+ भगवान मुनिसुव्रत, हरिषेण चक्रवर्ती, राम बलभद्र, रावण प्रतिनारायण, राजा सागर, सुलासा, मधुपिंगल, राजा वसु, क्षीरकदम्बक, पर्वत, नारद चरित -
पर्व - 67

  कथा 

कथा :

जिनके नाम के व्रत शब्‍द का अर्थ सभी पदार्थों का त्‍याग था और जो उत्‍तम व्रतके धारी थे ऐसे श्री मुनिसुव्रत भगवान् हम सबके लिए अपना व्रत प्रदान करें ॥1॥

भगवान् मुनिसुव्रतनाथ इस भव से पूर्व तीसरे भवमें इसी भरतक्षेत्रके अंग देशके चम्‍पापुर नगर में हरिवर्मा नाम के राजा थे । किसी एक दिन वहाँके उद्यानमें अनन्‍तवीर्य नाम के निर्ग्रन्‍थ मुनिराज पधारे । उनकी वन्‍दना करने की इच्छा से राजा हरिवर्मा अपने समस्‍त परिवारके साथ पूजा की सामग्री लेकर उनके पास गये । वहाँ उन्‍होंने उक्‍त मुनिराज की तीन प्रदक्षिणाएं दीं, तीन वार पूजा की, तीनवार वन्‍दनाकी और तदनन्‍तर सनातन धर्म का स्‍वरूप पूछा ॥2-4॥

मुनिराज ने कहा कि यह जीव संसारी और मुक्‍तके भेद से दो प्रकार का है । जो आठ कर्मों से बद्ध है उसे संसारी कहते हैं और जो आठ कर्मोंसे मुक्‍त है-रहित है उसे मुक्‍त क‍हते हैं ॥5॥

उन कर्मों के ज्ञानावरणादि नामवाले आठ मूल भेद हैं और उत्‍तर भेद एक सौ अड़तालीस हैं ॥6॥

प्रकृति आदिके भेदसे बन्‍धके चार भेद हैं और मिथ्‍यात्‍व अविरति कषाय तथा योगके भेदसे प्रत्‍यय-कर्मबन्‍ध का कारण भी चार प्रकार का जिनेन्‍द्र भगवान् ने कहा है ॥7॥

उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके भेदसे कर्मों की अवस्‍था चार प्रकार की होती है तथा द्रव्‍य क्षेत्र काल भव और भाव की अपेक्षा संसार पाँच प्रकार का कहा गया है ॥8॥

गुप्ति आदिके द्वारा उन कर्मों का संवर होता है तथा तपके द्वारा संवर और निर्जरा दोनों होते हैं । चतुर्थ शुक्‍लध्‍यान के द्वारा मोक्ष होता है और मोक्ष होनेसे यह जीव सिद्ध कहलाने लगता है॥9॥

सम्‍पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है और एकदेश क्षय होना निर्जरा कही जाती है ! मुक्‍त जीव का जो सुख है वह अतुल्‍य अन्‍तरायसे रहित एव आत्‍यन्तिक-अन्‍ता‍तीत होता है ॥10॥

इस प्रकार अपने वचनरूपी किरणों की जालसे भव्‍यजीवरूपी कमलों को विकसित करनेवाले भगवान् अनन्‍तवीर्य मुनिराजने राजा हरिवर्माको तत्‍त्‍व उपदेश दिया ॥11॥

राजा हरिवर्मा भी मुनिराज के द्वारा कहे हुए तत्‍त्‍वके सद्भाव को ठीक-ठीक समझकर संसार से विरक्‍त हो गये । उन्‍होंने अपना राज्‍य बड़े पुत्र के लिए देकर बाह्याभ्‍यन्‍तरके भेद से दोनों प्रकार के परिग्रह का त्‍याग कर दिया और शीघ्र ही स्‍वर्ग अथवा मोक्ष जानेवाले राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥12-13॥

उन्‍होंने गुरूके समागमसे ग्‍यारह अंगों का अध्‍ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओें का चिन्‍तवन कर तीर्थंकर गोत्र का बन्‍ध किया ॥14॥

इस तरह चिरकाल तक तपकर आयु के अन्‍त में समाधिमरणके द्वारा, जिसके आगे चलकर पाँच कल्‍याणक होने वाले हैं ऐसा प्राणत स्‍वर्ग का इन्‍द्र हुआ ॥15॥

वहाँ बीस सागर प्रमाण उसकी आयु थी, शुक्‍ल लेश्‍या थी, साढे तीन हाथ ऊंचा शरीर था, वह दश माह में एक बार श्‍वास लेता था, बीस हजार वर्षमें एक बार आ‍हार ग्रहण करता था, मन-सम्‍बन्‍धी थोड़ा सो कामभोग करता था, और आठ ऋद्धियों से सहित था ॥16-17॥

पाँचवी पृथ्‍वी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था और उतनी ही दूर तक उसकी दीप्ति तथा शक्‍ति आदि का संचार था । इस प्रकार वह वहाँ चिरकाल तक सुख का उपभोग करता रहा । जब उसकी आयु छह माह की बाकी रह गई और वह वहाँ पृथिवी तलपर आने वाला हुआ तब उसके जन्‍मगृहके आंगन की देवों ने रत्‍नवृष्टिके द्वारा पूजा की ॥18–19॥

इसी भरतक्षेत्र के मगधेश में एक राजगृह नाम का नगर है । उसमें हरिवंश का शिरोमणि सुमित्र नाम का राजा राज्‍य करता था ॥20॥

वह काश्‍यपगोत्री था, उसकी रानी का नाम सोमा था, देवों ने उसकी पूजा की थी । तदनन्‍तर श्रावण कृष्‍ण द्वितीया के दिन श्रवण नक्षत्र में जब पूर्वोक्‍त प्राणा केन्‍द्र स्‍वर्गसे अवतार लेने के सन्‍मुख हुआ तब रानी सोमाने इष्‍ट अर्थको सूचित करनेवाले सोलह स्‍वप्‍न देखे और उनके बाद ही अपने मुहमें प्रवेश करता हुआ एक प्रभाववान् हाथी देखा । इसी हर्ष से वह जाग उठी और शुद्ध वेषको धारणकर राजा के पास गई । वहाँ फल सुनने की इच्छा से उसने राजा को सब स्‍वप्‍न सुनाये ॥21–23॥

अवधिज्ञानी राजा ने बतलाया कि तुम्‍हारे तीन जगत् के स्‍वामी जिनेन्‍द्र भगवान् का जन्‍म होगा ॥24॥

राजा के वचन सुनते ही रानी का ह्णदय तथा मुखकमल खिल उठा । उसी समय देवों ने आकर उसका अभिषेकोत्‍सव किया ॥25॥

स्‍वर्गीय सुख प्रदान करनेवाले देवोपनीत भोगोपभोगों से उसका समय आनन्‍दसे बीतने लगा । अनुक्रम से नवमा माह पाकर उसने सुख से उत्‍तम बालक उत्‍पन्‍न किया ॥26॥

श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकर के बाद जब चौवन लाख वर्ष बीत चुके तब इनका जन्‍म हुआ था, इनकी आयु भी इसीमें शामिल थी ॥27॥

जन्‍म समय में आये हुए एवं अपनी प्रभा से समस्‍त दिग्मण्‍डल को व्‍याप्‍त करने वाले इन्‍द्रों ने सुमेरू पर्वतपर ले जाकर उनका जन्‍माभिषेक किया और मुनिसुव्रतनाथ यह नाम रक्‍खा ॥28॥

उनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी, शरीर की ऊंचाई बीस धनुष की थी, कान्ति मयूर के कण्‍ठके समान नीली थी, और स्‍वयं वे समस्‍त लक्षणों से सम्‍पन्‍न थे ॥29॥

कुमार काल के सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर वे राज्‍याभिषेक पाकर आनन्‍द की परम्‍परा को प्राप्‍त हुए थे ॥30॥

इस प्रकार जब उनके पन्‍द्रह हजार वर्ष बीत गये तब किसी दिन गर्जती हुई घन-घटाके समय उनके यागहस्‍ती ने वन का स्‍मरण कर ग्रास उठाना छोड़ दिया-खाना पीना बन्‍द कर दिया । महाराज मुनिसुव्रतनाथ, अपने अवधिज्ञान रूपी नेत्रके द्वारा देख कर उस हाथी के मन की सब बात जान गये । वे कुतूहलसे भरे हुए मनुष्‍यों के सामने हाथी के पूर्वभव से सम्‍बन्‍ध रखनेवाला वृत्‍तान्‍त उच्‍च एवं मनोहर वाणी से इस प्रकार कहने लगे ॥31-33॥

पूर्व भवमें यह हाथी तालपुर नगर का स्‍वामी नरपति नाम का राजा था, वहाँ अपने उच्‍च कुलके अभिमान आदि खोटी-खोटी लेश्‍याओंसे इसका चित्‍त सदा घिरा रहता था, वह पात्र और अपात्र की विशेषतासे अनभिज्ञ था, मिथ्‍या ज्ञान से सदा मोहित रहता था । वहाँ इसने किमिच्‍छक दान दिया था उसके फलसे यह हाथी हुआ है ॥34-35॥

यह हाथी इस समय न तो अपने पहले अज्ञान का स्‍मरण कर रहा है, न पूज्‍य सम्‍पदा से युक्‍त राज्‍य का ध्‍यान कर रहा है और न कुदान की निष्‍फलता का विचार कर रहा है ॥36॥

भगवान् के वचन सुनने से उस उत्‍तम हाथीको अपने पूर्व भव का स्‍मरण हो आया इस लिए उसने शीघ्र ही संयमासंयम धारण कर लिया ॥37॥

इसी कारणसे भगवान् मल्लिनाथको आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया जिससे वे समस्‍त परिग्रहों का त्‍याग करने के लिए सम्‍मुख हो गये । उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी स्‍तुति की तथा उनके विचारों का समर्थन किया ॥38॥

उन्‍होंने युवराज विजयके लिए अपना राज्‍य देकर देवों के द्वारा दीक्षा-कल्‍याणक का महोत्‍सव प्राप्‍त किया ॥39॥

जिनकी कीर्ति प्रसिद्ध है, जिनका मोहकर्म दूर हो रहा है, और मनुष्‍य विद्याधर तथा देव जिन्‍हें ले जा रहे हैं ऐसे वे भगवान् अपराजित नाम की विशाल पालकी पर सवार हुए ॥40॥

नील नामक वन में जाकर उन्‍होंने वेला के उपवास का नियम लिया और वैशाख कृष्‍ण दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सांयकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । शाश्‍वत पद-मोक्ष प्राप्‍त करने की इच्‍छा करनेवाले सौधर्म इन्‍द्र ने सर्वदर्शी भगवान् मल्लिनाथ के बालों का समूह पन्‍चम-सागर-क्षीरसागर भेज दिया । दीक्षा लेते ही उन्‍हें मन:पर्ययज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया और इस तरह उन्‍होंने दीर्घकाल तक शुद्ध तथा निर्मल तप किया ॥41-43॥

यद्यपि वे समभाव से ही तृप्‍त रहते थे तथापि किसी दिन पारणा के समय राजगृह नगर में गये ॥44॥

वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले वृषभसेन नामक राजा ने उन्‍हें प्रासुक आहार देकर पन्‍चाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥45॥

इस प्रकार तपश्‍चरण करते हुए जब छद्मस्‍थ अवस्‍था के ग्‍यारह माह बीत चुके तब वे अपने दीक्षा लेने के लिए वन में पहुँचे । वहाँ उन्‍होंने चम्‍पक वृक्ष के नीचे स्थित हो कर दो दिन के उपवास का नियम लिया और दीक्षा लेने के मास पक्ष नक्षत्र तथा तिथि में ही अर्थात् वैशाख कृष्‍ण नवमी के दिन श्रवण नक्षत्र में शाम के समय उत्‍तम ध्‍यान के द्वारा केवलज्ञान उत्‍पन्‍न कर लिया ॥46-47॥

उसी समय इन्‍द्रों ने आकर बड़े हर्ष से ज्ञान-कल्‍याणक का उत्‍सव किया और मानस्‍तम्‍भ आदि की रचना तथा अनेक ऋद्धियों-सम्‍पदाओं से विभूषित समवसरण की रचना की ॥48॥

उन परमेष्‍ठी के मल्लि को आदि लेकर अठारह गणधर थे, पांच सौ द्वादशांग के जानने वाले थे, सज्‍जनों के द्वारा वन्‍दना करने के योग्‍य इक्‍कीस हजार शिक्षक थे, एक हजार आठ सौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, दो हजार दो सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, एक हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी थे, और एक हजार दो सौ वादी थे । इस प्रकार सब मिलाकर तीस हजार मुनिराज उनके साथ थे ॥49-52॥

पुष्‍पदन्‍ता को आदि लेकर पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएं थीं, संख्‍यात तिर्यन्‍च और असंख्‍यात देव देवियों का समूह था । इस तरह उनकी बारह सभाएं थीं । इन सबके लिए धर्म का उपदेश देते हुए उन्‍होंने चिरकालतक आर्य क्षेत्र में विहार किया । विहार करते-करते जब उनकी आयु एक माह की बाकी रह गई तब सम्‍मेदशिखर पर जाकर उन्‍होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और फाल्‍गुन कृष्‍ण द्वादशी के दिन रात्रिके पिछले भाग में शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्‍त कर लिया ॥53-56॥

उसी समय श्रेष्‍ठ देवों के समूह ने आकर पन्‍चम-कल्‍याणक की पूजा की, बड़े वैभव के साथ वन्‍दना की और तदनन्‍तर स‍ब देव यथास्‍थान चले गये ॥57 ।

हे प्रभो ! आपके शरीर की प्रभा से व्‍याप्‍त हुई यह सभा ऐसी जान पड़ती है मानो नील कमलों का वन ही हो, ह्णदयगत अन्‍धकार को नष्‍ट करनेवाले आपके वचन सूर्य से उत्‍पन्‍न दीप्ति को पराजित करते हैं, इसी तरह आपका ज्ञान भी संसार के समस्‍त पदार्थों से उत्‍पन्‍न हुए अज्ञानान्‍धकार को नष्‍ट करता है इसलिए हे भगवन् मुनिसुव्रतनाथ ! जिसे इन्‍द्रादि देवों के साथ-साथ सब संसार नमस्‍कार करता है मैं आपके उस ज्ञानरूपी सूर्य को सदा नमस्‍कार करता हूँ ॥58॥

कोई तो कारण से कार्य को, गुणी से गुण को और सामान्‍य से विशेष को पृथक् बतलाते हैं और कोई एक-अपृथक बतलाते हैं ये दोनों ही कथन एकान्‍तवाद से हैं अत: घटित नहीं होते परन्‍तु आपके नय के संयोग से दोनों ही ठीक-ठीक घटित हो जाते हैं इसीलिए हे भगवन् ! सज्‍जन पुरूष आपको आप्‍त कहते हैं और इसीलिए हम सब आपको नमस्‍कार करते हैं ॥59॥

जो पहले हरिवर्मा नाम के राजा थे, फिर जिन्‍होंने तप कर तथा सोलह कारण भावनाओं का चिन्‍तवन कर तीर्थकर नाम कर्म का बन्‍ध किया, तदनन्‍तर समाधिमरण से शरीर छोड़कर प्राणतेन्‍द्र हुए और वहाँ से आकर जिन्‍होंने हरिवंशरूपी आकाश के निर्मल चन्‍द्रमास्‍वरूप तीर्थंकर होकर भव्‍यजीवरूपी कुमुदिनियों को विकसित किया वे श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्‍द्र हम सबके लिए अपनी लक्ष्‍मी प्रदान करें ॥60॥

