का अनुभव करते हैं ऐसे उन दोनों भाइयों का काल क्रम से व्यतीत हो रहा था ॥3॥ कि बलभद्र की विजया रानीसे सुमति नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। वह शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की रेखाओंसे उत्पन्न चांदनीके समान सबको प्रसन्न करती थी ॥4॥ वह कन्या प्रतिदिन अपनी वृद्धि करती थी और आह्लादकारी गुणों के द्वारा माता-पिता के भी कुवलयेप्सित-पृथिवीमण्डलमें इष्ट अथवा कुमुदोंको इष्ट प्रेमको बढ़ाती थी ॥5॥ किसी एक दिन राजा अपराजितने दमवरनामक चारणऋद्धिधारी मुनि को आहार दान दे कर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये । उसी समय उन्होंने अपनी पुत्री को देखा और विचार किया कि अब यह न केवल रूप से ही विभूषित है किन्तु यौवन से भी विभूषित हो गई है । इस समय यह कन्या कालदेवता का आश्रय पाकर वर की प्रार्थना कर रही है अर्थात् विवाहके योग्य हो गई है ॥6- 7॥ ऐसा विचार कर उन दोनों भाइयोंने स्वयंवर की घोषणा सबको सुनवाई और स्वयंशाला बनवा कर उसमें अच्छे-अच्छे मनुष्यों का प्रवेशा कराया ॥8॥ पुत्री को रथ पर बैठा कर स्वयंवरशालामें भेजा और आप दोनों भाई भी वहीं बैठ गये । कुछ समय बाद एक देवी विमान में बैठ कर आकाशमार्गसे आई और सुमति कन्यासे कहने लगी ॥9॥ क्यों याद है हम दोनों कन्याएं स्वर्ग में रहा करती थीं । उस समय हम दोनोंके बीच यह प्रतिज्ञा हुई थी कि जो पृथिवी पर पहले अवतार लेगी उसे दूसरी कन्या समझावेगी । मैं दोनोंके भवों का सम्बन्ध कहती हूं सो तुम चित्त स्थिर कर सुनो ॥10-11॥ पुष्कर द्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके नन्दनपुर नामक नगर में वय और पराक्रम से सुशोभित एक अमितविक्रम नाम का राजा राज्य करता था । उसकी आनन्दमती नाम की रानीसे हम दोनों धनश्री तथा अनन्तश्री नाम की दो पुत्रियां उत्पन्न हुईं थीं । किसी एक दिन हम दोनोंने सिद्धकूटमें विराजमान नन्दन नाम के मुनिराजसे धर्म का सवरूप सुना, व्रत ग्रहण किये तथा सम्यग्ज्ञानके साथ-साथ अनेक उपवास किये । किसी दिन त्रिपुरनगर का स्वामी वज्रांगद विद्याधर अपनी वज्रमालिनी स्त्रीके साथ मनोहर नामक वन में जा रहा था कि वह हम दोनोंको देखकर आसक्त हो गया । इधर वह हम दोनों को पकडकर शीघ्र ही जाना चाहता था कि उधरसे उसका अभिप्राय जानने वाली वज्रमालिनी आ धमकी । उसे दूरसे ही आती देख वज्रांगद डर गया अत: वह हम दोनों को वंश-वन में छोड़कर अपने नगर की ओर चला गया ॥12–17॥ हम दोनोंने उसी वन में संन्यासमरण किया । जिससे शुद्ध बुद्धि को धारण करने वाली मैं तो व्रत और उपवासके पुण्य से सौधर्मेन्द्र की नवमिका नाम की देवी हुई और तू कुबेरकी रति नाम की देवी हुई । एक बार हम दोनों परस्पर मिलकर नन्दीश्वर द्वीप में महामह यज्ञ देखनेके लिए गई थीं वहाँसे लौटकर मेरूपर्वत के निकटवर्ती जन्तुरहित वन में विराजमान घृतिषेण नामक चारणमुनिराज के पास पहुँची थीं और उनसे हम दोनोंने यह प्रश्न किया था कि हे भगवन् ! हम दोनोंकी मुक्ति कब होगी ? हम लोगों का प्रश्न सुननेके बाद मुनिराजने उत्तर दिया था कि इस जन्ममें तुम दोनों की अवश्य ही मुक्ति होगी । हे बुद्धिमती सुमते ! मैं इस कारण ही तुम्हें समझाने के लिए स्वर्गलोकसे यहाँ आई हूँ ॥18–22॥ इस प्रकार उस देवीने कहा । उसे सुन कर सुमति अपना नाम सार्थक करती हुई पितासे छुट्टी पाकर सुव्रता नाम की आर्यिकाके पास सात सौ कन्याओं के साथ दीक्षित हो कर उसने बड़ा कठिन तप किया और आयु के अन्त में मर कर आनत नामक तेरहवें स्वर्गके अनुदिश विमान में देव हुई ॥23–24॥ इधर अनन्तवीर्य नारायण, अनेक प्रकार के सुखोंके साथ तीन खण्ड़ का राज्य करता रहा और अन्त में पापोदयसे रत्नप्रभा नाम की पहिली पृथिवीमें गया ॥25॥ उसके शोक से बलभद्र अपराजित, पहले तो बहुत दु:खी हुए फिर जब अनन्तसेन नामक पुत्र के लिए राज्य देकर यशोधर मुनिराजसे संयम धारण कर लिया । वे तीसरा अवधिज्ञान प्राप्तकर अत्यन्त शान्त हो गये और तीस दिन का संन्यास लेकर अच्युत स्वर्गके इन्द्र हुए ॥26–27॥ अपराजित और अनन्तवीय का जीव मरकर धरणेन्द्र हुआ था । उसने नरकमें जाकर अनन्तवीर्य को समझाया जिससे प्रतिबुद्ध हो कर उसने सम्यग्दर्शन रूपी रत्न प्राप्त कर लिया । संख्यात वर्षकी आयु पूरी कर पाप का उदय कम होने के कारण वह वहाँसे च्युत हुआ और जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणीमें प्रसिद्ध गगनवल्लभ नगर के राजा मेघवाहन विद्याधरकी मेघमालिनी नाम की रानीसे मेघनाद नाम का विद्याधर पुत्र हुआ । वह दोनों श्रेणियों का आधिपत्य पाकर चिरकाल तक भोगों को भोगता रहा ॥28-30॥ किसी समय यह मेघनाद मेरू पर्वत के नन्दन वन में प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध कर रहा था, वहाँ अपराजितके जीव अच्युतेन्द्रने उसे समझाया ॥31॥ जिससे उसे आत्मज्ञान हो गया । उसने सुरामरगुरू नामक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली तथा उत्तम गुप्तियों और समितियोंको लेकर चिर कालतक उनका आचरण करता रहा ॥32॥ किसी एक दिन यही मुनिराज नन्दन नामक पर्वत पर प्रतिभा योग धारण कर विराजमान थे । अश्वग्रीव का छोटा भाई सुकण्ठ संसार रूपी समुद्रमें चिरकाल तक भ्रमणकर असुर अवस्था को प्राप्त हुआ था । वह वहाँसे निकला और इन श्रेष्ठ मुनिराजको देखकर क्रोधके वश अनेक प्रकार के उपसर्ग करता रहा ॥33-34॥ परन्तु वह दुष्ट उन दृढ़प्रतिज्ञ मुनिराज को ग्रहण किये हुए व्रत से रंच मात्र भी विचलित करने में जब समर्थ नहीं हो सका तब लज्जारूपी परदा के द्वारा ही मानो अन्तर्धानको प्राप्त हो गया- छिप गया ॥35॥ वे मुनिराज संन्यासमरणकर आयु के अन्त में अच्युतस्वर्गके प्रतीन्द्र हुए और इन्द्रके साथ उत्तम प्रीति रखकर प्रवीचार सुख का अनुभव करने लगे ॥36॥ अपराजित का जीव जो इन्द्र हुआ था वह पहले च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्वविदेहक्षेत्रके रत्नसंचय नामक नगर में राजा क्षेमंकर की कनकचित्रा नाम की रानीसे मेघ की बिजलीसे प्रकाशके समान पुण्यात्मा श्रीमान् तथा बुद्धिमान् वज्रायुध नाम का पुत्र हुआ । जब यह उत्पन्न हुआ था तब आधान प्रीति सुप्रीति धृति-मोह प्रियोद्भव आदि क्रियाएं की गई थीं ॥37-39॥ उसके जन्मसे उसकी माताके ही समान सबकी बहुत भारी संतोष हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि सूर्य का प्रकाश क्या केवल पूर्व दिशामें ही होता है ? भावार्थ-जिस प्रकार सूर्य पूर्व दिशासे उत्पन्न होता है परन्तु उसका प्रकाश सब दिशाओंमें फैल जाता है उसी प्रकार पुत्रकी उत्पत्ति यद्यपि रानी कनकचित्राके ही हुई थी परन्तु उससे हर्ष सभीको हुआ था ॥40॥ रूप आदि सम्पदाके साथ उसका शरीर बढ़ने लगा और जिस प्रकार स्वाभाविक आभूषणोंसे देव सुशोभित होता है उसी प्रकार स्वाभाविक गुणों से वह सुशोभित होने लगा ॥41॥ जिस प्रकार सूर्य के महाभ्युदयको सूचित करनेवाली उषा की लालिमा सूर्योदयके पहले ही प्रकट हो जाती है उसी प्रकार उस पुत्र के महाभ्युदय को सूचित करनेवाला मनुष्यों का अनुराग उसके जन्म के पहले ही प्रकट हो गया था ॥42॥ सब लोगों के कानों को आश्वासन देनेवाला और काशके फूलके समान फैला हुआ उसका उज्जवल यश समस्त दिशाओंमें फैल गया था ॥43॥ जिस प्रकार चन्द्रमा शुल्कपक्ष को पाकर कान्ति तथा चन्द्रिका से सुशोभित हो रहा है उसी प्रकार वह वज्रायुध भी नूतन-तरूण अवस्था पाकर राज्यलक्ष्मी तथा लक्ष्मी मती नामक स्त्री से सुशोभित हो रहा था ॥44॥ जिस प्रकार प्रात:काल के समय पूर्व दिशासे देदीप्यमान सूर्य का उदय होता है उसी प्रकार उन दोनों-वज्रायुध और लक्ष्मीमती के अनन्तवीर्य अथवा प्रतीन्द्र का जीव सहस्त्रायुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥45॥ सहस्त्रायुध के श्रीषेणा स्त्री से कनकशान्त नाम का पुत्र हुआ । इस प्रकार राजा क्षेमंकर पुत्र पौत्र आदि परिवार से परिवृत होकर राज्य करते थे । किसी एक दिन वे सिंहासन पर विराजमान थे, उनपर चमर ढोले जा रहे थे ॥46–47॥ ठीक उसी समय देवों की सभा में ऐशान स्वर्गके इन्द्र ने वज्रायुध की इस प्रकार स्तुति की-इस समय वज्रायुध महासम्यग्दर्शन की अधिकतासे अत्यन्त पुण्यवान् है ॥48॥ विचित्रचूल नाम का देव इस स्तुति को नहीं सह सका अत: परीक्षा करने के लिए वज्रायुध की ओर चला सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट मनुष्य दूसरेकी स्तुतिको सहन नहीं कर सकता ॥49॥ उसने रूप बदल कर राजा के यथायोग्य दर्शन किये और शास्त्रार्थ करने की खुजलीसे सौत्रान्तिक मतका आश्रय ले इस प्रकार कहा ॥50॥ हे राजन् ! आप जीव आदि पदार्थों के विचार करने में विद्वान हैं इसलिए कहिये कि पर्याय पर्यायी से भिन्न है कि अभिन्न ? ॥51॥ यदि पर्यायी से भिन्न है तो शून्यता की प्राप्ति होती है क्योंकि दोनों का अलग-अलग कोई आधार नहीं है और यह पर्यायी है यह इसका पर्याय है इस प्रकार का व्यवहार भी नहीं बन सकता अत: यह पक्ष संगत नहीं बैठता ॥52॥ यदि पर्यायी और पर्यायको एक माना जावे तो यह मानना भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि परस्पर एकपना और अनेकपना दोनोंके मिलनेसे संकर दोष आता है ॥53॥ 'यदि द्रव्य एक है और पर्यायें बहुत हैं 'ऐसा आपका मत है तो 'दोनों एक स्वरूप भी हैं' इस प्रतिज्ञाका भंग हो जायेगा ॥54॥ यदि द्रव्य और पर्याय दोनों को नित्य मानेंगे तो फिर नित्य होने के कारण पुण्य पापरूप कर्मों का उदय नहीं हो सकेगा, कर्मों के उदयके बिना बन्धके कारण राग द्वेष आदि परिणाम नहीं हो सकेंगे, उनके अभावमें कर्मों का बन्ध नहीं हो सकेगा और जब बन्ध नहीं होगा तब मोक्ष के अभावको कौन रोक सकेगा ? ॥55॥ यदि कुछ उपाय न देख पर्याय-पर्यायी को क्षणिक मानना स्वीकृत करते हैं तो आपके गृहीत पक्ष का त्याग और हमारे पक्ष की सिद्धि हो जावेगी ॥56॥ इसलिए हे भद्र ! आपका मत नीच बौद्धों के द्वारा कल्पित है तथा कल्पना मात्र है इसमें आप व्यर्थ ही परिश्रम न करें ॥57॥ इस प्रकार उसका कहा सुनकर विद्वान् वज्रायुध कहने लगा कि 'हे सौगत ! चित्त को ऊंचा रखकर तथा माध्यस्थ्य भाव को प्राप्त होकर सुन ॥58॥ अपने द्वारा किया हुआ कर्म और उसके फल को भोगना आदि व्यवहार से विरोध रखने वाले क्षणिकैकान्तरूपी मिथ्यामतको लेकर तूने जो दोष बतलाया है वह जिनेन्द्र भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमा से निकले हुए स्याद्वाद रूपी अमृत का पान करने वाले जैनियों को कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकता । क्योंकि धर्म और धर्मीमें-गुण और गुणीमें संज्ञा-नाम तथा बुद्धि आदि चिह्नों का भेद होनेसे भिन्नता है और 'गुण गुणी कभी अलग नहीं हो सकते' इस एकत्व नयका अवलम्बन लेने से दोनों में अभिन्नता है- एकता है । भावार्थ- द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा गुण और गुणी, अथवा पर्याय और पर्यायी में अभेद है-एकता है परन्तु व्यवहार नयकी अपेक्षा दोनों में भेद है। अनेकता है ॥59-61॥ भूत भविष्यत् वर्तमान रूप तीनों कालोंमें रहनेवाले स्कन्धोंमें परस्पर कारण-कार्य भाव रहता है अर्थात् भूत काल के स्कन्धोंसे वर्तमान काल के स्कन्धों की उत्पत्ति है इसलिए भूत काल के स्कन्ध कारण हुए और वर्तमान काल के स्कन्ध कार्य हुए । इसी प्रकार वर्तमान काल के स्कन्धों से भविष्यत् काल सम्बन्धी स्कन्धों की उत्पत्ति होती है अत: वर्तमान काल सम्बन्धी स्कन्ध कारण हुए और भविष्यत् कालसम्बन्धी स्कन्ध कार्य हुए । इस प्रकार कार्य कारण भाव होने से इनमें एक अखण्ड़ सन्तान मानी जाती है । स्कन्धों में यद्यपि क्षणिकता है तो भी सन्तान की अपेक्षा किये हुए कर्म का सद्भाव रहता है । जब उसका सद्भाव रहता है तब उसके फल का उपभोग भी हमारे मत में सिद्ध हो जाता है' । ऐसा यदि आपका मत है तो इस परिहारसे आपको अपने पक्ष की रक्षा करना एरण्ड के वृक्ष से मत्त्हाथी के बांधने के समान है । भावार्थ- जिस प्रकार एरण्ड के वृक्ष से मत्त हाथी नहीं बांधा जा सकता उसी प्रकार इस परिहार से आपके पक्ष की रक्षा नहीं हो सकती ॥