
कथा :
तदनन्तर जिसके शब्द और अर्थ सुनने योग्य हैं तथा वाणी सारपूर्ण है ऐसा पुरोहित, 'महाराज आप यह कथा श्रवण करने के योग्य हैं' इस प्रकार महाराज दशरथ को सम्बोधित कर अपने यशरूपी लक्ष्मी से दशों दिशाओं के मुखको प्रकाशित करनेवाले रावणके भवान्तर कहने लगा ॥1-2॥ उसने कहा कि धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व भरत-क्षेत्र में स्वर्गलोक के समान आभावाला एवं पृथिवी के गुणों से युक्त सारसमुच्चय नाम का देश है ॥3॥ अथानन्तर-इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में जो विजयार्ध नाम का महान् पर्वत है उसकी दक्षिण श्रेणीमें मेघकूट नाम का नगर है । उसमें राजा विनमिके वंश में उत्पन्न हुआ सहस्त्रग्रीव नाम का विद्याधर राज्य करता था । उसके भाई का पुत्र बहुत बलवान् था इसलिए उसने क्रोधित होकर सहस्त्रग्रीवको बाहर निकाल दिया था । वह सहस्त्रग्रीव वहाँसे निकल कर लंका नगरी गया और वहाँ तीस हजार वर्ष तक राज्य करता रहा ॥4-9॥ उसके पुत्र का नाम शतग्रीव था । सहस्त्रग्रीवके बाद उसने वहाँ पच्चीस हजार वर्ष तक राज्य किया था । उसका पुत्र पन्चाशत्ग्रीव था उसने भी शतग्रीवके बाद बीस हजार वर्ष तक पृथिवी का पालन किया था, तदनन्तर पन्चाशद्ग्रीवके पुलस्त्य नाम का पुत्र हुआ उसने भी पिता के बाद पन्द्रह हजार वर्ष तक राज्य किया । उसकी स्त्री का नाम मेघश्री था । उन दोनोंके वह देव रावण नाम का पुत्र हुआ । चौदह हजार वर्षकी उसकी उत्कृष्ट आयु थी, पिता के बाद वह भी पृथिवी का पालन करने लगा । एक दिन लंका का ईश्वर रावण अपनी स्त्री के साथ क्रीड़ा करने के लिए किसी वन में गया था । वहाँ विजयार्ध पर्वत के स्थालक नगर के राजा अमितवेग की पुत्री मणिमती विद्या सिद्ध करने में तत्पर थी उसे देखकर चन्चल रावण काम और मोहके वश हो गया । उस कन्याको अपने आधीन करने के लिए उस दुष्टने मणिमती की विद्या हरण कर ली । वह कन्या उस विद्याकी सिद्धिके लिए बारह वर्षसे उपवास का क्लेश उठाती अत्यन्त दुर्बल हो गई थी । विद्या की सिद्धिमें विघ्न होता देख वह विद्याधरोंके राजा पर बहुत कुपित हुई । कुपित होकर उसने निदान किया कि मैं इस राजा की पुत्री होकर इस दुर्बुद्धिका वध अवश्य करूँगी ॥10-16॥ ऐसा निदान कर वह आयु के अन्त में मन्दोदरी के गर्भ में उत्पन्न हुई । जब उसका जन्म हुआ तब भूकम्प आदि बड़े-बड़े उत्पाद हुए उन्हें देख निमित्तज्ञानियोंने कहा कि इस पुत्रीसे रावण का विनाश होगा । यद्यपि रावण निर्भय था तो भी निमित्तज्ञानियोंके वचन सुनकर अत्यन्त भयभीत हो गया । उसने उसी क्षण मारीच नामक मन्त्री को आज्ञा दी कि इस पापिनी पुत्री को जहाँ कहीं जाकर छोड़ दो । मारीच भी रावण की आज्ञा पाकर मन्दोदरीके घर गया और कहने लगा कि हे देवि, मैं बहुत ही निर्दय हूं अत: महाराजने मुझे ऐसा काम सौंपा है यह कह उसने मन्दोदरीके लिए रावण की आज्ञा निवेदित की-सूचित की । मन्दोदरी ने भी उत्तर दिया कि मैं महाराज की आज्ञा का निवारण नहीं करती हूँ ॥17-20॥ बार-बार यह शब्द कहे कि हे मारीच ! तेरा ह्णदय स्वभावसे ही स्नेह पूर्ण है अत: इस बालिका को ऐसे स्थान में छोड़ना जहाँ किसी प्रकार की बाधा न हो । ऐसा कह उसने जिनसे अश्रु झर रहे हैं ऐसे दोनों नेत्र पोंछकर उसके लिए वह पुत्री सौंप दी । मारीच ने ले जाकर वह सन्दूकची मिथिलानगरी के उद्यान के निकट किसी प्रकट स्थान में जमीनके भीतर रख दी और स्वयं शोक से विषाद करता हुआ वह लौट गया । उसी दिन कुछ लोग घर बनवानेके लिए जमीन देख रहे थे, वे हल चलाकर उसकी नोंकसे वहाँ की भूमि ठीक कर रहे थे । उसी समय वह सन्दूकची हलके अग्रभाग में आ लगी । वहाँ जो अधिकारी कार्य कर रहे थे उन्होंने इसे आश्चर्य समझ राजा जनकके लिए इसकी सूचना दी ॥21-25॥ राजा जनकने उस सन्दूकची के भीतर रखी हुई सुन्दर कन्या देखी और पत्रसे उसके जन्म का सब समाचार तथा पूर्वापर सम्बन्ध ज्ञात किया । तदनन्तर उसका सीता नाम रखकर 'यह तुम्हारी पुत्री होगी' यह कहते हुए उन्होंने बड़े हर्ष से वह पुत्री वसुधा रानी के लिए दे दी ॥26-27॥ रानी वसुधा ने भूमिगृह के भीतर रहकर उस पुत्री का पालन-पोषण किया है तथा उसके कलारूप गुणों की वृद्धि की है । यह कन्या इतनी गुप्त रखी गई है कि लंकेश्वर रावण को इसका पता भी नहीं है । इसके सिवाय राजा जनक यज्ञ कर रहे हैं यह खबर भी रावण को नहीं है अत: वह इस उत्सव में नहीं आवेगा । ऐसी स्थिति में राजा जनक वह कन्या रामके लिए अवश्य देवेंगे । इसलिए राम और लक्ष्मण ये दोनों ही कुमार वहाँ अवश्य ही भेजे जाने के योग्य हैं । इस प्रकार निमित्तज्ञानी पुरोहित के कहने से राजा समस्त सेना के साथ राम और लक्ष्मण को भेज दिया ॥28-30॥ अनुराग से भरे हुए राजा जनक ने उन दोनों की अगवानी की । 'पूर्व जन्म में संचित अपने अपरिमिति पुण्य के उदय से जो इन्हें रूप आदि गुणों की सम्पदा प्राप्त हुई है उससे ये सचमुच ही अनुपम हैं-उपमा रहित है' इस प्रकार प्रशंसा करते हुए नगर के लोग जिन्हें देख रहे हैं ऐसे दोनों भाई साथ ही साथ नगर में प्रवेश कर राजा जनक के द्वारा बतलाये हुए स्थान पर सुख के ठहर गये । कुछ दिनों के बाद जब अनेक राजाओं का समूह आ गया तब उनके सन्निधान में राजा जनकने अपने इष्ट यज्ञ की विधि पूरी की और बड़े वैभव के साथ रामचन्द्रके लिए सीता प्रदान की ॥31-34॥ रामचन्द्रजी ने कुछ दिन तक लक्ष्मी के समान सीता के साथ वहीं जनकपुर में नये प्रेम से उत्पन्न हुए सातिशय सुख का उपभोग किया ॥35॥ तदनन्तर राजा दशरथ के पास से आये हुए मन्त्रियों के कहने से रामचन्द्रजी ने राजा जनक की आज्ञा ले शुद्ध तिथि में परिवार के लोग, सीता तथा लक्ष्मण के साथ बड़े हर्ष से अयोध्या की ओर प्रस्थान किया और शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये । वहाँ पहुँचने पर दोनों छोटे भाई भरत और शत्रुध्न ने, बन्धुओं तथा परिवार के लोगों ने उनकी अगवानी की । जिस प्रकार इन्द्र बड़े वैभव के साथ अपनी नगरी अमरावती में प्रवेश करता है उसी प्रकार विजयी रामचन्द्रजी ने बड़े वैभवके साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश किया ॥36-38॥ वहाँ उन्होंने प्रसन्न चित्त के धारक माता-पिता के दर्शन यथा-योग्य प्रेम से किये । तदनन्तर जिनकी लक्ष्मी उत्तरोत्तर बढ़ रही है ऐसे रामचन्द्रजी सीता तथा छोटे भाइयों के साथ सुख से रहने लगे ॥39॥ उसी समय अपने द्वारा उनके उत्सव को बढ़ाता हुआ वसन्त-ऋतु आ पहुँचा । कोयलों और भ्रमरों के समूह जो मनोहर शब्द कर रहे थे वही मानो उसके नगाड़े थे, वह समस्त दिशाओं को सुशोभित कर रहा था । जो कामदेव, तपोधन-साधुओं के साथ सन्धि करता है और शिथिल-व्रती था, और संयुक्त मनुष्यों को परस्पर में सम्बद्ध करता था । इस प्रचण्ड शक्तिवाले वसन्त-ऋतु ने संसार में प्रवेश किया ॥40-41॥ बसन्त-ऋतु के आते ही वन में जो उत्तम वनस्पतियों की जातियाँ थीं उनमें से कितनी ही अंकुरित हो उठीं और कितनी ही अपने पल्लवों से सानुराग हो गई, कितनी ही वनस्पतियों पर कलियाँ आ गई थीं, और कितनी ही वनस्पतियाँ, जिनके प्राण-वल्लभ अपनी अवधि के भीतर आ गये हैं ऐसी स्त्रियों के समान फूलों के समूह से निरन्तर हँसने लगीं ॥43-44॥ उस समय चन्द्रमा का मण्डल का मण्डल बर्फके पटलसे उन्मुक्त होने के कारण अत्यन्त स्पष्ट दिखाई देता था और सब दिशाओंमें शोभा बढ़ानेवाली अपनी चाँदनी फैला रहा था ॥45॥ दक्षिण दिशा का वायु श्रेष्ठ सुगन्धिको लेकर फूलोंसे उत्पन्न हुई परागको बिखेरता हुआ सरोवर के जलके कणोंके साथ वह रहा था ॥46॥ उसी समय अतिशय कुशल राजा दशरथने श्रीजिनेन्द्र देवकी पूजापूर्वक अन्य सात सुन्दर कन्याओं के साथ रामचन्द्रका तथा पृथिवी देवी आदि सोलह राजकन्याओं के साथ लक्ष्मण का विवाह किया था ॥47-48॥ तदनन्तर राम और लक्ष्मण दोनों भाई समस्त ऋतुओंमें उन स्त्रियों के साथ प्रेमपूर्वक सुख प्राप्त करने लगे और वे स्त्रियाँ उन दोनोंके साथ प्रेमपूर्वक सुख का उपभोग करने लगीं सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य बाह्य हेतुओंसे ही सुख का देनेवाला होता है ॥49॥ इस प्रकार पुण्योदय से श्रेष्ठ सुख का अनुभव करने में तत्पर रहनेवाले दोनों भाई किसी समय अवसर पाकर राजा दशरथसे इस प्रकार कहने लगे ॥50॥ कि काशीदेश में वाराणसी (बनारस) नाम का उत्तम नगर हमारे पूर्वजोंकी परम्परासे ही हमारे आधीन चल रहा है परन्तु वह इस समय स्वामि रहित हो रहा है । यदि आपकी आज्ञा हो तो हम दोनों उसे बढ़ते हुए वैभव से युक्त कर दें । उनका कहा सुनकर राजा दशरथने कहा कि भरत आदि तुम दोनों का वियोग सहन करने में असमर्थ हैं । पूर्वकालमें हमारे वंशज राजा इसी अयोध्या नगरी में रहकर ही चिरकाल तक पृथिवी का पालन करते रहे हैं । जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा यद्यपि एक स्थान में रहते हैं तो भी उनका तेज सर्वत्र व्याप्त हो जाता है उसी प्रकार आप दोनों का तेज एक स्थान में स्थित होने पर भी समस्त पृथिवी-मण्डलमें व्याप्त हो रहा है इसलिए वहाँ जानेकी क्या आवश्यकता है ? मत जाओ ? यद्यपि महाराज दशरथने उन्हें बनारस जानेसे रोक दिया था तो भी वे पुन: इस प्रकार कहने लगे कि महाराज का हम दोनों पर जो महान् प्रेम है वही हम दोनोंके जानेमें बाधा कर रहा है ॥51-56॥ जब तक शूरवीरता का होना सम्भव है और जब तक पुण्यकी स्थिति बाकी रहती है तब तक अभ्युदयके इच्छुक पुरुष उत्साहकी तत्परताको नहीं छोड़ते हैं ॥57॥ जो राजपुत्र विरूद्ध-शत्रुओं को जीतना चाहते हैं उन्हें बुद्धि शक्ति उपाय विजय गुणों का विकल्प और प्रजा अथवा मन्त्री आदि प्रकृतिके भेदोंको अच्छी तरह जानकर महान् उद्योग करना चाहिये । उनमें से बुद्धि दो प्रकार की कही जाती है एक स्वभावसे उत्पन्न हुई और दूसरी विनय से उत्पन्न हुई ॥58-59॥ शक्ति तीन प्रकार की कही गई है एक मन्त्रशक्ति, दूसरी उत्साह-शक्ति और तीसरी प्रभुत्व-शक्ति । सहायक, साधनके उपाय, देशविभाग, काल-विभाग और बाधक कारणों का प्रतिकार इन पाँच अंगोंके द्वारा मन्त्र का निर्णय करना आगममें मन्त्रशक्ति बतलाई गई है ॥60॥ शक्तिके जाननेवाले शूर-वीरतासे उत्पन्न हुए उत्साहको उत्साह-शक्ति मानते हैं । राजा के पास कोश (खजाना) और दण्ड (सेना) की जो अधिकता होती है उसे प्रभुत्व-शक्ति कहते हैं ॥61॥ नीतिशास्त्रके विद्वान् साम, दान, भेद और दण्ड़ इन्हें चार उपाय कहते हैं । इनके द्वारा राजा लोग अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं ॥62॥ प्रिय तथा हितकारी वचन बोलना और शरीरसे आलिंगन आदि करना साम कहलाता है । हाथी, घोड़ा, देश तथा रत्न आदि का देना उपप्रदा-दान कहलाता है । उपजाप अर्थात् परस्पर फूट डालनेके द्वारा अपना कार्य स्वीकृत करना-सिद्ध करना भेद कहलाता है । शत्रु के घास आदि आवश्यक सामग्रीकी चोरी करा लेना, उनका वध करा देना, आग लगा देना, किसी वस्तुको छिपा देना अथवा सर्वथा नष्ट कर देना इत्यादि शत्रुओं का क्षय करनेवाले जितने कार्य हैं उन्हें पण्डित लोग दण्ड़ कहते हैं । इन्द्रियों की अपने-अपने योग्य विषयोंमें विरोध रहित प्रवृत्ति होना तथा कामादि शत्रुओं को भयभीत करना जयशाली मनुष्य की जय कहलाती है ॥63-65॥ सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वैधीभाव ये राजा के छह गुण कहे गये हैं । ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेही हैं । युद्ध करनेवाले दो राजाओं का पीछे किसी कारणसे जो मैत्रीभाव हो जाता है उसे सन्धि कहते हैं । यह सन्धि दो प्रकार की है अवधि सहित-कुछ समयके लिए और अवधि रहित-सदाके लिए । शत्रु तथा उसे जीतने वाला दूसरा राजा ये दोनों परस्पर में जो एक दूसरे का अपकार करते हैं उसे विग्रह कहते हैं ॥66- 68॥ इस समय मुझे कोई दूसरा और मैं किसी दूसरे को नष्ट करने के लिए समर्थ नहीं हूं ऐसा विचार कर जो राजा चुप बैठ रहता है उसे आसन कहते हैं । यह आसन नाम का गुण राजाओंकी वृद्धि का कारण है ॥69॥ अपनी वृद्धि और शत्रुकी हानि होने पर दोनों का शत्रु के प्रति जो उद्यम है-शत्रु पर चढ़कर जाना है उसे यान कहते हैं । यह यान अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि रूप फल को देनेवाला है ॥70॥ जिसका कोई शरण नहीं है उसे अपनी शरणमें रखना संश्रय नाम का गुण है और शत्रुओंमें सन्धि तथा विग्रह करा देना द्वैधीभाव नाम का गुण है ॥71॥ स्वामी, मन्त्री, देश, खजाना, दण्ड, गढ और मित्र ये राजाकी सात प्रकृतियाँ कहलाती हैं ॥72॥ विद्वान् लोगोंने ऊपर कहे हुए ये सब पदार्थ, राज्य स्थिर रहनेके कारण माने हैं । यद्यपि ये सब कारण हैं तो भी साम आदि उपायों के साथ शक्ति का प्रयोग करना प्रधान कारण हैं ॥73॥ जिस प्रकार खोदनेसे पानी और परस्पर की रगडसे अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उद्योगसे, जो उत्तम फल अदृश्य है-दिखाई नहीं देता वह भी प्राप्त करने के योग्य हो जाता है ॥74॥ जिस प्रकार फल और फूलोंसे रहित आमके वृक्षको पक्षी छोड़ देते हैं और विवेकी मनुष्य उपनिष्ट मिथ्या अपने योद्धा सामन्त और महामन्त्री आदि भी उसे छोड़ देते हैं ॥75-76॥ इसी तरह पिता भी उद्यम रहित पुत्रको अयोग्य समझकर दुखी होता है । राम और लक्ष्मणकी ऐसी प्रार्थना सुनकर महाराज दशरथ उस समय बहुत ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि तुम दोनोंने जो कहा है वह अपने कुलके योग्य ही कहा है । इस प्रकार हर्ष प्रकट करते हुए उन्होंने भावी बलभद्र-रामचन्द्रके शिर पर स्वयं अपने हाथोंसे राज्यके योग्य विशाल मुकुट बाँधा और महाप्रतापी लक्ष्मणके लिए यौवराज का आधिपत्य पट्ट प्रदान किया । तदनन्तर महान् वैभव सम्पादन करनेवाले सत्य आशीर्वादके द्वारा बढ़ाते हुए राजा दशरथने उन दोनों पुत्रोंको बनारस नगर के प्रति भेज दिया ॥77- 80॥ दोनों भाइयोंने जाकर उस उत्कृष्ट नगर में प्रवेश किया और वहाँके रहनेवाले नगरवासियों तथा देशवासियोंको दोनों भाई सदा दान मान आदिके द्वारा सन्तुष्ट करने लगे । वे सदा दुष्टों का निग्रह और सज्जनों का पालन करते थे, नीतिके जानकार थे तथा पूर्व मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करते थे । उनका प्रजा पालन करना ही मुख्य कार्य था । वे कृतकृत्य हो चुके थे-सब कार्य कर चुके थे अथवा किसी भी कार्यको प्रारम्भ कर उसे पूरा कर ही छोड़ते थे । इस प्रकार शल्यरहित उत्तम सुख प्रदान करने - वाले श्रेष्ठ कल्याणोंसे उनका समय व्यतीत हो रहा था ॥81- 83॥ इधर रावण, त्रिखण्ड़ भरतक्षेत्र का मैं ही स्वामी हूँ इस इस प्रकार अपने आपको गर्वरूपी पर्वत पर विद्यमान सूर्य के समान समझ ने लगा । वह शत्रुओं को रूलाता था इसलिए उसका रावण नाम पड़ा था । अपने तेज और प्रतापके द्वारा उसने सूर्य मण्डलको तिरस्कृत कर दिया था । दण्ड़ लेने के लिए पास आये हुए सामन्तोंके नम्रीभूत मुकुटोंके अग्रभाग में जो देदीप्यमान मणि लगे हुए थे उनके किरणरूपी जल के भीतर उस रावणके चरणकमल विकसित हो रहे थे । वह अपने सिंहासन पर बैठा हुआ था, उस पर चमर ढुराये जा रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवी पर अवतीर्ण हुआ नीलमेघ ही हो । वह भौंह टेढी कर लोगोंसे वार्तालाप कर रहा था जिससे बहुत ही भयंकर जान पड़ता था । छोटे भाई, पुत्र, मूलवर्ग तथा बहुतसे योद्धा उसे घेरे हुए थे ॥84- 88॥ ऐसे रावणके पास किसी एक दिन नारदजी आ पहुँचे । वे नारदजी अपनी पीली तथा ऊँची उठी हुई जटाओं के समूह की प्रभा से आकाशको पीतवर्ग कर रहे थे, इन्द्रनीलमणिके बने हुए अक्षसूत्र-जयमाला को उन्होंने अपने हाथमें किसी बड़ी चूडीके आकार लपेट रक्खा था जिससे उनकी अंगुलियाँ बहुत ही सुशोभित हो रही थीं, तीर्थोदकसे भरा हुआ उनका पद्मराग निर्मित कमण्डलु बड़ा भला मालूम होता था और सुवर्ण सूत्र निर्मित यज्ञोपवीतसे उनका शरीर पवित्र था । आकाश से उतरते ही नारदजी ने द्वारके समीप रावणको देखा । यह देख रावणने नारद से कहा कि हे भद्र, बहुत दिन बाद दिखे हो, बैठिये, कहाँसे आ रहे हैं ? और आपका आगमन किसलिए हुआ है ? रावणके द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर दुर्बुद्धि नारद यह कहने लगा ॥89-92॥ अहंकारी तथा दुर्जय राजारूपी क्रुद्ध हस्तियों को नष्ट करने में सिंह के समान हे दशानन ! जो मैं कह रहा हूं उसे तू चित्त स्थिर कर सून ॥93॥ हे राजन् ! आज मेरा बनारस से यहाँ आना हुआ है । उस नगरी का स्वामी इक्ष्वाकुवंशरूपी आकाश का सूर्य राजा दशरथ का अतिशय प्रसिद्ध पुत्र राम है । वह कुल, रूप, वय, ज्ञान, शूरवीरता तथा सत्य आदि गुणों से महान् है और अपने पुण्योदय से इस समय अभ्युदय-ऐश्वर्यके सन्मुख है । मिथिला के राजा जनकने यज्ञके बहाने उसे स्वयं बुलाकर साक्षात् लक्ष्मी के समान अपनी सीता नाम की पुत्री प्रदान की है । वह इतनी सुन्दरी है कि अपना नाम सुनने मात्रसे ही बड़े-बड़े अहंकारी कामियोंके चित्त को ग्रहण कर लेती है-वश कर लेती है, संसार की सब स्त्रियों के गुणोंको इकट्ठा करके उनकी सम्पदा से ही मानो उसका शरीर बनाया गया है, वह नेत्रोंके सामने आते ही सब जीवों को काम सुख प्रदान करती है और सम्भोगसे होने वाली तृप्तिके बाद तो मुक्ति स्त्री को भी जीतनेमें समर्थ है । वह स्त्रीरूपी रत्न सर्वथा तुम्हारे योग्य था परन्तु मिथिलापतिने तीन खण्ड़ की अखण्ड़ सम्पदा को धारण करनेवाले तुम्हारा अनादर कर रामचन्द्रके लिए प्रदान किया है ॥94-99॥ भोगोपभोगमें निमग्न रहने वाले तथा विपुल लक्ष्मी के धारक रामके पास रह कर मैं आया हूँ । मैं उसे सहन नहीं कर सका इसलिए आपके दर्शन करने के लिए प्रेमवश यहाँ आया हूँ । नारदजी की बात सुनकर विद्याधरोंके राजा रावणने 'कामी मनुष्यों की इच्छा ही देखती है नेत्र नहीं देखते हैं' इस लोकोक्तिको सिद्ध करते हुए कहा । उस समय सीता सम्बन्धी वचन सुनने से रावण का चित्त कामदेव के वाणोंकी वर्षासे जर्जर हो रहा था । रावणने कहा कि वह भाग्यशालिनी मेरे सिवाय अन्य भाग्यहीनके पास रहनेके योग्य नहीं है । महासागरको छोड़कर गंगा की स्थिति क्या कहीं अन्यत्र भी होती है ? मैं अत्यन्त दुर्बल रामचन्द्रसे सीताको जबर्दस्ती छीन लाऊँगा और स्थायी कान्ति को धारण करनेवाली रत्नमाला के समान उसे अपने वक्ष:स्थल पर धारण करूँगा ॥100-104॥ इस प्रकार कामाग्नि से सन्तान हुए उस अनार्य-पापी रावणने अपनी सभा में कहा में कहा सो ठीक ही है क्योंकि दुर्जन मनुष्यों का ऐसा स्वभाव ही होता है ॥105॥ तदनन्तर पाप-बुद्धि का धारक नारद, रावणकी प्रज्वलित क्रोधाग्निको और भी अधिक प्रज्वलित करने के लिए कहने लगा कि जिसका ऐश्यर्व निरन्तर बढ़ रहा है ऐसा राम तो महाराज पदके योग्य है और भाई लक्ष्मण युवराज पदपर नियुक्त है ॥106-107॥ जब से ये दोनों भाई बनारस में प्रविष्ट हुए हैं तबसे समस्त राजाओंने अपनी-अपनी पुत्रियाँ देकर इनका सम्मान बढ़ाया है और इनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है ॥108॥ इसलिए लक्ष्मण से जिसका प्रताप बढ़ रहा है ऐसे रामचन्द्रके साथ हम लोगों को युद्ध करना ठीक नहीं है अत: युद्ध करने का आग्रह छोड़ दीजिये ॥109॥ नारदकी यह बात सुनकर रावण क्रोधित होता हुआ हँसा और कहने लगा कि हे मुने ! तुम हमारा प्रभाव शीघ्र ही सुनोगे । इतना कह कर उसने नारद को तो विदा किया और स्वयं मन्त्रशालामें प्रवेश कर मन में ऐसा विचार करने लगा कि यह कार्य किसी उपाय से ही सिद्ध करने के योग्य है, बलपूर्वक सिद्ध करने में इस की शोभा नहीं है । विद्वान लोग उपायके द्वारा बड़े से बड़े पुरुष की भी लक्ष्मी हरण कर लेते हैं । ऐसा विचार उसने मन्त्री को बुलाकर कहा कि राजा दशरथके लड़के राम और लक्ष्मण बड़े अहंकारी हो गये हैं । वे हमारा पद जीतना चाहते हैं इसलिए शीघ्र ही उनका उच्छेद करना चाहिए । दुष्ट रामचन्द्रकी सीता नाम की स्त्री है । मैं उन दोनों भाइयोंको मारनेके लिए उस सीता का हरण करूँगा । तुम इसका उपाय सोचो । जब रावण यह कह चुका तब मारीच नाम का मन्त्री विनय से हाथ जोड़ता हुआ बोला ॥110-114॥ कि हे पूज्य स्वामिन् ! हितकारी कार्य में प्रवृत्ति कराना और अहितकारी कार्य का निषेध करना मन्त्रीके यही दो कार्य हैं ॥115॥ आपने जिस कार्य का निरूपण किया है वह अपथ्य है-अहितकारी है, अकीर्ति करनेवाला है, पापानुबन्धी है, दु:साध्य है, अयोग्य है, सज्जनोंके द्वारा निन्दनीय है, परस्त्री का अपहरण करना सब पापोंमें बड़ा पाप है, उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ ऐसा कौन पुरुष होगा जो कभी इस अकार्य का विचार करेगा ॥116-117॥ फिर उनका उच्छेद करने के लिए दूसरे उपाय भी विद्यमान हैं अत: आपका वंश नष्ट करने के लिए धूमकेतुके समान इस कुकृत्यके करनेसे क्या लाभ है ? ॥118॥ इस प्रकार मारीचने सार्थक वचन कहे परन्तु जिस प्रकार निकटकालमें मरनेवाला मनुष्य औषध ग्रहण नहीं करता उसी प्रकार निर्बुद्धि रावणने उसके वचन ग्रहण नहीं किये ॥119॥ वह मारीचसे कहने लगा कि 'हम तुम्हारी बात नहीं मानते' यही तुमने क्यों नहीं कहा ? हे मन्त्रिन् ! इष्ट वस्तुका घात करनेवाले इस विपरीत वचन से क्या लाभ है ? ॥120॥ हे आर्य ? यदि आप सीता-हरण का कोई उपाय जानते हैं तो मेरे लिए कहिये । इस प्रकार रावणके वचन सुन मारीच कहने लगा कि यदि आपका यही निश्चय है तो पहले दूतीके द्वारा इस बात का पता चला लीजिये कि उस सती का आपमें अनुराग है या नहीं ? यदि उसका आपमें अनुराग है तो वह स्नेहपूर्ण किसी सुखकर उपायसे ही लाई जा सकती है और यदि आपमें विरक्त है तो फिर हे देव, हठ पूर्वक उसे ले आना चाहिए । मारीचके वचन सुनकर रावण उसकी प्रशंसा करता हुआ 'ठीक-ठीक' ऐसा कहने लगा ॥121-123॥ उसी समय उस कायरने शूर्पणखा को बुलाकर कहा कि तू किसी उपाय से सीताको मुझमें अनुरक्त कर ॥124॥ इस प्रकार उसने बड़े आदर से कहा । शूर्पणखा भी इस कार्यकी प्रतिज्ञा कर उसी समय वेग से आकाश में चल पड़ी और बनारस जा पहुँची ॥125॥ उस समय वसन्त ऋतु थी अत: रामचन्द्रजी नन्दन वन से भी अधिक सुन्दर चित्रकूट नामक वन में रमण करने के लिए सीताके साथ गये हुए थे ॥126॥ वहाँ वे वन के बीच में घूम-घूमकर नाना वनस्पतियों को देख रहे थे । वहाँ एक लता थी जो फूलोंसे सहित होने के कारण ऐसी जान पड़ती थी मानों हँस ही रही हो तथा पल्लवोंसे सहित होने के कारण ऐसी मालूम होती थी मानो अनुराग से सहित ही हो । वह पतली थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कृश शरीर वाली कोई दूसरी स्त्री ही हो । वे उसे बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे । उस लताको देखते हुए रामचन्द्रजीके प्रति सीताने कुछ क्रोध युक्त होकर देखा । उसे देखते ही रामचन्द्रने कहा कि यह विना कारण ही कुपित हो रही है अत: इसे प्रसन्न करना चाहिए । वे कहने लगे कि हे चन्द्रमुखि ! देख, जिस प्रकार मैं तुम्हारे मुख पर आसक्त रहता हूं उसी प्रकार इधर यह भ्रमर इस लताके फूल पर कैसा आसक्त हो रहा है ? उधर ये अशोक वृक्ष स्वयं सन्तुष्ट करने के लिए नये-नये फूलों के द्वारा मानो अपना अनुराग ही प्रकट कर रहे हैं ॥127-130॥ हे प्रिये ! मेरे नेत्ररूपी भ्रमरोंको सन्तुष्ट करने के लिए तू इन फूलों के द्वारा चित्र-विचित्र सेहरा बाँधकर अपने हाथसे मेरे इन केशोंको अलंकृत कर । मैं तेरे लिए भी इन पुष्पों और प्रवालोंसे भूषण बनाता हूं । इन फूलों और प्रवालोंसे तू सचमुच ही एक चलती-फिरती लताके समान सुशोभित होगी ॥131-132॥ इस प्रकार रामने यद्यपि कितने ही शब्द कहे तो भी सीता क्रोधवश चुप ही बैठी रही । यह देख मिष्ट तथा इष्ट वचन बोलने वाले राम फिर भी इस प्रकार कहने लगे ॥133॥ हे प्रिये ! तेरे दर्पणमें तेरा मुख देखकर कृतकृत्य हो चुके हैं और तेरी नाक तेरे मुख की सुगन्धि से ही मानो अत्यन्त तृप्त हो गई है ॥134॥ तेरे सुनने तथा गाने योग्य उत्तम शब्द सुनकर कान रससे लबालब भर गये हैं । तेरे अधर-विम्बका सवाद लेकर ही तेरी जिह्वा अन्य पदार्थों के रससे नि:स्पृह हो गई है ॥135॥ तेरे हाथ तेरे कठिन स्तनों का स्पर्श कर सन्तुष्ट हो गये हैं इसी प्रकार हे प्रिये ! तेरी समस्त इन्द्रियों के सन्तुष्ट हो जानेसे तेरा मन भी खूब सन्तुष्ट हो गया है । इस तरह तू इस समय अपने आप में तृप्त हो रही है इसलिए तेरी आकृति ठीक सिद्ध भगवान् के समान जान पड़ती है फिर भी हे प्रिये ! तुझे क्रोध करना क्या उचित है । इस प्रकार चतुर शब्दोंके द्वारा रामने सीताको समझाया । तदनन्तर प्रसन्न हुई सीताके साथ राजा रामचनद्रने समस्त इन्द्रियों से उत्पन्न हुए अभूतपूर्व सुख का अनुभव किया । सो ठीक ही है क्योंकि कहीं-कहीं क्रोध भी सुखदायी हो जाता है ॥136-138॥ वही पर लक्ष्मण भी इसी तरह अपनी स्त्रियों के साथ रमण करते थे । उस समय कामदेव बड़े हर्ष से उन सबके लिए इच्छानुसार सुख प्रदान करता था ॥139॥ इस प्रकार रामचन्द्र चिरकाल तक क्रीड़ा कर सीतासे कहने लगे कि हे प्रिये ! यह सूर्य अपनी किरणों से सबको जला रहा है सो ठीक ही है क्योंकि मस्तक पर स्थित हुआ उग्र प्रकृति का धारक किस की शान्तिके लिए होता है ? ॥140॥ लक्ष्मणके आक्रमण और पराक्रम से पराजित हुए शत्रु के समान ये वृक्ष अपनी छायाको अपने आप में लीन कर रहे हैं ॥141॥ शत्रु राजाओं के परिवारोंके समान इन बच्चों सहित हरिणों को कहीं भी आश्रय नहीं मिल रहा है इसलिए ये सन्तप्त होकर इधर उधर घूम रहे हैं ॥142॥ इस प्रकार चित्त हरण करनेवाले शब्दोंसे सीताको प्रसन्न करते हुए रामचन्द्र, इन्द्राणीके साथ इन्द्रके समान, सीताके साथ वन-क्रीड़ा करने लगे ॥143॥ रामचन्द्र सीता को कुछ खेद-खिन्न देख सरोवरके पास पहुँचे और सीताको यन्त्रसे छोड़ी हुई जल की ठण्डी बूँदोंसे सींचने लगे ॥144॥ उस समय कुछ-कुछ बन्द हुए चन्चल नेत्ररूपी नीलकमलों से उज्ज्वल सीता का मुख-कमल देखते हुए रामचन्द्रजी बहुत कुछ सन्तुष्ट हुए थे ॥145॥ वे बुद्धिमान् रामचन्द्रजी आलिंगन करने में उत्सुक तथा मन्द हास्य करती हुई सीताके समीप छाती तक पानीमें घुस गये थे सो ठीक ही है क्योंकि चतुर मनुष्य इशारोंको अच्छी तरह समझते हैं ॥146॥ वहाँ बहुतसे भ्रमर कमल छोड़कर एक साथ सीताके मुखकमल पर आ झपटे उनसे वह व्याकुल हो उठी । यह देख रामचन्द्रजी कुछ खिन्न हुए तो कुछ प्रसन्न भी हुए ॥147॥ इस तरह जलमें चिरकाल तक क्रीड़ा कर और मनोरथ पूर्ण कर रामचन्द्रजी अपने अन्त:पुरके साथ वनके किसी रमणीय स्थान में जा बैठे ॥148॥ उसी समय वहाँ शूर्पणखा आई और दोनों राजकुमारों की अनुपम शोभा को बड़े आश्चर्यके साथ देखती हुई उन पर अनुरक्त हो गई ॥149॥ उस समय सीता बहुत भारी फूलों के भार से झुके हुए किसी सुन्दर अशोक वृक्ष के नीचे हरे मणि के शिला-तल पर बैठी हुई थी, आस-पास बैठी हुई सखियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं जिससे वह वन-लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, उसे देख शूर्पपखा कहने लगी कि इसमें रावण का प्रेम होना ठीक ही है ॥150-151॥ रूप परावर्तन विद्यासे वह बुढिया बन गई उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो सीता का विलास देखने से उत्पन्न हुई लज्जाके कारण ही उसने अपना रूप परिवर्तित कर लिया हो ॥152॥ कवि लोग उसके रूप का ऐसा वर्णन करते थे, और कौतुक सहित ऐसा मानते थे कि विधाता ने इसका रूप अपनी बुद्धि की कुशलता से नहीं बनाया है अपितु अनायास ही बन गया है । यदि ऐसा न होता तो वह इसके समान ही दूसरा रूप क्यों नहीं बनाता ? ॥153॥ सीताको छोड़ अन्य रानियाँ यौवन से उद्धत हो, वृद्धावस्थाके कारण अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण दिखने वाली उस बुढिया को देख हँसी करती हुई बोली कि बतला तो सही तू कौन है ? और कहाँसे आई है ? इसके उत्तरमें बुढि़या कहने लगी कि मैं इस बगीचा की रक्षा करनेवाले की माता हूँ और यहीं पर रहती हूँ ॥154-155॥ तदनन्तर उनके चित्तकी परीक्षा करने के लिए वह फिर कहने लगी कि हे माननीयो ! आप लोगों के सिवाय जो अन्य स्त्रियाँ हैं वे अपुण्यभागिनी हैं, आप लोग ही पुण्यशालिनी हैं क्योंकि इन कुमारोंके साथ आप लोग भोग भोगनेमें सदा तत्पर रहती हैं । आप लोगोंने पूर्वभवमें कौन-सा पुण्य कर्म किया था, वह मुझसे कहिये । मैं भी उसे करूँगी, जिससे इस राजा की रानी होकर इसे अन्य रानियों से विरक्त कर दूंगी । इस प्रकार उसके वचन सुन सब रानियाँ यह कहती हुई हँसने लगीं कि इसका शरीर ही बुढ़ापासे ग्रस्त हुआ है चित्त तो जवान है और काम से विह्णल है ॥156-159॥ इसके उत्तरमें बुढिया बोली कि आप लोग कुल, उत्तम रूप तथा कला आदि गुणों से युक्त हैं अत: आपको हँसी करना उचित नहीं है । आप सबको एक समान प्रेम रूपी फल की प्राप्ति हुई है इससे बढ़कर जन्म का दूसरा फल क्या हो सकता है ? आप लोग ही कहें । इस प्रकार कहती हुई बुढिया से वे फिर कहने लगीं कि यदि तेरे जन्म का यही फल है तो हम तुझे अपने-अपने पतिके साथ विधिपूर्वक मिला देंगी । तू बिना किसी विचारके इनकी पट्टरानी हो जाना । इस प्रकार उन स्त्रियोंकी हँसी रूपी वाणों का निशाना बनती हुई बुढियाको देख सीता दया से कहने लगी कि तू स्त्रीपना क्यों चाहती है ? जान पड़ता है तू अपना हित भी नहीं समझती ॥160-163॥ स्त्रीपने का अनुभव करती हुई ये सब रानियाँ इस लोक में अनिष्ट फल प्राप्त कर रही हैं । हे दुर्बुद्धे ! यह स्त्रीपर्याय महापाप का फल है । सुनो, यदि कन्या के लक्षण अच्छे नहीं हुए तो उसे कोई भी पुरुष ग्रहण नहीं करता इसलिए शोक से उसे अपने घर ही रहना पड़ता है । इसके सिवाय कन्या को मरण पर्यन्त कुलकी रक्षा करनी पड़ती है ॥164-165॥ यदि किसी के पुत्र नहीं हुआ तो जिस घर में प्रविष्ट हुई और जिस घर में उत्पन्न हुई-उन दोनों ही घरोंमें शोक छाया रहता है । यदि भाग्यहीन होनेसे कोई वन्ध्या हुई तो उसका गौरव नहीं रहता ॥166॥ यदि कोई स्त्री दुर्भगा अथवा कुरूपा हुई तो पति उसे छोड़ देता है जिससे सदा तिरस्कार उठाना पड़ता है । रजोदोष से वह अस्पृश्य हो जाती है-उसे कोई छूता भी नहीं है । यदि कलह आदिके कारण पति उसे छोड़ देता है तो वन में उत्पन्न हुए वृक्षोंके समान उसे दु:खरूपी दावानलमें सदा जलना पड़ता है । और की बात जाने दो चक्रवर्ती की पुत्री को भी दूसरेके चरणों की सेवा करनी पड़ती है ॥167-168॥ और सपत्नियोंमें यदि किसी की उत्कृष्टता हुई तो सदा मानभंग का दु:ख उठाना पड़ता है । स्वभाव, मुख, वचन, काय, और मन की अपेक्षा उनमें सदा कुटिलता बनी रहती है ॥169॥ गर्भधारण तथा प्रसूतिके समय उत्पन्न होनेवाले अनेक रोगादिकी पीड़ा भोगनी पड़ती है । यदि किसी के कन्याकी उत्पत्ति होती है तो शोक छा जाता है, किसी की सन्तान मर जाती है तो उसका दु:ख भोगना पड़ता है ॥170॥ विचार करने योग्य खास कार्योंमें उन्हें बाहर रखा जाता है, समस्त कार्योंमें उन्हें परतन्त्र रहना पड़ता है, दुर्भाग्यवश यदि कोई विधवा हो गई तो उसे महान दु:खों का पात्र होना पड़ता है । दानशील उपवास आदि परलोक का हित करने वाले कार्योंके करने में उसकी कोई प्रधानता नहीं रहती । यदि स्त्री के सन्तान नहीं हुई तो कुल का नाश हो जाता है और मुक्ति तो उसे होती ही नहीं है । इनके सिवाय और भी अनेक दोष हैं जो कि सब स्त्रियों में साधारण रूप से पाये जाते हैं फिर क्यों तुझे इस निन्द्य स्त्रीपर्यायमें सुखकी इच्छा हो रही है । हे निर्लज्जे ! तू इस अवस्था में भी अपने भावी हित का विचार नहीं कर रही है इससे जान पड़ता है कि तेरी बुद्धि विपरीत हो गई है ॥171-174॥ स्त्री पर्यायमें एक सतीपना ही प्रशंसनीय है और वह सतीपना यही है कि अपने पति को चाहे वह कुरूप हो, बीमार हो, दरिद्र हो, दुष्ट स्वभाव वाला हो, अथवा बुरा बर्ताव करनेवाला हो, छोड़कर ऐसे ही किसी दूसरे की बात जाने दो, चक्रवर्ती भी यदि इच्छा करता हो तो उसे भी कोढ़ी अथवा चाण्डालके समान नहीं चाहना । यदि कोई ऐसा पुरुष जबर्दस्ती आक्रमण कर भोग की इच्छा रखता है तो उसे कुलवती स्त्रियाँ दृष्टिविष सर्प के समान अपने सतीत्वके बलसे शीघ्र ही भस्म कर देती हैं ॥175-177॥ इस प्रकार सीताके वचन सुनकर शूर्पणखा मन में विचार करने लगी कि कदाचित् मन्दरगिरि-सुमेरू पर्वत तो हिलाया जा सकता है पर इसका चित्त नहीं हिलाया जा सकता । ऐसा विचार कर वह बहुत ही व्याकुल हुई ॥178॥ और कहने लगी कि हे देवि ! आपके वचन सुनने से मैं घर का कार्य भूल कर दु:खी हुई, अब जाती हूं ऐसा कहकर तथा उसके चरणों को नमस्कार कर वह चली गई ॥179॥ कार्य पूरा न होनेसे वह रावणके पास खेद-खिन्न होकर पहुंची सो ठीक ही है क्योंकि जिन कार्यों का प्रारम्भ करना अशक्य है उन कार्यों का क्लेश के सिवाय और क्या फल हो सकता है ? ॥180॥ शूर्पणखा ने पहले तो यथायोग्य विधि से उस रावणके दर्शन किये और तदनन्तर निवेदन किया कि हे देव ! सीता शीलवती है, वह वज्रयष्टिके समान किसी अन्य स्त्रीके द्वारा भेदन नहीं की जा सकती ॥181॥ इस तरह अपना वृत्तान्त कह कर उसने यह कहा कि मैंने शीलवती की क्रोधाग्निके भय से तुम्हारा अभिमत उसके सामने नहीं कहा ॥182॥ शूर्पणखाके वचन सुन रावण ने वह सब झूठ समझा और अपनी चेष्टा तथा मुखाकृति आदिसे क्रोधाग्निको प्रकट करता हुआ वह कहने लगा कि हे मुग्धे ! ऐसा कौन विषवादी-गारूडिक है जो सर्प का नि:श्वास तथा फणाका विस्तार देख उसके भय से उसे पकड़ना छोड़ देता है ॥183-184॥ उसकी बाह्य धीरताके वचन सुनकर ही तू उससे ड़र गई और यहाँ वापिस चली आई । स्त्रियों की चित्तवृत्ति हाथी के कानके समान चन्चल होती है यह क्या तू नहीं जानती ? ॥185॥ मैं नहीं जानता कि तूने इसका चित्त क्यों नहीं भेदन किया । तू उपायमें कुशल नहीं है किन्तु कुशल जैसी जान पड़ती है । ऐसा कह रावणने शूर्पणखा को खूब डाँट दिखाई ॥