
कथा :
अथानन्तर-कंस की स्त्रियों द्वारा छोड़े हुए अश्रुजल का पान कर पृथ्वी रूपी वृक्ष से चारों ओर उत्सव रूपी अंकुर प्रकट होने लगे ॥1॥ 'यह शूरवीर, पुण्यात्मा वसुदेव राजा का पुत्र है, कंस के भय से छिप कर व्रज में वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, अनुक्रम से होनेवाली वृद्धि, न केवल इनके पक्ष की ही वृद्धि के लिए है अपितु चन्द्रमा के समान समस्त संसार की वृद्धि के लिए है' इस प्रकार नगरवासी तथा देशवासी लोग जिनकी स्तुति करते थे, जिन्होंने राजा उग्रसेन को बन्धन-मुक्त कर दिया था, जो महात्मा थे, जिन्होंने उत्तम धनके द्वारा नन्द आदि गोपालों की पूजा कर उन्हें विदा किया था, और जो भाई-बन्धुओं के साथ मिलकर शौर्यपुर नगर में प्रविष्ट हुए थे ऐसे श्रीकृष्ण का समय सुख से बीत रहा था कि एक दिन कंस की रानी जीवद्यशा पति की मृत्यु से दु:खी होकर जरासन्ध के पास गई। उसने मथुरापुरी में जो वृत्तान्त हुआ था वह सब जरासन्ध को बतला दिया ॥2-6॥ उस वृत्तान्त को सुनकर जरासन्ध ने क्रोधवश पुत्रों को यादवों के प्रति चढ़ाई करने की आज्ञा दी ॥7॥ वे पुत्र अपनी सेना सजाकर गये और युद्ध के आंगन में पराजित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि भाग्यके प्रतिकूल होने पर कौन पराजय को प्राप्त नहीं होते ? ॥8॥ अबकी बार जरासन्ध ने कुपित होकर अपना अपराजित नाम का पुत्र भेजा क्योंकि वह उसे सार्थक नामवाला तथा शत्रुओं के लिए यमराज के समान समझता था ॥9॥ बड़ी भारी सेना लेकर अपराजित गया और चिरकाल तक उसने तीन-सौ छयालीस बार युद्ध किया परन्तु पुण्य क्षीण हो जाने से उसे भी पराड़्मुख होना पड़ा ॥10॥ तदनन्तर 'मैं पिता की आज्ञा से यादवोंको अवश्य जीतूँगा' ऐसा संकल्प कर उसके उद्यमी कालयवन नामक पुत्र ने प्रस्थान किया ॥11॥ कालयवन की आज्ञा सुनकर अग्रशोची यादवों ने शौर्यपुर, हस्तिनापुर और मथुरा तीनों ही स्थान छोड़ दिये ॥12॥ कालयवन उनका पीछा कर रहा था, तब यादवों की कुल -देवता बहुत-सा ईन्धन इकट्ठा कर तथा ऊँची लौवाली अग्नि जलाकर और स्वयं एक बुढि़याका रूप बना कर मार्ग में बैठ गई । उसे देख कर युवा कालयवन ने उससे पूछा कि यह क्या है ? उत्तरमें बुढि़या कहने लगी कि हे राजन् । सुन, आपके भय से मेरे सब पुत्र यादवोंके साथ-साथ इस ज्वालाओं से भयंकर अग्निमें गिरकर मर गये हैं ॥13-15॥ बुढि़याके वचन सुनकर कालयवन कहने लगा कि अहो, मेरे भय से समस्त शत्रु मेरी प्रतापाग्निके समान इस अग्निमें प्रविष्ट हो गये हैं ॥16॥ ऐसा विचार कर वह शीघ्र ही लौट पड़ा और झूठा अहंकार धारण करता हुआ पिता के पास पहुँच गया । आचार्य कहते हैं कि इस बिना विचारी चेष्टाको धिक्कार है ॥17॥ इधर चलते-चलते यादवों की सेना अपना स्थान बनानेके लिए समुद्र के किनारे ठहर गई ॥18॥ वहाँ श्रीकृष्ण ने शुद्ध भावों से दर्भ के आसन पर बैठकर विधि-पूर्वक मन्त्रका जाप करते हुए अष्टोपवास का नियम लिया । उसी समय नैगम नाम के देव ने कहा कि मैं घोड़ा का रूप रखकर आऊँगा सो मुझपर सवार होकर तुम समुद्र के भीतर बारह योजन तक चले जाना । वहाँ तुम्हारे लिए नगर बन जायगा । नैगम देवकी बात सुन कर श्रीकृष्ण ने निश्चयानुसार वैसा ही किया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य के रहते हुए कौन मित्र नहीं हो जाता ? ॥19-21॥ जो प्राप्त हुए वेग से उद्धत है, जिसपर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं, और जिसके कानों के चमर निश्चल हैं ऐसा घोड़ा जब दौड़ने लगा तब मानो श्रीकृष्णके भय से ही समुद्र दो भेदों को प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धि और शक्ति से युक्त मनुष्यों के द्वारा जलका (पक्षमें मूर्ख लोगोंका) समूह भेदको प्राप्त हो ही जाता है ॥22-23॥ उसी समय वहाँ श्रीकृष्ण तथा होनहार नेमिनाथ तीर्थंकर के पुण्य से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर नगरीकी रचना की । जिसमें सबसे पहले उसने विधिपूर्वक मंगलों का मांगलिक स्थान और एक हजार शिखरों से सुशोभित देदीप्यमान एक बड़ा जिनमन्दिर बनाया फिर वप्र, कोट, परिखा, गोपुर तथा अट्टालिका आदि से सुशोभित, पुण्यात्मा जीवोंसे युक्त मनोहर नगरी बनाई । समुद्र अपनी बड़ी-बड़ी तरंग रूपी भुजाओंसे उस नगरी के गोपुरका आलिंगन करता था, वह नगरी अपनी दीप्ति से देवपुरी की हँसी करती थी और द्वारावती उसका नाम था ॥24-27॥ जिन्हें लक्ष्मी कटाक्ष उठा कर देख रही है ऐसे श्रीकृष्ण ने पिता वसुदेव तथा बड़े भाई बलदेव के साथ उस नगरी में प्रवेश किया और यादवोंके साथ सुख से रहने लगे ॥28॥ अथानन्तर-जो आगे चल कर तीन लोक का स्वामी होनेवाला है ऐसा अहमिन्द्र का जीव जब छह माह बाद जयन्त विमानसे चलकर इस पृथिवीपर आनेके लिए उद्यत हुआ तब काश्यपगोत्री, हरिवंश के शिखामणि राजा समुद्रविजय की रानी शिवदेवी रत्नों की धारा आदिसे पूजित हुई और देवियाँ उसके चरणों की सेवा करने लगीं । छह माह समाप्त होने पर रानीने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में रात्रिके पिछले समय सोलह स्वप्न देखे ओर उनके बाद ही मुख-कमल में प्रवेश करता हुआ एक उत्तम हाथी भी देखा ॥29-32॥ तदनन्तर-बन्दीजनों के शब्द और प्रात:काल के समय बजनेवाली भेरियों की ध्वनि सुनकर जागी हुई रानी शिवदेवीने मंगलमय स्नान किया, पुण्य रूप वस्त्राभरण धारण किये और फिर बड़ी नम्रता से राजा के पास जाकर वह उनके अर्धासन पर बैठ गई । पश्चात् उसने अपने देखे हुए स्वप्नों का फल पूछा । सूक्ष्म बुद्धिवाले राजा समुद्रविजय ने भी सुने हुए आगमका विचार कर उन स्वप्नों का फल कहा कि तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के स्वामी तीर्थंकर अवतीर्ण हुए हैं ॥33-35॥ उस समय रानी शिवदेवी स्वप्नों का फल सुनकर ऐसी सन्तुष्ट हुई मानो उसने तीर्थंकरको प्राप्त ही कर लिया हो । उसी समय इन्द्रों ने भी अपने-अपने चिह्नों से जान लिया । वे सब बड़े हर्ष से मिलकर आये और स्वर्गावतरण कल्याण (गर्भकल्याणक) का महोत्सव करने लगे । उत्सव द्वारा पुण्योपार्जन कर वे अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥36-37॥ फिर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में ब्रह्मयोग के समय तीन ज्ञान के धारक भगवान् का जन्म हुआ ॥38॥ तदनन्तर अपने आसन कम्पित होनेसे जिन्हें अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे सौधर्म आदि इन्द्र हर्षित होकर आये और नगरीको घेर कर खड़े गये । तदनन्तर जो नील कमल के समान कान्ति के धारक हैं, ईशानेन्द्र ने जिनपर छत्र लगाया है, तथा नमस्कार करते हुए चमर और वैरोचन नाम के इन्द्र जिनपर चमर ढोर रहे हैं ऐसे जिनेन्द्र बालक को सौधर्मेन्द्र ने बड़ी भक्ति से उठाया और कुबेर-निर्मित तीन प्रकारकी मणिमय सीढि़योंके मार्गसे चलकर उन्हें ऐरावत हाथी के स्कन्ध पर विराजमान किया । अब इन्द्र आकाश-मार्गसे चलकर सुमेरू पर पहुँचा वहाँ उसने सुमेरू पर्वत की ईशान दिशामें पाण्डुक शिला के अग्रभाग पर जो अनादि-निधन मणिमय सिंहासन रक्खा है उसपर सूर्यसे भी अधिक तेजस्वी जिन-बालक को विराजमान कर दिया । वहीं उसने अनुक्रम से हाथों हाथ लाकर इन्द्रों के द्वारा सौंपे हुए एवं और सागरके जलसे भरे, सुवर्णमय एक हजार आठ देदीप्यमान कलशोंके द्वारा उनका अभिषेक किया, उन्हें इच्छानुसार यथायोग्य आभूषण पहिनाये और ये समीचीन धर्मरूपी चक्रकी नेमि हैं-चक्रधारा हैं, इसलिए उन्हें नेमि नाम से सम्बोधित किया । फिर सौधर्मेन्द्र ने मुकुटबद्ध इन्द्रों के द्वारा माननीय महाभ्युदयके धारक भगवान् को सुमेरू पर्वत से लाकर माता-पिताको सौंपा, विक्रिया द्वारा अनेक भुजाएँ बनाकर रस और भाव से भरा हुआ आनन्द नाम का नाटक किया और यह सब करने के बाद वह समस्त देवों के साथ अपने स्थान पर चला गया ॥39-48॥ भगवान् नमिनाथ की तीर्थपरम्परा के बाद पाँच लाख वर्ष बीत जानेपर नेमि जिनेन्द्र उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी, उनकी आयु एक हजार वर्ष की थी, शरीर दश धनुष ऊँचा था, उनके संस्थान और संहनन उत्तम थे, तीनों लोकों के इन्द्र उनकी पूजा करते थे, और मोक्ष उनके समीप था । इस प्रकार वे दिव्य मुखों का अनुभव करते हुए चिरकाल तक द्वारावतीमें रहे ॥49-51॥ इस तरह सुखोपभोग करते हुए उनका बहुत भारी समय एक क्षण के समान बीत गया । किसी एक दिन मगध देशके रहनेवाले ऐसे कितने ही वैश्य पुत्र, जो कि जलमार्गसे व्यापार करते थे, पुण्योदय से मार्ग भूल कर द्वारावती नगरी में आ पहुँचे । वहाँ की राजलीला और विभूति देखकर आश्चर्यमें पड़ गये । वहाँ जाकर उन्होंने बहुत से श्रेष्ठ रत्न खरीदे । तदनन्तर राजगृह नगर जाकर उन वैश्य-पुत्रों ने अपने सेठको आगे किया और उन रत्नोंको भेंट देकर चक्ररत्न के धारक राजा जरासन्ध के दर्शन किये । राजा जरासन्धने उन सबका सन्मान कर उनसे पूछा कि 'अहो वैश्य-पुत्रो ! आप लोगोंने यह रत्नोंका समूह कहाँसे प्राप्त किया है ? यह अपनी उठती हुई किरणों से ऐसा जान पड़ता है मानो कौतुकवश इसने नेत्र ही खोल रक्खे हों' ॥