62-64॥ हम पूछते है कि जो संतान स्कन्धों से उत्पन्न हुई है वह संतान संतानी से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो हम उसे सन्तानी से पृथक् क्यों नहीं देखते हैं ? चूंकि वह हमें पृथक् नहीं दिखाई देती है इसलिए संतानी से भिन्न नहीं है ॥65॥ यदि आप अपनी कल्पित संतान को संतानी से अभिन्न मानने हैं तो फिर उसकी शून्यता को बुद्ध भी नहीं रोक सकते; क्योंकि संतानी क्षणिक है अत: उससे अभिन्न रहनेवाली संतान भी क्षणिक ही और जिससे क्षणिकवाद समाप्त हो जावेगा । इस प्रकार आपका यह सन्तानवाद संसार के दु:खों की सन्तति मालूम होती है ॥66-68॥ इस प्रकार उस देवने जब विचार किया कि हमारे वचन वज्रायुधके वचनरूपी वज्र से खण्ड़-खण्ड़ हो गये हैं तब उसका समस्त मान दूर हो गया । उसी समय कालादि लब्धियोंकी अनुकूलता से उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया । उसने राजा की पूजा की, अपने आने का वृत्तान्त कहा और फिर वह स्वर्ग चला गया ॥69- 70॥ अथानन्तर क्षेमंकर महाराज योग और क्षेम का समन्वय करते हुए चिरकाल तक पृथिवी का पालन करते रहे । तदनन्तर किसी दिन उन्होंने मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे युक्त होकर आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया ॥71॥ वज्रायुधकुमार का राज्याभिषेक किया, लौकान्तिक देवों के द्वारा स्तुति प्राप्त की और घरसे निकल कर दीक्षा धारण कर ली ॥72॥ उन्होंने निरन्तर शास्त्र का अभ्यास करते हुए चिरकाल तक अनेक प्रकार का तपश्चरण किया । वे तपश्चरण करते समय किसी प्रकार का आवरण नहीं रखते थे, किसी स्थान पर नियमित निवास नहीं करते थे, कभी प्रमाद नहीं करते थे, कभी शास्त्रविहित क्रम का उल्लंघन नहीं करते थे, कोई परिग्रह पास नहीं रखते थे, लम्बे-लम्बे उपवास रखकर आहार का त्याग कर देते थे, किसी प्रकार का आभूषण नहीं पहिनते थे, कभी कषाय नहीं करते थे, कोई प्रकार का आरम्भ नहीं रखते थे, कोई पाप नहीं करते थे, और गृहीत प्रतिज्ञाओं को कभी खण्डित नहीं करते थे, उन्होंने निर्वाण प्राप्त करने के लिए अपना चित्त ममतारहित, अहंकाररहित, शठतारहित, जितेन्द्रिय, क्रोधरहित, चन्चलतारहित, और निर्मल बना लिया था ॥73- 75॥ क्रम-क्रम से उन्होंने केवलज्ञान भी प्राप्त कर लिया, इन्द्र आदि देवता उनके ज्ञान-कल्याणके उत्सवमें आये और दिव्यध्वनिके द्वारा उन्होंने अपनी बारहों सभाओं को संतुष्ट कर दिया ॥76॥ इधर राजा वज्रायुध उत्तम पुण्य से फली हुई पृथिवी का पालन करने लगे । धीरे-धीरे कामके उन्मादको बढ़ाने वाला चैत का महीना आया । कोयलों का मनोहर आलाप और भ्रमरों का मधुर शब्द कामदेव के मंत्रके समान विरहिणी स्त्रियों के प्राण हरण करने लगा । समस्त प्रकार के फूल उत्पन्न करने वाले उस चैत्रके महीने में फूलोंसे लदे हुए वन ऐसे जान पड़ते थे मानो त्रिजगद्विजयी कामदेव के लिए अपना सर्वस्व ही दे रहे हों ॥77- 79॥ उस समय उसने सुदर्शना रानी के मुख से तथा धार्रिणी आदि अपनी स्त्रियोंकी उत्सुकतासे यह जान लिया कि इस समय इनकी अपने देवरमण नामक वन में क्रीड़ा करने की इच्छा है इसलिए वह उस वन में जाकर सुदर्शन नामक सरोवरमें अपनी रानियोंके साथ जलक्रीड़ा करने लगा ॥80-81॥ उसी समय किसी दुष्ट विद्याधर ने आकर उस सरोवर को शीघ्र ही एक शिलासे ढ़क दिया और राजा को नागपाशसे बाँध लिया । राजा वज्रायुध ने भी अपने हाथ की हथेलीसे उस शिला पर ऐसा आघात किया कि उसके सौ टुकड़े हो गये । दुष्ट विद्याधर उसी समय भाग गया। यह विद्याधर और कोई नहीं था-पूर्वभव का शत्रु विद्युद्दंष्ट्र था। वज्रायुध अपनी रानियों के साथ अपने नगर में वापिस आ गया। इस प्रकार पुण्योदय से राजा का काल सुख से बीत रहा था। कुछ समय बाद नौ निधियाँ और चौदह रत्न प्रकट हुए ॥82-85॥ वह चक्रवर्ती की विभूति पाकर एक दिन सिंहासन पर बैठा हुआ था कि उस समय भयभीत हुआ एक विद्याधर उसकी शरण में आया ॥86॥ उसके पीछे ही एक विद्याधरी हाथ में तलवार लिये क्रोधाग्नि की शिखा के समान सभाभूमि को प्रकाशित करती हुई आई ॥87॥ उस विद्याधरी के पीछे ही हाथमें गदा लिये एक वृद्ध विद्याधर आकर कहने लगा कि हे महाराज ! यह विद्याधर दुष्ट नीच है, आप दुष्ट मनुष्यों के निग्रह करने और सत्पुरूषोंके पालन करने में निरन्तर जागृत रहते हैं इसलिए आपको इस अन्याय करनेवाले का निग्रह अवश्य करना चाहिये ॥88-89॥ इसने कौन-सा अन्याय किया है यदि आपको यह जानने की इच्छा है तो हे देव ! मैं कहता हूँ, आप चित्त को अच्छी तरह स्थिर कर सुनें ॥90॥ जम्बूद्वीप के सुकच्छ देशमें जो विजयार्ध पर्वत है उसकी उत्तरश्रेणीमें एक शुर्क्रप्रभ नाम का नगर है । वहाँ विद्याधरोंके राजा इन्द्रदत्त राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम यशोधरा था । मैं उन दोनों का पुत्र हूँ, वायुवेग मेरा नाम है और सब विद्याधर मुझे मानते हैं ॥91- 92॥ उसी देश में किन्नरगीत नाम का एक नगर है । उसके राजा का नाम चित्रचूल है । चित्रचूल की पुत्री सुकान्ता मेरी स्त्री है ॥93॥ मेरे तथा सुकान्ता के यह शान्तिमती नाम की सती पुत्री उत्पन्न हुई है । यह विद्या सिद्ध करने के लिए मुनिसागर नामक पर्वत पर गई थी ॥94॥ उसी समय यह पापी इसकी विद्या सिद्ध करने में विघ्न करने के लिए उपस्थित हुआ था परन्तु पुण्यकर्म के उदय से इसकी विद्या सिद्ध हो गई ॥95॥ उसी समय वहाँ आया था परन्तु वहाँ अपनी पुत्री को न देख शीघ्र ही उसी मार्गसे इनके पीछे आया हूँ । इस प्रकार उस वृद्ध विद्याधर ने कहा । यह सब सुनकर अवधिज्ञानरूपी नेत्र को धारण करनेवाले राजा वज्रायुध कहने लगे । कि 'इसकी विद्या में विघ्न होने का जो बड़ा भारी कारण है उसे मैं जानता हूं' ऐसा कहकर वे स्पष्ट रूप से उसकी कथा कहने लगे ॥96-98॥ उन्होंने कहा कि इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में एक गान्धार नाम का देश है उसके विन्ध्यपुर नगर में गुणों से सुशोभित राजा विन्ध्यसेन राज्य करता था । उसकी सुलक्षणा रानी से नलिनकेतु नाम का पुत्र हुआ था । उसी नगर में एक धनमित्र नाम का वणिक् रहता था । उसकी श्रीदत्ता स्त्रीसे सुदत्त नाम का पुत्र हुआ था । सुदत्त की स्त्री का नाम प्रीतिंकरा था । एक दिन प्रीतिंकरा किसी वन में विहार कर रही थी । उसी समय राजपुत्र नलिनकेतु ने उसे देखा और देखते ही कामाग्नि से ऐसा संतप्त हुआ कि उसकी दाह सहन करने में असमर्थ हो गया । उस दुर्बुद्धि ने न्यायवृत्ति का उल्लंघन कर बलपूर्वक प्रीतिंकरा का हरण कर लिया ॥99-102॥ सुदत्त इस घटना से बहुत ही विरक्त हुआ । उसने सुव्रत नामक जिनेन्द्र के समीप दीक्षा ले ली और चिर काल तक घोर तपश्चरण कर आयु के अन्त में संन्यासमरण किया जिससे ऐशान स्वर्ग में एक सागर की आयु वाला देव हुआ । वह पुण्यात्मा चिरकाल तक भोग भोग कर वहाँ से च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी सुकच्छ देशके विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर कान्चनतिलक नामक नगर में राजा महेन्द्रविक्रम और नीलवेगा नाम की रानी के अजितसेन नाम का प्यारा पुत्र हुआ । यह विद्या और पराक्रम से दुर्जेय है ॥103-106॥ इधर नलिनकेतु को उल्कापात देखने से आत्मज्ञान हो गया । उसने विरक्त हो कर अपने पिछले दुश्चरित्र की निन्दा की, सीमंकर मुनिके पास जाकर दीक्षा ली, बुद्धि को निर्मल बनाया, क्रम क्रम से केवलज्ञान उत्पन्न किया और अन्त में अष्टम भूमि-मोक्ष स्थान प्राप्त कर लिया ॥107-108॥ प्रीतिंकरा भी विरक्त होकर सुव्रता आर्थिकाके पास गई और घर तथा परिग्रह का त्याग कर चान्द्रायण नामक श्रेष्ठ तप करने लगी । अन्त में संन्यासमरण कर ऐशान स्वर्ग में देवी हुई । वहाँ दिव्य भोगों के द्वारा अपनी आयु पूरी कर वहाँ से च्युत हुई और अब तुम्हारी पुत्री हुई है । पूर्व पर्याय के सम्बन्ध से ही इस विद्याधर ने इसकी विद्यामें विघ्र किया था । इस प्रकार राजा वज्रायुध के द्वारा कही हुई सब बात सुनकर शान्तिमती संसार से विरक्त हो गई । उसने क्षेमंकर नामक तीर्थंकर से धर्म श्रवण किया और शीघ्र ही सुलक्षणा नाम की आर्यिका के पास जा कर संयम धारण कर लिया । अन्त में संन्यास मरण कर वह ऐशान स्वर्ग में देव हुई । वह अपने शरीर की पूजा के लिए आई थी उसी समय पवनवेग और अजितसेन मुनि को केवलज्ञान प्राप्त हुआ सो उनकी पूजा कर वह अपने स्थान पर चली गई ॥109–114॥ इस प्रकार जिनका शरीर राज्यलक्ष्मी से आलिंगित हो रहा है ऐसे चक्रवर्ती वज्रायुध दश प्रकार के भोगों के आधीन होकर जब छहो खण्ड़ पृथिवी का पालन करते थे ॥115॥ तब विजयार्थ पर्वत की दक्षिण श्रेणी के शिवमन्दिर नगर में राजा मेघवाहन राज्य करते थे उनकी स्त्री का नाम विमला था । उन दोनोंके कनकमाला नाम की पुत्री हुई थी । उसके जन्मकाल में अनेक उत्सव मनाये गये थे । तरूणी होने पर वह राजा कनकशान्ति को कामसुख प्रदान करने वाली हुई थी अर्थात् उसके साथ विवाही गई थी ॥116–117॥ इसके सिवाय वस्त्वोकसार नगर के स्वामी समुद्रसेन विद्याधरकी जयसेना रानी के उदरसे उत्पन्न हुई वसन्तसेना भी कनकशान्ति की छोटी स्त्री थी । जिसप्रकार दृष्टि और चर्या-सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रसे निर्वृति-निर्वाण-मोक्ष प्राप्त होता है उसी प्रकार उन दोनों स्त्रियों से राजा कनकशान्ति निर्वृति-सुख-प्राप्त कर रहा था ॥118–119॥ किसी समय राजा कनकशान्ति कोयलों के प्रथम आलाप से बुलाये हुए के समान कौतुक वश अपनी स्त्रियों के साथ वनविहारके लिए गया था ॥120॥ जिस प्रकार कन्दमूल फल ढूंढनेवाले को पुण्योदय से खजाना मिल जाए उसी प्रकार उस कुमार को वन में विमलप्रभ नाम के मुनिराज दीख पड़े ॥121॥ उसने उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं, वन्दना की, उनसे तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और अपने मन की धूलि उड़ाकर बुद्धि को शुद्ध किया ॥122॥ उसी समय दीक्षा-लक्ष्मी ने उसे अपने वश कर लिया अर्थात् उसने दीक्षा धारण कर ली इसलिए कहना पड़ता है कि बसन्तलक्ष्मी मानो तपोलक्ष्मी की दूती ही थी । भावार्थ-जिसप्रकार दूती, पुरूष स्त्री के साथ समागम करा देती है उसी प्रकार वसन्तलक्ष्मी ने राजा कनकशान्ति का तपोलक्ष्मी के साथ समागम करा दिया था ॥123॥ इसीके साथ इसकी दोनों स्त्रियों ने भी विमलमती आर्यिका के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली सो ठीक ही है क्योंकि कुलीन स्त्रियों को ऐसा करना उचित ही है ॥124॥ किसी समय कनकशान्ति मुनिराज सिद्धाचल पर प्रतिमायोगसे विराजमान थे वहीं पर उनकी स्त्री वसन्तसेना का भाई चित्रचूल नाम का विद्याधर आया। पूर्वजन्म के बंधे हुए बैरके कारण उसकी आँखे क्रोधसे लाल हो गई । वह उपसर्ग प्रारम्भ करना ही चाहता था कि विद्याधरोंके अधिपति ने ललकार कर उसे भगा दिया ॥125-126॥ किसी एक दिन रत्नपुरके राजा रत्नसेन ने मुनिराज कनकशान्तिके लिए आहार देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥127॥ किसी दूसरे दिन वही मुनिराज सुरनिपात नाम के वन में प्रतिमायोग धारणकर विराजमान थे । वह चित्रचूल नाम का विद्याधर फिरसे उपसर्ग करने के लिए तत्पर हुआ ॥128॥ परन्तु उन मुनिराज ने उस पर रंगमात्र भी क्रोध नहीं किया बल्कि घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमानों को किसी पर क्रोध करना उचित नहीं है ॥129॥ केवलज्ञान का उत्सव मनाने के लिए देवों का आगमन हुआ । उसे देख वह पापी विद्याधर डरकर उन्हीं केवली भगवान् की शरण में पहुंचा सो ठीक ही है क्योंकि नीच मनुष्यों की प्रवृत्ति ऐसी ही होती है ॥130॥ अथानन्तर नाती के केवलज्ञान का उत्सव देखने से वज्रायुध महाराज को भी आत्मज्ञान हो गया जिससे उन्होंने सहस्त्रायुध के लिए राज्य दे दिया और क्षेमंकर तीर्थकर के पास पहुँचकर दीक्षा धारण कर ली । दीक्षा लेने के बाद ही उन्होंने सिद्धिगिरि नामक पर्वत पर एक वर्ष के लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया ॥