
कथा :
अथानन्तर जो अगाध और असार संसाररूपी सागर से पार कर देने में कारण हैं, अनेक राजा जिन्हें नमस्कार करते हैं और जो अत्यन्त श्रेष्ठ हैं ऐसे अरनाथ तीर्थंकर की तुम सब लोग सेवा करो-उनकी शरण में जाओ ॥1॥ इस जम्बूद्वीप में सीता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश है । उसके क्षेमपुर नगर में धनपति नाम का राजा राज्य करता था । वह प्रजा का रक्षक था और लोगों को अत्यन्त प्यारा था । पृथिवी रूपी धेनु सदा द्रवीभूत होकर उसके मनोरथ पूर्ण किया करती थी ॥2–3॥ याचकों को संतुष्ट करने वाले और शत्रुओं को न्ष्ट करने वाले उस राजा में ये दो गुण स्वाभाविक थे कि वह याचकों के बिना भी त्याग करता रहता था और शत्रुओं के न रहने पर भी उद्यम किया करता था ॥4॥ उसके राज्य में राजा-प्रजा सब लोग अपनी-अपनी वृत्ति के अनुसार त्रिवर्ग का सेवन करते थे इसलिए धर्म का व्यतिक्रम कभी नहीं होता था ॥5॥ किसी एक दिन उस राजा ने अर्हन्नन्दन तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से उत्पन्न हुए श्रेष्ठधर्मरूपी रसायन का पान किया जिससे राज्य सम्बन्धी भोगों से विरक्त होकर उसने अपना राज्य अपने पुत्र के लिए दे दिया और शीघ्र ही जन्म मरण का अन्त करने वाली जैनी दीक्षा धारण कर ली ॥6–7॥ ग्यारह अंगरूपी महासागर के पारगामी होकर उसने सोलह कारणभावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामक पुण्य कर्म का बन्ध किया । अन्त में प्रायोपगमन संन्यास के द्वारा उसने जयन्त विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया । वहाँ तैंतीस सागर प्रमाण उसकी आयु थी, एक हाथ ऊँचा शरीर था, द्रव्य और भाव के भेद से दोनों प्रकार की शुल्क लेश्याएँ थीं, वह साढे सोलह माह में एक बार श्वास लेता था, और तैंतीस हजार वर्ष में एक बार मानसिक अमृतमय आहार ग्रहण करता था । प्रवीचाररहित सुखरूपी सागर का पारगामी था, अपने अवधिज्ञान के द्वारा वह लोकनाडी के भीतर रहने वाले पदार्थों के विस्तार को जानता था ॥8–11॥ उसके अवधिज्ञान का जितना क्षेत्र था उतने ही क्षेत्र तक उसका प्रकाश, बल और विक्रया ऋद्धि थी ! उसके राग-द्वेष आदि अत्यन्त शान्त हो गये थे और मोक्ष उसके निकट आ चुका था ॥12॥ वह साता वेदनीय के उदय से उत्पन्न हुए उत्तम भोगों का उपभोग करता था । इस तरह प्राप्त हुए भोगों का उपभोग करता हुआ आयु के अन्तिम भाग को प्राप्त हुआ-वहाँ से च्युत होने के सम्मुख हुआ ॥13॥ अथानन्तर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कुरूजांगल नाम का देश है । उसके हस्तिनापुर नगर में सोमवंश में उत्पन्न हुआ काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन राज्य करता था । उसकी प्राणों से भी अधिक प्यारी मित्रसेना नाम की रानी थी ॥14-15॥ जब धनपति के जीव जयन्त विमान के अहमिन्द्र का स्वर्ग से अवतार लेने का समय आया तब रानी मित्रसेना ने रत्नवृष्टि आदि देवकृत सत्कार पाकर बड़ी प्रसन्नता से फाल्गुन कृष्ण तृतीया के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर सोलह स्वप्न देखे । सबेरा होते ही उसने अपने अवधिज्ञानी पति से उन स्वप्नों का फल पूछा । तदनन्तर परम वैभव को धारण करने वाली रानी पति के द्वारा कहे हुए स्वप्न का फल सुनकर ऐसी प्रसन्न हुई मानो उसे तीन लोक का राज्य ही मिल गया हो ॥16-18॥ रहित है, निरन्तर रमणीक है, सौम्य मुख्वाली है, पवित्र है, उस समय के योग्य स्तुतियों के द्वारा देवियां जिसकी स्तुति किया करती हैं, और जो मेघमाला के समान जगत् का हित करने वाला उत्तम गर्भ धारण करती है ऐसी रानी मित्र सेना ने मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में तीन ज्ञानों से सुशोभित उत्तम पुत्र उत्पन्न किया ॥19-21॥ उनके जन्म के समय जो उत्सव हुआ था उसका वर्णन करने के लिए इतना लिखना ही बहुत है कि उसमे शामिल होने के लिए अपनी-अपनी देवियों सहित समस्त उत्तम देव स्वर्ग खालीकर यहाँ आये थे ॥22॥ उस समय दीन अनाथ तथा याचक लोग सन्तोष को प्राप्त हुए थे यह कहना बहुत छोटी बात थी क्योंकि उस समय तो तीनों लोक अत्यन्त संतोष को प्राप्त हुए थे ॥23॥ श्रीकुन्थुनाथ तीर्थंकर के तीर्थ के बाद जब एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्यका चौथाई भाग बीत गया था तब श्रीअरनाथ भगवान् का जन्म हुआ था । उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी । भगवान् अरनाथ की उत्कृष्ण–श्रेष्ठतम आयु चौरासी हजार वर्ष की थी तीस धनुष ऊँचा उनका शरीर था, सुवर्ण के समान उनकी उत्तम कान्ति थी, वे लावण्य की अन्तिम सीमा थे, सौभाग्य की श्रेष्ठ खान थे, भगवान् को देखकर शंका होती थी कि ये सौन्दर्य के सागर हैं या सौन्दर्य सम्पत्ति के घर हैं, गुण इनमें उत्पन्न हुए हैं या इनकी गुणों में उत्पत्ति हुई है अथवा ये स्वयं गुणमय हैं-गुणरूप ही हैं । इस प्रकार लोगों को शंका उत्पन्न करते हुए, बाल कल्पवृक्ष की उपमा धारण करने वाले भगवान् लक्ष्मी के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे ॥24-28॥ इस प्रकार कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मण्डलेश्वर के योग्य राज्य प्राप्त हुआ था और इसके बाद जब इतना ही काल और बीत गया तब पूर्ण चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ था । इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया तब किसी दिन उन्हें शरद्ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय हो जाना देखकर अपने जन्म को सार्थक करने वाला आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया । उसी समय लौकान्तिक देवों ने उनके विचारों का समर्थनकर उन्हें प्रबोधित किया और वे अरविन्दकुमार नामक पुत्र के लिए राज्य देकर देवों के द्वारा उठाई हुई वैजयन्ती नाम की पालकी पर सवार हो सहेतुक वन में चले गये । वहाँ तेला का नियम लेकर उन्होंने मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में सन्ध्या के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली । दीक्षा धारण करते ही वे चार ज्ञान के धारी हो गये ॥29-34॥ इस प्रकार तपश्चरण करते हुए वे किसी समय पारणा के दिन चक्रपुर नगर में गये वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले राजा अपराजित ने उन्हें आहार देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये । इस तरह मुनिराज अरनाथ के जब छद्भस्थ अवस्था के सोलह वर्ष व्यतीत हो गये ॥35-36॥ तब वे दीक्षावन में कार्तिक शुक्ल द्वादशी केदिन रेवती नक्षत्र में सायंकाल के समय आम्रवृक्ष के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए । उसी समय घातिया कर्म नष्टकर उन्होंने अर्हन्तपद प्राप्त कर लिया । देवों ने मिलकर चतुर्थ कल्याणक में उनकी पूजा की ॥37-38॥ कुम्भार्य को आदि लेकर उनके तीस गणधर थे, छहसौ दश ग्यारह अंग चौदह पूर्व के जानकार थे, तैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस सूक्ष्म बुद्धि को धारण करने वाले शिक्षक थे ॥39॥ अट्ठाईस सौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, तैतालीस सौ विक्रियाऋद्धि को धारण करने वाले थे, बीस सौ पचपन मन:पर्ययज्ञानी थे ॥40-41॥ और सोलह सौ श्रेष्ठवादी थे । इस तरह सब मिलाकर पचास हजार मुनिराज उनके साथ थे ॥42॥ यक्षिलाको आदि लेकर साठ हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख साठ हजार श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्यात देव थे और संख्यात तिर्यन्च थे । इस प्रकार इन बारह सभाओं से घिरे हुए अतिशय बुद्धिमान् भगवान् अरनाथ ने धर्मोपदेश देने के लिए अनेक देशों में विहार किया । जब उनकी आयु एक माह की बाकी रह गई तब उन्होंने सम्मेदाचल की शिखर पर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया तथा चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्वभाग में मोक्ष प्राप्त कर लिया ॥43-46॥ उसी समय इन्द्रों ने आकर निर्वाणकल्याणक की पूजा की । भक्तिपूर्वक सैकड़ों स्तुतियों के द्वारा उनकी स्तुति की, और तदनन्तर वे सब अपने-अपने स्थानों पर चले गये ॥47॥ जिन्होंने परम लक्ष्मी और धर्मचक्र को प्राप्त करने की इच्छा से पृथिवी मण्डल को सन्चित करने वाला अपना सुदर्शनचक्र कुम्भकार के चक्र के समान छोड़ दिया और राज्य–लक्ष्मी को घटदासी (पनहारिन) के समान त्याग दिया । तथा जो पापरूपी शत्रु का विध्वंस करने वाले हैं ऐसे अरनाथ जिनेन्द्र भक्ति के भार से नम्रीभूत एवं संसार से भयभीत तुम सब भव्य लोगों की सदा रक्षा करें ॥48॥ क्षुधा, तृषा, भय आदि बड़े-बड़े कर्मों के द्वारा किये हुए क्षुधा तृषा आदि अठारहों दोषों को उनके निमित्त कारणों के साथ नष्टकर जिन्होंने विशुद्धता प्राप्त की थी, जो तीनों लोकों के एक गुरू थे तथा अतिशय श्रेष्ठ थे ऐसे अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ तुम लोगों की शीघ्र ही मोक्ष प्रदान करें ॥49॥ जो पहले धनपति नाम के बड़े राजा हुए, फिर व्रतों के स्वामी मुनिराज हुए, तदनन्तर स्वर्ग के अग्रभाग में सुशोभित जयन्त नामक विमान के स्वामी सुखी अहमिन्द्र हुए, फिर छहों खण्ड के स्वामी होकर चौदह रत्नों और नौ निधियों के अधिपति-चक्रवर्ती हुए तथा अन्त में तीनों लोकों के स्वामी अरनाथ तीर्थकर हुए वे अतिशय श्रेष्ठ अठारहवें तीर्थंकर अपने आश्रित रहने वाले तुम सबको चिरकाल तक पवित्र करते रहें ॥50॥ अथानन्तर-इन्हीं अरनाथ भगवान् के तीर्थ में सुभौम नाम का चक्रवर्ती हुआ था । वह तीसरे जन्म में इसी भरतक्षेत्र में भूपालल नाम का राजा था ॥51॥ किसी समय राजा भूपाल, युद्ध में विजय की इच्छा रखने वाले विजिगीषु राजाओं के द्वारा हार गया । मान भंग होने के कारण वह संसार से इतना विरक्त हुआ कि उसने संभूत नामक गुरू के समीप जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । उस दुर्बुद्धिने तपश्चरण करते समय निदान कर लिया कि मेरे चक्रवर्तीपना प्रकट हो । उसने यह सब निदान भोगों में आसक्ति रखने के कारण किया था । इस निदान से उसने अपने तप को ह्णदय से ऐसा दूषित बना लिया जैसा कि कोई विष से दूध को दूषित बना लेता है ॥52-54॥ वह उसी तरह घोर तपश्चरण करता रहा । आयु के अन्त मे चित्त को स्थिर कर संन्यास से मरा जिससे महाशुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥55॥ वहाँ सोलह सागर प्रमाण आयु को धारण करने वाला वह देव सुख से निवास करने लगा । इधर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अनेक गुणों से सहित एक कोशल नाम का देश है । उसके अयोध्या नगर में इक्ष्वाकुवंशी राजा सहस्त्रबाहु राज्य करता था । ह्णदय को प्रिय लगने वाली उसकी चित्रमती नाम की रानी थी । वह चित्रमती कन्याकुब्ज देश के राजा पारत की पुत्री थी । उत्तम पुण्य के उदय से उसके कृतवीराधिप नाम का पुत्र हुआ ॥56-58॥ जो दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा । इसी से सम्बन्ध रखने वाली एक कथा और कही जाती है जो इस प्रकार है-राजा सहस्त्रबाहु के काका शतबिन्दु से उनकी श्रीमती नाम की स्त्री के जमदग्नि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था । श्रीमती राजा पारत की बहिन थी । कुमार अवस्था में ही जमदग्नि की माँ मर गई थी इसलिए विरक्त होकर वह तापस हो गया और पन्चाग्नि तप तपने लगा । इसी से सम्बन्ध रखने वाली एक कथा और है । एक दृढ़ग्राही नाम का राजा था । उसकी हरिशर्मा नाम के ब्राह्मण के साथ अखण्ड मित्रता थी । इस प्रकार उन दोनों का समय बीतता रहा । किसी एक दिन दृढ़ग्राही राजा ने जैन तप धारण कर लिया और हरिशर्मा ब्राह्मण ने भी तापस के व्रत ले लिये । हरिशर्मा ब्राह्मण आयु के अन्त में मरकर ज्योतिर्लोक में उत्पन्न हुआ-ज्यौतिषी देव हुआ और दृढ़ग्राही सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । उसने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से जाना कि हमारा मित्र हरिशर्मा ब्राह्मण मिथ्यात्व के कारण ज्योतिष लोक में उत्पन्न हुआ है अत: वह उसे समीचीन जैनधर्म धारण कराने के लिए आया ॥59-64॥ हरिशर्मा के जीव को देखकर दृढ़ग्राही के जीव ने कहा कि तुम मिथ्यात्व के कारण इस तरह निन्द्यपर्याय में उत्पन्न हुए हो और मैं सम्यक्त्व के कारण उत्कृष्ट देवपर्याय को प्राप्त हुआ हूं ॥65॥ इसलिए तुम मोक्ष का मार्ग जो सम्यग्दर्शन है उसे धारण करो । जब दृढ़ग्राही का जीव यह कह चुका तब हरिशर्मा के जीवने कुछ संशय रखकर उससे पूछा कि तापसियों का तप अशुद्ध क्यों है ? उसने भी कहा कि तुम पृथिवी तल पर चलो मैं सब दिखाता हूं । इस प्रकार सलाह कर दोनों ने चिड़ा और चिडि़या का रूप बना लिया ॥66-67॥ पृथिवी पर आकर वे दोनों ही जमदग्नि मुनि की बड़ी-बड़ी दाँडी और मूँछ में रहने लगे । वहाँ कुछ समय तक ठहरने के बाद माया को जानने वाला सम्यग्दृष्टि चिड़ा का जीव, चिडि़या का रूप धारण करने वाले ज्योतिषी देव से बोला कि हे प्रिये ! मैं इस दूसरे वन में जाकर अभी वापिस आता हूं मैं जब तक आता हूँ तब तक तुम यहीं ठहरकर मेरी प्रतीक्षा करना । इसके उत्तर में चिडि़या ने कहा कि मुझे तेरा विश्वास नहीं है यदि तू जाता ही है तो सौगन्ध दे जा ॥68- 70॥ तब वह चिड़ा कहने लगा कि बोल तू पाँच पापों में से किसे चाहती है मैं तुझे उसी की सौगन्ध दे जाऊँगा ॥71॥ उत्तर में चिडि़या कहने लगी कि पाँच पापों में से किसी में मेरी इच्छा नहीं है । तू यह सौगन्ध दे कि यदि मैं न आऊँ तो इस तापस की गति को प्राप्त होऊं ॥72॥ हे प्रिय ! यदि तू मुझे यह सौगन्ध देगा तो मैं तुझे अन्यत्र जाने के लिए छोडूँगी अन्यथा नहीं । चिडि़या की बात सुनकर चिड़ाने कहा कि तू यह छोड़कर और जो चाहती है सो कह, मैं उसकी सौगन्ध दूँगा । इस प्रकार चिड़ा और चिडि़या का वार्तालाप सुनकर वह तापस क्रोध से संतप्त हो गया, उसकी आँखें घूमने लगीं, उसने क्रूरता वश दोनों पक्षियों को मारने के लिए हाथ से मजबूत पकड़ लिया, वह कहने लगा कि मेरे कठिन तप से तो भावी लोक होने वाला है उसे तुम लोगों ने किस कारण से पसन्द नहीं किया ? यह कहा जाय । तापस के ऐसा कह चुकने पर चिड़ाने कहा कि आप क्रोध न करें इससे आपकी सज्जनता नष्ट होती है ॥73- 76॥ क्या थोड़ी सी जामिन की छाँच से दूध नष्ट नहीं हो जाता? यद्यपि आप चिरकाल से घोर तपश्चरण कर रहे हैं तो भी आपकी दुर्गति का कारण क्या है ? सो सुनिये ॥77॥ आप जो कुमार काल से ही ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं वह संतान का नाश करने के लिए हैं। संतान का घात करने वाले पुरूष की नरक के सिवाय दूसरी कौन-सी गति हो सकती है ? ॥78॥ अरे 'पुत्र रहित मनुष्य की कोई गति नहीं होती' यह आर्षवाक्य-वेदवाक्य क्या आपने नहीं सुना ? यदि सुना है तो फिर बिना विचार किये ही क्यों इस तरह दुर्बुद्धि होकर क्लेश उठा रहे हैं ? ॥79॥ उसके मन्द वचन सुनकर उस तापसने उसका वैसा ही निश्चय कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रीजनों में आसक्त रहने वाले मनुष्यों के अज्ञान तपकी यही भूमिका है ॥80॥ 'ये दोनों पक्षी मेरा उपकार करने वाले हैं' ऐसा समझकर उसने दोनों पक्षियों को छोड दिया । इस प्रकार उन दोनों देवों के द्वारा ठगाया हुआ दुर्बुद्धि तापस कन्याकुब्ज नगर के राजा पारतकी ओर चला । वह मानो इस बात की घोषणा ही करता जाता था कि अज्ञान पूर्ण वैराग्य स्थिर नहीं रहता । वहाँ अपने मामा पारत को देखकर उस निर्लज्जने अपने आकार मात्र से ही यह प्रकट कर दिया कि मैं यहाँ कन्या के लिए ही आया हूँ । राजा पारत ने उसकी परीक्षा के लिए दो आसन रक्खे - एक रागरहित और दूसरा रागसहित । दोनों आसानों को देखकर वह रागसहित आसन पर बैठ गया ॥81– 83॥ उसने अपने आने का वृत्तरन्त राजा के लिए बतलाया । उसे सुनकर राजा पारत बडे खेद से कहने लगा कि इस अज्ञान को धिक्कार हो, धिक्कार हो ॥84॥ फिर राजा ने कहा कि मेरे सौ पुत्रियाँ हैं इनमें से जो तुझे चाहेगी वह तेरी हो जायगी । राजा के ऐसा कहने पर जमदग्नि कन्याओं के पास गया । उनमें से जो तुझे चाहेगी वह तेरी हो जायगी । राजा के ऐसा कहने पर जमदग्नि को अधजला मुर्दा मानकर ग्लानि से भाग गईं और कितनी ही भय से पीडित होकर चली गईं ॥85– 86॥ लज्जा से पीडित हुआ वह मूर्ख तापस उन सब कन्याओं को छोडकर धूलिमें खेलनेवाली एक छोटी-सी लडकी ने कहा कि हाँ चाहती हूँ । तापसने जाकर राजा से कहा कियह लडकी मुझे चाहती है । इस प्रकार वह लडकी को लेकर वनकी ओर चला गया । पद-पद पर लोग उसकी निन्दा करते थे, वह अत्यन्त दीन तथा मूर्ख था ॥87-89॥ जमदग्नि ने उस लडकी का रेणुकी नाम रखकर उसके साथ विवाह कर लिया । उसी समय से ऐसी प्रवृत्ति-स्त्रियों के साथ तपश्चरण करना ही धर्म है यह कहावत प्रसिद्ध हुई है ॥90॥ जमदग्नि ने उस लडकी का रेणुकी नाम रखकर उसके साथ विवाह कर लिया । उसी समय से ऐसी प्रवृत्ति-स्त्रियों के साथ तपश्चरण करना ही धर्म है यह कहावत प्रसिद्ध हुई है ॥91- 92॥ इस प्रकार उन दोनों का काल सुख से बीत रहा था । एक दिन अरिन्जय नाम के मुनि जो रेणुकी के बड़े भाई थे उसे देखने की इच्छा से उसके घर आये ॥93॥ रेणुकी ने विनयपूर्वक मुनि के दर्शन किये । तदनन्तर पति से प्रेरणा पाकर उसने मुनि से पूछा कि हे पूज्य ! मेरे विवाह के समय आपने मेरे लिए क्या धन दिया था ? ॥