52-56॥ उत्तरमें वे वैश्यपुत्र कहने लगे कि हे राजन् ! सुनिये, हम लोगोंने एक बड़ा आश्चर्य देखा है और ऐसा आश्चर्य, जिसे कि पहले कभी नहीं देखा है। समुद्र के बीच में एक द्वारावती नगरी है जो ऐसी जान पड़ती है मानो पातालसे ही निकल कर पृथिवी पर आई हो । वहाँ चूनासे पुते हुए बड़े-बड़े भवन सघनतासे विद्यमान हैं जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो समुद्र के फेनका समूह ही नगरी के आकार परिणत हो गया हो । वह शत्रुओं के द्वारा अलंघनीय है अत: ऐसी जान पड़ती है मानो भरत चक्रवर्ती का दूसरा पुण्य ही हो । भगवान् नेमिनाथ की उत्पत्तिका कारण होनेसे वह नगरी सब नगरियोंमें उत्तम है, कोई भी उसका विघात नहीं कर सकता है, वह याचकों से रहित है, यह उसके महलों पर बहुत-सी पताकाएँ फहराती रहती हैं जिससे ऐसा जान पड़ता है कि 'यह गौरव रहित शरद् ऋतु के बादलों का समूह मेरे ऊपर रहता है' इस ईर्ष्याके कारण ही वह मानो महलोंके अग्रभाग पर फहराती हुई चन्चल पताकाओं रूपी बहुत-सी भुजाओं से आकाश में ऊँचाई पर स्थित शरद् ऋतुके बादलोंको वहाँसे दूर हटा रही हो । वह नगरी ठीक समुद्र के जलके समान है क्योंकि जिस प्रकार समुद्र के जलमें बहुतसे रत्न रहते हैं उसी प्रकार उस नगरी में भी बहुतसे रत्न विद्यमान हैं, जिस प्रकार समुद्रका जल कृष्ण तेज अर्थात् काले वर्ण से सुशोभित रहता है उसी प्रकार वह नगरी भी कृष्ण तेज अर्थात् वसुदेव के पुत्र श्री कृष्णके प्रतापसे सुशोभित है, और जिस प्रकार समुद्र के जलमें सदा गम्भीर शब्द होता रहता है उसी प्रकार उस नगरी में भी सदा गम्भीर शब्द होता रहता है । वह नौ योजन चौड़ी तथा बारह योजन लम्बी है, समुद्र के बीच में है तथा यादवों की नगरी कहलाती है । हम लोगों ने ये रत्न वहीं प्राप्त किये हैं' ऐसा वैश्य-पुत्रों ने कहा ॥57-64॥ जब दैवसे छले गये अहंकारी जरासन्ध ने वैश्य-पुत्रों के उक्त वचन सुने तो वह क्रोधसे अन्धा हो गया, उसकी दृष्टि भयंकर हो गई, यही नहीं, बुद्धिसे भी अन्धा हो गया ॥65॥ जिसकी सेना, असमयमें प्रकट हुए प्रलयकाल के लहराते समुद्र के समान चन्चल है ऐसा वह जरासन्ध यादव लोगोंका शीघ्र ही नाश करने के लिए तत्काल चल पड़ा ॥66॥ बिना कारण ही युद्ध से प्रेम रखनेवाले नारदजी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने शीघ्र ही जाकर श्रीकृष्णसे जरासन्धके कोपका समाचार कह दिया ॥67॥ 