131-132॥ उनके चरणों का आश्रय पाकर बहुतसे बमीठे तैयार हो गये सो ठीक ही है क्योंकि महापुरूष चरणोंमें लगे शत्रुओं को भी बढ़ाते हैं ॥133॥ उनके शरीर के चारों ओर सघन रूप से जमी हुई लताएं भी मानो उनके परिणामों की कोमलता प्राप्त करने के लिए ही उन मुनिराज के पास तक जा पहुँची थीं ॥134॥ अश्वग्रीव के रत्नकण्ठ और रत्नायुध नाम के जो दो पुत्र थे वे चिरकाल तक संसार में भ्रमण कर अतिबल और महाबल नाम के असुर हुए । वे दोनों ही असुर उन मुनिराज का विघात करने की इच्छा से उनके सम्मुख गये परन्तु रम्भा और तिलोत्तमा नाम की देवियों ने देख लिया अत: डांटकर भगा दिया तथा दिव्य गन्ध आदिके द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी पूजा की । पूजा के बाद वे देवियां स्वर्ग चली गई । देखो कहाँ दो स्त्रियाँ और कहाँ दो असुर फिर भी उन स्त्रियों ने असुरों को भगा दिया सो ठीक है क्योंकि पुण्य के रहते हुए कौन सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता ? ॥135-137॥ इधर वज्रायुध के पुत्र सहस्त्रायुध को भी किसी कारण से वैराग्य हो गया, उन्होंने अपना राज्य शतबलीके लिए दे दिया, सब प्रकार की इच्छाएं छोड़ दीं और पिहितास्त्रव नाम के मुनिराजसे उत्तम संयम प्राप्त कर लिया । जब एक वर्ष का योग समाप्त हुआ तब वे अपने पिता-वज्रायुध मुनिराज के समीप जा पहुँचे ॥138-139॥ पिता पुत्र दोनों ने चिरकाल तक दु:सह तपस्या की, अन्त में वे वैभार पर्वत के अग्रभागपर पहुँचे । वहाँ उन्होंने शरीर में भी अपना आग्रह छोड़ दिया अर्थात् शरीरसे स्नेहरहित हो कर संन्यासमरण किया और ऊर्ध्वग्रैवेयक के नीचेके सौमनस नामक विमान में बड़ी ऋद्धि के धारक अहमिन्द्र हुए, वहाँ उनतीस सागर की उनकी आयु थी ॥140-141॥ इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है । उसकी पुण्डरीकिणी नाम की नगरी में राजा घनरथ राज्य करते थे । उनकी मनोहरा नाम की सुन्दर रानी थी । वज्रायुध का जीव ग्रैवेयकसे च्युत होकर उन्हीं दोनों के मेघरथ नाम का पुत्र हुआ । उसके जन्म के पहले गर्भाधान आदि क्रियाएं हुई थीं ॥142-143॥ उन्हीं राजा घनरथ की दूसरी रानी मनोरमा थी । दूसरा अहमिन्द्र (सहस्त्रायुध का जीव) उसीके गर्भसे दृढरथ नाम का पुत्र हुआ । ये दोनों ही पुत्र चन्द्र और सूर्य के समान जान पड़ते थे ॥144॥ उन दोनों में पराक्रम, बुद्धि, विनय, प्रभाव, क्षमा, सत्य, त्याग आदि अनेक स्थायी गुण प्रकट हुए थे ॥145॥ दोनों ही पुत्र पूर्ण युवा हो गये और ऐश्वर्य प्राप्त गजराज के समान सुशोभित होने लगे । उन्हें देख राजा का ध्यान उनके विवाह की ओर गया ॥146॥ उन्होंने बड़े पुत्र का विवाह प्रियमित्रा और मनोरमाके साथ किया था तथा सुमति को छोटे पुत्र की ह्णदय वल्ल्भा बनाया था ॥147॥ कुमार मेघरथ की प्रियमित्रा स्त्री से नन्दिवर्धन नाम का पुत्र हुआ और दृढरथ की सुमति नाम की स्त्रीसे वरसेन नाम का पुत्र हुआ ॥148॥ इस प्रकार पुत्र पौत्र आदि सुख के समस्त साधनों से युक्त राजा घनरथ सिंहासन पर बैठकर इन्द्र की लीला धारण करता था ॥149॥ उसी समय प्रियमित्रा की सुषेणा नाम की दासी घनतुण्ड नाम का मुर्गा लाकर दिखलाती हुई बोली कि यदि दूसरोंके मुर्गे इसे जीत लें तो मैं एक हजार दीनार दूँगी । यह सुनकर छोटी स्त्री की कान्चना नाम की दासी एक वज्रातुण्ड नाम का मुर्गा ले आई । दोनों का युद्ध होने लगा, वह युद्ध दोनों मुर्गोके लिए दु:ख का कारण था तथा देखने वालों के लिए भी हिंसानन्द आदि रौद्रध्यान करने वाला था अत: धर्मात्माओं के देखने योग्य नहीं है ॥150-153॥ ऐसा विचार कर बहुत से भव्य जीवों को शान्ति प्राप्त कराने तथा अपने पुत्र का माहात्म्य प्रकाशित करने की बुद्धिसे राजा घनरथ उन दोनों क्रोधी मुर्गो का युद्ध देखते हुए मेघरथसे पूछने लगे कि इनमें यह बल कहाँसे आया ? ॥154-155॥ इस प्रकार घनरथ के पूछने पर विशुद्ध अवधिज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाला मेघरथ, उन दोनों मुर्गोके वैसे युद्ध का कारण कहने लगा ॥156॥ उसने इस प्रकार कहना शुरू किया कि इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर है उसमें भद्र और धन्य नाम के दो सगे भाई थे । दोनों ही गाड़ी चलाने का कार्य करते थे । एक दिन वे दोनों ही पापी श्रीनदी के किनारे बैलके निमित्तसे लड़ पड़े और परस्पर एक दूसरे को मार कर मर गये । अपने पूर्व जन्म के पाप से मर कर वे दोनों कान्चन नदी के किनारे श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नाम के जंगली हाथी हुए । वहाँ पर भी वे दोनों पूर्व भवके बँधे हुए क्रोधसे लड़कर मर गये ॥157-159॥ मर कर अयोध्या नगर में रहनेवाले नन्दिमित्र नामक गोपाल की भैंसोंके झुण्ड़में दो उत्तम भैंसे हुए ॥160॥ दोनों ही अहंकारी थे अत: परस्पर में बहुत ही कुपित हुए और चिरकाल तक युद्धकर सींगोंके अग्रभाग की चोटसे दोनोंके प्राण निकल गये ॥161॥ अब की बार वे दोनों उसी अयोध्या नगर में शक्तीवरसेन और शब्दवरसेन नामक राजपुत्रों के मेढा हुए । अनके मस्तक वज्रके समान मजबूत थे । मेढ़े भी परस्पर में लड़े और मर कर ये मुर्गे हुए हैं । अपनी अपनी विद्याओं से युक्त हए दो विद्याधर छिप कर इन्हें लड़ा रहे हैं ॥162-163॥ उन विद्याधरों के लड़ाने का कारण क्या है ? और वे कौन हैं ? हे राजन्, यदि यह आप जानना चाहते हैं तो सुनें । इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर एक कनकपुर नाम का नगर है । उसमें गरूड़वेग नाम का राजा राज्य करता था । धृतिषेणा उसकी स्त्री का नाम था । उन दोनोंके दिवितिलक और चन्द्रतिलक नाम के दो पुत्र थे । एक दिन ये दोनों ही पुत्र सिद्धकूट पर विराजमान चारणयुगलके पास पहुँचे ॥164-166॥ और स्तुति कर बड़ी विनय के साथ अपने पूर्वभवके सम्बन्ध पूछने लगे । उनमें जो बड़े मुनि थे वे इस प्रकार विस्तारसे कहने लगे ॥167॥ धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व भाग में जो ऐरावत क्षेत्र है उसकी भूमि पर एक तिलक नाम का नगर है । उसके स्वामी का नाम अभयघोष था और उनकी स्त्री का नाम सुवर्णतिलक था। उन दोनोंके विजय और जयन्त नाम के दो पुत्र थे । वे दोनों ही पुत्र नीति और पराक्रम से सम्पन्न थे । इसी क्षेत्रके विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीमें स्थित मन्दारनगर के राजा शंख और उनकी रानी जयदेवीके पृथिवीतिलका नाम की पुत्री थी ॥168-170॥ वह राजा अभयघोष की प्राणवल्लभा हुई थी । राजा अभयघोष उसमें आसक्त होनेसे एक वर्ष तक उसीके यहाँ रहे आये ॥171॥ एक दिन चन्चत्कान्तितिलका नाम की दासी आकर राजा से कहने लगी कि रानी सुवर्णतिलका आपके साथ वन में विहार करना चाहती हैं ॥172॥ चेटी के वचन सुनकर राजा वहाँ जाना चाहता था परन्तु पृथिवीतिलका राजा से मनोहर वचन बोली और कहने लगी कि वह यहीं दिखलाये देती हूँ ॥173॥ ऐसा कह कर उसने उस समयमें होने वाली वन की सब वस्तुएँ दिखला दीं और इस कारण वह राजा को रोकनेमें समर्थ हो सकी । रानी सुवर्णतिलका इस मानभंगसे बहुत दु:खी हुई । अन्त में उस सती ने सुमति नामक आर्यिकाके पास दीक्षा ले ली सो ठीक ही है क्योंकि निकट भव्यजीवों का मानहित सिद्धि का कारण हो जाता है । 174-175॥ अभयघोष राजा ने किसी दिन दमवर नामक मुनिराज के लिए भक्ति-पूर्वक दान देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥176॥ वह एक दिन अपने दोनों पुत्रों के साथ अनन्त नामक गुरूके समीप गया था वहाँ उसे आत्मज्ञान हो गया जिससे उसने कठिन महाव्रत धारण कर लिये ॥177॥ तीर्थंकर नामकके बन्धमें कारणभूत सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया और आयु के अन्त में समाधिमरण कर अपने दोनों पुत्रों के साथ अच्युतस्वर्ग में देव हुआ ॥178॥ बाईस सागर की आयु पाकर वे तीनों वहाँ मनोवान्छित भोग भोगते रहे । आयु के अन्त में वहाँसे च्युत होकर दोनों ही विजय और जयन्त राजकुमार के जीव तुम दोनों उत्पन्न हुए हो ॥179॥ वह सब अच्छी तरह सुनकर वे दोनों ही फिर पूछने लगे-कि हे भगवन् ! हमारे पिता कहाँ हैं ? ऐसा पूछे जाने पर वे पिता की कथा इस प्रकार कहने लगे - ॥180॥ उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिता का जीव अच्युतस्वर्ग से च्युत होकर हेमांगद राजाकी मेघमालिनी नाम की रानी के घनरथ नाम का पुत्र हुआ है वह श्रीमान् इस समय रानियों तथा पुत्रों के साथ पुण्डरीकिणी नगरी में मुर्गो का युद्ध देखता हुआ बैठा है ॥181-182॥ उन मुनिराज से ये सब बातें सुनकर ये दोनों ही विद्याधर आपके प्रेम से यहाँ आये हैं । इस तरह मेघरथ से सब समाचार सुनकर उन विद्याधरोंने अपना स्वरूप प्रकट किया, राजा घनरथ और कुमार मेघरथ की पूजा की तथा गोवर्धन मुनिराज के समीप जाकर दीक्षा प्राप्त कर ली ॥183-184॥ उन दोनों मुर्गो ने भी अपना पूर्वभव का सम्बन्ध जानकर परस्पर का बँधा हुआ बैर छोड़ दिया और अन्त में साहस के साथ संन्यास धारण कर लिया । और भूतरमण तथा देवरमण नामक वन में ताम्रचूल और कनकचूल नाम के भूतजातीय व्यन्तर हुए ॥185-186॥ उसी समय वे दोनों देव पुण्डरीकिणी नगरी में आये और बड़े प्रेम से मेघरथ की पूजा कर अपने पूर्व जन्म का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से कहने लगे ॥187॥ अन्त में उन्होंने कहा कि आप मानुषोत्तर पर्वत के भीतर विद्यमान समस्त संसार को देख लीजिये । हम लोगों के द्वारा आप का कमसे कम यही उपकार हो जावे ॥188॥ देवों के ऐसा कहने पर कुमार ने जब तथास्तु कहकर उनकी बात स्वीकृत कर ली तब देवों ने कुमार को उसके आप्तजनों के साथ अनेक ऋद्धियों से युक्त विमान पर बैठाया और मेघमाला से विभूषित आकाश में ले जाकर यथा-क्रम से चलते चलते, सुन्दर देश दिखलाये ॥189-190॥ वे बतलाते जाते थे कि यह पहला भरतक्षेत्र है, यह उसके आगे हैमवत क्षेत्र है, यह हरिवर्ष क्षेत्र है यह विदेह क्षेत्र है, यह पाँचवाँ रम्यक क्षेत्र है, यह हैरण्यवत क्षेत्र है और यह ऐरावत क्षेत्र है । इस प्रकार हे स्वामिन् ! सात कुलाचलोंसे विभाजित ये सात क्षेत्र हैं ॥191-192॥ हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, महामेरू, नील, रूक्मी और शिखरी ये सात प्रसिद्ध कुलाचल हैं ॥193॥ ये पद्यआदि सरोवरोंसे निकलने वाली, समुद्र की ओर जानेवाली, अनेक नदियों से युक्त, मनोहर चौदह महानदियाँ हैं, ॥194॥ गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित्, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा ये उनके नाम हैं ॥195-196॥ देखो, कमलों से सुशोभित ये सोलह ह्णद-सरोवर हैं । पद्य, महापद्य, तिगन्छ, केसरी, महापुण्डरीक, पुण्डरीक, निषध, देवकुरू, सूर्य, दशवाँ सुलस, विद्युत्प्रभ, नीलवान्, उत्तरकुरू, चन्द्र, ऐरावत और माल्यवान् ये उन सोलह ह्णदोंके नाम हैं ॥197-199॥ इनमें से आदि के छह ह्णदोंमें कम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि लक्ष्मी ये इन्द्र की वल्लभा व्यन्तर देवियाँ रहती हैं ॥200॥ बाकीके दश ह्णदोंमे उसी नाम के नागकुमारदेव सदा निवास करते हैं । हे महाभाग ! इधर देखो, ये देखने योग्य वक्षार पर्वत हैं ॥201॥ चित्रकूट, पद्मकूट, नलिनकूट, एकशैल, त्रिकूट, वैश्रवणकूट, अंजनात्म, अन्जन, श्रद्धावान्, विजयावती, आशीविष, सुखावह, चन्द्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल और देवमाल ये सोलह इनके नाम हैं । इनके सिवाय गन्धमादन, माल्यवान् विद्यत्प्रभ और सौमनस्य ये चार गजदन्त हैं । ये सब पर्वत उत्पत्ति तथा विनाश से दूर रहते हैं-अनादिनिधन हैं । इधर स्वच्छ जल से भरी हुई ये विभंग नदियाँ हैं ॥202–205॥ ह्णदा, ह्णदवती, पंकवती, तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला, क्षीरोदा, शीतोदा, स्त्रोतोऽन्तर्वाहिनी, गन्धमालिनी, फेनमालिनी और ऊर्मिमालिनी ये बारह इनके नाम हैं ॥