
कथा :
अथानन्तर-भक्त लोगों के ह्णदय-कमलमें धारण किया हुआ जिनका नाम भी मुक्तिके लिए पर्याप्त है-मुक्ति देनेमें समर्थ है ऐसे नमिनाथ स्वामी हम सबके लिए शीघ्र ही मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करें ॥1॥ इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रके वत्स देशमें एक कौशाम्बी नाम की नगरी है । उसमें पार्थिव नाम का राजा राज्य करता था ॥2॥ वह इक्ष्वाकु वंशके नेत्रके समान था, लक्ष्मी को अपने वक्ष:स्थल पर धारण करता था, अतिशय पराक्रमी था और सब दिशाओं पर आक्रमण कर साक्षात् चक्रवर्ती के समान सुशोभित होता था ॥3॥ उस राजा के सुन्दरी नाम की रानी से सिद्धार्थ नाम का पुत्र हुआ था । एक दिन वह राजा मनोहर नाम के उद्यान में गया था । वहाँ उसने परमावधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक मुनिवर नाम के मुनिके दर्शन किये और विनय से नम्र होकर उनसे धर्म का स्वरूप पूछा । मुनिराजने धर्म का यथार्थ स्वरूप बतलाया उसे सुनकर राजा को वैराग्य उत्पन्न हो आया । वह विचार करने लगा कि संसार में प्राणी मरण-रूपी मूलधन लेकर मृत्युका कर्जदार हो रहा है ॥4-6॥ प्रत्येक जन्म में अनेक दु:खों को भोगता और उस कर्जकी वृद्धि करता हुआ यह प्राणी दुर्गत हो रहा है- दुर्गतियोंमें पड़कर दु:ख उठा रहा है अथवा दरिद्र हो रहा है । जब तक यह प्राणी रत्नत्रय रूपी धनका उपार्जन कर मृत्यु रूपी साहूकारके लिए व्याज सहित धन नहीं दे देगा तब तक उसे स्वास्थ्य कैसे प्राप्त हो सकता है ? वह सुखी कैसे रह सकता है ? ऐसा निश्चय कर वह कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करनेका उद्यम करने लगा ॥7-8॥ उत्कृष्ट बुद्धि के धारक राजा पार्थिव ने, अनेक शास्त्रोंके सुनने एवं प्रजा का पालन करनेवाले सिद्धार्थ नाम के अपने समर्थ पुत्र के लिए राज्य देकर पूज्यपाद मुनिवर नाम के मुनिराज के चरण-कमलोंके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरूषोंकी ऐसी ही प्रवृत्ति होती है ॥9-10॥ प्रतापी सिद्धार्थ भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर तथा अणुव्रत आदि व्रत धारण कर सुखपूर्वक भोग भोगता हुआ प्रजा का पालन करने लगा ॥11॥ इस प्रकार समय व्यतीत हो रहा था कि एक दिन उसने अपने पिता पार्थिव मुनिराजका समाधिमरण सुना । समाधिमरण का समाचार सुनते ही उसकी विषय-सम्बन्धी इच्छा दूर हो गई । उसने शीघ्र ही मनोहर नाम के उद्यानमें जाकर महाबल नामक केवली भगवान् से तत्त्वार्थका विस्तारके साथ स्वरूप समझा ॥12-13॥ तदनन्तर श्रीदत्त नामक पुत्र के लिए राज्य देकर उसने क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया और शान्त होकर संयम धारण कर लिया ॥14॥ उस पुरूषोत्तमने ग्यारह अंग धारण कर सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामक पुण्य कर्म का बन्ध किया ॥15॥ और आयु के अन्त में समाधिमरण कर अपराजित नाम के श्रेष्ठ अनुत्तर विमान में अतिशय शोभायमान देव हुआ ॥16॥ वहाँ उसकी तैंतीस सागर की आयु थी, एक हाथ ऊँचा शरीर था, तथा श्वासोच्छ्वास, आहार, लेश्या आदि भाव उस विमान-सम्बन्धी देवों के जितने बतलाये गये हैं वह उन सबसे सहित था ॥17॥ जब इस अहमिन्द्र का जीवनका अन्त आया और वह छह माह बाद यह वहाँसे चलनेके लिए तत्पर हुआ तब जम्बूवृक्ष से सुशोभित इसी जम्बूद्वीप के वंग नामक देशमें एक मिथिला नाम की नगरी थी । वहाँ भगवान् वृषभदेवका वंशज, काश्यपगोत्री विजयमहाराज नाम से प्रसिद्ध सम्पत्तिशाली राजा राज्य करता था ॥18-19॥ जिस प्रकार उदित होता हुआ सूर्य संसार को अनुरक्त-लाल वर्ण का कर लेता है उसी प्रकार उसने राज्यगद्दी पर आरूढ़ होते ही समस्त संसार को अनुरक्त-प्रसन्न कर लिया था और ज्यों-ज्यों सूर्य स्वयं राग-लालिमासे रहित होता जाता है त्यों-त्यों वह संसार को विरक्त-लालिमा से रहित करता जाता है इसी प्रकार वह राजा भी ज्यों-ज्यों विराग-प्रसन्नतासे रहित होता जाता था त्यों-त्यों संसार को विरक्त-प्रसन्नतासे रहित करता जाता था । सारांश यह है कि संसार की प्रसन्नता और अप्रसन्नता उसीपर निर्भर थी सो ठीक ही है क्योंकि उसने वैसा ही तप किया था और वैसा ही उसका प्रभाव था ॥20॥ चूंकि पुण्य कर्म के उदय से अनेक-गुणों के समूह तथा लक्ष्मी ने उस राजा का वरण किया था इसलिए उसमें धर्म, अर्थ, कामरूप तीनों पुरूषार्थ अच्छी तरह प्रकट हुए थे ॥21॥ उस राजा के राज्य में यदि ताप उष्णत्व था तो सूर्य में ही था अन्यत्र ताप-दु:ख नहीं था, क्रोध था तो सिर्फ कामी मनुष्योंमें ही था वहाँके अन्य मनुष्योंमें नहीं था, विग्रह नाम था तो शरीरोंमें ही था अन्यत्र नहीं, विरागता-वीतरागता यदि थी तो मुनियोंमें ही थी वहाँके अन्य मनुष्योंमें विरागता-स्नेहका अभाव नहीं था । परार्थ ग्रहण-अन्य कवियोंके द्वारा प्रतिपादित अर्थका ग्रहण करना कुकवियोंमें ही था अन्य मनुष्योंमें परार्थग्रहण-दूसरेके धनका ग्रहण करना नहीं था । बन्धन –हरबन्ध, छत्रबन्ध आदिकी रचना काव्योंमें ही थी वहाँके अन्य मनुष्योंमें बन्धन-पाश आदिसे बाँधा जाना नहीं था । विवाद-शास्त्रार्थ यदि था तो विजयकी इच्छा रखनेवाले विद्वानों में ही था वहाँ के अन्य मनुष्योंमें विवाद-कलह नहीं था । शरव्याप्ति-एक प्रकार के तृणका विस्तार नदियोंमें ही था वहाँके मनुष्योंमें शरव्याप्ति-वाणोंका विस्तार नहीं था । अनवस्थिति-अस्थिरता यदि थी तो ज्यौतिष्क देवोंमें ही थी-वे ही निरन्तर गमन करते रहते थे वहाँके मनुष्योंमें अनवस्थिति-अस्थिरता नहीं थी । क्रूरता यदि थी तो दुष्ट ग्रहोंमें ही थी वहाँ के मनुष्योंमें क्रूरता-दुष्टता-निर्दयता नहीं थी और पिशाचता-पिशाच जाति यदि थी तो देवोंमें ही थी वहाँके मनुष्योंमें पिशाचता-नीचता नहीं थी ॥22-24॥ विजयमहाराजकी महादेवीका नाम वप्पिला था, देवों ने रत्नवृष्टि आदिसे उसकी पूजा की थी, श्री, ही, धृति आदि देवियाँ उसकी सेवा करती थीं । शरद् ऋतुकी प्रथम द्वितीया अर्थात् आश्विन कृष्ण द्वितीया के दिन अश्विनी नक्षत्र और रात्रिके पिछले पहर जब कि भगवान् का स्वर्गावतरण हो रहा था तब सुख से सोई महारानीने पहले कहे सोलह स्वप्न देखे ॥