+ भगवान मल्लिनाथ, पद्म चक्रवर्ती, नंदिमित्र बलभद्र, दत्त नारायण बलीन्द्र प्रतिनारायण चरित -
पर्व - 66

  कथा 

कथा :

जिस प्रकार सिंह किसी हाथी को जीतता है उसी प्रकार जिन्‍होंने अनिष्‍ट करने वाले मोहरूपी मल्‍ल को अमल्‍ल की तरह जीत लिया वे मल्लिनाथ भगवान् हम सबके शल्‍य को हरण करने वाले हों ॥1॥

जम्‍बूद्वीप में मेरूपर्वत से पूर्व की ओर कच्‍छकावती नाम के देश में एक वीतशोक नाम का नगर है उसमें वैश्रवण नाम का उच्‍च कुलीन राजा राज्‍य करता था । जिस प्रकार कुम्‍भकार के हाथ में लगी हुई मिट्टी उसके वश रहती है उसी प्रकार बडे-बडे गुणों से शोभायमान उस राजा की समस्‍त पृथिवी उसके वश रहती थी ॥2–3॥

प्रजा का कल्‍याण करने वाले उस राजा से प्रजा का सबसे बडा योग यह होता था कि वह खजाना किला तथा सेना आदि के द्वारा उसका उपभोग करता था ॥4॥

वह किसी महाभय के समय प्रजा की रक्षा करने के लिए धनका संचय करता था और उस प्रजाको सन्‍मार्ग में चलाने के लिए उसे दण्‍ड देता था ॥5॥

इस प्रकार बढते हुए पुण्‍य के प्रभाव से प्राप्‍त हुई लक्ष्‍मी का वह नव विवाहिता स्‍त्री के समान बडे हर्ष से चिरकाल तक उपभोग करता रहा ॥6॥

किसी एक दिन उदार बुद्धिवाला वह राजा वर्षा के प्रारम्‍भ में बढती हुई वनावली को देखने के लिए नगर के बाहर गया ॥7॥

वहाँ जिस प्रकार कोई बडा राजा अपनी शाखओं और उपशाखाओं को फैलाकर तथा पृथिवी को व्‍याप्‍तकर रहता है और अनेक द्विज-ब्राह्मण उसकी सेवा करते हैं उसी प्रकार एक वटका वृक्ष अपनी शाखाओं और उपशाखाओं को फैलाकर तथा पृथिवी को व्‍याप्‍तकर खडा था एवं अनेक द्विज-पक्षीगण उसकी सेवा करते थे ॥8॥

उस वटवृक्ष को देखकर राजा समीपवर्ती लोगों से कहने लगा कि देखो देखो, इसका विस्‍तार तो देखो । यह ऊँचाई और बद्धमूलता को धारण करता हुआ ऐसा जान पड़ता है मानो हमारा अनुकरण ही कर रहा हो ॥9॥

इस प्रकार समीपवर्ती प्रिय मनुष्‍यों को आश्‍चर्य के साथ दिखलाता हुआ वह राजा दूसरे वन में चला गया और घूमकर फिर से उसी मार्ग से वापिस आया ॥10॥

लौट कर उसने देखा कि वह वटवृक्ष वज्र गिरने के कारण जड़ तक भस्‍म हो गया है । उसे देख कर वह विचार करने लगा कि इस संसार में मजबूत जड़ किसकी है ? विस्‍तार किसका है ? और ऊँचाई किसकी है ? जब इस बद्धमूल, विस्‍तृत और उन्‍नत वट वृक्ष की ऐसी दशा हो गई तब दूसरे का क्‍या विचार हो सकता है ? ऐसा विचार करता हुआ वह संसार की स्थिति से भयभीत हो गया । उसने अपना राज्‍य पुत्र के लिए दे दिया और श्रीनाग नामक पर्वत पर विराजमान श्रीनाग नामक मुनिराज के पास जाकर उनके धर्मरूपी रसायन का पान किया ॥11-13॥