206–207॥ हे कुमार ! स्पष्ट देखिये, कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, रम्यका, रमणीया, मंडलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मावती, शंखा, नलिना, कुमुदा, सरिता, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गन्धा, सुगन्धा, गन्धावत्सुगन्धा और गन्धमालिनी ये बत्तीस विदेहक्षेत्रके देश हैं । तथा क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खंग, मंजूषा, औषधी, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा अंकवती, पद्मावती, शुभ,रत्नसंचया, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, विजया, वैजयन्त, जयंती, अपराजिता, चक्रपुरी, खंगपुरी, अयोध्या और अवध्या ये बत्तीस नगरियाँ उन देशों की राजधानियाँ हैं । ये वक्षार पर्वत, विभंग नदी और देश आदि सब सीता नदी के उत्तर की ओर मेरू पर्वत के समीपसे प्रदक्षिणा रूप से वर्णन किये हैं । इनके सिवाय उन व्यन्तर देवों ने समुद्र, वन आदि जो जो दिखलाये थे वे सब राजकुमार ने देखे । इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वत देखा और उसके बीच में रहने वाले समस्त प्रिय स्थान देखे । अपना तेज प्रकट करनेवाले राजकुमार ने बड़ी प्रीति से अकृत्रिम जिन-मन्दिरों की पूजा की, अर्थपूर्ण स्तुतियों से स्तुति की और तदनन्तर बड़े उत्सवों से युक्त अपने नगर में वापिस आ गये ॥208–220॥ वहाँ आकर उन व्यन्तर देवों ने दिव्य आभरण देकर तथा शान्तिपूर्ण शब्द कहकर राजा की पूजा की और उसके बाद वे निवासस्थान पर चले गये ॥221॥ जो मनुष्य बदले के कार्यसे उपकार रूपी समुद्र को नहीं तिरता है अर्थात् उपकारी मनुष्य का प्रत्युपकार नहीं करता है वह गन्ध रहित फूल के समान जीता हुआ भी मरे के समान है ॥222॥ जब ये दो मुर्गे इस प्रकार उपकार मानने वाले हैं तब फिर मनुष्य अपने शरीर में जीर्ण क्यों होता है ? यदि उसने उपकार नहीं किया तो वह दुष्ट ही है ॥223॥ किसी एक दिन काल-लब्धि से प्रेरित हुए बुद्धिमान् राजा घनरथ अपने मन में शरीरादि का इस प्रकार विचार करने लगे ॥224॥ इस जीव को धिक्कार है । बडे दु:ख की बात है कि यह जीव शरीर को इष्ट समझकर उसमें निवास करता है परन्तु यह इस शरीर को विष्ठा के घर से भी अधिक घृणास्पद नहीं जानता ॥225॥ जो संतोष उत्पन्न करनेवाले हों उन्हें सुख कहते हैं । परन्तु ऐसे सुख इस संसार में प्राणियों को मिलते ही कहाँ हैं ? यह कोई मोहका ही उदय समझना चाहिए कि जिसमें यह प्राणी पाप के कारणभूत दु:खों को सुख समझने लगता है ॥226॥ जन्म से लेकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त यदि जीव के जीवित रहने का निश्चय होता तो भी ठीक है परन्तु यह क्षणभर भी जीवित रहेगा जब इस बात का भी निश्चय नहीं है तब यह जीव आत्महित करने में तत्पर क्यों नहीं होता ? ॥227॥ ये भाई-बनधु एक प्रकार के बन्धन हैं और सम्पदाएँ भी प्राणियोंके लिए विपत्ति रूप हैं । यदि ऐसा न होता तो पहलेके सज्जन पुरूष जंगलके मध्य क्यों जाते ? ॥228॥ इधर महाराज घनरथ ऐसा चिन्तवन कर रहे थे कि उसी समय अवधिज्ञान से जानकर लौकान्तिक देव उनके इष्ट पदार्थ का समर्थन करने के लिए आ पहुँचे ॥229॥ वे कहने लगे कि हे देव ! आपके लिए हित का उपदेश कौन दे सकता है ? आप स्वयं ही हेय उपादेय पदार्थ को जानते हैं । इस प्रकार सज्जनों के द्वारा स्तुति करने योग्य भगवान् घनरथ की लौकान्तिक देवों ने स्तुति की । स्वर्गीय पुष्पों से उनकी पूजा की, अपना नियोग पालन किया और यह सब कर वे अपने-अपने स्थान पर जाने के लिए आकाश में जा पहुँचे ॥230–231॥ तदनन्तर भगवान् घनरथ ने अभिषेक-पूर्वक मेघरथके लिए राज्य दिया, देवों ने उनका अभिषेक किया और इस तरह उन्होंने स्वयं संयम धारण कर लिया ॥232॥ उन्होंने मन-वचन कायको शुद्ध बना लिया था, इन्द्रियों को जीत लिया था, जिसका फल अच्छा नहीं ऐेसे नीच कहे जाने वाले कषाय रूपी विषको उगल दिया था, उत्तम बुद्धि प्राप्त की थी, सब ममता छोड़ दी थी, क्षपकश्रेणी पर चढ़कर क्रम-क्रम से सब कर्मों को उखाड़ कर दूर कर दिया था और केवलज्ञान प्राप्त करने के योग्य निर्मल भाव प्राप्त किये थे ॥233-234॥ उस समय भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने से देवों के आसन कम्पित हो गये । उन्होंने आकर सर्व वैभवके साथ उनकी पूजा की ॥235॥ किसी एक समय राजा मेघरथ अपनी रानियोंके साथ विहार कर देवरमण नामक उद्यानमें चन्द्रकान्त मणिके शिलातल पर बैठ गया ॥236॥ उसी समय उसके ऊपर से कोई विद्याधर जा रहा था । उसका विमान आकाश में ऐसा रूक गया जैसा कि मानो किसी बड़ी चट्टान में अटक गया हो ॥237॥ विमान रूक जाने से वह बहुत ही कुपित हुआ । राजा मेघरथ जिस शिलापर बैठे थे वह उसे उठाने के लिए उद्यत हुआ परन्तु राजा मेघरथ ने अपने पैर के अंगूठा से उस शिला को दबा दिया जिससे वह शिला के भार से बहुत ही पीडि़त हुआ ॥238॥ जब वह शिला का भार सहन करने में असमर्थ हो गया तब करूण शब्द करता हुआ चिल्लाने लगा । यह देख, उसकी स्त्री विद्याधरी आई और कहने लगी कि हे नाथ ! मैं अनाथ हुई जाती हूं, मैं याचना करती हूं, मुझे पति-भिक्षा दीजिये । ऐसी प्रार्थना की जाने पर मेघरथ ने अपना पैर ऊपर उठा लिया । यह सब देख प्रियमित्रा ने राजा मेघरथ से पूछा कि हे नाथ ! यह सब क्या है ?॥239-240॥ यह सुन राजा मेघरथ कहने लगा कि विजयार्धपर्वत पर अलका नगरी का राजा विद्युद्दंष्ट विद्याधर है । अनिलवेगा उसकी स्त्री का नाम है । यह उन दोनों का सिंहरथ नाम का पुत्र है । यह जिनेन्द्र भगवान् की वन्दनाकर अमित नामक विमान में बैठा हुआ आ रहा था कि इसका विमान किसी कारण से मेरे ऊपर रूक गया, आगे नहीं जा सका । जब उसने सब दिशाओं की ओर देखा तो मैं दिख पड़ा । मुझे देख अहंकार के कारण उसका शरीर क्रोध से काँपने लगा । वह शिलातल के साथ हम सब लोगों को उठानेके लिए उद्यम करने लगा । मैंने पैर का अँगूठा दबा दिया जिससे यह पीडित हो उठा । यह उसकी मनोरमा नाम की स्त्री है । राजा मेघरथ ने यह कहा । इसे सुनकर प्रियमित्रा रानी ने फिर पूछा कि इसके इस क्रोध का कारण क्या है ॥241-244॥ यही है कि और कुछ है ? इस जन्म सम्बन्धी या अन्य जन्म सम्बन्धी ? प्रियमित्राके ऐसा पूछने पर मेघरथ ने कहा कि यही कारण है । अन्य नहीं है, इतना कहकर वह उसके पूर्वभव कहने लगा ॥245॥ दूसरे धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्धभाग में जो ऐरावत क्षेत्र है, उसके शंखपुर नगर में राजा राजगुप्त राज्य करता था । उसकी स्त्री का नाम शन्खिका था । एक दिन इन दोनों ही पति-पत्नियों ने शंखशैल नामक पर्वत परस्थित सर्वगुप्त नामक मुनिराज से जिन गुण ख्याति नामक उपवास साथ-साथ ग्रहण किया । किसी दूसरे दिन धृतिषेण नाम के मुनिराज भिक्षाके लिए घूम रहे थे । उन्हें देख दोनों दम्पतियों ने उनके लिए भिक्षा देकर रत्नवृष्टि आदि पन्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥246-248॥ तदनन्तर राजा राजगुप्त ने समाधिगुप्त मुनिराज के पास संन्यास धारण किया जिससे उत्कृष्ट आयु का धारक ब्रह्मेन्द्र हुआ । वहाँ से चयकर सिंहरथ हुआ है । शन्खिका भी संसार में भ्रमणकर तप के द्वारा स्वर्ग गई । वहाँ से च्युत होकर विजयार्धपर्वत के दक्षिण तट पर वस्त्वालय नाम के नगर में राजा सेन्द्रकेतु और उसकी सुप्रभा नाम की स्त्री से मदनवेगा नाम की पुत्री उत्पन्न हुई है ॥249-251॥ यह सुनकर राजा सिंहरथ बहुत ही सन्तुष्ट हुआ । उसने पास जाकर यथायोग्य रीति से राजा मेघरथ की पूजा की सुवर्णतिलक नामक पुत्र के लिए राज्य दिया और बहुत से राजाओं के साथ घनरथ तीर्थकरके समीप जैनी दीक्षा ग्रहण कर ली । इधर बुद्धिमती मदनवेगा भी गुणों की भाण्डार स्वरूप प्रियमित्रा नाम की आर्यिकाके पास जाकर कठिन तपश्चरण करने लगी । सो ठीक ही है क्योंकि कहीं पर क्रोध भी क्रोध का उपलेप दूर करने वाला माना गया है ॥252-254॥ अथानन्तर-अपने पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त हुए श्रेष्ठ राज्यके महोदय से त्रिवर्गके फल की प्राप्ति पर्यन्त जिसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं, जो शुद्ध सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है, व्रतशील आदि गुणों से युक्त है, विनय सहित है, शास्त्र को जानने वाला है, गम्भीर है, सत्य बोलने वाला है, सात परम स्थानों को प्राप्त है, भव्य जीवों में देदीप्यमान है तथा स्त्री पुत्र आदि जिसकी सेवा करते हैं ऐसा राजा मेघरथ किसी दिन आष्टाह्निक पूजा कर जैन धर्म का उपदेश दे रहा था और स्वयं उपवास का नियम लेकर बैठा था कि इनतेमें काँपता हुआ एक कबूतर आया और उसके पीछे ही बड़े वेग से चलने वाला एक गीध आया । वह राजा के सामने खड़ा होकर बोला कि हे देव ! मैं बहुत भारी भूख की वेदना से पीडित हो रहा हूं इसलिए आप, आपकी शरणमें आया हुआ यह मेरा भक्ष्य कबूतर मुझे दे दीजिये । हे दानवीर ! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देते हैं तो वश, मुझे मरा ही समझिये ॥255-260॥ गीधके यह वचन सुनकर युवराज दृढ़रथ कहने लगा कि हे पूज्य ! कहिये तो, यह गीध इस प्रकार क्यों बोल रहा है, इसकी बोली सुनकर तो मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है । अपने छोटे भाई का यह प्रश्न सुनकर राजा मेघरथ इस प्रकार कहने लगा कि इस जम्बूद्वीप में मेरूपर्वत के उत्तर की ओर स्थित ऐरावत क्षेत्रके पद्यिनीखेट नामक नगरमे सागरसेन नाम का वैश्य रहता था । उसकी स्त्री का नाम अमितमति था । उन दोनोंके सबसे छोटे पुत्र धनमित्र और नन्दिषेण थे । अपने धनके निमित्त से दोनों लड़ पड़े और एक दूसरे को मारकर ये कबूतर तथा गीध नामक पक्षी हुये हैं ॥261-264॥ गीध के ऊपर कोई एक देव स्थित है । वह कौन है ? यदि यह जानना चाहते हो तो मैं कहता हूँ दमितारिके युद्ध में तुम्हारे द्वारा जो हेमरथ मारा गया था वह संसार में भ्रमणकर कैलाश पर्वत के तट पर पर्णकान्ता नदी के किनारे सोम नामक तापस हुआ । उसकी श्रीदत्ता नाम की स्त्रीके मिथ्याशास्त्रों को जाननेवाला चन्द्र नाम का पुत्र हुआ । वह पन्चाग्नि तप तपकर ज्योतिर्लोक देव उत्पन्न हुआ ॥265-267॥ वह किसी समय स्वर्ग गया हुआ था वहाँ ऐशानेन्द्रके सभासदों ने स्तुति की कि इस समय पृथिवी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा दाता नहीं है । मेरी इस स्तुति को सुनकर इसे बड़ा क्रोध आया । यह उसी क्रोधवश मेरी परीक्षा करने के लिए यहाँ आया है । हे भाई ! चित्त को स्थिरकर दान आदि का लक्षण सुनो ॥268-269॥ अनुग्रह करने के लिए जो कुछ अपना धन या अन्य कोई वस्तु दी जाती है उसे ज्ञानी पुरूषों ने दान कहा है और अनुग्रह शब्द का अर्थ भी अपना और दूसरे का उपकार करना बतलाया जाता है ॥270॥ जो शक्ति विज्ञान श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देने वाले तथा लेने वाले दोनोंके गुणों को बढ़ाने वाली है तथा पीड़ा उत्पन्न करने वाली न हो उसे देय कहते हैं ॥271॥ सर्वज्ञ देखने यह देय चार प्रकार का तबलाया है आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियों पर दया करना । ये चारों ही शुद्ध देय है तथा क्रम’क्रम से मोक्ष के साधन हैं ॥272॥ जो मोक्षमार्ग में स्थित है और अपने आपकी तथा दूसरों की संसार भ्रमण से रक्षा करता है वह पात्र है ऐसा कर्ममल रहित कृतकृत्य जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥273॥ निर्दोष वचन कहते हैं वही उत्तम दाता हैं, वही उत्तम देय हैं और वही उत्तम पात्र हैं ॥274॥ मांस आदि पदार्थ देय नहीं है, इनकी इच्छा करनेवाला पात्र नहीं है, और इनका देनेवाला दाता नहीं है । ये दोनों तो नरक के अधिकारी हैं ॥275॥ कहने का सारांश यह है कि यह गीध दान का पात्र नहीं है और यह कबूतर देने योग्य नहीं है । इस प्रकार मेघरथ की वाणी सुनकर वह ज्योतिषी देव अपना असली रूप प्रकटकर उसकी स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन् ! तुम अवश्य ही दान के विभाग को जानने वाले हो तथा दानके शूर हो । इस तरह पूजाकर चला गया ॥