25-26॥ उसी समय उसने अपने मुख में प्रवेश करना हुआ एक हाथी देखा । देखते ही उसकी निद्रा दूर हो गई और प्रात:काल के बाजोंका शब्द सुनने से उसके हर्षका ठिकाना नहीं रहा ॥27॥ उसने देशावधि ज्ञानरूपी नेत्र को धारण करनेवाले राजा से इन स्वप्नों का फल पूछा और राजा ने भी कहा कि तुम्हारे गर्भ में भावी तीर्थंकरने अवतार लिया है ॥28॥ उसी समय इन्द्रों ने आकर अपने नियोग के अनुसार भगवान् का स्वर्गावतरण महोत्सव-गर्भकल्याणकका उत्सव किया और तदनन्तर सब साथ ही साथ अपने अपने स्थानपर चले गये॥29॥ वप्पिला महादेवीने आषाढ़ कृष्ण दशमी के दिन स्वाति नक्षत्रके योग में समस्त लोक के स्वामी महाप्रतापी जेष्ठपुत्रको उत्पन्न किया॥30॥ देवों ने उसी समय आकर जन्म-कल्याणक का उत्सव किया और मोह-शत्रु को भेदन करनेवाले जिन-बालकका नभिनाथ नाम रक्खा ॥31॥ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर की तीर्थ-परम्परा में जब साठ लाख वर्ष बीत चुके थे तब नमिनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था ॥32॥ भगवान् नमिनाथ की आयु दश हजार वर्ष की थी, शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा था और कान्ति सुवर्ण के समान थी । जब उनके कुमारकाल के अढ़ाई हजार वर्ष बीत गये तब उन्होंने अभिषेकपूर्वक राज्य प्राप्त किया था ॥33-34॥ इस प्रकार राज्य करते हुए भगवान् को पाँच हजार वर्ष बीत गये । एक दिन जब कि आकाश वर्षाऋतुके बादलोंके समूह से व्याप्त हो रहा था तब महान् अभ्युदयके धारक भगवान् नमिनाथ दूसरे सूर्य के समान हाथी के कन्धेपर आरूढ़ होकर वन-विहारके लिए गये ॥35-36॥ उसी समय आकाशमार्गसे आये हुए दो देवकुमार हस्तकमल जोड़कर नमस्कार करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करने लगे ॥37॥ वे कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक वत्सकावती नाम का देश है । उसकी सुसीमा नगरी में अपराजित विमानसे अवतार लेकर अपराजित नाम के तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं । उनके केवलज्ञान की पूजा के लिए सब इन्द्र आदि देव आये थे ॥38-39॥ उनकी सभा में प्रश्न हुआ कि क्या इस समय भरतक्षेत्र में भी कोई तीर्थंकर है ? सर्वदर्शी अपराजित भगवान् ने उत्तर दिया कि इस समय वंगदेशके मिथिलानगर में नमिनाथ स्वामी अपराजित विमानसे अवतीर्ण हुए हैं वे अपने पुण्योदय से तीर्थंकर होनेवाले हैं ॥40-41॥ इस समय वे देवों के द्वारा लाये हुए भोगों का अच्छी तरह उपभोग कर रहे हैं-गृहस्थावस्थामें विद्यमान हैं । हे देव ! हम दोनों अपने पूर्व जन्ममें धातकीखण्ड द्वीप के रहनेवाले थे वहाँ तपश्चरण कर सौधर्म नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुए हैं । दूसरे दिन हमलोग अपराजित केवलीकी पूजा के लिए गये थे। वहाँ उनके वचन सुनने से पूजनीय आपके दर्शन करने के लिए कौतुकवश यहाँ आये हैं ॥42-43॥ जिन्हें निकटकालमें ही केवलज्ञान की प्राप्ति होनेवाली है ऐसे भगवान् नमिनाथ देवोंकी उक्त समस्त बातोंको ह्णदय में धारण कर नगर में लौट आये ॥