अनेक राजाओं के साथ श्रेष्‍ठ तप धारण कर लिया, यथाविधि बुद्धिपूर्वक ग्‍यारह अंगों का अध्‍ययन किया, सोलह कारण भावनाओं का चिन्‍तवन कर तीर्थकर नाम कर्म का बन्‍ध किया, चिरकाल तक तपस्‍या की और अन्‍त में समस्‍त परिग्रह का त्‍याग कर अनुत्‍तर विमानों में से अपराजित नामक विमान में देव पद प्राप्‍त किया । वहाँ उस कुशल अ‍हमिन्‍द्र की तैंतीस सागर की स्थिति थी, एक हाथ ऊँचा शरीर था, साढ़े सोलह माह बीत जाने पर वह एक बार थोड़ी-सी श्‍वास ग्रहण करता था, तैंतीस हजार वर्ष बीत जाने पर एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता था, इसका काम-भोग प्रवीचार से रहित था, लोकनाडी पर्यन्‍त उसके अवधिज्ञान का विषय था और उतनी ही दूर तक उसकी दीप्ति, शक्ति, तथा विक्रिया ऋद्धि थी । इस प्रकार भोगोपभोग करते हुए उस अहमिन्‍द्र की आयु जब छह माह की शेष रह गई और वह पृथिवी पर आने के लिए सन्‍मुख हुआ तब इसी भरत क्षेत्र के बंग देश में मिथिला नगरी का स्‍वामी इक्ष्‍वाकुवंशी, काश्‍यपगोत्री, कुम्‍भ नाम का राजा राज्‍य करता था ॥14-20॥

उसकी प्रजावती नाम की रानी थी जो देसरी लक्ष्‍मी के समान जान पड़ती थी। देवों ने उसका रत्‍नवृष्टि आदि अचिन्‍त्‍य वैभव प्रकट किया था ॥21॥

उसके चैत्रशुक्‍ल प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय अश्विनी नक्षत्र में इष्‍ट फल को सूचित करने वाले सोलह स्‍वप्‍न देखे ॥22॥

उसी समय मंगल पढ़ने वाले उच्‍च स्‍वर से मंगल पढ़ने लगे और अप्‍ल निद्रा का विघात करने वाली प्रात:काल की भेरी बज उठी ॥23॥

प्रजावती रानी ने जागकर बड़े सन्‍तोष से स्‍नान किया, मंगलवेष धारण किया, और चन्‍द्रमा की रेखा जिस प्रकार चन्‍द्रमा के पास पहुँचती है उसी प्रकार वह अपने पति के पास पहुँची ॥24॥

वह अपने तेज से सभारूपी कुमुदिनी को विकसित कर रही थी । राजा ने उसे आती हुई देख आसन आदि देकर आनन्दित किया ॥25॥

तदनन्‍तर अर्धासन पर बैठी हुई रानी ने वे सब स्‍वप्‍न प‍ति के लिए निवेदन किये-कह सुनाये क्‍योंकि वह उनसे उन स्‍वप्‍नों का सुखदायी फल सुनना चाहती थी ॥26॥

राजा ने भी क्रम-क्रम से उन स्‍वप्‍नों का पृथक्-पृथक् फल कहकर बतलाया कि चूँकि तूने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा है अत: अहमिन्‍द्र तेरे गर्भ में आया है । इधर यह कहकर राजा, रानी को अत्‍यन्‍त हर्षित कर रहा था उधर उसके वचनों को सत्‍य करते हुए इन्‍द्र सब ओर से आकर उन दोनों का स्‍वर्गावतरण-गर्भकल्‍याणक का उत्‍सव करने लगे । भगवान् के माता-पिता अनेक कल्‍याणों से युक्‍त थे, उनकी अर्चा कर देव लोग बड़े सन्‍तोष से अपने-अपने स्‍थानों पर चले गये ॥27-29॥

माता का उदर जिन-बालक को धारण कर बिना किसी बाधा के ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिसमें चन्‍द्रमा का पूर्ण प्रतिबिम्‍ब पड़ रहा है ऐसा दर्पण का तल ही हो ॥30॥

सुख से नौ मास व्‍यतीत होने पर रानी प्रजावती ने मगसिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में उस देव को जन्‍म दिया जो कि पूर्ण चन्‍द्रमा के समान देदीप्‍यमान था, जिसके समस्‍त अवयव अच्‍छी तरह विभक्‍त थे, जो समस्‍त लक्षणों से युक्‍त था और तीन ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाला था ॥31-32॥

उसी समय हर्ष से भरे हुए समस्‍त देव आ पहुँचे और प्रात:काल के सूर्य के समान तेज के पिण्‍ड स्‍वरूप उस बालक को लेकर पर्वतराज सुमेरू पर्वत पर गये । वहाँ उन्‍होंने जिन-बालक का विराजमान कर क्षीरसागर के दुग्‍ध रूप जल से उनका अभिषेक किया, उत्‍तम आभूषण पहिनाये और मल्लिनाथ नाम रखकर जोर से स्‍तवन किया॥33-34॥