276-277॥ उन गीध और कबूतर दोनों पक्षियों ने भी मेघरथ की कही सब बातें समझीं और अन्त में शरीर छोड़कर वे दोनों देवरमण नामक वन में सुरूप तथा अतिरूप नाम के दो व्यन्तर देव हुए ॥278॥ तदनन्तर राजा मेघरथके पास आकर वे देव इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे राजन् ! आपके प्रसाद से ही हम दोनों कुयोनिसे निकल सके हैं। ऐसा कहकर तथा पूज्य मेघरथ की पूजाकर वे दोनों देव यथास्थान चले गये ॥279॥ किसी समय उस बुद्धिमान् राजा ने चारण ऋद्धिधारी दमवर स्वामी के लिए दान देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥280॥ किसी दूसरे दिन राजा मेघरथ ननदीश्वर पर्व मे महापूजा कर और उपवास धारण कर रात्रि के समय प्रतिमायोग द्वारा ध्यान करता हुआ सुमेरू पर्वत के समान विराजमान था ॥281॥ उसी समय देवों की सभा में ईशानेन्द्र ने यह सब जानकर बड़े हर्ष से कहा कि अहा ? आश्चर्य है आज संसार में तू ही शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और तू ही धीर-वीर है ॥282॥ इस तरह अपने आप की हुई स्तुति को सुनकर देवों ने ईशानेन्द्र से पूछा कि आपने किस सज्जन की स्तुति की है ? उत्तर में इन्द्र देवों से इस प्रकार कहने लगा कि राजाओंमे अग्रणी मेघरथ अत्यन्त धीरवीर है, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, आज वह प्रतिमायोग धारण कर बैठा है । मैंने उसी की भक्ति से स्तुति की है ॥283-284॥ ईशानेन्द्र की उक्त बात को सुनकर उसकी परीक्षा करने में अत्यन्त चतुर अतिरूपा और सुरूपा नाम की दो देवियाँ राजा मेघरथके पास आई और विलास, विभ्रम, हाव-भाव, गीत, बातचीत तथा कामके उन्माद को बढ़ाने वाले अन्य कारणों से उसके मनोबल को विचलित करने का प्रयत्न करने लगीं परन्तु जिस प्रकार बिजलीरूपी लता सुमेरू पर्वत को विचलित नहीं कर सकती उसी प्रकार वे देवियाँ राजा मेघरथके मनोबल को विचलित नहीं कर सकीं। अन्त में वे ‘ईशानेन्द्रके द्वारा कहा हुआ सच है’ इस प्रकार स्तुति कर स्वर्ग चली गई ॥285-287॥ किसी दूसरे दिन ऐशानेन्द्र ने देवों की सभा में अपनी इच्छा से राजा मेघरथ की रानी प्रियमित्राके रूप की प्रशंसा की । उसे सुनकर रतिषेणा और रति नाम की दो देवियाँ उसका रूप देखनेके लिए आई । वह स्नान का समय था अत: प्रियमित्राके शरीर में सुगन्धित तेल का मर्दन हो रहा था । उस समय प्रियमित्रा को देखकर देवियोंने इन्द्रके वचन सत्य समझे । अनन्तर उसके साथ बातचीत करने की इच्छा से उन देवियों ने कन्या का रूप धारण कर सखीके द्वारा कहला भेजा कि दो धनिक कन्याएँ-सेठ की पुत्रियाँ आपके दर्शन करना चाहती हैं । उनका कहा सुनकर प्रियमित्रा ने हर्ष से कहा कि ‘बहुत अच्छा, ठहरें’ इस प्रकार उन्हें ठहराकर रानी प्रियमित्रा ने अपनी सजावट की । फिर उन कन्याओं को बुलाकर अपने आपको दिखलाया-उनसे भेंट की । रानी को देखकर दोनों देवियाँ कहने लगी कि ‘जैसी कान्ति पहले थी अब वैसी नहीं है’ कन्याओं के वचन सुनकर प्रियमित्रा राजा का मुख देखने लगी । उत्तर में राजा ने भी कहा कि हे प्रिये ! बात ऐसी ही है ॥288-293॥ तदनन्तर देवियों ने अपना असली रूप धारण कर अपने आने का समाचार कहा और इसके विलक्षण किन्तु नश्वर रूप को धिक्कार हो । इस संसार में कोई भी वस्तु अभंगुर नहीं है इस प्रकार ह्णदय से विरक्त हो रानी प्रियमित्रा की पूजा कर वे देवियाँ अपनी दीप्ति से दिशाओं के तट को व्याप्त करती हुई स्वर्ग को चली गई ॥294-295॥ इस कारण से रानी प्रियमित्रा खिन्न हुई परन्तु ‘यह समस्त संसारही नित्यानित्यात्मक है अत: ह्णदय में कुछ भी शोक मत करो’ इस प्रकार राजा ने उसे समझा दिया ॥296॥ इस तरह अपनी स्त्रियों के साथ राज्य का उपभोग करते हुए राजा मेघरथ बहुत ही आनन्द को प्राप्त हो रहे थे। किसी दूसरे दिन वे मनोहर नामक उद्यान में गये । वहाँ उन्होंने सिंहासन पर विराजमान तथा देव और धरणेन्द्रों से परिवृत अपने पिता घनरथ तीर्थंकर के दर्शन किये । समस्त परिवार के साथ उन्होंने तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, वन्दना की और समस्त भव्य जीवों के हित की इच्छा करते हुए श्रावकों की क्रिया पूछी सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों की चेष्टा कल्पवृक्ष के समान प्राय: परोपकार के लिए ही होती है ॥297-299॥ हे देव ! जिन श्रावकों के ग्यारह स्थान पहले विभाग कर बतलाये हैं उन्हीं श्रावकों की क्रियाओं का निरूपण करने वाला उपासकाध्ययन नाम का सातवाँ अंग, हित की इच्छा करने वाले श्रावकों के लिए कहिए । इस प्रकार राजा मेघरथ के पूछने पर मनोरथ को पूर्ण करने वाले घनरथ तीर्थकर निम्न प्रकार वर्णन करने लगे ॥300-301॥ उन्होंने कहा कि श्रावकों की क्रियाएँ गर्भान्वय, दीक्षान्वय और क्रियान्वय की अपेक्षा तीन प्रकार की हैं इनकी संख्या इस प्रकार है ॥302॥ पहली गर्भान्वय क्रियाएँ गर्भाधान को आदि लेकर निर्वाण पर्यन्त होती हैं इनकी संख्या त्रेपन है, ये सम्यग्दर्शन की शुद्धता को धारण करने वाले जीवों के होती हैं तथा इनका वर्णन पहले किया जा चुका है ॥303॥ अवतार से लेकर निर्वाण पर्यन्त होने वाली दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस कही गई हैं । ये मोक्ष प्राप्त कराने वाली हैं ॥304॥ और सद्गृहित्व को आदि लेकर सिद्धि पर्यन्त सात कर्त्रन्वय क्रियाएँ हैं । इन सबका ठीक-ठीक स्वरूप यह है, करने की विधि यह है तथा फल यह है । इस प्रकार घनरथ तीर्थकर ने विस्तार से इन सब क्रियाओं का वर्णन किया । इस तरह राजा मेघरथ ने घनरथ तीर्थंकर के द्वारा कहा हुआ श्रावक धर्म का वर्णन सुन कर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपने ह्णदय को अत्यन्त शान्त बना लिया ॥305-306॥ शरीर, भोग और संसार की दुर्दशा का बार-बार विचार करते हुए वे संयम धारण करने के सम्मुख हुए । उन्होंने छोटे भाई दृढ़रथ से कहा कि तुम राज्य पर बैठो । परन्तु दृढ़रथ ने उत्तर दिया कि आपने राज्य में जो दोष देखा है वही दोष मैं भी तो देख रहा हूँ । जब कि यह राज्य ग्रहण कर बाद में छोड़ने के ही योग्य है तब उसका पहले से ही ग्रहण नहीं करना अच्छा है। लोक में कहावत है कि कीचड़ को धोने की अपेक्षा उसका दूर से ही स्पर्श नहीं करना अच्छा है। ऐसा कह कर जब दृढ़रथ राज्य ग्रहण करने से विमुख हो गया तब उन्होंने मेघसेन नामक अपने पुत्र के लिए विधिपूर्वक राज्य देदिया और छोटे भाई तथा सात हजार अन्य राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली । वे क्रम-क्रम से ग्यारह अंग के जानकार हो गये । उसी समय उन्होंने तीर्थकर नाम-कर्म के बन्ध्ा में कारणभूत निम्नांकित सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया ॥307-311॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रूचि होना सो दर्शनविशुद्धि है । उसके नि:शंकता आदि आठ अंग हैं ॥312॥ मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले मनुष्य के लिए जो फल बतलाया है वह होता है या नहीं इस प्रकार की शंका का त्याग नि:शंकता कहलाती है ॥313॥ मिथ्यादृष्टि जीव इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों की जो आकांक्षा करता है उसका त्याग करना आगम में नि:कांक्षित नाम का दूसरा अंग बतलाया है । इससे सम्यग्दर्शन की विशुद्धता होती है ॥314॥ शरीर आदि में अशुचि अपवित्र पदार्थों का सद्भाव है ऐसा जानते हुए भी ‘मैं पवित्र हूँ’ ऐसा जो संकल्प होता है उसका त्याग करना निर्विचिकित्सा नाम का अंग है ॥315॥ यदि यह बात अर्हन्तके मन में न होती तो सब ठीक होता इस प्रकार का आग्रह मिथ्या आग्रह है उसका त्याग करना सो निर्विचिकित्सा अंग है ॥316॥ जो वास्तव में तत्त्व नहीं है किन्तु तत्तव की तरह प्रतिभासित होते हैं ऐसे बहुत से मिथ्यानयके मार्गों में ‘यह ठीक है’ इस प्रकार मोह का नहीं होना अमूढ़ दृष्टि अंग कहलाता है ॥317॥ क्षमा आदि की भावनाओं से आत्म धर्म की वृद्धि करना सो सम्यग्दृष्टियों को प्रिय सम्यग्दर्शन का उपबृंहण नाम का अंग है ॥318॥ कषाय का उदय आदि होना धर्मनाश का कारण है । उसके उपस्थित होने पर अपनी या दूसरे की रक्षा करना अर्थात् दोनों को धर्म से च्युत नहीं होने देना सो स्थितिकरण अंग है ॥319॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए समीचीन धर्मरूपी अमृत में निरन्तर अनुराग रखना सो वात्सलय अंग है और मार्ग के माहात्म्य की भावना करना-जिन-मार्ग का प्रभाव फैलाना सो प्रभावना अंग है ॥320॥ सम्यग्ज्ञानादि गुणों तथा उनके धारकों का आदर करना और कषाय रहित परिणाम रखना इन दोनों को सज्जन पुरूष विनय सम्पन्नता कहते हैं ॥321॥ व्रत तथा शील से युक्त चारित्र के भेदों में निर्दोषता रखना-अतिचार नहीं लगाना, शास्त्र के उत्तमज्ञाता पुरूषों के द्वारा शीलव्रतानतीचार नाम की भावना कही गई है ॥322॥ निरन्तर शास्त्र की भावना रखना सो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है । संसार के दु:सह दु:ख से निरन्तर डरते रहना संवेग कहलाता है ॥323॥ पात्रों के लिए आहार, अभय और शास्त्र का देना त्याग कहलाता है । आगम के अनुकूल अपनी शक्ति के अनुसार कायक्लेश करना तप कहलाता है ॥324॥ किसी समय बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से मुनिसंघ के तपश्चरण में विघ्न उपस्थित होने पर मुनिसंघ की रक्षा करना साधुसमाधि है ॥325॥ निर्दोष विधि से गुणियों के दुख दूर करना यह तप का श्रेष्ठ साधन वैयावृत्त्य है ॥326॥ अरहन्त देव, आचार्य, बहुश्रुत तथा आगमन में मन वचन काय से भावों की शुद्धतापूर्वक अनुराग रखना कम से अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति भावना है ॥327॥ मुनि के जो सामायिक आदि छह आवश्यक बतलाये हैं उनमें यथा समय आगम के कहे अनुसार प्रवृत्त होना सो आवश्यकापरिहाणि नामक भावना है ॥328॥ ज्ञान से, तप से, जिनेन्द्र देव की पूजा से, अथवा अन्य किसी उपाय से धर्म का प्रकाश फैलाने को विद्वान् लोग मार्ग प्रभावना कहते हैं ॥329॥ और बछड़े में गाय के समान सहधर्मी पुरूष में जो स्वाभाविक प्रेम है उसे प्रशंसा के पारगामी पुरूष वात्सल्य भावना कहते हैं ॥330॥ श्री जिनेन्द्रदेव इन सोलह भावनाओं को सब मिलकर अथवा अलग अलग रूप से तीर्थकर नाम कर्म के बंध का कारण मानते हैं ॥331॥ मेघरथ मुनिराज ने इन भावनाओं से उस निर्मल तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध किया था कि जिससे तीनों लोकों में क्षोभ हो जाता है ॥332॥ वे क्रम-क्रम से अनेक देशों में विहार करते हुए श्रीपुर नामक नगर में गये । वहाँ के राजा श्रीषेण ने उन्हें योग्य विधि से आहार दिया । इसके पश्चात नन्दपुर नगर नन्दन नाम के भक्तिवान् राजा ने आहार दिया और तदनन्तर पुण्डरीकिणी नगरी में निर्मल सम्यग्दृष्टि सिंहसेन राजा ने आहार कराया । वे मुनिराज ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपकी अनेक पर्यायों को अच्छी तरह बढा रहे थे । उन्हें दान देकर उक्त सभी राजाओं ने पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥333–335॥ अत्यन्त धीर वीर मेघ रथ ने दृढरथके साथ-साथ नभस्तिलक नामक पर्वतपर श्रेष्ठ संयम धारण कर एक महीने तक प्रायोपगमन संन्यास धारण किया और अन्त में शान्त परिणामों से शरीर छोडकर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया ॥336–337॥ वहाँ इन दोनों की तैंतीस सागर की आयु थी । चन्द्रमा के समान उज्जवल एक हाथ ऊँचा शरीर था, शुल्क लेश्या थी, वे साढे सोलह माह में एक बार श्वास लेते थे, तैंतीस हजार वर्ष बाद एक बार अमृतमय आहार ग्रहण करते थे, प्रवीचाररहित सुख से युक्त थे, उनके अवधिज्ञान रूपी नेत्र लोकनाडी के मध्यवर्ती योग्य पदार्थों को देखते थे, उनकी शक्ति दीप्ति तथा विक्रिया का क्षेत्र भी अवधिज्ञान के क्षेत्र के बराबर था । इस प्रकार वे वहाँ चिरकालतक स्थित रहे । वहाँ से च्युत हो एक जन्म धारणकर वे नियम से मोक्षलक्ष्मी का समागम प्राप्त करेंगे ॥