186॥ इसके उत्तरमें शूर्पणखा कहने लगी कि यदि मैं भोगोपभोग की वस्तुओं के द्वारा उसका मन अनुरक्त करती तो जो वस्तु वहाँ रामचन्द्रके पास हैं वे अन्यत्र स्वप्न में भी नहीं मिलती हैं ॥187॥ यदि शूर-वीरता आदिके द्वारा उसे अनुरक्त करती तो रामचन्द्रके समान शूरवीर पुरुष कहीं नहीं है । यदि वीणा आदिके द्वारा उसे वश करना चाहती तो वह स्वयं समस्त कला और गुणोंमें विशारद है । भूमि पर खड़े हुए लोगों के द्वारा अपनी हथेलीसे सूर्यमण्डल का पकड़ा जाना सरल है, एक बालक भी पाताल लोकसे शेषनाग का हरण कर सकता है ॥188-189॥ और समुद्र सहित पृथिवी उठाई जा सकती है परन्तु शीलवती स्त्री का चित्त काम से भेदन नहीं किया जा सकता । शूर्पणखाके वचन सुनकर रावण पाप कर्म के उदय से पुष्पक विमान पर सवार हो मन्त्रीके साथ आकाशमार्गसे चल पड़ा । पुष्पक विमान पर साँप की नई काँचली की हँसी करनेवाली निर्मल पताकाएँ फहरा रही थीं उनसे वह लोगों को 'यह हंसो की पंक्ति है' ऐसा सन्देह उत्पन्न कर रहा था । सुवर्ण की बनी छोटी-छोटी घण्टियोंके चन्चल श्ब्दोंसे वह पुष्पक विमानदिशाओं को मुखरित कर रहा था और मेघोंके साथ ऐसा गाढ़ आलिंगन कर रहा था मानो बिछुड़े हुए बन्धुओं के साथ ही आलिंगन कर रहा हो ॥190-193॥ उस पुष्पक विमान पर जो ध्वजा-दण्ड लगा हुआ था उसके अग्रभागसे मेघ खण्डित मेघोंसे पानी की छोटी-छोटी बूँदे झड़ने लगती थीं, मन्द-मन्द वायु उन्हें उड़ा कर ले आती थी जिससे रावण का मार्गसम्बन्धी सब परिश्रम दूर होता जाता था ॥194॥ सीतामें उत्सुक हो पुष्पक विमान में बैठकर जाता हुआ रावण ऐसा दिखाई देता था मानो शरद् ऋतुके मेघोंके बीच में स्थित नीलमेघ ही हो ॥195॥ जब वह चित्रकूट नामक आनन्ददायी प्रधान वन में प्रविष्ट हुआ तब ऐसा सन्तुष्ट हुआ मानो सीताके मन में ही प्रवेश पा चुका हो ॥196॥ तदनन्तर रावण की आज्ञा से मारीचने श्रेष्ठ मणियों से निर्मति हरिणके बच्चे का रूप बनाकर अपने आपको सीताके सामने प्रकट किया ॥197॥ उस मनोहारी हरिणको देखकर सीता रामचन्द्रजीसे कहने लगी कि हे नाथ ! यह बहुत भारी कौतुक देखिये, यह अनेक वर्णोंवाला हरिण हमारे मनको अनुरन्जित कर रहा है ॥198॥ इस प्रकार भाग्यके प्रतिकूल होने पर बुद्धि रहित रामचन्द्र सीताके वचन सुन उसका कुतूहल दूर करने के लिए उस हरिणको लानेके इच्छा से चल पड़े ॥199॥ वह हरिण कभी तो गरदन मोड़ कर पीछे की ओर देखता था, कभी दूर तक लम्बी छलांग भरता था, कभी धीरे-धीरे चलता था, कभी दौड़ता था, और कभी निर्भय हो घासके अंकुर खाने लगता था ॥200॥ कभी अपने आपको इतने पास ले आता था कि हाथ से पकड़ लिया जावे और कभी उछल कर बहुत दूर चला जाता था । उसकी ऐसी चेष्टा देख रामचन्द्रजी कहने लगे कि यह कोई मायामय मृग है मुझे व्यर्थ ही खींच रहा है और कठिनाई से पकड़नेके योग्य है । ऐसा कहते हुए रामचन्द्रजी उसके पीछे-पीछे चले गये परन्तु कुछ समय बाद ही वह उछल कर आकाशांगण में चला गया सो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त स्त्री के वश है उन्हें करने योग्य कार्य का विचार कहाँ होता है ? ॥201-202॥ जिस प्रकार घड़े के भीतर रखा हुआ साँप दुखी होता है उसी प्रकार रामचन्द्रजी आकाश की ओर देखते तथा अपनी हीनता का वर्णन करते हुए वहीं पर आश्चर्य से चकित होकर ठहर गये ॥203॥ अथानन्तर-रावण रामचन्द्रजी का रूप रखकर सीता के पास आया और कहने लगा कि मैंने उस हरिणको पकड़कर आगे भेज दिया है ॥204॥ हे प्रिये ! अब सन्ध्याकाल हो चला है । देखो, यह पश्चिम दिशा सूर्य-बिम्ब को धारण करती हुई ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सिन्दूर का तिलक ही लगाये हो ॥205॥ इसलिए हे सुन्दरि ! अब शीघ्र ही सुन्दर पालकी पर सवार होओ, सुखपूर्वक रात्रि बितानेके लिए यह नगरी में वापिस जाने का समय है ॥206॥ रावण ने ऐसा कहा तथा पुष्पक विमान को माया से पालकी के आकार बना दिया। सीता भ्रान्तिवश उस पर आरूढ़ हो गई ॥207॥ सीता को व्यामोह उत्पन्न करते हुए रावण अपने आपको ऐसा दिखाया मानो घोड़े पर सवार पृथिवी पर रामचन्द्रजी ही चल रहे हों ॥208॥ इस प्रकार मायाचार में निपुण पापी रावण उपाय द्वारा पतिव्रताओं में अग्रगामिनी-श्रेष्ठ सीता को सर्पिणी के समान अपनी मृत्यु के लिए ले गया ॥209॥ क्रम-क्रम से लंका पहुँचकर उसने सीता को एक वन के बीच उतारा और शीघ्र ही माया दूरकर उसके लाने का क्रम सूचित किया । जिस प्रकार कोई आचार्य अपनी शिष्य-परम्परा के लिए किसी गूढ़ अर्थ को बहुत देर बाद प्रकट करता है उसी प्रकार उसने इन्द्रनील मणि के समान कान्ति बाला अपना शरीर बहुत देर बाद सीता को दिखलाया ॥210-211॥ उसे देखते ही राजपुत्री सीता, भयसे, लज्जासे, और रामचन्द्रके विरहसे उत्पन्न शोक से तीव्र दु:ख का प्रतिकार करनेवाली मूर्च्छाको प्राप्त हो गई ॥212॥ शीलवती पतिव्रता स्त्रीके स्पर्शसे मेरी आकाशगामिनी विद्या शीघ्र ही नष्ट हो जावेगी इस भय से उसने सीता का स्वयं स्पर्श नहीं किया ॥213॥ किन्तु चतुर विद्याधारियों को बुलाकर यह आदेश दिया कि तुमलोग शीतल जल तथा हवा आदि से इसकी मूर्च्छा दूर करो ॥214॥ जब उन विद्याधरियोंके अनेक उपायों से सीताकी मूर्च्छा दूर हुई तब शंकासे व्याकुल ह्णदय होती हुई वह उनसे पूछने लगी कि आप लोग कौन हैं ? और यह प्रदेश कौन है ? ॥215॥ इसके उत्तर में विद्याधरियाँ कहने लगीं कि हम लोग विद्याधरियाँ हैं, यह मनोहर लंकापुरी है, और यह तीन खण्ड़के स्वामी राजा रावण का वन है । इस संसार में आपके समान कोई दूसरी स्त्री पुण्यशालिनी नहीं हैं क्योंकि जिस प्रकार इन्द्राणीने इन्द्रको, सुभद्राने भरत चक्रवर्ती को और श्रीमती ने वजजंघको अपना पति बनाया था उसी प्रकार आप भी इस रावणको अपना पति बना रही हैं । आप सौभाग्यसे महालक्ष्मी के धारक रावणकी स्वामिनी होओ ॥216-218॥ इस प्रकार विद्याधरियों के कहने पर सीता बहुत ही दु:खी हुई, उसका मन दीन हो गया । वह कहने लगी कि क्या इन्द्राणी आदि स्त्रियाँ अपना शील भंगकर इन्द्र आदि पतियोंको प्राप्त हुई थीं ? ॥219॥ ऐसी कौन सी स्त्रियाँ हैं जो प्राणों से भी अधिक अपने गुणों को लक्ष्मी के बदले बेच देती हों । रावण तीन खण्ड़ का स्वामी हो, चाहे छह खण्ड़का स्वामी हो और चाहे समस्त लोक का स्वामी हो ॥220॥ यदि वह मेरे आभूषण स्वरूप शील का खण्ड़न करनेवाला है तो मुझे उससे क्या प्रयोजन है ? सज्जनोंको प्राण प्यारे नहीं, किन्तु गुण प्राणोंसे भी अधिक प्रिय होते हैं ॥221॥ मैं प्राण देकर अपने इन गुणरूपी प्राणों की रक्षा करूँगी जीवन की नहीं । यह नश्वर शरीर भले ही नष्ट हो जावे परन्तु कुलाचलों का अनुकरण करनेवाला मेरा शील कभी नष्ट नहीं हो सकता' । इस प्रकार प्रत्युत्तर देकर उत्तमशील व्रतको धारण करनेवाली सीता ने मनसे विचार किया और यह नियम ले लिया कि जब तक रामचन्द्रजी की कुशलता का समाचार नहीं सुन लूँगी तब तक न बोलूँगी और न भोजन ही करूँगी ॥222-224॥ वैधव्यपना प्रकट न हो इस विचार से जिसने अपने शरीर पर थोड़े से ही आभूषण रख छोड़े थे बाकी सब दूरकर दिये थे ऐसी सीता वहाँ संसार की दशा का विचार करती हुई रहने लगी ॥225॥ उसी समय लंका में उसे नष्ट करनेवाले यमराज के किंकरों के समान भय उत्पन्न करनेवाले अनेक उत्पात सब ओर होने लगे ॥226॥ जिस प्रकार यज्ञशाला में बँधे हुए बकरा के समीप हरी घास उत्पन्न हो उसी प्रकार रावण की आयुधशाला में कालचक्र के समान चक्र-रत्न प्रकट हुआ । विद्याधरों का राजा रावण उसके उत्पन्न होने का फल नहीं जानता था-उसे यह नहीं मालूम था कि इससे हमारा ही घात होगा अत: जिसके अरों का समूह देदीप्यमान हो रहा है ऐसे उस महाचक्र ने उसे बहुत भारी सन्तोष उत्पन्न किया ॥227-228॥ तदनन्तर मन्त्रियों ने उसे समझाया कि रामचन्द्र होनहार बलभद्र हैं, और उनका छोटा भाई लक्ष्मण नारायण होनेवाला है । इस समय उन दोनों का प्रताप बढ़ रहा हैं और दोनों ही महान् अभ्युदय के सन्मुख हैं । सीता शीलवती स्त्री है, यह जीते जी तुम्हारी नहीं होगी । शीलवान् पुरुष का तिरस्कार इसी लोक में फल दे देता है । इसके सिवाय नगर में अशुभ की सूचना देने वाले बहुत भारी उत्पात भी हो रहे हैं इसलिए दोनों लोकों में अहित करने एवं युगान्त तक अपयश बढ़ाने वाले इस कुकार्य को उसके पहले ही शीघ्र छोड़ दो जब तक कि यह बात सर्वत्र प्रसिद्धि को प्राप्त होती है' । इस प्रकार मन्त्रियों ने युक्ति से भरे वचन रावण से कहे । रावण प्रत्युत्तरमें कहने लगा कि 'इस तरह आप लोग बिना कुछ सोचे-विचारे ही युक्ति-विरूद्ध वचन क्यों कहते हैं ? अरे, प्रत्यक्ष वस्तुमें विचार करने की क्या आवश्यकता है ? देखो, सीता का अपहरण करने से ही मेरे चक्ररत्न प्रकट हुआ है, इसलिए अब तीन खण्ड़ का आधिपत्य मेरे हाथमें ही आ गया यह सोचना चाहिये । ऐसा कौन मूर्ख होगा जो घर पर आई हुई लक्ष्मी को पैरसे ठुकरावेगा' । इस प्रकार रावण का उत्तर सुनकर हित का उपदेश देनेवाले सब मन्त्री चुप हो गये ॥229-235॥ इधर रामचन्द्रजी मणियों से बने मायामय मृग का पीछा करते-करते वन में बहुत आगे चले गये वहाँ वे दिशाओं का विभाग भूल गये और सूर्य अस्ताचल पर चला गया । परिवारके लोगोंने उन्हें तथा सीताको बहुत ढूँढ़ा पर जब वे न दिखे तो बहुत ही खेद-खिन्न हुए । सो ठीक ही है क्योंकि शरीर का वियोग तो सहा जा सकता है परन्तु स्वामी का वियोग कौन सह सकता है ॥236-237॥ सबेरा होने पर मनुष्य-लोक के चक्षुस्वरूप सूर्य का उदय हुआ, अन्धकार मानो भय से भाग गया, कमलोंके समूह फूल उठे, रात्रिके कारण परस्पर द्वेष रखनेवाले चकवा-चकवियोंके युगल हर्ष से मिलने लगे और जिस प्रकार अर्थ निर्दोष शब्दके साथ संयोगको प्राप्त होता है अथवा सूर्य दिन कि साथ आ मिलता है उसी प्रकार जानकीवल्लभ रामचन्द्रजी परिवारके लोगों के साथ आ मिले । परिजन को देखकर राजा रामचन्द्रजीने बड़ी व्यग्रता से पूछा कि हमारी प्रिया-सीता कहाँ है ? परिजन ने उत्तर दिया कि हे देव ! हम लोगों ने न आपको देखा है और न देवी को देखा है । देवी तो छायाके समान आपके पास ही थी अत: आप ही जाने कि वह कहाँ गई ? इस प्रकार परिजनके वचनों से प्रवेश पाकर क्षण भरके लिए मन को मोहित करती हुई सीताकी सपत्नीके समान मूर्च्छाने रामचन्द्रको पकड़ लिया-उन्हें मूर्च्छा आ गई ॥238-242॥ तदनन्तर-सीताकी सखीके समान शीतोपचार की क्रियाने राजा रामचन्द्रको मूर्च्छासे जुदा किया और 'सीता कहाँ है' ? ऐसा कहते हुए वे प्रबुद्ध-सचेत हो गये ॥243॥ परिजनके समस्त लोगों ने सीताको प्रत्येक वृक्ष के नीचे खोजा पर कहीं भी पता नहीं चला । हाँ, किसी वंशकी झाडीमें उसके उत्तरीय वस्त्र का एक टुकड़ा फटकर लग रहा था परिजनके लोगों ने उसे लाकर रामचन्द्रजी को सौंप दिया । उसे देखकर वे कहने लगे कि यह तो सीता का उत्तरीय वस्त्र है, यहाँ कैसे आया ? ॥244-245॥ थोडी ही देरमें रामचन्द्रजी उसका सब रहस्य समझ गये । उनका ह्णदय शोक से व्याकुल हो गया और वे छोटे भाईके साथ चिन्ता करते हुए वहीं बैठ रहे ॥246॥ उसी समय संभ्रगसे भरा एक दूत राजा दशरथके पाससे आकर उनके पास पहुँचा और मस्तक झुकाकर इस प्रकार कार्य का निवेदन करने लगा ॥247॥ उसने कहा कि आज महाराज दशरथने स्वप्न देखा है कि राहु रोहिणीको हरकर दूसरे आकाश में चला गया है और उसके विरहमें चन्द्रमा अकेला ही वन में इधर-उधर भ्रमण कर रहा है । स्वप्न देखने के बाद ही महाराज ने पुरोहित से पूछा कि 'इस स्वप्न का क्या फल है' ? पुरोहित ने उत्तर दिया कि आज मायावी रावण सीताको हरकर ले गया है और स्वामी रामचन्द्र उसे खोजने के लिए शोक से आकुल हो वन में स्वयं भ्रमण कर रहे हैं । दूतके मुखसे यह समाचार स्पष्टरूप से शीघ्र ही उनके पास भेज देना चाहिये । इस प्रकार पुरोहितने महाराज से कहा और महाराज की आज्ञानुसार मैं यहाँ आया हूं । ऐसा कह दूतने जिसमें पत्र रखा हुआ था ऐसा पिटारा रामचन्द्रके सामने रख दिया । रामचन्द्रने उसे शिरसे लगाकर उठा लिया और खोलकर भीतर रखा हुआ पत्र इस प्रकार बाँचने लगे ॥248-252॥ उसमें लिखा था कि इधर लक्ष्मीसम्पन्न अयोध्या नगरसे लक्ष्मीवानोंके स्वामी महाराज दशरथ प्रेमसे फैलाई हुई अपनी दोनों भुजाओं के द्वारा अपने प्रिय पुत्रों का आलिंगन कर तथा उनके शरीर की कुशल-वार्ता पूछकर यह आज्ञा देते हैं कि यहाँ से दक्षिण दिशाकी ओर समुद्र के बीच में स्थित छप्पन महाद्वीप विद्यमान हैं जो चक्रवर्ती के अनुगामी हैं अर्थात् उन सबमें चक्रवर्ती का शासन चलता है । नारायण भी अपने माहात्म्यसे उन द्वीपोंमें से आधे द्वीपों की रक्षा करते हैं ॥253-255॥ उन द्वीपोंमें एक लंका नाम का द्वीप है, जो कि त्रिकूटाचलसे सुशोभित है । उसमें क्रम-क्रम से राजा विनमिकी सन्तान के चार विद्याधर राजा, जो कि प्रजाकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहते थे, जब व्यतीत हो चुके तब रावण नाम का वह दुष्ट राजा हुआ है जो कि लोकका कण्टक माना जाता है और स्त्रियोंमें सदा लम्पट रहता है ॥256-257॥ तदनन्तर युद्ध की इच्छा रखनेवाले नारदने किसी एक दिन रावणके सामने सीताके रूप लावण्य और कान्ति आदि का वर्णन किया । उसी समय रावण का मन कामदेव के अमोघ वाणोंसे खण्डित हो गया । उसकी बुद्धिकी धीरता जाती रही । न्यायमार्गसे दूर रहनेवाला वह मायावी जिस तरह किसी दूसरे को पता न चल सके इस तरह-गुप्त रूप से आकर सती सीताको किसी उपायसे अपनी नगरी में ले गया है सो जबतक हम लोगों के उद्योग करने का समय आता है तबतक अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिये इस प्रकार प्रिया सीताके प्रति उसे समझाने के लिए कुमार को अपना कोई श्रेष्ठ दूत भेजना चाहिये' । ऐसा महाराज दशरथने अपने पत्र में लिखा था । पिता के पत्र का मतलब समझकर रामचन्द्रका शोक तो रूक गया परन्तु वे क्रोधसे उद्धत हो उठे । वे कहने लगे कि क्या रावण यमराजकी गोदमें चढ़ना चाहता है ॥258-262॥ सिंह के बच्चेके साथ विरोध करने पर क्या खरगोश का जीवन बच सकता है ? सच है कि जिनकी मृत्यु निकट आ जाती है उनकी बुद्धि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ॥263॥ इस प्रकार रोष भरे शब्दों द्वारा रामचन्द्रने क्रोध प्रकट किया । तदनन्तर-लक्ष्मण, जनक, भरत और शत्रुध्र यह समाचार सुनकर रामचन्द्रजीके पास आये और बड़ी विनय सहित उनसे मिलकर युक्तिपूर्ण शब्दों द्वारा उनका शोक दूर करने के लिए सब एक साथ इस प्रकार कहने लगे ॥264-265॥ उन्होंने कहा कि रावण चोरीसे परस्त्री हर ले गया है इससे उसी का तिरस्कार हुआ है । वह द्रोह करनेवाला है, दुष्ट है और अधर्म की प्रवृत्ति चलानेवाला है । उसने चूंकि बिना विचार किये ही यह अकार्य किया है अत: वह सीताके शापसे जलने योग्य है । महापाप करनेवालों का पाप इसी लोक में फल देता है ॥266-367॥ अब सीताको वापिस लाने का कोई उपाय सोचना चाहिए । इस प्रकार उन सबके द्वारा समझाये जाने पर रामचन्द्रजी सोयेसे उठे हुए के समान सावधान हो गये ॥268॥ उसी समय द्वारपालोंने दो विद्याधरोंके आने का समाचार कहा । राजा रामचन्द्रने उन्हें भीतर बुलाया और उन्होंने योग्य विनयके साथ उनके दर्शन किये ॥269॥ होनहार बलभद्र रामचन्द्र भी उनके संयोगसे हर्षित हुए और पूछने लगे कि आप दोनों कुमार यहाँ कहाँ से आये हैं ? और आप कौन हैं ? इसके उत्तरमें सुग्रीव कहने लगा कि विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीमें एक किलकिल नाम का नगर है । विद्याधरोंमें अतिशय प्रसिद्ध बलीन्द्र नाम का विद्याधर उस नगर का स्वामी था । उसकी प्रियंगुसुन्दरी नाम की स्त्री थी । उन दोनोंके हम बाली और सुग्रीव नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए । जब पिता का देहान्त हो गया तब बड़े भाई बालीको राज्य प्राप्त हुआ और मुझे क्रमप्राप्त युवराज पद मिला । इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर मेरे बड़े भाई बालीके ह्णदय को लोभने धर दबाया इसलिए उसने मेरा स्थान छीनकर मुझे देशसे बाहर निकाल दिया । यह तो मेरा परिचय हुआ अब रहा यह साथी । सो यह भी दक्षिण श्रेणीके विद्युत्कान्त नगर के स्वामी प्रभंजन विद्याधर का अमिततेज नाम का पुत्र है । यह तीनों प्रकार की विद्याएँ जानता है, अंजना देवीमें उत्पन्न हुआ है, और अखण्ड़ पराक्रम का धारक है ॥270-276॥ किसी एक समय विद्याधर-कुमारोंके समूहमें परस्पर अपनी-अपनी विद्याओं के माहात्म्य की परीक्षा देने की बात निश्चित हुई । उस समय इसने विजयार्थ पर्वत के शिखर पर दाहिना पैर रखकर बायें पैर से सूर्य के विमान में ठोकर लगाई । तदनन्तर उसी क्षण त्रसरेणुके प्रमाण अपना छोटा सा शरीर बना लिया । यह देख, विद्याधरोंके चित्त आश्चर्य से भर गये, उसी समय समस्त विद्याधरों ने हर्ष से इसका 'अणुमान्' यह नाम रक्खा । इसने विक्रियारूपी समुद्र का पान कर लिया है अर्थात् यह सब प्रकार की विक्रिया करने में समर्थ है, यह मेरा प्राणोंसे भी अधिक प्यारा मित्र है ॥