इन्‍हीं मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकर के तीर्थ में हरिषेण नाम का चक्रवर्ती हुआ । वह अपने से पूर्व तीसरे भव में अनन्‍तनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में एक बड़ा भारी राजा था । वह किसी कारण से उत्‍कृष्‍ट तप कर सनत्‍कुमार स्‍वर्ग के सुविशाल नामक विमान में छह सागर की आयु वाला उत्‍तम देव हुआ । वहाँ निरन्‍तर भोगों का उपभोग कर वहाँ निरन्‍तर भोगों का उपभोग कर वहाँ से च्‍युत हुआ और श्रीमुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकर के तीर्थ में भोगपुर नगर के स्‍वामी इक्ष्‍वाकुवंशी राजा पद्मनाभ की रानी ऐरा के हरिषेण नाम का उत्‍तम पुत्र हुआ ॥61-64॥

दशहजार वर्ष की उसकी आयु थी, देदीप्‍यमान कच्‍छूरस के समान उसकी कान्ति थी, चौबीस धनुष ऊंचा शरीर था और क्रम-क्रम से उसे पूर्ण यौवन प्राप्‍त हुआ था ॥65॥

किसी एक दिन राजा पद्मनाभ हरिषेण के साथ-साथ मनोहर नामक उद्यानमें गये हुए थे वहाँ अनन्‍तवीर्य नामक जिनेन्‍द्र की वन्‍दना कर उन्‍होंने उनसे संसार और मोक्ष का स्‍वरूप सुना जिससे वे राजसी वृत्ति को छोड़कर शान्‍त वृत्ति में स्थित होने के लिए उत्‍सुक हो गये ॥66-67॥

परमपद मोक्ष प्राप्‍त करने के इच्‍छुक राजा पद्मनाभने राज्‍य का भार पुत्र के लिए सौंपा और बहुत से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया॥68॥

'यह मोक्ष महल की दूसरी सीढ़ी है' ऐसा मानकर हरिषेण ने भी श्रावक के उत्‍तम व्रत धारण कर नगर में प्रवेश किया ॥69॥

इधर चिरकाल तक घोर तपश्‍चरण करते हुए पद्मनाथ मुनिराज ने दीक्षावन में ही प्रतिमायोग धारण किया और उन्‍हें केवलज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया ॥70॥

उसी दिन राजा हरिषेण की आयुधशाला में चक्र, छत्र, खंग, और दण्‍ड ये चार रत्‍न प्रकट हुए तथा श्रीगृहमें का‍किणी, चर्म, और मणि ये तीन प्रकट हुए । समाचार देने वालों ने दोनों समाचार एक साथ सुनाये इसलिए हरिषेण का चित्‍त बहुत ही संतुष्‍ट हुआ । वह समाचार सुनानेवालों के लिए बहुत-सा पुरस्‍कार देकर जिन-पूजा करने की इच्छा से निकला और जिनेन्‍द्र भगवान् की वन्‍दना कर वहाँ से वापिस लौट नगर में प्रविष्‍ट हुआ । वहाँ चक्ररत्‍न की पूजा कर वह दिग्‍विजय करने के लिए उद्यत हुआ ही था कि उसी समय उसी नगर में पुरोहित, गृहपति स्‍थपति, और सेनापति ये चार रत्‍न हुए तथा विद्याधर लोग विजयार्ध पर्वत से हाथी घोड़ा और कन्‍या रत्‍न ले आये ॥71–75॥

गणबद्धनाम के देव नदीमुखों-नदियों के गिरने के स्‍थानों में उत्‍पन्न हुई नौ बड़ी-बड़ी निधियाँ भक्ति पूर्वक स्‍वयं ले आये ॥76॥

उसने छह प्रकार की प्रशंसनीय सेना के साथ प्रस्थान किया, दिशाओं को जीतकर उनके सारभूत रत्‍न ग्रहण किये, सब पर विजय प्राप्‍त की और अन्‍त में देव,मनुष्‍य तथा विद्याधर राजाओं के द्वारा सेवित होते हुए उसने अपनी राजधानी में प्रवेश किया । वहाँ वह दश प्रकार के भोगों का निराकुलता से उपभोग करता हुआ चिरकाल तक स्थित रहा ॥77–78॥

किसी एक समय कार्तिक मास के नन्‍दीश्‍वर पर्व सम्‍बन्‍धी आठ दिनोंमें उसने महापूजा की और अन्‍तिम दिन उपवास का नियम ले कर वह महल की छत पर सभा के बीच में बैठा था और ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो आकाश में शरद ऋतु का चन्‍द्रमा सुशोभित हो । वहीं बैठे-बैठे उसने देखा कि चन्‍द्रमा को राहु ने ग्रस लिया है ॥79-80॥

यह देख वह विचार करने लगा कि संसार की इस अवस्‍था को धिक्‍कार हो । देखो, यह चन्‍द्रमा ज्‍योतिर्लोक का मुख्‍य नायक है, पूर्ण है और अपने परिवार से घिरा हुआ है फिर भी राहु ने इसे ग्रस लिया । जब इसकी यह दशा है तब जिसका कोई उल्‍लंघन नहीं कर सकता ऐसा समय आने पर दूसरों की क्‍या दशा होती होगी । इस प्रकार चन्‍द्रग्रहण देखकर चक्रवर्ती हरिषेण को वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया । उसने अनुप्रेक्षाओं के स्‍परूप का वर्णन करते हुए अपनी सभा में स्थित लोगों को श्रेष्‍ठ धर्म का स्‍वरूप बतलाया और शीघ्र ही उन्‍हें तत्‍त्‍वार्थ का ज्ञाता बना दिया ॥81-83॥

सत्‍पुरूषों के द्वारा पूजनीय हरिषेण ने अपने महासेन नामक पुत्र के लिए राज्‍य दिया, मनोवान्छित पदार्थ देकर दीन-अनाथ तथा याचकों को संतुष्‍ट किया । तदनन्‍तर काम को जीतने वाले उसने सीमन्‍त पर्वत पर स्थित श्रीनाग नामक मुनिराज के पास जाकर विविध प्रकार के परिग्रह का विधि-पूर्वक त्‍याग कर दिया । उसने अनेक राजाओं के साथ शान्ति प्राप्‍त करने का साधनभूत संयम धारण कर लिया, क्रम-क्रम से अनेक ऋद्धियाँ प्राप्‍त कीं और आयु के अन्‍त में चार प्रकार की आराधनाएं आराध कर प्रायोपगमन नामक संन्‍यास धारण कर लिया । जिसके समस्‍त पाप क्षीण हो गये हैं तथा जो दया की मूर्ति स्‍वरूप हैं ऐसा वह चक्रवर्ती अन्तिम अनुत्‍तर विमान-सर्वार्थसिद्धि में उत्‍पन्‍न हुआ ॥84-87॥

श्रीमान् हरिषेण चक्रवर्ती का जीव पहले जिसका शरीर राजलक्ष्‍मी से आलिंगित था ऐसा कोई राजा था, फिर पापसे अत्‍यन्‍त भयभीत हो उसने संसार का शरण मानकर तप धारण कर लिया जिससे तृतीय स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर आयु के अन्‍त में वहाँ से पृथिवी पर आकर हरिषेण चक्रवर्ती हुआ और सुख भोगकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्‍द्र हुआ ॥88॥

अथानन्‍तर-इन्‍हीं मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में राम और लक्ष्‍मण नाम के आठवें बलभद्र और नारायण हुए हैं इसलिए यहाँ उनका पुराण कहा जाता है ॥89॥

उसी भरतक्षेत्र के मलय नामक राष्‍ट्र में रत्‍नपुर नाम का एक नगर है । उसमें प्रजापति महाराज राज्‍य करते थे ॥90॥

उनकी गुणकान्‍ता नाम की स्‍त्री से चन्‍द्रचूल नाम का पुत्र हुआ था । उन्‍हीं प्रजापति महाराज के मंत्री का एक विजय नाम का पुत्र था । चन्‍द्रचूल और विजय में बहुत भारी स्‍नेह था । ये दोनों ही पुत्र अपने-अपने पिताओं को अत्‍यन्‍त प्रिय थे, बड़े लाड़ से उनका लालन-पालन होता था और कुल आदि का घमंड सदा उन्‍हें प्रेरित करता रहता था इसलिए वे दुर्दान्‍त हाथियों के समान दुराचारी हो गये थे ॥91- 92॥

किसी एक दिन उसी नगर में रहनेवाला कुबेर सेठ, उसी नगर में रहनेवाले वैश्रवण सेठ की गोतमा स्‍त्रीसे उत्‍पन्‍न श्रीदत्‍त नामक श्रेष्‍ठ पुत्र के लिए हाथ में जलधारा छोड़ता हुआ अपनी कुबेरदत्‍ता नाम की पुत्री दे रहा था । उसी समय महापाप के करनेवाले किसी अनुचर ने राजकुमार चन्‍द्रचूल से कुबेरदत्‍त के रूप आदि की प्रशंसा की । उसे सुनकर वह अपने मित्र विजय के साथ उस कन्‍या को बलपूर्वक अपने आधीन करने के लिए तत्‍पर हो गया ॥93–95॥

यह देख, वैश्‍यों का समूह चिल्‍लाता हुआ महाराज के पास गया । उसके रोने-चिल्‍लाने का शब्‍द सुनते ही महाराज की क्रोधाग्नि अपने पुत्र के दुराचाररूपी ईन्‍धन से अत्‍यन्‍त भड़क उठी । उन्‍होंने नगर के रक्षक को बुलाकर आज्ञा दी कि इस दुराचारी कुमार को शीघ्र ही लोकान्‍तर का अतिथि बना दो-मार डालो ॥96–97॥

उसी समय राजाज्ञा से प्रेरित हुआ नगर-रक्षक बहुत भारी भीड़ में से इस राजकुमार को जीवित पकड़कर महाराज के समीप ले आया ॥98॥

यह देख राजा ने विचार किया कि इस पापी को शीघ्र ही किस प्रकार मारा जाय ? कुछ देर तक विचार करने के बाद उन्‍होंने नगर-रक्षक को आदेश दिया कि इसे श्‍मशान में ले जाकर पेनी शूलीपर चढ़ा दो ॥99॥

राजा के कहते ही नगर-रक्षक कुमार को मारने के लिए चल दिया । सो ठीक ही है क्‍योंकि न्‍याय के अनुसार चलने वाले पुरूषों को स्‍नेह का अनुसरण करना उचित नहीं है ॥100॥

इधर यह हाल देख प्रधान-मन्‍त्री नगरवासियों को आगे कर राजा के समीप गया और हस्‍तरूपी कमल ऊपर उठाकर इस प्रकार निवेदन करने लगा ॥101॥

हे देव ! इसे कार्य और अकार्य का विवेक बाल्‍य-अवस्‍था से ही नहीं है, यह हम लोगों का ही प्रमाद है क्‍योंकि माता-पिता के द्वारा ही बालक सुशिक्षित और सदाचारी बनाये जाते हैं ॥102॥

यदि हाथी को बाल्‍यावस्‍था में यथायोग्‍य रीति से वश में नहीं किया जाता तो फिर वह मनुष्‍यों के द्वारा वश में नहीं किया जा सकता; यही हाल बालकों का है । यदि ये बाल्‍यावस्‍था में वश नहीं किये जाते हैं तो वे आगे चलकर ऐश्‍वर्य प्राप्‍त होने पर अभिमानरूपी ग्रह से आक्रान्‍त हो क्‍या कर गुजरेंगे इसका ठिकाना नहीं ॥103॥

यह कुमार न तो बुद्धिमान् है और न दर्बुद्धि ही है इसलिए प्राण-दण्‍ड देनेके योग्‍य नहीं है । अभी यह आहार्य बुद्धि है-इसकी बुद्धि बदली जा सकती है अत: इस समय इसे अच्‍छी तरह शिक्षा देना चाहिये ॥104॥

कुमार पर आपका कोप तो है नहीं, आप तो न्‍याय-मार्ग पर ले जाने के लिए ही इसे दण्‍ड़ देना चाहते हैं परन्‍तु आपको इस बात का भी ध्‍यान रखना चाहिये कि राज्‍य की संतति धारण करने के लिए यह एक ही है-आपका यही एक मात्र पुत्र है ॥105॥

यदि आप इस एक ही संतान को नष्‍ट कर देंगे तो 'कुछ करना चाहते थे और कुछ हो गया' यह लोकोक्ति आज ही आपके शिर आ पड़ेगी ॥106॥

दूसरी बात यह है कि इन लोगों के रोने-चिल्‍लाने से महाराज ने अपने बड़े पुत्र को मार डाला इस निन्‍दा के भय से ग्रस्‍त हुए ये अभी नगरवासी आपके सामने खड़े हुए हैं ॥107॥

इसलिए हे महाराज ! हम प्रार्थना करते हैं कि हम लोगों का यह अपराध क्षमा कर दिया जाय । मंत्री के यह वचन सुनकर राजा ने कहा कि आपका कहना ठीक नहीं है । ऐसा जान पड़ता है कि आप लोग शास्‍त्र के पारगामी होकर भी उसका अर्थ नहीं जानते हैं । दुष्‍टों का निग्रह करना और सज्‍जनों का पालन करना यह राजाओं का धर्म, नीति-शास्त्रों में बतलाया गया है । स्‍नेह, मोह, आसक्ति तथा भय आदि कारणों से यदि हम ही इस नीति-मार्ग का उल्‍लंघन करते हैं तो आप लोग उसकी प्रवृत्ति करने लग जावेंगे । इसलिए आप लोगों का मुझे उन्‍मार्गमें लगाना अच्‍छा नहीं है । यदि अपना दाहिना हाथ भी दुष्‍ट-दोषपूर्ण हो जाए तो राजा को उसे भी काट डालना चाहिये । जो मूर्ख राजा, करने योग्‍य और नहीं करने योग्‍य कार्यों के विवेक से दूर रहता है वह सांख्‍यमत में माने हुए पुरुष के समान है । उससे इस लोक और परलोक सम्‍बन्‍धी कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता ॥108–112॥

इसलिए इस कार्य में मुझे रोकना ठीक नहीं है । महाराज के इस प्रकार कहने पर लोगों ने समझा कि महाराज सब बात स्‍वयं जानते हैं ऐसा समझ सब लोग भय से अपने-अपने घर चले गये ॥113॥

पुत्र पर महाराज का प्रेम नहीं है ऐसा नहीं है ऐसा जानते हुए मंत्री ने राजा से कहा कि हे देव ! मैं इसे दण्‍ड स्‍वयं दूंगा । इस प्रकार राजा की आज्ञा लेकर मंत्री भी चला गया ॥114॥