338–341॥ अथानन्तर-भरत क्षेत्र में एक कुरूजांगल नाम का देश है, जो आर्य क्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित है, सब प्रकार के धान्यों का उत्पत्तिस्थान है और सबसे बडा है ॥342॥ वहाँ पर पानकी बेलों से लिपटे एवं फलों से युक्त सुपारी के वृक्ष ऐसे जान पडते हैं मानों पुरूष और बालकों के आलिंगन का सुख ही प्रकट कर रहे हों ॥343॥ वहाँ चोच जाति के वृक्ष किसी उत्तम राजा के समान सुशोभित होते हैं क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा महाफल-भोगोपभोग के उत्तम पदार्थ प्रदान करता है उसी प्रकार चोच जाति के वृक्ष महा फल-बडे-बडे फल प्रदान करते हैं, जिस प्रकार उत्तम राजा तुंग-उदारचित्त होता है उसी प्रकार चोच जाति के वृक्ष तुंग-ऊँचे थे, जिस प्रकार राजा बद्धमूल-पक्की जड़ वाले होते हैं उसी प्रकार चोच जाति के वृक्ष भी बद्धमूल-पक्की जड वाले थे । जिस प्रकार उत्तम राजा मनोहर-अत्यन्त सुन्दर होते हैं उसी प्रकार चोच जाति के वृक्ष भी मनोहर-अत्यन्त सुन्दर थे, और जिस प्रकार उत्तम राजा सत्पत्र-अच्छी अच्छी सवारियों से युक्त होते हैं उसी प्रकार चोच जाति के वृक्ष भी सत्पत्र –अच्छे अच्छे पत्तों से युक्त थे ॥344॥ वहाँ के केले के वृक्ष स्त्रियों के समान उत्तमप्रीति करनेवाले थे क्योंकि जिस प्रकार केले के वृक्ष सद्दृष्टि-देखने में अच्छे लगते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी सद्दृष्टि-अच्छी आँखों वाली थीं, जिस प्रकार केलेके वृक्ष सुकुमार होते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी सुकुमार थीं, जिस प्रकार केलेके वृक्ष छाया-अनातपसे युक्त होते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी छाया-कान्ति से युक्त थीं, जिस प्रकार केले के वृक्ष रसीले होते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ सबसे अधिक सुन्दर थीं ॥345॥ वहाँ के सुन्दर आम के वृक्ष फलों से झुक रहे थे, नई नई कोंपलों तथा फूलों से उज्जवल थे, कोकिलाओं के वार्तालाप से मुखरित थे, और चंचल भ्रमरों के समूह से व्यग्र थे ॥346॥ जिनमें बडे-बडे पके फल लगे हुए हैं, जिनकी निकलती हुई गन्ध से भ्रमर अंधे हो रहे थे, और जो मूल से ही लेकर फल देनेवाले थे ऐसे कटहल के वृक्ष वहाँ अधिक सुशोभित होते थे ॥347॥ फूलों के भार से झुकी हुई वहाँ की झाडियाँ, लताएँ और वृक्ष सभी ऐसे जान पडते थे मानो कामदेव रूपी राजा के क्रीडाभवन ही हों ॥348॥ वहाँ की भूमि में गडढे नहीं थे, छिद्र नहीं थे पत्थर नहीं थे, ऊषर जमीन नहीं थी, आठ भय नहीं थे किन्तु इसके विपरीत वहाँ की भूति सदा फल देती रहती थी ॥349॥ जिस प्रकार प्रमादरहित श्रेष्ठ चारित्र को पालन करने वाले द्विज कभी प्रायश्चित नहीं प्राप्त करते उसी प्रकार वहाँ की प्रजा अपनी-अपनी मर्यादा का पालन करने से कभी दण्ड का भय नहीं प्राप्त करती थी ॥350॥ जिन में निरन्तर मच्छ - जलचर जीव रहते हैं, जो स्वच्छ जल से भरे हुए हैं, और अनेक प्रकार के फूलों से आच्छादित हैं ऐसे वहाँ के सरोवर ज्योतिर्लोककी शोभा हरण करते हैं ॥351॥ वहाँ के वृक्ष ठीक राजाओं के समान आचरण करते थे क्योंकि जिस प्रकार राजा पुष्यनेत्र-कमलपुष्प के समान नेत्रों वाले होते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी समुत्तंग-बहुत ऊँचे थे, जिस प्रकार राजा विटपायतबाहु होते हैं-शाखाओं के समान लम्बी भुजाओं से युक्त होते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी विटपायतबाहव: - शाखाएँ ही जिनकी लम्बी भुजाएँ हैं ऐसे थे और जिस प्रकार राजा सदा उत्तमफल प्रदान करते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी सदा सुन्दर फलों को धारण करने वाले थे ॥352॥ वहाँ की अनेक प्रकार की लताएँ स्त्रियों के समान सुशोभित हो रही थीं क्योकिं जिस प्रकार स्त्रियों के लाल लाल ओठ होते हैं उसी प्रकार वहाँ की लताओं में लाल पल्लव थे, जिस प्रकार स्त्रियाँ मन्द मन्द मुसकान से सहित होती हैं उसी प्रकार वहाँ की लताएँ फूलों से सहित थीं, जिस प्रकार स्त्रियाँ तन्वंगी-पतली होती हैं उसी प्रकार वहाँ की लताएँ भी तन्वंगी-पतली थीं, जिस प्रकार स्त्रियाँ काले काले केशों से युक्त होती हैं उसी प्रकार वहाँ की लताएँ भी काले काले भ्रमरों से युक्त थीं, और जिस प्रकार स्त्रियाँ सत्पत्र-उत्तमोत्तम पत्र –रचनाओं से सहित होती हैं उसी प्रकार वहाँ की लताएँ भी उत्तमोत्तम पत्रों से युक्त थी ॥353॥ जो मूल से लेकर मध्यभाग तक रसिक हैं और अन्त में नीरस हैं ऐसे दुर्जनों को जीतनेवाले ईख ही वहाँ पर यन्त्रों द्वारा अच्छी तरह पीडे जाते थे ॥354॥ वहाँ पर लोप-अनुबन्ध आदि का अदर्शन शब्दों के सिद्ध करने में होता था अन्य दूसरे का लोप-नाश नहीं होता था, नाश पापरूप प्रवृत्तियों का होता था, दाह विरही मनुष्यों में होता था और बेध अर्थात् छेदना दोनों कानों में होता था, दूसरी जगह नहीं ॥355॥ दण्ड केवल लकडि़यों में था । वहाँ के प्रजा में दण्ड अर्थात् जुर्माना नहीं था, निर्स्त्रिशता अर्थात् तीक्ष्णता केवल शस्त्रों में थी वहाँ की प्रजामें निर्स्त्रिशता अर्थात् दुष्टता नहीं थी, निर्धनता अर्थात् निष्परिग्रहता तपस्वियों में ही थी वहाँ के मनुष्यों में निर्धनता अर्थात् गरीबी नहीं थी और विदानत्व अर्थात् दान देने का अभाव नहीं था ॥356॥ निर्लज्जपना केवल संभोग क्रियाओं में था, याचना केचल सुन्दर कन्याओं की होती थी, ताप केवल अग्नि से आजीविका करने वालों में था और मारण केवल रसवादियों में था-रसायन आदि बनाने वालों में था ॥357॥ वहाँ कोई असमय में नहीं मरते थे, कोई कुमार्ग में नही चलते थे और मुक्त जीवों तथा मारणान्तिक समुद्घात करने वालों को छोड़कर अन्य कोई विग्रही-शरीर रहित तथा मोड़ा से रहित नहीं थे ॥358॥ मिथ्या नय से द्वेष रखने वाले चारों ही वर्ण वाले जीवों के देवपूजा आदि छह कर्मों में कहीं प्राचीन प्रवृत्ति का उल्लंघन नहीं था अर्थात् देवपूजा आदि प्रशस्त कार्यों की जैसी प्रवृत्त्िा पहले से चली आई थी उसी के अनुसार सब प्रवृत्ति करते थे । यदि प्राचीन प्रवृत्ति के क्रम का उल्लंघन था तो संयम ग्रहण करने वाले के ही था अर्थात् संयमी मनुष्य ही पहले से चली आई असंयमरूप प्रवृत्ति का उल्लंघन संयम की नई प्रवृत्ति स्वीकृत करता था ॥359॥ लीलापूर्वक वृद्धि को प्राप्त हुए एवं सबको सस्न्तुष्ट करने वाले धान्य के पौधे, फल लगने पर अत्यन्त नम्र हो गये थे-नीचे को झुक गये थे अत: किसी अच्छे राजा की उपमा का धारण कर रहे थे ॥360॥ वहाँ मेघ समय पर पानी बरसाते थे, गायें सदा दूध देती थीं, सब वृक्ष फलते थे और फैली हुई लताएँ सदा पुष्पों से युक्त रहती थीं ॥361॥ वहाँ की प्रजा नित्योत्सव थी अर्थात् उसमें निरन्तर उत्सव होते रहते थे, निरातंक थी उसमें किसी प्रकार की बीमारी नहीं होती थी, निर्बन्ध थी हठ रहित थी, धनिक थी, निर्मल थी, निरन्तर उद्योग करती थी और अपने अपने कर्मों में लगी रहती थी ॥362॥ जिस प्रकार शरीर के मध्य में बड़ी भारी नाभि होती है उसी प्रकार उस कुरूजांगल देश के मध्य में एक हस्तिनापुर नाम की नगरी है ॥363॥ अगाध जल में उत्पन्न हुए अनेक पुष्पों–द्वारा जिनकी शोभा बढ़ रही है ऐसी तीन परिखाओं से वह नगर घिरा हुआ था ॥364॥ धूलिके ढेर और कोट की दीवारों से दुर्लड़्घ्य वह नगर गोपुरों से युक्त दरवाजों, अट्टालिकाओं की पंक्तियों तथा बन्दरों के शिर जैसे आकार वाले बुरजों में बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥365॥ वह नगर, राजमार्ग में ही मिलने वाले डराने के लिए बनाये हुए हाथी, घोड़े आदि के चित्रों तथा बहुत छोटे दरवाजों वाली बहुत-सी गलियों से युक्त था ॥366॥ जो सार वस्तुओं से सहित हैं तथा जिनमें सदाचारी मनुष्य इधर से उधर टहला करते हैं ऐसे वहाँ के राजमार्ग स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग के समान सुशोभित होते थे ॥367॥ वहाँ उत्पन्न होने वाले मनुष्यों में श्रेष्ठ वस्तुओं से उज्पन्न हुए नेपथ्य-वस्त्राभूषणादि से कुछ भी भेद नहीं था केवल कुल, जाति, अवस्था, वर्ण, वचन और ज्ञान की अपेक्षा भेद था ॥368॥ उस नगर में राजभवनों के शिखरों के अग्रभाग पर जो ध्वजाएँ फहरा रही थीं उनसे रूक जाने के कारण जब सूर्य पर बादलों का आवरण्नहीं रहता उन दिनों में भी घूप का प्रवेश नहीं हो पाता था ॥369॥ पुष्प, अंगराग तथा धूप आदि की सुगन्धि से अन्धे होकर जो भ्रमर आकाश में इधर-उधर उड़ रहे थे उनसे घर के मयूरों को वर्षा ऋतु की शंका हो रही थी ॥370॥ वहाँ रूप, लावण्य तथा कान्ति आदि गुणों से युक्त युवक युवतियों के साथ और युवतियाँ युवकों के साथ रहती थीं तथा परस्पर एक दूसरे को सुख पहुँचाती थीं ॥371॥ वहाँ काम को उद्दीपित करने वाले पदार्थ, स्वाभाविक प्रेम, तथा कान्ति आदि गुणों से स्त्री-पुरूषों में निरन्तर प्रीति बनी रहती थी ॥372॥ वहाँ धर्म अहिंसा रूप माना जाता था, मुनि इच्छारहित थे, और देव रागादि दोषों से रहित अर्हन्त ही माने जाते थे इसलिए वहाँ के सभी मनुष्य धर्मात्मा थे ॥373॥ वहाँ के श्रावक, चक्की चूला आदि पाँच कार्यों से जो थोड़ा–सा पाप संचित करते थे उसे पात्रदान आदि के द्वारा शीघ्र ही नष्ट कर डालते थे ॥374॥ वहाँ का राजा न्यायी था, प्रजा धर्मात्मा थी, क्षेत्र जीवरहित-प्रासुक था, और प्रतिदिन स्वाध्याय होता रहता था इसलिए मुनिराज उस नगर को कभी नहीं छोड़ते थे ॥375॥ जिनके वृक्ष अनेक पुष्प और फलों से नम्र हो रहे हैं तथा जो सबको आनन्द देने वाले हैं ऐसे उस नगर के समीपवर्ती वनों से इन्द्रा का नन्दन वन भी जीता जाता था ॥376॥ संसार में जितनी श्रेष्ठ वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं उन सबका अपनी उत्पत्ति के स्थान में उपभोग करना अनुचित है इसलिए सब जगह की श्रेष्ठ वस्तुएँ उसी नगर में आती थीं और वहाँ के रहने वाले ही उनका उपभोग करते थे । यदि कोई पदार्थ वहाँ से बाहर जाते थे तो दान से ही बाहर जा सकते थे इस तरह वह नगर पूर्वोक्त त्यागी तथा भोगी जनों से व्याप्त था ॥377-378॥ उस नगर के सब लोग तादात्विक थे-सिर्फ वर्तमान की ओर दृष्टि रखकर जो भी कमाते थे उसे खर्च कर देते थे । उनकी यह प्रवृत्ति दोषाधायक नहीं थी क्योंकि उनके पुण्य से वस्तुएँ प्रतिदिन बढ़ती थीं ॥379॥ उस नगर में ब्रह्मस्थान के उत्तरी भूभाग में राजमन्दिर था जो कि देदीप्यमान भद्रशाल-उत्तमकोट आदि से विभूषित था और भद्रशाल आदि वनों से सुशोभित महामेरू के समान जान पड़ता था ॥380॥ उस राजमन्दिर के चारों ओर यथायोग्य स्थानों पर जो अन्य देदीप्यमान सुन्दर महल बने हुए थे वे मेरू के चारों ओर स्थित नक्षत्रों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥381॥ उस हस्तिनापुर राजधानी में काश्यपगोत्री देदीप्यमान राजा अजितसेन राज्य करते थे । उनके चित्त तथा नेत्रों को आनन्द देनी वाली प्रियदर्शना नाम की स्त्री थी । उसने बालचन्द्रमा आदि शुभ स्वप्न देखकर ब्रह्मस्वर्ग से च्युत हुए विश्वसेन नामक पुत्र को उत्पन्न किया था ॥382-383॥ गन्धार देश के गन्धार नगर के राजा अजितन्जय के उनकी अजिता रानी से सनत्कुमार स्वर्ग से आकर ऐरा नाम की पुत्री हुई थी और यही ऐरा राजा विश्वसेन की प्रिय रानी हुई थी । श्री ह्री धृति आदि देवियाँ उसकी सेवा करती थीं । भादों बदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रात्रि के चतुर्थ भाग में उसने साक्षात् पुत्र रूप फल को देने वाले सोलह स्वप्न देखे ॥384-386॥ अल्पनिद्रा के बीच जिसे कुछ-कुछ ज्ञान प्राप्त हो रहा है तथा जिसके मुख से शुद्ध सुगन्धि प्रकट हो रही है ऐसी रानी ऐरा ने सोलह स्वप्न देखने के बाद अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा ॥387॥ उसी समय मेघरथ का जीव स्वर्ग से च्युत होकर रानी ऐरा के गर्भ में आकर उस तरह अवतीर्ण हो गया जिस तरह कि शुक्ति में मोती रूप परिणमन करने वाली पानी की बूँद अवतीर्ण होती है ॥