वे देवलोग जिन-बालक को वहाँ से वापिस लाये और इनका ‘मल्लिनाथ नाम है’ ऐसा नाम सुनाते हुए उन्‍हें माता की गोद में विराजमान कर अपने-अपने स्‍थानों पर चले गये ॥35॥

अरनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर पुण्‍यवान् मल्लिनाथ हुए थे । उनकी आयु भी इसी में शामिल थी ॥36॥

पचपन हजार वर्ष की उनकी आयु थी, पच्‍चीस धनुष ऊँचा शरीर था, सुवर्ण के समान कान्ति थी ॥37॥

हमारे विवाह के लिए सजाया गया है, कहीं चन्‍चल सफेद पताकाएँ फहराई गई हैं तो कहीं तोरण बाँधे गये हैं, कहीं चित्र-विचित्र रंगावलियाँ निकाली गई हैं तो कहीं फूलों के समूह बिखेरे गये हैं और स‍ब जगह समुद्र की गर्जना को जीतने वाले नगाड़े आदि बाजे मनोहर शब्‍द कर रहे हैं । इस प्रकार सजाये हुए नगर को देखकर उन्‍हें पूर्वजन्‍म के सुन्‍दर अपराजित विमानका स्‍मरण आ गया । वे सोचने लगे कि कहाँ तो वीतरागता से उत्‍पन्‍न हुआ प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा और कहाँ सज्‍जनों को लज्‍जा उत्‍पन्‍न करने वाला यह विवाह ? यह एक विडम्‍बना है, साधारण-पामर मनुष्‍य ही इसे प्रारम्‍भ करते हैं बुद्धिमान् नहीं । इस प्रकार विवाह की निन्‍दा करते हुए वे विरक्‍त हो‍कर दीक्षा धारण करने के लिए एद्यत हो गये ॥38–42॥

उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर विसतार के साथ उनकी स्‍तुति की, उनके दीक्षा लेने के विचार का अनुमोदन किया और यह सब कर वे आकाश-मार्ग से अदृश्‍य हो गये ॥43॥

अन्‍य साधारण मनुष्‍यों की बात जाने दो तीर्थंकरों में भी किन्‍हीं तीर्थंकरों की ही ऐसी बुद्धि होती है सो ठीक ही है क्‍योंकि कुमारावस्‍था में विषयों का त्‍याग करना महापुरूषों के लिए भी कठिन कार्य है ॥44॥

इस प्रकार भक्तिपूर्वक आकाश में वार्तालाप करते एवं उत्‍सव से भरे इन्‍द्रों ने मल्लिनाथ कुमार को दीक्षाकल्‍याणकके समय होनेवाला अभिषेक-महोत्‍सव प्राप्‍त कराया-उनका दीक्षाकल्‍याणक-सम्‍बन्‍धी महाभिषेक किया तथा मल्लिनाथ कुमार भी जयन्‍त नामक पालकी पर आरूढ़होकर श्‍वेतवनके उद्यानमें पहुँचे । वहाँ उन्‍होंने दो दिनके उपवास का नियम लेकर अपने जन्‍म के ही मास नक्षत्र दिन और पक्ष का आश्रय ग्रहण कर अर्थात् अगहन सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय सिद्ध भगवान्‍ को नमस्‍कार किया, बाह्याभ्‍यनतर-दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्‍याग कर दिया और तीन सौ राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥45–48॥

वे उसी समय संयमके कारण उत्‍पन्‍न हुए मन: पर्ययज्ञान से देदीप्‍यमान हो उठे । 'यह सनातन मार्ग है' ऐसा विचार कर सम्‍यग्‍ज्ञान से प्रेरित हुए महामुनि मल्लिनाथ भगवान् पारणा के दिन मिथिलापुरी में प्रविष्‍ट हुए । वहाँ सुवर्ग के समान कान्तिवाले नन्दिषेण नाम के राजा उन्‍हें प्रासुक आहार देकर शुभ पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥49–50॥

छद्मस्‍थावस्‍था के छह दिन व्‍यतीत हो जाने पर उन्‍होंने पूर्वोक्‍त वन में अशोक वृक्ष के नीचे दो दिन के लिए गमनागमन का त्‍याग कर दिया-दो दिनके उपवास का नियम ले लिया । वहीं पर जन्‍म के समान शुभ दिन और शुभ नक्षत्र आदि में उन्‍हें प्रात:काल के समय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्‍तराय इन तीन घातिया कर्मों का नाश होनेसे केवलज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया ॥51–52॥