वह अपने पुत्र और राजपुत्र को साथ लेकर वनगिरि नाम के पर्वत पर गया और वहाँ जाकर कुमार से कहने लगा कि हे कुमार, अब अवश्‍य ही आपका मरण समीप आ गया है, क्‍या आप निर्भय हो मरने के लिए तैयार हैं ? उत्‍तर में राजकुमार ने कहा कि यदि मैं मृत्‍यु से इस प्रकार ड़रता तो ऐसा कार्य ही क्‍यों करता । जिस प्रकार प्‍यास से पीडित मनुष्‍य के लिए ठण्‍डा पानी अच्‍छा लगता है उसी प्रकार मुझे मरण अच्‍छा लग रहा है इसमें भय की कौनसी बात है ? इस तरह कुमार की बात सुनकर मुख्‍य मंत्री ने महाराज, राजकुमार और स्‍वयं अपने दोनों लोकों का हित करने वाला कोई कार्य निश्‍चय किया ॥115–118॥

तदनन्‍तर मंत्रीने उसी पर्वत की शिखा पर जाकर महाबल नाम के गणधर की वन्‍दना की और उन्‍हें अपने आने का सब कार्य भी निवेदन किया ॥119॥

मन:पर्यय ज्ञानरूपी नेत्र को धारण करनेवाले उन गणधर महाराज ने कहा कि तुम भयभीत मत हो, ये दोनों ही तीसरे भव में इस भरत-क्षेत्र के नारायण और बलभद्र होने वाले हैं ॥120॥

यह सुनकर मंत्री उन्‍हें बड़ी प्रसन्‍नता से घर ले आया और धर्म श्रवण कराकर उसने उन दोनों को संयम धारण करा दिया ॥121॥

तदनन्‍दर वह मन्‍त्री राजा के समीप आया और यह कहने लगा कि कोई एक वनवासी गुहा में रहता था, वह सिंह के समान निर्भय था, उसने अपने सुखों का अनादर कर दिया था, वह अपने कार्यों में अत्‍यन्‍त तीव्र था और उग्र-चेष्‍टा का धारक था । मैंने वे दोनों ही कुमार उसके लिए सौंप दिये । उस गुहावासी ने भी उनसे कहा कि आप दोनों ने बहुत भारी दोष किया है अत: अब आप लोग सुख का स्‍मरण न करें, अब तो आप को कठिन दु:ख भोगना पड़ेगा । परलोक के निमित्‍त ह्णदय में इष्‍ट देवता का स्‍मरण करना चाहिये । यह सुनकर उन दोनों ने मुझसे कहा कि 'हे भद्र ! आप हम दोनों के लिए कष्‍टकर दण्‍ड़ न दीजिये, यह कार्य तो हम दोनों स्‍वयं कर रहे हैं अर्थात् स्‍वयं ही दण्‍ड लेने के लिए तत्‍पर हैं । यह कह वे दोनों अपने हाथ से उत्‍पादित तीव्र-वेदना प्राप्‍त कर परलोक के लिए तैयार हो गये । यह देख मैं इष्‍ट अर्थ की पूर्ति कर वापिस चला आया हुं । हे राजन् ! इस तरह आपका अभिप्राय सिद्ध हो गया ॥122–127॥

मन्‍त्री के वचन सुनकर राजा महादु:ख से व्‍यग्र हो गया और कुछ देर तक हवा-रहित स्‍थान में निष्‍पन्‍द खड़े हुए वृक्ष के समान निश्‍चय बैठा रहा ॥128॥

तदनन्‍तर राजा ने अपने आप, मंत्रियों तथा बन्‍धुजनों के साथ निश्‍चय किया और तत्‍पश्‍चात् मंत्री से कहा कि तुम्‍हें सदा हितकारी कार्य करना चाहिये, आज जो तुमने कार्य किया है वह पहले कभी भी तुम्‍हारे द्वारा नहीं किया गया ॥129॥

मन्‍त्री ने कहा कि जिस प्रकार जो किरणों का समूह अतीत हो चुकता है और जो फूल सांप वाले वृक्ष पर लगा-लगा सूख जाता है, उसके विषय में शोक करना उचित नहीं होता है उसी प्रकार यह कार्य भी अब कालातिपाती-अतीत हो चुका है अत: अब आपको इसके विषय में शोक नहीं करना चाहिये । मंत्री के वचन सुनकर राजा ने पूछा कि यथार्थ बात क्‍या है ? तदनन्‍तर राजा का अभिप्राय जानने वाला मन्‍त्री बोला कि वनगिरि पर्वत की गुफाओं और सघन वनों में बहुत से यति-मुनि रहते हैं उन्‍होंने अपने धैर्य रूपी तलवार की धारा से कषाय और विषयरूपी शत्रुओं को जीत लिया है, क्‍या स्‍थूल क्‍या सूक्ष्‍म-सभी जीवों की रक्षा करने में वे निरन्‍तर तत्‍पर रहते हैं । उनके ह्णदय से भय मानों भय से ही भाग गया है और क्रोध मानों क्रोध के कारण ही उनके पास नहीं आता है । वे भोग-उपभोग के पदार्थों में असंयमियों के समान सदा निरादर करते रहते हैं । वे दोनों ही कुमार उन यतियों से धर्म का सद्धाव सुनकर विरक्‍त हो दीक्षित हो गये हैं । इस प्रकार मंत्री के स्‍पष्‍ट वचन सुनकर राजा बहुत ही संतुष्‍ट हुआ ॥130–135॥

'दोनों लोकों का हित करने वाला तू ही है' इस प्रकार मन्‍त्री की प्रशंसा कर राजा ने विचार किया कि ये भोग कुपुत्र के समान पाप और निन्‍दा के कारण हैं । ऐसा विचार कर उसने अपने कुल के योग्‍य किसी पुत्र को राज्‍य का महान् भार सौंप दिया और वनगिरि नामक पर्वत पर जाकर गणधर भगवान् को पूजा की । वहीं पर नवदीक्षित राजकुमार तथा मंत्रि-पुत्र को देखकर उसने कहा कि मैंने जो बड़ा भारी अपराध किया है उसे आप दोनों क्षमा कीजिये । राजा के वचन सुनकर नवदीक्षित मुनियों ने कहा कि आप ही हमारे दोनों लोकों के गुरू हैं, यह संयम आपने ही प्रदान कराया है । इस प्रकार उन दोनों से प्रशंसा पाकर राजा ने सब परिग्रह का त्‍याग कर अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥136–139॥

क्रम-क्रम से मोह-कर्म का विध्वंस कर अवशिष्‍ट घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान रूपी ज्‍योति को प्राप्‍त कर वे लोक के अग्रभाग में देदीप्‍यमान होने लगे ॥140॥

इधर उत्‍कृष्‍ट चारित्र का पालन करते हुए वे दोनों ही कुमार आतापन योग लेकर तथा शरीर से ममत्‍व छोड़ कर खंगपुर नामक नगर के बाहर स्थित थे ॥141॥

उस समय खंगपुर नगर के राजा का नाम सोमप्रभ था । उसके सुदर्शना और सीता नाम की दो स्त्रियाँ थीं । उन दोनों के उत्‍तम कान्तिवाले शरीर को धारण करनेवाला सुप्रभ और गुणों के द्वारा पुरूषों में श्रेष्‍ठ पुरूषोत्‍तम इस प्रकार दो पुत्र थे । इनमें पुरूषोत्‍तम नारायण था वह दिग्विजय के द्वारा मधुसूदन नामक प्रतिनारायण को नष्‍ट कर नगर में प्रवेश कर रहा था । मनुष्‍य विद्याधर और देवेन्‍द्र उसके ऐश्‍वर्य को बढा रहे थे, उसका शरीर भी प्रभापूर्ण था ॥142–144॥

नगर में प्रवेश करते देख अज्ञानी चन्‍द्रचूल मुनि (राजकुमार का जीव) निदान कर बैठा । अन्‍त में जीवन समाप्‍त होने पर दोनों मुनियों ने चार प्रकार की आराधना की । उनमें से एक तो सनत्‍कुमार स्‍वर्ग के कनकप्रभ नामक विमान में विजय नामक देव और दूसरा मणिप्रभ विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ । वहाँ उनकी उत्‍कृष्‍ट आयु एक सागर प्रमाण थी । चिरकाल तक वहाँ के सुख भोग कर वे वहाँ से च्‍युत हुए ॥145–147॥

अथानन्‍तर इसी भरतक्षेत्र के बनारस नगर में राजा दशरथ राज्‍य करते थे । उनकी सुबाला नाम की रानी थी । उसने शुभ-स्‍वप्‍न देखे और उसी के गर्भ से फाल्‍गुन कृष्‍ण त्रयोदशी के दिन मघा नक्षत्र में सुवर्णचूल नाम का देव जो कि मन्‍त्री के पुत्र का जीव था, होनहार बलभद्र हुआ । उसकी तेरह हजार वर्ष की आयु थी, राम नाम था, और उसने सब लोगों को नम्रीभूत कर रक्‍खा था । उन्‍हीं राजा दशरथ की एक दूसरी रानी कैकेयी थी । उसने सरोवर, सूर्य, चन्‍द्रमा, धान का खेत और सिंह ये पाँच महाफल देने वाले स्‍वप्‍न देखे और उसके गर्भ से माघ शुक्‍ला प्रतिपदा के दिन विशाखा नक्षत्र में मणिचूल नाम का देव जो कि मन्‍त्री के पुत्र का जीव था उत्‍पन्‍न हुआ । उसके शरीर पर चक्र का चिह्न था, बारह हजार वर्ष की उसकी आयु थी और लक्ष्‍मण उसका नाम था ॥148-152॥

वे दोनों ही भाई पन्‍द्रह धनुष ऊंचे थे, बत्‍तीस लक्षणों से सहित थे, वज्रवृषभनाराच-संहनन के धारक थे और उन दोनों के समचतुरस्‍त्र-संस्‍थान नाम का पहला संस्‍थान था ॥153॥

वे दोनों ही अपरिमित शक्तिवाले थे, उनमें से राम का शरीर हंस के अंश अर्थात् पंख के समान सफेद था और लक्ष्‍मण का शरीर नील-कमल के समान नील कान्तिवाला था । जब राम का पचपन और लक्ष्‍मण का पचास वर्ष प्रमाण, अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ ऐश्‍वर्य से भरा हुआ कुमार-काल व्‍यतीत हो गया तब इसी भरतक्षेत्र की अयोध्‍या-नगरी में एक सगर नामक राजा हुआ था । वह सगर तब हुआ था जब कि प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज के बाद इक्ष्‍वाकुवंश के शिरोमणि असंख्‍यात राजा हो चुके थे और उनके बाद जब हरिषेण महाराज नामक दशवां चक्रवर्ती मरकर सर्वार्थसिद्धि में उत्‍पन्‍न हो गया था तथा उसके बाद जब एक हजार वर्ष प्रमाण काल व्‍यतीत हो चुका था । इस प्रकार काल व्‍यतीत हो चुकने पर सगर राजा हुआ था । वह अखण्‍ड़ राष्‍ट्र का स्‍वामी था, तथा बड़ा ही क्रोधी था । एक बार उसने सुलसा के स्‍वयंवर में आये हुए एवं राजाओं के बीच में बैठे हुए मधुपिंगल नाम के श्रेष्‍ठ राजकुमार को 'यह दुष्‍ट लक्षणों से युक्‍त है' ऐसा कहकर सभाभूमि से निकाल दिया । राजा मधुपिंगल सगर राजा के साथ वैर बांधकर लजाता हुआ स्‍वयंवर मण्‍डप से बाहर निकल पड़ा । अन्‍त में संयम धारण कर वह महाकाल नाम का असर हुआ । वह असुर राजा सगर के वंश को निर्मूल करने में तत्‍पर था ॥154-160॥

वह ब्राह्मण का वेष रखकर राजा सगरके पास पहुँचा और कहने लगा कि तू लक्ष्‍मी की वुद्धि के लिए, शत्रुओं का उच्‍छेद करने के लिए अथर्ववेदमें कहा हुआ प्राणियोंकी हिंसा करनेवाला यज्ञ कर । इस प्रकार पापसे नहीं ड़रने वाले उस महाकाल नामक व्‍यन्‍तर ने उस दुर्बुद्धि राजा को मोहित कर दिया ॥161-162॥

वह राजा भी उसके कहे अनुसार यज्ञ करके पापियोंकी भूमि अर्थात् नरकमें प्रविष्‍ट हुआ । इस प्रकार कुमार्ग में प्रवृत्ति करनेसे इस राजाका सबका सब कुल नष्‍ट हो गया । इधर राजा दशरथने जब यह समाचार सुना तब उन्‍होंने सोचा कि अयोध्‍यानगर तो हमारी वंशपरम्‍परासे चला आया है । ऐसा विचारकर वे अपने पुत्रों के साथ अयोध्‍या नगर में गये और वहीं रह कर उसका पालन करने लगे ॥163-164॥

वहीं इनकी किसी अन्‍य रानीसे भरत तथा शत्रुघ्र नाम के दो पुत्र और हुए थे । रावणको मारने से राम और लक्ष्‍मण का जो यश होनेवाला था उसका एक कारण था-वह यह कि उसी समय मिथिलानगरी में राजा जनक राज्‍य करते थे । उनकी अत्‍यन्‍त रूपवती तथा विनय आदि गुणों से विभूषित वसुधा नाम की रानी थी । राजा जनककी वसुधा नाम की रानीसे सीता नाम की पुत्री उत्‍पन्‍न हुई थी । जब वह नवयौवनको प्राप्‍त हुई तब उसे बरनेके लिए अनेक राजाओंने अपने-अपने दूत भेजे । परन्‍तु राजा ने यह कह कर कि मैं यह पुत्री उसीके लिए दूंगा जिसका कि दैव अनुकूल होगा, उन आये हुए दूतोंको विदा कर दिया ॥165-168॥

अथानन्‍तर-किसी एक समय राजा जनक विद्वज्‍जनों से सुशोभित सभा में बैठे हुए थे । वहीं पर कार्य करने में कुशल तथा हित करनेवाला कुशलमति नाम का सेनापति बैठा था । राजा जनक ने उससे एक प्राचीन कथा पूछी । वह कहने लगा कि 'पहले राजा सगर रानी सुलसा तथा घोड़ा आदि अन्‍य कितने ही जीव यज्ञ में होमे गये थे । वे सब शरीर-सहित स्‍वर्ग गये थे' यह बात सुनी जाती है । यदि आज कल भी यज्ञ करने से स्‍वर्ग प्राप्‍त होता हो तो हम लोग भी यथा योग्‍य-रीति से यज्ञ करें' । राजा के इस प्रकार वचन सुनकर सेनापति कहने लगा कि सदा क्रोधित हुए नागकुमार और असुरकुमार परस्‍पर की मत्‍सरता से एक दूसरे से प्रारम्‍भ किये हुए कार्यों में विघ्‍न करते हैं ॥169-173॥

चूंकि यज्ञ की य‍ह नई रीति महाकाल नामक असुर ने चलाई है अत: प्रतिपक्षियों के द्वारा इसमें विघ्‍न किये जाने की आशंका है ॥174॥

इसके सिवाय एक बात यह भी है कि नागकुमारों के राजा धरणेन्‍द्र ने नमि तथा विनमि का उपकार किया था इसलिए उसका पक्षपात करनेवाले विद्याधर अवश्‍य ही यज्ञ का विघात करेंगे ॥175॥

यज्ञ उन्‍हीं का सिद्ध हो पाता है जो कि उसके विघ्‍न दूर करने में समर्थ होते हैं । यद्यपि विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले विद्याधरों को इसका पता नहीं चलेगा यह ठीक है तथापि यह निश्चित है कि उनमें रावण बड़ा पराक्रमी और मानरूपी ग्रह से अधिष्ठित है उससे इस बात का भय पहले से ही है कि कदाचित् वह यज्ञ में विघ्‍न उपस्थित करे ॥176-177॥