388॥ उसी समय सोती हुई सुन्दरी को जगाने के लिए ही मानो उसके शुभ स्वप्नों को सूचित करने वाली अन्तिम पहर की भेरी मधुर शब्द करने लगी ॥389॥ उस भेरी को सुनकर रानी ऐरा का मुख-कमल, कमलिनी के समान खिल उठा। उसने शय्यागृह से उठकर मंगल-स्नान किया, उस समय के योग्य वस्त्राभूषण पहने और चलती-फिरती कल्पलता के समान राजसभा को प्रस्थान किया । उस समय वह अपने ऊपर लगाये हुए सफेद छत्र से बालसूर्य की किरणों के समूह को भयभीत कर रही थी, ढुरते हुए चमरों से अपना बडा भारी अभ्युदय प्रकट कर रही थी, और पासमें रहने वाले कुछ लोगों से सहित थी । जिस प्रकार रात्रि में चन्द्रमा की रेखा प्रवेश करती है उसी प्रकार उसने राजसभा में प्रवेश किया । औपचारिक विनय करनेवाली उस रानी को राजा ने अपना आधा आसन दिया ॥390–393॥ उसने अपने द्वारा देखी हुई स्वप्नावली क्रम-क्रम से राजा को सुनाई और अवधिज्ञान रूपी नेत्र को धारण करने वाले राजा से उनका फल मालूम किया ॥394॥ उसी समय चतुर्णिकायके देवों के साथ स्वर्ग से इन्द्र आये और आकर गर्भावतारकल्याणक करने लगे ॥395॥ उधर रानी के गर्भ में इन्द्र बडे अभ्युदय के साथ बढने लगा और इधर त्रिलोकीनाथ की माता रानी पन्द्रह माह तक देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त करती रही । जब नवाँ माह आया तब उसने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन याम्ययोग में प्रात:काल के समय पुत्र उत्पन्न किया । वह पुत्र ऐसा सुन्दर था मानो समस्त संसार के आनन्द का समूह ही हो । साथ ही अत्यन्त निर्मल मति-श्रुत-अवधिज्ञानरूपी तीन उज्ज्वल नेत्रों का धारक भी था ॥396-398॥ शंखनाद, भेरीनाद, सिेंहनाद और घंटानाद से जिन्हें जिन-जन्म की सूचना दी गई है ऐसे चारों निकायों के देवों ने मिलकर जिनेन्द्र भगवान् का जन्मोत्सव बढ़ाया ॥399॥ उस समय दिशाओं के मध्यको प्रकाशित करने वाली महादेवी इन्द्राणी ने गर्भ-गृह में प्रवेश किया और कुमारसहित पतिव्रता जिन माता ऐरा को मायामयी निद्रा ने वशीभूत कर दिया । उसने पूजनीय जिन माता को प्रदक्षिणा देकर प्रणाम किया और एक मायामयी बालक उसके सामने रख कर जिन्हें सर्वदेव नमस्कार करते हैं ऐसे श्रेष्ठ कुमार जिन-बालक को उठा लिया तथा अपनी दोनों कोमल भुजाओं से ले जाकर इन्द्र के हाथों में सौंप दिया। इन्द्र ने इन्हें ऐरावत हाथी के कन्धे पर विराजमान कर क्षीर-महासागर के जल से उनका अभिषेक किया था इसी प्रकार इन्हें भी सुमेरू पर्वत के मस्तक पर विराजमान कर क्षीर-महासागर के जल से इनका अभिषेक किया ॥399–404॥ यद्यपि भगवान् स्वयं उत्तमोत्तम आभूषणों में से एक आभूषण थे तथापि इन्द्र ने केवल आचार का पालन करने के लिए ही उन्हें आभूषणों से विभूषित किया था ॥405॥ 'ये भगवान् सबको शान्ति देनेवाले हैं इसलिए "शान्ति" इस नाम को प्राप्त हों' ऐसा सोच कर इन्द्र ने अभिषेक के बाद उनका शान्तिनाथ नाम रक्खा ॥406॥ तदनन्तर धर्मेन्द्र सब देवों के साथ बडे प्रेम से सुमेरू पर्वत से राजमन्दिर आया और मातासे सब समाचार कह कर उसने वे त्रिलोकीनाथ माता को सौंप दिये ॥407॥ जिसे आनन्द प्रकट हो रहा है तथा जिसके अनेक भावों और रसों का उदय हुआ है ऐसे इन्द्र ने नृत्य किया सो ठीक ही है क्योंकि जब हर्ष मर्यादा का उल्लघंन कर जाता है तो किस रागी मनुष्य को नहीं नचा देता ? ॥408॥ यद्यपि भगवान्तीन लोक के रक्षक थे तो भी इन्द्र ने उन बालक रूपधारी महात्मा की रक्षा करने के लिए लोकपालों को नियुक्त किया था ॥409॥ इस प्रकार जन्मकल्याणक का उत्सव पूर्ण कर समस्त देव इन्द्र के साथ अपने अपने स्थान पर चले गये ॥410॥ धर्मनाथ तीर्थकर के बाद पौन पल्य कम तीन सागर बीत जाने तथा पाव पल्य तक धर्म का विच्छेद हो लेने पर जिन्हें मनुष्य और इन्द्र नमस्कार करते हैं ऐसे शान्तिनाथ भगवान् उत्पन्न हुए थे । उनकी आयु भी इसी में सम्मिलित थी ॥411–412॥ उनकी एक लाख वर्ष की आयु थी, चालीस धनुष ऊँचा शरीर था, सुवर्ग के समान कान्ति थी, ध्वजा, तोरण, सूर्य चन्द्र, शंख और चक्र आदि के चिह्न उनके शरीर में थे ॥413॥ पुण्यकर्म के उदय से दृढरथ भी दीर्घकाल तक अहमिन्द्रपने का राजा विश्वसेन की दूसरी रानी यशस्वती के चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ ॥414॥ जिस प्रकार समुद्र में महामणि बढता है, मुनि में गुणों का समूह बढता है और प्रकट हुए अभ्युदयमें हर्ष बढता है उसी प्रकार वहाँ बालक शान्तिनाथ बढ रहे थे ॥415॥ उनमें अनेक गुण, अवयवों के साथ स्पर्धा करके ही मानो क्रम-क्रम से बढ रहे थे और कीर्ति, लक्ष्मी तथा सरस्वती इस प्रकार बढ रही थीं मानो सगी बहिन ही हों ॥416॥ जिस प्रकार पूर्णिमा के दिन विकलता-खण्डावस्था से रहित चन्द्रमा का मण्डल सुशोभित होता है उसी प्रकार पूर्ण यौवन प्राप्त होने पर उनका रूप सौन्दर्य प्राप्त कर अधिक सुशोभित हो रहा था ॥417॥ उनके मस्तकपर इकट्ठे हुए भ्रमरों के समान, कोमल, पतले, चिकने, काले और घूँघरवाले शुभ बाल बडे ही अच्छे जान पडते थे ॥418॥ उनका शिर मेरूपर्वत के शिखर के समान सुशोभित होता था अथवा इस विचार से ही ऊँचा उठ रहा था कि यद्यपि इनका ललाट राज्यपट्ट को प्राप्त होगा परन्तु उससे ऊँचा तो मैं ही हूँ ॥419॥ उनके इस ललाटपट्टपर धर्मपट्ट और राज्यपट्ट दोनों से पूजित लक्ष्मी सुशोभित होगी इस विचार से ही मानो विधाता ने उनका ललाट ऊँचा तथा चौडा बनाया था ॥420॥ उनकी सुन्दर तथा कुटिल भौंहें वेश्या के समान सुशोभित हो रही थीं । ‘कुटिल है’ इसलिए क्या चनद्रमा की रेखा सुशोभित नहीं होती अर्थात् अवश्य होती है ॥421॥ शुभ अवयवों का विचार करने वाले लोग नेत्रों की दीर्घता को अच्छा कहते हैं सो मालूम पडता है कि भगवान् के नेत्र देखकर ही उन्होंने ऐसा विचार स्थिर किया होगा । यही उनके नेत्रों की स्तुति है ॥422॥ यदि उनके कान समस्त शास्त्रों की पात्रता को प्राप्त थे तो उनका वर्णन ही नहीं किया जा सकता क्योंकि संसार में यही एक बात दुर्लभ है । शोभा तो दूसरी जगह भी हो सकती है ॥423॥ 'ये भगवान्, सबको जीतने वाले मोहरूपी मल्लको जीतेंगे इसलिए ऊँची नाक इन्हीं में शोभा दे सकेगी' ऐसा विचारकर ही मानों विधाता ने उनकी नाक कुछ ऊँची बनाई थी ॥424॥ उनके मुख से उत्पन्न हुई सरस्वती विनोद से कुछ लिखेगी यह विचार कर ही मानो विधाता ने उनके कपोलरूपी पटिये चिकने और चौडे बनाये थे ॥425॥ उनके सफेद चिकने सघन और एक बराबर दांत यही शंका उत्पन्न करते थे कि क्या ये सरस्वती के मन्द हास्य के भेद हैं अथवा क्या शुद्ध अक्षरों की पंक्ति ही हैं ॥426॥ बरगद का पका फल, विम्बफल और मूंगा आदि दूसरों के ओठों की उपमा भले ही हो जावें परन्तु उनके ओठ की उपमा नहीं हो सकते इसीलिए इनका अधर-ओंठ अधर-नीच नहीं कहलाता था ॥427॥ अन्य लोगों का चिबुक तो आगे होने वाली डाडी से ढक जाता है परन्तु इनका चिबुक सदा दिखाई देता था इससे जान पडता है कि वह केवल शोभा के लिए ही बनाया गया था ॥428॥ चन्द्रमा क्षयी है तथा कलंक से युक्त है और कमल कीचड से उत्पन्न है तथा रज से दूषित है इसलिए दोनों ही उनके मुख की सदृशता नहीं धारण कर सकते ॥429॥ यदि उनके कण्ठ से दर्पण के समान सब पदार्थों को प्रकट करने वाली दिव्यध्वनि प्रकट होगी तो फिर उस कण्ठ की सुकण्ठता का अलग वर्णन क्या करना चाहिए ? ॥430॥ वे त्रिलोकीनाथ ऊंचाई के द्वारा शिरके साथ स्पर्धा करने वाले अपने दोनों कन्धों से ऐसे सुशोभित होते थे मानो तीन शिखरों वाला सुवर्णगिरि ही हो ॥431॥ घुटनों तक लम्बी एवं केयूर आदि आभूषणों से विभूषित उनकी दोनों भुजाएँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो पृथ्वी को उठाना ही चाहती हों ॥432॥ बहुत सी लक्ष्मियाँ एक दूसरे की बाधा के बिना ही इसमें निवास कर सकें यह सोचकर ही मानो विधाता ने उनका वक्ष स्थल बहुत चौडा बनाया था ॥433॥ जिसके मध्य में मणियों की कान्ति से सुशोभित हार पडा हुआ है ऐसा उनका वख:स्थल, जिसके मध्य में संध्या के लाल लाल बादल पड रहे हैं ऐसे हिमाचल के तट के समान जान पडता था ॥434॥ मुट्ठी में समाने के योग्य उनका मध्यभाग चूंकिे उपरिवर्ती शरीर के बहुत भारी बोझको बिना किसी आकुलता के धारण करता था अत: उसका पतलापन ठीक ही शोभा देता था ॥435॥ उनकी नाभि चूँकि गम्भीर थी, दक्षिणावर्त से सहित थी । अभ्युदय, को सूचित करने वाली थी, पद्मचिह्न से सहित थी और मध्यस्थ थी अत: स्तुति का स्थान-प्रशंसा का पात्र क्योंनहीं होती ? अवश्य होती ॥436॥ करधनी को धारण करने वाली उनकी सुन्दर कमर बहुत ही अधिक सुशोभित होती थी और जम्बूद्वीप की वेदीसहित जगती के समान जान पडती थी ॥437॥ उनके ऊरू केले के स्थम्भ के समान गोल, चिकने तथा स्पर्श करने पर सुख देने वाले थे अन्तर केवल इतना था कि केले के स्तम्भ एक बार फल देते हैं परन्तु वे बारबार फल देते थे और केले के स्तम्भ बोझ धारण करने में समर्थ नहीं हैं परन्तु वे बहुत भारी बोझ धारण करने में समर्थ थे ॥438॥ चूंकि उनके घुटनों के ऊरू और जंघा दोनों के बीच मर्यादा कर दी थी-दोनों की सीमा बांध दी थी इसलिए वे सत्पुरूषों के द्वारा प्रशंसनीय थे सो ठीक ही है क्योंकि जो अच्छा कार्य करता है उसकी प्रशंसा क्योंनहीं की जावे ? अवश्य की जावे ॥439॥ उनके चरणकमल समस्त इन्द्रों को नमस्कार कराते थे तथा लक्ष्मी उनकी सेवा करती थी । जब उनके चरणकमलों का यह हाल था तब जंघाएँ तो उनके ऊपर थीं इसलिए उनका और वर्णन क्या किया जाए ? ॥440॥ जिस प्रकार मन्त्र में गूढता गुण रहता है उसी प्रकार उनके दोनों गुल्फों-एडी के ऊपर की गांठों में गूढता गुण रहता था परन्तु उनकी यह गुणता फल देने वाली थी सो ठीक ही है क्योंकि सभी पदार्थ फलदायी होने से ही गुणी कहलाते हैं ॥441॥ उनके दोनों चरणों का पृष्ठभाग कछुए के समान था और यह पृथिवी उन्हीं का आश्रय पा कर निराकुल थी । जान पडता है कि ‘पृथिवी कछुए के द्वारा धारण की गई है, यह रूढि उसी समय से प्रचलित हुई है ॥442॥ उनके दोनों अंगूठे स्थूल थे, आगे को उठे हुए थे, अच्छी तरह स्थित थे, सुख की खान थे और ऐसे जान पडते थे मानो स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग ही दिखला रहे हों ॥443॥ परस्पर में एक दूसरे से सटी हुई उनकी आठों अँगुलियाँ ऐसी जान पडती थी मानों आठों कर्मों का अपह्णव करने के लिए आठ शक्तियाँ ही प्रकट हुई हों ॥444॥ उनके चरणों का आश्रय लेनेवाले सुखकारी दश नख ऐसे सुशोभित होते थे मानो उस नखों के बहाने उत्तम क्षमा आदि दशधर्म उनकी सेवा करने के लिए पहले से ही आ गये हों ॥445॥ हम भगवान् के शरीर के अवयव हैं इसीलिए इन्द्र आदि देव हम दोनों को नमस्कार करते हैं यह सोचकर ही मानो नवीन पत्तों के समान उनके दोनों पैर रागी-रागसहित अथवा लालरंग के हो रहे थे ॥446॥ चन्द्रमा के साथ रात्रि का समागम रहता है और सूर्य उष्ण है अत: ये दोनों ही उनके तेज की उपमा नहीं हो सकते । हाँ, इतना कहा जा सकता है कि उनका तेज भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष के तेज के समान था ॥447॥ जब कि हजार नेत्रवाला इन्द्र इन्द्राणी के मुखकमल से विमुख होकर उनकी ओर देखता रहता है तब उनकी कान्ति का क्या वर्णन किया जावे ? ॥448॥ जिस प्रकार महामणियों से निबद्ध देदीप्यमान उज्ज्वल सुवण्र सुशोभित होता है उसी प्रकार उनके शरीर के समागम से आभूषणों का समूह सुशोभित होता था ॥449॥ अपने नाम के सुनने मात्र से ही जिन्होंने शत्रुरूपी हाथियों के समूह का मद सुखा दिया है ऐसे राजाधिराज भगवान् शान्तिनाथ का शब्द सिंह के शब्द के समान सुशोभित होता था ॥450॥ उनकी कीर्तिरूपी लता जन्म से पहले ही लोक के अन्त तक पहुँच चुकी थी परन्तु उसके आगे आलम्बन न मिलने से वह वहीं पर स्थित रह गई ॥451॥ उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कला, कान्ति आदि से विभूषित सुख देने वाली अनेक कन्याओं का उनके साथ समागम कराया था-अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कराया था ॥