
कथा :
अथानन्तर-सज्जन लोग जिन्हें उत्तम क्षमा आदि दश धर्म रूपी अरोंका अवलम्बन बतलाते हैं और जो समीचीन धर्मरूपी चक्रकी हाल हैं ऐसे श्री नेमिनाथ स्वामी हम लोगों को शान्ति करनेवाले हों ॥1॥ जिनेन्द्र भगवान् नारायण और बलभद्र का पुण्यवर्धक पुराण संसार से भय उत्पन्न करनेवाला है इसलिए इस श्रुतज्ञान को मन-वचन कायकी शुद्धिके लिए वन्दना करता हूं ॥2॥ मंगलाचरण रूपी सत्क्रिया करके मैं हरिवंश नामक पुराण कहूँगा और वह भी पूर्वाचार्यों के अनुसार जैसा हुआ है अथवा जैसा सुना है वैसा ही कहूंगा ॥3॥ इसी जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर सुगन्धिला नाम के देशमें एक सिंहपुर नाम का नगर है उसमें अर्हद्दास नाम का राजा राज्य करता था । उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । दोनों ही पूर्वभवमें संचित पुण्यकर्म के उदय से उत्पन्न हुए कामभोगों से संतुष्ट रहते थे । इस प्रकार दोनों का सुख से समय बीत रहा था । किसी एक दिन रानी जिनदत्ताने श्री जिनेन्द्र भगवान् की अष्टाह्निका सम्बन्धी महापूजा करने के बाद आशा प्रकट की कि 'मै कुल के तिलकभूत पुत्र को प्राप्त करूँ' । ऐसी आशा कर वह बडी प्रसन्नतासे रात्रिमें सुख से सोई । उसी रात्रिको अच्छे व्रत धारण करनेवाली रानीने सिंह, हाथी, सूर्य, चन्द्रमा और लक्ष्मी का अभिषेक इस पाँच स्वप्न देखनेके बाद ही कोई पुण्यात्मा उसके गर्भ में अवतीर्ण हुआ और नौ माह बीत जानेपर रानीने बलवान् पुत्र उत्पन्न किया । उस पुत्र के जन्म समय से लेकर उसका पिता शत्रुओं द्वारा अजय हो गया था इसलिए भाई-बान्धवोंने उसका नाम अपराजित रक्खा ॥4-10॥ वह रूप आदि गुणरूपी सम्पत्ति के साथ साथ यौवन अवस्था तक बढ़ता गया इसलिए देवोंमें इन्द्रके समान सुन्दर दिखने लगा ॥11॥ तदनन्तर किसी एक दिन राजा ने वनपाल के मुख से सुना कि मनोहर नाम के उद्यानमें विमलवाहन नामक तीर्थकर पधारे हुए हैं । सुनते ही वह भक्ति से प्रेरित हो अपनी रानियों तथा परिवारके लोगों के साथ वहाँ गया । वहाँ जाकर उसने बारबार प्रदक्षिणाएँ दीं, हाथ जोडे, प्रणाम किया, गन्ध, पुष्प अक्षत आदिके द्वारा अच्छी तरह पूजा की तथा धर्मरूपी अमृत का पान किवा । यह सब करते ही अकस्मात् उसकी भोगोंकी इच्छा शान्त हो गई जिससे उसने अपराजित नामक पुत्र के लिए सप्त प्रकारकी विभूति प्रदान कर पाँच सौ राजाओं के साथ त्येष्ठ तप धारण कर लिया ॥11-15॥ कुमार अपराजित ने भी शुद्ध सम्यग्दृष्टि होकर अणुव्रत आदि श्रावक के व्रत ग्रहण किये और फिर जिस तरह इन्द्र अमरावतीमें प्रवेश करता है उसी तरह लक्ष्मी से युक्त हो अपनी राजधानीमें प्रवेश किया ॥16॥ उसने स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र सम्बन्धी चिन्ता तो अपने मन्त्रियों पर छोड़ दी और स्वयं शास्त्रोक्त मार्गसे धर्म तथा काममें लीन हो गया ॥17॥ किसी एक समय उसने सुना कि हमारे पिता के साथ श्री विमलवाहन भगवान् गन्धमादन पर्वतपर मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं । यह सुनते ही उसने प्रतिज्ञा की कि 'मैं श्री विमलवाहन भगवान् के दर्शन किये बिना भोजन नहीं करूँगा । इस प्रतिज्ञासे उसे आठ दिनका उपवास हो गया ॥18-19॥ तदनन्तर इन्द्र की आज्ञा से यक्षपति ने उस राजा को महान् शुभ रूप श्री विमलवाहन भगवान् का साक्षात्कार कराकर दर्शन कराया । राजा अपराजितने जिन-मन्दिरमें उन विमलवाहन भगवान् की पूजा वन्दना करने के बाद भोजन किया सो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त स्नेह तथा शोक से पीडि़त हो रहा है उन्हें तत्त्वका विचार कैसे हो सकता है ? ॥20-21॥ किसी एक दिन वसन्त ऋतु की आष्टाह्निका के समय बुद्धिमान् राजा अपराजित जिन-प्रतिमाओंकी पूजाकर उनकी स्तुति कर वहीं पर बैठा हुआ था और धर्मोपदेश कर रहा था कि उसी समय आकाश से दो चारणऋद्धि धारी मुनिराज आकर वहीं पर विराजमान हो गये । जिनेन्द्र भगवान् की स्तुतिके समाप्त होने पर राजा ने बड़ी विनयके साथ उनके सन्मुख जाकर उनके चरणोंमें नमस्कार किया, धर्मोपदेश सुना और तदनन्तर कहा कि हे पूज्य ! हे भगवन् ! मैंने पहले कभी आपको देखा है । उन दोनों मुनियोंमें जो ज्येष्ठ मुनि थे वे कहने लगे कि हाँ राजन् ! ठीक कहते हो, हम दोनोंको आपने देखा है ॥22-25॥ परन्तु कहाँ देखा है ? वह स्थान मैं कहता हूं सुनो । पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम सुमेरू की पश्चिम दिशामें जो महानदी है उसके उत्तर तट पर एक गन्धित नाम का महादेश है । उसके विजयार्थ पर्वत की उत्तर श्रेणीमें सूर्यप्रभ नगरका स्वामी राजा सूर्यप्रभ राज्य करता था । उसकी स्त्री का नाम धारिणी था । उन दोनोंके बड़ा पुत्र चिन्तागति दूसरा मनोगति और तीसरा चपलगति इस प्रकार तीन पुत्र हुए थे । धर्म, अर्थ और कामके समान इन तीनों पुत्रोंसे वे दोनों माता-पिता सदा प्रसन्न रहते थे सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम पुत्रोंसे कौन नहीं सन्तुष्ट होते हैं ? ॥26-29॥ उसी विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में अरिन्दमपुर नगर के राजा अरिंजय रहते थे उनकी अजितसेना नाम की रानी थी और दोनोंके प्रीतिमती नाम की सती पुत्री हुई थी । उसने अपनी विद्यासे चिन्तागतिको छोड़कर समस्त विद्याधरोंको मेरू पर्वत की तीन प्रदक्षिणा देनेमें जीत लिया था ॥30-31॥ तत्पश्चात चिन्तागति उसे अपने वेग से जीतकर कहने लगा कि तू रत्नों की माला से मेरे छोटे भाईको स्वीकार कर । चिन्तागतिके वचन सुनकर प्रीतिमतीने कहा कि जिसने मुझे जीता है उसके सिवाय दूसरेके गलेमें मैं यह माला नहीं डालूँगी । इसके उत्तरमें चिन्तागतिने कहा कि चूँकि तूने पहले उन्हें प्राप्त करने के इच्छा से ही मेरे छोटे भाइयोंके साथ गतियुद्ध किया था अत: तू मेरे लिए त्याज्य है । चिन्तागतिके यह वचन सुनते ही वह संसार से विरक्त हो गई और और उसने विवृत्ता नाम की आर्यिकाके पास जाकर उत्कृष्ट तप धारण कर लिया । यह देख वहाँ बहुतसे लोगों ने विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली ॥32-35॥ कन्या का यह साहस देख जिसे वैराग्य उत्पन्न हो गया है ऐसे चिन्तागतिने भी अपने दोनों छोटे भाइयोंके साथ दमवर नामक गुरूके पास जाकर संयम धारण कर लिया और आठों शुद्धियोंको पाकर तीनों भाई चौथे स्वर्ग में सामाजिक जातिके देव हुए ॥36-37॥ वहाँ सात सागर की उत्कृष्ट आयु पर्यन्त अनेक भोगों का अनुभव कर च्युत हुए और दोनों छोटे भाइयोंके जीव जम्बूद्वदीपके पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कला देशमें जो विजयार्ध पर्वत है उसकी उत्तर श्रेणीमें गगनवल्लभ नगर के राजा गगनचन्द्र और उनकी रानी गगनसुन्दरीके हम दोनों अमितमति तथा अमिततेज नाम के पुत्र उत्पन्न हुए हैं । हम दोनों ही तीनों प्रकारकी विद्याओंसे युक्त थे ॥38-40॥ किसी दूसरे दिन हम दोनों पुण्डरीकिणी नगरी गये । वहाँ श्री स्वयंप्रभ तीर्थंकरसे हम दोनोंने अपने पिछले तीन जन्मोंका वृत्तान्त पूछा । तब स्वयंवप्रभ भगवान् ने सब वृत्तान्त ज्योंका त्यों कहा । तदनन्तर हम दोनोंने पूछा कि हमारा बड़ा भाई इस समय कहाँ उत्पन्न हुआ है ? इसके उत्तरमें भगवान् ने कहा कि वह सिंहपुर नगर में उत्पन्न हुआ है, अपराजित उसका नाम है, और स्वयं राज्य करता हुआ शोभायमान है ॥41-43॥ यह सुनकर हम दोनों ने उन्हीं स्वयंप्रभ भगवान् के समीप संयम धारण कर लिया और तुम्हें देखनेके लिए तुम्हारे जन्मान्तरके स्नेहसे हम दोनों यहाँ आये हैं ॥44॥ हे भाई ! अब तव तू पुण्य-कर्म के उदय से प्राप्त हुए समस्त भोगों का उपभोग कर चुका है । अब तेरी आयु केवल एक माहकी शेष रह गई है इसलिए शीघ्र ही आत्म-कल्याणका विचार कर ॥45॥ राजा अपराजित ने यह बात सुनकर दोनों मुनिराजोंकी वन्दना की और कहा कि आप यद्यपि निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त हुए हैं तो भी जन्मान्तरके स्नेहसे आपने मेरा बड़ा उपकार किया है । यथार्थमें आप ही मेरे हितेच्छु हैं । तदनन्तर उधर उक्त दोनों मुनिराज प्रसन्न होते हुए अपने स्थान पर गये इधर राजा अपराजितने अपना राज्य विधिपूर्वक प्रीतिंकर कुमार के लिए दिया, आष्टाह्नि क पूजा की, भाइयोंको विदा किया और स्वयं प्रायोपगमन नाम का उत्कृष्ट संन्यास धारण कर लिया । संन्यासके प्रभाव से वह सोलहवें स्वर्गके सातंकर नामक विमान में बाईस सागर की आयुवाला बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंका धारक अच्युतेन्द्र हुआ । वह पुण्यात्मा वहाँ के दिव्य भोगों का चिरकाल तक उपभोग कर वहाँसे च्युत हुआ ॥46-50॥ और इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी कुरूजांगल देशमें हस्तिनापुरके राजा श्रीचन्द्र की श्रीमती नाम की रानी से सुप्रतिष्ट नाम का यशस्वी पुत्र हुआ । जब यह पूर्ण युवा हुआ तब सुनन्दा नाम की इसकी सुख देनेवाली स्त्री हुई ॥51-52॥ श्रीचन्द्र राजा ने पुत्र को अत्यन्त योग्य समझ कर उसके लिए राज्य दे दिया और स्वयं सुमन्दर नामक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥53॥ सुप्रतिष्ठ भी निष्कण्टक राज्य में अच्छी तरह प्रतिष्ठाको प्राप्त हुआ । एक दिन उसने यशोधर मुनिके लिए आहार दान दिया था जिससे उसे पन्चाश्चर्यकी प्राप्ति हुई थी ॥54॥ किसी दूसरे दिन वह राजा चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल सुन्दर राजमहलके ऊपर अन्त:पुरके साथ बैठा हुआ दिशाओं को देख रहा था कि अकस्मात् उसकी दृष्टि उल्कापात पर पड़ी । उसे देखते ही वह संसार को नश्वर समझने लगा । तदनन्तर उसने सुदृष्टि नामक ज्येष्ठ पुत्रका राज्याभिषेक किया और आत्मज्ञान प्राप्त कर सुमन्दर नामक जिनेन्द्र के समीप दीक्षा धारण कर ली । अनुक्रम से उसने ग्यारह अंगोका अभ्यास किया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर नामक निर्मल नाम-कर्म का बन्ध किया । जब आयु का अन्त आया तब समाधि धारण कर एक महीनेका संन्यास लिया जिसके प्रभाव से जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पदको प्राप्त किया । वहाँ उसकी तैंतीस सागर की आयु थी, एक हाथ ऊँचा शरीर था, वह साढे सोलह माहके अन्त में एक बार श्वास ग्रहण करता था, बिना किसी आकुलताके जब तेतीस हजार वर्ष बीत जाते थे तब एक बार आहार ग्रहण करता था, उसका सुख प्रवीचार-मैथुनसे रहित था, लोक-नाड़ीके अन्त तक उसके अवधिज्ञान का विषय था, वहीं तक उसके बल, कान्ति तथा विक्रिया आदि गुण भी थे ॥55- 61॥ इस प्रकार वह देवगति में दिव्य सुख का अनुभव करता था, सुख रूपी महासागरसे सदा सन्तुष्ट रहता था और सुखदायी लम्बी आयु तक वहीं विद्यमान रहा था ॥62॥ अब इस के आगे वह जिस वंश में उत्पन्न होगा उस वंश का वर्णन किया जाता है । जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक वत्स नाम का देश है । उसकी कौशम्बी नगरी में अतिशय प्रसिद्ध राजा मधवा राज्य करता था । उसकी महादेवीका नाम वीतशोका था । कालक्रम से उन दोनोंके रघु नाम का पुत्र हुआ ॥ 