हाँ, एक उपाय हो सकता है कि इस समय रामचन्‍द्रजी सब प्रकार से समर्थ हैं उनके लिए यदि हम यह कन्‍या प्रदान कर देंगे तो वे सब विघ्‍न दूर कर देंगे । इस प्रकार सेनापति के वचनों की सभा में बैठे हुए सब लोगों ने प्रशंसा की ॥178॥

राजा जनक के साथ ही साथ सब लोगों ने इस कार्य का निश्‍चय कर लिया और राजा जनक ने उसी समय सत्‍पुरूष राजा दशरथ के पास पत्र तथा भेंट के साथ एक दूत भेजा तथा उससे निम्‍न सन्‍देश कहलाया । आप मेरी यज्ञ की रक्षा के लिए शीघ्र ही राम तथा लक्ष्‍मण को भेजिये । यहाँ राम के लिए सीता नामक कन्‍या दी जावेगी । राम-लक्ष्‍मण के सिवाय अन्‍य राज्‍यपुत्रों को बुलाने के लिए भी अन्‍य अन्‍य दूत भेजे ॥179-181॥

अयोध्‍या के स्‍वामी राजा दशरथ ने भी पत्र में लिखा अर्थ समझा, दूत का कहा समाचार सुना और इस सब का प्रयोजन निश्चित करने के लिए मन्‍त्री से पूछा ॥182॥

उन्‍होंने राजा जनक का कहा हुआ सब मन्त्रियों को सुनाया और पूछा कि क्‍या कार्य करना चाहिये ? इसके उत्‍तर में आगमसार मन्‍त्री निम्‍नांकित अशुभ वचन कहने लगा कि यज्ञ के निर्विघ्‍न समाप्‍त होने पर दोनों लोकों में उत्‍पन्‍न होनेवाला हित होगा और उससे इन दोनों कुमारोंकी उत्‍तम गति होगी ॥183-184॥

आगमसार के वचन समाप्‍त होने पर उसके कहे हुए का निश्‍चयकर अतिशयमति नाम का श्रेष्‍ठ मन्‍त्री कहने लगा कि यज्ञ करना धर्म है यह वचन प्रमाणकोटि को प्राप्‍त नहीं है इसीलिए बुद्धिमान् पुरूष इस कार्य में प्रवृत्‍त नहीं होते हैं ॥185-186॥

वचन की प्रमाणता वक्‍ता की प्रमाणता से होती है । जिनमें समस्‍त प्राणियों की हिंसा का निरूपण है ऐसे यज्ञप्रवर्तक आगम का उपदेश करनेवाले विरूद्धवादी मनुष्‍य के वचन पागल-पुरूष के वचन के समान प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं । यदि वेद का निरूपण करने वाले परस्‍पर विरूद्धभाषी न हों तो उसमें एक जगह हिंसा का विधान और दूसरी जगह उसका निषेध ऐसे दोनों प्रकार के वाक्‍य क्‍यों मिलते ? कदाचित् यह कहो कि वेद स्‍वयंभू है, अपने आप बना हुआ है अत: परस्‍पर विरोध होने पर भी दोष नहीं है । तो यह कहना ठीक नहीं है क्‍योंकि आप से यह पूछा जा सकता है कि स्‍वयंभूपना कैसा है-इसका क्‍या अर्थ है ? यह तो कहिये । यदि बुद्धिमान् मनुष्‍यरूपी कारण के हलन-चलनरूपी सम्‍बन्‍ध से निरपेक्ष रहना अर्थात् किसी भी बुद्धिमान् मनुष्‍य के हलन-चलनरूपी व्‍यापार के बिना ही वेद रचा गया है अत: स्‍वयंभू है । स्‍वयंभूपन का उक्‍त अर्थ यदि आप लेते हैं तो मेघों की गर्जना और मेंढकों की टर्रटर्र इनमें भी स्‍वयंभूपन आ जावेगा क्‍योंकि ये सब भी तो अपने आप ही उत्‍पन्‍न होते हैं । इसलिए आगम वही है-शास्‍त्र वही है जो सर्वज्ञ के द्वारा कहा हुआ हो, समस्‍त प्राणियों का हित करने वाला हो और सब दोषों से रहित हो । यज्ञ शब्‍द, दान देना तथा देव और ऋषियों की पूजा करने अर्थमें आता है ॥187-192॥

याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्‍या, अध्‍वर, मख, और मह ये सब पूजाविधिके पर्यायवाचक शब्‍द हैं ॥193॥

यज्ञ शब्‍द का वाच्‍यार्थ जो बहुत भारी दान देना और पूजा करना है तत्‍स्‍वरूप धर्म से ही लोग पुण्‍य का सन्‍चय करते हैं और उसीके परिपाकसे देवेन्‍द्र होते हैं । इसलिए ही लोक और शास्‍त्रोंमें इन्‍द्रके शतक्रतु, शतमख और शताध्‍वर आदि नाम प्रसिद्ध हुए हैं तथा स‍ब जगह सुनाई देते हैं ॥194-185॥

यदि यज्ञ शब्‍द का अर्थ हिंसा करना ही होता है तो इसके करनेवाले की नरक गति होनी चाहिये । यदि ऐसा हिंसक भी स्‍वर्ग चला जाता है तो फिर जो हिंसा नहीं करते हैं उनकी अधोगति होना चाहिये- उन्‍हें नरक जाना चाहिये ॥196॥

कदाचित आपका यह अभिप्राय हो कि यज्ञ में जिसकी हिंसा की जाती है उसके शरीर का दान किया जाता है अर्थात् सबको वितरण किया जाता है और उसे मारकर देवों की पूजा की जाती है इस तरह यज्ञ शब्‍द का अर्थ जो दान देना और पूजा करना है उसकी सार्थकता हो जाती है ? तो आपका यह अभिप्राय ठीक नहीं है क्‍योंकि इस तरह दान और पूजा का जो अर्थ आपने किया है वह आपके ही घर मान्‍य होगा, सर्वत्र नहीं । यदि यज्ञ शब्‍द का अर्थ हिंसा ही है तो फिर धातुपाठ में जहाँ धातुओं के अर्थ बतलाये हैं वहाँ यजधातु का अर्थ हिंसा क्‍यों नहीं बतलाया ? वहाँ तो मात्र 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' अर्थात् यज धातु, देवपूजा, संगतिकरण और दान देना इतने अर्थों में आती है ।' यही बतलाया है । इसलिए यज्ञ शब्‍द का अर्थ नहीं है तो आर्य पुरूष प्राणि-हिंसा से भरा हुआ यज्ञ क्‍यों करते हैं ? तो आपका यह कहना अशिक्षित अथवा मूर्ख का लक्षण है-चिह्न है । क्‍योंकि आर्य और अनार्य के भेदसे यज्ञ दो प्रकार का माना जाता है ॥197-200॥

इस कर्मभूमिरूपी जगत् के आदि में होनेवाले परमब्रह्म श्रीवृषभदेव तीर्थंकर के द्वारा कहे हुए वेद में जिसमें कि जीवादि छह द्रव्‍योंके भेद का यथार्थ उपदेश दिया गया है क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि ये तीन अग्नियाँ बतलाई गई है । इनमें क्षमा वैराग्‍य और अनशन की आहुतियाँ देने वाले जो ऋषि यति मुनि और अनगाररूपी श्रेष्‍ठ द्विज वन में निवास करते हैं वे आत्‍मयज्ञ कर इष्‍ट अर्थ को देने वाली अष्‍टम पृथिवी-मोक्ष स्‍थान को प्राप्‍त होते हैं ॥201-203॥

इसके सिवाय तीर्थकर गणधर तथा अन्‍य केवलियों के उत्‍तम शरीर के संस्‍कार से पूज्‍य एवं अग्निकुमार इन्‍द्र के मुकुट से उत्‍पन्‍न हुई तीन अग्नियाँ हैं उनमें अत्‍यन्‍त भक्‍त तथा दान आदि उत्‍तमोत्‍तम क्रियाओं को करनेवाले तपस्‍वी, गृहस्‍थ, परमात्‍मपद को प्राप्‍त हुए अपने पिता तथा प्रपितामह को उद्देशकर ऋषिप्रणीत वेद में कहे मन्‍त्रों का उच्‍चारण करते हुए जो अक्षत गन्‍ध फल आदि के द्वारा आहुति दी जाती है वह दूसरा आर्ष-यज्ञ कहलाता है । जो निरन्‍तर यह यज्ञ करते हैं वे इन्‍द्र सामानिक आदि माननीय पदों पर अधिष्ठित होकर लौकान्तिक नामक देव ब्राह्मण होते हैं और अन्‍त में समस्‍त पापों को नष्‍टकर मोक्ष प्राप्‍त करते हैं ॥204-207॥

दूसरा श्रुतज्ञानरूपी वेद सामान्‍य की अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है, उसके द्रव्‍य-क्षेत्रा आदि के भेद से अथवा तीर्थकरों के पन्‍च-कल्‍याणकों के भेद से अनेक भेद हैं, उन सबके समय जो श्री जिनेन्‍द्रदेव का यज्ञ अर्थात् पूजन करते हैं वे पुण्‍य का सन्‍चय करते हैं और उसका फल भोगकर क्रम-क्रम से सिद्ध अवस्‍था-मोक्ष प्राप्‍त करते हैं ॥208-209॥

इस प्रकार ऋषियों ने यह यज्ञ मुनि और गृहस्‍थ के आश्रय से दो प्रकार का निरूपण किया है इनमें से पहला मोक्ष का साक्षात् कारण है और दूसरा परम्‍परा से मोक्ष का कारण है ॥210॥

इस प्रकार यह देवयज्ञ की विधि परम्‍परा से चली आई है, यही दोनों लोकों का हित करनेवाली है और यही निरन्‍तर विद्यमान रहती है ॥211॥

किन्‍तु श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में सगर राजा से द्वेष रखनेवाला एक महाकाल नाम का असुर हुआ । उसी अज्ञानी ने इस हिंसा यज्ञ का उपदेश दिया हैं ॥212॥

महाकाल ने ऐसा क्‍यों किया । यदि यह जानने की इच्‍छा है तो सुन लीजिये । इसी भरतक्षेत्र में चारणयुगल नाम का नगर है । उसमें सुयोधन नाम का राजा राज्‍य करता था ॥213॥

उसकी पट्टरानी का नाम अतिथि था, इन दोनों के सुलसा नाम की पुत्री थी । उसके स्‍वयंवर के लिए दूतों के कहनेसे अनेक राजाओं का समूह चारणयुगल नगर में आया था । अयोध्‍या का राजा सगर भी उस स्‍वयंवर में जाने के लिए उद्यत था परन्‍तु उसके बालों के समूह में एक बाल सफेद था, तेल लगाने वाले सेवक से उसे विदित हुआ कि यह बहुत पुराना है यह जानकर वह स्‍वयंवर में जाने से विमुख हो गया, उसे निर्वेद वैराग्‍य हुआ । राजा सगर की एक मन्‍दोदरी नाम की धाय थी जो बहुत ही चतुर थी । उसने सगर के पास जाकर कहा कि यह सफेद बाल नया है और तुम्‍हें किसी पवित्र-वस्‍तु का लाभ होगा यह कह रहा है । उसी समय विश्‍वभू नाम का मन्‍त्री भी वहाँ आ गया और कहने लगा कि यह सुलसा अन्‍य राजाओं से विमुख होकर जिस तरह आपको ही चाहेगी उसी तरह मैं कुशलता से सब व्‍यवस्‍था कर दूँगा । मन्‍त्री के वचन सुनने से राजा सगर बहुत ही प्रसन्‍न हुआ ॥214-219॥

वह चतुरंग सेना के साथ राजा सुयोधन के नगर की ओर चल दिया और कुछ दिनों में वहाँ पहुँच भी गया । सगर की मन्‍दोदरी धाय उसके साथ आई थी । उसने सुलसा के पास जाकर राजा सगर के कुल, रूप, सौन्‍दर्य, पराक्रम, नय, विनय, विभव, बन्‍धु, सम्‍पत्ति तथा योग्‍य वर में जो अन्‍य प्रशंसनीय गुण होते हैं उन सबका व्‍याख्‍यान किया । यह सब जानकर राजकुमारी सुलसा राजा सगर में आसक्‍त हो गई ॥220–222॥

जब सुलसा की माता अतिथि को इस बात का पता चला तब उसने युक्‍तिपूर्ण वचनों से राजा सगर की बहुत निन्‍दा की और कहा कि सुरम्‍यदेश के पोदनपुर नगर का राजा बाहुबली के वंश में होनेवाले राजाओं में श्रेष्‍ट तृणपिंगल नाम का मेरा भाई है । उसकी रानी का नाम सर्वयशा है, उन दोनों के मधुपिंगल नाम का पुत्र है जो वर के योग्‍य समस्‍त गुणों से गणनीय हैं-प्रशंसनीय हैं और नई अवस्‍था में विद्यमान हैं । आज तुझे मेरी अपेक्षा से ही उसे वरमाला डालकर सन्‍मानित करना चाहिये ॥223–224॥

सौत का दु:ख देनेवाले अयोध्‍या पति-राजा सगर से तुझे प्रयोजन है ? माता अतिथि ने यह वचन कहे जिन्‍हें सुलसा ने भी उसके आग्रहवश ग्रहण कर लिया ॥225॥

उसी समय से अतिथि देवी ने किसी उपाय से कन्‍या के समीप मन्‍दोदरी का आना जाना आदि बिलकुल रोक दिया ॥226॥

मन्‍दोदरी ने अपने प्रकृत कार्य की रूकावट राजा सगर से कही और राजा सगर ने अपने मन्‍त्री से कहा कि हमारा जो मनोरथ है वह तुम्‍हें सब प्रकार से सिद्ध करना चाहिये । बुद्धिमान मन्‍त्री ने राजा की बात स्‍वीकार कर स्‍वयंवर विधान नाम का एक ऐसा ग्रन्‍थ बनवाया कि जिसमें वर के अच्‍छे और बुरे लक्षण बताये गये थे । उसने वह ग्रन्‍थ पुस्‍तक के रूप में निबद्धकर एक सन्‍दूकची में रक्‍खा और वह सन्‍दूकची उसी नगर सम्‍बन्‍धी उद्यान के किसी वन में जमीन में छिपाकर रख दी । यह कार्य इतनी सावधानी से किया कि किसी को इसका पता भी नहीं चला ॥227–231॥

कितने ही दिन बीत जाने पर वन की पृथिवी खोदते समय उसके हल के अग्रभाग से वह पुस्‍तक निकाली और कहा कि इच्‍छानुसार खोदते हुए मुझे यह सन्‍दूकची मिली है । यह कोई प्राचीन शास्‍त्र है इस प्रकार कहता हुआ वह आश्‍चर्य प्रकट करने लगा, मानो कुछ जानता ही नहीं हो । उसने वह पुस्‍तक राजकुमारों के समूह में बंचवाई । उसमें लिखा था कि कन्‍या और वर के समुदाय में जिसकी आँख सफेद और पीली हो, माला के द्वारा उसका सत्‍कार नहीं करना चाहिये । अन्‍यथा कन्‍या की मृत्‍यु हो जाती है या वर मर जाता है । इसलिए पाप डर और लज्‍जावाले पुरूष को सभा में प्रवेश करना चाहिये । यदि कोई पापी प्रविष्‍ट भी हो जाय तो उसे निकाल देना चाहिये ॥232–235॥