44॥ वहाँ वे विदेह क्षेत्रके अपराजित तीर्थंकर तथा उनके साथ अपने पूर्वभवके सम्बन्धका स्मरण कर संसार में होनेवाले भावोंका बार-बार विचार करने लगे ॥45॥ वे विचार करने लगे कि इस आत्मा ने अपने आपको अपने आपके ही द्वारा अनादिकाल से चले आये बन्धनोंसे अच्छी तरह जकड़ कर शरीर-रूपी जेलखानेमें डाल रक्खा है और जिस प्रकार पिंजड़े के भीतर पापी पक्षी दु:खी होता है अथवा आलान-खम्भेसे बँधा हुआ हाथी दु:खी होता है उसी प्रकार यह आत्मा निरन्तर दु:खी रहता है । यह यद्यपि नाना दु:खोंको भोगता है तो भी उन्हीं दु:खोंमें राग करता है । रति नोकषायके अत्यन्त तीव्र उदय से यह इन्द्रियों के विषय में आसक्त रहता है और विष्ठा के कीड़ाके समान अपवित्र पदार्थोंमें तृष्णा बढ़ाता रहता है ॥46-48॥ यह प्राणी मृत्यु से डरता है किन्तु उसी ओर दौड़ता है, दु:खोंसे छूटना चाहता है किन्तु उनका ही सन्चय करता है । हाय-हाय, बड़े दु:खकी बात है कि आर्त और रौद्र ध्यानसे उत्पन्न हुई तृष्णासे इस जीव की बुद्धि विपरीत हो गई है। यह बिना किसी विश्रामके चतुर्गतिरूप भवमें भ्रमण करता है और पाप के उदय से दु:खी होता रहता है । इष्ट अर्थका विघात करनेवाली, दृढ़ और अनादि काल से चली आई इस मूर्खताको भी धिक्कार हो ॥49-50॥ इस प्रकार वैराग्य के संयोग से वे भोग तथा राग से बहुत दूर जा खड़े हुए । उसी समय सारस्वत आदि समस्त वीतराग देवों ने-लौकान्तिक देवों ने उनकी पूजा की ॥51॥ कर्मों का क्षयोपशम होने से उनके प्रशस्त संज्वलन का उदय हो गया अर्थात् प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभका क्षयोपशम और संज्वलन क्रोध मान माया लोभका मन्द उदय रह गया जिससे रत्नत्रयको प्राप्त कर उन्होंने सुप्रभ नामक पुत्रको अपना राज्य-भार सौंप दिया ॥52॥ तदनन्तर देवों के द्वारा किये हुए अभिषेक के साथ-साथ दीक्षा-कल्याणकका उत्सव प्राप्त कर वे उत्तरकुरू नाम की मनोहर पालकी पर सवार हो चैत्रवन नामक उद्यानमें गये । वहाँ उन्होंने बेलाका नियम लेकर आषाढ़कृष्ण दशमीके दिन अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया और उसी समय संयमी जीवों के प्राप्त करने के योग्य चतुर्थ-मन:पर्ययज्ञान भी प्राप्त कर लिया ॥53-55॥ पारणा के लिए भगवान् वीरपुर नामक नगर में गये वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले राजा दत्तने उन्हें आहार दान देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥56॥ तदनन्तर जब छद्मस्थ अवस्था के नव वर्ष बीत गये तब वे एक दिन अपने ही दीक्षावन में मनोहर बकुल वृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए । वहीं पर उन्हें मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष की तीसरी नन्दा तिथि अर्थात् एकादशी के दिन सायंकाल के समय समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ-उसी समय इन्द्र आदि देवों ने चतुर्थ-ज्ञानकल्याणका उत्सव किया ॥57-59॥ सुप्रभार्य को आदि लेकर उनके सत्रह गणधर थे । चार सौ पचास समस्त पूर्वोंके जानकार थे, बारह हजार छह सौ अच्छे व्रतोंको धारण करने वाले शिक्षक थे, एक हजार छह सौ अवधिज्ञान के धारकोंकी संख्या थी, इतने ही अर्थात् एक हजार छह सौ ही केवल ज्ञानी थे, पन्द्रह सौ विक्रियाऋद्धि के धारक थे, बारह सौ पचास परिग्रह रहित मन:पर्ययज्ञानी थे और एक हजार वादी थे । इस तरह सब मुनियोंकी संख्या बीस हजार थी । मंगिनीको आदि लेकर पैंतालीस हजार आर्यिकाएं थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएं थीं, असंख्यात देव देवियां थीं और संख्यात तिर्यन्च थे ॥60-65॥ इस प्रकार समीचीन धर्म का उपदेश करते हुए भगवान् नमिनाथ ने नम्रीभूत बारह सभाओं के साथ आर्य क्षेत्र में सब ओर विहार किया । जब उनकी आयु का एक माह बाकी रह गया तब वे विहार बन्द कर सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए । वहाँ उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया और वैशाखकृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रिके अन्तिम समय अश्विनी नक्षत्र में मोक्ष प्राप्त कर लिया ॥66-68॥ उसी समय देवों ने आकर सबके स्वामी श्री नमिनाथ तीर्थंकर का पन्चम निर्वाण-कल्याणक का उत्सव किया और तदनन्तर पुण्यरूपी पदार्थ को प्राप्त हुए सब देव अपने-अपने स्थान को चले गये ॥69॥ जिनका शरीर सुवर्ण के समान देदीप्यमान था, जिन्होंने घातिया कर्मों के साथ युद्ध किया था, समस्त अहितोंको जीता था अथवा विजय प्राप्त की थी, नम्रीभूत देव जय-जय करते हुए जिनकी स्तुति करते थे, जो विद्वान् शिष्योंके स्वामी थे और अन्त में जिन्होंने शरीर नष्ट कर दिया था- मोक्ष प्राप्त किया था वे श्री नमिनाथ स्वामी हम सबके संसार-सम्बन्धी बहुत भारी भय को नष्ट करें ॥70॥ जो तीसरे भव में कौशाम्बी नगर में सिद्धार्थ नाम के प्रसिद्ध राजा थे, वहाँ पर घोर तपश्चरण कर जो अनुत्तरके चतुर्थ अपराजित विमान में देव हुए और वहाँसे आकर जो मिथिला नगरी में इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय तीनों जगत् के हितकारी वचनों को प्रकट करने के लिए नमिनाथ नामक इक्कीसवें तीर्थंकर हुए, जिन्होंने देवों सहित समस्त इन्द्रोंसे नमस्कार कराया था, जिनपर चमर ढोरे जा रहे थे और जिनपर उड़ते हुए भ्रमरोंसे सुशोभित पुष्पवृष्टियोंका समूह पड़ा करता था ऐसे श्री नमिनाथ भगवान् चरण-कमल के मकरन्द-रसको पान करनेवाले शिष्य रूपी भ्रमरोंके लिए निरन्तर संतोष प्रदान करते रहें ॥71-72॥ तीनों जगत् को जीतने से जिसका गर्व बढ़ रहा है ऐसे मोह का माहात्म्य मर्दन करने से जिन्हें मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त हुई है ऐसे श्री नमिनाथ भगवान् हम सबके लिए भी मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करें ॥73॥ अथानन्तर-इसी जम्बूद्वीप के उत्तर भाग में एक ऐरावत नाम का बड़ा भारी क्षेत्र है उसके श्रीपुर नगर में लक्ष्मीमान् वसुन्धर नाम का राजा रहता था ॥74॥ किसी एक दिन पद्मावती स्त्रीके वियोगसे उसका मन अत्यन्त विरक्त हो गया जिससे वह अत्यन्त सुन्दर मनोहर नाम के वन में गया । वहाँ उसने वरचर्म नाम के सर्वज्ञ भगवान् से धर्मके सद्भावका निर्णय किया फिर विनयन्धर नाम के पुत्र के लिए अपना सब भार सौंपकर अनेक राजाओं के साथ, संयम धारण कर लिया । तदनन्तर कठोर तपश्चरण कर समाधि मरण किया जिससे महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ ॥75- 77॥ वहाँ पर उसकी सोलह सागर की आयु थी, दिव्य भोगों का अनुभव कर वह वहाँसे च्युत हुआ और इन्हीं नमिनाथ तीर्थंकरके तीर्थ में वत्स देश की कौशाम्बी नगरी के अधिपति, इक्ष्वाकुवंशी राजा विजयकी प्रभाकरी नाम की देवीसे कान्तिमान् पुत्र हुआ ॥78- 79॥ वह सर्व लक्षणों से युक्त था, जयसेन उसका नाम था, तीन हजार वर्षकी उसकी आयु थी साठ हाथकी ऊँचाई थी, तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति थी, वह चौदह रत्नों का स्वामी था, नौ निधियाँ सदा उसकी सेवा करती थीं, ग्यारहवाँ चक्रवर्ती था और दश प्रकार के भोग भोगता हुआ सुख से समय बिताता था । किसी एक दिन वह ऊँचे राजभवनकी छत पर अन्त:पुरवर्ती जनों के साथ लेट रहा था ॥80-82॥ पौर्णमासी के चन्द्रमा के समान वह समस्त दिशाओं को देख रहा था कि इतनेमें ही उसे उल्कापात दिखाई दिया। उसे देखते ही विरक्त होता हुआ वह इस प्रकार विचार करने लगा कि देखो यह प्रकाशमान वस्तु अभी तो ऊपर थी और फिर शीघ्र ही अपनी दो पर्यायें छोड़कर कान्तिरहित होती हुई नीचे चली गई ॥83-84॥ 'मेरा तेज भी बहुत ऊँचा है, तथा बलवान् है' इस तरह के मदको धारण करता हुआ जो मूढ प्राणी अपनी आत्माके लिए हितकारी परलोक सम्बन्धी कार्यका आचरण नहीं करता है और उसके विपरीत नश्वर तथा संतुष्ट नहीं करनेवाले विषयोंमें आसक्त रहता है वह प्रमादी मनुष्य भी इसी उल्काकी गतिको प्राप्त होता है अर्थात् तेज रहित होकर अधोगतिको जाता है ॥85–86॥ ऐसा विचार कर सरल बुद्धि के धारक चक्रवर्ती ने काल आदि लब्धियोंकी अनुकूलता से चक्र आदि समस्त राम्राज्य को छोडने का निश्चय कर लिया । वह अपने बड़े पुत्रों के लिए राज्य देने लगा परन्तु उन्होंने तप धारण करने की उदात्त इच्छा से राज्य लेने की इच्छा नहीं की तब उसने छोटे पुत्र के लिए राज्य दिया और अनेक राजाओं के साथ वरदत्त नाम के केवली भगवान् से संयम धारण कर लिया । वह कुछ ही समयमें श्रुत बुद्धि तप विक्रिया और औषध आदि ऋद्धियों से विभूषित हो गया ॥87-89॥ चारण ऋद्धि भी उसे प्राप्त हो गई । अन्त में वह सम्मेदशिखर के चारण नामक ऊँचे शिखरपर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर आत्माकी आराधना करता हुआ जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ और वहाँ उत्तम पुण्यकर्म के अनुभागसे उत्पन्न हुए सुख का चिरकाल के लिए अनुभव करने लगा ॥90- 91॥ जयसेन का जीव पहले भव में वसुन्धर नाम का राजा था फिर समीचीन तपश्चरण प्राप्त कर सोलह सागर की आयुवाला देव हुआ, वहाँसे चय कर जयसेन नाम का चक्रवर्ती हुआ और फिर जयन्त विमान में सुख का भाण्डार स्वरूप अहमिन्द्र हुआ ॥92॥ |