63- 64॥ उसी नगर में एक सुमुख नाम का बहुत धनी सेठ रहता था । किसी एक समय कलिंग देशके दन्तपुर नामक नगर में वीरदत्त नाम का वैश्य पुत्र, व्याधोंके डरके कारण अपने साथियों तथा वनमाला नाम की स्त्रीके साथ कौशाम्बी नगरी में आया और वहाँ सुमुख सेठके आश्रय से रहने लगा । किसी दिन सुमुख सेठ वन में घूम रहा था कि उसकी दृष्टि वनमाला पर पड़ी । उसे देखते ही कामदेवने उसे अपने वाणोंका मानो तरकश बना लिया-वह कामदेव के वाणोंसे घायल हो गया । तदनन्तर मायाचारी पापी सेठने वीरदत्तको तो बहुत भारी आजीविका देकर बारह वर्ष के लिए व्यापारके हेतु बाहर भेज दिया और स्वयं लुभाई हुई वनमालाको अपकीर्तिके साथ स्वीकृत कर लिया-अपनी स्त्री बना लिया ॥65- 69॥ बारह वर्ष बिता कर जब वीरदत्त वापिस आया तब वनमाला के विकार को सुन संसार की दु:खमय स्थितिका विचार करने लगा । अन्त में शोक से आकुल, पुण्यहीन, आश्रयरहित, वीरदत्तने विरक्त होकर प्रोष्ठिल मुनिके पास जिन-दीक्षा धारण कर ली ॥70-71॥ आयु के अन्त में संन्यास-मरण कर वह प्रथम सौधर्म स्वर्ग में प्रवीचारकी खान स्वरूप चित्रांगद नाम का देव हुआ ॥72॥ इधर सुमुख सेठ और वनमाला ने भी किसी दिन धर्मसिंह नामक मुनिराज के लिए प्रासुक आहार देकर अपने पाप की निन्दा की ॥73॥ दूसरे ही दिन वज्र के गिरने से उन दोनों की साथ ही साथ मृत्यु हो गई । उनमेंसे सुमुख का जीव तो भरत क्षेत्रके हरिवर्ष नामक देशमें भोगपुर नगर के स्वामी हरिवंशीय राजा प्रभंजन मृकण्डु नाम की रानीसे सिंहकेतु नाम का पुत्र हुआ और वनमालाका जीव उसी हरिवर्ष देशमें वस्वालय नगर के स्वामी राजा वज्रचाप की सुभा नाम की रानीसे बिजलीकी क्रान्तिको तिरस्कृत करनेवाली विद्युन्माला नाम की पुत्री हुई जो सिंहकेतुके पूर्ण यौवन होने पर उसकी स्त्री हुई ॥74-77॥ किसी दिन वन-विहार करते समय चित्रांगद देवने उन दोनों दम्पतियोंको देखा और 'मैं इन्हें मारूँगा' ऐसे विचारसे वह उन्हें उठाकर जाने लगा ॥78॥ पहले जन्म में सेठ सुमुख का प्रियमित्र राजा रघु अणुव्रतों के फल से सौधर्म स्वर्ग में सूर्यप्रभ नाम का श्रेष्ठ देव हुआ था । वह उस समय चित्रांगद को देखकर कहने लगा कि 'हे भद्र ! मेरे वचन सुन, इन दोनोंके मर जानेसे तुझे क्या फल मिलेगा ? यह काम पाप का बन्ध करनेवाला है, युक्तिपूर्वक काम करनेवालों के अयोग्य है, संसार रूप वृक्ष के दु:खरूपी दुष्ट फलका देनेवाला है । इसलिए तू यह जोड़ा छोड़ दे' इस प्रकार उसने बार बार कहा । उसे सुनकर चित्रांगदको भी दया आ गई और उसने उन दोनोंको छोड दिया । तदनन्तर सूर्यप्रभ देवने उन दोनों दम्पतियोंको संबोध कर आश्वासन दिया और आगे होनेवाले सुखकी प्राप्तिका विचार कर उन्हें चम्पापुरके वन में छोड़ दिया ॥79- 83॥ दैव-योग से उसी समय चम्पापुर का राजा चन्द्रकीर्ति विना पुत्र के मर गया था इसलिए राज्यकी परम्परा ठीक-ठीक चलानेके लिए सुयोग्य मन्त्रियोंने किसी योग्य पुण्यात्मा पुरूषको ढूँढ़नेके अर्थ किसी शुभ लक्षणवाले हाथीको गन्ध आदिसे पूजा कर छोड़ा था ॥84- 85॥ वह दिव्य हाथी भी वन में गया और पुण्योदय से उन दोनों-सिंहकेतु और विद्युन्मालाको अपने कंधे पर बैठा कर नगर में वापिस आ गया ॥86॥ प्रसन्नता से भरे हुए मन्त्री आदिने सिंहकेतु का अभिषेक किया, राज्यासन पर बैठाया और पट्ट बाँधा ॥87॥ तदनन्तर उन लोगों ने पूछा कि आप किसके पुत्र हैं और यहाँ कहाँसे आये हैं ? उत्तरमें सिंहकेतु ने कहा कि 'मेरे पिताका नाम प्रभंजन है और माताका नाम गुणों से मण्डित मृकण्डू है । मैं हरिवंश रूपी निर्मल आकाशका चन्द्रमा हूं, कोई एक देव मुझे पत्नी सहित लाकर यहाँ वन में छोड़ गया है, मैं अब तक वन में ही स्थित था' ॥88- 89॥ सिंहकेतु के वचन सुनकर लोग चूंकि यह मृकण्डूका पुत्र है इसलिए उसका माकर्ण्डेय नाम रखकर उसी नाम से उसे पुकारने लगे ॥90॥ इस प्रकार वह माकर्ण्डेय, दैवयोग से प्राप्त हुए राज्य का चिरकाल तक उपभोग करता रहा । उसीके सन्तानमें हरिगिरि, हिमगिरि तथा वसुगिरि आदि अनेक राजा हुए । उन्हींमें कुशार्थ देशके शौर्यपुर नगरका स्वामी राजा शूरसेन हुआ जो कि हरिवंश रूपी आकाशका सूर्य था और अपनी शूरवीरतासे जिसने समस्त शत्रुओं को जीत लिया था । राजा शूरसेनके वीर नाम का एक पुत्र था उसकी स्त्री का नाम धारिणी था । इन दोनोंके अन्धकवृष्टि और नरवृष्टि नाम के दो पुत्र हुए ॥91-94॥ अन्धकवृष्टिकी रानीका नाम सुभद्रा था । उन दोनोंके धर्मके समान गम्भीर समुद्रविजय 1, स्तिमितसागर 2, हिमवान् 3, विजय 4, विद्वान् अचल 5, धारण 6, पूरण 7, पूरितार्थीच्छ 8, अभिनन्दन 9, वसुदेव 10 ये चन्द्रमा के समान कान्तिवाले दश पुत्र हुए तथा चन्द्रिकाके समान कान्तिवाली कुन्ती और माद्री नाम की दो पुत्रियाँ हुईं ॥95-97॥ समुद्रविजय आदि पहले के नौ पुत्रों के क्रम से संभोग सुख को प्रदान करनेवाली शिवदेवी, घृतीश्वरा, स्वयंप्रभा, सुनीता, सीता, प्रियावाक्, प्रभावती, कालिंगी और सुप्रभा नाम की संसार में सबसे उत्तम स्त्रियाँ थीं ॥98-99॥ राजा शूरवीर के द्वितीय पुत्र नरवृष्टि की रानीका नाम पद्मावती था और उससे उनके उग्रसेन, देवसेन तथा महासेन नाम के तीन गुणी पुत्र उत्पन्न हुए ॥100॥ इनके सिवाय एक गन्धारी नाम की पुत्री भी हुई । ये सब पुत्र-पुत्रियाँ अत्यन्त सुख देनेवाले थे । इधर हस्तिनापुर नगर में कौरव वंशी राजा शक्ति राज्य करता था । उसकी शतकी नाम की रानीसे पराशर नाम का पुत्र हुआ । उस पराशरके मत्स्य कुलमें उत्पन्न राजपुत्री रानी सत्यवतीसे बुद्धिमान् व्यास नाम का पुत्र हुआ । व्यासकी स्त्री का नाम सुभद्रा था इसलिए तदनन्तर उन दोनोंके घृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ये तीन पुत्र हुए ॥101-103॥ अथानन्तर-किसी एक समय वज्रमाली नाम का विद्याधर क्रीडा करने के लिए हस्तिनापुरके वन में आया था । वह वहाँ अपने हाथकी अंगूठी भूलकर चला गया । इधर राजा पाण्डु भी उसी वन में घूम रहे थे । इन्हें वह अंगूठी दिखी तो इन्होंने उठा ली । जब उस विद्याधरको अंगूठीका स्मरण आया तब वह लौटकर उसी वन में आया तथा यहाँ वहाँ उसकी खोज करने लगा । उसे ऐसा करते देख पाण्डुने कहा कि आप खोज रहे हैं ? पाण्डुके वचन सुनकर विद्याधरने कहा कि मेरी अंगूठी गिर गई है । इसके उत्तरमें पाण्डुने उसे अंगूठी दिखा दी । पश्चात् पाण्डुने उस विद्याधरसे पूछा कि इससे क्या काम होता है ? उत्तरमें विद्याधरने कहा कि हे भद्र ! यह अंगूठी इच्छानुसार रूप बनानेवाली है । यह सुन कर पाण्डुने प्रार्थना की कि हे भाई ! यदि ऐसा है तो यह अंगूठी कुछ दिन तक मेरे हाथमें रहने दो, मैं इसका प्रभाव देखूँगा । पाण्डुकी इस प्रार्थना पर उस विद्याधरने वह अंगूठी उन्हें दे दी । पाण्डुने उस अंगूठीके द्वारा किये अपने अदृश्य रूप से कुन्तीके साथ समागम किया जिससे उसके कर्ण नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । कुन्तीके परिजनोंने दूसरोंको विदित न होने पावे इस तरह छिपा कर उस बालक को एक संदूकचीमें रक्खा, उसे कुण्डल तथा रत्नोंका कवच पहिनाया और एक परिचायक पत्र साथ रखकर यमुना नदी के प्रवाहमें छोड़ दिया ॥104-111॥ चम्पापुर के राजा आदित्य ने बहती हुई सन्दूकची को मँगाकर जब खोला तो उसके भीतर स्थित बालसूर्य के समान बालक को देखकर वह विस्मयमें पड़ गया । उसने सोचा कि यह पुत्र अपनी रानी राधाके लिए हो जायगा । यह विचार कर उसने वह पुत्र राधाके लिए दे दिया । राधाने जब उस पुत्रको देखा तब वह अपने कर्ण-कानका स्पर्श कर रहा था इसलिए उसने बड़े आदरसे उसका कर्ण नाम रख दिया । यह सब होने के बाद राजा पाण्डुका कुन्ती और माद्रीके साथ पाणिग्रहणपूर्वक प्राजापत्य विवाहसे सम्बन्ध हो गया । कुन्तीके धर्मपुत्र-युधिष्ठिर नाम का धर्मात्मा राजा उत्पन्न हुआ फिर क्रम से भीमसेन और अर्जुन उत्पन्न हुए । उसके ये तीनों पुत्र धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्गके समान जान पड़ते थे । इसी प्रकार माद्रीके ज्येष्ठ पुत्र सहदेव और उसके बाद नकुल उत्पन्न हुआ था ॥112-116॥ धृतराष्ट्र के लिए गान्धारी दी गई थी अत: उन दोनों के सर्व प्रथम दुर्योधन उत्पन्न हुआ । उसके पश्चात् दु:शासन, दुर्घर्षण तथा दुर्मर्षण आदि उत्पन्न हुए । ये सब महाप्रतापी सौ भाई थे । इस तरह सबका काल लीला पूर्वक सुख से व्यतीत हो रहा था ॥117-118॥ किसी दूसरे दिन गन्धमादन नामक पर्वत पर श्री सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज आकर विराजमान हुए । राजा शूरवीर अपने पुत्र पौत्र आदि के साथ उनकी वन्दनाके लिए गया । वहाँ जाकर उसने उनकी पूजा की, स्तुति की और उनके द्वारा कहा हुआ धर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनने से उसका चित्त संसार से भयभीत हो गया अत: उसने अभिषेक कर अन्धकवृष्टिके लिए राज्य दे दिया और 'यह योग्य है' ऐसा समझकर छोटे पुत्र नरवृष्टि के लिए युवराज पद दे दिया । तदनन्तर वह स्वयं संयम धारण कर उत्कृष्ट तपश्चरण करने लगा । अनुक्रम से बारह वर्ष बीत जानेपर वही सुप्रतिष्ठ मुनिराज उसी गन्धमादन पर्वत पर प्रतिमा योग धारण कर पुन: विराजमान हुए । उस समय सुदर्शन नाम के देवने क्रोधवश कुछ उपसर्ग किया परन्तु वे इसके द्वारा किये हुए समस्त उपसर्गको जीतकर तथा समस्त परिषहों को सह कर ध्यान के द्वारा घातिया कर्मों का क्षय करते हुए केवलज्ञानी हो गये ॥119-124॥ उस समय सब देवों के साथ-साथ अन्धकवृष्टि भी उनकी पूजा के लिए गया था । वहाँ उसने आश्चर्य से पूछा कि हे देव ! इस देवने पूजनीय आपके ऊपर यह महान् उपसर्ग किस कारण किया है ? अन्धकवृष्टिके ऐसा कह चुकने पर जिनेन्द्र भगवान् सुप्रतिष्ठ केवली इस प्रकार कहने लगे-इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी कलिंग देशके कान्चीपुर नगर में सूरदत्त और सुदत्त नाम के दो वैश्य पुत्र रहते थे ॥125-127॥ उन दोनोंने लंका आदि द्वीपों में जाकर इच्छानुसार बहुत-सा धन कमाया और लौटकर जब नगर में प्रवेश करने लगे तब उन्हें इस बात का भय लगा कि इस धन पर टैक्स देना पड़ेगा । इस भय से उन्होंने वह धन नगर के बाहर ही किसी झाड़ीके नीचे गाड़ दिया और कुछ पहिचानके लिए चिह्न भी कर दिये । दूसरे दिन कोई एक मनुष्य मदिरा बनानेके लिए उसके योग्य वृक्षोंकी जड़ खोदता हुआ वहाँ पहुँचा । खोदते समय उसे वह भारी धन मिल गया । धन देखकर उसने विचार किया कि जिससे थोड़ा ही लाभ होता है ऐसे इन वृक्षोंकी जड़ोंके उखाड़नेसे क्या लाभ है ? मुझे अब बहुत भारी धन मिल गया है यह मेरी सब दरिद्रताको दूर भगा देगा । मैं मरण पर्यन्त इस धनसे भोगों का सेवन करूँगा, ऐसा विचार वह सब धन लेकर चला गया ॥128-131॥ दूसरे दिन जब वैश्यपुत्र उस स्थान पर आये तो अपना धन नहीं देखकर परस्पर एक दूसरे पर धन लेनेका विश्वास करते हुए लड़ने लगे और परस्पर एक दूसरेको मारते हुए मर गये । वे क्रोध और लोभके कारण नरकायुका बन्धकर पहले नरकमें जा पहुँचे । चिरकाल तक वहाँ के दु:ख भोगनेके बाद वहाँसे निकले और विन्ध्याचलकी गुफामें मेढ़ा हुए । वहाँ भी परस्पर एक दूसरे का वध कर वे गंगा नदी के किनारे बसनेवाले गोकुलमें बैल हुए । वहाँ भी जन्मान्तर के द्वेषके कारण दोनों युद्ध कर मरे और सम्मेदपर्वत पर बुद्धिसे मनुष्यों की समानता करनेवाले वानर हुए ॥132-135॥ वहाँ पर भी पत्थर से निकलनेवाले पानी के कारण दोनों कलह करने लगे । उनमें से एक तो शीघ्र ही मर गया और दूसरा कण्ठगत प्राण हो गया । उसी समय वहाँ सुरगुरू और देवगुरू नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आ पहुँचे । उन्होंने उसे पन्च नमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसे उसने बड़ी उत्सुकतासे सुना और धर्मश्रवणके साथ-साथ मरकर सौधर्म स्वर्ग में चित्रांगद नाम का देव हुआ । वहाँसे निकल कर वह उसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के मध्य में स्तिथ पोदनपुर नगर के स्वामी राजा सुस्थितकी सुलक्षणा नाम की रानीसे उत्कृष्ट बुद्धिका धारक सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ ॥136-139॥ किसी एक समय वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में उसने असित नाम के पर्वत पर दो वानरोंका युद्ध देखा । जिससे उसे अपने पूर्व जन्मकी समस्त चेष्टाओं का स्मरण हो गया ॥140॥ उसी समय उसने सुधर्माचार्य के पास जाकर दीक्षा ले ली । वही सूरदत्तका जीव मैं यह सुप्रतिष्ठ हुआ हूँ । मेरा छोटा भाई सुदत्त संसार में भ्रमण करता हुआ अन्त में सिन्धु नदी के किनारे रहनेवाले मृगायण नामक तपस्वीकी विशाला नाम की स्त्रीसे गोतम नाम का पुत्र हुआ । मिथ्यादर्शनके प्रभाव से वह पंचाग्नियों के मध्य में तपश्चरण कर सुदर्शन नाम का ज्यौतिष्क देव हुआ है । पूर्व भवके वैरके कारण ही इसने मुझ यह उपसर्ग किया है । सुदर्शन देवने उन सुप्रतिष्ठ केवली के वचन बड़े आदर से सुने और सब वैर छोड़कर समीचीन धर्म स्वीकृत किया ॥141-144॥ तदनन्तर राजा अन्धकवृष्टि ने यह सब सुननेके बाद हाथ जोड़कर उन्हीं सुप्रतिष्ठ जिनेन्द्रसे अपने पूर्व भवका सम्बन्ध पूछा ॥145॥ शिष्ट वचन बोलना ही जिनकी वाणीका विशेष गुण है ऐसे वीतराग सुप्रतिष्ठ भगवान् कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि बिना किसी निमित्तके हितकी बात कहना उन जैसोंका स्वाभाविक गुण है ॥146॥ वे कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीप की अयोध्या नगरी में अनन्तवीर्य नाम का राजा रहता था । उसी नगरी में कुबेरके समान सुरेन्द्रदत्त नाम का सेठ रहता था । वह सेठ प्रतिदिन दश दीनारोंसे, अष्टमीको सोलह दीनारोंसे, अमावसको चालीस दीनारोंसे और चतुर्दशीको अस्सी दीनारोंसे अर्हन्त भगवान् की पूजा करता था । वह इस तरह खर्च करता था, पात्र दान देता था, शील पालन करता था और उपवास करता था । इन्हीं सब कारणों से पापरहित उस सेठने 'धर्मशील' इस तरहकी प्रसिद्धि प्राप्त की थी । किसी एक दिन उस सेठने जलमार्गसे जाकर धन कमानेकी इच्छा की । उसने बारह वर्ष तक लौट आनेका विचार किया था इसलिए बारह वर्ष तक भगवान् की पूजा करने के लिए जितना धन आवश्यक था उतना धन उसने अपने मित्र रूद्रदत्त ब्राह्मणके हाथमें सौंप दिया और कह दिया कि इससे तुम जिनपूजा आदि कार्य करते रहना क्योंकि आप मेरे ही समान हैं ॥147-152॥ सेठ के चले जाने पर रूद्रदत्त ब्राह्मण ने वह समस्त धन परस्त्रीसेवन तथा जुआ आदि व्यसनोंके द्वारा कुछ ही दिनोंमें खर्च कर डाला ॥ 153॥ तदनन्तर वह चोरी आदि में आसक्त हो गया । श्येनक नामक कोतवाल ने उसे चोरी करते हुए एक रात में देख लिया । देखकर कोतवालने कहा कि चूँकि तू ब्राह्मण नाम को धारण करता है अत: मैं तुझे मारता नहीं हूं, तू इस नगरसे चला जा, यदि अब फिर कभी ऐसा दुष्कर्म करता हुआ दिखेगा तो अवश्य ही मेरे द्वारा यमराज के मुख में भेज दिया जायगा-मारा जायगा ॥154-155॥ यह कहकर कोतवाल ने उसे डाँटा । रूद्रदत्त भी, वहाँसे निकल कर उल्कामुखी पर रहनेवाले भीलोंके स्वामी पापी कालकसे जा मिला ॥156॥ वह रूद्रदत्त किसी समय अयोध्या नगरी में गायों के समूह का अपहरण करने के लिए आया था उसी समय श्येनक कोतवालके द्वारा मारा जाकर वह महापाप के कारण अधोगतिमें गया ॥157॥ वहाँ से निकल कर महामच्छ हुआ फिर नरक गया, वहाँसे आकर सिंह हुआ, फिर नरक गया, वहाँसे आकर दृष्टिविष नाम का सर्प हुआ फिर नरक गया, वहाँसे आकर शार्दूल हुआ फिर नरक गया, वहाँ से आकर गरूड़ हुआ फिर नरक गया और वहाँ से आकर सर्प हुआ फिर नरक गया और वहाँसे आकर भील हुआ । इस प्रकार समस्त नरकों में जाकर वहाँसे बड़े कष्टसे निकला और त्रस स्थावर योनियोंमें चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥158-159॥ अन्त में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी कुरूजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में जब राजा धनन्जय राज्य करते थे तब गोतम गोत्री कपिष्टल नामक ब्राह्मण की अनुन्धरी नाम की स्त्री से वह रूद्रदत्तका जीव गोतम नाम का महादरिद्र पुत्र हुआ । उत्पन्न होते ही उसका समस्त कुल नष्ट हो गया । उसे खानेके लिए अन्न नहीं मिलता था, उसका पेट सूख गया था, हड्डियाँ निकल आई थीं, नसों से लिपटा हुआ उसका शरीर बहुत बुरा मालूम होता था, उसके बाल जुओंसे भरे थे, वह जहाँ कहीं सोता था वहीं लोग उसे फटकार बतलाते थे, वह अपने शरीर की स्थितिके लिए कभी अलग नहीं होनेवाले श्रेष्ठ मित्र के समान अपने हाथ के अग्रभाग में खप्पर लिये रहता था ॥160-164॥ वान्छित रस के समान वह सदा 'देओ देओ' ऐसे शब्दों से केवल भिक्षा के द्वारा सन्तोष प्राप्त करनेका लोलुप रहता था परन्तु इतना अभागा था कि भिक्षासे कभी उसका पेट नहीं भरता था । जिस प्रकार पर्वके दिनोंमें कौआ बलिको ढूँढ़नेके लिए इधर-उधर फिरा करता है इसी प्रकार वह भी भिक्षाके लिए इधर-उधर भटकता रहता था । वह मुनियों के समान शीत, उष्ण तथा वायुकी बाधाको बार-बार सहता था, वह सदा मलिन रहता था, केवल जिह्वा इन्द्रिय के विषय की ही इच्छा रखता था, अन्य सब इन्द्रियो के विषय उसके छूट गये थे । जिस प्रकार राजा सदा दण्डधारी रहता है-अन्यथा प्रवृत्ति करने वालों को दण्ड देता है उसी प्रकार वह भी सदा दण्डधारी रहता था-हाथ में लाठी लिये रहता था ॥165-167॥ 'सातवें नरक में उत्पन्न हुए नारकियों का रूप ऐसा होता है' यहाँ के लोगों को यह बतलानेके लिए ही मानो विधाता ने उसकी सृष्टि की थी । वह उडद अथवा स्याही जैसा रंग धारण करता था । अथवा ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य के भय से मानो अन्धकारका समूह मनुष्यका रूप रखकर चल रहा हो। वह अत्यंत घृणित था, पापी था, यदि उसे कहीं कण्ठपर्यन्त पूर्ण आहार भी मिल जाता था तो नेत्रों से वह अतृप्त जैसा ही मालूम होता, वह जीर्ण शीर्ण तथा छेदवाले अशुभ वस्त्र अपनी कमरसे लपेटे रहता था, उसके शरीर पर बहुतसे घाव हो गये थे, उनकी बड़ी दुर्गन्ध आती थी तथा भिनभिनाती हुई अनेक मक्खियाँ उसे सदा घेरे रहती थीं, कभी हटती नहीं थीं, उन मक्खियों से उसे क्रोध भी बहुत पैदा होता था । नगर के बालकोंके समूह सदा उसके पीछे लगे रहते थे और पत्थर आदिके प्रहारसे उसे पीड़ा पहुँचाते थे, वह झुँझला कर उन बालकोंका पीछा भी करता था परन्तु बीच में ही गिर पड़ता था । इस प्रकार बड़े कष्टसे समय बिता रहा था । किसी एक समय कालादि लब्धियोंकी अनुकूल प्राप्तिसे वह आहारके लिए नगर में भ्रमण करनेवाले समुद्रसेन नाम के मुनिराज के पीछे लग गया । वैश्रवण सेठ के यहाँ मुनिराजका आहार हुआ । सेठने उस गोतम ब्राह्मण को भी कण्ठ पर्यन्त पूर्ण भोजन करा दिया । भोजन करने के बाद भी वह मुनिराज के आश्रममें जा पहुँचा और कहने लगा कि आप मुझे भी अपने जैसा बना लीजिये । मुनिराजने उसके वचन सुनकर पहले तो यह निश्चय किया यह वास्तवमें भव्य है फिर उसे कुछ दिन तक अपने पास रखकर उसके ह्णदयकी परख की । तदनन्तर उन्होंने उसे शान्तिका साधन भूत संयम ग्रहण करा दिया ॥168-176॥ बुद्धि आदिक ऋद्धियाँ भी उसे एक वर्ष के बाद ही प्राप्त हो गईं । अब वह गोतम नाम के साथ ही साथ गुरूके स्थानको प्राप्त हो गया-उनके समान बन गया ॥177 ॥ आयु के अन्त में उसके गुरू मध्यम-ग्रैवेयक के सुविशाल नाम के उपरितन विमान में अहमिन्द्र हुए और श्री गोतम मुनिराज भी आयु के अन्त में विधिपूर्वक आराधनाओं की आराधनासे अच्छी तरह समाधिमरण कर उसी मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल विमान में अहमिन्द्र पदको प्राप्त हुए ॥178-179॥ वहाँ के दिव्य सुख का उपभोग कर वह ब्राह्मण मुनि का जीव अट्ठाईस सागर की आयु पूर्ण होने पर वहाँसे च्युत हुआ और तू अन्धकवृष्टि नाम का राजा हुआ है । इस प्रकार अपने भवोंका अनुभव करता हुआ बुद्धिमान् अन्धकवृष्टि फिर भगवान् से अपने पुत्रों के भवोंका सम्बन्ध पूछने लगा ॥180-181॥ वे भगवान् भी सर्वभाषा रूप परिणमन करनेवाली अपनी दिव्य ध्वनि से इस प्रकार कहने लगे-जम्बूद्वीप के मंगला देशमें एक भद्रिलपुर नाम का नगर है । उसमें मेघरथ नाम का राजा राज्य करता था । उसकी देवीका नाम सुभद्रा था । उन दोनोंके दृढ़रथ नाम का पुत्र हुआ । अपने पुण्योदय से उसने यौवराज्य का पट्ट धारण किया था । उसी भद्रिलपुर नगर में एक धनदत्त नाम का सेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम नन्दयशा था । उन दोनोंके धनपाल, देवपाल, जिनदेव, जिनपाल, अर्हद्दत्त, अर्हद्दास, सातवाँ जिनदत्त, आठवाँ प्रियमित्र और नौवाँ धर्मरूचि ये नौ पुत्र हुए थे । इनके सिवाय प्रियदर्शना और ज्येष्ठा ये दो पुत्रियाँ भी हुई थीं ॥182-186॥ किसी एक समय सुदर्शन नाम के वन में मन्दिरस्थविर नाम के मुनिराज पधारे । राजा मेघरथ और सेठ धनदत्त दोनों ही अपने पुत्र-पौत्रादिसे परिवृत होकर उनके पास गये । राजा मेघरथ क्रिया सहित धर्म का स्वरूप सुनकर विरक्त हो गया अत: अभिषेक पूर्वक दृढ़रथ नामक पुत्र के लिए अपना पद देकर उसने संयम धारण कर लिया । तदनन्तर धनदत्त सेठने भी अपने नौ पुत्रों के साथ संयम ग्रहण कर लिया । नन्दयशा सेठानी भी अपनी दोनों पुत्रियोंके साथ सुदर्शना नाम की आर्यिकाके पास गई और शीघ्र ही संसार के स्वरूपका निर्णय कर उसने भी तप धारण कर लिया-क्रम क्रम से विहार करते हुए वे सब बनारस पहुँचे और वहाँ बाहर अत्यन्त सुन्दर वृक्षोंसे युक्त प्रियंगुखण्ड नाम के वन में जा विराजमान हुए। वहाँ सबके गुरू मन्दिरस्थविर, मेघरथ राजा और धनदत्त सेठ तीनों ही मुनि ध्यान कर केवलज्ञानी हो गये । तदनन्तर निरन्तर धर्मामृतकी वर्षा करते हुए वे तीनों, तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा पूज्य होकर आयु के अन्त में राजगृह नगर के समीप सिद्ध शिलासे सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए । किसी दूसरे दिन धनदेव आदि नौ भाई, दोनों बहिनों और नन्दयशाने उसी शिलातलपर विधिपूर्वक संन्यास धारण किया । पुत्र-पुत्रियों से युक्त नन्दयशाने उन्हें देखकर निदान किया कि 'जिस प्रकार ये सब इस जन्ममें मेरे पुत्र-पुत्रियाँ हुई हैं उसी प्रकार परजन्ममें भी मेरे ही पुत्र-पुत्रियाँ हों और इन सबके साथ मेरा सम्बन्ध इस जन्मकी तरह पर-जन्ममें भी बना रहें। ऐसा निदान कर उसने स्वयं संन्यास धारण कर लिया और मर कर उन सबके साथ आनत स्वर्गके शातंकर नामक विमान में उत्पन्न हो वहाँ के भोग भोगने लगी । वहाँ उसकी बीस सागर की आयु थी । आयुपूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर वह तुम्हारी सुभद्रा नाम की रानी हुई है, धनदेव आदि प्रसिद्ध पौरूषके धारक समुद्रविजय आदि पुत्र हुए हैं तथा प्रियदर्शना और ज्येष्ठा नामक पुत्रियोंके जीव अतिशय प्रसिद्ध कुन्ती माद्री हुए हैं । यह सब सुननेके बाद राजा अन्धकवृष्टिने अब सुप्रतिष्ठ जिनेन्द्रसे वसुदेवकी भवावली पूछी ॥