मधुपिंगल में यह सब गुण विद्यमान थे अत: वह यह सब सुन लज्‍जावश वहाँ से बाहर चला गया और हरिषेण गुरू के पास जाकर उसने तप धारण कर लिया । यह जानकर अपनी इष्‍ट-सिद्धि होने से राजा सगर, विश्‍वभू मन्‍त्री, तथा कुटिल अभिप्राय वाले अन्‍य मनुष्‍य हर्ष को प्राप्‍त हुए ॥236–237॥

मधुपिंगल के भाई-बन्‍धुओं को तथा अन्‍य सज्‍जन मनुष्‍यों को उस समय दु:ख हुआ । देखो स्‍वार्थी मनुष्‍य दूसरों को ठगने से उत्‍पन्‍न हुए बड़े भारी पाप को नहीं देखते हैं ॥238॥

इधर राजा सुयोधन ने आठ दिन तक जिनेन्‍द्र भगवान् की महापूजा की, और उसके अन्‍त में अभिषेक किया । तदनन्‍तर उत्‍तम कन्‍या सुलसा को स्‍नान कराया, आभूषण पहिनाये, और शुद्ध तिथि वार आदि के दिन अनेक उत्‍तम योद्धाओं से घिरी हुई उस कन्‍या को पुरोहित रथ में बैठाकर स्‍वयंवर-मण्‍डप में ले गया ॥239–240॥

वहाँ अनेक राजा उत्‍तम आसनों पर समारूढ़ थे । पुरोहित उनके कुल जाति आदि का पृथक्-पृथक् क्रम पूर्वक निर्देश करने लगा परन्‍तु सुलसा अयोध्‍या के राजा सगर में आसक्‍त थी अत: उन सब राजाओं को छोड़ती हुई आगे बढ़ती गई और सगर के गले में ही माला डालकर उसका शरीर माला से अलंकृत किया ॥241–242॥

'इन दोनों का समागम विधाता ने ठीक ही किया है' यह कहकर वहाँ जो राजा ईर्ष्‍या रहित थे वे बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुए ॥243॥

विवाह की विधि समाप्‍त होने पर लक्ष्‍मीसम्‍पन्‍न राजा सगर सुलसा के साथ वहीं पर कुछ दिन तक सुख से रहा ॥244॥

तदनन्‍तर अयोध्‍या नगरी में जाकर भोगों का अनुभव करता हुआ सुख से रहने लगा । इधर मधुपिंगल साधु-संयम धारण कर रहे थे । एक दिन वे आहार के लिए किसी नगर में गये थे । वहाँ कोई निमित्‍त ज्ञानी उनके लखण देखकर कहने लगा कि 'इस युवा के चिह्न तो पृथिवी का राज्‍य करने के योग्‍य हैं परन्‍तु यह भिक्षा भोजन करनेवाला है इससे जान पड़ता है कि इन सामुद्रिक शास्‍त्रों से क्‍या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? ये सब व्‍यर्थ हैं' । इस प्रकार उस निमित्‍तज्ञानी ने लक्षणशास्‍त्र - सामुद्रिक शास्‍त्र की निन्‍दा की । उसके साथ ही दूसरा निमित्‍तज्ञानी था वह कहने लगा कि 'यह तो राज्‍य-लक्ष्‍मी का ही उपभोग करता था परन्‍तु सगर राजा के मन्‍त्री ने झूठ-झूठ ही कृतिम-शास्‍त्र दिखलाकर इसे दूषित ठहरा दिया और इसीलिए इसने लज्‍जावश तप धारण कर लिया । इसके चले जाने पर सगर ने सुलसा को स्‍वीकृत कर लिया' । उस निमित्‍तज्ञानी के वचन सुनकर मधुपिंगल मुनि क्रोधाग्नि से प्रज्‍वलित हो गये ॥245–249॥

'मैं इस तप के फल से दूसरे जन्‍म में राजा सगर के समस्‍त वंश को निर्मूल करूँगा' ऐसा उन बुद्धिहीन मधुपिंगल मुनि ने लगा तो उसे विभंगावधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्वभव का सब समाचार याद आ गया । याद आते ही उस पापी का चित्‍त क्रोध से भर गया । मन्‍त्री और राजा के ऊपर उसका वैर जम गया । यद्यपि उन दोनों पर उसका वैर जमा हुआ था तथापि वह उन्‍हें जान से नहीं मारना चाहता था, उसके बदले वह उनसे कोई भयंकर पाप करवाना चाहता था ॥250–254॥

वह असुर इसके योग्‍य उपाय तथा सहायकों का विचार करता हुआ पृथिवी पर आया परन्‍तु उसने इस बात का विचार नहीं किया कि इससे मुझे बहुत भारी पाप का संचय होता है । आचार्य कहते हैं कि ऐसी मूढ़ता के लिए धिक्‍कार हो ॥255॥

उधर वह अपने कार्य के योग्‍य उपाय और सहायकों की चिन्‍ता कर रहा था उसके अभिप्राय को सिद्ध करनेवाली दूसरी घटना घटित हुई जो इस प्रकार है । इसी जम्‍बूद्वीप सम्‍बन्‍धी भरतक्षेत्र के धवल देश में एक स्‍वस्तिकावती नाम का नगर है । हरिवंश में उत्‍पन्‍न हुआ राजा विश्‍वावसु उसका पालन करता था । इसकी स्‍त्री का नाम श्रीमति था । उन दोनों के वसु नाम का पुत्र था ॥256–257॥

उसी नगर में एक क्षीरकदम्‍ब नाम का पूज्‍य ब्राह्मण रहता था । वह समस्‍त शास्‍त्रों का विद्वान था और प्रसिद्ध श्रेष्‍ठ अध्‍यापक था ॥258॥

उसके पास उसका लड़का पर्वत, दूसरे देशसे आया हुआ नारद और राजा का पुत्र वसु ये तीन छात्र एक साथ पढ़ते थे ॥259॥

ये तीनों ही छात्र विद्याओं के पार को प्राप्‍त हुए थे, परन्‍तु उन तीनों में पर्वत निर्बुद्धि था, वह मोह के उदय से सदा विपरीत अर्थ ग्रहण करता था । बाकी दो छात्र, पदार्थ का स्‍वरूप जैसा गुरू बताते थे वैसा ही ग्रहण करते थे । किसी एक दिन ये तीनों गुरू के कुशा आदि लाने के लिए वन में गये थे ॥260–261॥

वहाँ एक पर्वत की शिलापर श्रुतधर नाम के गुरू विराजमान थे । अन्‍य तीन मुनि उन श्रुतधर गुरू से अष्‍टांग निमित्‍तज्ञान का अध्‍ययन कर रहे थे । जब अष्‍टांगनिमित्‍त ज्ञान का अध्‍ययन पूर्ण हो गया तब वे तीनों मुनि उन गुरूकी स्‍तुति कर बैठ गये । उन्‍हें बैठा देखकर श्रुतधर मुनिराजने उनकी चतुराई की परीक्षा करने के लिए पूछा कि 'जो ये तीन छात्र बैठे हैं इनमें किसका क्‍या नाम है ? क्‍या कुल है ? क्‍या अभिप्राय है ? और अन्‍त में किसकी क्‍या गति होगी ? यह आप लोग कहें ॥262–264॥

उन तीन मुनियों में एक आत्‍मज्ञानी मुनि थे । वे कहने लगे कि सुनिये, यह जो राजा का पुत्र वसु हमारे पास बैठा हुआ है वह तीव्र रागादिदूषित है अत: हिंसारूप धर्म का निश्‍चयकर नरक जावेगा । तदनन्‍तर बीच में बैठे हुए दूसरे मुनि कहने लगे कि यह जो ब्राह्मण का लड़का है इसका पर्वत नाम है, यह निर्बुद्धि है, क्रूर है, यह महाकाल के उपदेश से अथर्ववेद नामक पाप-प्रवर्तक शास्‍त्र का अध्‍ययन कर खोटे-मार्ग का उपदेश देगा, यह अज्ञानी हिंसा को ही धर्म समझता है, निरन्‍तर रौद्र-ध्‍यान में तत्‍पर रहता है और बहुत लोगों को उसी मिथ्‍यामार्ग में प्रवृ‍त्‍त करता है अत: नरक जावेगा ॥265–268॥

तदनन्‍तर तीसरे मुनि कहने लगे कि यह जो पीछे बैठा है इसका नारद नाम है, यह जाति का ब्राह्मण है, बुद्धिमान् है, धर्मध्‍यानमें तत्‍पर रहता है, अपने आश्रित लोगों को अहिंसारूप धर्म का उपदेश देता है, यह आगे चलकर गिरितट नामक नगर का राजा होगा और अन्‍त में परिग्रह छोड़ कर तपस्‍वी होगा तथा अन्‍तिम अनुत्‍तर विमान मे उत्‍पन्‍न होगा । इस प्रकार उन तीनों मुनियों का कहा सुनकर श्रुतधर मुनिराज ने कहा कि तुम लोगोंने मेरा कहा उपदेश ठीक ठीक ग्रहण किया है' ऐसा कहकर उन्‍होंने उन तीनों मुनियों की स्‍तुति की । इधर एक वृक्ष के आश्रयमें बैठा हुआ क्षीर कदम्‍ब उपाध्‍याय, यह सब बड़ी सावधानीसे सुन रहा था । सुनकर वह विचारने लगा कि विधि की लीला बड़ी ही विचित्र है, देख, इन दोनों की-पर्वत और वसु की अशुभगति होने वाली है, इनके अशुभ-कर्म को धिक्‍कार हो, धिक्‍कार हो, मैं इस विषय में कर ही क्‍या सकता हूँ ? ॥269–273॥

ऐसा विचारकर उसने उन मुनियों को वहीं वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे सक्‍तिपूर्वक नमस्‍कार किया और फिर बड़ी उदासीनतासे उन तीनों छात्रोंके साथ वह अपने नगर में आ गया ॥274॥

एक वर्ष के बाद शास्‍त्राध्‍ययन तथा बाल्‍यावस्‍था पूर्ण होने पर बसुके पिता विश्‍वावसु, वसुको राज्‍यपट्ट बाँधकर स्‍वयं तपो बनके लिए चले गये ॥275॥

इधर वसु पृथिवी का अनायास ही निष्‍कण्‍टक पालन करने लगा । किसी एक दिन वह विहार करने के लिए वन में गया था । वहीं क्‍या देखता है कि बहुतसे पक्षी आकाश में जाते-जाते टकराकर नीचे गिर रहे हैं । यह देख उसे बड़ा आश्‍चर्य हुआ । वह विचार करने लगा कि आकाश से जो ये पक्षी नीचे गिर रहे हैं इसमें कुछ कारण अवश्‍य होना चाहिये ॥276–277॥

य‍ह विचार कर, उसने उस स्‍थान का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिए धनुष खींचकर एक बाण छोड़ा वह बाण भी वहाँ टकराकर नीचे गिर पड़ा । यह देख, राजा वसु वहाँ स्‍वयं गया और सारथि के साथ उसने उस स्‍थान का स्‍पर्श किया । स्‍पर्श करते ही उसे मालूम हुआ कि यह आकाश स्‍फटिक का स्‍तम्‍भ है, वह स्‍तम्‍भ आकाश के रंग से इतना मिलता जुलता था कि किसी दूसरे को आज तक उसका बोध नहीं हुआ था ॥278–279॥

राजा वसु ने उस स्‍तम्‍भ को घर लाकर उसके चार बड़े-बड़े पाये बनवाये और उनका सिंहासन बनवाकर वह उसपर आरूढ़ हुआ । उस समय अनेक राजा आदि उसकी सेवा करते थे । लोग बडे आश्‍चर्य से उसकी सेवा करते थे । लोग बडे आश्‍चर्य की घोषणा करते हुए कहते थे कि देखो, राजा वसु सत्‍य के माहात्‍म्‍य से सिंहासन पर अधर आकाश में बैठता है ॥280–281॥

इस प्रकार इधर राजा वसुका समय बीत रहा था उधर एक दिन पर्वत और नारद, समिधा तथा पुष्‍प लानेके लिए वन में गये थे । वहाँ वे क्‍या देखते हैं कि कुछ मयूर नदी के प्रवाह का पानी पीकर गये हुए हैं । उनका मार्ग देखकर नारदने पर्वत से कहा कि हे पर्वत ! ये जो मयूर गये हुए हैं उनमें एक तो पुरूष है और बाकी सात स्त्रियाँ हैं । नारदकी बात सुनकर पर्वतने कहा कि तुम्‍हारा कहना झुठ है, उसे मन में यह बात सह्य नहीं हुई अत: उसने कोई शर्त बाँध ली ॥282–284॥

तदनन्‍तर कुछ आगे जाकर जब उसे इस बात का पता चला कि नारदका कहा सच है तो वह आश्‍चर्यको प्राप्‍त हुआ । वे दोनों वहाँसे कुछ और आगे बढ़े तो नारद हाथियों का मार्ग देखकर मुसकराता हुआ बोला कि यहाँसे जो अभी हस्तिनी गई है उसका बाँया नेत्र अन्‍धा है ॥285–286॥

पर्वत ने कहा कि तुम्‍हारा पहला कहना अन्‍धे साँप का बिलमें पहुंच जाने के समान यों ही सच निकल आया यह ठीक है परन्‍तु तुम्‍हारा यह विज्ञान हँसीको प्राप्‍त होता है । मैं क्‍या समझूँ ? इस तरह हँसते हुए ईर्ष्‍या के साथ उसने कहा और चित्‍तमें आश्‍चर्य प्राप्‍त किया ॥287–288॥

तदनन्‍तर नारद को झूठा सिद्ध करने के लिए वह हस्तिनीके मार्गका अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ा और नगरतक पहुँचनेके पहले ही उसे इस बात का पता चल गया कि नारदने जो कहा था वह सच है ॥289॥

अब तो पर्वत के शोकका पार नहीं रहा । वह शोक करता हुआ बड़े आश्‍चर्य से घर आया और नारद की कही हुई सब बात‍मातासे कहकर कहने लगा कि पिताजी जिस प्रकार नारदको शास्‍त्र की यथार्थ बात बतलाते हैं उस प्रकार मुझे नहीं बतलाते हैं । ये सदा मेरा अनादर करते हैं । इस तरह पापोदयसे विपरीत विचार करने के कारण पत्रके वचन, तीक्ष्‍णशस्‍त्रके समान उसके ह्णदय को चीरकर घुस गये । ब्राह्मणी पुत्र के वचनों को विचार कर ह्णदयसे शोक करने लगी ॥290–292॥