94॥ सो कहो, रेणुकी के ऐसा कहने पर मुनि ने कहा कि उस समय मैंने कुछ भी नहीं दिया था । हे भद्रे ! अब ऐसा धन देता हूँ जो कि तीनों लोकों में दुर्लभ है । तू उसे ग्रहण कर । उस धन के द्वारा तू सुखों की परम्परा प्राप्त करेगी । यह कहकर उन्होंने व्रत से संयुक्त तथा शील की माला उज्ज्वल सम्यक्त्वरूपी धन प्रदान किया और काललब्धि के समान उनके वचनों से प्रेरित हुई रेणुकी ने कहा कि मैंनेआपका दिया सम्यग्दर्शन रूपी धन ग्रहण किया । मुनिराज इस बात सेबहुत हीसंतुष्ट हुए । उन्होंने मनोवांछित पदार्थ देने वाली कामधेनु नाम की विद्या और मन्त्र सहित एक फरशा भी उसके लिए प्रदान किया ॥95- 98॥ किसी दूसरे दिन पुत्र कृतवीर के साथ उसका पिता सहस्त्रबाहु उस तपोवन में आया । भाई होने के कारण जमदग्निने सहस्त्रबाहु से कहा कि भोजन करके जाना चाहिये । यह कह जमदग्नि ने उसे भोजन कराया । कृतवीर ने अपनी माँ की छोटी बहिन रेणुकी से पूछा कि भोजन में ऐसी सामग्री तो राजाओं के घर भी नहीं होती फिर तपोवन में रहने वाले आप लोगों के लिए यह सामग्री कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर में रेणुकी ने कामधेनु विद्या की प्राप्ति आदि का सब समाचार सुना दिया । मोह के उदय से आविष्ट हुए उस अकृतज्ञ कृतवीर ने रेणुकी से वह कामधेनु विद्या माँगी । रेणुकी ने कहा कि हे तात ! यह कामधेनु तुम्हारे वर्णाश्रमों के गुरू जमदग्निकी होमधेनु है अत: तुम्हारी यह याचना उचित नहीं है । रेणुकी के इतना कहते ही उसे क्रोध आ गया । वह क्रोध के वेग से कहने लगा कि संसार में जो भी श्रेष्ठ धन होता है वह राजाओं के योग्य होता है । कन्द मूल तथा फल खानेवाले लोगों के द्वारा ऐसी कामधेनु भोगने योग्य नहीं हो सक्ती ॥99-104॥ ऐसा कह कर वह कामधेनु को जबरदस्ती लेकर जाने लगा तब जमदग्नि ऋषि रोकने के लिए उसके सामने खड़े हो गये । कुमार्गगामी राजा कृतवीर जमदग्नि को मारकर तथा अपना मार्ग उल्लंघकर नगर की ओर चला गया । इधर कृशोदरी रेणुकी पति की मुत्यु से रोने लगी । तदनन्तर उसके दोनों पुत्र जब फूल, कन्द, मूल तथा फल आदि लेकर वन से लौटे तो यह सब देख आश्चर्य से पूछने लगे कि यह क्या है ? ॥105-106॥ सब बात को ठीक-ठीक समझ कर उन्हें क्रोध आ गया । स्वाभाविक पराक्रम को धारण करने वाले दोनों भाइयों ने पहले तो शोक से भरी हुई माता को युक्तिपूर्ण वचनों से संतुष्ट किया फिर तीक्ष्ण फरशा को ध्वजा बनाने वाले, यमतुल्य दोनों भाइयों ने परस्पर कहा कि गाय के ग्रहण में यदि मरण भी हो जाय तो वह पुण्य का कारण है ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है अथवा यह बात रहने दो, पिता के मरण को कौन सह लेगा ? ऐसा कहकर दोनों ही भाई चल पड़े । स्नेह से भरे हुए समस्त मुनिकुमार उनके साथ गये ॥107-110॥ राजा सहस्त्रबाहु और कृतवीर जिस मार्ग से गये थे उसी मार्ग पर चलकर वे अयोध्या नगर के समीप पहुँच गये । वहाँ कृतवीर के साथ संग्राम कर उन्होंने राजा सहस्त्रबाहु को मार डाला और सायंकाल के समय नगर में प्रवेश किया सो ठीक ही है क्योंकि जो अकार्य में प्रवृति करते हैं उनके लिए हलाहल विष के समान भयंकर पापों के परिपाक असह्य दु:खों की परम्परा रूप फल शीघ्र ही प्रदान करते हैं । इधर रानी चित्रमती के बड़े भाई शाण्डिल्य नामक तापस को इस बात का पता चला कि परशुराम, सहस्त्रबाहु की समस्त सन्तान को नष्ट करने के लिए उत्सुक है और रानी चित्रमती, निदानरूपी विष से दूषित तप के कारण महाशुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए राजा भूपाल के जीव स्वरूप देव के द्वारा गर्भवती हुई है अर्थात् उक्त देव रानी चित्रमती के गर्भ में आया है । ज्यों ही शाण्डिल्य को इस बात का पता चला त्यों ही वह बहिन चित्रमती को लेकर अज्ञात रूप से चल पड़ा और सुबन्धु नामक निर्ग्रन्थ मुनि के पास जाकर उसने सब समाचार कह सुनाये । 'हे आर्य ! मेरे मठ में कोई नहीं है इसलिएमैं वहाँ जाकर वापिस आऊंगा । जब तक मैं वापिस आऊं तब तक यह देवी यहाँ रहेगी' यह कहकर वह चित्रमती को सुबन्धु मुनि के पास छोड़कर अन्यत्र चला गया ॥111-117॥ इधर रानी चित्रमती ने पुत्र उत्पन्न किया। यह बालक भरतक्षेत्र का भावी चक्रवर्ती है यह विचारकर वन-देवताओं ने उसे शीघ्र ही उठा लिया । इस प्रकार वन-देवियाँ जिसकी रक्षा करती हैं ऐसा वह बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगा ॥118-119॥ तदनन्तर बड़ा भाई शाण्डिल्य नाम का तापस आकर उस चित्रमती को अपने घर ले गया । वह बालक पृथिवी को छूकर उत्पन्न हुआ था इसलिये शाण्डिल्य ने बड़ा भारी उत्सव कर प्रेम के साथ उसका सुभौम नाम रक्खा ॥120-125॥ वहाँ पर वह उपदेश के अनुसार निरन्तर प्रयोग सहित समस्त शास्त्रों का अभ्यास करता हुआ गुप्तरूप से बढने लगा ॥126॥ इधर जिनका उग्र पराक्रम बढ रहा है ऐसे रेगुकी के दोनों पुत्रों ने इक्कीस वार क्षत्रिय वंश को निर्मूल नष्ट किया ॥127॥ पिता के मारे जाने से जिन्होंने वैर बाँध लिया है ऐसे उन दोनों भाइयों ने अपने हाथ से मारे हुए समस्त राजाओं के शिरों को एकत्र रखने की इच्छा से पत्थर के खम्भों में संगृहीतकर रक्खा था॥128॥ इस तरह दोनों भाई मिलकर समस्त पृथिवी की राज्य लक्ष्मी का अच्छी तरह उपभोग कराते थे । किसी एक दिन निमित्तकुशल नाम के निमित्तज्ञानी ने फरशाके स्वामी राजा इन्द्रराम से कहा कि आपका शत्रु उत्पन्न हो गया है इसका प्रतिकार कीजिये । इसका विश्वास कैसे हो ? यदि आप यह जानना चाहते हैं तो मैं कहता हूं । मारे हुए राजाओं के जो दांत आपने इकट्ठे किये हैं वे जिसके लिए भोजन रूप परिणत हो जावेंगे वही तुम्हारा शत्रु होगा ॥129–131॥ निमित्त ज्ञानी का कहा हुआ सुनकर परशुराम ने उसका चित्त में विचार किया और उत्तम भोजन करानेवाली दानशाला खुलवाई ॥132॥ साथ में यह घोषणा करा दी कि जो भोजनाभिलाषी यहाँ आवें उन्हें पात्र में रक्खे हुए दाँत दिखलाकर भोजन कराया जावे । इस प्रकार शत्रु की परीक्षा के लिए वह प्रतिदिन अपने निरोगियों-नौकरों के द्वारा अनेक पुरूषों को भोजन कराने लगा ॥133–134॥ इधर सुभौमने अपनी माता से अपने पिता के मरने का समाचार जान लिया, वास्तव में उसका चक्रवर्तीपना प्राप्त होने का समय आ चुका था, अतिशय निमित्तज्ञानी सुबन्धु मुनि के कहे अनुसार उसे अपने गुप्त रहने का भी सब समाचार विदित हो गया अत: वह परिव्राजकका वेष रखकर अपने रहस्य को समझने वाले राजपुत्रों के समूह के साथ अयोध्या नगर की ओर चल पडा सो ठीक ही है क्योंकिे कल्याणकारी दैव भाग्यकारी दैव भाग्यशाली पुरूषों को समय पर प्रेरणा दे ही देता है ॥135–137॥ उस समय अयोध्या नगर में रहने वाले देवता बडे जोर से रोने लगे, पृथिवी काँप उठी ओर दिन में तारे आदि दिखने लगे ॥138॥ सुभौम कुमार भोजन करने के लिए जब परशुराम की दानशाला में पहुँचे तो वहां के कर्मचारियों ने बुलाकर उन्हें उच्च आसनपर बैठाया और मारे हुए राजाओं के संचित दाँत दिखलाये परन्तु सुभौम के प्रभाव से वे सब दाँ शालि चावलों के भातरूपी हो गये । यह सब देखकर वहां के परिचारकों ने राजा के लिए इसकी सूचना दी । राजा ने भी 'उसे पकडकर लाया जावे' यह कहकर मजबूत नौकरों को भेजा । अत्यन्त क्रूर प्रकृतिवाले भृत्यों ने सुभौम के पास जाकर कहा कि तुम्हें राजा ने बुलाया है अत: शीघ्र चलो । सुभौमने उत्तर दिया कि मैं तुम लोगों के समान इससे नौकरी नहीं लेता फिर इसके पास क्यों जाऊँ ? तुम लोग जाओ' ऐसा कहकर उसने उनकी तर्जना की, उसके प्रभाव से वे सब नौकर भयरूपी ज्वर से ग्रस्त हो गये और सब यथास्थान चले गये ॥139–143॥ यह सुनकर परशुराम बहुत कुपित हुआ । वह युद्ध के सब साधन तैयार कर आ गया । उसे आया देख सुभौम भी उसके सामने गया ॥144॥ परशुराम ने उसके साथ युद्ध करने के लिए अपनी सेना को आज्ञा दी । परन्तु भरतक्षेत्र के अधिपति जिस ब्यन्तरदेव ने जन्म से लेकर सुभौमकुमार की रक्षा की थी उसने उस समय भी उसकी रक्षा की अत: परशुराम की सेना उसके सामने नहीं ठहर सकी । यह देखकर परशुराम ने सुभौम की ओर स्वयं अपना हाथी बढाया परन्तु उसी समय सुभौम के भी एक गन्धराज-मदोन्मत्त हाथी प्रकट हो गया । यही नहीं, एक हजार देव जिसकी रक्षा करते हैं और जो चक्रवर्तीपना का साधन है ऐसा देवोपनीत चक्ररत्न भी पास ही प्रकट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि भाग्य के सन्मुख रहते हुए क्या नहीं होता ? जिस प्रकार पूर्वाचल पर सूर्य आरूढ होता है उसी प्रकार उस गजेन्द्र पर आरूढ होकर सुभौमकुमार निकला । वह हजार आरे वाले चक्ररत्न को हाथ में लेकर बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था । उसे देखकर परशुराम बहुत ही कुपित हुआ और सुभौम को मारने के लिए सामने आया ॥