उसी केवलज्ञान से मानो जिन्‍हें प्रबोध प्राप्‍त हुआ है ऐसे समस्‍त इन्‍द्रों ने एक साथ आकर उन सर्वज्ञ भगवान्‍की पूजा की ॥53॥

उनके समवसरण में विशाख को आदि लेकर अट्ठाईस गणधर थे, पाँच सौ पचार पूर्वधारी थे, उनतीस हजार शिखक थे, दो हजार दो सौ पूज्‍य अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, एक हजार चार सौ वादी थे, दो हजार नौ सौ विक्रिया ऋद्धिसे विभूषित थे और एक हजार सात सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी थे । इस प्रकार सब मिलाकर चालीस हजार मुनिराज उनके साथ थे ॥54-57॥

बन्‍धुषेणा को आदि लेकर पचपन हजार आर्यिकाएँ थीं, श्रावक एक लाख थे और श्राविकाएँ तीन लाख थी, देव-देवियाँ असंख्‍यात थीं, और सिंह आदि तिर्यन्‍च संख्‍यात थे । इस प्रकार मल्लिनाथ भगवान् इन बारह सभाओं से सदा सुशोभित रहते थे ॥58-59॥

मुक्तिमार्ग में लगाते हुए, भव्‍य जीवों के अनुरोधसे अनेक बड़े-बड़े देशों में विहार किया था ॥60॥

जब उनकी आयु एक माह की बाकी रह गई तब वे सम्‍मेदाचल पर पहुंचे । वहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ उन्‍होंने प्रतिमायोग धारण किया और फाल्‍गुन शुक्‍ला सप्‍तमी के दिन भरणी नक्षत्र में सन्‍ध्‍याके समय तनुवात वलय-मोक्षस्‍थान प्राप्‍त कर लिया ॥61-62॥

उसी समय इन्‍द्रादि देवों ने स्‍वर्गसे आकर निर्वाण-कल्‍याणक का उत्‍सव किया और गन्‍ध आदिके द्वारा पूजा कर उस क्षेत्रको पवित्र बना दिया ॥63॥

जिसमें जन्‍म-मरणरूपी तरंगे उठ रही हैं, जो दु:खरूपी खारे पानी से लबालब भरा हुआ है, जिसमें खोटी इच्‍छाएँ रूपी भँवर पड़नेके गड्ढे हैं और जो मिथ्‍यामतरूपी चन्‍द्रमासे निरन्‍तर बढ़ता रहता है ऐसे संसार रूपी सागरसे गणरूपी रत्‍नों का संचय करनेवाले मल्लिनाथ भगवान् शरीररूपी मगरमच्‍छ को दूर छोड़कर ध्‍यानरूपी नावके द्वारा पार हो लोक के अग्रभाग पर पहुँचे थे ॥64॥

जिन्‍होंने मोक्ष का श्रेष्‍ठ मार्ग बतलाया था, जिन्‍हें समस्‍त लोग नमस्‍कार करते थे, और जो समग्रगुणों से परिपूर्ण थे वे शल्‍य रहित मल्लिनाथ भगवान् तुम सबके लिए मोक्ष-लक्ष्‍मी प्रदान करें ॥65॥

जो पहले वैश्रवण नाम के राजा हुए, फिर अपराजित नामक अनुत्‍तर विमान में अहमिन्‍द्र हुए और फिर अतिशय दुष्‍ट मोहरूपी महारिपु को जीतने वाले तीर्थकर हुए वे मल्लिनाथ भगवान् तुम सबके लिए अनुपम सुख प्रदान करें ॥66॥

अथानन्‍तर-मल्लिनाथ जिनेन्‍द्र के तीर्थ में पद्य नाम का चक्रवर्ती हुआ है वह अपनेसे पहले तीसरे भवमें इसी जम्‍बूद्वीप के मेरूपर्वत से पूर्व की ओर सुकच्‍छ देशके श्रीपुर नगर में प्रजापाल नाम का राजा था । राजाओं में जितने प्राकृतिक गुण कहे गये हैं वह उन सबका उत्‍तम आश्रय था ॥67-68॥