187-198॥ जिनराज भी वसुदेवकी शुभ भवावली अपनी गम्भीर भाषा द्वारा इस प्रकार कहने लगे सो ठीक ही हैं क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है कि जिससे भव्य जीवोंका सदा अनुग्रह होता है ॥199॥ वे कहने लगे कि कुरूदेश के पलाशकूट नामक गाँव में एक सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था । वह जन्मसे ही दरिद्र था । उसके नन्दी नाम का एक लड़का था । नन्दीके मामाका नाम देवशर्मा था । उसके सात पुत्रियाँ थीं । नन्दी अपने मामाकी पुत्रियाँ प्राप्त करना चाहता था इसलिए सदा उसके साथ लगा रहता था परन्तु पुण्यहीन होने के कारण देवशर्माने वे पुत्रियाँ उसके लिए न देकर किसी दूसरेके लिए दे दीं । पुत्रियोंके न मिलनेसे नन्दी बहुत दु:खी हुआ ॥200-202॥ तदनन्तर किसी दूसरे दिन वह कौतुकवश नटों का खेल देखने के लिए गया । वहाँ बड़े-बड़े बलवान् योद्धाओंकी भीड़ थी जिसे वह सहन नहीं कर सका किन्तु उसके विपरीत गिर पड़ा । उसे गिरा हुआ देख दूसरे लोग परस्पर ताली पीट कर उसकी हँसी करने लगे । इस घटनासे उसे बहुत ही लज्जा हुई और वह किसी पर्वत की शिखरसे नीचे गिरनेका उद्यम करने लगा ॥203-204॥ पर्वत की शिखर पर चढ़कर वह टाँकी से कटी हुई एक शिला पर खड़ा हो गया और गिरनेका विचार करने लगा परन्तु भयके कारण गिर नहीं सका, वह बार-बार गिरनेके लिए तैयार होता और बार-बार पीछे हट जाता था ॥205॥ उसी पर्वत के नीचे पृथिवी तल पर द्रुमषेण नाम के मुनिराज विराजमान थे वे मति, श्रुत अवधि इन तीन ज्ञानों से सहित थे, शंख और निर्नामिक नाम के दो मुनि उनके पास ही बैठे हुए थे उन्होंने द्रुमषेण मुनिराजसे आदरके साथ पूछा कि यह छाया किसकी है ? उन्होंने उत्तर दिया कि जिसकी यह छाया है वह इससे तीसरे भवमें तुम दोनोंका पिता होगा ॥206-207॥ गुरू की बात सुनकर उसके दोनों होनहार पुत्र नन्दी के पास जाकर पूछने लगे कि 'हे भाई ! तुझे यह मरण का आग्रह क्यों हो रहा है ? यदि तू इस मरणसे भाग्य तथा सौभाग्य आदि चाहता है तो यह सब तुझे तपकी सिद्धिसे प्राप्त हो जावेगा' इस प्रकार समझा कर उन्होंने उसे तप ग्रहण करा दिया ॥208-209॥ वह नन्दी भी चिरकाल तक तपश्चरण कर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ; वहाँ सोलह सागर की आयु प्रमाण मनोवांछित सुख का उपभोग करता रहा । तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर पृथिवीको वश करने के लिए वसुदेव हुआ है । बलभद्र और नारायणकी उत्पत्ति इसीसे होगी ॥210-211॥ महाराज अन्धकवृष्टि यह सब सुनकर संसार से भयभीत हो उठे । वे विद्याधन तो थे ही, अत: परमपद-मोक्षपद प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने अभिषेकपूर्वक समुद्रविजयके लिए राज्य दे दिया और स्वयं समस्त परिग्रह छोड़कर शान्तचित्त हो उन्हीं सुप्रतिष्ठित जिनेन्द्र के समीप बहुतसे राजाओं के साथ तप धारण कर लिया । संयम धारण कर अन्त में उन्होंने संन्यास धारण किया और कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लिया ॥212-214॥ इधर समुद्रविजय पृथिवी का पालन करने लगे । उनके राज्यमें समस्त वर्णों और समस्त आश्रमोंके लोग, उत्तम धर्मके कार्योंमें इच्छानुसार सुखपूर्वक यथायोग्य प्रवृत्ति करते थे ॥215॥ राजा समुद्रविजय राज्य का यथायोग्य विभाग कर दिक्पालों के समान अपने आठों भाइयोंके साथ सर्व प्रकार का सुख देनेवाले राज्य का उपभोग करते थे ॥216॥ इस प्रकार पुण्योदय से उन सबका काल सुख से बीत रहा था । इन सबमें वसुदेव सबसे अधिक युवा थे इसलिए वे अपनी लीला दिखानेकी उत्कण्ठासे प्रतिदिन स्वेच्छानुसार गन्धवारण नामक हाथीपर सवार होकर नगर के बाहर जाते थे । उस समय चतुरंग सेना उनके साथ रहती थी, चमरोंके समूह उनके आस-पास ढुराये जाते थे, बजते हुए समस्त बाजोंका ऐसा जोरदार शब्द होता था जिससे कि दिशाओं के किनारे फटेसे जाते थे, वन्दी, मागध तथा सूत आदि लोग उनकी विरूदावलीका वर्णन करते जाते थे, अनेक प्रकार के आभरणोंकी कान्ति के समूह से उनका शरीर देदीप्यमान रहता था जिससे ऐसा जान पड़ता था कि मानो अपने तेज से सूर्य का निग्रह करने के लिए ही उद्यत हो रहे हैं, अथवा भूषणांग जातिके कल्पवृक्षका तिरस्कार करने के लिए ही तैयारी कर रहे हों । उस समय वे देवों के कुमार के समान जान पड़ते थे इसलिए नगरकी स्त्रियाँ इन्हें देखकर अपना अपना कार्य भूल जाती थीं और अपनी मामी आदिके रोकनेमें निरादर हो जाती थीं-किसी के निषेध करने पर भी नहीं मानती थीं ॥217-222॥ इस तरह कुमार वसुदेव के निकलने से नगरनिवासी लोग दु:खी होने लगे इसलिए एक दिन उन्होंने यह समाचार महाराज समुद्रविजयके पास जाकर निवेदन किया ॥223॥ नगर-निवासियोंकी बात सुनकर भाईके स्नेहसे भरे हुए महाराज समुद्रविजयने विचार किया कि यदि इसे स्पष्ट ही मना किया जाता है तो संभव है यह विमुख हो जावेगा । इसलिए उन्होंने कुमार वसुदेव को एकान्तमें बुलाकर कहा कि 'हे कुमार ! तुम्हारे शरीर की कान्ति आज बदली-सी मालूम होती है इसलिए तुम्हें ठण्डी हवा आदिमें यह व्यर्थका भ्रमण छोड़ देना चाहिए । यदि भ्रमणकी इच्छा ही है तो राजभवन के चारों ओर धारागृह, मनोहर-वन, राज-मन्दिर, तथा कृत्रिम पर्वत आदि पर जहाँ इच्छा हो मन्त्रियों, सामन्तों, प्रधान योद्धाओं अथवा महामन्त्रियोंके पुत्रों आदिके साथ भ्रमण करो ।' महाराज वसुदेवकी बात सुनकर कुमार वसुदेव ऐसा ही करने लगे सो ठीक ही है क्योंकि शुद्ध बुद्धिवाले पुरूष आप्तजनों के वचनों को अमृत जैसा ग्रहण करते हैं ॥224-228॥ कुमार इस प्रकार राजमन्दिर के आसपास ही भ्रमण करने लगे । एक दिन जिसे बहुत बोलनेकी आदत थी और जो स्वेच्छानुसार आचरण करने में उत्सुक रहता था ऐसा निपुणमति नाम का सेवक कुमार वसुदेवसे कहने लगा कि इस उपायसे महाराजने आपको बाहर निकलनेसे रोका है । कुमार ने भी उस सेवकसे पूछा कि महाराजने ऐसा क्यों किया है ? उत्तरमें वह कहने लगा कि जब आप बाहर निकलते हैं तब आपका सुन्दर रूप देखने से नगरकी स्त्रियोंका चारित्र शिथिल हो जाता है, वे काम से आकुल हो जाती हैं, लज्जा छोड़ देती है, विपरीत चेष्टाएँ करने लगती हैं, कन्याएँ सधवाएँ और विधवाएँ सभी मदिरा पी हुईंके समान हो जाती हैं, कितनी ही स्त्रियोंका सब शरीर पसीनासे तरबतर हो जाता है; कितनी ही स्त्रियों के नेत्र आधे खुले रह जाते हैं, कितनी ही स्त्रियाँ पहननेके वस्त्र छोड़ देती हैं, कितनी ही भोजन छोड़ देती हैं, कितनी ही गुरूजनोंका तिरस्कार कर बैठती हैं, कितनी ही रक्षकोंको ललकार देती हैं, कितनी ही अपने पतियोंकी उपेक्षा कर देती हैं, कितनी ही पुत्रोंकी परवाह नहीं करती हैं, कितनी ही पुत्रोंको बन्दर समझ कर दूर फेंक देती हैं, कितनी ही कम्बलको ही उत्तम वस्त्र समझकर पहिन लेती हैं, कितनी कीचड़को अंगराग समझकर शरीर पर लपेट लेती हैं और कितनी ही ललाटको नेत्र समझ कर उसी पर कज्जल लगा लेती हैं । अपनी-अपनी समस्त स्त्रियोंकी ऐसी विपरीत चेष्टा देख समस्त नगरनिवासी बड़े दु:खी हुए और उन्होंने शब्दों द्वारा महाराजसे इस बात का निवेदन किया । महाराजने भी इस उपायसे आपकी ऐसी व्यवस्था की है । निपुणमति सेवककी बात सुनकर उसकी परीक्षा करने के लिए कुमार वसुदेव ज्यों ही राजमन्दिरसे बाहर जाने लगे त्यों ही द्वारपालोंने यह कहते हुए मना कर दिया कि 'देव ! हम लोगों को आपके बड़े भाईकी ऐसी ही आज्ञा है कि कुमार को बाहर नहीं जाने दिया जावे।' द्वारपालोंकी उक्त बात सुनकर कुमार वसुदेव उस समय तो रूक गये परन्तु दूसरे ही दिन समुद्रविजय आदि से कुछ कहे बिना ही अपयशके भय से विद्या सिद्ध करने के बहाने अकेले ही श्मशानमें गये और वहाँ जाकर माताके नाम एक पत्र लिखा कि 'वसुदेव अकीर्तिके भय से महाज्वालाओं वाली अग्निमें गिरकर मर गया है।' यह पत्र लिखकर घोड़ेके गले में बाँध दिया, उसे वहीं छोड़ दिया और स्वयं जिसमें मुर्दा जल रहा था ऐसी अग्निकी प्रदक्षिणा देकर रात्रिमें ही शीघ्रता से किसी अलक्षित मार्ग से चले गये ॥229-243॥ तदनन्तर सूर्योदय होने पर जब उनके प्रधान प्रधान रक्षकों ने राजमन्दिरमें कुमार वसुदेव को नहीं देखा तो उन्होंने राजा समुद्रविजयको खबर दी और उनकी आज्ञानुसार अनेक लोगों के साथ उन्हें खोजने के लिए वे रक्षक लोग इधर-उधर घूमने लगे । कुछ समय बाद उन्होंने श्मशानमें जला हुआ मुर्दा और उसी के आस पास घूमता हुआ कुमार वसुदेवका घोड़ा देखा ॥244-245॥ घोड़ाके गले में जो पत्र बँधा था उसे लेकर उन्होंने राजा समुद्रविजयके लिए सौंपा दिया । पत्रमें लिखा हुआ समाचार सुनकर समुद्रविजय आदि भाई तथा अन्य राजा लोग सभी शोक से अत्यन्त दु:खी हुए परन्तु निमित्तज्ञानीने जब कुमार वसुदेव के योग्य और क्षेमका वर्णन किया तो उसे जानकर सब शान्त हो गये ॥246-247॥ राजा समुद्रविजय ने उसी समय स्नेह वश, बहुतसे हितैषी तथा चतुर सेवकोंको कुमार वसुदेवकी खोज करने के लिए भेजा ॥248॥ इधर कुमार वसुदेव विजयपुर नामक गाँव में पहुँचे और विश्राम करने के लिए अशोक वृक्ष के नीचे बैठ गये । कुमार के बैठनेसे उस वृक्ष की छाया स्थिर हो गई थी उसे देख कर वागवान् ने सोचा कि उस निमित्तज्ञानीके वचन सत्य निकले । ऐसा विचार कर उसने मगधदेशके राजा को इसकी खबर दी और राजा ने भी अपनी श्यामला नाम की कन्या कुमार वसुदेव के लिए समर्पित की । कुमार ने कुछ दिन तक तो वहाँ विश्राम किया, तदनन्तर वहाँसे आगे चल दिया । अब वे देवदारू वन में पुष्परम्य नामक कमलोंके सरोवरके पास पहुँचे और वहाँ किसी जंगली हाथी के साथ क्रीड़ा कर बड़ी प्रसन्नतासे उसपर सवार हो गये ॥249-252॥ उसी समय किसी विद्याधर ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और हाथीसे उठाकर उन पुण्यात्माको अकस्मात् ही विजयार्ध पर्वत पर पहुँचा दिया ॥253॥ वहाँ किन्नरगीत नाम के नगर में राजा अशनिवेग रहता था उसकी शाल्मलिदत्ता नाम की एक पुत्री थी जो कि पवनवेगा स्त्रीसे उत्पन्न हुई थी और दूसरी रतिके समान जान पड़ती थी । अशनिवेगने वह कन्या कुमार वसुदेव के लिए समर्पित कर दी । कुमार ने भी उसे विवाह कर उसके साथ स्मरणके भी अगोचर कामसुख का अनुभव किया और कुछ दिन तक वहीं विश्राम किया । तदनन्तर जब कुमार ने वहाँसे जानेकी इच्छा की तब अशनिवेगका दायाद (उत्तराधिकारी) अंगारवेग उन्हें जानेके लिए उद्यत देख उठाकर आकाश में ले गया । इधर शाल्मलिदत्ताको जब पता चला तो उससे नंगी तलवार हाथमें लेकर उसका पीछा किया । शाल्मलिदत्ताके भय से अंगारवेग कुमार को छोड़कर भाग गया । कुमार नीचे गिरना ही चाहते थे कि उसकी प्रिया शाल्मलिदत्ताके द्वारा भेजी हुई पर्णलध्वी नाम की विद्याने उन्हें चम्पापुरके सरोवरके मध्य में वर्तमान द्वीप पर धीरे-धीरे उतार दिया। वहाँ आकर कुमार ने किनारे पर रहनेवाले लोगोंसे पूछा कि इस द्वीपसे बाहर निकलनेका मार्ग क्या है ? आप लोग मुझे बतलाइए । तब लोगोंने कुमारसे कहा कि क्या आप आकाश से पड़े हैं ? जिससे कि निकलनेका मार्ग नहीं जानते । कुमार ने उत्तर दिया कि आप लोगोंने ठीक जाना है सचमुच ही मैं आकाश से पड़ा हूँ । कुमारका उत्तर सुनकर सब लोग हँसने लगे और 'इस मार्ग के द्वारा आप जलसे बाहिर निकल आइए' ऐसा कह कर उन्होंने मार्ग दिखा दिया । कुमार उसी मार्गसे निकल कर नगर में प्रवृष्ट हुए और मनोहर नामक गन्धर्वविद्याके गुरूके पास जा बैठे । गन्धर्वद्त्ताको स्वयंवरमें जीतनेके लिए उनके पास बहुतसे शिष्य वीणा बजाना सीख रहे थे । उन्हें देख तथा अपने वीणाविषयक ज्ञान को छिपाकर कुमार मूर्खकी तरह बन गये और कहने लगे कि मैं भी इन लोगों के साथ वीणा बजाने का अभ्यास करता हूं । ऐसा कह कर उन्होंने एक वीणा ले ली । पहले तो उसकी तन्त्री तोड़ डाली और फिर तूँबा फोड़ दिया । उनकी इस क्रियाको देख लोग अत्यधिक हँसने लगे और कहने लगे कि इसकी धृष्टताको तो देखो । कुमार वसुदेवसे भी उन्होंने कहा कि तुम ऐसे चतुर हो, जान पड़ता है कि गन्धर्वदत्ताके तुम्हीं पति होओगे और हम सबको गाने-बजानेकी कलामें हरा दोगे ॥254-266॥ इस प्रकार कुमार वसुदेव वहाँ कुछ समय तक स्थित रहे । तदननतर गन्धर्वदत्ताके स्वयंवरमें उत्सुक हुए भूमिगोचरी और विद्याधर लोग एकत्रित होने लगे ॥267॥ गाने बजाने की कलाका रूप धारण करनेवाली गन्धर्वदत्ताने स्वयंवर शालामें आये हुए बहुतसे लोगों को अपने गाने-बजानेके द्वारा तत्काल जीत लिया ॥268॥ वहाँ जो चारूदत्त आदि मुख्य मुख्य श्रोता बैठे थे वे सब उस गन्धर्वदत्ताकी प्रशंसा कर रहे थे और कह रहे थे कि उसका कला-कौशल बड़ा ही विलक्षण है-सबसे अद्भूत है ॥269॥ तदनन्तर वसुदेव भी अपने गुरू से पूछकर कन्याके पास गये और कहने लगे कि ऐसी वीणा लाओ जिसमें एक भी दोष नहीं हो ॥270॥ लोगोंने तीन चार वीणाएँ वसुदेव के हाथ में सौंप दीं । वसुदेव ने उन्हें देखकर हँसते हुए कहा कि इन वीणाओंकी ताँतमें लोमांस नाम का दोष है और तुम्बीफल तथा दण्डोंमें शल्क एवं पाषाण नाम का दोष है । उन्होंने यह कहा ही नहीं किन्तु प्रकट करके दिखला भी दिया। यह देख कन्याने कहा कि तो फिर आप कैसी वीणा चाहते हैं ? इसके उत्तरमें कुमार ने कहा कि मुझे जो वीणा इष्ट है उसका समागम इस प्रकार हुआ था । ऐसा कहकर उन्होंने निम्नांकित कथा सुनाई ॥271-273॥ हस्तिनापुर के राजा मेघरथ के पद्मावती रानी से विष्णु और पद्मरथ नाम के दो पुत्र हुए थे ॥274॥ कुछ समय बाद राजा मेघरथ तो विष्णुकुमार पुत्र के साथ तप करने लगे और पद्मरथ राज्य करने लगा । किसी अन्य समय समीपवर्ती किसी राजा ने राज्यमें क्षोभ उत्पन्न किया जिसे प्रधान मन्त्री वलिने साम आदि उपायों से शान्त कर दिया । राजा पद्मरथने वलिके कार्यसे सन्तुष्ट होकर कहा कि 'तुझे क्या इष्ट है ? तू क्या चाहता है ?' सो कह ! उत्तरमें वलिने कहा कि मैं सात दिन तक राज्य करना चाहता हूँ । राजा ने भी वलिकी इस माँगको जीर्णतृणके समान तुच्छ समझ उसे सात दिनका राज्य देना स्वीकृत कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि जो किये हुए उपकार को जानते हैं अर्थात् कृतज्ञ हैं वे उपकार करनेवालेके लिए क्या नहीं देते हैं ? ॥275-278॥ उसी समय अकम्पन गुरू आदि मुनियों के समूहने हस्तिनापुर आकर वहाँके सौम्य पर्वत पर आतापन योग धारण कर लिया । पहले जब वलि मन्त्री उज्जयिनी नगरी में रहता था तब उसे अकम्पन गुरूने शास्त्रार्थके समय विद्वानों की सभा में जीत लिया था इसलिए वह पापी क्रोधसे उनका घात करना चाहता था ॥279-280॥ पापी वलि मन्त्री ने यज्ञ का बहाना कर उस सौम्य पर्वत के चारों ओर याचकों को दान देने तथा देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिए पाक अर्थात् रसोई बनवाना शुरू किया जिससे धुआँ तथा ज्वालाओं का समूह चारों ओर फैलने लगा । जब मुनिराज विष्णुकुमार को इस उपसर्गका पता चला तो वे आकर राजा पद्मरथके पास गये और वीतराग आसन पर बैठ गये । राजा पद्मरथ ने उनकी वन्दना की, पूजा की तथा कहा कि मुझसे क्या कार्य है ? ॥281-283॥ मुनिराज विष्णुकुमार ने राजा पद्मरथ से कहा कि तुम्हारे मन्त्री ने आतप योग धारण करनेवाले मुनियों के लिए उपसर्ग कर रक्खा है उसे तुम शीघ्र ही दूर करो ॥284॥ उत्तर में राजा ने कहा कि मैं उसके लिए सात दिन का राज्य देना स्वीकृत कर चुका हूं अत: सत्यव्रत के खण्डित होने के भय से मैं उसे नहीं रोक सकता । हे पूज्य ! इस दुष्ट का इस समय आप ही निवारण कीजिए । स्वच्छन्द रहनेवाले दुष्ट जन योग्य और अयोग्य चेष्टाओं को-अच्छे-बुरे कार्योंको नहीं जानते हैं ॥285-286॥ राजा पद्मरथ ने ऐसा उत्तर दिया, उसे सुनकर मुनिराजने कहा कि तो मैं ही शीघ्र नष्ट होनेवाले इस पापी को मना करता हूं ॥287॥ इतना कहकर वे महामुनि वामन (बौंने) ब्राह्मण का रूप रखकर वलिके पास पहुँचे और आशीर्वाद देते हुए बोले कि हे महाभाग ! आज तू दाताओंमें मुख्य है इसलिए मैं तेरे पास आया हूं तू मुझे भी कुछ दे । उत्तरमें वलिने इष्ट वस्तु देना स्वीकृत कर लिया । तदनन्तर ब्राह्मण वेषधारी विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि हे राजन्, मैं अपने पैरसे तीन पैर पृथिवी चाहता हूं यही तू मुझे दे दे । ब्राह्मणकी बात सुनकर वलिने कहा कि 'यह तो बहुत थोडा क्षेत्र है इतना ही क्यों माँगा ? ले लो', इतना कहकर उसने ब्राह्मणके हाथमें जलधारा छोड़कर तीन पैर पृथिवी दे दी । फिर क्या था ? मुनिराजने विक्रियाऋद्धिसे फैला कर एक पैर तो मानुषोत्तर पर्वत की ऊँची शिखर पर रक्खा और देदीप्यमान कान्तिका धारक दूसरा पैर सुमेरू पर्वत की चूलिका पर रक्खा ॥288-292॥ उस समय विद्याधर और भूमिगोचरी सभी स्तुति कर मुनिराजसे कहने लगे कि हे प्रभो ! अपने चरणोंको संकोच लीजिए, वृथा ही संसारका कारणभूत क्रोध नहीं कीजिए ॥293॥ इस प्रकार संगीत और वीणा आदि से मुखर हुए भूमिगोचरियों और विद्याधरों ने शीघ्र ही उन मुनिराजको प्रसन्न कर लिया और उन्होंने भी अपने दोनों चरण संकोच लिये ॥294॥ उस समय उनका लक्षण-सहित संगीत सुनकर देव लोग बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अच्छे स्वर वाली घोषा, सुघोषा, महाघोषा और घोषपती नाम की चार वीणाएँ दीं । उन वीणाओं मेंसे देवों ने यथा-क्रम से दो वीणाएँ तो विद्याधरोंकी दी थीं और दो वीणाएँ भूमिगोचरियोंको दी थीं ॥295-296॥ तदनन्तर उन मुनिराज ने वलि से कहा कि मुझ ब्राह्मण ने तुझसे व्यर्थ ही याचना की क्योंकि तीसरा चरण रखनेके लिए अवकाश ही नहीं है । यह कहकर बलवान् विष्णुकुमार मुनिराजने उस दुराचारी वलिको शीघ्र ही बाँध लिया और अकम्पन आदि मुनियों के उस दु:सह उपसर्गको दूर कर दिया ॥297-298॥ बँधे हुए वलि को मारने के लिए राजा पद्मरथ उद्यत हुए परन्तु मुनिराजने उसे मना कर दिया और प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने वलिको समीचीन धर्म ग्रहण कराया । इस प्रकार धर्म की प्रभावना करनेवाले बुद्धिमान् मुहामुनिकी राजा पद्मरथने पूजा की । तदनन्तर वे अपने स्थान पर चले गये ॥299-300॥ यह सब कथा कहने के बाद कुमार वसुदेव ने गन्धर्वदत्ता से कहा कि देवों के द्वारा दी हुई चार वीणाओंमें से घोषवती नाम की वीणा आपके इस वंश में समागमको प्राप्त हुई थी अत: आप वही शुभ वीणा मेरे लिए मँगाइए ॥301॥ इस प्रकार कहने वाले वसुदेव के लिए उन लोगों ने वही वीणा लाकर दी । वसुदेवने उसी वीणाके द्वारा गा बजाकर सब श्रोताओं का चित्त प्रसन्न कर दिया । गन्धर्वदत्ता वसुदेवकी वीणा बजानेमें बहुत भारी कुशलता देखकर प्रसन्न हुई और उसने अच्छे कण्ठवाले तथा समस्त राजाओं को कुण्ठित करनेवाले कुमार वसुदेव के गलेमें अपने आपकी तरह माला समर्पित कर दी सो ठीक ही है क्योंकि पूर्व पर्यायमें पुण्य करनेवाले लोगों को बड़ी-बड़ी ऋद्धियाँ स्वयं आकर मिल जाती है ॥302-304॥ इसके बाद सबने हर्षित होकर वसुदेव का कल्याणाभिषेक किया । इसी तरह विद्याधरोंकी श्रेणियों अर्थात् विजयार्ध पर्वत पर जाकर विद्याधर राजाओं के द्वारा कन्यादान आदिसे सम्मानित वसुदेवने सात सौ कन्याएँ प्राप्त कीं । तदनन्तर-परम अभ्युदयको धारण करनेवाले कुमार वसुदेव विजयार्ध पर्वत से लौटकर भूमि पर आ गये ॥305-306॥ वहाँ अरिष्टपुर नगर के राजा हिरण्यवर्मा के पद्मावती रानी से उत्पन्न हुई रोहिणी नाम की पुत्री थी जो सचमुच ही रोहिणी चन्द्रमाकी स्त्रीके समान जान पड़ती थी । उसके स्वयंवरके लिए अनेक कलाओं तथा गुणोंको धारण करनेवाले मुख्य शिक्षकोंके समान अनेक राजा लोग आये थे परन्तु वसुदेव 'हम सबके उपाध्याय हैं' लोगों को यह बतलानेके लिए ही मानो सबसे अलग बैठे थे । उस समय रोहिणीने उत्कण्ठासे कुण्ठित चित्त होकर अपनी भुजलताके समान रत्नों की माला से वसुदेव के कण्ठका आलिंगन किया था ॥307-309॥ यह देख, जिस प्रकार प्रलयकाल में समुद्र अपनी मर्यादा छोडकर क्षुभित हो जाता है उसी प्रकार समुद्रविजय आदि सभी राजा मर्यादा छोडकर क्षुभित हो उठे और जबर्दस्ती रोहिणीको हरनेका उद्यम करने लगे । यह देख, हिरण्यवर्मा भी अपने भाइयोंको साथ ले उन दुष्ट ह्णदय वाले राजाओंसे युद्ध करने के लिए तैयार हो गया ॥310-311॥ कुमार वसुदेव ने भी अपने नाम के अक्षरों से चिह्नित एक बाण शीघ्र ही समुद्रविजयकी ओर छोड़ा ॥312॥ वाण पर लगे हुए नामाक्षरों को बाँचकर समुद्रविजय आश्चर्य से चकित हो गये, वे कहने लगे-अहो पुण्योदय से मुझे वसुदेव मिल गया । उन्होंने सन्तुष्ट होकर शीघ्र ही संग्राम बन्द कर दिया और अपने अन्य छोटे भाइयोंको साथ लेकर वे कामदेव को जीतनेवाले लघु भाई वसुदेवसे मिलनेके लिए गये ॥313-314॥ हाथ जोडे हुए कुमार वसुदेव ने महाराज समुद्रविजय को प्रणाम कर प्रसन्न किया । तदनन्तर अपने अन्य बड़े भाइयोंको भी प्रणामके द्वारा प्रसन्न बनाया ॥315॥ कुमार के द्वारा पहले विवाही हुई अपनी-अपनी पुत्रियों को भूमिगोचरी और विद्याधर राजा बड़े हर्ष से ले आये और उन्हें कुमार के साथ मिला दिया । समुद्रविजय आदि ने कुमार वसुदेव को साथ लेकर उत्सवों से भरे हुए अपने नगर में प्रवेश किया और वहाँ वे सब निरन्तर इच्छानुसार सुख भोगते हुए रहने लगे ॥316-317॥ इस प्रकार इन सबका समय अविनाशी तथा प्रशंसनीय भोगों के द्वारा सुख से व्यतीत हो रहा था । कुछ समय बाद जिनका वर्णन पहले आ चुका है ऐसे शंख नाम के मुनिराज का जीव महाशुक्र स्वर्ग से चय कर वसुदेव की रोहिणी नामक स्त्री के पद्म नाम का पुण्यशाली पुत्र उत्पन्न हुआ । वह अपने भाइयों में आनन्द को बढ़ाता हुआ नौवाँ बलभद्र होगा ॥318-319॥ उसकी निर्मल बुद्धि सूर्य की प्रभा के समान प्रताप युक्त थी । जिस प्रकार शरद् ऋतु का संस्कार पाकर सूर्यकी प्रभा पद्म अर्थात् कमलोंके विकासको बढ़ाने लगती है उसी प्रकार उसकी बुद्धि शास्त्रोंका संस्कार पाकर पद्मा अर्थात् लक्ष्मी की उत्पत्तिको बढ़ाने लगी थी ॥320॥ उसका प्रताप दुर्वार था, दुष्टों को नष्ट करनेवाला था और विशिष्ट-पुरूषों का पालन करनेवाला था फिर भला वह सूर्य के सारभूत तेजका उल्लंघन क्यों नहीं करता ? ॥321॥ अब इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली दूसरी कथा कही जाती है जो इस प्रकार है । जहाँ गंगा और गन्धावती नदियाँ मिलती हैं वहाँ बहुतसे फले फूले वृक्ष थे । उन्हीं वृक्षों के बीच में जठरकौशिक नाम की तपसियों की एक बस्ती थी । उस बस्तीका नायक वशिष्ठ तपसी था वह पंचाग्नि तप तपा करता था । एक दिन वहाँ गुणभद्र और वीरभद्र नाम के दो चारण मुनि आये । उन्होंने उसके तपको अज्ञान तप बताया । यह सुनकर वह दुर्बुद्धि तापस क्रोध करता हुआ उनके सामने खड़ा होकर पूछने लगा कि मेरा अज्ञान क्या है ? उन दोनों मुनियोंमें जो प्रथम थे ऐसे गुणभद्र मुनि कहने के लिए तत्पर हुए सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरूष हित का ही उपदेश देते हैं ॥322-325॥ उन्होंने जटाओं के समूह में उत्पन्न होनेवाली लीखों तथा जुओं के संघटन को; निरन्तर स्नान के समय लगकर जटाओं के भीतर मरी हुई छोटी-छोटी मछलियों को और जलते हुए इन्धन के भीतर रहकर छटपटाने वाले अनेक कीड़ों को दिखाकर समझाया कि देखो यह तुम्हारा अज्ञान है ॥326-327॥ काल-लब्धि का आश्रय मिलने से विशिष्ट बुद्धि का धारक वह वशिष्ठ तापस दीक्षा लेकर आतापन योग में स्थित हो गया और उपवास सहित तप करने लगा ॥328॥ उसके तप के प्रभाव से सात व्यन्तर देवियाँ आयी और आगे खडी होकर कहने लगीं; कि हे मुनिराज ! अपना इष्ट सन्देश कहिये, हमलोग करने के लिए तैयार हैं ॥329॥ उन्हें देखकर वशिष्ट मुनि ने कहा कि मुझे आप लोगोंसे इस जन्म में कुछ प्रयोजन नहीं है अन्य जन्म में मेरे पास आना ॥330॥ इस प्रकार तप करते हुए वे अनुक्रम से मथुरापुरी आये वहाँ एक महीने के उपवास का नियम लेकर उन्होंने आतापन योग धारण किया ॥331॥ तदनन्तर दूसरे दिन मथुरा के राजा उग्रसेन ने बड़ी भक्ति से उन मुनि के दर्शन किये और नगर में घोषणा करा दी कि यह मुनिराज हमारे ही घर भिक्षा ग्रहण करेंगे, अन्यत्र नहीं । इस घोषणा से उन्होंने अन्य सब लोगों को आहार देने का निषेध कर दिया । अपनी पारणा के दिन मुनिराज ने भिक्षा के लिए नगरी में प्रवेश किया परन्तु उसी समय राजमन्दिर में अग्नि लग गई उसे देख मुनिराज निराहार ही लौटकर तपोवन में चले गये ॥332-334॥ मुनिराजने एक मास के उपवास का नियम फिर से ले लिया । तदनन्तर एक माह बीत जाने पर क्षीण शरीर के धारक मुनिराज ने जब आहार की इच्छा से पुन: नगरी में प्रवेश किया तब वहाँ पर हाथी का क्षोभ हो रहा था उसे देख वे शीघ्र ही नगरी से वापिस लौट गये और एक माह का फिर उपवास लेकर तप करने लगे । एक माह समाप्त होने पर जब वे फिर आहार के लिए राजमन्दिर की ओर गये तब महाराज जरासन्ध का भेजा हुआ पत्र सुनकर राजा उग्रसेन का चित्त व्याकुल हो रहा था अत: उसने मुनि की ओर ध्यान नहीं दिया ॥335-337॥ क्षीण शरीर के धारी वशिष्ठ मुनि जब वहाँसे लौट रहे थे तब उन्होंने लोगों को यह कहते हुए सुना कि 'राजा न तो स्वयं भिक्षा देता है और न दूसरोंको देने देता है । इसका क्या अभिप्राय है सो जान नहीं पड़ता ।' लोगों का कहना सुनकर पाप कर्म से उदय से मुनिराज को क्रोध आ गया जिससे उनकी बुद्धि जाती रही । उसी समय उन्होंने निदान किया कि 'मैंने जो उग्र तप किया है उसके फलसे मैं पुत्र होकर इस राजाका निग्रह करूँ तथा इसका राज छीन लूँ, ॥338-340॥ इस प्रकार के खोटे परिणामों से मुनिराज की मृत्यु हो गई और वे तीव्र वैरके कारण राजा उग्रसेन की पद्मावती रानी के गर्भ में जा उत्पन्न हुए ॥341॥ उस रानी पद्मावती को भी गर्भ के बालक की क्रूरतावश राजा के ह्णदय का मांस खाने की इच्छा हुई और उससे वह दु:खी होने लगी । यह जानकर मन्त्रियों ने अपनी बुद्धि से कोई बनावटी चीज देकर कहा कि 'यह तुम्हारे पति के ह्णदय का मांस है' इस प्रकार उसका दोहला पूरा किया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य क्या नहीं करते हैं ? ॥342-343॥ जिसका दोहला पूरा हो गया है ऐसी रानी पद्मावती ने अनुक्रम से वह पापी पुत्र प्राप्त किया, जिस समय वह उत्पन्न हुआ था उस समय अपने ओठ डस रहा था, उसकी दृष्टि क्रूर थी और भौंह टेढ़ी ॥344॥ माता-पिता ने उसे देखकर विचार किया कि इसका यहाँ पोषण करना योग्य नहीं है यही समझ कर उन्होंने उसे छोड़ने की विधि का विचार किया और कांसोकी एक सन्दूक बनवा कर उसमें उस पुत्र को पत्र सहित रख दिया तथा यमुना नदी के प्रवाह में छोड़ दिया ॥345-346॥ कौशाम्बी नाम की नगरी में एक मण्डोदरी नाम की कलारन रहती थी उसने प्रवाह में बहती हुई सन्दूक के भीतर स्थित उस बालक को देखा । देखते ही वह उसे उठा लाई और हितैषिणी बन अपने पुत्र के समान उसका पालन करने लगी । सो ठीक ही है क्योंकि तपस्वियों के हीन पुण्य भी क्या नहीं करते ? ॥347-348॥ कितने ही दिनों में वह सुदृढ़ अवस्था पाकर साथ खेलनेवाले समस्त बालकों को चाँटा, मुट्ठी तथा डण्डा आदि से पीड़ा पहुँचाने लगा । उसके इस दुराचार से खिन्न होकर मण्डोदरी ने उसे छोड़ दिया-घर से निकाल दिया ॥349-350॥ अब वह शौर्यपुर में जाकर राजा वसुदेव का सेवक बन गया और सदा उनकी सेवा में तत्पर रहने लगा ॥351॥ अब इसी से सम्बन्ध रखनेवाली एक अन्य कथा कहते हैं और वह इस प्रकार है-यद्यपि राजा जरासन्धने सब राजाओं को जीत लिया था तो भी किसी समय उसका कुछ कार्य बाकी रह गया था । उसकी पूर्तिके लिए जरासन्धने सब राजाओं के पास इस आशयके पत्र भेजे कि जो राजा सुरम्य देशके मध्य में स्थित पोदनपुरके स्वामी हमारे शत्रु सिंहरथको युद्धमें अपने बलसे जीतकर तथा बाँधकर हमारे पास लावेगा उसे मैं आधा देश तथा कलिन्दसेना रानीसे उत्पन्न हुई जीवद्यशा नाम की अपनी पतिव्रता पुत्री दूंगा । प्रतापी राजा वसुदेवने जब यह पत्र पाया तो उन्होंने सिंहका मूत्र मँगाकर घोड़ोके शरीर पर लगवाया, उन्हें रथ में जोता और तदनन्तर ऐसे रथ पर आरूढ़ होकर चल पड़े । वहाँ जाकर उन्होंने संग्राममें उस भारी राजा सिंहरथको जीत लिया और अपने सेवक कंसके द्वारा उसे बँधवा कर स्वयं राजा जरासन्ध को सौंप दिया । राजा जरासन्ध भी सन्तुष्ट होकर वसुदेव के लिए आधे देश के साथ अपनी पूर्व प्रतिज्ञात पुत्री देने लगा । उस समय वसुदेव ने देखा कि उस पुत्री के लक्षण अच्छे नहीं हैं अत: कह दिया कि सिंहरथको मैंने नहीं बाँधा है यह कार्य इस कंस ने किया है इसलिए इसी आज्ञाकारी के लिए यह कन्या दी जावे । वसुदेव के वचन सुनकर राजा जरासन्धने कंस का कुल जानने के लिए मण्डोदरी के पास अपना दूत भेजा ॥352-360॥ दूतको देखकर मण्डोदरी डर गई और सोचने लगी कि क्या मेरे पुत्रने वहाँ भी अपराध किया है ? इसी भय से वह सन्दूक साथ लेकर स्वयं राजा जरासन्धके पास गई । वहाँ जाकर उसने 'यह सन्दूक ही इसकी माता है' यह कहते हुए पहले वह कांस की सन्दूक राजा के आगे जमीन पर रख दी । तदनन्तर नमस्कार कर कहने लगी कि 'यह बालक कांसकी सन्दूक में रखा हुआ यमुनाके जलमें बहा आ रहा था मैंने लेकर इसका पालन मात्र किया है ॥361-363॥ चूँकि यह कांसकी सन्दूक में आया था इसलिए गाँवके लोगोंने इसे कंस नाम से पुकारना शुरू कर दिया । यह स्वस्वभावसे ही अपनी शूर-वीरताका घमण्ड रखता है और बचपन से ही स्वच्छन्द प्रकृति का है' ॥364॥ मण्डोदरी के ऐसे वचन सुनकर राजा जरासन्धने सन्दूक के भीतर रखा हुआ पत्र लेकर बचवाया । उसमें लिखा था कि यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावतीका पुत्र है । यह जानकर सन्तुष्ट हुए राजा जरासन्धने कंसके लिए जीवद्यशा पुत्री तथा आधा राज्य दे दिया ॥365-366॥ जब कंसने यह सुना कि उत्पन्न होते ही मुझे मेरे माता-पिताने नदीमें छोड़ दिया था तब वह बहुत ही कुपित हुआ, उसका पूर्व पर्यायका वैर वृद्धिंगत हो गया । उसी समय उसने मथुरापुरी जाकर माता-पिताको कैद कर लिया और दोनोंको गोपुर-नगर के प्रथम दरवाजेके ऊपर रख दिया सो ठीक ही है क्योंकि विचार रहित पापी मनुष्य कुपित होकर क्या क्या नहीं करते हैं ? ॥367-368॥ तदनन्तर कंस राजा वसुदेव को अपने नगर में ले आया और उन्हें उसने बड़ी विभूतिके साथ राजा देवसेनकी पुत्री तथा अपनी छोटी बहिन देवकी समर्पित कर दी । इस प्रकार कंसका समय सुख से व्यतीत होने लगा । किसी दूसरे दिन अतिमुक्त मुनि भिक्षाके लिए राजभवन में आये । उन्हें देख हँसीसे जीवद्यशा बड़े हर्ष से कहने लगी कि 'हे मुने ! यह देवकी का ऋतुकाल का वस्त्र है, यह आपकी छोटी बहिन इस वस्त्रके द्वारा अपनी चेष्टा आपके लिए दिखला रही है' । जीवद्यशाके उक्त वचन सुनकर मुनिका क्रोध भड़क उठा । वे वचनगुप्तिको भंग करते हुए बोले कि इस देवकीका जो पुत्र होगा वह तेरे पतिको अवश्य ही मारेगा । यह सुनकर जीवद्यशाको भी क्रोध आ गया और उसने उस वस्त्रके दो टुकड़े कर दिये । तब मुनि ने कहा कि वह न केवल तेरे पतिको मारेगा किन्तु तेरे पिताको भी मारेगा । यह सुनकर तो उसके क्रोधका पार ही नहीं रहा । अबकी बार उसने उस वस्त्रको पैरोंसे कुचल दिया । यह देख मुनि ने कहा कि देवकीका पुत्र स्त्रीकी तरह समुद्रान्त पृथिवी रूपी स्त्री का पालन करेगा ॥369-375॥ जीवद्यशा इन सुनी हुई बातों का विचार कर कंस के पास गई और उसे परस्पर में सब समझा आई ॥376॥ 'मुनि जो बात हँसी में भी कह देते हैं वह सत्य निकलती है' यह विचार कर कंस डर गया और राजा वसुदेव के पास जाकर बड़े स्नेह से याचना करने लगा कि आपकी आज्ञा से प्रसूतिके समय देवकी हमारे ही घर आकर प्रसूतिकी पूरी विधि करे ॥377॥ कंसके अनुरोधसे वसुदेवने भी 'ऐसा ही होगा' यह कहकर उसकी बात मान ली सो ठीक ही है क्योंकि अवश्यम्भावी कार्योंमें मुनिराज भी भूल कर जाते हैं ॥378-379॥ किसी दिन वही अतिमुक्त मुनि भिक्षाके लिए देवकीके घर प्रविष्ट हुए तो देवकीने खड़े होकर यथोक्त विधिसे उनका पडिगाहन किया । आहार देनेके बाद देवकी और वसुदेवने उनसे पूछा कि क्या कभी हम दोनों भी दीक्षा ले सकेंगे ? मुनिराजने उनका अभिप्राय जानकर कहा कि इस तरह छलसे क्यों पूछते हो ? आप दोनों सात पुत्र प्राप्त करेंगे, उनमेंसे छह पुत्र तो अन्य स्थान में बढ़कर निर्वाण प्राप्त करेंगे और सातवाँ पुत्र चक्रवर्ती होकर अपने छत्रकी छायासे चिरकाल तक समस्त पृथिवी का पालन करेगा ॥380-383॥ यह सुनकर देवकी बहुत हर्षित हुई । तदनन्तर उसने तीन बारमें दो-दो युगल पुत्र प्राप्त किये । इन्द्रको मालूम हुआ कि ये सब पुत्र चरमशरीरी हैं अत: उसने देवकी के गूढ़ कार्यको जाननेवाले नैगमर्ष नाम के देव को प्रेरणा की । इन्द्रके द्वारा प्रेरित हुआ नैगमर्ष देव देवकीके इन पुत्रोंको ले जाकर भद्रिलपुर नगर में अलका नाम की वैश्य पुत्रीके आगे डाल आता था और उसके तत्काल उत्पन्न होकर मरे हुए तीन युगल पुत्रोंको देवकीके सामने डाल देता था ॥384-386॥ कंसने उन मरे हुए पुत्रोंको देखकर विचार किया कि इन निर्जीव पुत्रोंसे मेरी क्या हानि हो सकती है ? मुनि असत्यवादी भी तो हो सकते हैं । उसने ऐसा विचार किया सही परन्तु उसकी शंका नहीं गई इसलिए वह उन मृत पुत्रोंको शिलाके ऊपर पछाड़ता रहा । इसके बाद निर्नामक मुनिका जीव महाशुक्र स्वर्गसे च्युत होकर देवकी के गर्भ में आया । अबकी बार उसने अपने ही घर सातवें महीने में ही पुत्र उत्पन्न किया । नीतिविद्यामें निपुण वसुदेव और बलभद्र पद्मने विचार किया कि कंसको बिना जताये ही इस पुत्रका नन्दगोपके घर सुख से पालन-पोषण करावेंगे । पिता और भाईने अपने विचार देवकीको भी बतला दिये । बलभद्र ने उस बालक को उठा लिया और पिताने उस पर छत्र लगा लिया उस समय घोर अन्धकार था अत: पुत्र के पुण्य से नगरका देवता विक्रिया वश एक बैलका रूप बनाकर उनके आगे हो गया । उस बैलके दोनों पैने सींगों पर देदीप्यमान मणियोंके दीपक रखे हुए थे उनसे समस्त अन्धकार दूर होता जाता था ॥387-392॥ गोपुरके किवाड़ बन्द थे पुत्र के चरणों का स्पर्श होते ही खुल गये । यह देख बन्धनमें पड़े हुए उग्रसेनने बड़े क्षोभके साथ कहा कि इस समय किवाड़ कौन खोल रहा है ? यह सुनकर बलभद्रने कहा कि आप चुप बैठिये यह बालक शीघ्र ही आपको बन्धनसे मुक्त करेगा । मथुराके राजा उग्रसेनने सन्तुष्ट होकर 'ऐसा ही हो' कहकर आर्शीवाद दिया । बलभद्र और वसुदेव वहाँसे निकल कर रात्रिमें ही यमुना नदी के किनारे पहुँचे । होनहार चक्रवर्ती के प्रभाव से यमुनाने भी दो भागोंमें विभक्त होकर उन्हें मार्ग दे दिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा कौन आर्द्रात्मा ( जल स्वरूप पक्षमें दयालु ) होगा जो अपने समान वर्णवालेसे आश्रित होता हुआ भाईचारेको प्राप्त नहीं हो ॥393-397॥ इधर बड़े आश्चर्य से यमुनाको पार कर बलभद्र और वसुदेव नन्दगोपालके पास जा रहे थे इधर वह भी एक बालिकाको लेकर आ रहा था । बलदेव और वसुदेवने उसे देखते ही पूछा कि हे भद्र ! रात्रिके समय अकेले ही तुम्हारा आना क्यों हो रहा है ? इस प्रकार पूछे जाने पर नन्दगोपने प्रणाम कर कहा कि 'आपकी सेवा करनेवाली मेरी स्त्रीने पुत्र-प्राप्तिके लिए श्रद्धाके साथ किन्हीं भूत देवताओं की गन्ध आदिसे पूजाकर उनसे आशीर्वाद चाहा था । आज रात्रिको उसने यह कन्या रूप सन्तान पाई है । कन्या देखकर वह शोक करती हुई मुझसे कहने लगी कि ले जाओ यह कन्या उन्हीं भूत देवताओं को दे आओ-मुझे नहीं चाहिए । सो हे नाथ ! मैं यह कन्या उन्ही भूत देवताओं को देनेके लिए जा रहा हूं' । उसकी बात सुनकर बलदेव और वसुदेवने कहा कि 'हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया' ॥398-402॥ इस प्रकार सन्तुष्ट होकर उन्होंने नन्द गोपके लिए सब समाचार सुना दिये, उसकी लड़की ले ली और अपना पुत्र उसे दे दिया । साथ ही यह भी कह दिया कि तुम इसे होनहार चक्रवर्ती समझो । यह सब काम कर वे दोनों किसी दूसरेको मालूम हुए बिना ही गुप्त रूप से नगर में वापिस आ गये ॥403-404॥ इधर नन्दगोप भी वह बालक लेकर घर आया और 'लो, प्रसन्न होकर उन देवताओेंने तुम्हारे लिए यह महापुण्यवान् पुत्र दिया है' यह कहकर अपनी प्रियाके लिए उसने वह होनहार चक्रवर्ती सौंप दिया । यहाँ, कंसने जब सुना कि देवकीने कन्या पैदा की है तो वह सुनते ही उसके घर गया और जाते ही उसने पहले तो कन्याकी नाक चपटी कर दी और तदनन्तर उसे घायके द्वारा एक तलघटमें रखकर बड़े प्रयत्नसे बढ़ाया ॥405-407॥ बड़ी होने पर उसने अपनी विकृत आकृति को देखकर शोक से सुव्रता आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली और विन्ध्याचल पर्वत पर रहने लगी ॥408॥ एक दिन वन में रहनेवाले भील लोग उसे देवता समझ उसकी पूजा करके कहीं गये थे कि इतनेमें व्याघ्रने उसे शीघ्र ही खा लिया । वह मरकर स्वर्ग चली गई । दूसरे दिन जब भील लोग वापिस आये तो उन्हें वहाँ उसकी सिर्फ तीन अंगुलियाँ दिखीं । वहाँके रहनेवाले मूर्ख लोगोंने उन अँगुलियोंकी दूध तथा अंगराग आदि से पूजा की । उसी समय से 'यह आर्या ही विन्ध्यवासिनी देवी है' ऐसा समझ कर लोग उसकी मान्यता करने लगे ॥409-411॥ अथानन्तर-अकस्मात् ही मथुरा नगरी में बड़े भारी उत्पाद बढ़ने लगे । उन्हें देख, कंसने शीघ्र ही वरूण नाम के निमित्तज्ञानीसे पूछा कि सच बतलाओ इन उत्पातोंका फल क्या है ? निमित्तज्ञानीने उत्तर दिया कि आपका बड़ा भारी शत्रु उत्पन्न हो चुका है ॥412-413॥ निमित्तज्ञानीकी बात सुनकर राजा कंस चिन्ता में पड़ गया । उसी समय उसके पूर्व भवमें सिद्ध हुए सात व्यन्तर देवता आकर कहने लगे कि हम लोगों को क्या कार्य सौंपा जाता है ॥414॥ कंसने कहा कि 'कहीं हमारा शत्रु उत्पन्न हुआ है उस पापीको तुम लोग खोज कर मार डालो' । ऐसा कहकर उसने उन सातों देवताओं को भेज दिया और वे देवता भी 'तथावस्तु' कहकर चल पड़े ॥415॥ उन देवताओं में से पूतना नाम की देवताने अपने विभंगावधि ज्ञान से कृष्ण को जान लिया और उसकी माताका रूप रखकर मारनेके लिए उसके पास गई ॥416॥ वह पूतना अत्यंत दुष्ट थी और विष भरे स्तन का दूध पिलाकर कृष्ण को मारना चाहती थी । इधर पूतना कृष्णके मारनेका विचार कर रही थी उधर कोई दूसरी देवी जो बालक कृष्णकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहती थी पूतनाकी दुष्टताको समझ गई । पूतना जिस समय कृष्णको दूध पिलानेके लिए तैयार हुई उसी समय उस दूसरी देवीने पूतनाके स्तनोंमें बहुत भारी पीड़ा उत्पन्न कर दी । पूतना उस पीड़ाको सहनेमें असमर्थ हो गई और चिल्ला कर भाग गई ॥417-418॥ तदनन्तर किसी दिन कोई देवी, गाड़ीका रूप रखकर बालक श्रीकृष्णके ऊपर दौड़ती हुई आई, उसे श्रीकृष्णने दोनों पैरोंसे तोड़ डाला ॥419॥ किसी एक दिन नन्दगोपकी स्त्री बालक श्रीकृष्णको एक बड़ी उलूखलसे बाँध कर पानी लेने के लिए गई थी परन्तु श्रीकृष्ण उस उलूखलको अपनी कमरसे घटीसता हुआ उसके पीछे चला गया ॥420॥ उसी समय दो देवियाँ अर्जुन वृक्षका रूप रखकर बालक श्रीकृष्णको पीड़ा पहुंचाने के लिए उनके पास आईं परन्तु उसने उन दोनों वृक्षोंको जड़से उखाड़ डाला ॥421॥ किसी दिन कोई एक देवी ताड़का वृक्ष बन गई । बालक श्रीकृष्ण चलते-चलते जब उसके नीचे पहुंचा तो दूसरी देवी उसके मस्तक पर फल गिरानेकी तैयारी करने लगी और कोई एक देवी गधीका रूप रखकर उसे काटनेके लिए उद्यत हुई । श्रीकृष्णने उस गधीके पैर पकड़ कर उसे ताड़ वृक्ष से दे मारा जिससे वे तीनों ही देवियाँ नष्ट हो गईं ॥422-423॥ किसी दूसरे दिन कोई देवी घोड़ेका रूप बनाकर कृष्णको मारनेके लिए चली परन्तु कृष्णने क्रोधवश उसका मुँह ही तोड़ दिया । इस प्रकार सातों देवियाँ कंसके समीप जाकर बोलीं कि 'हमलोग आपके शत्रु को मारनेमें असमर्थ हैं' इतना कहकर वे बिजली के समान विलीन हो गईं ॥424-425॥ अन्य लोगों पर अपना कार्य दिखानेवाले शस्त्र जिस प्रकार इन्द्रके वज्रायुध पर नि:सार हो जाते हैं उसी प्रकार अन्यत्र अपना काम दिखानेवाली देवोंकी शक्तियाँ भी पुण्यात्मा पुरूषके विषय में नि:सार हो जाती हैं ॥426॥ किसी एक दिन अरिष्ट नाम का असुर श्रीकृष्ण का बल देखने के लिए काले बैल का रूप रखकर आया परन्तु श्रीकृष्ण उसकी गर्दन ही तोड़ने के लिए तैयार हो गया । अन्त में माता ने उसे ललकार कर और हे पुत्र ! दूसरे प्राणियों को क्लेश पहुँचानेवाली इन व्यर्थ की चेष्टाओं से दूर रह' इत्यादि कहकर उसे रोका ॥427-428॥ यद्यपि माता यशोदा उसे इन कार्यों से बार-बार रोकती थी पर तो भी मद से उद्धत हुआ बालक कृष्ण इन कार्यो को करने लगता था सो ठीक ही है क्योंकि महाप्रतापी पुरूष साहस के कार्य में रोके नहीं जा सकते ॥429॥ देवकी और वसुदेव ने लोगों के कहने से श्रीकृष्ण के पराक्रम की बात सुनी तो वे उसे देखने के लिए उत्सुक हो उठे । निदान एक दिन वे गोमुखी नामक उपवास के बहाने बलभद्र तथा अन्य परिवार के लोगों के साथ वैभव प्रदर्शन करते हुए व्रज के गोधा वन में गये ॥430-431॥ जब ये सब वहाँ पहुँचे थे तब महाबलवान् कृष्ण किसी अभिमानी बैल की गर्दन झुकाकर उससे लटक रहे थे । देवकी तथा बलदेव ने उसी समय कृष्ण को देखकर गन्ध माला आदि से उसका सम्मान किया और स्नेह से आभूषण पहिनाये । देवकी ने उसकी प्रदक्षिणा दी । प्रदक्षिणा के समय देवकी के सुवर्ण कलशके समान दोनों स्तनों से दूध झरकर कृष्णके मस्तक पर इस प्रकार पड़ने लगा मानो उसका अभिषेक ही कर रही हो । बुद्धिमान् बलदेव ने जब यह देखा तब उन्होंने मन्त्रभेद के भय से शीघ्र ही 'यह उपवास से थककर मूर्च्छित हो रही है' यह कहते हुए दूध से भरे कलशों से उसका खूब अभिषेक कर दिया । तदनन्तर देवकी तथा वसुदेव आदि ने व्रजके अन्य अन्य प्रधान लोगों का भी उनके योग्य पूजा-सत्कार किया, हर्षित होकर गोपाल बालकों के साथ श्रीकृष्ण को भोजन कराया, स्वयं भी भोजन किया और तदनन्तर लौटकर मथुरापुरी में वापिस आ गये ॥432-437॥ किसी एक दिन व्रज में बहुत वर्षा हुई तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन नाम का पर्वत उठाकर उसके नीचे गायों की रक्षा की थी ॥438॥ इस काम से चाँदनी के समान उनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल गई और वह शत्रुओं के मुखरूपी कमलसमूह को संकुचित करने लगी ॥439॥ तदनन्तर जो जैन-मन्दिर मथुरापुरी की स्थापना का कारण भूत था उसके समीप ही पूर्व दिशाके दिक्पाल के मन्दिर में श्रीकृष्ण के पुण्य की अधिकता से नागशय्या, धनुष और शंख ये तीन रत्न उत्पन्न हुए । देवता उनकी रक्षा करते थे और वे श्रीकृष्ण की होनहार लक्ष्मी को सूचित करते थे ॥440-441॥ मथुरा का राजा कंस उन्हें देखकर डर गया और वरूण नामक निमित्तज्ञानी से पूछने लगा कि इनकी उत्पत्ति का फल क्या है ? सो कहो ॥442॥ वरूण ने कहा कि हे राजन् ! जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से इन्हें सिद्ध कर लेगा वह चक्ररत्न से सुरक्षित राज्य प्राप्त करेगा ॥443॥ कंस ने वरूण के वचन सुनकर उन तीनों रत्नों को स्वयं सिद्ध करने का प्रयत्न किया परन्तु वह असमर्थ रहा और बहुत भारी खिन्न होकर उनके सिद्ध करने के प्रयत्नसे विरत हो गया-पीछे हट गया ॥444॥ ऐसा कौन बलवान् है जो इस कार्य को सिद्ध कर सकेगा इसकी जाँच करने के लिए भयभीत कंसने नगर में यह घोषणा करा दी कि जो भी नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शंख बजावेगा और दूसरे हाथ से धनुष को अनायास ही चढ़ा देगा उसे राजा अपनी पुत्री देगा ॥445-446॥ यह घोषणा सुनते ही अनेक राजा लोग मथुरापुरी आने लगे । राजगृहसे कंस का साला स्वर्भानु जो कि सूर्य के समान तेजस्वी था अपने भानु नाम के पुत्रको साथ लेकर बडे वैभव से आ रहा था । वह मार्ग में गोधावन के उस सरोवर के किनारे जिसमें कि बड़े-बड़े सर्पों का निवास था ठहरना चाहता था परन्तु जब उसे गोपाल बालकों के कहनेसे मालूम हुआ कि इस सरोवर से कृष्ण के सिवाय किन्हीं अन्य लोगों से द्वारा पानी लिया जाना शक्य नहीं है तब उसने कृष्ण को बुलाकर अपने पास रख लिया और सेना को यथास्थान ठहरा दिया ॥447-450॥ अवसर पाकर कृष्ण ने राजा स्वर्भानु से पूछा कि हे राजन् ! आप कहाँ जा रहे हैं ? तब उसने मथुरा जानेका सब प्रयोजन कृष्णको बतला दिया । यह सुनकर कृष्ण ने फिर पूछा-क्या यह कार्य हमारे जैसे लोग भी कर सकते हैं ? कृष्ण का प्रश्न सुनकर स्वर्भानुने सोचा कि यह केवल बालक ही नहीं है इसका पुण्य भी अधिक मालूम होता है । ऐसा विचार कर उसने कृष्ण को उत्तर दिया कि यदि तू यह कार्य करने में समर्थ है तो हमारे साथ चल । इतना कह कर स्वर्भानु ने कृष्ण को अपने पुत्र के समान साथ ले लिया । मथुरा जाकर उन्होंने कंस के यथायोग्य दर्शन किये और तदनन्तर उन समस्त लोगों को भी देखा कि नागशय्या आदि को वश करने का प्रयत्न कर रहे थे परन्तु सफलता नहीं मिलने से जिनका मान भंग हो गया था । श्रीकृष्ण ने भानुको अपने समीप ही खडा कर उक्त तीनों कार्य समाप्त कर दिये और उसके बाद स्वर्भानु का संकेत पाकर शीघ्र ही वह कुशलता पूर्वक व्रजमें वापिस आ गया ॥451-455॥ 'यह कार्य भानु ने ही किया है' ऐसा कुछ पहरेदारों ने कंस को बतलाया और कुछ ने यह बतलाया कि यह कार्य भानु ने नहीं किन्तु किसी दूसरे कुमार ने किया है ॥456॥ यह सुन कर राजा कंस ने कहा कि यदि ऐसा है तो उस अन्य कुमार की खोज की जावे, वह किसका लडका है ? उसका क्या कुल है ? और कहाँ रहता है ? उसके लिए कन्या दी जावेगी ॥457॥ इधर नन्दगोप को जब अच्छी तरह निश्चय हो गया कि यह कार्य हमारे ही पुत्र के द्वारा हुआ है तब वह डर कर अपनी गायोंके साथ कहीं भाग गया ॥458॥ किसी एक दिन वहाँ पत्थर का खंभा उखाड़ने के लिए बहुत से लोग गये परन्तु सब मिल कर भी उस खंभा को नहीं उखाड़ सके और श्रीकृष्ण ने अकेले ही उखाड़ दिया ॥459॥ लोग इस कार्य से बहुत प्रसन्न हुए और श्रीकृष्णके इस साहस से आश्चर्यमें पड़ गये । अनन्तर सब लोगोंने श्रेष्ठ वस्त्र तथा आभूषण आदि देकर उनकी पूजा की ॥460॥ यह देख नन्दगोपने विचार किया कि मुझे इस पुत्र के प्रभाव से किसीसे भय नहीं हो सकता । ऐसा विचार कर वह अपने पहलेके ही स्थान पर वज्रमें वापिस आ गया ॥461॥ खोज करने के लिए गये हुए लोगों ने यद्यपि कंस को यह अच्छी तरह बतला दिया था कि जिसने उक्त तीन कार्य किये थे वह नन्दगोप का पुत्र है तथापि उसे निश्चय नहीं हो सका इसलिए उसने शत्रु की जाँच करने की इच्छा से दूसरे दिन नन्दगोप के पास यह खबर भेजी थी कि नाग राजा जिसकी रक्षा करते हैं वह सहस्त्रदल कमल भेजो । राजा की आज्ञा सुनकर नन्दगोप शोक से आकुल होकर कहने लगा कि राजा लोग प्रजा की रक्षा करनेवाले होते हैं परन्तु खेद है कि वे अब मारनेवाले हो गये ॥462-464॥ इस तरह खिन्न होकर उसने कृष्ण से कहा कि हे प्रिय पुत्र ! मेरे लिए राजा की ऐसी आज्ञा है अत: जा, भयंकर सर्प जिनकी रक्षा करते हैं ऐसे कमल राजा के लिए तू ही ला सकता है । पिता की बात सुनकर कृष्ण ने कहा कि 'इसमें कठिन क्या है ? मैं ले आऊँगा' ऐसा कह कर वह शीघ्र ही महासर्पों से युक्त सरोवर की ओर चल पड़ा ॥465-466॥ और बिना किसी शंका के उस सरोवरमें घुस गया । यह जान कर यमराज के समान आकारवाला नागराज उठ कर उसे निगलने के लिए तैयार हो गया । उस समय वह नागराज क्रोध से दीपित हो रहा था, अपनी श्वासों से उत्पन्न हुई देदीप्यमान अग्नि की ज्वालाओं के कण विखेर रहा था, चूड़ामणि की प्रभा से देदीप्यमान फणा के आटोप से भयंकर था, उसकी दोनों जिह्वाएँ लप-लप कर रही थीं और चमकीले नेत्रों से उसका देखना बड़ा भयंकर जान पड़ता था, श्रीकृष्ण ने भी विचार किया कि इसकी यह फणा हमारा वस्त्र धोने के लिए शुद्ध शिला रूप हो । ऐसा विचार कर वे जल से भीगा हुआ अपना पीताम्बर उसकी फणा पर इस प्रकार पछाड़ने लगे कि जिस प्रकार गरूड़ पक्षी अपना पंखा पछाड़ता है । वज्रपात के समान भारी दु:ख देनेवाली उनके वस्त्रकी पछाड़ से वह नागराज भयभीत हो गया और उनके पूर्व पुण्य के उदय से अदृश्य हो गया ॥467-471॥ तदनन्तर श्रीकृष्ण ने इच्छानुसार कमल तोड़ कर शत्रु के पास पहुँचा दिये उन्हें देखकर शत्रुने ऐसा समझा मानों मैंने शत्रु को ही देख लिया हो ॥472॥ इस घटना से राजा कंस को निश्चय होगया कि हमारा शत्रु नन्दगोप के पास रहता है । एक दिन उसने नन्द गोपालको संदेश भेजा कि तुम अपने मल्लोंके साथ मल्लयुद्ध देखने के लिए आओ । संदेश सुनकर नन्द गोप भी श्रीकृष्ण आदि मल्लोंके साथ मथुरामें प्रविष्ट हुए ॥473-474॥ नगर में घुसते ही श्रीकृष्ण की ओर एक मत्त हाथी दौड़ा । उस हाथीने अपना बन्धन तोड़ दिया था, वह यमराज के समान जान पड़ता था, मदकी गन्धसे खिंचे हुए अनेक भौंरे उसके गण्डस्थल पर लग कर शब्द कर रहे थे, वह विनय रहित किसी राजकुमार के समान निरंकश था, और अपने दाँतोंके आघातसे उसने बड़े-बड़े पक्के मकानों की दीवारें गिरा दी थीं । उस भयंकर हाथीको सामने दौड़ता आता देख श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसका एक दाँत उखाड़ लिया और दाँत से ही उसे खूब पीटा । अन्त में वह हाथी भयभीत होकर दूर भाग गया । तदनन्तर 'इस निमित्तसे आप लोगोंकी जीत स्पष्ट ही होगी' संतुष्ट होकर यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने साथके गोपालोंको पहले तो खूब उत्साहित किया और फिर कंसकी सभा में प्रवेश किया । कंसका अभिप्राय जाननेवाले राजा वसुदेव भी उस समय किसी उपायसे अपनी सेना को तैयार किये हुए वहीं एक स्थान पर बैठे थे । बलदेवने उठकर अपनी भुजाओं के आस्फालनसे ताल ठोक कर शब्द किया और कृष्णके साथ रंगभूमि के चारों ओर चक्कर लगाया । उसी समय उन्होंने श्री कृष्णसे कह दिया कि 'यह तुम्हारा कंस को मारने का समय है' इतना कह वे रंगभूमि से बाहर निकल गये ॥475-481॥ इसके बाद कंस की आज्ञा से कृष्ण के सेवक, अहंकारी तथा मल्लोंका वेष धारण करनेवाले अनेक गोपाल बालक अपनी भुजाओं को ठोकते हुए रंगभुमिमें उतरे । उस समय कानोंको आनन्दित करनेवाले बाजोंकी चंचल ध्वनि हो रही थी और उसीके अनुसार वे सब अपने पैर रखते उठाते थे, ऊँचे उठे हुए अपने दोनों कन्धोंसे वे कुछ गर्विष्ठ हो रहे थे, कभी दाहिनी भ्रुक्रुटि चलाते थे तो कभी बांई । बीच-बीच में भयंकर गर्जना कर उठते थे, वे कभी आगे जाकर पीछे लौट जाते थे, कभी आगे चक्कर लगाते थे, कभी थिरकते हुए चलते थे, कभी उछल पड़ते थे और कभी एक ही स्थान पर निश्चल खड़े रह जाते थे । इस तरह साफ-साफ दिखनेवाले अनेक पैंतरों से नेत्रोंको अच्छे लगनेवाले वे मल्ल रंगभूमिको अलंकृत कर खड़े थे । उनके साथ ही रंगभूमि को घेर कर चाणूर आदि कंसके प्रमुख मल्ल भी खड़े हुए थे । कंसके वे मल्ल अहंकार से भरे हुए थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो वीर रसके अवतार ही हों ॥482-486॥ उस समय रंगभूमि में खड़े हुए कृष्ण बहुत भले जान पड़ते थे, उनके चित्त का विस्तार अत्यन्त उदार था, वे बड़े-बड़े वीर पहलवानों में अग्रेसर थे, उनकी कान्ति ऐसी दमक रही थी मानो उन्होंने पहले ही प्रतिमल्ल के युद्ध में विजय प्राप्त कर ली हो, उनका पराक्रम रूपी रस उत्तरोत्तर बढ़ रहा था और उन्हें ऐसा उत्साह था कि यदि इस समय मल्ल का रूप धर कर सूर्य भी आकाश से नीचे उतर आवे तो उसे भी जीत लूँगा ॥487॥ उस समय उनके वक्ष बहुत कड़े बँधे थे, बाल बँधे थे, डाँढ़ी मूँछ थी ही नहीं, शरीर स्वभावसे ही चिकना था, वे गोप मल्लों के साथ अमल्लों की तरह सदा युद्ध का अभ्यास करते और पूर्ण विजय प्राप्त करते थे, और उनके पराक्रमकी सब सराहना करते थे ॥488॥ उनके चरणों का रखना स्थिर होता था, उनकी हड्डियोंका गठन वज्रके सारके समान सुदृढ़ था, उनकी भुजाएँ अर्गलके समान लम्बी तथा मजबूत थीं, उनकी कमर मुट्ठी में समानेके योग्य थी, वक्ष:स्थल अत्यन्त कठोर तथा चौड़ा था, वे बड़े भारी नीलगिरिके समान थे, उनका शरीर सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की मानो मूर्ति था और गर्वके संचारसे कोई उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकता था ॥489॥ उनके चमकीले नेत्र चंचल हो रहे थे, वे बडी मजबूत मुट्ठी बाँधे थे, उनकी इन्द्रियों का समूह पूर्ण परिपक्क था, वे शीघ्र गमन करने में दक्ष थे, और वज्रके समान अत्यन्त उग्र थे, इस प्रकार युद्ध-भूमिमें खड़े हुए नन्द गोपके पुत्र श्रीकृष्ण यमराज के लिए भी असहनीय भारी भय उत्पन्न कर रहे थे ॥490॥ वे श्रीकृष्ण ऐसे जान पड़ते थे मानो समस्त शूरवीरता ही रूप धरकर आ गई थी, अथवा समस्त बल आकर इकट्ठा हुआ था, अथवा समस्त बल एकत्रित हो गया था, सिंह जैसी आकृतिको धारण करनेवाले उन्होंने सिंहनाद किया और रंगभूमि से उछल कर आकाश रूपी आंगनको लाँघ दिया मानो घरका आंगन ही लाँघ दिया हो ॥491॥ फिर आकाश से वज्रकी भाँति पृथिवी पर आये, उन्होंने अपने पैर पटकनेकी चोटसे पर्वतों के सन्धि-बन्धनको शिथिल कर दिया, वे बराबर गर्जने लगे, इधर-उधर दौड़ने लगे और सिंन्दूरसे रंगी अपनी दोनों भुजाओं को चलाने लगे ॥492॥ उस समय वे अत्यन्त कुपित थे, उनकी कमरके दोनों ओर पीत वस्त्र बँधा हुआ था, और जिस प्रकार सिहं हाथीको मार कर सुशोभित होता है उसी प्रकार वे बाहु-युद्ध में कुशल, अतिशय दुष्ट और पहाड़के शिखरके समान ऊँचे प्रतिद्वन्दी चाणूर मल्लको सहसा मार कर सुशोभित हो रहे थे ॥493॥ यह देख, खून के निकलने से जिसके नेत्र अत्यन्त भयंकर हो रहे हैं ऐसा कंस स्वयं जन्मान्तर के द्वेष के कारण मल्ल बन कर युद्ध के लिए रंगभूमि में आ कूदा, श्रीकृष्ण ने हाथ से उसके पैर पकड़ कर छोटे से पक्षी की तरह पहले तो उसे आकाश में घुमाया और फिर यमराज के पास भेजने के लिए जमीन पर पछाड़ दिया ॥494॥ उसी समय आकाश से फूल बरसने लगे, देवों के नगाड़ों ने जोरदार शब्द किया, वसुदेव की सेना में क्षोभ के कारण बहुत कलकल होने लगा, और वीर शिरोमणि बलदेव, पराक्रम से सुशोभित, विजयी तथा शत्रु रहित छोटे भाई कृष्ण को आगे कर विरूद्ध राजाओं पर आक्रमण करते हुए रंगभूमि में जा डटे ॥495॥ जिनका बल अतुल्य है, जो अलंघनीय शत्रु रूपी मत्त हाथियोंके घातसे कुपित सिंह के समान हैं, जिनका पराक्रम माननीय है, बन्दीगण जिनकी स्तुति कर रहे हैं और जिन्होंने सब लोगों को हर्ष उत्पन्न किया है ऐसे श्रीकृष्णके समीप वीरलक्ष्मी सहसा ही पहुँच गई ॥496॥ मेरी दूतीके समान श्रेष्ठ वीरलक्ष्मी इनकी विजयी दाहिनी भुजाको प्राप्त कर चुकी है, इसलिए आधे भरत क्षेत्रकी लक्ष्मी भी चिरकाल से प्राप्त हुए उन श्रीकृष्ण रूपी पतिको रागके द्वारा चन्चल कटाक्षों से देख रही थी ॥497॥ |