+ कुन्‍थुनाथ तीर्थंकर और चक्रवर्ती चरित -
पर्व - 64

  कथा 

कथा :

जिन्‍होंने कन्‍था के समान सब परिग्रहों का त्‍याग कर मोक्ष प्राप्‍त कराने वाले सद्ग्रन्‍थों की तथा कुन्‍थु से अधिक सूक्ष्‍म जीवों की रक्षा की वे कुन्‍थुनाथ भगवान् मोक्ष नगर तक जाने वाले तुम सब पथिकों की रक्षा करें ॥1॥

इसी जम्‍बूद्वीप के पूर्व विदेह-क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक वत्‍स नाम का देश है । उसके सुसीमा नगर में राजा सिंहरथ राज्‍य करता था । वह श्रीमान् था, सिंह के समान पराक्रमी था और बहुत से मिले हुए शत्रुओं को अपनी महिमा से ही वश कर लेता था ॥2-3॥

न्‍यायपूर्ण आचार की वृद्धि करने वाले एवं समस्‍त पृथिवीमण्‍डल को दण्डित करने वाले उस राजा के सम्‍मुख पापरूपी शत्रु मानो भय से नहीं पहुँचते थे-दूर-दूर ही बने रहते थे ॥4॥

शास्‍त्रमार्ग के अनुसार चलने वाले और शत्रुओं को नष्‍ट करने वाले उस राजा के लिए जो भोगानुभव प्राप्‍त था वही उसकी इस लोक तथा परलोक सम्‍बन्‍धी सिद्धि का प्रदान करता था ॥5॥

वह राजा किसी समय आकाश में उल्‍कापात देखकर चित्‍त में विचार करने लगा कि यह उल्‍का मेरे मोहरूपी शत्रु को नष्‍ट करने के लिए ही मानो गिरी है ॥6॥

उसने उसी समय यतिवृषभ नामक मुनिराज के समीप जाकर उन्‍हें नमस्‍कार किया और उनके द्वारा कहे हुए धर्मतत्‍त्‍व के विस्‍तार को बड़ी भक्ति से सुना ॥7॥

वह बुद्धिमान् विचार करने लगा कि मैं मोह से जकड़ा हुआ था, इस उल्‍का ने ही मुझे आपत्ति की सूचना दी है ऐसा विचार कर मोह को छोड़ने की इच्‍छा से उसने अपना राज्‍यभार शीघ्र ही पुत्र के लिए सौंप दिया और बहुत से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । संयमी होकर उसने ग्‍यारह अंगों का ज्ञान प्राप्‍त किया तथा सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थकर नामक पुण्‍य प्रकृति का बन्‍ध किया । आयु के अन्‍त में समाधिमरण कर वह अन्तिम अनुत्‍तर विमान-सर्वार्थसिद्धि में उत्‍पन्‍न हुआ ॥8-10॥

वहाँ उसने बड़े कौतुक के साथ प्रवीचार-रहित उस मानसिक सुख का अनुभव किया जो मुनियों को भी माननीय था तथा वीतरागता से उत्‍पन्‍न हुआ था ॥11॥

इसी जम्‍बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्‍बन्‍धी कुरूजांगल देश में हस्तिनापुर नाम का नगर है उसमें कौरववंशी काश्‍यपगोत्री महाराज सूरसेन राज्‍य करते थे । उनकी पट्टरानी का नाम श्रीकान्‍ता था । उस पतिव्रता ने देवों के द्वारा ही हुई रत्‍नवृष्टि आदि पूजा प्राप्‍त की थी ॥12-13॥

श्रावण कृष्‍ण दशमी के दिन रात्रि के पिछले भाग सम्‍बन्‍धी मनोहर पहर और कृत्तिका नक्षत्र में जब सर्वार्थसिद्धि के उस अहमिन्‍द्र की आयु समाप्‍त होने को आई तब उसने सोलह स्‍वप्‍न देखकर अपने मुँह में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा ॥14-15॥

प्रात:काल भेरी आदि के मांगलिक शब्‍द सुनकर जगी, नित्‍य कार्यकर स्‍नान किया, मांगलिक आभूषण पहिने और कुछ प्रामाणिक लोगों से परिवृत होकर बिजली के समान सभारूपी आकाश को प्रकाशित करती हुई दूसरी लक्ष्‍मी के समान राजसभा में पहुँची । वहाँ वह अपनी योग्‍यता के अनुसार विजयकर पति के अर्धासन पर विराजमान हुई । अवधिज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाले पति को सब स्‍वप्‍न सुनाये और उनसे उनका फल मालूम किया । अनुक्रम से स्‍वप्‍नों का फल जानकर उसका मुखकमल इस प्रकार खिल उठा जिस प्रकार कि सूर्य की किरणों के स्‍पर्श से कमलिनी खिल उठती है ॥16-19॥