अच्‍छे राजा के राज्‍य में प्रजा को अयुक्ति आदि पाँच तरह की बाधाओं में से कोई प्रकार की बाधा नहीं थी अत: समस्‍त प्रजा सुख से बढ़ रही थी ॥69॥

उस विजयी ने तीन शक्तिरूप सम्‍पत्ति के द्वारा समस्‍त शत्रुओं को जीत लिया था, समस्‍त युद्ध शान्‍त कर दिये थे और धर्म तथा अर्थके द्वारा समस्‍त भोगों का उपभोग किया था ॥70॥

किसी समय उल्‍कापात देखने से उसे आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया । अब वह इष्‍ट सम्‍पत्तियों को आपात रमणीय-प्रारम्‍भ में ही मनोहर समझने लगा ॥71॥

वह विचार करने लगा कि मैंने मूर्खतावश इन भोगों को स्‍थायी समझकर चिरकाल तक इनका उपभोग किया । यदि आज यह उल्‍कापात नहीं होता तो संसार-सागरमें मेरा भ्रमण होता ही रहता ॥72॥

ऐसा विचार कर उसने पुत्र के लिए राज्‍य सौंप दिया और स्‍वयं शिवगुप्‍त जिनेश्‍वरके पास जाकर परमपद पाने की इच्छा से निश्‍चय और व्‍यवहारके भेदसे दोनो प्रकार का संयम धारण कर लिया ॥73॥

अत्‍यन्‍त उत्‍कृष्‍ट आठ प्रकार की शुद्धियों से उसका तप देदीप्‍यमान हो रहा था, उसने अशुभ कर्मों का आस्‍त्रव रोक दिया था और क्रम-क्रम से आयु का अन्‍त पाकर अपने परिणामों को समाधियुक्‍त किया था ॥74॥

वह अपने राज्‍य से खरीदे एवं अपने हाथ (पुरुषार्थ) से प्राप्‍त हुए अच्‍युत स्‍वर्गको देखकर बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ सो ठीक ही है क्‍योंकि अल्‍प मूल्‍य देकर अधिक मूल्‍य की वस्‍तुको खरीदने वाला मनुष्‍य सन्‍तुष्‍ट होता ही है ॥75॥

इसी जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक काशी नामक देश है । उसकी वाराणसी नाम की नगरी में इक्ष्‍वाकुवंशीय पद्यनाभ नाम का राजा राज्‍य करता था । उसकी स्‍त्रीके पद्य आदि समस्‍त त्रक्षणोंसे सहित पद्य नाम का पुत्र हुआ था । तीस हजार वर्ष की उसकी आयु थी, बाईस धनुष ऊँचा शरीर था, वह सुवर्ण के समान देदीप्‍यमान था, और उसकी कान्ति आदि की देव लोग भी प्रार्थना करते थे ॥76- 78॥

पुण्‍य के उदय से उसने क्रमपूर्वक अपने पराक्रमके द्वारा अर्जित किया हुआ चक्रवर्तीपना प्राप्‍त किया था तथा चिरकाल तक बाधा रहित दश प्रकार के भोगों का आसक्तिके बिना ही उपभोग किया था ॥79॥

उसके पृथिवी सुन्‍दरी को आदि लेकर आठ सती पुत्रियाँ थीं जिन्‍हें उसने बड़ी प्रसन्‍नताके साथ सुकेतु नामक विद्याधरके पुत्रों के लिए प्रदान किया था ॥80॥

इस प्रकार चक्रवर्ती पद्य का काल सुख से व्‍यतीत हो रहा था । एक दिन आकाश में एक सुन्‍दर बादल दिखाई दिया जो चक्रवर्ती को हर्ष उत्‍पन्‍न कर शीघ्र ही नष्‍ट हो गया ॥81॥

उसे देखकर चक्रवर्ती विचार करने लगा कि इस बादल का यद्यपि कोई शत्रु नहीं है तो भी यह नष्‍ट हो गया फिर जिनके सभी शत्रु हैं ऐसी सम्‍पत्तियोंमें विवेकी मनुष्‍य को स्थिर रहने की श्रद्धा कैसे हो सकती है ? ॥82॥

ऐसा विचार कर चक्रवर्ती संयम धारण करने में तत्‍पर हुआ ही था कि उसी समय उसके कुल का वृद्ध दुराचारी सुकेतु कहने लगा कि यह तुम्‍हारा राज्‍य-प्राप्ति का समय है, अभी तुम छोटे हो, नवयौवन के धारक हो, अत: भोगों का अनुभव करो, यह समय तपके योग्‍य नहीं है, व्‍यर्थ ही निर्बुद्धि क्‍यों हो रहे हो ? ॥83-84॥