जब ब्राह्मण क्षीरकदम्‍ब स्‍नान; अग्नि होत्र तथा भोजन करके बैठा तब ब्राह्मणी ने पर्वत के द्वारा कही हुई सब बात कह सुनाई । उसे सुनकर ज्ञानियों से श्रेष्‍ठ ब्राह्मण कहने लगा कि मैं तो सबको एकसा-उपदेश देता हूं परन्‍तू प्रत्‍येक पुरूष की बुद्धि भिन्‍न हुआ करती है यही कारण है कि नारद कुशल हो गया है । तुम्‍हारा पुत्र स्‍वभावसे ही मन्‍द है, इसलिए नारदपर व्‍यर्थ ही ईर्ष्‍या न करो । यह कहकर उसने विश्‍वास दिलानेके लिए पुत्र के समीप ही नारद से कहा कि कहो, आज वन में घूमते हुए तुमने पर्वत का क्‍या उपद्रव किया था ? गुरू की बात सुनकर वह कहने लगा कि बड़ा आश्‍चर्य है ? यह कहते हुए उसने बड़ी विनय से कहा कि मैं पर्वत के साथ विनोद-वार्ता करता हुआ वन में जा रहा था । वहाँ मैंने देखा कि कुछ मयूर पानी पीकर नदी से अभी हाल लौट रहे हैं ॥293–297॥

उनमें जो मयूर था वह अपनी पूँछ के चन्‍द्रक पानी में भीगकर भारी हो जाने के भय से अपने पैर पीछे की ओर रख फिर मुँह फिराकर लौटा था और बाकी जल से भीगे हुए अपने पंख फटकारकर जा रहे थे । यह देख मैंने अनुमान द्वारा पर्वत से कहा था कि इनमें एक पुरूष है और बाकी स्त्रियाँ हैं । इसके बाद वन के मध्‍य से चलकर किसी नगर के समीप देखा कि चलते समय किसी हस्तिनी के पिछले पैर उसी के मूत्र से भीगे हुए हैं इससे मैंने जाना कि यह हस्तिनी है । उसके दाहिनी ओर के वृक्ष और लताएँ टूटी हुई थीं इससे जाना कि यह हथिनी बाँई आँख से कानी है । उसपर बैठी हुई स्‍त्री मार्ग की थकावट से उतरकर शीतल छाया की इच्छा से नदी के किनारे सोई थी वहाँ उसके उदर के स्‍पर्श से जो चिह्न बन गये थे उन्‍हें देखकर मैंने जानता था कि यह स्‍त्री गर्भिणी है । उसकी साड़ी का एक छोर किसी झाडी में उलझकर लग गया था इससे जाना था कि वह सफेद साड़ी पहने थी । जहाँ हस्तिनी ठहरी थी उस घर के अग्रभाग पर सफेद ध्‍वजा फहरा रही थी इससे अनुमान किया था कि इसके पुत्र होगा । इस प्रकार अनुमान से मैंने ऊपर की सब बातें कहीं थी । नारद की ये सब बातें सुनकर उस श्रेष्‍ठ ब्राह्मण ने ब्राह्मणी के समक्ष प्रकट कर दिया कि इसमें मेरा अपराध कुछ भी नहीं है-मैंने दोनों को एक समान उपदेश दिया है ॥298–304॥

उस समय पर्वत की माता भी यह सब सुनकर बहुत प्रसन्‍न हुई थी । तदनन्‍तर उस ब्राह्मण ने पर्वत की माताको उन मुनियों के वचनों का विश्‍वास दिलानेकी इच्‍छा की । वह अपने पुत्र पर्वत और विद्यार्थी नारदके भावोंकी परीक्षा करने के लिए स्‍त्री सहित एकान्‍तमें बैठा । उसने आटेके दो बकरे बनाकर पर्वत और नारदको सौंपते हुए कहा कि जहाँ कोई देख न सके ऐसे स्‍थान में ले जाकर चन्‍दन तथा माला आदि मांगलिक पदार्थों से इनकी पूजा करो और फिर कान काटकर इन्‍हें आज ही यहाँ ले आओ ॥305–307॥

तदनन्‍तर पापी पर्वत ने सोचा कि इस वन में कोई नहीं है इसलिए वह एक बकरे के दोनों कान काटकर पिता के पास वापस आ गया और कहने लगा कि हे पूज्‍य ! आपने जैसा कहा था मैंने वैसा ही किया है । इस प्रकार दयाहीन पर्वतने बड़े हर्ष से अपना कार्य पूर्ण करने की सूचना पिता को दी ॥308–309॥

नारद भी वन में गया और सोचने लगा कि 'अदृश्‍य स्‍थान में जाकर इसके कान काटना है' ऐसा गुरूजीने कहा था परन्‍तु यहाँ अदृश्‍य स्‍थान है ही कहाँ ? देखो न, चन्‍द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारे आदि देवता सब ओरसे देख रहे हैं । पक्षी तथा हरिण आदि अनेक जंगली जीव सदा पास ही रह रहे हैं । ये किसी भी तरह यहाँसे दूर नहीं किये जा सकते । ऐसा विचारकर वह भव्‍यात्‍मा गुरूके पास वापिस आ गया और कहने लगा कि वन में ऐसा स्‍थान मिलना असम्‍भव है जिसे किसी ने नहीं देखा हो । इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि वन में ऐसा स्‍थान मिलना असम्‍भव है जिसे किसी ने नहीं देखा हो । इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि नाम स्‍थापना द्रव्‍य और भाव इन चारों पदार्थोंमें पाप तथा निन्‍दा उत्‍पन्‍न करने वाली क्रियाएँ करने का विधान नहीं है इसलिए मैं इस बकरा को ऐसा ही लेता आया हूँ ॥310–313॥

नारदके वचन सुनकर उस ब्राह्मण ने अपने पुत्रकी मूर्खता का विचार किया और काहा कि जो एकान्‍तवादी कारण के अनुसार कार्य मानते हैं वह एकान्‍तवाद है और मिथ्‍यामत है, कहीं तो कारण के अनुसार कार्य होता है और कहीं इसके विपरीत भी होता है । ऐसा जो स्‍याद्वाद का कहना है वही सत्‍य है । देखो मेरे परिणाम सदा दया से आर्द्र रहते हैं परन्‍तु मुझसे जो पुत्र हुआ उसके परिणाम अत्‍यन्‍त निर्दय हैं । यहाँ कारण के अनुसार कार्य कहाँ हुआ ? इस प्रकार वह श्रेष्‍ठ विद्वान् बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ और शिष्‍य की योग्‍यता का ह्णदय में विचार कर कहने लगा कि हे नारद ! तू ही सूक्ष्‍मबुद्धिवाला और पदार्थ को यथार्थ जानने वाला है इसलिए आज से लेकर मैं तुझे उपाध्‍यायके पदपर नियुक्‍त करता हूं । आज से तू ही समस्‍त शास्‍त्रों का व्‍याख्‍यान करना । इस प्रकार उसी का सत्‍कार कर उसे बढ़ावा दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि सब जगह विद्वानों की प्रीति गुणों से ही होती है ॥314–318॥

नारद से इतना कहने के बाद उसने सामने बैठे हुए पुत्र से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तूने विवेक के बिना ही यह विरूद्ध कार्य किया है । देख, शास्‍त्र पढ़ने पर भी तुझे कार्य और अकार्य का विवेक नहीं हुआ ! तू निर्बुद्धि है अत: मेरी आँखों के ओझल होने पर कैसे जीवित रह सकेगा ? इस प्रकार शोक से भरे हुए पिता ने पर्वत को शिक्षा दी परन्‍तु उस मूर्ख पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ । वह उसके विपरीत नारद से वैर रखने लगा सो ठीक ही है क्‍योंकि दुर्बुद्धि मनुष्‍यों की ऐसी ही दशा होती है ॥319-321॥

किसी एक दिन क्षीरकदम्‍बक ने समस्‍त परिग्रहों के त्‍याग करने का विचार किया इसलिए उसने राजा वसु से कहा कि यह पर्वत और उसकी माता यद्यपि मन्‍दबुद्धि हैं तथापि हे भद्र ! मेरे पीछे भी तुम्‍हें इनका सब प्रकार से पालन करना चाहिये । उत्‍तर में राजा वसु ने कहा कि मैं आपके अनुग्रह से प्रसन्‍न हूं । यह कार्य तो बिना कहे ही करने योग्‍य है इसके लिए आप क्‍यों कहते हैं ? हे पूज्‍यपाद ! इसमें थोड़ा भी संशय नहीं कीजिये, आप यथायोग्‍य परलोक का साधन कीजिये । इस प्रकार मनोहर कथा रूपी अम्‍लान माला के द्वारा राजा वसु ने उस उत्‍तम ब्राह्मण का खूब ही सत्‍कार किया ॥322–325॥

तदनन्‍तर क्षीरकदम्‍बकने उत्‍तम संयम धारण कर लिया और अन्‍त में संन्‍यासमरण कर उत्‍तम स्‍वर्ग लोक में जन्‍म प्राप्‍त किया ॥326॥

इधर समस्‍त शास्‍त्रों का जानने वाला पर्वत भी पिता के स्‍थान पर बैठकर सब प्रकार की शिक्षाओं की वयाख्‍या करने में प्रेम करने लगा ॥327॥

उसी नगर में सूक्ष्‍म बुद्धिवाला नारद भी अनेक विद्वानोंके साथ निवास करता था और शास्‍त्रों की व्‍याख्‍याके द्वारा यश प्राप्‍त करता था ॥328॥

इस प्रकार उन दोनों का समय बीत रहा था । किसी एक दिन साधुओं की सभा में 'अजैर्होतव्‍यम्' इस वाक्‍य का अर्थ निरूपण करने में बड़ा भारी विवाद चल पड़ा । नारद कहता था कि जिसमें अंकुर उत्‍पन्‍न करने की शक्‍ति नष्‍ट हो गई है ऐसा तीन वर्ष का पुराना जौ अज कहलाता है और उससे बनी हुई वस्‍तुओं के द्वारा अग्निके मुख में देवता की पूजा करना-आहुति देना यज्ञ कहलाता है । नारदका यह व्‍याख्‍यान यद्यपि गुरूपद्धतिके अनुसार था परन्‍तु निर्बुद्धि पर्वत कहता था कि अज शब्‍द एक पशु विशेष का वाचक है अत: उससे बनी हुई वस्‍तुओं के द्वारा अग्‍निमें होम करना यज्ञ कहलाता है ॥329–332॥

उन दोनोंके वचन सुनकर उत्‍तम प्रकृति वाले साधु पुरूष कहने लगे कि इस दुष्‍ट पर्वत की नारद के साथ ईर्ष्‍या है इसीलिए यह प्राणवधसे धर्म होता है यह बात पृथिवी पर प्रतिष्‍ठा पित करने के लिए कह रहा है । यह पर्वत बड़ा ही दुष्‍ट है, पतित है अत: हम सब लोगों के साथ वार्तालाप आदि करने में अयोग्‍य है ॥333–334॥

इस प्रकार सब ने क्रोधवश हाथकी हथेलियों के ताड़न से उस पर्वत का तिरस्‍कार किया और घोषणा की कि दुर्बुद्धि का ऐसा फल इसी लोक में मिल जाता है ॥335॥

इसप्रकार सबके द्वारा बाहर निकाला हुआ पर्वत मान-भंग होने से वन में चला गया । वहां महाकाल नाम का असुर ब्राह्मण का वेष रखकर भ्रमण कर रहा था । उस समय वह वृद्ध-अवस्‍था के रूप सें था, वह बहुत-सी बलि अर्थात् शरीर की सिकुड़नों को धारण कर रहा था वे सिकुड़ने ऐसी जान पड़ती थीं मानो यमराज के चढ़ने के लिए सीढियों का मार्ग ही हो । अन्‍धे की तरह वह बार-बार लड़खड़ाकर गिर पड़ता था, उसके शिर पर विरले-विरले सफेद बाल थे, वह एक सफेद रंग की पगड़ी धारण कर रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो यमराज के भय से उसने चाँदी का टोप ही लगा रक्‍खा हो उसके नेत्र कुछ-कुछ बन्‍द थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वृद्धावस्‍था रूपी स्‍त्री के समागम से उत्‍पन्‍न हुए सुख से ही उसके नेत्र बन्‍द हो रहे थे, उसकी गति सूँड़ कटे हुए हाथी के समान थी, वह क्रुद्ध साँप के समान लम्‍बी-लम्‍बी श्‍वास भर रहा था, राजा के प्‍यारे मनुष्‍य के समान वह मद से आगे नहीं देखता था, उसकी पीठ टूटी हुई थी । वह स्‍पष्‍ट नहीं बोल सकता था, जिस प्रकार राजा योग्‍य दण्‍ड़ से सहित होता है अर्थात् सबके लिए योग्‍य दण्‍ड़ (सजा) देता है उसी प्रकार वह भी योग्‍य दण्‍ड़ से सहित था-अर्थात् अपने अनुकूल दण्‍ड़-लाठी लिये हुए था, ऊपरसे इतना शान्‍त दिखता था मानो शरीरधारी शम (शान्ति) ही हो, विश्‍वभू मन्‍त्री, सगर राजा और सुलसा कन्‍या के ऊपर हमारा बैर बँधा हुआ है यह कहने के लिए ही मानो वह तीन लड़ का यज्ञोपवीत धारण कर रहा था, वह अपना अभिप्राय सिद्ध करने के लिए योग्‍य कारण खोज रहा था । ऐसे महाकाल ने पर्वत पर घूमते हुए क्षीरकदम्‍बक के पुत्र पर्वत को देखा । ब्राह्मण वेषधारी महाकाल ने पर्वत के सम्‍मुख जाकर उसे नमस्‍कार किया और पर्वत ने भी उसका अभिवादन किया ॥336-343॥

महाकाल ने आश्‍वासन देते हुए आदरके साथ कहा कि तुम्‍हारा भला हो । तदनन्‍तर अजान बनकर महाकाल ने पर्वत से पूछा कि तुम कहाँसे आये हो और इस वनके मध्‍य में तुम्‍हारा भ्रमण किस कारणसे हो रहा है ? पर्वत ने भी प्रारम्‍भसे लेकर अपना सब वृत्‍तान्‍त कह दिया । उसे सुनकर महाकाल ने सोचा कि यह मेरे वैरी राजा को निर्वश करने के लिए समर्थ है, यह मेरा साधर्मी है । ऐसा विचार कर ठगनेमें चतुर पापी महाकाल पर्वत से कहने लगा कि हे पर्वत, तुम्‍हारे पिताने, स्‍थण्डिलने, विष्‍णुने, उपमन्‍युने और मैंने भौम नामक उपाध्‍यायके पास शास्‍त्राभ्‍यास किया था इसलिए तुम्‍हारे पिता मेरे धर्मभाई हैं । उनके दर्शन करने के लिए ही मेरा यहाँ आना हुआ था परन्‍तु खेद है कि वह निष्‍फल हो गया । तुम ड़रो मत-शत्रु का नाश करने में मैं तुम्‍हारा सहायक हूँ ॥344-349॥

इस प्रकार उस महाकाल ने क्षीरकदम्‍बक के पुत्र पर्वत के इष्‍ट अर्थ का अनुसरण करनेवाली अथर्ववेद सम्‍बन्‍धी साठ हजार ऋचाएँ पृथक्-पृथक् स्‍वयं बनाई । ये ऋचाएँ वेद का रहस्‍य बतलाने वाली थी, उसने पर्वत के लिए इनका अध्‍ययन कराया और कहा कि पूर्वोक्‍त मन्‍त्रों से वायु के द्वारा बढ़ी हुई अग्नि की ज्‍वाला में शान्ति पुष्टि और अभिचारात्‍मक क्रियाएँ की जावें तो पशुओं की हिंसा से इष्‍ट फल की प्राप्ति हो जाती है । तदनन्‍तर उन दोनों ने विचार किया कि हम दोनों अयोध्‍या में जाकर रहें और शान्ति आदि फल प्रदान करने वाला हिंसात्‍मक यज्ञ प्रारंभ कर अपना प्रभाव उत्‍पन्‍न करें ॥350-353॥