'शत्रु चढ़कर आ रहा है' यह समाचार सुनकर श्रीकृष्ण को कुछ भी आकुलता नहीं हुई । उन्होंने नेमिकुमार के पास जाकर कहा कि आप इस नगरकी रक्षा कीजिए । सुना है कि मगधका राजा जरासन्ध हम लोगों को जीतना चाहता है सो मैं उसे आपके प्रभाव से घुणके द्वारा खाये हुए जीर्ण वृक्ष के समान शीघ्र ही नष्ट किये देता हूं । श्रीकृष्णके वीरता पूर्ण वचन सुनकर जिनका चित्त प्रसन्नतासे भर गया है जो कुछ-कुछ मुसकरा रहे हैं और जिनके नेत्र मधुरतासे ओत-प्रोत हैं ऐसे भगवान् नेमिनाथको अवधिज्ञान था अत: उन्होंने निश्चय कर लिया कि विरोधियोंके ऊपर हम लोगोंकी विजय निश्चित रहेगी । उन्होंने दाँतोंकी देदीप्यमान कान्ति को प्रकट करते हुए 'ओम्' शब्द कह दिया अर्थात् द्वारावतीका शासन स्वीकृत कर लिया । जिस प्रकार जैनवादी अन्यथानुपपत्ति रूप लक्षणसे सुशोभित पक्ष आदिके द्वारा ही अपनी जयका निश्चय कर लेता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने भी नेमिनाथ भगवान् की मुसकान आदिसे ही अपनी विजयका निश्चय कर लिया था ॥68-72॥ अथानन्तर कृष्ण और बलदेव, शत्रुओं को जीतने के लिए जय, विजय, सारण, अंगद, दव, उद्धव, सुमुख, पद्म, जरा, सुदृष्टि, पाँचों पाण्डव, सत्यक, द्रुपद, समस्त यादव, विराट्, अपरिमित सेनाओंसे युक्त धृष्टार्जुन, उग्रसेन, युद्धका अभिलाषी चमर, विदुर, तथा अन्य राजाओं के साथ उद्धत होकर युद्धके लिए तैयार हुए और वहाँसे चलकर कुरूक्षेत्र में जा पहुँचे ॥73- 76॥ उधर युद्धकी इच्छा रखनेवाला जरासन्ध भी अपनी गर्मी (अहंकार) प्रकट करनेवाले भीष्म, कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा, रूक्म, शल्य, वुषसेन, कृप, कृपवर्मा, रूदिर, इन्द्रसेन, राजा जयद्रथ, हेमप्रभ, पृथिवी का नाथ दुर्योधन, दु:शासन, दुर्मर्षण, दुर्धर्षण, दुर्जय, राजा कलिंग, भगदत्त, तथा अन्य अनेक राजाओं के साथ कृष्णके सामने आ पहुंचा ॥77-80॥ उस समय श्री कृष्ण की सेना में युद्ध की भेरियाँ बज रही थीं सो जिस प्रकार कुसुम्भ रंग वस्त्र को रंग देता है उसी प्रकार उन भेरियोंके उठते हुए शब्दने भी शूरवीरों के चित्त को रंग दिया था ॥81॥ उन भेरियों का शब्द सुनकर कितने ही राजा लोग देवताओंकी पूजा करने लगे और कितने ही गुरूओं के पास जाकर अहिंसा आदि व्रत ग्रहण करने लगे ॥82॥ युद्धके सम्मुख हुए कितने ही राजा अपने भृत्योंसे कह रहे थे कि तुम लोग कवच धारण करो, पैनी तलवार लो, धनुष चढ़ाओ और हाथी तैयार करो । घोड़ों पर जीनकस कर तैयार करो, स्त्रियाँ अधिकारियोंके लिए सौंपो, रथोंमें घोड़े जोत दो, निरन्तर भोग-उपभोग की वस्तुओं का सेवन किया जाय और बन्दी तथा मागध लोग अपने पराक्रमकी वन्दना करें-स्तुति करें' ॥83-86॥ उस समय कितने ही राजा, स्वामी की भक्तिसे, कितने ही स्वाभाविक पराक्रमसे, कितने ही शत्रुओं पर जमी हुई ईर्ष्यासे, कितने ही यश पानेकी इच्छासे, कितने ही शूरवीरोंकी गति पानेके लोभसे, कितने ही अपने वंशके अभिमानसे और कितने ही युद्ध सम्बन्धी अन्य-अन्य कारणों से प्राणोंका नाश करने के लिए तैयार हो गये थे ॥87-88॥ उस समय श्रीकृष्ण भी बड़ा गर्व कर रहे थे, सब आभूषण पहिने थे और शरीर पर केशर पर केशर लगाये हुए थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो सिन्दूर लगाये हुए हाथी हों ॥89॥ 'आपकी जय हो', 'आप चिरंजीव रहें' इस प्रकार बन्दीजन उनका मंगलपाठ पढ़ रहे थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो चातकोंकी सुन्दर ध्वनिसे युक्त नवीन मेघ ही हो ॥90॥ उन्होंने सज्जनों के द्वारा धारण की हुई पवित्र सुवर्णमय झारीके जलसे आाचमन किया, शुद्ध जलसे शीघ्र ही पूर्ण जलान्जलि दी और फिर गन्ध पुष्प आदि द्रव्यों के द्वारा विघ्नों का नाश करने वाले, स्वामी रहित (जिनका कोई स्वामी नहीं) तथा भव्य जीवोंका मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष के समान श्री जिनेन्द्रदेव की भक्ति-पूर्वक पूजा की, उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर चारों ओर गुरूजनों और सामन्तोंको अथवा प्रामाणिक सामन्तोंको रखकर स्वयं ही शत्रु को नष्ट करने के लिए उसके सामने चल पड़े ॥91- 93॥ तदनन्तर कृष्ण की आज्ञा से अनुराग रखनेवाले प्रशंसनीय परिचारकोंने यथायोग्य रीतिसे सेनाकी रचना की ॥94॥ जरासन्ध भी संग्राम रूपी युद्धभूमि के बीच में आ बैठा और कठोर सेनापतियोंके द्वारा सेनाकी योजना करवाने लगा ॥95॥ इस प्रकार जब सेनाओं की रचना ठीक-ठीक हो चुकी तब युद्ध के नगाड़े बजने लगे । शूर-वीर धनुषधारियोंके द्वारा छोड़े हुए बाणोंसे आकाश भर गया और उसने सूर्यकी फैलती हुई किरणों की सन्तति को रोक दिया-ढक दिया । 'सूर्य अस्त हो गया है' इस भयकी आशंकासे मोहवश चकवा-चकवी परस्पर बिछुड़ गये । अन्य पक्षी भी शब्द करते हुए घोंसलों की ओर जाने लगे । उस समय युद्ध के मैदान में इतना अन्धकार हो गया थाकि योद्धा परस्पर एक दूसरेको देख नहीं सकते थे परन्तु कुछ ही समय बाद क्रुद्ध हुए मदोन्मत्त हाथियों के दाँतों की टक्कर से उत्पन्न हुई अग्निके द्वारा जब वह अन्धकार नष्ट हो जाता और सब दिशाएँ साफ-साफ दिखने लगतीं तब समस्त शस्त्र चलानेमें निपुण योद्धा फिरसे युद्ध करने लगते थे । विक्रमरससे भरे योद्धाओं ने क्षण भर में खून की नदियाँ बहा दीं ॥96-100॥ भयंकर तलवार की धार से जिनके आगे के दो पैर कट गये हैं ऐसे घोड़े उन तपस्वियोंकी गतिको प्राप्त हो रहे थे जो कि तप धारण कर उसे छोड़ देते हैं ॥101॥ जिनके पैर कट गये हैं ऐसे हाथी इस प्रकार पड़ गये थे मानो प्रलय काल की महावायुसे जड़से उखड़ कर नीले रंगके बड़े-बड़े पहाड़ ही पड़ गये हों ॥102॥ शत्रु भी जिनके साहसपूर्ण कार्यों की प्रशंसा कर रहे हैं ऐसे पड़े हुए योद्धाओं के प्रसन्न मुख-कमल, स्थल कमल (गुलाब) की शोभा धारण कर रहे थे ॥103॥ योद्धाओं ने अपनी कुशलता से परस्पर एक दूसरे के शस्त्र तोड़ डाले थे परन्तु उनके टुकडों से ही समीप में खड़े हुए बहुत से लोग मर गये थे ॥104॥ कितने ही योद्धा न ईर्ष्या से, न क्रोध से, न यश से, और न फल पाने की इच्छा से युद्ध करते थे किन्तु 'यह न्याय है' ऐसा सोचकर युद्ध कर रहे थे ॥105॥ जिनका शरीर सर्व प्रकार के शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो गया है ऐसे कितने ही वीर योद्धा हाथियोंके स्कन्धसे नीचे गिर गये थे परन्तु कानोंके आभरणोंमें पैर फँस जानेसे लटक गये थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो वे अपना चिर-परिचित स्थान छोड़ना नहीं चाहते हों और इसीलिए कानोंके अग्रभागका सहारा ले नीचेकी ओर मुखकर लटक गये हों ॥106-107॥ बड़ी चपलता से चलनेवाले कितने ही योद्धा अपने रक्षाकी लिए बायें हाथ में भाल लेकर शस्त्रोंवाली दाहिनी भुजासे शत्रुओं को मार रहे थे ॥108॥ आगम में जो मनुष्योंका कदलीघात नाम का अकाल-मरण बतलाया गया है उसकी अधिकसे अधिक संख्या यदि हुई थी तो उस युद्धमें ही हुई थी ऐसा उस युद्ध के मैदान के विषय में कहा जाता है ॥109॥ इस प्रकार दोनों सेनाओं में चिरकाल तक तुमुल युद्ध होता रहा जिससे यमराज भी खूब सन्तुष्ट हो गया था ॥110॥ तदनन्तर जिस प्रकार किसी छोटी नदी के जल को महानदी के प्रवाहका जल दबा देता है उसी प्रकार श्रीकृष्णकी सेना को शत्रुकी सेनाने दबा दिया ॥111॥ यह देख, जिस प्रकार सिंह हाथियोंके समूह पर टूट पड़ता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण क्रुद्ध होकर तथा सामन्त राजाओंकी सेना के समूह साथ लेकर शत्रु को मारनेके लिए उद्यत हो गये-शत्रु पर टूट पड़े ॥112॥ जिस प्रकार सूर्य का उदय होते ही अन्धकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार श्रीकृष्णको देखते ही शत्रुओं की सेना विलीन हो गई-उसमें भगदड़ मच गई । यह देख, क्रोधसे भरा जरासन्ध आया और उसने रूक्ष दृष्टिसे देखकर, अपने पराक्रम से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला चक्ररत्न ले श्रीकृष्णकी ओर चलाया ॥113-114॥ परन्तु वह चक्र प्रदक्षिणा देकर श्रीकृष्ण की दाहिनी भुजा पर ठहर गया । तदनन्तर वही चक्र लेकर श्रीकृष्ण ने मगधेश्वर-जरासन्धका शिर काट डाला ॥115॥ उसी समय कृष्ण की सेनामें जीत के नगाड़े बजने लगे और आकाश से सुगन्धित जलकी बूँदोंके साथ-साथ कल्पवृक्षोंके फूल बरसने लगे ॥116॥ चक्रवर्ती श्रीकृष्ण ने दिग्विजय की भारी इच्छा के चक्ररत्न आगे कर बड़े भाई बलदेव तथा अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया ॥117॥ जिनका उदय बलवान् है ऐसे श्रीकृष्ण ने मागध आदि प्रसिद्ध देवोंको जीत कर अपना सेवक बनाया और उनके द्वारा दिये हुए श्रेष्ठ रत्न ग्रहण किये ॥118॥ लवण समुद्र सिन्धु नदी और विजयार्थ पर्वत के बीचके म्लेच्छ राजाओंसे नमस्कार कराकर उनसे अपने पैरोंके नखोंकी कान्तिका भार उठवाया ॥119॥ तदनन्तर विजयार्ध पर्वत, लवणसमुद्र और गंगानदी के मध्य में स्थित म्लेच्छ राजाओं को विद्याधरोंके साथ ही साथ जितेन्द्रिय श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही वश कर लिया ॥