उसी समय देवों ने महाराज शूरसेन और महारानी श्रीकान्‍ता का गर्भकल्‍याणक सम्‍बन्‍धी अभिषेक किया, बहुत प्रकार की पूजा की और सन्‍तुष्‍ट होकर स्‍वर्ग की ओर प्रयाण किया ॥20॥

जिस प्रकार मुक्‍ताविशेष से सीप गर्भिणी होती है उसी प्रकार उस पुत्र से रानी श्रीकान्‍ता गर्भिणी हुई थी और जिस प्रकार चन्‍द्रमा को गोदी में धारण करने वाली मेघों की रेखा सुशोभित होती है उसी प्रकार उस पुत्र को गर्भ में धारण करती हुई रानी श्रीकान्‍ता सुशोभित हो रही थी ॥21॥

जिस प्रकार पश्चिम दिशा चन्‍द्रमा को उदित करती है उसी प्रकार रानी श्रीकान्‍ता ने सब मास व्‍यतीत होने पर वैशाख शुक्‍ल प्रतिपदा के दिन आग्‍नेय योग में उस पुत्र को उदित किया-जन्‍म दिया ॥22॥

उसी समय इन्‍द्र को आगे कर समस्‍त देव और धरणेन्‍द्र आये, उस बालक को सुमेरू पर्वत पर ले गये, क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया, अलंकारों से अलंकृत किया, कुन्‍थु नाम रखा, वापिस लाये, माता-पिता को समर्पण किया और अन्‍त में सब अपने स्‍थान पर चले गये ॥23-24॥

श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकर के मोक्ष जाने के बाद जब आधा पल्‍य बीत गया तब पुण्‍य के सागर श्रीकुन्‍थुनाथ भगवान् उत्‍पन्‍न हुए थे, उनकी आयु भी इसी अन्‍तराल में सम्मिलित थी ॥25॥

पन्‍चानवे हजार वर्ष की उनकी आयु थी पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति थी ॥26॥

तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल के बीत जाने पर उन्‍हें राज्‍य प्राप्‍त हुआ था और इतना ही समय बीत जाने पर उन्‍हें अपनी जन्‍मतिथि के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्‍मी मिली थी । इस प्रकार वे बडे हर्ष से वाधारहित, निरन्‍तर दश प्रकार के भोगों का उपभोग करते थे ॥27–28॥

किसी समय वे षडंग सेना से संयुक्‍त होकर क्रीडा करने के लिए वन में गये थे वहाँ चिरकाल तक इच्‍छानुसार क्रीडाकर वे नगर को वापिस लौट रहे थे ॥29॥

कि मार्ग में उन्‍होंने किसी मुनि को आतप योग से स्थित देखा और देखते ही मन्‍त्री के प्रति तर्जनी अंगुली से इशारा किया कि देखो, देखो । मन्‍त्री उन मुनिराज को देखकर वहीं पर भक्ति से नतमस्‍तक हो गया और पूछने लगा कि हे देव ! इस तरह का कठिन तप तपकर ये क्‍या फल प्राप्‍त करेंगे ? ॥30–31॥

चक्रवर्ती कुन्‍थुनाथ हँसकर फिर कहने लगे कि ये मुनि इसी भव में कर्मों को नष्‍टकर निर्वाण प्राप्‍त करेंगे । यदि निर्वाण न प्राप्‍त कर सकेंगे तो इन्‍द्र और चक्रवर्ती के सुख तथा ऐश्‍वर्य का उपभोग कर क्रम से शाश्‍वतपद-मोक्ष स्‍थान प्राप्‍त करेंगे ॥32–33॥

जो परिग्रह का त्‍याग नहीं करता है उसी का संसार में परिभ्रमण होता है । इस प्रकार परमार्थ को जानने वाले भगवान् कुन्‍थुनाथ ने मोक्ष तथा संसार के कारणों का निरूपण किया ॥34॥

उन महानुभाव ने सुखपूर्वक आयु का उपभोग करते हुए जितना समय मण्‍डलेश्‍वर रहकर व्‍यतीत किया था उतना ही समय चक्रवर्ती पना प्राप्‍त कर व्‍यतीत किया था ॥35॥

तदनन्‍तर, अपने पूर्वभव का स्‍मरण होने से जिन्‍हें आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया है ऐसे विद्वानों में श्रेष्‍ठ भगवान् कुन्‍थुनाथ निर्वाण-सुख प्राप्‍त करने की इच्‍छा से राज्‍यभोगों में विरक्‍त हो गये ॥36॥