ऐसा कहकर महाकाल ने वैरियों का नाश करने के लिए अपने क्रूर असुरों को बुलाया और आदेश दिया कि तुम लोग राजा सगर के देश में तीव्र ज्‍वर आदि के द्वारा पीड़ा उत्‍पन्‍न करो । यह कहकर असुरों को भेजा और स्‍वयं पर्वत को साथ लेकर राजा सगर के नगर में गया । वहाँ मन्‍त्र मिश्रित आशीर्वाद के द्वारा सगर के दर्शन कर पर्वत ने अपना प्रभाव दिखलाते हुए कहा कि तुम्‍हारे राज्‍य में जो घोर अमंगल हो रहा है मैं उसे मन्‍त्र-सहित यज्ञ के द्वारा शीघ्र ही शान्‍त कर दूँगा ॥354-356॥

विधाता ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए ही की है अत: उनकी हिंसा से पाप नहीं होता किन्‍तु स्‍वर्ग के विशाल सुख प्रदान करनेवाला पुण्‍य ही होता है ॥357॥

इस प्रकार विश्‍वास दिलाकर वह पापी फिर कहने लगा कि तुम यज्ञ की सिद्धि के लिए साठ हजार पशुओं का तथा यज्ञके योग्‍य अन्‍य पदार्थों का संग्रह करो । राजा सगर ने भी उसके कहे अनुसार सब वस्‍तुएँ उसके लिए सौंप दीं ॥358-359॥

इधर पर्वत ने यज्ञ आरम्‍भ कर प्राणियों को मन्त्रित करना शुरू किया-मन्‍त्रोच्‍चारण पूर्वक उन्‍हें यज्ञ-कुण्‍ड में ड़ालना शुरू किया । उधर महाकाल ने उन प्राणियों को विमानों में बैठाकर शरीर-सहित आकाश में जाते हुए दिखलाया और लोगों को विश्‍वास दिला दिया कि ये सब पशु स्‍वर्ग गये हैं । उसी समय उसने देश के सब अमंगल और उपसर्ग दूर कर दिये ॥360-361॥

यह देख बहुत-से भोले प्राणी उसकी प्रतारणा-माया से मोहित हो गये और स्‍वर्ग प्राप्‍त करने की इच्छा से यज्ञ में मरने की इच्‍छा करने लगे ॥362॥

यज्ञ के समाप्‍त होने पर उस दुष्‍ट पर्वत ने विधि-पूर्वक एक उत्‍तम जाति का घोड़ा तथा राजा की आज्ञा से उसकी सुलसा नाम की रानी को भी होम दिया ॥363॥

प्रिय स्‍त्री के वियोग से उत्‍पन्‍न हुए शोक रूपी दावानल की ज्‍वाला से जिसका शरीर जल गया है ऐसा राजा सगर राजधानी में प्रविष्‍ट हुआ ॥364॥

वहाँ शय्यातल पर अपना शरीर डाल कर वह संशय करने लगा कि यह जो बहुत भारी प्राणियों की हिंसा हुई है सो यह धर्म है या अधर्म ? ॥365॥

ऐसा संशय करता हुआ वह यतिवर नामक मुनि के पास गया और नमस्‍कार कर पूछने लगा कि हे स्‍वामिन् ! मैंने जो कार्य प्रारम्‍भ किया है वह आपको ठीक-ठीक विदित है । विचार कर आप यह कहिये कि मेरा यह कार्य पुण्‍य रूप है अथवा पाप रूप ? उत्‍तर में मुनिराज ने कहा कि यह कार्य धर्म-शास्‍त्र से बहिष्‍कृत है, यह कार्य ही अपने करने वाले को सप्‍तम नरक भेजेगा । उसकी पहिचान यह है कि आज से सातवें दिन वज्र गिरेगा उससे जान लेना कि तुझे सातवीं पृथिवी प्राप्‍त हुई है । मुनिराज का कहा ठीक मान कर राजा ने उस ब्राह्मण-पर्वत से यह सब बात कही ॥366–369॥

राजा की यह बात सुनकर पर्वत कहने लगा कि वह झूठ है, वह नंगा साधु क्‍या जानता है ? फिर भी यदि शंका है तो इसकी भी शांति कर डालते हैं ॥370॥

इस तरह के वचनों से राजा का मन स्थिर किया और जो यज्ञ शिथिल कर दिया था उसे फिर से प्रारम्‍भ कर दिया । तदनन्‍तर सातवें दिन उस पापी असुर ने दिखलाया कि सुलसा देव-पर्याय प्राप्‍त कर आकाश में खड़ी है, पहले जो पशु होमे गये थे वे भी उसके साथ हैं । वह राजा सगर से कह रही है कि यज्ञ में मरने के फल से ही मैंने यह देवगति पाई है, मैं यह सब हर्ष की बात आप को कहने के लिए ही विमान में बैठ कर यहाँ आई हूँ । यज्ञ से सब देवता प्रसन्‍न हुए हैं और सब पितर तृप्‍त हुए हैं । उसके यह वचन सुनकर सगर ने विचार किया कि यज्ञ में मरने का फल प्रत्‍यक्ष दिखाई दे रहा है अत: जैन मुनि के वचन असत्‍य हैं । उसी समय अनुराग रखने से एवं सद्धर्म के साथ द्वेष करने वाले कर्म की मूल-प्रकृति तथा उत्‍तर प्रकृतियों के भेद से उत्‍पन्‍न हुए परिणामों से, नरकायु को आदि लेकर आठों कर्मों का अपने योग्‍य उत्‍कृष्‍ट स्थिति-बन्‍ध अनुभाग-बन्‍ध पड़ गया । उसी समय भयंकर वज्रपात हुआ, वह उन सब शत्रुओं पर पड़ा और उस कार्य में लगे हुए सब जीवों के साथ राजा सगर मर कर रौरव नरक-सातवें नरक में उत्‍पन्‍न हुआ । अत्‍यन्‍त दुष्‍ट महाकाल भी तीव्र क्रोध करता हुआ अपने वैररूपी वायु के झँकोरे से उसे दण्‍ड़ देने के लिए नरक गया परन्‍तु उसके नीचे जाने की अवधि तीसरे नरक तक ही थी । वहाँ तक उसने उसे खोजा परन्‍तु जब पता नहीं चला तब वह निर्दय वहाँ से निकला और विश्‍वभू मंत्री आदि शत्रुओं को मारने का उपाय करने लगा । उसने माया से दिखाया कि राजा सगर सुलसा के साथ विमान में बैठा हुआ कह रहा है कि मैं पर्वत के प्रसाद से ही सुख को प्राप्‍त हुआ हूं । यह देख, विश्‍वभू मन्‍त्री जो कि सगर राजा के पीछे स्‍वयं उसके देश का स्‍वामी बन गया था महामेध यज्ञमें उद्यम करने लगा । महाकाल की माया से सब लोगों को साफ-साफ दिखाया गया था कि आकाशंगण में बहुत-से देव तथा पितर लोग अपने अपने विमानोंमें बैठे हुए हैं । राजा सगर तथा अन्‍य लोग एकत्रित होकर विश्‍वभू मन्‍त्री की स्‍तुति कर रहे हैं कि मन्‍त्रिन् ! तुम बड़े पुण्‍यशाली हो, तुमने यह महामेध यज्ञ प्रारम्‍भ कर बहुत अच्‍छा कार्य किया । इधर यह सब हो रहा था उधर नारद तथा तपस्वियोंने जब यह समाचार सुना तो वे कहने लगे कि इस दुष्‍ट शत्रुने लोगों के लिए यह मिथ्‍या मार्ग बतलाया है अत: इसे धिक्‍कार है । पाप करने में अत्‍यन्‍त चतुर इस पर्वत का किसी उपायसे प्रतिकार करना चाहिये । ऐसा विचार कर सब लोग एकत्रित हो अयोध्‍या नगर में आये । वहाँ उन्‍होंने पाप करते हुए विश्‍वभू मन्‍त्री को देखा और देखा कि बहुत से पापी मनुष्‍य अर्थ और कामके लिए बहुतसे प्राणियों का बध कर रहे हैं । तपस्वियोंने विश्‍वभू मंत्री से कहा कि पापी मनुष्‍य अर्थ और कामके लिए तो प्राणियों का विघात करते हैं परन्‍तु धर्म के लिए कहीं भी कोई भी मनुष्‍य प्राणियों का घात नहीं करते । वेद के जानने वालों ने ब्रह्म निरूपित वेद में मंत्रिन् ! यदि तुम पूर्व ऋषियों के इस वाक्‍य को प्रमाण मानते हो तो तुम्‍हें हिंसा से भरा हुआ यह कार्य जो कि कर्म-बन्‍ध का कारण है अवश्‍य ही छोड़ देना चाहिए ॥371–390॥

सब प्राणियों का हित चाहने वाले तपस्वियों ने इस प्रकार कहा परन्‍तु विश्‍वभू मन्‍त्री ने इसे सुन कर कहा कि हे तपस्वियों ! जो यज्ञ प्रत्यक्ष ही स्‍वर्ग का साधन दिखाई दे रहा है उसका अपलाप किस प्रकार किया जा सकता है ? तदनन्‍तर इस प्रकार कहने वाले विश्‍वभू मंत्री से पापभीरु नारद ने कहा कि हे उत्‍तम मंत्रिन् ! तू तो विद्वान है, क्‍या यह सब स्‍वर्ग का साधन है ? अरे, राजा सगर को परिवार-सहित निर्मूल (नष्‍ट) करने की इच्‍छा करनेवाले किसी मायावी ने इस तरह प्रत्‍यक्ष-फल दिखाकर यह उपाय रचा है, यह उपाय केवल मूर्ख मनुष्‍यों को ही मोहित करने का कारण है ॥391–394॥

इसलिए तू ऋषि-प्रणीत आगम में कही हुई शील तथा उपवास आदि की विधि का आचरण कर । इस प्रकार नारद के वचन सुनकर विश्‍वभू ने पर्वत से कहा कि तुमने नारद कहा सुना ? महाकाल असुर के द्वारा कहे शास्‍त्र से मोहित हुआ दुर्बुद्धि पर्वत कहने लगा कि यह शास्‍त्र क्‍या नारद ने भी पहले कभी नहीं सुना । इसके और मेरे गुरू पृथक् नहीं थे, मेरे पिता ही तो दोनोंके गुरू थे फिर भी यह अधिक गर्व करता है । मुझ पर ईर्ष्‍या रखता है अत: आज चाहे जो कह बैठता है । विद्वान स्‍थविर मेरे गुरू के धर्म-भाई तथा जगत् में प्रसिद्ध थे, उन्‍हीं ने मुझे यह श्रुतियों का रहस्‍य बतलाया है । यज्ञ में मरने से जो फल होता है उसे मैंने भी आज प्रत्‍यक्ष दिखला दिया है फिर भी यदि तुझे विश्‍वास नहीं होता है तो समस्‍त वेदरूपी समुद्र के पारगामी राजा वसु से जो कि सत्‍य के कारण प्रसिद्ध है, पूछ सकते हो । यह सुनकर नारद ने कहा कि क्‍या दोष है वसु से पूछ लिया जावे ॥395–400॥

परन्‍तु यह बात विचार करने के योग्‍य है कि यदि हिंसा, धर्म का साधन मानी जायगी तो अहिंसा दान शील आदि पाप के कारण हो जावेंगे ॥401॥

हो जावें यदि यह आपका कहना है तो मछलियाँ पकड़ने वाले आदि पापी जीवों की शुभ गति होनी चाहिये और सत्‍य, धर्म तपश्‍चरण तथा ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को अधोगति में जाना चाहिए ॥402॥

कदाचित् आप यह कहें कि यज्ञ में पशु-वध करने से धर्म होता है, अन्यत्र नहीं होता ? तो यह कहना भी ठीक नहीं हैं क्‍योंकि वध दोनों ही स्‍थानों में एक समान दु:ख का कारण है अत: उसका फल समान ही होना चाहिए इसे कौन रोक सकता है ? कदाचित् आप यह मानते हों कि पशुओं की रचना विधाता ने यज्ञ के लिए ही की है, अत: यज्ञ में पशु हिंसा करनेवाले के लिए पाप-बन्‍ध नहीं होता तो यह मानना ठीक नहीं है क्‍योंकि यह मूर्ख-जन की अभिलाषा है तथा साधुजनों के द्वारा निन्‍दित है ॥403–405॥

यज्ञ के लिए ही ब्रह्मा ने पशुओं की सृष्टि की है यदि यह आप ठीक मानते हैं तो फिर उनका अत्‍यन्‍त उपयोग करना उचित नहीं है क्‍योंकि जो वस्‍तु जिस कार्य के लिए बनाई जाती है उसका अन्‍यथा उपभोग करना कार्यकारी नहीं होता । जैसे कि श्‍लेष्‍म आदि को शमन करनेवाली औषधि का यदि अन्‍यथा उपयोग किया जाता है तो वह विपरीत फलदायी होता है । ऐसे ही यज्ञ के लिए बनाये गये पशुओं से यदि क्रय-विक्रय आदि कार्य किया जाता है तो वह महान् दोष उत्‍पन्‍न करनेवाला होना चाहिए । तू वाद करना चाहता है परन्‍तु दुर्बल है-युक्ति बल से रहित है अत: तेरे पास आकर हम कहते हैं कि जिस प्रकार शस्‍त्र आदि के द्वारा प्राणियों का विघात करनेवाला भी बिना किसी विशेषता के पाप से बद्ध होता है ॥406–409॥

दूसरी बात यह है कि ब्रह्मा जो पशु आदि को बनाता है वह प्रकट करता है अथवा नवीन बनाता है ? यदि नवीन बनाता है तो आकाश के फूल आदि असत् पदार्थ क्‍यों नहीं बना देता ? ॥410॥

यदि यह कहो कि ब्रह्मा पशु आदि को नवीन नहीं बनाता है किन्‍तु प्रकट करता है ? तो फिर यह कहना चाहिए कि प्रकट होने के पहले उनका प्रतिबन्‍धक क्‍या था ? उन्‍हें प्रकट होनेसे रोकनेवाला कौन था ? जिस प्रकार दीपक जलने के पहले अन्‍धकार घटादि को रोकनेवाला भी कोई होना चाहिए ॥411॥

इस प्रकार आपके सृष्टिवाद में यह व्‍यक्ति आदर करने के योग्‍य नहीं है । इस तरह नारद के वचन सुनकर सब लोग उसकी प्रशंसा करने लगे ॥412॥

सब कहने लगे कि यदि राजा वसु के द्वारा तुम दोनों का विवाद विश्रान्‍त होता है तो उनके पास जावे । ऐसा कह सभा के सब लोग नारद और पर्वत के साथ स्‍वस्तिकावती नगर गये ॥413॥