277-280॥ मैं किसी एक दिन इसके साथ सम्मेदशिखर पर्वतपर गया था वहाँ सिद्धकूट नामक तीर्थक्षेत्र में अर्हन्त भगवान् की बहुत सी प्रतिमाओंकी भक्ति पूर्वक पूजा वन्दनाकर वहीं पर शुभ भावना करता हुआ बैठ गया । उसी समय वहाँ पर विमान में बैठे हुए नारदजी आ पहुँचे । वे जटाओं का मुकुट धारण कर रहे थे, मोतियों का यज्ञोपवीत पहिने थे, गेरूवा वस्त्रोंसे सुशोभित थे, उनकी बगलमें रत्नोंका कमण्ड़ल लटक रहा था, वे हाथमें छत्ता लिये हुए थे, नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे, और सदा रौद्रध्यानमें तत्पर रहते थे । उन्होंने आकाश से उतरकर पहले तो जिन-मन्दिरों की प्रदक्षिणा दी, फिर जिनेन्द्र भगवान् का स्तवन किया और तदनन्तर वे एकान्त स्थान में बैठ गये । मैंने उनके पास जाकर पूछा कि हे मुने ! क्या कभी मुझे अपना पद भी प्राप्त हो सकेगा ? इसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि राम और लक्ष्मण का बहुत ही शीघ्र आधे भरत का स्वामीपना प्रकट होने वाला है ॥281-286॥ यदि तू उनके दूत का कार्य कर देगा तो उन दोनोंके द्वारा तेरा मनोरथ सिद्ध हो जावेगा । उन्हें दूत भेजने का कार्य यों आ पड़ा है कि रामकी स्त्री वन में विहार कर रही थी उसे रावण छल पूर्वक हरकर ले गया है । इसलिए आज राम और लक्ष्मण अपना कार्य सिद्ध करने के लिए लंका भेजने योग्य किसी पुरुष की खोज करते हुए बैठे हैं । इस प्रकार नारदके वचन सुनकर हे देव ! बड़े सन्तोष से हम दोनों आपके पास आये हैं ॥287-289॥ दोनों विद्याधरोंके उक्त वचन सुनकर राम-लक्ष्मण ने उनका उचित सत्कार किया । तदनन्तर प्रभन्जन के पुत्र अणुमान् (हनुमान्) ने प्रार्थना की कि यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं सीता देवीके स्थान की खोज करूँ । हे राजन् ! देवीको विश्वास उत्पन्न करानेके लिए आप कोई चिह्न बतलाइये ॥290-291॥ इस प्रकार उसका कहा सुनकर रामचन्द्रजी को विश्वास हो गया कि विनमिके वंशरूपी आकाशके चन्द्रमास्वरूप इस विद्याधरके द्वारा हमारा अभिप्राय नि:सन्देह सिद्ध हो जावेगा ॥292॥ ऐसा मान राजा ने मेरी प्रिया रूप रंग आदिमें ऐसी है यह स्पष्ट बताकर उसके लिए अपने नाम से चिह्ति मुद्रिका (अंगूठी) दे दी ॥293॥ अणुमान् रामचन्द्र के चरण-कमलों को नमस्कार कर आकाशके बीच जा उड़ा और समुद्र तथा त्रिकूटाचल को लांघकर लंका नगर में जा पहुँचा । वह लंका नगर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा था, बत्तीस गोपुरोंसे सहित था, रत्नोंके कोटसे युक्त था, महामेरूके समान ऊँचा था, रावणके महलोंसे सुशोभित था, एवं जिनमें भ्रमर और पुंस्कोकिलाएँ मनोहर शब्द कर रही हैं तथा फूल और पत्ते सुशोभित हैं अतएव जो राग तथा हासके साथ गाते हुएसे जान पड़ते हैं ऐसे बाग-बगीचोंसे मनोहर था, ऐसे लंका नगर में जाकर सीताकी खोजमें तत्पर रहनेवाले अणुमान् ने भ्रमर का रूप रख लिया और क्रम-क्रम से वह रावणके सभागृह, इन्द्रजित् आदि राजकुमारों तथा मन्दोदरी आदि रावण की स्त्रियों को बड़े आदरसे देखता हुआ वहाँ पहुँचा जहाँ रावण विद्यमान था ॥294-299॥ तदनन्तर नमस्कार करते हुए समस्त विद्याधर राजाओं के मुकुटों की मालाओंसे जिसके चरण- कमल पूजित हैं, जो सिंहासनके मध्य में बैठा है, सिंह के समान पराक्रमी है, इन्द्रके समान है, ढुरते हुए चमरोंसे जो ऐसा जान पड़ता है मानो गंगा की विशाल तरंगोंसे सुशोभित नीलाचल ही हो और जिसने समस्त शत्रुओं को रूला दिया है ऐसे रावण को देखकर अणुमान् ने सोचा कि इस पापीके यह ऐसा ही विचित्र कर्म का उदय है जिससे प्रेरित हो इसने धर्म का उल्लंघनकर परस्त्री की इच्छा की ॥300-302॥ नारदने जो कहा था कि इसका अकालमरण होनेवाला है सो ठीक ही कहा था । इस प्रकार विचार करते हुए अणुमान् ने रावण की सभा में सीता नहीं देखी ॥303॥ धीरे-धीरे सूर्य की प्रभा मन्द पड़ गई, दिन अस्त हो गया और सूर्य रावणके लिए यह सूचना देता हुआ ही मानो अस्ताचल की ओर चला गया कि संसार में जितने सहायक हैं वे सब प्राय: सम्पत्तिशालियों की ही सहायता करते हैं और संसार में जितने प्राणी हैं उन सबका उदय और अस्त नियमसे होता है ॥304-305॥ इस प्रकार सब ओर से चिन्तवन करता हुआ वह रामचन्द्र का दूत अणुमान् अन्त:पुरके पश्चिम गोपुर पर चढ़कर नन्दन नाम का वन देखने लगा । वह नन्दन वन भ्रमरोंके शब्दसे सुशोभित था, उसमें समस्त ऋतुओंकी शोभा बिखर रही थी, साथ ही नन्दन-वनके समान जान पड़ता था, फल और फूलों के बोझसे झुके हुए सुन्दर सुन्दर वृक्षों, मन्दमन्द वायुसे उड़ती हुई नाना प्रकार के फूलों की परागों, कृत्रिम पर्वतों, सरोवरों, बावलियों, तथा लताओंसे सुशोभित मण्ड़पों और कामको उद्दीपित करनेवाले अन्य अनेक स्थानोंसे अन्यन्त मनोहर था । उसे देख वह अणुमान् कुछ देर तक हर्ष और कौतुकके साथ वहां खड़ा रहा ॥306-309॥ वहीं किसी समीपवर्ती स्थान में उसने सीता को देखा । उस सीताको साम आदि उपायों के द्वारा वश करने के लिए अभिप्रायानुकूल चेष्टाओं को जानने वाली अनेक विद्याधरियाँ घेरे हुई थीं । वह शिंशपा वृक्ष के नीचे शोक से व्याकुल हुई बैठी थी, चुप चाप ध्यान कर रही थी, मरकर अथवा जीर्ण शीर्ण होकर भी कुल की रक्षा करने में प्रयत्नशील थी, तथा ऐसी जान पड़ती थी मानो शील की-पातिव्रत्य धर्म की माला ही हो । ऐसी सीताको देख अणुमान्ने विचार किया कि यह वही सीता है जिसे रावण हरकर लाया है । उसने राजा रामचन्द्रजीके द्वारा बतलाये हुए चिह्नोंसे उसे पहिचान लिया और साथ ही यह विचार किया कि मेरे पुण्योदय से ही मुझे आज इस सतीके दर्शन हुए हैं। दर्शन करनेसे उसे बड़ा अनुराग उत्पन्न हुआ । उसने समझा कि जिस प्रकार दावानलके द्वारा कल्पलता संतापित होती है उसी प्रकार पापी रावणके द्वारा यह सती सन्तापित की गई है । इस प्रकार उसका चित्त यद्यपि शोक से सन्तप्त हो गया तथापि वह नीतिमार्ग में विशारद होनेसे सोचने लगा कि जो विवेकी मनुष्य अपने प्रारम्भ किये हुए कर्मको सिद्ध करने में उद्यत रहता है उसे क्रोध करना एक प्रकार का व्यसन है और कार्य में विघ्न करनेवाला है ऐसा नीतिज्ञ मनुष्य कहते हैं । इसलिए असमयमें क्रोध करना व्यर्थ है ऐसा विचार कर उसने क्षमा धारण की और उस पतिव्रताको अपने आने का समाचार बतलानेके लिए अवसर की प्रतीक्षा करता हुआ वह वहीं कुछ समयके लिए खड़ा हो गया । उसी समय चन्द्रमा का उदय हो गया और वह उदयाचलके शिखर पर चूड़ामाणिके समान सुशोभित होने लगा ॥310-317॥ उसी समय 'आज सीताको लाये हुए सात दिन बीत चुके हैं अत: देखना चाहिये कि उसकी क्या दशा है' ऐसा विचार करता हुआ रावण वहाँ आया । वह अनेक दीपिकाओंसे आवृत था-उसके चारों ओर अनेक दीपक जल रहे थे इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो देदीप्यमान कल्पवृक्षोंसे सहित चलता फिरता नीलगिरी ही हो । वह उत्कण्ठा से सहित था तथा अन्त:पुरकी स्त्रियों से युक्त था ॥318-319॥ 'मैं अपने पति का कुशल समाचार कब सुनूँगी' ऐसा विचार करती हुई सीता चुपचाप स्थिर बैठी हुई थी । उसे रावण बड़ी देर तक आश्चर्य से देखता रहा और स्त्रियों के बीच ऐसी पतिव्रता स्त्री कोई दूसरी नहीं है ऐसा विचार कर वह कुछ पीछे हटकर दूर खड़ा रहा । वहीं से उसने सीताका अभिप्राय जानने के लिए अपनी मंजरिका नाम की विवेकवती दूती उसके पास भेजी । वह दूती सीताके पास आकर विनय से कहने लगी कि हे स्वामिनी, विद्याधरोंके राजा रावण की पाँच हजार स्त्रियाँ हैं जो विद्याधर राजाओं की पुत्रियाँ हैं और तुम्हारे ही समान मनोहर हैं । तुम उन सबकी स्वामिनी होकर महादेवीके पद पर स्थित होओ और तीन खण्ड़के स्वामी रावणके वक्ष्:स्थलपर चिरकाल तक लक्ष्मी के साथ साथ निवास करो ॥320-324॥ बिजलीके समान चंचल अपने इस यौवनको निष्फल न करो । 'रावणके हाथसे राम तुम्हें वापिस ले जावेगा' इस विचार को तुम कदम्बके विशाल वनके समान निष्फल समझो । भूखसे पीडित सिहंके मुखके भीतर वर्तमान मृगको छुड़ानेके लिए कौन मनुष्य समर्थ है ? इस प्रकार उस मंजरिका नाम की दूती ने कहा सही परनतु सीता उसे सुनकर पृथिवीके समान ही निश्चल बैठी रही सो ठीक ही है क्योंकि पतिव्रता स्त्री को भेदन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ? उसे निश्चल देख रावण स्वयं ड़रते ड़रते पास आकर कहने लगा कि यदि तू कुलकी रक्षा करने के लिए बैठी है तो यह बात विचार करने के योग्य नहीं है । यदि लज्जा आती है तो वह नीच मनुष्यों के संसर्गसे होती है अत: यहाँ उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती ॥325−326॥ यदि राम में तेरा प्रेम है तो तू उसे अब मरे हुए के समान समझ । जो चिरकाल से परिचित है उसे इस समय एकदम कैसे भूल जाऊँ ? यदि यह तेरा कहना है तो इस संसार में किसका किसके साथ परिचय नहीं है ? कदाचित्यह सोचती हो कि राम यहाँ आकर मुझे ले जावेंगे सो यह भी ठीक नहीं हैं क्योंकि समुद्र तो यहाँ की खाई है, त्रिकूटाचल किला है, विद्याधर लोकपाल हैं, लंका नगर है, मेघनाद आदि योद्धा हैं और मैं उनका स्वामी हूँ फिर तुम्हारे रामका यहाँ प्रवेश ही कैसे हो सकता है ? ॥330-332॥ इसलिए हे प्रिये ! राम की आशा छोड़कर मेरी आशा पूर्ण करो । जो कार्य अवश्य ही पूर्ण होने वाला है उसमें समय बिताने से तुझे क्या लाभ है ? ॥333॥ तू चाहे रो और चाहे हँस, मैं तो तेरा पाहुना हो चुका हूं । हे सुन्दरी ! तू मेरी सुन्दर स्त्रियों के चूड़ामणिके समान हो ॥334॥ यदि तू अभाग्य वश मेरा कहना नहीं मानेगी तो तुझे आज ही मेरी घटदासी बनना पड़ेगा अथवा यमराज के घर रहनेवालों का अतिथि होना पड़ेगा ॥335॥ इस तरह जिस प्रकार पुण्यहीन वश करने के लिए व्यर्थ ही बकवास किया । उसे सुनकर सीता निश्चल चित्त हो धर्म्यध्यान के समान निर्मलता धारण करती हुई निश्चल बैठी रही । रावण के मुख से निकले हुए वचन-समूहरूपी अग्रि की पंक्ति सीता के धैर्यरूपी समुद्र को पाकर शीघ्र ही उसी समय शान्त हो गई । उस समय रावण सोचने लगा कि 'मैं जिस प्रकार पराक्रम के द्वारा समस्त पुरुषों को जीतता हूँ उसी प्रकार अपनी सौभाग्य रूपी सम्पदा के द्वारा समस्त स्त्रियों को भी जीतता हूँ-उन्हें अपने वश कर लेता हूं फिर भी यह ही जलाने के लिए रावण के मनरूपी युद्धस्थल में जो प्रचण्ड क्रोधरूपी दावानल फैल रही थी उसे मन्दोदरी ने हितकारी तथा सुनने के योग्य वचनरूपी अमृत जल से शान्त कर कहा कि आप इस तरह साधारण पुरुष के समान अस्थान में क्रोध करते हैं ? जरा सोचो तो सही, यह स्त्री क्या आपके दण्ड़ देने योग्य मालूम होती है ? अरे, मन्दार-वृक्ष के फूलों से बनी हुई माला क्या अग्नि में डाली जाने योग्य है ? नष्ट हो जाती है और ऐसा होने से आप पक्ष-रहित पक्षी के समान हो जावेंगे । पहले स्वयंप्रभा के लिए अश्वग्रीव विद्याधर, पद्मावती के कारण राजा मधुसूदन और सुतारा में आसक्त हुआ निर्बुद्धि अशनिघोष पराभव को पा चुका है अत: आप भी उन जैसे मत होओ । ऐसा मत समझिये कि मैं सौत के भय से कह रही हूँ । आप मेरे वचन को प्रमाण मानते हुए सीता सम्बन्धी मोह छोड़ दीजिये । ऐसा मन्दोदरी ने रावण से कहा । रावण उसके वचनों का उत्तर देने में समर्थ नहीं हो सका अत: यह कहता हुआ कुपित हो नगर में वापिस चला गया कि अब तो यह प्राणों के साथ ही छोड़ी जा सकेगी ॥336-347॥ इधर जो अपनी छोड़ी हुई पुत्री के शोक से युक्त है ऐसी मन्दोदरी सीता से एकान्त में कहने लगी कि जिस पुत्री को मैंने निमित्तज्ञानी के आदेश के डर से पृथिवी में नीचे गड़वा दिया था, वही कलह करने के लिए मेरी पुत्री तू आ गई है ऐसा मेरा मन मानता है । हे भद्रे ! तू दु:ख देने वाले पापी विधाता के द्वारा यहाँ लाई गयी है । सो ठीक ही है क्योंकि इस लोक में प्राय: विधाता की चेष्टा का कोई भी उल्लघंन नहीं कर सकता । मालूम नहीं पड़ता कि तू मेरी इस जन्म की सम्बन्धिनी है अथवा पर जन्म की सम्बन्धिनी है । न जाने क्यों तुझे देखकर आज मेरा स्नेह बढ़ रहा है । हे कमललोचने ! बहुत कुछ सम्भव है कि मैं तेरी माँ हूँ और तू मेरी पुत्री है, यह तू भी समझ रही है । परन्तु यह विद्याधरों का राजा तुझे मेरी सौत बनाना चाहता है इसलिए हे बच्चे ! चाहे मरण को भले ही प्राप्त हो जाना परन्तु इसके मनोरथ को प्राप्त न होना, इसकी इच्छानुसार काम नहीं करना । इस प्रकार कहती हुई मन्दोदरी बहुत ही उत्सुक हो गई । उसके स्तनों से दूध झरने लगा और उसके स्तन-युगल सीता का अभिषेक करने के लिए ही मानो नीचे की ओर झुक गये ॥348-353॥ उसका कण्ठ गद्गद हो गया, दोनों नेत्रों से स्नेह को सूचित करनेवाला जल गिरने लगा और उस समय उसका मुखकमल शोकरूपी अग्नि से मलिन हो गया ॥354॥ यह सब देख सीता को ऐसा लगने लगा मानो मैं अपनी माता के पास ही आ गई हूं, उसका ह्णदय आर्द्र हो गया और नेत्र आँसुओं से भर गये ॥355॥ उसका अभिप्राय जानकर रावण की पट्टरानी मन्दोदरी कहने लगी कि यदि तू अपना कार्य अच्छी तरह सिद्ध करना चाहती है तो हे माँ ! मैं हाथ जोड़कर याचना करती हूं, तू आहार ग्रहण कर, क्योंकि सबका साधन शरीर है और शरीर का साधन आहार है ॥356-357॥ चतुर मनुष्य यही कहते हैं कि यदि वृक्ष नहीं होगा तो फूल आदि कहाँ से आवेंगे ? इसी प्रकार शरीर के रहते ही तुझे तेरे स्वामी रामचन्द्र का दर्शन हो सकेगा ॥358॥ यदि उनका दर्शन साध्य न हो तो इस शरीर से महान् तप ही करना चाहिये । यह सब कहने के बाद मन्दोदरी ने यह भी कहा कि यदि मेरे वचन नहीं मानती है तो मैं भी भोजन छोड़े देती हूं । सो मन्दोदरी के वचन सुनकर सीता ने विचार किया कि यद्यपि यह मेरी माता नहीं है तथापि माता के समान ही मेरे दु:ख से दु:खी हो रही है । ऐसा विचार कर वह मन ही मन मन्दोदरी के चरणों को नमस्कार कर उनकी ओर बड़े स्नेह से देखने लगी । उसे ऐसी देख मन्दोदरी सोचने लगी कि मंजूषा में रखते समय जिस प्रकार मेरी पुत्री मेरी ओर देख रही थी उसी प्रकार आज सीता मेरी ओर देख रही है । इस पतिव्रता का यह मधुर दर्शन मुझे सब ओर से सन्तप्त कर रहा है । इस प्रकार शोक को प्राप्त हुई मन्दोदरी ने सीता के दु:ख से विनम्र हो आप्तजनों के साथ साथ नगर में बड़े दु:ख से प्रवेश किया तदनन्तर उसी शिंशपा वृक्षपर बैठे हुए दूत अणुमान् ने प्रवग-नामक विद्या के द्वारा अपना बंदर जैसा रूप बना लिया और वन की रक्षा करनेवाले पुरुषों को निद्रा से युक्तकर वह स्वयं सीता देवी के आगे जा खड़ा हुआ ॥359-364॥ वानर रूपधारी अणुमान् ने सीता को नमस्कारकर उसे अपना सब वृत्तान्त सुना दिया और कहा कि मैं राजा रामचन्द्रजी के आदेश से, जिसके भीतर पत्र रखा हुआ है ऐसा यह एक पिटारा ले आया हूं । इतना कह उसने वह पिटारा सीता देवी के आगे रख दिया । वानर को देखकर सीता को सन्देह हुआ कि क्या यह मायामयी शरीर को धारण करनेवाला नीच रावण ही है ? ॥365-366॥ इस प्रकार सीता संशय कर रही थी कि उसकी दृष्टि श्रीवत्स के चिन्ह से चिन्हित एवं अपने पति के नामाक्षरों से अंकित रत्नमयी अंगूठी पर जा पड़ी । उसे देख वह फिर भी संशय करने लगी कि मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह दुष्ट रावण की ही माया है । क्या है ? यह कौन जाने, परन्तु यह पत्र तो उन्हीं का है और मेरे भाग्य से ही यहाँ आया है ऐसा सोचकर उसने पत्र पर लगी हुई मुहर तोड़कर पत्र बाँचा । पत्र बांचते ही उसका शोक नष्ट हो गया । वह स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहने लगी कि तूने मुझे जीवित रक्खा है अत: मेरे पिता के पद पर अधिष्ठित है-मेरे पिता के समान है । जब सीता ने उक्त वचन कहे तब पवन-पुत्र अणुमान् ने अपने कान ढंककर उत्तर दिया कि हे माता ! आप मेरे स्वामी की महादेवी हैं, इस पर अन्य कल्पना न कीजिये । हे पतिव्रते ! यद्यपि तुम्हें आज ही ले जाने की मेरी शक्ति है तथापि स्वामी की आज्ञा नहीं है । राजा रामचन्द्रजी स्वयं ही आकर रावण को मारेंगे और उसकी लक्ष्मी के साथ साथ तुम्हें ले जावेगें । उस साहसपूर्ण कार्य से उनकी कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त होकर रहेगी अत: शरीर धारण करने के लिए आहार ग्रहण करो ॥367-373॥ हे भगवति ! आहार ग्रहण करने में क्या दोष है ? राजा रामचन्द्र के साथ तुम्हारा समागम शीघ्र ही हो जावेगा । इस प्रकार जब अणुमान् ने कहा तब सीता ने उदासीनता छोड़कर शीघ्र ही शरीर की स्थिति के लिए आहार ग्रहण करना स्वीकृत कर लिया और उस समय के योग्य कार्यों के कहने में कुशल सीता ने उस दूत को शीघ्र ही विदा कर दिया ॥374-375॥ दूत-अणुमान् भी सीता के चरणकमलों को नमस्कार कर सूर्योदय के समय चला और अपने आगमन की प्रतीक्षा करने वाले रामचन्द्र के समीप शीघ्र ही पहुँच गया ॥