सारस्‍वत आदि लौकान्तिक देवों ने आकर बडे आदर से उनका स्‍तवन किया । उन्‍होंने अपने पुत्र को राज्‍य का भार देकर इन्‍द्रों के द्वारा किया हुआ दीक्षा-कल्‍याण का उत्‍सव प्राप्‍त किया । तदनन्‍तर देवों के द्वारा ले जाने योग्‍य विजया नाम की पालकीपर सवार होकर वे सहेतुक वन में गये । वहाँ तेला का नियम लेकर जन्‍म के ही मास पक्ष और दिन में अर्थात् वैशाखशुल्‍क प्रतिपदा के दिन कृत्तिका नक्षत्र में सांयकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ उन्‍होंने दीक्षा धारण कर ली । उसी समय उन्‍हें मन:पर्ययज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया । दूसरे दिन वे हस्तिनापुर गये वहाँ धर्ममित्र राजा ने उन्‍हें आहार दान देकर पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये । इस प्रकार घोर तपश्‍चरण करते हुए उनके सोलह वर्ष बीत गये ॥37–41॥

किसी एक दिन विशुद्धता धारण करने वाले भगवान् तेला का नियम लेकर अपने दीक्षा लेने के वन में तिलकवृक्ष के नीचे विराजमान हुए । वहीं चैत्रशुल्‍का तृतीया के दिन सायंकाल के समय कृत्तिका नक्षत्र में उन्‍हें केवलज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया । उसी समय हर्ष के साथ सब देव आये । सबने प्रार्थनाकर चतुर्थकल्‍याणक की पूजा की । उनके स्‍वयंभू को आदि लेकर पैंतीस गणधर थे, सात सौ मुनिराज पूर्वों के जानकार थे, तीन हजार दो सौ केवलज्ञान से देदीप्‍यमान थे, पाँच हजार एक सौ विक्रियाऋद्धि के धारक थे, तीन हजार तीन सौ मन:पर्ययज्ञानी थे, दो हजार पचास प्रसिद्ध एवं सर्वश्रेष्‍ठ वादी थे, इस तरह सब मिलाकर साठ हजार मुनिराज उनके साथ् थे ॥42-48॥

भाविता को आदि लेकर साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ थी, तीन लाख श्राविकाएँ थी, दो लाख श्रावक थे, असंख्‍यात देव-देवियाँ थीं और संख्‍यात तिर्यन्‍च थे । भगवान्, दिव्‍यध्‍वनि के द्वारा इन सबके लिए धर्मोपदेश देते हुए विहार करते थे ॥49-50॥

इस प्रकार अनेक देशों में विहार कर जब उनकी आयु एक मास की बाकी रह गई तब वे सम्‍मेद शिखर पर पहुंचे । वहाँ एक हजार मुनियों के साथ उन्‍होंने प्रतिमा योग धारण कर लिया और वैशाख शुक्‍ल प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्वभाग में कृत्तिका नक्षत्र का उदय रहते हुए समस्‍त कर्मों को उखाड़कर परमपद प्राप्‍त कर लिया । अब वे निरन्‍जन-कर्मकलंक से रहित हो गये । देवों ने उनके निर्वाण-कल्‍याणक की पूजा की । उनका वह परमपद अन्‍यन्‍त शुद्ध ज्ञान और वैराग्‍य से परिपूर्ण तथा अविनाशी था ॥51-53॥

जो पहले भव में राजा सिंहरथ थे, फिर विशाल तपश्‍चरणकर सर्वार्थसिद्धि के स्‍वामी हुए, फिर तीर्थंकर और चक्रवर्ती इस प्रकार दो पदों को प्राप्‍त हुए, जो छह प्रकार की सेनाओं के स्‍वामी थे, तीनों लोकों केू मुख्‍य पुरूष जिनकी पूजा करते थे, जिन्‍हें सम्‍यक्‍त्‍व आदि आठ गुण प्राप्‍त हुए थे, जो तीन लोक के शिखर पर चूड़ामणि के समान देदीप्‍यमान थे और जिनकी महिमा बाधा से रहित थी ऐसे श्रीकुन्‍थुनाथ भगवान् तुम सबके लिए अविनाशी-मोक्षलक्ष्‍मी प्रदान करें ॥54॥

जिनके शरीर की कान्ति में इन्‍द्र सहित समस्‍त देव निमग्‍न हो गये, जिनकी ज्ञानरूप ज्‍योति में पन्‍चतत्‍तव सहित समस्‍त आकाश समा गया, जो लक्ष्‍मी के स्‍थान हैं, जिन्‍होंने फैला हुआ अज्ञानान्‍धकार नष्‍ट कर दिया, और जो अनन्‍त गुणों के धारक हैं ऐसे श्रीकुन्‍थुनाथ भगवान् तुम सबके लिए मोक्ष का निश्‍चय और व्‍यवहार मार्ग प्रदर्शित करें ॥55॥