पर्वत के द्वारा कही हुई यह सब जब उसकी माता ने जानी तब वह पर्वत को साथ लेकर राजा वसु के पास गई और राजा वसु के दर्शन कर कहने लगी कि यह निर्धन पर्वत तपोवन के लिए जाते समय तुम्‍हारे गुरू ने तुम्‍हारे लिए सौंपा था । आज तुम्‍हारी अध्‍यक्षता में यहाँ नारद के साथ विवाद होगा । यदि कदाचित् उस वाद में इसकी पराजय हो गई तो फिर यमराज का मुख ही इसका शरण होगा अन्‍य कुछ नहीं, यह तुम निश्चित समझ लो, इस प्रकार पर्वत की माता ने राजा वसु से कहा । राजा वसु गुरू की सेवा करना चाहता था अत: बड़े आदर से बोला कि हे माँ ! इस विषय में तुम शंका न करो । मैं पर्वत की ही विजय कराऊँगा । इस तरह कहकर उसने पर्वत की माँ का भय दूर कर दिया ॥414–417॥

दूसरे दिन राजा वसु आकाश-स्‍फटिक के पायों से खड़े हुए, सिंहासन पर आरूढ़ होकर राज-सभा में विराजमान था उसी समय वे सब विश्‍वभू मन्‍त्री आदि राजसभा में पहुँच कर पूछने लगे कि आपसे पहले भी अहिंसा आदि धर्म की रक्षा करने में तत्‍पर रहनेवाले हिमगिरि, महागिरि, समगिरि और वसुगिरि नाम के चार हरिवंशी राजा हो गये हैं ॥418–419॥

इन सबके अतीत होने पर महाराज विश्‍वाबसु हुए और उनके बाद अहिंसा धर्म की रक्षा करनेवाले आप हुए हैं । आप ही सत्‍यवादी हैं इस प्रकार तीनों-लोकों में प्रसिद्ध हैं । किसी भी दशा में संदेह होने पर आप विष, अग्नि और तुला के समान हैं । हे स्‍वामिन् ! आप ही विश्‍वास उत्‍पन्‍न करनेवाले हैं अत: हम लोगों का संशय दूर कीजिये । नारद ने अहिंसा-लक्षण धर्म बतलाया है और पर्वत इसमें विपरीत कहता है अर्थात् हिंसा को धर्म बतलाता है । अब उपाध्‍याय-गुरू महाराज का जैसा उपदेश हो वैसा आप कहिये । इस प्रकार सब लोगों ने राजा वसु से कहा । राजा वसु यद्यपि आप्‍त भगवान् के द्वारा कहे हुए धर्म-तत्त्व को जानता था तथापि गुरू-पत्‍नी उससे पहले ही प्रार्थना कर चुकी थी, इसके सिवाय वह महाकाल के द्वारा उत्‍पादित महामोह से युक्‍त था, दु:षमा नामक पंचम काल की सीमा निकट थी, और वह स्‍वयं परिग्रहानन्‍द रूप रौद्र-ध्‍यान में तत्‍पर था अत: कहने लगा कि जो तत्त्व पर्वत ने कहा है वही ठीक है । जो वस्‍तु प्रत्‍यक्ष दिख रही है उसमें बाधा हो ही कैसे सकती है ॥420–426॥

इस पर्वत के बताये यज्ञ से ही राजा सगर अपनी रानी सहित स्‍वर्ग गया है । जो दीपक स्‍वयं जल रहा है-स्‍वयं प्रकाशमान है भला उसे दूसरे दीपक के द्वारा कौन प्रकाशित करेगा ? ॥427॥

इसलिए तुम लोग भय छोड़कर जो पर्वत कह रहा है वही करो, वही स्‍वर्ग का साधन है इस प्रकार हिंसानन्‍दी और मृषानन्‍दी रौद्र ध्‍यान के द्वारा राजा वसु ने नरकायु का बन्‍ध कर लिया तथा असत्‍य भाषण के पाप और लोक-निन्‍दा से नहीं ड़रने वाले राजा वसु ने उक्‍त वचन कहे । राजा वसु की यह बात सुनकर नारद और तपस्‍वी कहने लगे कि आश्‍चर्य है कि राजा के मुख से ऐसे भयंकर शब्‍द निकल रहे हैं इसका कोई विषम कारण अवश्‍य है । उसी समय आकाश गरजने लगा, नदियों का प्रवाह उलटा बहने लगा तालाब शीघ्र ही सूख गये, लगातार रक्‍त की वर्षा होने लगी, सूर्य की किरणें फीकी पड़ गईं, समस्‍त दिशाएँ मलिन हो गईं, प्राणी भय से विह्वल होकर काँपने लगे, बड़े जोर का शब्‍द करती हुई पृथिवी फटकर दो टूक हो गई और राजा वसु का सिहांसन उस महागर्त में निमग्‍न हो गया । यह देख आकाश मार्ग में खड़े हुए देव और विद्याधर कहने लगे कि हे बुद्धिमान् राजा वसु ! सनातन मार्ग का उल्‍लंघन कर धर्म का विध्‍वंस करनेवाले मार्ग का निरूपण मत करो ॥428–434॥

पृथिवी में सिंहासन घुसने से पर्वत और राजा वसु का मुख फीका पड गया । यह देख महाकाल के किंकर तापसियों का वेष रखकर कहने लगे कि आप लोग भय को प्राप्‍त न हों । यह कहकर उन्‍होंने वुस का सिंहासन अपने आप के द्वारा उठाकर लोगों को दिखला दिया । राजा वसु यद्यपि सिंहासन के साथ नीचे धँस गया था तथापि जोर देकर कहने लगा कि मैं तत्त्वों का जानकार हूँ अत: इस उपद्रव से कैसे डर सकता हूं ? मैं फिर भी कहता हूं कि पर्वत के वचन ही सत्‍य हैं । इतना कहते ही वह कण्‍ठ पर्यन्‍त पृथिवी में धँस गया । उस समय साधुओं ने-तापसियों ने बड़े यत्‍न से यद्यपि प्रार्थना की थी कि हे राजन् ! तेरी यह अवस्‍था असत्‍य-भाषण से ही हुई है इसलिए इसे छोड़ दे तथापि वह अज्ञानी यज्ञ को ही सन्‍मार्ग बतलाता रहा । अन्‍त में पृथिवी ने उसे कुपित होकर हो मानो निगल लिया और वह मरकर सातवें नरक गया ॥435-439॥

तदनन्‍तर वह असुर जगत् को विश्‍वास दिलाने के लिए राजा सगर और वसु का सुन्‍दर रूप धारण कर कहने लगा कि हम दोनों नारद का कहा न सुनकर यज्ञ की श्रद्धा से ही स्‍वर्ग को प्राप्‍त हुए हैं । इस प्रकार कहकर वह अदृश्‍य हो गया । इस घटना से लोगों को बहुत शोक और आश्‍चर्य हुआ । उनमें कोई कहता था कि राजा सगर स्‍वर्ग गया है और कोई कहता था कि नहीं, नरक गया है । इस तरह विवाद करते हुए विश्‍वम्‍भू मन्‍त्री अपने घर चला गया । तदनन्‍तर प्रयाग में उसने राजसूय यज्ञ किया । इस पर महापुर आदि नगरों के राजा मनुष्‍यों की मूढ़ता की निन्‍दा करने लगे और परम ब्रह्म-परमात्‍मा के द्वारा बतलाये मार्ग में तल्‍लीन होते हुए थोड़े दिन तक यों ही ठहरे रहे ॥440-443॥

इस समय नारद के द्वारा ही धर्म की मर्यादा स्थिर रह सकी है इसलिए सब लोगों ने उसकी बहुत प्रशंसा की और उसके लिए गिरितट नाम का नगर प्रदान किया ॥444॥

तापसी लोग भी दया धर्म का विध्‍वंस देख बहुत दुखी हुए और कलिकाल की महिमा समझते हुए अपने-अपने आश्रमों में चले गये ॥445॥

तदनन्‍तर किसी दिन, दिनकरदेव नाम का विद्याधर आया, नारद ने उससे बड़े प्रेम से कहा कि इस समय पर्वत समस्‍त प्राणियों के विरूद्ध आचरण कर रहा है इसे आपको रोकना चाहिये । उत्‍तरमें विद्याधरने कहा कि अवश्‍य रोकूँगा । ऐसा कहकर उसने अपनी विद्या से गंधारपन्‍नग नामक नागकुमार देवों को बुलाया और विघ्‍न करने का सब प्रपन्‍च उन्‍हें यथा योग्‍य बतला दिया । नागकुमार देवों ने भी संग्राम में दैत्‍यों को मार भगाया और यज्ञ में विघ्‍न मचा दिया । विश्‍वम्‍भू मन्‍त्री और पर्वत यज्ञ में होने वाला विघ्‍न देखकर शरण की खोज करने लगे । अनायास ही उन्‍हें सामने खड़ा हुआ महाकाल असुर दिख पड़ा । दिखते ही उन्‍होंने उससे यज्ञ में विघ्‍न आने का सब समाचार कह सुनाया, उसे सुनते ही महाकाल ने कहा कि हम लोगों के साथ द्वेष रखनेवाले नागकुमार देवों ने यह उपद्रव किया है । नागविद्याओं का निरूपण विद्यानुवाद में हुआ है । जिनविम्‍बों के ऊपर इनके विस्‍तार का निषेध बतलाया है अर्थात् जहाँ जिनविम्‍ब होते हैं वहाँ इनकी शक्ति क्षीण हो जाती है ॥446-451॥

इसलिए तुम दोनों चारों दिशाओं में जिनेन्‍द्र के आकार की सुन्‍दर प्रतिमाएँ रखकर उनकी पूजा करो और तदनन्‍तर यज्ञ की विधि प्रारम्‍भ करो ॥452॥

इस प्रकार महाकाल ने यह उपाय कहा और उन दोनों ने उसे यथाविधि किया । तदनन्‍तर विद्याधरों का राजा दिनकरदेव यज्ञ में विघ्‍न करने की इच्छा से आया और जिन प्रतिमाएँ देखकर नारद से कहने लगा कि यहाँ मेरी विद्याएँ नहीं चल चकती ऐसा कहकर वह अपने स्‍थान पर चला गया ॥453-454॥

इस तरह वह यज्ञ निर्विघ्‍न समाप्‍त हुआ और विश्‍वभू मन्‍त्री तथा पर्वत दोनों ही आयु के अन्‍त में मरकर चिरकाल के लिए नरक में दु:ख भोगने लगे ॥455॥

अन्‍त में महाकाल असुर अपना अभिप्राय पूरा कर अपने असली रूपमें प्रकट हुआ और कहने लगा कि मैं पूर्व भवमें पोदनपुर का राजा मधुपिंगल था । मैंने ही इस तरह सुलसाके निमित्‍त यह बड़ा भारी पाप किया है । जिनेन्‍द्र भगवान् ने जिस अहिंसा लक्षण धर्म का निरूपण किया है धर्मात्‍माओं को उसी का पालन करना चाहिये इतना कह वह अन्‍तर्हित हो गया और दया से आर्द्र बुद्धि होकर उसने अपनी दुष्‍ट चेष्‍टाओं का प्रायश्चित्‍त स्‍वयं ग्रहण किया ॥456-458॥

मोह वश किये हुए पाप कर्मसे निवृत्ति होना ही प्रायश्चित्‍त कहलाता है । हिंसा धर्म में प्रवृत्‍त रहनेवाले विश्‍वभू आदि समस्‍त लोग पाप के कारण नरकगतिमें गये और पापसे डरने वाले कितने ही लोगोंने सम्‍यग्‍ज्ञानके धारक मुनियों के द्वारा कहा धर्म सुनकर पर्वत के द्वारा कहा मिथ्‍यामार्ग स्‍वीकृत नहीं किया और जिनका संसार दीर्घ था ऐसे कितने ही लोग उसी मिथ्‍यामार्ग में स्थित रहे आये ॥459-461॥

इस प्रकार अतिशयमति मंत्रीके द्वारा कहा हुआ आगम सुनकर प्रथम मंत्री, राजा तथा अन्‍य सभासद लोगोंने उस द्वितीय मन्‍त्रीकी बहुत भारी स्‍तुति की ॥462॥

उस समय राजा दशरथ का महाबल नाम का सेनापति बोला कि यज्ञमें पुण्‍य हो चाहे पाप, हम लोगों को इससे क्‍या प्रयोजन है ? हम लोगों को तो राजाओं के बीच दोनों कुमारों का प्रभाव दिखलाना श्रेयस्‍कर है । सेनापति की यह बात सुनकर राजा दशरथने कहा कि अभी इस बात पर विचार करना है । यह कह कर उन्‍होंने मंत्री और सेनापतिको तो विदा किया और तदनन्‍तर हित का उपदेश देनेवाले पुरोहितसे यह प्रश्‍न पूछा कि राजा जनकके घर जाने पर दोनों कुमारों का इष्‍ट सिद्ध होगा या नहीं ? उत्‍तरमें पुरोहित भी पुराणों और निमित्‍तशास्‍त्रोंके कहे अनुसार कहने लगा कि हमारे इन दोनों कुमारों का राजा जनकके उस यज्ञमें महान् ऐश्‍वर्य प्रकट होगा इसमें आपको थोड़ा भी संशय नहीं करना चाहिये । इसके सिवाय एक बात और कहता हूँ ॥463-467॥

वह यह कि इस भरत क्षेत्र में मनु-कुलकर, तीर्थकर, तीन प्रकार के चक्रवर्ती (चक्रवर्ती, नारायण और प्रतिनारायण) और महाप्रतापी बलभद्र होते हैं ऐसा पुराणोंके जाननेवाले मुनियोंने कहा है तथा मैंने भी पहले सुना है । हमारे ये दोनों कुमार उन महापुरूषोंमें आठवें बलभद्र और नारायण होंगे ॥468-469॥

तथा रावणको मारेंगे । इस प्रकार भविष्‍यको जानने वाले पुरोहितके वचन सुनकर राजा सन्‍तोष को प्राप्‍त हुए ॥470॥

कपट रूप बुद्धि को धारण करनेवाले क्रूरपरिणामी महाकाल ने क्रोधवश समस्‍त संसार में शास्‍त्रोंके विरूद्ध और अत्‍यन्‍त पाप रूप पशुओंकी हिंसासे भरे हिंसामय यज्ञकी प्रवृत्ति चलाई इसी कारणसे वह राजा वसु, दुष्‍ट पर्वत के साथ घोर नरकमें गया सो ठीक ही है क्‍योंकि जो पाप उत्‍पन्‍न करनेवाले मिथ्‍यामार्ग चलाते हैं उन पापियोंके लिए नरक जाना कोई बड़ी बात नहीं है ॥471॥

मोहनीय कर्म के उदय से जिसका ह्णदय शत्रुओं का छल समझने वाले विवेकसे शून्‍य था ऐसा राजा सगर रानी सुलसा और विश्‍वभू मन्‍त्रीके साथ स्‍वयं हिंसामय क्रियाएँ कर अधोगतिमें जानेके लिए नष्‍ट हुआ सो जब राजा की यह दशा हुई तब जो अन्‍य साधारण मनुष्‍य अपने क्रूर परिणामोंको नष्‍ट न कर व्‍यर्थ ही दुष्‍कर्ममें तल्‍लीन रहते हैं उनकी क्‍या ऐसी दशा नहीं होगी ? अवश्‍य होगी ॥472॥

जिसने अपने श्रेष्‍ठ आचार्यगुरू का अनुसरण कर हित का उपदेश दिया, विद्वानों की सभा में शास्‍त्रार्थ कर जिसने साधुवाद-उत्‍तम प्रशंसा प्राप्‍त की, जिसने बहुत भारी तप किया और जो विद्वानोंमें श्रेष्‍ठ था ऐसा श्रीमान् नारद कृतकृत्‍य होकर सर्वार्थसिद्धि गया ॥473॥