376॥ उसने पहुँचते ही पहले अपने मुख-कमल की प्रसन्नता से रामचन्द्रजी को कार्य-सिद्धि की सूचना दी फिर उन्हें प्रणाम किया । स्वामी रामचन्द्र ने उसे अच्छी तरह आलिंगन कर आसन पर बैठने के लिए कहा । जब वह हर्ष पूर्वक आसन पर बैठ गया तब रामचन्द्र ने उससे पूछा कि क्यों मेरी प्रिया देखी है ? उत्तर में अणुमान् ने रामचन्द्र को प्रीति उत्पन्न करनेवाले उत्कृष्ट वचन विस्तार के साथ कहे । वह कहने लगा कि रावण स्वभाव से ही अहंकारी है फिर उसके चक्र-रत्न भी प्रकट हो गया है । इसके सिवाय लंका में बहुत से अपशकुन हो रहे हैं और उसके विद्याधर सेवक बहुत ही कुशल हैं । इन सब बातों का मन्त्रियों के साथ अच्छी तरह विचार कर जिस तरह सम्भव हो उसी तरह सीता को लाने के उपाय का शीघ्र ही निश्चय करना चाहिये । इस प्रकार यह योग्य कार्य अणुमान् ने सूचित किया । बलिष्ट अभिप्राय को धारण करनेवाले रामचन्द्र ने अणुमान् के कहे वचनों का ह्णदय में अच्छी तरह विचार किया । उसी समय उन्होंने अणुमान को सेपापति का पट्ट बाँधा और सुग्रीव को युवराज बनाया ॥377-382॥ तदनन्तर उन्होंने उन दोनों के साथ-साथ मन्त्री से करने योग्य कार्य का निर्णय पूछा । उत्तर में अंगद ने कहा कि हे स्वामिन् ! राजा तीन प्रकार के होते हैं -1 लोभ-विजय, 2 धर्म-विजय और 3 असुर-विजय । नीति के जाननेवाले विद्वान अपना कार्य सिद्ध करने के लिए, पहले के लिए दान देना, दूसरेके साथ शान्ति का व्यवहार करना और तीसरे के लिए भेद तथा दण्ड़ का प्रयोग करना यही ठीक उपाय बतलाते हैं । इन तीन प्रकार के राजाओं में रावण अन्तिम-असुर-विजय राजा है । वह नीच होने से क्रूर कार्य करनेवाला है इसलिए नीतिज्ञ मनुष्यों को साथ भेद और दण्ड़ उपाय का ही यद्यपि प्रयोग करना चाहिये तो भी क्रम का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । सर्व प्रथम उसके साथ साम का ही प्रयोग करना चाहिये ॥383-386॥ यदि आप इसका निश्चय करना चाहते हैं कि ऐसा साम का जाननेवाला कौन है जिसे वहाँ भेजा जावे ? तो उसका उत्तर यह है कि यद्यपि दक्षता-चतुरता आदि गुणों से सहित अनेक भूमिगोचरी राजा हैं परन्तु उनमें आकाश में चलने की सामर्थ्य नहीं है इसलिए आपने जो यह नया सेनापति बनाया है इसे ही भेजना चाहिए ॥387-388॥ इस अणुमान् ने मार्ग देखा है, इसे दूसरे दबा नहीं सकते, एक बार यह कार्य सिद्ध कर आया है, अनेक शास्त्रों का जानकार है तथा जाति आदि विद्याओं से सहित है, इसलिए इससे कार्य का निर्णय अवश्य ही हो जावेगा ॥389॥ अंगद के इस उपदेश से रामचन्द्र ने मनोवेग, विजय, कुमुद और हितकारी रविगति को सहायक बनाकर अणुमान् का आदर-सत्कार कर उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे कुमार ! यहाँ आपके सिवाय कार्य को जानने वाला तथा काय को करने वाला दूसरा नहीं है । राजा रामचन्द्र ने अणुमान् से यह भी कहा कि तुम सर्वप्रथम विभीषण से कहना कि इस लंका द्वीप में आप ही धर्म के जानकार हैं, विद्वान् हैं और कार्य के परिपाक-फल को जानने वाले हैं । लंका के ईश्वर रावण और सूर्यवंश के प्रधान रामचन्द्र दोनों का हित करने वाले हैं, इसलिए आप रावण से कहिए-जो तू सीता को हरकर लाया है सो तेरा यह कार्य अन्यायपूर्ण है, कल्पान्तकाल तक अपयश करने वाला है, तथा अहितकारी है । इस प्रकार रति से मोहित रावण को सुनाकर आप सीता को छुडा दीजिये । ऐसा करने पर आप अपने कुल की पाप से, विनाश से स्वयं ही रक्षा कर लेंगे । इस प्रकार की सामोक्तियों से यदि विभीषण वश में हो गया तो शत्रु अपने वश में ही समझिये । हे दूतोत्तम ! इतना ही नहीं, लक्ष्मी के साथ-साथ सीता भी आई हुई ही समझिए । इसके सिवाय और जो कुछ करने योग्य कार्य हों उनका तथा शत्रु के समाचारों का निर्णय कर शीघ्र ही मेरे पास वापिस आओ ॥390-396॥ इस प्रकार कहकर रामचन्द्र ने अणुमान् को सहायकों के साथ विदा किया । कुमार अणुमान भी रामचन्द्र को नमस्कार कर गया और शीघ्र ही लंका पहुँच गया । वहाँ उसने सब समाचार जानकर विभीषण के दर्शन किये और विनयपूर्वक कहा कि 'मैं राजा रामचन्द्र के द्वारा आपके पास भेजा गया हूँ' ऐसा कहकर उसने, रामचन्द्र ने जो कुछ कहा था वह सब बडी विनय के साथ विभीषण से निवेदन कर दिया ॥397-398॥ साथ ही उसने अपनी ओर से यह बात भी कही कि हे विद्याधरों के ईश ! आप स्वामी का सन्देश लाने वाले तथा हित करने वाले मुझको रावण के पास तक भेज दीजिये । आप से रामचन्द्र के इष्ट कार्य की सिद्धि अवश्य हो जावेगी और ऐसा हो जाने पर यह कार्य मेरे द्वारा आपसे ही सिद्ध हुआ कहलावेगा ॥399-400॥ आपके द्वारा ऐसा कहे जाने पर भी वह मूर्ख यदि सीता को नहीं छोडता है तो इसमें आपका अपराध नहीं है वह पापी अपने आप ही नष्ट होगा ॥401॥ इस समय जिनकी लक्ष्मी बढ रही है ऐसे रामचनद्र को देख उनके पुण्य से प्रेरित हुई तथा 'हम लोगों को दोनों लोकों का एक कल्याण करने वाले रामचन्द्र जी की शरण जाना चाहिए, इस प्रकार अनुराग से भरी रण की भावना से ओतप्रोत पचास करोड चौरासी लाख भूमिगोचरियों की सेना और साढे तीन करोड विद्याधरों की सेना स्वयं ही उनसे आ मिली है । वे रामचन्द्र इतनी सब सेना तथा लक्ष्मण को साथ लेकर स्वयं ही यहाँ आ पहुँचेंगे । यद्यपि वे सीता के समान विद्याधरों के राजा रावण की लक्ष्मी को भी आज ही हरने में समर्थ हैं किन्तु उनका आप में स्वाभाविक प्रेम है इसीलिए उन्होंने मुझे भेजा है । क्या आप इस तरह के सब समाचार नहीं जानते ? इस प्रकार अणुमान के वचन सुनकर कार्य को जानने वाला विभीषण उसी समय उसे रावण के समीप ले जाकर निवेदन करने लगा कि हे देव ! रामचन्द्र ने यह दूत आपके पास भेजा है ॥402-407॥ बुद्धिमान तथा स्पष्ट और मधुर शब्द बोलनेवाले अणुमान ने भी विनयपूर्वक रावण के दर्शन किये, योग्य भेंट समर्पित की । तदनन्तर रावण के द्वारा बतलाये हुए आसन पर बैठकर श्रवण करने के योग्य हित मित शब्दों द्वारा उसने इस प्रकार कहना शुरू किया कि हे देव, सुनिये ॥408-409॥ जो अपने तेज से बढ रहे हैं, जिनकी बुद्धि तथा साहस सबको अपने अनुकूल बनानेवाला है, गुण ही जिनके आभूषण हैं तथा जो कुशल युक्त हैं ऐसे राजा रामचन्द्र ने इस समय अयोध्या-नगर में ही विराजमान होकर तीन-खण्ड के स्वामी आपका पहले तो कुशल-प्रश्न पूछा है और फिर यह कहला भेजा है कि आप सीता को किसी दूसरे की समझ कर ले आये हैं । परन्तु वह मेरी है, आप बिना जाने लाये हैं इसलिए कुछ बिगडा नहीं है । आप बुद्धिमान् हैं अत: उसे शीघ्र भेज दीजिए ॥410-412॥ यदि आप सीता को न भेजेंगे तो विनामि वंश के एक रत्न और महात्मा स्वरूप आपका यह विचित्र कार्य धर्म तथा सुख का विघात करने वाला होगा ॥413॥ कुलीन पुत्ररूपी महासागर को यह कलंक धारण करना उचित नहीं है । अत: सीता को छोडने रूप बडी-बडी तरंगों के द्वारा इसे बाहर फेंक देना चाहिए ॥414॥ अणुमान् के यह वचन सुनकर रावण ने उत्तर दिया कि मैं सीता को बिना जाने नहीं लाया हूं किन्तु जानकर लाया हूं । मैं राजा हूं अत: सर्व रत्न मेरे ही हैं और विशेष कर स्त्रीरत्न तो मेरा ही है । तुम्हारे राजा रामचनद्र ने जो कहला भेजा है कि सीता को भेज दो सो क्या ऐसा कहना उसे योग्य है ॥415-416॥ ( वह अभिमानियों में बडा अभिमानी मालूम होता है । वह मेरी श्रेष्ठता को नहीं जानता है । 'मेरे चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है' यह समाचार क्या उसके कानों के समीप तक नहीं पहुँचा है ? भूमिगोचरियों तथा विद्याधर राजाओं के मुकुटों पर मेरे चरण-युगल, स्थल - कमल-गुलाब के समान सुशोभित होते हैं यह बात आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है-बडे से लेकर छोटे तक सब जानते हैं । सीता मेरी है यह बात तो बहुत चौडी है किन्तु समस्त विजयार्थ पर्वत तक मेरा है । मेरे सिवाय सीता किसी अन्य की नहीं हो सकती । तुम्हारा राजा जो इसे ग्रहण करना चाहता है वह पराक्रमी नहीं है-शूर-वीर नहीं है । इस सीता को अथवा अन्य किसी स्त्री को ग्रहण करने की उसमें शक्ति है तो वह यहाँ आवे और युद्ध के द्वारा मुझे जीत कर शीघ्र ही सीता को ले जावे । कौन मना करता है ?' ) इस प्रकार भाग्य की प्रेरणा से रावण के नाश को सूचित करने वाले वचन सुनकर अणुमान ने मन में विचार किया कि इस समय रामचन्द्र के अभ्युदय को प्रकट करनेवाले शुभ सूचक निमित्त हो रहे हैं और इस विषय में मुझे भी यही इष्ट है-मैं चाहता हूँ कि रामचन्द्र यहाँ आकर युद्ध में रावण को परास्त करें और अपना अभ्युदय बढावें ॥417-418॥ तदनन्तर वह अणुमान् रामचन्द्र की ओर से दुष्ट और दुराचारी रावण से फिर कहने लगा कि 'आप अन्याय को रोकनेवाले हैं, यदि रोकनेवाले ही रोकना पडे तो समुद्र में बडवानल के समान उसे कौन रोक सकता है ? यह सीता अभेद्य है-इसे कोई विचलित नहीं कर सकता और मैं सिंह के समान पराक्रमी प्रसिद्ध रामचन्द्र हूँ ॥419-420॥ इस अकार्य के करने से जब तक चन्द्रमा रहेगा तबतक आपकी निष्प्रयोजन अकीर्ति बनी रहेगी इस बात का भी आपको विचार करना उचित है । मैंने भाईपने के सम्बन्ध से आपके लिए हितकारी वचन कहे हैं । हे स्वामिन् ! यदि आपको रूचिकर हों तो ग्रहण कीजिए अन्यथा मत कीजिये ।' इस प्रकार दूत-अणुमान के वचन सुनकर रावण फिर कहने लगा ॥421-422॥ कि 'चूँकि राजा जनक ने अहंकार वश मुझे सूचना दिये बिना ही यह सीता रूपी रत्न रामचन्द्र के लिए दिया था इसलिए क्रोध से मैं इसे ले आया हूं ॥423॥ मेरे योग्य वस्तु स्वीकार करने से यदि मेरी अकीर्ति होती है तो हो । वह रामचन्द्र तो मेरे हाथ से चक्ररत्न भी ग्रहण करना चाहता है' इस प्रकार रावण ने कहा । तदनन्तर अणुमान् रावण के कहे अनुसार उससे प्रसन्न तथा गम्भीर वचन कहने लगा कि सीता मैंने हरी है यह आप क्यों कहते हैं ? यह सब जानते है कि जिस समय आपने सीता हरी थी उस समय वह किसके हाथ में थी-किसके पास थी ? आप सीता को हर कर नहीं लाये हैं किन्तु चुरा कर लाये हैं । अत: यह कहिये कि इस कार्य से क्या आपकी शूर-वीरता प्रकट होती है ? अथवा इन व्यर्थ की बातों से क्या लाभ है । आप मीठे वचनों से ही रानी सीता को शीघ्र वापिस कर दीजिये ॥424-427॥ इस प्रकार अणुमान से उत्पन्न हुए तिरस्कार सूचक रूपी अग्नि से जिसका ह्णदय संतप्त हो रहा है ऐसा पुष्पक विमान का स्वामी रावण कहने लगा कि 'रामचन्द्र, दृष्टिविष सर्प के फणामणि को ग्रहण करने की इच्छा करने वाले पुरुष की गति को प्राप्त करना चाहता है-मरना चाहता है । तू दूत होने के कारण मारने योग्य नहीं है अत: यहाँ से चला जा, चला जा, इस प्रकार रावण ने सिंह को जीतने वाली अपनी गर्जना से अणुमान को ललकारा । तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ एवं क्रूर प्रकृतिवाले कुम्भकर्ण आदि योद्धाओं ने इन्द्रजित्, इन्द्रचर्म, अति कन्यार्क, खरदूषण, खर, दुर्मुख, महामुख आदि विद्याधरों ने और क्रुद्ध हुए अन्य कुमारों ने अणुमान को बहुत ही ललकारा । तब अणुमान ने कहा कि स्त्रीजनों के सामने इस व्यर्थ की गर्जना से क्या लाभ है ? इससे कौनसा कार्य सिद्ध होता है ? आप लोग मेरा उत्तर संग्राम में ही सुनिये । यह सुन नयों के जानने वाले विभीषण ने उन क्रुद्ध विद्याधरों को रोकते हुए कहा कि यह दुर्वचन कहना ठीक नहीं है । विभीषण ने अणुमान से भी कहा कि हे भद्र ! तुम अपने घर जाओ । अकार्य करने के कारण जिसे आर्य मनुष्यों ने छोड दिया है ऐसे इस रावण को कोई नहीं रोक सकता-यह किसी की बात मानने वाला नहीं है । ठीक ही है आगे आने वाले शुभ-अशुभ कर्म के उदय को भला कौन रोक सकता है ? इस प्रकार विभीषण ने कहा तब अणुमान, जिसने आहार पानी छोड रक्खा था ऐसी सीता के पास गया ॥428-435॥ मन्दोदरी के उपरोध से सीता ने कुछ थोडा-सा खाया था उसे देख अणुमान शीघ्र ही समुद्र को पार कर रामचन्द्र के समीप आ गया ॥436॥ और नमस्कार कर कहने लगा कि बहुत कहने से क्या लाभ है ? सबका साराशं यह है कि रावण सीता को नहीं छोडेगा इसलिए इसके अनुरूप कार्य करना चाहिए, बिलम्ब मत कीजिए, क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य निश्चित किये हुए कार्य में शीघ्रता करने की प्रशंसा करते हैं-जो कार्य निश्चित किया जा चुका है उसे शीघ्र ही कर डालना चाहिए । अणुमान की बात सुनकर इक्ष्वाकु वंश के सिंह रामचन्द्र अपनी चतुरंग सेना के साथ चित्रकूट नामक वन में जा पहुँचे । वे यद्यपि शीघ्र ही लंका की ओर प्रयाण करना चाहते थे तथापि समय को बलवान मानकर उन्होंने वर्षा ऋतु वहीं बिताई ॥437-439॥ जब रामचन्द्र चित्रकूट वन में निवास कर रहे थे तब राजा बालि का दूत उनके पास आया और प्रणाम करने के अनन्तर भेंट समर्पित करता हुआ बडी सावधानी से यह कहने लगा ॥440॥ कि हे देव ! मेरे स्वामी राजा बालि बहुत ही बलवान् हैं । वे आपसे इस प्रकार निवेदन कर रहे हैं-कि यदि पूज्यपाद महाराज रामचन्द्र मुझे दूत बनाना चाहते हैं तो सुग्रीव और अणुमान् को दूत न बनावें क्योंकि वे दोनों बहुत थोडा कार्य करते हैं । यदि आप मेरा पराक्रम देखना चाहते हैं तो आप यहीं ठहरिये, मैं अकेला ही लंका जाकर और रावण का मानभंग कर आर्या जानकी को आज ही लिये आता हूँ ॥441-443॥ इस प्रकार बालि के दूत के वचन सुनकर रामचन्द्र ने साम और भेद को जानने वाले मन्त्रियों से पूछा कि किष्किन्धा नगर के राजा बाली को क्या उत्तर दिया जावे ॥444॥ इस प्रकार मन्त्रि समूह से पूछा । तब सर्वप्रिय एवं सर्व प्रशंसित अंगद ने कहा कि शत्रु, मित्र और उदासीन के भेद से राजा तीन प्रकार के होते हैं । इन तीन प्रकार के राजाओं में रावण हमारा शत्रु है, और बालि मित्र का शत्रु है । यदि हम लोग उसके कहे अनुसार कार्य नहीं करेंगे तो वह शत्रु के साथ सन्धि कर लेगा-उसके साथ मिल जावेगा ॥445-446॥ और ऐसा होने से शत्रु की शक्ति बढ जायगी जिससे उसका उच्छेद करना दु:ख साध्य हो जायगा । यदि बालि की बात मानते हैं तो यह कार्य आपके लिए कठिन है ॥447॥ इसलिए सबसे पहले किष्किन्धा नगरी के स्वामी के नाश करने का काम जबर्दस्ती आपके लिए आ पडा है इसके बाद शक्ति और सम्पत्ति बढ जाने से रावण का नाश सुखपूर्वक किया जा सकेगा ॥448॥ इस प्रकार अंगद के वचन स्वीकृत कर रामचन्द्र ने बालि के दूत को बुलाया और कहा कि आपके यहाँ जो महामेघ नाम का श्रेष्ठ हाथी है वह मेरे लिए समर्पित करो तथा मेरे साथ लंका के लिए चलो, पीछे आपके इष्ट कार्य की चर्चा की जायगी । ऐसा कह कर उन्होंने बालि के दूत को विदा किया और उसके साथ ही अपना दूत भी भेज दिया ॥449-450॥ वे दोनों ही दूत जाकर सुग्रीव के बडे भाई बालि के पास पहुंचे और उन्होंने रामचन्द्र का संदेश सुनाकर उसे बहुत ही कुपित कर दिया । तब मद से उद्धत हुआ बालि कहने लगा कि इस तरह मुझपर आक्रमण करनेवाले रामचन्द्र क्या स्त्री को अपहरण करने वाले रावण को नष्ट कर तथा सीता को वापिस लाकर दिशाओं में अपना यश फैला लेंगे ? ॥451-452॥ स्त्री का अपहरण करने वाले रावण के लिए तो इन्होंने शान्ति के वचन कहला भेजे हैं और जो मिलकर इनके साथ रहना चाहता है ऐसे मेरे लिए ये कठोर शब्द कहला रहे हैं । इनकी बुद्धि और शूर-वीरता तो देखो कैसी है ? ॥453॥ गर्व से भरी हुई बालि की इस नीच भाषा को सुनकर रामचन्द्र के दूत ने कहा कि रावण चोरी से परस्त्री हर कर ले गया है सो उस उन्मार्गगामी को दोनों अपराधों के अनुरूप जो दण्ड दिया जावेगा उसे आप शीघ्र ही देखेंगे । अथवा इससे आपको क्या प्रयोजन ? यदि आपको महामेघ हाथी देना इष्ट है तो इस दुष्ट अहंकार को छोड़कर वह हाथी दे दो और स्वामी की सेवा करो । ऐसा करने से आप अवश्य ही शीघ्र वृद्धि को प्राप्त होंगे । इस प्रकार कह कर दूत ने बालि को क्रोध से प्रज्वलित कर दिया ॥454-456॥ तब यमराज का अनुकरण करने वाला बालि उत्तर में निम्न प्रकार कठोर वचन कहने लगा । उसने कहा कि 'यदि रामचन्द्र को जीने की आशा है तो हाथी की आशा छोड़ दें, यदि जीने की आशा नहीं है तो युद्ध में मेरे सामने आवें और उन्हें हाथी पर बैठने की हो इच्छा है तो मेरे चरणों की सेवा को प्राप्त हों फिर मेरे साथ इस हाथी पर बैठ कर गमन करें ।' इस प्रकार बालि का विनाश करने वाली उसकी अशुभ वाणी को सुनकर वह दूत उसी समय बालि को नष्ट करने वाले बलवान् रामचन्द्र के पास वापिस आ गया और कहने लगा कि बालि प्रतिकूलता से आपका कृत्रिम शत्रु प्रकट हुआ है ॥457-459॥ उस विरोधी के रहते हुए आपका मार्ग चोरों के मार्ग के समान दुर्गम है अर्थात् जब तक आप उसे नष्ट नहीं कर देते हैं तब तक आपका लंका का मार्ग सुगम नहीं है। इस प्रकार जब दूत कह चुका तब रामचन्द्र ने लक्ष्मण को नायक बनाकर सुग्रीव आदि की सेना खदिर-वन में भेजी । जिसमें शास्त्रों के समूह देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी विद्याधरों की सेना ने सामने आई हुई बालि की सेना को उस तरह काट डाला जिस तरह कि वज्र वन को काट डालता है-नष्ट कर देता है । जब सेना नष्ट हो चुकी तब बालि अपनी सम्पूर्ण शक्ति अथवा समस्त सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया ॥