452॥ प्रेमामृतरूपी जल से सींचे हुए स्त्रियों के नीलकमलदल के समान नेत्रों से वे अपना ह्णदय बार-बार प्रसन्न करते थे ॥453॥ अपने मनरूपी धन को लूटने वाली स्त्रियों की तिरछी चन्चल लीलापूर्वक और आलसभरी चितवनों से वे पूर्ण सुख को प्राप्त होते थे ॥454॥ इस तरह देव और मनुष्यों से सुख भोगते हुए भगवान् के जब कुमारकाल के पच्चीस हजार वर्ष बीत गये तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया । क्रम-क्रम से अखण्ड भोग भोगते हुए जब उनके पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये तब तेज को प्रकट करने वाले भगवान् के साम्राज्य के साधन चक्र आदि चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रकट हुई ॥455-457॥ उन चौदह रत्नों से चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड, ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी,चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, स्थपति, सेनापति और गुहपति हस्तिनापुर में मिले थे और कन्या गज तथा अश्व विजयार्थ पर्वत पर प्राप्त हुए थे ॥458–459॥ पूजनीय नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं ॥460॥ इस प्रकार चक्रवर्ती का साम्राज्य पाकर दश प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए जब उनके पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये तब एक दिन वे अपने अलंकार-गृह के भीतर अलंकार धारण कर रहे थे उसी समय उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखे । वे बुद्धिमान् भगवान् आश्चर्य के साथ अपने मन में विचार करने लगे कि यह क्या है ? ॥461-462॥ उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप सम्पदा से वे पूर्व जन्म की सब बातें जान कर वैराग्य को प्राप्त हो गये ॥463॥ वे विचार करने लगे कि समस्त सम्पदाएँ मेघों की छाया के समान हैं, लक्ष्मी इन्द्र धनुष और बिजली की चमक के समान हैं, शरीर मायामय है, आयु प्रात:काल की छाया के समान है-उत्तरोत्तर घटती रहती है, अपने लोग पर के समान हैं, संयोग वियोग के समान है, वृद्धि हानि के समान है और यह जन्म पूर्व जन्म के समान है ॥464-465॥ ऐसा विचार करते हुए चक्रवर्ती शान्तिनाथ अपने समस्त दुर्भाव दूर कर घर से बाहर निकलने का उद्योग करने लगे ॥466॥ उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर कहा कि हे देव ! जिसकी चिरकाल से सन्तति टूटी हुई है ऐसे इस धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तन का आपका यह समय है ॥467॥ महाबुद्धिमान् शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने लौकान्तिक देवों की वाणी का अनुमोदन कर अपना राज्यबड़े हर्ष से नारायण नामक पुत्र के लिए दे दिया ॥468॥ तदनन्तर देवसमूह के अधिपति इन्द्र ने उनका दीक्षाभिषेक किया । इस प्रकार सज्जनों में अग्रेसर भगवान् युक्तिपूर्ण वचनोंके द्वारा समस्त भाई-बन्धुओं को छोड़कर देवताओं के द्वारा उठाई हुई सर्वार्थसिद्धि नाम की पालकी में आरूढ़ हुए और सहस्त्राम्रवन में जाकर सुन्दर शिलातल पर उत्तर की ओर मुख कर पर्यंकासन से विराजमान हो गये । उसी समय ज्येष्ठकृष्ण चतुर्दशी के दिन शाम के वक्त भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर उन्होंने अपना उपयोग स्थिर किया, सिद्ध भगवान् को नमस्कार किया, वस्त्र आदि समस्त उपकरण छोड़ दिये, पन्चमुट्ठियों के द्वारा लम्बे क्लेशों के समान केशों को उखाड़ डाला । अपनी दीप्ति से जातरूप-सुवर्ण की हँसी करते हुए उन्होंने जातरूप-दिगम्बर मुद्रा प्राप्त कर ली, और शीघ्र ही सामायिक चारित्र सम्बन्धी विशुद्धता तथा मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया । इन्द्र ने उनके केशों को उसी समय देदीप्यमान पिटारे में रख लिया । सुगन्धि के कारणउन केशों पर आकर बहुत से भ्रमर बैठ गये थे जिस से ऐसा जान पड़ता था कि वे कई गुणित हो गये हों। इन्द्र ने उन केशों को क्षीरसागर की तरंगों के उस ओर क्षेप दिया ॥469-475॥ चक्रायुध को आदि लेकर एक हजार राजाओं ने भी विपत्ति को अन्त करने वाले श्री शान्तिनाथ भगवान् के साथ संयम धारण किया था ॥476॥ हमारे भी ऐसा ही संयम हो इस प्रकार की इच्छा करते हुए इन्द्रादि भक्त देव, भक्तिरूपी मूल्य के द्वारा पुण्य रूपी सौदा खरीद कर स्वर्गलोक के सम्मुख चले गये ॥477॥ इधर आहार करने की इच्छा से समस्त लोक के स्वामी श्री शान्तिनाथ भगवान् मन्दिरपुर नगर में प्रविष्ट हुए । वहाँ सुमित्र राजा ने बड़े उत्सव के साथ उन्हें प्रासुक आहार देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥478-479॥ इस प्रकार अनुक्रम से तपश्चरण करते हुए उन्होंने समस्त पृथिवी को पवित्र किया और मोहरूपी शत्रु को जीतने की इच्छा से कषायों को कृश किया ॥480॥ चक्रायुध आदि अनेक मुनियों के साथ श्रीमान् भगवान् शान्तिनाथ ने सहस्त्राम्र वन में प्रवेश किया और नन्द्यावर्त वृक्ष के नीचे तेला के उपवास का नियम लेकर वे विराजमान हो गये । अत्यन्त श्रेष्ठ भगवान् पौष शुक्ल दशमीं के दिन सायंकाल के समय पर्यंकासन से विराजमान थे । पूर्व की ओर मुख था, निर्ग्रन्थता आदि समस्त बाह्य सामग्री उन्हें प्राप्त थी, अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों से प्राप्त हुई क्षपक शुक्लध्यानरूपी तलवार के द्वारा उन्होंने मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया, अब वे वीतराग होकर यथाख्यातचारित्र के धारक हो गये । अन्तर्मुहुर्त बाद उन्होंने द्वितीय शुक्लध्यानरूपी चक्र के द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया, इस तरह वे सोलह वर्ष तक छद्यस्थ अवस्था को प्राप्त रहे । मोहनीय कर्म क्षय होने से वे निर्ग्रन्थ हो गये, ज्ञानावारण, दर्शनावरण का अभाव होने से नीरज हो गये, अन्तराय का क्षय होने से वीतविघ्न हो गये और समस्त संसार के एक बान्धव होकर उन्होंने अत्यनत शान्त केवलज्ञानरूपी साम्राज्यलक्ष्मी को प्राप्त किया ॥481-486॥ उसी समय तीर्थंकर नाम का बड़ा भारी पुण्यकर्मरूपी महावायु, चतुर्णिकाय के देवरूपी समुद्र को क्षुभित करता हुआ बड़े वेग से बढ़ रहा था ॥487॥ अपने आप में उत्पन्न हुई सद्भक्ति रूपी तरंगों से जो पूजन की सामग्री लाये हैं ऐसे सब लोग रत्नावली आदि के द्वारा, सब जीवों के नाथ श्री शान्तिनाथ भगवान् की पूजा करने लगे ॥488॥ उनके समवसरण में चक्रायुध को आदि लेकर छत्तीस गणधर थे, आठ सौ पूर्वों के पारदर्शी थे, इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक थे, और तीन हजार अवधिज्ञानरूपी निर्मल नेत्रों के धारक थे ॥489-490॥ वे चार हजार केवलज्ञानियों के स्वामी थे और छह हजार विक्रियाऋद्धि के धारकों से सुशोभित थे ॥491॥ चार हजार मन:पर्यय ज्ञानी और दो हजार चार सौ पूज्यवादी उनके साथ थे ॥492॥ इस प्रकार सब मिलाकर बासठ हजार मुनिराज थे, इनके सिवाय साठ हजार तीन सौ हरिषेणा आदि आर्यिकाएँ थीं, सुरकीर्ति को आदि लेकर दो लाख श्रावक थे, अर्हद्दासी को आदि लेकर चार लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्यात देव-देवियाँ थीं और संख्यात तिर्यन्च थे । इस प्रकार बारह गणों के साथ-साथ वे समीचीन धर्म का उपदेश देते थे ॥493-495॥ विहार करते-करते जब एक माह की आयु शेष रह गई तब वे भगवान् सम्मेदशिखर पर आये और विहार बन्द कर वहाँ अचल योग से विराजमान हो गये ॥496॥ ज्येष्ठ कृण चतुर्दशी के दिन रात्रि के पूर्व भाग में उन कृतकृत्य भगवान् शांतिनाथ ने तृतीय शुक्लध्यान के द्वारा समस्त योगों का निरोध कर दिया, बन्ध का अभाव कर दिया और अकार आदि पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने समय तक अयोगकेवली अवस्था प्राप्त की । वहीं चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा वे तीनों शरीरों का नाश कर भरणी नक्षत्र में लोक के अग्रभाग पर जा विराजे । उस समय गुण ही उनका शरीर रह गया था । अतीत काल में गये हुए कर्ममलरहित अनंत सिद्ध जहाँ विराजमान थे वहीं जाकर वे विराजमान हो गये ॥497-499॥ उसी समय इन्द्र सहित, आलस्य-रहित और बड़ी भक्ति को धारण करने वाले चार प्रकार के देव आये और अन्तिम संस्कार-निर्वाणकल्याणक की पूजा कर अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥500॥ चक्रायुध को आदि लेकर अन्य नौ हजार मुनिराज भी इस तरह ध्यान कर तथा औदारिक तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों को छोड़ कर निर्वाण को प्राप्त हो गये ॥501॥ इस प्रकार जिन्होंने उत्तम ज्ञान दर्शन-सुख और वीर्य से सुशोभित परमौदारिक शरीर में निवास तथा परमोत्कृष्ट विहार के स्थान प्राप्त किये, जो अरहन्त कहलाये और इन्द्र ने जिनकी दृढ़ पूजा की ऐसे श्री शान्तिनाथ भट्टारक तुम सबके लिए सात परम स्थान प्रदान करें ॥502॥ जो कारणों से सहित समस्त आठों कर्मों को उखाड़ कर अत्यन्त निर्मल हुए थे, जो सम्यक्त्व आदि आठ आत्मीय गुणों को स्वीकार कर जन्म-मरणसे रहित तथा कृतकृत्य हुए थे, एवं जिनके अष्ट महाप्राति-हार्यरूप वैभव प्रकट हुआ था वे शान्तिनाथ भगवान् अनादि भूतकालमें जो कभी प्राप्त नहीं हो सका ऐसा स्वस्वरूप प्राप्त कर स्पष्ट रूप से तीनों लोकों के शिखामणि हुए थे ॥503॥ जो पहले राजा श्रीषेण हुए, फिर उत्तम भोगभूमिमें आर्य हुए, फिर देव हुए, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वज्रायुध चक्रवर्ती हुए, फिर अहमिन्द्र पद पाकर देवों के स्वामी हुए, फिर मेघरथ हुए, फिर मुनियों के द्वारा पूजित होकर सर्वार्थसिद्धि गये, और फिर वहाँसे आकर जगत् को एक शान्ति प्रदान करनेवाले श्री शान्तिनाथ भगवान् हुए वे सोलहवें तीर्थंकर तुम सबके लिए चिरकाल तक अनुपम लक्ष्मी प्रदान करते रहें ॥504॥ जो पहले अनिन्दिता रानी हुई थी, फिर उत्तम भोगभूमिमें आर्य हुआ था, फिर विमलप्रभ देव हुआ, फिर श्रीविजय राजा हुआ, फिर देव हुआ, फिर अनन्तवीर्य नारायण हुआ, फिर नारकी हुआ, फिर मेघनाद हुआ, फिर प्रतीन्द्र हुआ, फिर सहस्त्रायुध हुआ, फिर बहुत भारी ऋद्धिका धारी अहमिन्द्र हुआ, फिर वहाँसे च्युत होकर मेघरथ का छोटा भाई बुद्धिमान् दृढरथ हुआ, फिर अन्तिम अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ, फिर वहाँसे आकर चक्रायुध नाम का गणधर हुआ, फिर अन्त में अक्षर-अविनाशी-सिद्ध हुआ ॥505-507॥ इस प्रकार अपने हित और किये हुए उपकार को जानने वाले चक्रायुध ने अपने भाई के साथ सौहार्द धारण कर समस्त जगत् के स्वामी श्री शान्तिनाथ भगवान् के साथ-साथ परम सुख देने वाला मोक्ष पद प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि महापुरूषों की संगति से इस संसार में कौन-सा इष्ट कार्य सिद्ध नहीं होता ? ॥508॥ इस संसार में अन्य लोगों की तो बात जाने दीजिये श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र को छोड़करभगवान् तीर्थंकरों में भी ऐसा कौन है जिसने बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो ? इसलिए हे विद्वान् लोगो, यदि तुम शान्ति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र का ही निरन्तर ध्यान करते रहो । ॥509॥ भोगभूमि आदि के कारण नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभनाथ आदि तीर्थंकरों के द्वारा फिर-फिर से दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका । तदनन्तर भगवान् शान्तिनाथ ने जो मार्ग प्रकट किया वह बिना किसी बाधा के अपनी अवधि को प्राप्त हुआ । इसलिए हे बुद्धिमान् लोगो ! तुम लोग भी आद्यगुरू श्री शान्तिनाथ भगवान् की शरण लो । भावार्थ-शान्तिनाथ भगवान् ने जो मोक्षमार्ग प्रचलित किया था वही आज तक अखण्ड रूप से चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्यगुरू श्री शान्तिनाथ भगवान् ही हैं। उनके पहले पन्द्रह तीर्थकरों ने जो मोक्षमार्ग चलाया था वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था ॥510॥ |