किसी भी तपसे क्‍या कुछ कार्य सिद्ध होता है । व्‍यर्थ ही कष्‍ट उठाना पड़ता है, इसका कुछ भी फल नहीं होता और न कोई परलोक ही है ॥85॥

परलोक क्‍यों नहीं है यदि यह जानना चाहते हो तो सुनो, जब परलोक में रहनेवाले जीव का ही अभाव है तब परलोक कैसे सिद्ध हो जावेगा ? जिस प्रकार आटा और किण्‍व आदिके संयोगसे मादक शक्ति उत्‍पन्‍न हो जाती है उसी प्रकार पन्‍चभूतसे बने हुए शरीर में चेतना उत्‍पन्‍न हो जाती है इसलिए आत्‍मा नाम का कोई पदार्थ है ऐसा कहना आकाश-पुष्‍पके समान है । जब आत्‍मा ही नहीं है तब मरनेके बाद अपने किये हुए कर्म का फल भोगने आदि की आकांक्षा करना वन्‍ध्‍यापुत्र के आकाश-पुष्‍प का सेहरा प्राप्‍त करने की इच्‍छा के समान है । इसलिए यह तप करने का आग्रह छोड़ो और निराकुल होकर राज्‍य करो ॥86-88॥

इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि यदि किसी तरह जीव का अस्तित्‍व मान भी लिया जाय तो इस कुमारावस्‍थामें जब कि आप अत्‍यन्‍त सुकुमार हैं जिसे प्रौढ़ मनुष्‍य भी नहीं कर सकते ऐसे कठिन तपको किस प्रकार सहन कर सकेंगे ? ॥89॥

इस प्रकार शून्‍यवादी मन्‍त्री का कहा सुनकर चक्रवर्ती कहने लगा कि इस संसार में जो पन्‍चभूतों का समूह दिखाई देता है वह रूपादि रूप है-स्‍पर्श रस गन्‍ध और वर्ण युक्‍त होने के कारण पुद्गलात्‍मक है । मैं सुखी हूं मैं दु:खी हूँ इत्‍यादिके द्वारा जिसका वेदन होता है वह चैतन्‍य भूत समूह से भिन्‍न है-पृथक है । हमारे इस शरीर में शरीरसे पृथक् चैतन्‍य गुण युक्‍त जीव नाम का पदार्थ विद्यमान है इसका स्‍वसंवेदनसे अनुभव होता है और बुद्धिपूर्वक क्रिया देखी जाती है इस हेतुसे अन्‍य पुरूषोंके शरीर में भी आत्‍मा है-जीव है, यह अनुमानसे जाना जाता है । इसलिए आत्‍मा नाम का पृथक् पदार्थ है यह मानना पड़ता है साथ ही परलोक का अस्‍तित्‍व भी मानना पड़ता है क्‍योंकि अतीत जन्‍म का स्‍मरण देखा जाता है ॥90–92॥

जिस प्रकार मदिरापान करनेसे बुद्धिमें जो विकार होता है वह कहाँसे आता है ? पूर्ववर्ती चैतन्‍य से ही उत्‍पन्‍न होता है इसी प्रकार संसार के समस्‍त जीवों के जो कारण और कार्यरूप बुद्धि उत्‍पन्‍न होती है वह कहाँसे आती है ? पूर्ववर्ती चैतन्‍यसे ही उत्‍पन्‍न होती है इसलिए जीवों का य‍द्यपि जन्‍म-मरण की अपेक्षा आदि-अन्‍त देखा जाता है परन्‍तु चैतन्‍य सामान्‍य की अपेक्षा उनका अस्‍तित्‍व अनादि सिद्ध है । इत्‍यादि युक्तिवादके द्वारा चक्रवर्ती ने उस शून्‍यवादी मन्‍त्रीको आत्‍माके अस्‍तित्‍व का अच्‍छी तरह श्रद्धान कराया, परिवार को विदा किया, अपने पुत्र के लिए राज्‍य सौंपा और समाधिगुप्‍त नामक जिनराज के पास जाकर सुकेतु आदि राजाओं के साथ संयम ग्रहण कर लिया-जिन-दीक्षा ले ली ॥93–95॥