460-462॥ काल के समान लीला करने वाली दोनों सेनाओं में फिर से भयंकर युद्ध होने लगा और काल उस युद्ध में प्रलय के समान प्राय: तृप्त हो गया ॥463॥ अन्त में लक्ष्मण ने कान तक खींच कर छोड़े हुए तीक्ष्ण सफेद वाण से ताल वृक्ष के फल के समान बालि का शिर काट डाला ॥464॥ उसी समय सुग्रीव और अणुमान् को अपना स्थान मिल गया सो ठीक ही है क्योंकि अच्छी तरह की हुई प्रभु की सेवा प्राय: शीघ्र ही फल देती है ॥465॥ तदनन्तर सब लोग राजा रामचन्द्र के पास गये । सुग्रीव, रामचन्द्र को लक्ष्मण और सब सेना के साथ-साथ बडी भक्ति से अपने नगर में ले आया और किष्किन्धा नगर के मनोहर उद्यान में ठहरा दिया । उस समय शरद्-ऋतु आ गई थी और रामचन्द्र के साथ राजाओं की चौदह अक्षौहिणी प्रमाण सेना इकट्ठी हो गई थी ॥466-467॥ जहाँ से शिवघोष मुनि ने मोक्ष प्राप्त किया था ऐसे जगत्पाद नामक पर्वत पर जाकर लक्ष्मण ने सात दिन तक निराहार रहकर पूजा की और प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध की । विद्या सिद्ध करते समय एक सौ आठ योद्धाओं ने उसकी रक्षा की थी । इसी प्रकार सुग्रीव ने भी उस समय उत्तम व्रत और उपवास धारण कर सम्मेदाचल पर सिद्धशिला के ऊपर महाविद्याओं की पूजा की । इनके सिवाय अन्य विद्याधरों ने भी अपनी-अपनी विद्याओं की पूजा की । इस प्रकार जिसमें ध्वजाएँ फहरा रही हैं, राम, लक्ष्मण, सुग्रीव और अणुमान जिसमें प्रधान हैं, जो बडे-बडे हाथी रूपी मगरमच्छों से व्याप्त है, और घोडे ही जिसमें बडी-बडी तरंगे हैं ऐसे प्रलयकाल के समुद्र के समान वह भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजाओं की सेना लंका के लिए रवाना हुई ॥468-472॥ अथानन्तर-जब अणुमान लंका से लौट आया था तब कुम्भकर्ण आदि भाइयों ने रावण से कहा था कि 'हे प्रभो ! आप हमारे उच्च वंश में सूर्य के समान देदीप्यमान हैं और आपका पौरुष भी सर्वत्र प्रसिद्ध है अत: आपको यह कार्य करना उचित नहीं है । यह स्त्री-रत्न उच्छिष्ट है इसलिए हम लोगों के अनुरोध से आप इसे छोड नहीं सकते? ' इस प्रकार सबने कहा परन्तु चूँकि रावण सीता में आसक्त था इसलिए उसे छोड नहीं सका । वह फिर कहने लगा कि रामचन्द्र तृण-मनुष्य हैं-तृण के समान अत्यन्त तुच्छ हैं, 'उनकी सेना सीता को लेने के लिए यहाँ हमारे ऊपर आ रही है' ऐसे शब्द आज सुनाई दे रहे हैं इसलिए सीता को कैसे छोडा जा सकता है, यह बात तो कुल को कलंक लगाने वाली है ॥473-476॥ रावण का छोटा भाई विभीषण उसकी यह बात सह नहीं सका अत: कहने लगा कि आप रामचन्द्र को तृण-मनुष्य मानते हैं पर सूर्यवंशीय रामचन्द्र की क्या शूर-वीरता है इसका आपको पता नहीं है । आप काम से अन्धे हो रहे हैं इसलिए भाइयों के हितकारी वचन नहीं सुन रहे हैं । आप परस्त्री के समर्पण करने को दोष बतला रहे हैं इसलिए मालूम होता है कि आप दोषों के जानकारों में श्रेष्ठ हैं ? ( व्यंगय ) ॥477-478॥ परस्त्री करना शूर-वीरता है, संसार में इस बात का प्रारम्भ आप से ही हो रहा है । आप जो अपनी दुर्बुद्धि से मिथ्या उत्तर दे रहे हैं उससे क्या दोनों लोकों में भय उत्पन्न करने वाले एवं दुर्धर उन्मार्ग की प्रवृत्ति नहीं होगी और सुमार्ग - का विनाश नहीं होगा ? जो विषय निषिद्ध नहीं है उनका भी त्याग करने की आप की अवस्था है फिर जरा विचार तो कीजिये इस अवस्था में निषिद्ध विषय की इच्छा करना क्या आपके योग्य है ? आप यह निश्चित समझिये कि यह विद्याधरों की लक्ष्मी आपके गुणों की प्रिया है । यदि आप सीता को वापिस नही करेंगे तो निर्गुण समझ कर यह आपको आज ही छोड देगी । पर-स्त्री की अभिलाषा करने रूप इस अकार्य से आप अपने-आप को अकार्य करने वालों में अग्रणी-मुखिया क्यों बनाते हैं ? इस समय आप इस दुष्ट प्रवृत्ति से पाप का संचय कर पुण्य के प्रतिकूल हो रहे है, पुण्य के प्रतिकूल रहने से दैव अनुकूल नहीं रहता और दैव के बिना लक्ष्मी कहाँ प्राप्त हो सकती है ? पर-स्त्री का हरण करना यह पाप सब पापों से बडा पाप है ॥479-484॥ अधिक विस्तार के साथ कहने में क्या लाभ है ? यह पाप आप को सातवें नरक ले जावेगा । अथवा इसे जाने दो, यह पाप पर-भव में दु:ख देगा परन्तु शील की भाण्डारभूत स्त्रियाँ अपने प्रति क्रोध करने वालों के कुल को शाप के द्वारा इसी भव में आमूल नष्ट करने के लिए समर्थ रहती हैं । आपने व्रत लिया था कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे नहीं चाहूंगा । आपका यह एक व्रत ही आपको संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिए जहाज के समान है इसे क्यों नष्ट कर रहे हो ? सज्जन पुरुषों को प्राण देकर यश खरीदना चाहिए परन्तु आप ऐसे अज्ञानी हैं कि प्राण और यश देकर दूसरे कल्प काल तक टिकने वाला तथा अपयश खरीद रहे हैं अत: आपके लिए धिक्कार है । यह सीता किसकी पुत्री है यह क्या आप नहीं जानते ? ठीक ही है जिनका चित्त काम से मोहित रहता है उनके लिए जानी हुई बात भी नहीं जानी के समान होती है । क्या आप यह नहीं जानते कि ये पंचेन्द्रियों के विषय जबतक प्राप्त नहीं हो जाते तब तक इनमें उत्सुकता रहती है, प्राप्त हो जाने पर सन्तोष होने लगता है, और जब इनका उपभोग कर चुकते हैं तब नीरसता आ जाती है । इसलिए अयोग्य, अनाथ, विनाश का कारण, पाप और दु:ख का संचय करने वाली परस्त्री में व्यर्थ का प्रेम मत कीजिए । भविष्यत् की बात जाननेवाले निमित्तज्ञानियों ने कैसा आदेश दिया था-क्या कहा था इसका भी आप को स्मरण करना चाहिए ॥485-491॥ तथा चक्र उत्पन्न के फल का भी विचार कीजिए । पुराणों के जानने वाले राम को आठवाँ बलभद्र और लक्ष्मण को नौवाँ नारायण कहते हैं । हे विद्वन ! आप इसका भी विचार कीजिए । सीता को नहीं सौंपने में जैसा दोष है वैसा दोष उसके सौंपने में नहीं है ॥492-493॥ इसलिए इन सब बातों का निश्चय कर सीता रामचन्द्र के लिए सौंप दीजिये । इस प्रकार विभीषण ने अच्छी तरह विचार कर यश को चन्द्रमा के समान उज्जवल करने के लिए लक्ष्मीरूपी लता को बढाने वाले तथा धर्म और सुख देने वाले उत्कृष्ट वचन कहे । परन्तु इस प्रकार के उत्तम वचन कहने वाले विभीषण के लिए वह भयंकर रावण कुपित होकर कहने लगा कि 'तूने दूत के साथ मिलकर पहले सभा के बीच मेरा असहनीय तिरस्कार किया था और इस समय भी तू दुर्वचन बोल रहा है । तू मेरा भाई होने से मारने योग्य नहीं है इसलिए जा मेरे देश से निकल जा' । इस प्रकार रावण ने बहुत ही कठोर शब्द कहे ॥494-497॥ रावण की बात सुनकर विभीषण ने विचार किया कि इस दुराचारी का नाश अवश्य होगा, इसके साथ मेरा भी नाश होगा और यह अपयश करने वाला नाश मुझे दूषित करेगा ॥498॥ इसने तिरस्कार कर मुझे देश से निकाल दिया है यह अच्छा ही किया है क्योंकि मुझे यह इष्ट ही है । 'बादल जंगल में ही बरसे' यह कहावत आज मेरे पुण्य से सम्पन्न हुई है । अब मैं रामचन्द्र के चरण-कमलों के समीप ही जाता हूँ । इस प्रकार चित्त में विभीषण ने विचार किया और ऐसा ही निश्चय कर लिया ॥499-500॥ वह शीघ्र ही सौजन्य की तरह समुद्र के जल का उल्लंघन कर गया और जिस प्रकार किसी महानदी का प्रवाह समुद्र के पास पहुँचता है उसी प्रकार वह रामचन्द्र के समीप जा पहुँचा ॥501॥ रामचन्द्र ने तरंगों की लीला धारण करने वाले लक्ष्मण आदि अनेक बडे-बडे योद्धाओं को विभीषण की अगवानी करने के लिए भेजा और वे सब परीक्षा कर तथा एकीभाव को प्राप्त कर उसे ले आये । विभीषण भी रामचन्द्र के प्रभाव को समझता था अत: उनके साथ एकीभाव को प्राप्त हो गया-हिलमिल गया । तदनन्तर कुछ ही पडाव चलकर रामचन्द्र की सेना समुद्र के तट पर आ पहुंची और चारों ओर ठहर गई । उस समय अणुमान् ने परस्पर रामचन्द्र से इस प्रकार कहा कि हे देव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अपनी शूर-वीरता प्रकट करने की इच्छा से लंका में जाऊँ और वन का नाश कर आपके शत्रु का मान-भंग करूँ ॥502-505॥ साथ ही लंका को जलाकर शत्रु के शरीर में दाह उत्पन्न करूँ । ऐसा करने पर वह अहंकारी रावण अभिमानी होने से यहाँ आवेगा और उस दशा में स्थान-भ्रष्ट होने के कारण वह सुख से नष्ट किया जा सकेगा । यदि यहाँ नहीं भी आवेगा तो उसके प्रताप की अति तो अवश्य होगी । अणुमान की यह विज्ञप्ति सुनकर राजा रामचन्द्र ने वैसा करने की अनुमति दे दी और शूर-वीरता से सुशोभित अनेक विद्याधरों को उसका सहायक बना दिया । रामचन्द्र की आज्ञा पाकर अणुमान् बहुत सन्तुष्ट हुआ । उसने वानर-विद्या के द्वारा शीघ्र ही अनेक भयंकर वानरों की सेना बनाई और उसे साथ ले शीघ्र ही समुद्र का उल्लंघन किया । वहाँ वह अपने पराक्रम से वन-पालकों को पकड कर उनका निग्रह करने लगा और क्रोध से उसने रावण का समस्त वन नष्ट कर डाला । तब वन के रक्षक लोग अपनी भुजाएँ ऊँची कर जोर-जोर से चिल्लाते हुए नगरी में गये और जो कभी नहीं सुने थे उन भयंकर शब्दों को सुनाने लगे । उस समय राक्षस-विद्या के प्रभाव से फहराती हुई ध्वजाओं के समूह से उपलक्षित नगर के रक्षक लोग अणुमान से युद्ध करने के लिए उसके सामने आये । यह देख अणुमान् ने भी वानर-सेना के सेनापतियों को आज्ञा दी और तदनुसार वे सेनापति लोग वन के वृक्ष उखाडकर उन्हीं से प्रहार करते हुए उन्हें मारने लगे । तदनन्तर बलवान् अणुमान ने नगर के बाहर स्थित राक्षसों की रूखी सेना को अपनी देदीप्यमान महाज्वाल नाम की विद्या से वहाँ का वहीं भस्म कर दिया । इस प्रकार वानर सेना का सेनापति अणुमान, रावण के दुर्वार प्रताप रूपी ऊँचे वृक्ष को उखाड कर रामचन्द्र के समीप वापिस आ गया । इधर रामचन्द्र तबतक सेना को तैयार कर युद्ध के सन्मुख खडे हो गये ॥506-515॥ उस समय उन्होंने विभीषण से पूछा कि रावण किस कारण से नहीं आया है ? तदनन्तर विभीषण ने उत्तर दिया कि इस समय रावण लंका में नहीं है । बालि का परलोक गमन और सु्ग्रीव तथा अणुमान के विद्याबल का अभिमान सुनकर उसने अपनी रक्षा के लिए इन्द्रजित् नामक पुत्र को नियुक्त किया है तथा आठ दिन का उपवास लेकर और इन्द्रियों को अच्छी तरह वश कर आदित्यपाद नाम के पर्वत पर वि़द्याएँ सिद्ध करता हुआ बैठा है । राक्षसादि महाविद्यालयों के सिद्ध हो जाने पर वह बहुत ही शक्ति सम्पन्न हो जायेगा । इसलिए इस समय हम लोगों का यही काम है कि उसकी विद्या-सिद्धि में विध्न किया जाय और लंका को घेरकर ठहरा जाय, इस प्रकार विभीषण ने रामचन्द्र से कहा । तदनन्तर सुग्रीव और अणुमान ने अपने द्वारा सिद्ध की हुई गरूडवाहनी, सिंहवाहनी, बन्धमोचनी और हननावरणी नाम की चार विद्याएँ अलग-अलग रामचन्द्र और लक्ष्मण के लिए दीं । इसके बाद दोनों भाइयों ने प्रज्ञप्ति नाम की विद्या से बनाये हुए अनेक विमानों के द्वारा अपनी उस बडी भारी सेना को लंकानगरी के बाहर मैदान में ले जाकर खडी कर दी । उसी समय कितने ही विद्याधर कुमार रामचन्द्र की आज्ञा से आदित्यपाद नामक पर्वत पर जाकर उपद्रव करने लगे । तब रावण के बडे पुत्र इन्द्रजित् ने क्रोध में आकर विद्याधर राजाओं तथा पहले सिद्ध किये हुए समस्त देवताओं को यह आदेश देकर भेजा कि तुम सब लोग मिलकर इनसे युद्ध करो । इन्द्रजित् की बात सुनकर विद्या-देवताओं ने कहा कि हम लोगों ने आपके पुण्योदय से इतने समय तक आपका वाछिंत कार्य किया परन्तु अब आपका पुण्य क्षीण हो गया है इसलिए आपके कहे अनुसार कार्य करने में हम समर्थ नहीं हैं । जब उक्त विद्या-देवताओं ने रावण से इस प्रकार स्पष्ट कह दिया तब रावण उनसे कहने लगा कि आप लोग जा सकती हैं, आप नीच देवता हैं, आपसे मेरा कौन-सा कार्य सिद्ध होने वाला है ? मैं अपने पुरुषार्थ से ही इन मनुष्य रूपी हरिणों को विद्याधरों के साथ-साथ अभी मार डालता हूं ॥516-527॥ सहायकों के द्वारा सिद्ध किया हुआ कार्य अभिमानी मनुष्यो के लिए लज्जा उत्पन्न करता है । इस प्रकार क्रुद्ध होकर रावण उसी समय इन्द्रजित् के साथ नगर में आ गया । देखो, जिसका पुण्य नष्ट हो चुकता है ऐसे दुश्चरित्र मनुष्य का भूत और भावी सब नष्ट हो जाता है । नगर में आने पर उसने परिवार के लोगों से ज्ञात किया कि शत्रुओं ने लंका को घेर लिया है ॥528-529॥ उस समय रावण कहने लगा कि समय की विपरीतता तो देखो, हरिणों ने सिंह को घेर लिया है । अथवा जिनकी मृत्यु निकट आ जाती है उनके स्वभाव में विभ्रम हो जाता है ॥530॥ इस प्रकार किसी ऊँचे हाथी पर आक्रमण करने वाले सिंह के समान गरजते हुए रावण ने हरिण की ध्वजा धारण करने वाले अपनी रविकीर्ति नामक सेनापति को आदेश दिया ॥531॥ कि युद्ध के लिए शत्रु-पक्ष का क्षय करने वाली भेरी बजा दो । उसने उसी प्रकार रणभेरी बजा दी और कल्पकाल के अन्त में यमराज के दूत के समान अपनी समस्त सेना का अलग-अलग विभाग कर रावण लंका से बाहर निकला ॥532-533॥ उस समय वह सुकुम्भ, निकुम्भ, कुम्भकर्ण तथा अन्य राजपुत्रों से एवं महाबलवान् महामुख, अतिकाय, दुर्मुख, खरदूषण और धूम आदि प्रमुख विद्याधरों से घिरा हुआ था अत: दुष्ट ग्रहों से घिरे हुए ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान जान पडता था और तीनों जगत् को ग्रसने के लिए सतृष्ण यमराज की लीला को विडम्बित कर रहा था । वह कह रहा था कि राम और लक्ष्मण मेरे सामने खडा होने के लिए समर्थ नहीं हैं । अरे, बहुत से खरगोश और श्रृगाल इकट्ठे हो जावें तो क्या वे सिंह के सामने खडे रहे सकते हैं ? आज उनके जीते जी यह संसार रावण से रहित भले ही हो जाय परन्तु मैं उनके साथ इस पृथिवी का पालन कदापि नहीं करूँगा । इस प्रकार अतर्कित रूप से उपस्थित अपने अमंगल को वह रावण स्वयं कह रहा था ॥534-536॥ उस समय वह कालमेघ नामक महा मदोन्मत्त हाथी के ऊपर सवार था, प्रतिकूल (सामने की ओर से आने वाली) वायु से ताडित होकर फहराती हुई राक्षस-ध्वजाओं से सुशोभित था, उसके आगे-आगे चक्र-रत्न देदीप्यमान हो रहा था, उसके छत्र से सूर्य आच्छादित हो गया था-सूर्य का आताप रूक गया था और उसके अपने अनेक प्रकार के बडे-बडे नगाडों के शब्द से दिग्गजों के कान बहिरे कर दिये थे । इस प्रकार उस ओर मद से उद्वत हुआ रावण युद्ध के लिए तैयार होकर खडा हो गया और इस ओर रामचन्द्र उसके आने की बात सुनकर क्रोध से झुमने लगे ॥540-542॥ वह उस समय अत्यन्त दुर्निवार थे और क्रोध रूपी अग्नि के द्वारा मानो शत्रु को जला रहे थे । उनके नेत्रों के समीप से जो जलती हुई दृष्टि निकल रही थी वह वाणों के समान जान पडती थी और उसे वे जलते हुए अंगारों के समान युद्ध करने के लिए दिशाओं में बडी शीघ्रता से फेंक रहे थे । महाविद्याओं के समूह से जो उन्हें सेना का पाँचवाँ अंग प्राप्त हुआ था वे उससे सहित थे । उनकी ताल की ध्वजा में वलयाकार साँप को पकडे हुए गरूड का चिह्न बना है ऐसा लक्ष्मण भी विजय पर्वत नामक हाथी पर सवार होकर निकला । इन दोनों ने पहले तो समस्त विघ्र नष्ट करने वाले श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया और फिर दोनों ही सुग्रीव तथा अणुमान आदि विद्याधरों से वेष्टित हो सूर्य-चन्द्रमा के समान शत्रु रूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए चल पडे ॥543-547॥ वे दोनों भाई नयों के समान सुशोभित थे और दृप्त तथा दुर्बुद्धियों का घात करने वाले थे । रावण के सामने युद्ध करने के लिए उन्होंने अपनी सेना का विभाग कर रक्खा था, इस प्रकार शत्रुओं को भयभीत करते हुए वे युद्ध-भूमि में जाकर ठहर गये । वहाँ इनके नगाडा के बडे भारी शब्द शत्रुओं के नगाडों के शब्दों को तिरस्कृत कर रहे थे सो ऐसा जान पडता था कि मानो वे शब्द ऊँचे उठते हुए दण्डों के कठोर प्रहार से भयभीत हो गुहा अथवा गढे आदि देशों में सब ओर से प्रवेश कर रहे हों-छिप रहे हों ॥548-550॥ हाथियों की चिंघाडें और घोडों के हींसने के शब्द विशेष रूप से योद्धाओं की शूर-वीरता रूप सम्पत्ति को अच्छी तरह बढा रहे थे ॥551॥ उस समय जो आरम्भ प्रकट हो रहे थे वे शत्रुओं को भयभीत करते हुए आकाश-मार्ग को रोक रहे थे और स्त्रियों के समान दुर्जय थे ॥552॥ धनुष धारण करने वाले लोग अपने-अपने धनुष लेकर निकले थे । उन धनुषों का मध्यम भाग हाथ के अग्रभाग के बराबर था, वे नये बादलों के समूह के समान जान पडते थे, बाण सहित थे, बुद्धिमान् पुरुषों के मन के समान गुण-डोरी (पक्ष में दया दाक्षिण्य आदि गुणों) से नम्र थे, कठोर वचनों के समान दूर से ही ह्णदय को भेदन करनेवाले थे, उनकी प्रत्यंचा का शब्द दिशाओं में फैल रहा था अत: ऐसे जान पडते थे मानो क्रोध-वश हुंकार ही कर रहे हों खींचकर कानों के समीप तक पहुँचे हुए थे इसलिए ऐसे जान पडते थे मानो कुछ मन्त्र ही कर रहे हों, और सज्जनों की संगति के समान वे कठिन कार्य करते हुए भी कभी भग्न नहीं होते थे ऐसे धनुषों को धारण कर धनुर्धारी लोग बाहर निकले । कुछ धीर-वीर योद्धा तलवार और कवच धारण कर जोर-जोर से चिल्ला रहे थे जिससे वे ऐसे जान पडते थे मानो बिजली सहित गरजते हुए काले मेघों को ही जीतना चाहते हों । इनके सिवाय नाना प्रकार के हथियारों से सहित नाना प्रकार युद्ध करने में चतुर अन्य अनेक योद्धा भी चारों ओर से शत्रुओं की सेना के साथ युद्ध करने के लिए आ पहुँचे । उनके साथ जो घोडे थे, वे बडे वेग से चल रहे थे और खुरों के आघात से मानो पृथिवी को बिदार रहे थे ॥