145–149॥ सुभौम कुमार ने भी चक्र-द्वारा उसे परलोक भेज दिया-मार डाला तथा बाकी बची हुई सेना के लिए उसी समय अभय घोषणा कर दी ॥150॥ श्री अरनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ करोड बत्तीस वर्ष व्यतीत हो जानेपर सुभौत चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ था ॥151॥ वह लक्ष्मीमान् था, इक्ष्वाकु वंश का सिंह था-शिरोमणि था, अत्यन्त स्पष्ट दिखने वाले चक्र आदि शुभ लक्षणों से सुशोभित था ॥152–153॥ तदनन्तर बाकी के रत्न तथा नौ निधियाँ भी प्रकट हो गईं इस प्रकार छह खण्डका आधिपत्य पाकर वह चक्रवर्ती के रूप में प्रकट हुआ ॥154॥ जिस प्रकार इन्द्र स्वर्ग में निरन्तर दिव्य भोगों का उपभोग करता रहता है उसी प्रकार सुभौम चक्रवर्ती भी चक्रवर्ती पद में प्राप्त होने योग्य दश प्रकार के भोगों का चिरकाल तक उपभोग करता रहा ॥155॥ सुभौम का एक अमृतरसायन नाम का हितैषी रसोइया था उसने किसी दिन बडी प्रसन्नता से उसके लिए रसायना नाम की कढी परोसी ॥156॥ सुभौमने उस कढी के गुणों का विचार तो नहीं किया, सिर्फ उसका नाम सुनने मात्र से वह कुपित हो गया । इसी के बीच इस रसोइया के शत्रु ने राजा को उल्टी प्रेरणा दी जिससे क्रोधवश उसने उस रसोइया को दण्डित किया । इतना अधिक दण्डित किया कि वह रसोइया उस दण्ड से म्रियमाण हो गया । उसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर निदान किया कि मैं इस राजा को अवश्य मारूँगा । थोडे से पुण्य के कारण वह मरकर ज्योतिर्लोकमें विभंगावधिज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाला देव हुआ । पूर्व वैरका स्मरण कर वह क्रोधवश राजा को मारने की इच्छा करने लगा ॥157–159॥ उसने देखा कि यह राजा जिह्लाका लोभी है अत: वह एक व्यापारी का वेष रख मीठे-मीठे फल देकर प्रतिदिन राजाकी सेवा करने लगा ॥160॥ किसी एक दिन उस देवने कहा कि महाराज ! वे फल तो अब समाप्त हो गये । राजा ने कहा कि यदि समापत हो गये तो फिर से जाकर उन्हीं फलों को ले आओ ॥161॥ उत्तर में देवने कहा कि वे फल नहीं लाये जा सकते । पहले तो मैंने उस वनकी स्वामिनी देवीकी आराधना कर कुछ फल प्राप्त कर लिये थे ॥162॥ यदि आपकी उन फलों में आसक्ति है-आप उन्हें अधिक पसन्द करते हैं तो आप मेरे साथ वहाँ स्वयं चलिये और इच्छानुसार उन फलों को खाइये ॥163॥ राजा ने उसके मायापूर्ण वचनों का विश्वास कर उसके साथ जाना स्वीकृत कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि जिनका पुण्य क्षीण हो जाता है उनकी विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है ॥164॥ यद्यपि मन्त्रियों ने उस राजा को रोका था कि आप मत्स्य की तरह रसना इन्द्रिय के लोभी हो यह राज्य छोड कर क्यों नष्ट होते हो तथापि उस मूर्ख ने एक न मानी । वह उनके वचन उल्लंघन कर जहाज द्वारा समुद्र में जा घुसा । उसी समय उसके घर से जिनमें प्रत्येक की एक-एक हजार यक्ष रक्षा करते थे ऐसे समस्त रत्न निधियों के साथ-साथ घर से निकल गये । यह जानकर वैश्यका वेष रखने वाला शत्रु भूतदेव अपने शत्रु राजा को समुद्र के बीच में ले गया ॥165-167॥ वहाँ ले जाकर उस दुष्ट ने पहले जन्म का अपना रसोइया का रूप प्रकट कर दिखाया और अनेक दुर्वचन कह कर पूर्वबद्ध वैर के संस्कार से उसे विचित्र रीति से मार डाला ॥168॥ सुभौम चक्रवर्ती भी अन्तिम समय रौद्रध्यान से मर कर नरकगति में उत्पन्न हुआ सो ठीक ही है क्योंकि दुर्बुद्धि से क्या नहीं होता है ? ॥169॥ सहस्त्रबाहु लोभ करने से अपने पुत्र के साथ-साथ तिर्यन्च गति में गया और हिंसा में तत्पर रहने वाले जमदग्नि ऋषि के दोनों पुत्र अधोगति-नरकगति में उत्पन्न हुए ॥170॥ इसीलिए बुद्धिमान् लोग इन राग-द्वेष दोनों को छोड़ देते हैं क्योंकि इनके त्याग से ही विद्वान् पुरूष वर्तमान में परमपद प्राप्त करते हैं, भूतकाल में प्राप्त करते थे और आगामी काल में प्राप्त करेंगे ॥171॥ देखो, आठवाँ चक्रवर्ती सुभौम यद्यपि सिंह के समान एक था-अकेला ही था तथापि वह समस्त पृथिवी का स्वामी हुआ । उसने अपने पिता का वध करने वाले जमदग्नि के दोनों पुत्रों को मारकर अपनी कीर्ति से समस्त दिशाएँ उज्ज्वल कर दी थीं किन्तु स्वयं दुर्नीति के वश पड़कर नरक में उत्पन्न हुआ था ॥172॥ सुभौम चक्रवर्ती का जीव पहले तो भूपाल नाम का राजा हुआ फिर असह्य तप-तपकर महाशुक्र स्वर्ग में सोलह सागर की आयुवाला देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर परशुराम को मारने वाला सुभौम नाम का सकल चक्रवर्ती हुआ और अन्त में नरक का अधिपति हुआ ॥173॥ अथानन्तर इन्हीं के समय नन्दिषेण बलभद्र और पुण्डरीक नारायण ये दोनों ही राजपुत्र हुए हैं । इनमें से पुण्डरीक का जीव तीसरे भव में सुकेतुके आश्रय से शल्य सहित तप कर आयु के अन्त में पहले स्वर्ग में देव हुआ था, वहाँ से च्युत होकर सुभौम चक्रवर्ती के बाद छह सौ करोड़ वर्ष बीत जाने पर इसी भरत क्षेत्र सम्बन्धी चक्रपुर नगर के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा वरसेन की लक्ष्मीमती रानी से पुण्डरीक नाम का पुत्र हुआ था तथा इन्हीं राजा की दूसरी रानी वैजयन्ती से नन्दिषेण नाम का बलभद्र उत्पन्न हुआ था । उन दोनों की आयु छप्पन हजार वर्ष की थी, शरीर छब्बीस धनुष ऊँचा था, दोनों की आयु नियत थी और अपने तप से सन्चित हुए पुण्य के कारण उन दोनों की आयु का काल सुख से व्यतीत हो रहा था ॥174-178॥ किसी एक दिन इन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन ने अपनी पद्यावती नाम की पुत्री पुण्डरीक के लिए प्रदान की ॥179॥ अथानन्तर पहले भव में जो सुकेतु नाम का राजा था वह अत्यन्त अहंकारी दुराचारी और पुण्डरीक का शत्रु था । वह अपने द्वारा उपार्जित कर्मो के अनुसार अनेक भवों में घूमता रहा । अन्त में उसने क्रम-क्रम से कुछ पुण्य का सन्चय किया था उसके अनुरोध से वह पृथिवी को वश करने वाला चक्रपुर का निशुम्भ नाम का अधिपति हुआ । उसकी आभा ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के मण्डल के समान थी । वह इतना तेजस्वी था कि दूसरे के तेज को बिलकुल ही सहन नहीं करता था । जब उसने पुण्डरीक और पद्यावती के विवाह का समाचार सुना तो वह बहुत ही कुपित हुआ । उसने सब सेना तैयार कर ली, वह शत्रुओं को मारने वाला था, नारकियों से भी कहीं अधिक निर्दय था और अखण्ड पराक्रमी था । पुण्डरीक को मारने की इच्छा से वह चल पड़ा । जिसका तेज निरन्तर बढ़ रहा है ऐसे पुण्डरीक के साथ उस निशुम्भ ने चिरकाल तक बहुत प्रकार का युद्ध किया और अन्त में उसके चक्ररूपी वज्र के घात से निष्प्राण होकर वह अधोगति में गया-नरक में जाकर उत्पन्न हुआ ॥180-184॥ सूर्य चन्द्रमा के समान अथवा मिले हुए दो लोकपालों के समान वे दोनों अपनी प्रभा से दिड़्मण्डल को व्याप्त करते हुए चिरकाल तक पृथिवी का पालन करते रहे ॥185॥ वे दोनों ही भाई बिना बाँटी हुई लक्ष्मी का उपभोग करते थे, परस्पर में परम प्रीति को प्राप्त थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी एक मनोहर विषय को देखते हुए अलग-अलग रहने वाले दो नेत्र ही हों ॥186॥ उन दोनों की राज्य से उत्पन्न हुई तृप्ति, तीन भव से चले आये पारस्परिक प्रेम से उत्पन्न होने वाली तृप्ति के एक अंश को भी नहीं प्राप्त कर सकीं थी । भावार्थ-उन दोनों का पारस्परिक प्रेम राज्य-प्रेम से कहीं अधिक था ॥187॥ पुण्डरीक ने चिरकाल तक भोग भोगे और उनमें अत्यन्त आसक्ति के कारण नरक की भयंकर आयु का बन्ध कर लिया। वह बहुत आरम्भ और परिग्रह का धारक था, अन्त में रौद्र ध्यान के कारण उसकी मिथ्यात्व रूप भावना भी जागृत हो उठी जिससे मर कर वह पापोदय से तम:प्रभा नामक छठवें नरक में प्रविष्ट हुआ ॥188-189॥ उसके वियोग से नन्दिषेण बलभद्र को बहुत ही वैराग्य उत्पन्न हुआ उससे प्रेरित हो उसने शिवघोष नामक मुनिराज के पास जाकर संयम धारण कर लिया ॥190॥ उसने निर्द्वन्द्व होकर बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार का शुद्ध तपश्चरण किया और कर्मों की मूलोत्तर प्रकृतियों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया ॥191॥ ये दोनों ही तीसरे भवमें राजपुत्र थे, फिर पहले स्वर्ग में देव हुए, तदनन्तर एक तो नन्दिषेण बलभद्र हुआ और दूसरा निशुम्भ प्रतिनारायण का शत्रु पुण्डरीक हुआ । यह तीन खण्ड के राजाओं-नारायणों में छटवाँ नारायण था ॥192॥ |