उन्‍होंने अनुक्रम से आगे-आगे होने वाले विशुद्धि रूप परिणामों की पराकाष्‍ठा को पाकर घातिया कर्मों का अन्‍त प्राप्‍त किया-घातिया कर्मों का क्षय किया ॥96॥

अब वे नव केवल लब्‍धियों से देदीप्‍यमान हो उठा और विशुद्ध दिव्‍यध्‍वनिके स्‍वामी हो गये । जब अन्‍तिम समय आया तब औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंको छोड़कर परमेश्‍वर सम्‍बन्‍धी पदमें सिद्ध क्षेत्र में अधिष्ठित हो गये ॥97॥

अनेक मुकुटबद्ध राजाओं से हर्षित होनेवाले एवं उत्‍कृष्‍ट पद तथा सातिशय सम्‍पत्ति को प्राप्‍त हुए चक्रवर्ती पद्म के पुण्‍योदय से शरीर सम्‍बन्‍धी कुछ भी कृशता उत्‍पन्‍न नहीं हुई थी ॥98॥

जिन्‍हें अनेक भोगोपभोग प्राप्‍त हैं ऐसे पद्म चक्रवर्ती को केवल लक्ष्‍मी ही प्राप्‍त नहीं हुई थी किन्‍तु कीर्तिके साथ-साथ अनेक अभ्‍युदय भी प्राप्‍त हुए थे । इस तरह लक्ष्‍मी सहित वे पद्म चक्रवर्ती सज्‍जनों के लिए सत् पदार्थों का समागम प्राप्‍त करानेवाले हों ॥99॥

जो मन्‍दराचल के समान उन्‍नत थे-उदार थे, मन्‍दरागके धारक थे, राजाओं के योग्‍य तेज से श्रेष्‍ठ थे, और चक्रवर्तियोंमें नौवें चक्रवर्ती थे ऐसे पद्य बड़े हर्ष से सुशोभित होते थे ॥100॥

जो पहले प्रजापाल नाम का राजा हुआ था, फिर इन्द्रियों को दमन कर अच्‍युत स्‍वर्ग का इन्‍द्र हुआ, तदनन्‍तर समस्‍त भरत क्षेत्र का स्‍वामी और अनेक कल्‍याणों का घर पद्य नाम का चक्रवर्ती हुआ, फिर परमपद को प्राप्‍त हुआ ऐसा चक्रवर्ती पद्य हम सबके लिए निर्मल सुख प्रदान करे ॥101॥

अथानन्‍तर-इन्‍हीं मल्लिनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में सातवें बलभद्र और नारायण हुए थे वे अपनेसे पूर्व तीसरे भवमें अयोध्‍यानगर के राजपुत्र थे ॥102॥

वे दोनों पिता के लिए प्रिय नहीं थे इसलिए पिता ने उन्‍हें छोड़कर स्‍नेहवश अपने छोटे भाईके लिए युवराज पद दे दिया । यद्यपि छोटे भाईके लिए युवराज पद देने का निश्‍चय नहीं था फिर भी राजा ने उसे युवराज पद दे दिया ॥103॥

दोनों भाइयों ने समझा कि यह सब मन्‍त्री ने ही किया है इसलिए वे उस पर बहुत कुपित हुए और उस पर वैर बाँध कर धर्मतीर्थके अनुगामी बन गये । उन्‍होंने शिवगुप्‍त मुनिराज की शिष्‍यता स्‍वीकृत कर संयम धारण कर लिया । जिससे आयु के अन्‍त में मरकर सौधर्म स्‍वर्गके सुविशाल नामक विमान में देव पद को प्राप्‍त हो गये ॥104-105॥

वहाँ से च्‍युत होकर बनारसके राजा इक्ष्‍वाकुवंशके शिरोमणि राजा अग्निशिखके प्रिय पुत्र हुए ॥106॥

क्रमश: अपराजिता और केशवती उन दोनों की माताएँ थीं । नन्दिमित्र बड़ा भाई था और दत्‍त छोटा भाई था ॥107॥

बत्‍तीस हजार वर्ष की उनकी आयु थीं । बाईस धनुष ऊँचा शरीर था, क्रम से चन्‍द्रमा और इन्‍द्रनील मणिके समान उनके शरीर का वर्ण था और दोनों ही श्रेष्‍ठतम थे ॥108॥