553-558॥ वे घोडे चमरों से सहित थे तथा महामणियों से बनी हुई पीठ (काठी) से युक्त थे अत: राजा के समान जान पडते थे । अथवा किसी इष्ट-विश्वासपात्र सेवक के समान मरण-पर्यन्त अपने स्वामी का हित करने वाले थे ॥559॥ उनके मुख में घास के ग्रास लग रहे थे जिससे भोजन करते हुए से जान पडते थे और छोटी-छोटी घंटियों के मनोहर शब्दों से ऐसे मालूम हो रहे थे मानो निरन्तर अपनी जीत की घोषणा ही कर रहे हों ॥560॥ वे घोडे कवच पहने हुए थे इसलिए ऐसे जान पडते थे मानो पंखों से युक्त होकर आकाश के मध्यभाग को ही लाँघना चाहते हों । उनके मुखों से लार रूपी जल का फेन निकल रहा था जिससे ऐसे जान पडते थे मानो अपने पैररूपी नटों के नृत्य करने के लिए फूलों से पृथिवी की पूजा ही कर रहे हों । वे घोडे यूनान, कश्मीर और वाल्हीक आदि देशों में उत्पन्न हुए थे, उन पर ऊँची उठाई हुई देदीप्यमान तलवारों की किरणों से सुशोभित घुडसवार बैठे हुए थे, वे महासेना रूपी समुद्र में उत्पन्न हुई तरंगों के समान इधर-उधर चल रहे थे, और जोर-जोर से हींसने के शब्द रूपी आभूषणों से शत्रुओं को भयभीत करने के लिए ही मानो निकले हुए थे । इनके सिवाय वायु जिनके अनुकूल चल रही है जिसमें शस्त्र रूपी वर्तन भरे हुए हैं, जिनपर ऊँचे दण्ड वाली पताकाएँ फहरा रही हैं, और संग्राम रूपी समुद्र के जहाज के समान जान पड़ते हैं ऐसे बडे-बडे रथ भी वहाँ चल रहे थे । चक्रवर्ती रावण यदि एक चक्र से पराक्रमी है तो हमारे पास ऐसे दो चक्र विद्यमान हैं ऐसा समझ कर समस्त दिशाओं में आक्रमण करने वाले रथ वहाँ बडी तेजी से आ रहे थे । जिनके भीतर उनके स्वामी बैठे हुए हैं, जो अनेक शस्त्रों से परिपूर्ण हैं और जिनमें शीघ्रता से चलने वाले वेगगामी घोडे जुते हुए हैं ऐसे तैयार खडे हुए हमारे रथ युद्ध के लिए बद्धकक्ष क्यों न हों ? पैदल चलने वाले सिपाही, घोडे और हाथी भले ही आगे दौड़ते चले जावें पर इन व्यग्र प्राणियों से क्या होने वाला है ? विजय तो हम लोगों पर ही निर्भर है । यह सोचकर ही मानो बोझ से भरे रथ धीरे-धीरे चल रहे थे । सन्मार्ग पर चलने वाले, शास्त्रों के धारक एक चक्रवाले चक्रवर्तियों ने जब समस्त दिशाओं पर आक्रमण किया था तब दो चक्रवाले रथों ने समस्त दिशाओं पर आक्रमण किया इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसी प्रकार पर्वत के समान जिनका अग्रभाग कुछ ऊँचा उठा हुआ था, पीछे की ओर फैली हुई पूँछ से जिनकी पूँछ का उपान्त भाग कुछ खुल रहा था, जो ऊपर की ओर उठते हुए सूँड के लाल लाल अग्रभाग से सुशोभित थे और इसीलिए जो कमलों के सरोवर के समान जान पडते थे, जिनकी वृत्ति पर प्रणोय थी-दूसरों के आधीन थी अत: जो बच्चों के समान जान पडते थे, जो अपने गण्डस्थलों पर स्थित भ्रमरों को मानो क्रोध से ही कान रूपी पंखों की फटकार से उडा रहे थे, उडती हुई सफेद ध्वजाओं से जो बगलाओं की पंक्तियों सहित काले मेघों के समान जान पडते थे, जिनमें कितने ही हाथी दूसरे हाथियों के मद की सुगन्ध सूंघकर आकाश में खिले हुए कमल के समान जिनका अग्रभाग विकसित हो रहा है ऐसी सूँडों से युद्ध करने के लिए तैयार हो रहे थे, जो पैनी नोकवाले अंकुशों की चोट से अपांग प्रदेश में घायल होने के कारण युद्ध-क्रिया से रोके जा रहे थे, जो हथिनियों के समूह के समीप बार-बार अपना मस्तक हिला रहे थे, जिनका सब क्रोध शान्त हो गया था, जिन पर प्रधान पुरुष बैठे हुए थे और जो उन्नत शरीर होने के कारण समस्त संसार पर आक्रमण करते हुए से जान पड़ते थे ऐसे चलते फिरते पर्वतों के समान ऊँचे-ऊँचे हाथी सब ओर से निकल कर चल रहे थे ॥561-575॥ उस समय अनुकूल पवन से प्रेरित ध्वजाएँ शत्रुओं की ओर ऐसी जा रही थीं मानो दण्डों को छोड़कर पहले ही युद्ध करने के लिए उद्यत हो रही हों ॥576॥ अथवा सूर्य की किरणों को ढंकने वाली वे ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो निर्मल आकाश में जो मेघरूपी मैल छाया हुआ था उसे ही दूर कर रही हों ॥577॥ अथवा वे ध्वजाएँ दण्ड धारण कर रही थीं अर्थात् दण्डों में लगी हुई थीं इसलिए वृद्ध पुरुषों का अनुकरण कर रही थीं अथवा समय पर मुक्त होती थीं-खोलकर फहराई जाती थीं इसलिए मुनिमार्ग का अनुसरण करती थीं ॥578॥ उस समय धूलि उड़कर चारों ओर फैल गई थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो सेना के बोझ से खिन्न हुई पृथिवी साँस ही ले रही हो । अथवा पूर्ण ज्ञान को नाश करने का कारण मिथ्याज्ञान ही फैल रहा हो ॥579॥ अथवा युद्ध में विघ्न करने वाला कोई बड़ा भारी भय ही आकर उपस्थित हुआ था । जिसने पूर्वभव में पुण्य संचित नहीं किया ऐसा मनुष्य जिस प्रकार सबके नेत्रों के लिए अप्रिय लगता है इसी प्रकार वह धूलि भी सबके नेत्रों के लिए अप्रिय लग रही थी ॥580॥ इस प्रकार वेग से भरी धूलि आकाश को उल्लंघन कर रही थी अर्थात् समस्त आकाश में फैल रही थी । उस धुलि के भीतर समस्त सेना ऐसी हो गई मानो मूर्च्छित हो गई हो अथवा गर्भ में स्थित हो, अथवा दीवाल पर लिखे हुए चित्र के समान निश्चेष्ट हो गई हो । उसका समस्त कलकल शान्त हो गया । जिस प्रकार किसी पराजित राजा के चित्त का क्षोभ धीरे-धीरे शान्त हो जाता है उसी प्रकार जब वह धूलि का बहुत भारी क्षोभ धीरे-धीरे शान्त हो गया और दृष्टि का कुछ-कुछ संचार होने लगा तब सेनापतियों के द्वारा जिन्हें प्रेरणा दी गई है ऐसे क्रोध से भरे योद्धा गमन करने से शुद्ध हुए नये बादलों के समान धनुष धारण करते हुए बाणों की वर्षा करने लगे और युद्ध के मैदान में शत्रु-योद्धाओं के ह्णदय राग-रहित करने लगे । सेनापतियों के द्वारा प्रेरित हुए योद्धा बड़े उत्साह से युद्ध कर रहे थे ॥581-585॥ सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों का बल शत्रु से प्रकट नहीं होता किन्तु मित्र से प्रकट होता है । मैंने अपना जीवन देने के लिए ही राजा से आजीविका पाई है-वेतन ग्रहण किया है । अब उसका समय आ गया है यह विचार कर कोई योद्धा रण में वह ऋण चुका रहा था । युद्ध करने में एक तो सेवक का कर्तव्य पूरा होता है, दूसरे यश की प्राप्ति होती है और तीसरे शूर-वीरों की गति प्राप्त होती है ये तीन फल मिलते हैं ॥586-587॥ तथा हम लोगों के यही तीन पुरुषार्थ हैं यही सोचकर कोई योद्धा किसी दूसरे योद्धा से परस्पर लड़ रहा था । मैं अपनी सेना में किसी का मरण नहीं देखूँगा क्योंकि वह मेरा ही पराभव होगा' यह मानता हुआ कोई एक योद्धा स्वयं सबसे पहले युद्ध कर मर गया था । इस प्रकार तीव्र-क्रोध करते हुए सब योद्धा, दायें-बायें दोनों हाथों से छोड़ने योग्य, आधे छोड़ने योग्य, और न छोड़ने योग्य सब तरह के शस्त्रों से बिना किसी आकुलता के निरन्तर युद्ध कर रहे थे । दोनों ओर से एक दूसरे के सन्मुख छोड़े जाने वाले बाण, बीच में ही अपना मार्ग बनाकर बड़ी शीघ्रता से एक दूसरे की सेना में जाकर पड़ रहे थे । गुण अर्थात् धनुष की डोरी को छोड़कर दूर जाने वाले, तीक्ष्ण एवं खून पीने वाले बाण सीधे होने पर भी प्राणों का घात कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट पुरुष में रहने वाले गुण, गुण नहीं कहलाते हैं । बाणों का न तो किसी के साथ वैर था और न उन्हें कुछ फल ही मिलता था तो भी वे शत्रुओं का घात कर रहे थे ॥588-591॥ सो ठीक ही है क्योंकि जिनकी वृत्ति दूसरों के द्वारा प्रेरित रहती है ऐसे तीक्ष्ण (पैन-कुटिल) पदार्थों की ऐसी ही अवस्था होती है । जिनका परस्पर बैर बँधा हुआ है ऐसे अनेक विद्याधर पक्षियों के समान अपने प्राणों को तृण के समान मानते हुए बाणों के द्वारा परस्पर विद्याधरों का घात कर रहे थे ॥592-594॥ धनुष धारण करने वाले कितने ही योद्धा लक्ष्य पर लगाई हुई अपनी दृष्टि के साथ ही साथ शीघ्र पड़ने वाले तीक्ष्ण बाणों के द्वारा पर्वतों के समान बहुत से हाथियों को मारकर गिरा रहे थे । किसी एक योद्धा ने अपने मर्मभेदी एक ही बाण से हाथी को मार गिराया था सो ठीक ही है क्योंकि इसीलिए तो विजय की इच्छा करने वाले शूरवीर दूसरे का मर्म जानने वालों को स्वीकार करते हैं-अपने पक्ष में मिलाते हैं । कोई एक योद्धा चोट से मूर्च्छित हो खून से लथ-पथ हो गया था तथा आये हुए गृद्ध पक्षियों के पंखों की वायु से उठकर पुन: अनेक योद्धाओं को मारने लगा था । कोई एक अल्प मूर्च्छित योद्धा, अपने आपको देव-कन्या द्वारा ले जाया जाता हुआ देख उत्सव के साथ हँसता हुआ अकस्मात् उठ खड़ा हुआ । जो बाणों से भरा हुआ है, जिसमें रण के मारू बाजे गूँज रहे हैं, जिसमें निरन्तर शिर रहित धड़ नृत्य कर रहे हैं, और जिसमें बाणों का मण्डप छाया हुआ है ऐसे युद्ध-स्थल में जिसकी सब अँतडि़यों का समूह बँध रहा है और जो बहुत से खून के प्रवाह से पूजित है ऐसे किसी एक योद्धा ने राक्षस-विवाह के द्वारा वीर-लक्ष्मी को अपनी ओर खींचा था। उस युद्ध-स्थल में डाकिनियाँ बड़ी चपलता से नृत्य कर रही थीं और श्रृगाल भयंकर शब्द कर रहे थे । वे श्रृगाल ऊपर की ओर किये हुए मुखों से निकलने वाले अग्नि के तिलगों से बहुत ही भयंकर जान पड़ने थे । जिसकी कैंचियों का समूह ऊपर की ओर उठ रहा है और जो चन्चल कपालों को धारण कर रहा है । ऐसा राक्षसियों का समूह बहुत अधिक पिये हुए खून को उगल रहा था । अत्यन्त तीक्ष्ण बाण नाराच और चक्र आदि शस्त्रों के पड़ने से उस समय सूर्य का मण्डल भी प्रभाहीन तथा कान्ति रहित हो गया था । जिस प्रकार स्याद्वादियों के द्वारा आक्रान्त हुआ मिथ्यावादियों का समूह पराजय को प्राप्त होता है उसी प्रकार उस समय रामचन्द्रजी के सैनिकों के द्वारा आक्रान्त हुई रावण की सेनाएँ पराजय को प्राप्त हो रही थीं । इस प्रकार उस रणांगण में संग्राम प्रवृत्त हुए बहुत समय हो गया ॥595-604॥ उस युद्ध में कितने ही लोग मर गये, कितने ही घायल हो गये, और कितने ही पापी, प्राण छोड़ने में असमर्थ हो कण्ठगत प्राण हो गये ॥605॥ उस समय वे मरणासन्न पुरुष ऐसा सन्देह उत्पन्न कर रहे थे कि यमराज खाते समय तो सबको खा गया परन्तु वह खाये हुए समस्त लोगों को पचाने में समर्थ नहीं हो सका, इसलिए ही मानो उसने उन्हें उगल दिया था ॥606॥ जिनके अंग जर्जर हो रहे हैं ऐसे कितने ही योद्धा उस युद्ध-स्थल में जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हुए थे और वे देखनेवाले यमराज को भी भयानक रस उत्पन्न कर रहे थे-उन्हें देख यमराज भी भयभीत हो रहा था ॥607॥ जिनके पैर कट गये हैं ऐसे कितने ही प्रतापी एवं बलशाली घोड़े अपने शरीर से ही उठने का प्रयत्न कर रहे थे ॥608॥ योद्धाओं के द्वारा छोड़े हुए बाणों और नाराचों से कीलित हाथी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनसे गेरू के निर्झर झर रहे हैं और जिन पर छोटे-छोटे बाँस लगे हुए हैं ऐसे पर्वत ही हों ॥609॥ चक्र आदि अवयवों के टूट जाने से सब ओर बिखरे पड़े रथ ऐसे जान पड़ते थे मानो उस संग्राम रूपी समुद्र के बीच में चलने वाले जहाज ही टूटकर बिखर गये हों ॥610॥ इस प्रकार उन दोनों सेनाओं में बहुत दिन तक युद्ध होता रहा । एक दिन रावण भाग्य के प्रतिकूल होने से अपनी सेना को नष्ट होती देख बहुत दु:खी हुआ । उसी समय उसने माया से सीता का शिर काट कर 'लो, यह तुम्हारी देवी है ग्रहण करो' यह कहते हुए क्रोध से रामचन्द्रजी के सामने फेंक दिया ॥611-612॥ इधर सीता का कटा हुआ शिर देखते ही रामचन्द्रजी के ह्णदय में मोह ने अपना स्थान जमाना शुरू किया और उधर रावण की सेना में युद्ध का उत्सव होना शुरू हुआ । यह देख, विभीषण ने रामचन्द्रजी से सच बात कही कि शीलावती सीता को आपके सिवाय कोई दूसरा छूने के लिए भी समर्थ नहीं है। हे नाथ, यह रावण की माया है अत: आप इस विषय में शोक न कीजिए । विभीषण की इस बात पर विश्वास रख कर रामचन्द्रजी रावण की सेना को शीघ्र ही इस प्रकार नष्ट करने लगे जिस प्रकार कि सिंह हाथियों के समूह को अथवा सूर्य अन्धकार के समूह को नष्ट करता है ॥613-616॥ अब रावण खुला युद्ध छोड़कर माया-युद्ध करने की इच्छा से अपने पुत्रों के साथ आकाश रूपी आँगन में जा पहुँचा ॥617॥ उस माया-युद्ध में रावण को दुरीक्ष्य (जो देखा न जा सके) देख कर, अत्यन्त चतुर राम और लक्ष्मण, सिंहवाहिनी तथा गरूड़वाहिनी विद्याओं के द्वारा अर्थात् इन विद्याओं के द्वारा निर्मित आकाशगामी सिंह और गरूड़ पर आरूढ़ होकर युद्ध करने के लिए उद्यत हुए । सुग्रीव, अणुमान् आदि अपने पक्ष के समस्त विद्याधरों की सेना भी उनके साथ थी। रावण के साथ रामचन्द्र, इन्द्रजीत के साथ लक्ष्मण, कुम्भकर्ण के साथ सुग्रीव, रविकीर्ति के साथ अणुमान्; खर के साथ कमलकेतु, इन्द्रकेतु के साथ अंगद, इन्द्रवर्मा के साथ युद्ध में प्रसिद्ध कुमुद और खरदूषण के साथ माया करने में चतुर नील युद्ध कर रहे थे । इसी प्रकार युद्ध करने में अत्यन्त उद्धत रामचन्द्रजी के अन्य भृत्य भी रावण के मुखिया लोगों के साथ मायायुद्ध करने लगे ॥618-622॥ उस समय इन्द्रजीत ने देखा कि रामचन्द्रजी युद्ध में रावण को दबाये जा रहे हैं-उसका तिरस्कार कर रहे हैं तब वह रावण के प्राणों के समान बीच में आ घुसा ॥623॥ परन्तु रामचन्द्रजी ने उसे शक्ति की चोट से गिरा दिया । यह देख रावण कुपित होकर शस्त्रों से सुशोभित रामचन्द्रजी की ओर दौड़ा ॥624॥ इसी बीच में लक्ष्मण बड़ी शीघ्रता से उन दोनों के बीच में आ गया और रावण ने मायामयी हाथी पर सवार होकर उसे नाराच-पन्जर में घेर लिया । अर्थात् लगातार बाण-वर्षा कर उसे ढँक लिया ॥625॥ परन्तु गरूड़ की ध्वजा फहरानेवाला लक्ष्मण प्रहरणावरण नाम की विद्या से बड़ा प्रतापी था । वह सिंह के बच्चे के समान दृप्त बना रहा और शत्रुरूपी हाथी उसे रोक नहीं सके ॥626॥ वह अपनी विद्या से नाराच-पन्जर को तोड़कर बाहर निकल आया । यह देख रावण बहुत कुपित हुआ और उसने क्रोधित होकर विश्वासपात्र चक्ररत्न के लिए आदेश दिया ॥627॥ उसी समय नारद आदि आकाश में सिंहनाद करने लगे । वह चक्र-रत्न मूर्तिधारी पराक्रम के समान प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मण के दाहिने हाथ पर आकर ठहर गया । तदनन्तर चक्ररत्न को धारण करनेवाले लक्ष्मण ने उसी चक्ररत्न से तीन-खण्ड के समान रावण का शिर काटकर अपने आधीन कर लिया ॥628-629॥ रावण, अपने दुराचार के कारण पहले ही नरकायु का बन्ध कर चुका था । अत:, दु:ख देनेवाली भयंकर (अधोगति) नरक गति को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है; क्योंकि, पापी मनुष्यों की और क्या गति हो सकती है ? ॥630॥ तदनन्तर लक्ष्मणने विजय-शंख बजाकर समस्त शत्रुओं को अभयदान की घोषणा की सो ठीक ही है । क्योंकि, राजाओं को जीतनेवाले विजयी राजाओं का यही धर्म है ॥631॥ उसी समय रावण के बचे हुए महामन्त्री आदि ने भ्रमरों के समान मलिन होकर रामचन्द्र तथा लक्ष्मण के चरण-कमलों का आश्रय लिया ॥632॥ रावण की मन्दोदरी आदि जो देवियाँ दु:ख से रो रही थीं उनका दु:ख दूर कर राम और लक्ष्मण ने विभीषण को लंका का राजा बनाया तथा रावण की वंश-परम्परासे आई हुई समस्त विभूति उसे प्रदान कर दी । इस प्रकार दोनों भाई बलभद्र और नारायण होकर तीन-खण्ड के बलशाली स्वामी हुए ॥633-634॥ तदनन्तर जो अशोक वन के मध्य में बैठी है, और संग्राम में रामचन्द्रजी की विजय के समाचार सुनने से प्रकट हुए हर्ष से युक्त है ऐसी शीलवती सीता के पास जाकर विभीषण, सुग्रीव तथा अणुमान् आदि ने उसके यथा योग्य दर्शन किये और विजयोत्सव की खबर सुनाई ॥635-636॥ तत्पश्चात् जिस प्रकार कुशल कारीगर महामणि को हार के साथ, अथवा कुशल कवि शब्द को मनोहर अर्थ के साथ अथवा सज्जन पुरुष अपनी बुद्धि को धर्म के साथ मिलाते हैं उसी प्रकार उन विभीषण आदि ने दूसरी लक्ष्मी के समान सीताजी को रामचन्द्रजी के साथ मिलाया । सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम भृत्य और मित्रों के सम्बन्ध से इष्ट-सिद्धियाँ हो ही जाती हैं ॥637-638॥ उधर जब तक रामचन्द्रजी का दर्शन नहीं हो गया था तब तक सीता दु:ख को धारण कर रही थी और इधर रामचन्द्रजी का ह्णदय भी सीता के वियोग से उत्पन्न होनेवाले शोक से व्याकुल हो रहा था । परन्तु उस समय परस्पर एक-दूसरे के दर्शन कर दोनों ही परम प्रीति को प्राप्त हुए । रामचन्द्रजी तृतीय प्रकृतिवाली शान्त स्वभाववाली सीता को और सीता शान्त स्वभाववाले राजा रामचन्द्रजी को पाकर बहुत प्रसन्न हुए ॥