तदनन्‍तर-जिसका वर्णन पहले आ चुका है ऐसा मन्‍त्री, संसार-सागरमें भ्रमण कर क्रम से विजयार्ध पर्वत पर स्थित मन्‍दरपुर नगर का स्‍वामी बलीन्‍द्र नाम का विद्याधर राजा हुआ । किसी एक दिन बाधा डालने वाले उस बलीन्‍द्रने अहंकारवश तुम्‍हारे पास सूचना भेजी कि तुम दोनोंके पास जो भद्रक्षीर नाम का प्रसिद्ध बड़ा गन्‍धगज है वह हमारे ही योग्‍य है अत: हमारे लिए ही दिया जावे ॥109–111॥

दूतके वचन सुनकर उन दोनोंने उत्‍तर दिया कि यदि तुम्‍हारा स्‍वामी बलीन्‍द्र हम दोनोंके लिए अपनी पुत्रियाँ देवे तो उसे यह गन्‍धगज दिया जा सकता है अन्‍यथा नहीं दिया जा सकता ॥112॥

इस प्रकार कानों को अप्रिय लगने वाला उनका कहना सुनकर बलीन्‍द्र अत्‍यन्‍त कुपित हुआ । वह यमराज का अनुकरण करता हुआ उन दोनोंके साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो गया । उस समय दक्षिणश्रेणीके सुरकान्‍तार नगर के स्‍वामी केसरिविक्रम नामक विद्याधरोंके राजा ने जो कि दत्‍तकी माता केशवती का बड़ा भाई था सम्‍मेदशिखर पर विधिपूर्वक सिंहवाहिनी और गरूडवाहिनी नाम की दो विद्याएँ उक्‍त दोनों कुमारों के लिए दे दीं और भाईपना मानकर उनके कार्य में सहायता देना स्‍वीकृत कर लिया ॥113–116॥

तदनन्‍तर उन दोनोंकी बलवान् सेनाओें का प्रलयकाल के समान समस्‍त प्रजा का संहार करने वाला भयकंर संग्राम हुआ ॥117॥

बलीन्‍द्रके पुत्र शतबलि और बलभद्रमें खूब ही मायामयी युद्ध हुआ । उसमें बलभद्रने शतबलि को क्रोधवश यमराज के मुख में पहुंचा दिया ॥118॥

यह देख, बलीन्‍द्रको क्रोध उत्‍पन्‍न हो गया । उसने इन्‍द्रके तुल्‍य नारायण दत्‍तको लक्ष्‍य कर अपना चक्र चलाया परन्‍तु वह चक्र प्रदक्षिणा देकर उसकी दाहिनी भुजा पर आ गया । दत्‍तनारायण ने उसी चक्र को लेकर उसे मार दिया और उसका शिर हाथमें ले लिया ॥119–120॥

युद्ध समाप्‍त होते ही उन दोनों वीरों ने अभय घोषणा की और चक्र सहित तीनों खण्‍डोंके पृथिवी-चक्रको अपने आधीन कर लिया ॥121॥

चिरकाल तक राज्‍य सुख भोगनेके बाद चक्रवर्ती-नारायणदत्‍त, नरकगति सम्‍बन्‍धी भयंकर आयु का बन्‍ध कर सातवें नरक गया ॥122॥

भाई के वियोग से बलभद्र को बहुत वैराग्‍य हुआ अत: उसने सम्‍भूत जिनेन्‍द्र के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ले ली तथा अन्‍त में केवली होकर मोक्ष प्राप्‍त किया ॥123॥

जो पहले अयोध्‍यानगर में प्रसिद्ध राजपुत्र हुए थे, फिर दीक्षा लेकर आयु के अन्‍त में सौधर्म स्‍वर्ग में देव हुए, वहाँसे च्‍युत होकर जो बनारस नगर में इक्ष्‍वाकु वंशके शिरोमणि नन्दिमित्र और दत्‍त नाम के बलभद्र तथा नारायण हुए । उनमेंसे दत्‍त तो मर कर सातवीं भूमिमें गया और नन्दिषेण कैवल्‍—लक्ष्‍मी को प्राप्‍त हुआ ॥124॥

मंत्री का जीव चिरकाल तक संसार-सागरमें भ्रमण कर पीछे बलीन्‍द्र नाम का विद्याधर हुआ और दत्‍त नारायणके हाथसे मरकर भयंकर नरकमें पहुँचा, इसलिए सज्‍जन पुरूषों को वैर का संस्‍कार छोड़ देना चाहिये ॥125॥