639-640॥ विरह से लेकर अब तक के जो-जो वृत्तान्त थे वे सब दोनों ने एक-दूसरे से पूछे सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री-पुरुष परस्पर एक-दूसरे को अपना सुख-दु:ख बतलाकर ही सुखी होते हैं ॥641॥ 'जिसने दोष किया था ऐसा रावण मारा गया, रही सीता, सो यह निर्दोष है' ऐसा विचार कर रामचन्द्रजी ने उसे स्वीकृत कर लिया । सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन हमेशा विचार के अनुसार ही काम करते हैं ॥642॥ तदनन्तर - दोनों भाई लंकापुरी से निकलकर अतिशय सुन्दर पीठ नाम के पर्वत पर ठहरे वहाँ पर देव और विद्याधरों के राजाओं ने अपने हाथ से उठाते हुए सुवर्ण के एक हजार आठ बड़े-बड़े कलशों के द्वारा दोनों का बड़े हर्ष से अभिषेक किया । वहीं पर लक्ष्मण ने कोटि-शिला उठाई और उसके माहात्म्य से सन्तुष्ट हुए रामचन्द्रजी ने सिंहनाद किया ॥643-645॥ वहाँ के रहनेवाले सुनन्द नाम के यक्ष ने उन दोनों की बड़े हर्ष से पूजा की और लक्ष्मण के लिए बड़े सन्मान से सौनन्दक नाम की तलवार दी ॥646॥ तदनन्तर दोनों भाइयों ने गंगा नदी के किनारे-किनारे जाकर गंगाद्वार के समीप ही वन में सेना ठहरा दी । लक्ष्मण ने रथ पर सवार हो गोपुर द्वार से समुद्र में प्रवेश किया और पैर को कुछ टेढ़ाकर मागध देव के निवास-स्थान की ओर अपने नाम से चिह्नित बाण छोड़ा ॥647-648॥ मागध देव ने भी बाण देखकर अपने आपको अल्प पुण्यवान् माना और यह महापुण्यशाली चक्रवर्ती है ऐसा समझकर लक्ष्मण की स्तुति की । यही नहीं, उसने रत्नों का हार, मुकुट, कुण्डल और उस बाण को तीर्थ-जल से भरे हुए कलश के भीतर रखकर लक्ष्मण के लिए भेंट किया ॥649-650॥ तदनन्तर समुद्र के किनारे-किनारे चलकर वैजयन्त नामक गोपुर पर पहुँचे और वहाँ पूर्व की भाँति वरतनु देव को वश किया ॥651॥ उस देव से लक्ष्मण ने कटक, केयूर, मस्तक को सुशोभित करनेवाला चूडामणि, हार और कटिसूत्र प्राप्त किया ॥652॥ तदनन्तर रामचन्द्रजी के साथ ही साथ लक्ष्मण पश्चिम दिशा की ओर गया और वहाँ सिन्धु नदी के गोपुर द्वार से समुद्र में प्रवेश कर उसने पूर्व की ही भांति प्रभास नाम के देव को वश किया ॥653॥ प्रभास देव से लक्ष्मण ने सन्तानक नाम की माला, जिस पर मोतियों का जाल लटक रहा है ऐसा सफेद छत्र, और अन्य-अन्य आभूषण प्राप्त किये ॥654॥ तत्पश्चात् सिन्धु नदी के किनारे-किनारे जाकर पश्चिम दिशा के म्लेच्छ-खण्ड में रहनेवाले लोगों को अपनी आज्ञा सुनाई और वहाँ की श्रेष्ठ वस्तुओं को ग्रहण किया ॥655॥ फिर दोनों भाई पूर्व-दिशा की ओर सन्मुख होकर चले और विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले लोगों को वश कर उसने हाथी, घोड़े, अस्त्र, विद्याधर कन्याएँ एवं अनेक रत्न प्राप्त किये, पूर्व खण्डमें रहनेवाले म्लेच्छों को कर देनेवाला बनाया और तदनन्तर विजयी होकर वहाँ से बाहर प्रस्थान किया ॥656-657॥ इस प्रकार लक्ष्मण ने सोलह हजार पट्टबन्ध राजाओं को, एक सौ दश नगरियों के स्वामी विद्याधरों को और तीन-खण्ड के निवासी देवों को आज्ञाकारी बनाया था । उसकी यह दिग्विजय व्यालीस वर्ष में पूर्ण हुई थी । देव, विद्याधर तथा भूमिगोचरी राजा हाथ जोड़कर सेवा करते थे । इस तरह बडे भाई रामचन्द्रजी के आगे-आगे चलने वाले चक्ररत्न के स्वामी एवं सबके द्वारा पूजित लक्ष्मण ने, मांगलिक वेषभूषा से सुशोभित तथा समागम की प्रार्थना करनेवाली कान्ता के समान उस आयोध्या नगरी में इन्द्र के समान प्रवेश किया ॥658-661॥ तदनन्तर किसी शुद्ध लग्न और शुभ मुहूर्त के आने पर मनुष्य, विद्याधर और व्यन्तर देवों के मुखिया लोगों ने एकत्रित होकर श्रीमान् राम और लक्ष्मण को एक ही साथ सिंहासन पर विराजमान कर उनका तीर्थ जल से भरे हुए सुवर्ण के एक हजार आठ बड़े-बड़े कलशों से अभिषेक किया । इस प्रकार उन्हें तीन-खण्ड के साम्राज्य पर विराजमान कर प्रार्थना की कि आपकी लक्ष्मी बढ़ती रहे और आपका यश दिशाओं के अंत तक फैल जावे । प्रार्थना करने के बाद उन्हें रत्नों के बड़े-बड़े मुकुट बाँधे, मणिमय आभूषण पहिनाये और बड़े-बड़े आशीर्वादों से अलंकृत कर उत्सुक हो उनकी पूजा की ॥662-665॥ लक्ष्मण के पृथिवीसुन्दरी को आदि लेकर लक्ष्मी के समान मनोहर सोलह हजार पतिव्रता रानियाँ थीं और रामचन्द्रजी के सीता को आदि लेकर आठ हजार प्राणप्यारी रानियाँ थीं । सोलह हजार देश और सोलह हजार राजा उनके आधीन थे । नौ हजार आठ सौ पचास द्रोणमुख थे, पच्चीस हजार पत्तन थे, इच्छानुसार फल देने वाले बारह हजार कर्वट थे, बारह हजार मटंव थे, आठ हजार खेटक थे, महाफल देने वाले अड़तालीस करोड़ गाँव थे, समुद्र के भीतर रहने वाले अट्ठाईस द्वीप थे, व्यालीस लाख बड़े-बड़े हाथी थे, इतने ही श्रेष्ठ रथ थे, नव करोड़ घोड़े थे, युद्ध करने में शूर-वीर ब्यालीस करोड़ पैदल सैनिक थे और आठ हजार गणबद्ध नाम के देव थे ॥666-672॥ रामचन्द्रजी के अपराजित नाम का हलायुध, अमोघ नाम के तीक्ष्ण वाण, कौमुदी नाम की गदा और रत्नावतंसिका नामक माला ये चार महारत्न थे । इन सब रत्नों की अलग-अलग एक-एक हजार यक्षदेव रक्षा करते थे ॥673-674॥ इसी प्रकार सुदर्शन नाम का चक्र, कौमुदी नाम की गदा, सौनन्दक नाम का खड्ग, अमोघमुखी शक्ति, शांर्ग नाम का धनुष, महाध्वनि करने वाला पाँच मुख का पन्चजन्य नाम का शंख और अपनी कान्ति के भार से शोभायमान कौस्तुभ नाम का महामणि ये सात रत्न अपरिमित कान्ति को धारण करने वाले लक्ष्मण के थे और सदा एक-एक हजार यक्ष देव उनकी पृथक्-पृथक् रक्षा करते थे ॥675-677॥ इस प्रकार सुख रूपी सागर में निमग्न रहनेवाले महाभाग्यशाली दोनों भाइयों का समय भोग और सम्पदाओं के द्वारा वयतीत हो रहा था कि किसी समय मनोहर नाम के उद्यान में शिवगुप्त नाम के जिनराज पधारे । श्रद्धा से भरे हुए बुद्धिमान् राम और लक्ष्मण ने बड़ी विनय के साथ जाकर उनकी पूजा-वन्दना की । तदनन्तर आत्म-निष्ठा के अत्यन्त निकट होने के कारण कृतकृत्य एवं कर्म-मल-कलंक से रहित उक्त जिनराज से धर्म का स्वरूप पूछा ॥678-680॥ भव्य जीवों का अनुग्रह करना ही जिनका मुख्य कार्य है ऐसे शिवगुप्त जिनराज भी अपने वचन-समूह रूपी उत्तम चन्द्रिका से उस सभा को आह्लादित करते हुए कहने लगे ॥681॥ कि इस संसार में जीवादिक नौ पदार्थ हैं उनका प्रमाण नय निक्षेप तथा निर्देश आदि अनुयोगों से जो कि ज्ञान प्राप्ति के कारण हैं बोध होता है । गौण और मुख्य नयों के स्वीकार करने रूप बल के मिल जाने से 'स्यादस्ति', 'स्याद्नास्ति' आदि भंगो द्वारा प्रतिपादित धर्मों से वे जीवादि पदार्थ सदा युक्त रहते हैं । इनके सिवाय शिवगुप्त जिनराज ने आप्त भगवान् का स्वरूप, मार्गणा, गुणसमास, संसार का स्वरूप, धर्म से सम्बन्ध रखने वाले अन्य युक्ति-युक्त पदार्थ, कर्मों के भेद, सुख-दु:खादि अनेक भेद रूप कर्मों के फल, बन्ध और मोक्ष का कारण, मुक्ति और मुक्त जीव का स्वरूप आदि विविध पदार्थों का विवेचन भी किया । इस प्रकार उनसे धर्म का विशेष स्वरूप सुनकर रामचन्द्रजी आदि समस्त बुद्धिमान् पुरुषों ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये ॥682-686॥ परन्तु भोगों में आसक्त रहने वाले लक्ष्मण ने निदान शल्य नामक दोष के कारण नरक की भयंकर आयु का बन्ध कर लिया था इसलिए उसने सम्यग्दर्शन आदि कुछ भी ग्रहण नहीं किया ॥687॥ इस प्रकार राम और लक्ष्मण ने कुछ वर्ष तो अयोध्या में ही सुख से बिताये तदनन्तर वहाँ का राज्य भरत और शत्रुघ्र के लिए देकर वे दोनों अपने हुए नगरी में प्रविष्ट हुए ॥688- 689॥ रामचन्द्र के देव के समान विजयराम नाम का पुत्र था और लक्ष्मण के चन्द्रमा के समान पृथिवीचन्द्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था ॥690॥ जिनका अभ्युदय प्रसिद्ध है और जो धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग के फल से सुशोभित हैं ऐसे रामचन्द्र और लक्ष्मण अन्य पुत्र-पौत्रादिक से युक्त होकर सुख से समय बिताते थे ॥691॥ किसी एक दिन लक्ष्मण नागवाहिनी शय्या पर सुख से सोया हुआ था । वहाँ उसने तीन स्वप्न देखे-पहला मत हाथी के द्वारा वट वृक्ष का उखाडा जाना, दूसरा राहु के द्वारा निगले हुए सूर्य का रसातल में चला जाना और तीसरा चूना से सफेद किये हुए ऊँचे राजभवन का एक देश गिर जाना । इन स्वप्नों को जिस प्रकार देखा था उसी प्रकार निवेदन कर गया ॥692-694॥ पुरोहित ने सुनते ही उनका फल इस प्रकार कि, वट वृक्ष के उखडने से लक्ष्मण असाध्य बीमारी को प्राप्त होगा, राहु के द्वारा ग्रस्त सूर्य के गिरने से उसके भाग्य, भोग और आयु का क्षय सूचित करता है तथा ऊँचे भवन के गिरने से आप तपोवन को जावेंगे ॥695-696॥ पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले रामचन्द्रजी ने पुरोहित के यह वचन एकान्त में सुने परन्तु धीर-वीर होने के कारण मन में कुछ भी विकार भाव को प्राप्त नहीं हुए ॥697॥ तदनन्तर दया में उद्यत रहने वाले रामचन्द्रजी ने दोनों लोकों का हितकर मान कर यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करे ॥698॥ इसके सिवाय उन्होंने सर्वज्ञ देव का स्वप्न तथा शान्ति-पूजा की और दीनों के लिए जिसने जो चाहा वह दान दिया ॥699॥ तदनन्तर जिसका पुण्य क्षीण हो गया है ऐसे लक्ष्मण को कुछ दिनों के बाद असाता वेदनीय कर्म के उदय से प्रेरित हुआ महारोग उत्पन्न हुआ ॥700॥ उसी असाध्य रोग के कारण चक्ररत्न का स्वामी लक्ष्मण मरकर माघ कृष्ण अमावस्या के दिन चौथी पंकप्रभा नाम की पृथिवी में गया ॥701॥ लक्ष्मण के वियोग से उत्पन्न हुई शोक-रूपी अग्नि से जिनका ह्णदय सन्तप्त हो रहा है ऐसे रामचन्द्रजी ने ज्ञान के प्रभाव से किसी तरह अपने आप आत्मा को सुस्थिर किया, छोटे भाई लक्ष्मण का विधि पूर्वक शरीर संस्कार किया और प्रसन्नतापूर्ण वचन कहकर समस्त अन्त:पुर का शोक शान्त किया ॥702-703॥ फिर उन्होंने सब प्रजा के सामने पृथिवी सुन्दरी नाम की प्रधान रानी से उत्पन्न हुए लक्ष्मण के बडे पुत्र के लिए राज्य देकर अपने ही हाथ से उसका पट्ट बाँधा ॥704॥ सात्विक वृत्ति को धारण करने वाले सीता के विजयराम आदिक आठ पुत्र थे । उनमें से सात बडे पुत्रों ने राज्यलक्ष्मी लेना स्वीकृत नहीं किया इसलिए उन्होंने अजितंजय नाम के छोटे पुत्र के लिए युवराज पद देकर मिथिला देश समर्पण कर दिया और स्वयं संसार, शरीर तथा भोगों से विरक्त हो गये ॥705-706॥ विरक्त होते ही वे अयोध्या नगरी के सिद्धार्थ नामक उस वन में पहुँचे जो कि भगवान् वृषभदेव के दीक्षाकल्याण का स्थान होने से तीर्थस्थान हो गया था । वहाँ जाकर उन्होंने महाप्रतापी शिवगुप्त नाम के केवली के समीप संसार और मोक्ष के कारण तथा फल को अच्छी तरह समझा ॥707-708॥ जब उन्हें इन्हीं केवली भगवान् से बात का पता चला कि लक्ष्मण निदान नामक शल्य के दोष से चौथे नरक गया है तब उनकी बुद्धि और भी अधिक निर्मल हो गई । तदनन्तर जिन्होंने लक्ष्मण का समस्त स्नेह छोड दिया है और आभिनिबोधिक-मतिज्ञान से जिन्हें रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है ऐसे रामचन्द्रजी ने सुग्रीव, अणुमान और विभीषण आदि पाँच सौ राजाओं तथा एक सौ अस्सी अपने पुत्रों के साथ संयम धारण कर लिया ॥709-711॥ इसी प्रकार सीता महादेवी और पृथिवी सुन्दरी से सहित अनेक देवियों ने श्रुतवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥712॥ तदनन्तर जिन्होंने श्रावक के व्रत ग्रहण किये हैं ऐसे राजा तथा युवराज ने जिनेन्द्र भगवान् के चरण-युगल को अच्छी तरह नमस्कार कर नगरी में प्रवेश किया ॥713॥ रामचन्द्र और अणुमान दोनों ही मुनि, शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक मोक्षमार्ग का अनुष्ठान कर श्रुतकेवली हुए ॥714॥ शेष बचे हुए मुनिराज भी बुद्धि आदि सात ऋद्धियों के ऐश्वर्य को प्राप्त हुए । इस प्रकार जब छद्मस्थ अवस्था के तीन सौ पंचानवे वर्ष बीत गये तब शुल्क ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का क्षय करने वाले मुनिराज रामचन्द्र को सूर्य-विम्ब के समान केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥715-716॥ प्रकट हुए एकछत्र आदि प्रातिहार्यों से विभूषित हुए केवल रामचन्द्रजी ने धर्ममयी वृष्टि के द्वारा भव्य-जीवरूपी धान्य के पौधों को सींचा ॥717॥ इस प्रकार केवलज्ञान के द्वारा उन्होंने छह सौ वर्ष बिताकर फाल्गुन शुल्क चतुर्दशी के दिन प्रात:काल के समय सम्मेदाचल की शिखर पर तीसरा शुल्कध्यान धारण किया और तीनो योगों का निरोधकर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चौथे शुल्क ध्यान के आश्रय से समस्त अघातिया कर्मों का क्षय किया । इस प्रकार औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों का नाश हो जाने से उन्होंने अणुमान आदि के साथ उन्नत पद-सिद्ध क्षेत्र प्राप्त किया ॥718-720॥ विभीषण आदि कितने ही मुनि अनुदिश को प्राप्त हुए और रामचन्द्र तथा लक्ष्मण की पट्टरानियाँ सीता तथा पृथिवी सुन्दरी आदि कितनी ही आर्यिकाएँ अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुईं ॥721॥ शेष रानियाँ प्रथम स्वर्ग में उत्पन्न हुईं । लक्ष्मण नरक से निकल कर क्रम-क्रम से संयम धारण कर मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त होगा ॥722॥ सो ठीक ही है क्योंकि जीवों के इसी प्रकार की विचित्रता होती है ॥723॥ जिन्होंने समुद्र को गोपद के समान उल्लंघन किया, जिन्होंने अपनी सेना से शत्रु के नगर को एक छोटे से घर के समान घेर लिया, जिन्होंने शत्रु के समस्त वंश को धान के खेत के समान शीघ्र ही निर्मूल कर दिया, जिन्होंने लक्ष्मी के साथ-साथ शत्रु से सीता को छीन लिया, जिनके दोनों चरण, नम्रीभूत देव, भूमिगोचरी राजा तथा विद्याधरों के मस्तकरूपी सिंहासन पर सदा विद्यमान रहते थे, जिन्होंने दक्षिण दिशा के अर्धभरत क्षेत्र को निष्कण्टक बना दिया था, जो समस्त तीन खण्डों के स्वामी थे, अयोध्या नगरी में रहते थे, जिनकी प्रभा ज्येष्ठ मास के सूर्य की प्रभा को भी तिरस्कृत करती थी । जिनकी वीरलक्ष्मी दिशाओें के अन्त में रहने वाले दिग्गजों के गर्व-रूपी सर्प को शान्त करने में सदा व्यग्र रहती थी, हल आदि प्रसिद्ध तथा सुशोभित रत्नों की पंक्ति से अनुरजिंत लक्ष्मी के द्वारा प्राप्त कराये हुए भोगों के संयोग से जो सदा सुखी रहते थे, जो समस्त याचकों को संतुष्ट रखते थे, जो तेज से चन्द्र और सूर्य के समान थे, और जिन्होंने अपने यश से समस्त संसार को अत्यन्त प्रकाशित कर दिया था ऐसे श्रीमान् बलभद्र और नारायण पदवी के धारक रामचन्द्र और लक्ष्मण चिरकाल तक साथ ही साथ इस पृथिवी का पालन करते रहे । उन दोनों में से एक तो भोगों की समानता होने पर भी परिणामों के द्वारा की हुई विशेषता से तीन लोक के शिखर पर सुख से विराजमान हुआ और दूसरा चतुर्थ नरक की भूमिका नायक हुआ । इसलिए आचार्य कहते हैं कि विद्वानों को मूर्ख के समान कभी भी निदान नहीं करना चाहिये ॥724-727॥ रावण का जीव पहले सारसमुच्चय नाम के देश में नरदेव नाम का राजा था । फिर सौधर्म स्वर्ग में सुख का भाण्डार-स्वरूप देव हुआ और तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर इसी भरतक्षेत्र के राजा विनमि विद्याधर के वंश में समस्त विद्याधरों के देदीप्यमान मस्तकों की मालापर आक्रमण करने वाला, स्त्रीलम्पट, अपने वंश को नष्ट करने के लिए केतु ( पुच्छलतारा ) के समान तथा दुराचारियों में अग्रेसर रावण हुआ ॥728॥ लक्ष्मण का जीव पहले इसी क्षेत्र के मलयदेश में चन्द्रचूल नाम का राजपुत्र था, जो अत्यन्त दुराचारी था । जीवन के पिछले भाग में तपश्चरण कर वह सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ फिर वहाँ से आकर यहाँ अर्धचक्री लक्ष्मण हुआ था ॥729॥ सीता पहले गुणरूपी आभूषणों से सहित मणिमति नाम की विद्याधरी थी । उसने अत्यन्त कुपित होकर निदान मरण किया जिससे यश को विस्तृत करने वाली तथा अच्छे व्रतों का पालन करने वाली जनकपुत्री सती सीता हुई ॥730॥ रामचन्द्र का जीव पहले मलय देश के मंत्री का पुत्र चन्द्रचूल का मित्र विजय नाम से प्रसिद्ध था फिर तीसरे स्वर्ग में दिव्य भोगों से लालित कनकचूल नाम का प्रसिद्ध देव हुआ और फिर सूर्यवंश में अपरिमित बल को धारण करने वाला रामचन्द्र हुआ ॥731॥ जो दु:खदायी पापकर्म के दुष्ट उदय से उत्पन्न होने वाले निन्दनीय दु:ख से बहुत दूर रहते थे, जिन्होंने समस्त इन्द्रों को नम्र बना दिया था, जो सर्वज्ञ थे, वीतराग थे, समस्त सुखों के भाण्डार थे और जो अंत में देवों के देव हुए-सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए ऐसे अष्टम बलभद्र श्री रामचन्द्रजी हम लोगों की इष्ट-सिद्धि करें ॥732॥ |