120॥ इस प्रकार आधे भरतके स्वामी होकर श्रीकृष्ण ने, जिसमें बहुत ऊँची पताकाएँ फहरा रही हैं और जगह जगह तोरह बाँधे गये हैं ऐसी द्वारावती नगरी में बड़े हर्ष से प्रवेश किया ॥121॥ प्रवेश करते ही देव और विद्याधर राजाओं ने उन्हें तीन खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती मानकर उनका बिना कुछ कहे सुने ही अपने आप राज्याभिषेक किया ॥122॥ श्रीकृष्ण की एक हजार वर्ष की आयु थी, दश धनुषकी ऊँचाई थी, अतिशय सुशोभित नीलकमल के समान उनका वर्ण था, और लक्ष्मी से आलिंगित उनका शरीर था ॥123॥ चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दण्ड, और नन्दक नाम का खंग ये उनके सात रत्न थे । इन सभी रत्नों की देव लोग रक्षा करते थे ॥124॥ रत्नमाला, गदा, हल और मूसल ये देदीप्यमान चार महारत्न बलदेव प्रभुके थे ॥125॥ रूक्मिणी, सत्यभामा, सती जाम्बवती, सुसीमा, लक्ष्मणा, गान्धारी, सप्तमी गौरी और प्रिया पद्मावती ये आठ देवियां श्रीकृष्णकी पट्टरानियाँ थीं। इनकी सब मिलाकर सोलह हजार रानियाँ थीं तथा बलदेव के सब मिलाकर अभीष्ट सुख देनेवाली आठ हजार रानियां थीं । ये दोनों भाई इन रानियोंके साथ देवों के समान सुख भोगते हुए परम प्रीतिको प्राप्त हो रहे थे ॥126-128॥ इस प्रकार पूर्व जन्म में किये हुए अपनेपुण्य कर्म के उदय से पुष्कल भोगों को भोगते हुए श्रीकृष्णका समय सुख से व्यतीत हो रहा था । किसी एक समय शरद् ऋतुमें सब अन्त:पुरके साथ मनोहर नाम के सरोवरमें सब लोग मनोहर जलकेली कर रहे थे । वहीं पर जल उछालते समय भगवान् नेमिनाथ और सत्यभामाके बीच चतुराईसे भरा हुआ मनोहर वार्तालाप हुआ ॥129-130॥ सत्यभामा ने कहा कि आप मेरे साथ अपनी प्रियाके समान क्रीड़ा क्यों करते हैं ? इसके उत्तरमें नेमिराजने कहा कि क्या तुम मेरी प्रिया (इष्ट) नहीं हो ? सत्यभामा ने कहा कि यदि मैं आपकी प्रिया (स्त्री) हूं तो फिर आपके भाई (कृष्ण) किसके पास जावेंगे ? नेमिनाथ ने उत्तर दिया कि वे कामिनीके पास जावेंगे ? सत्यभामा ने कहा कि सुनूँ तो सही वह कामिनी कौन सी है ? उत्तरमें नेमिनाथ ने कहा कि क्या तुम नहीं जानती ? अच्छा अब जान जाओगी । सत्यभामा ने कहा कि सब लोग आपको सीधा कहते हैं पर आप तो बड़े कुटिल हैं । इस प्रकार जब विनोद करते-करते स्नान समाप्त हुआ तब नेमिनाथ ने सत्यभामा से कहा कि हे नीलकमल के समान नेत्रों वाली ! तू मेरा यह स्नानका वस्त्र ले । सत्यभामाने कहा कि मैं इसका क्या करूँ ? नेमिनाथ ने कहा कि इसे धो डाल । तब सत्यभामा कहने लगी कि क्या आप श्रीकृष्ण हैं ? वह श्रीकृष्ण, जिन्होंने कि नागशय्या पर चढ़कर शांर्ग नाम का दिव्य धनुष अनायास ही चढ़ा दिया था और दिगदिगन्तको पूर्ण करनेवाला शंख पूरा था ? क्या आपमें वह साहस है, यदि नहीं है तो आप मुझसे वस्त्र धोनेकी बात कहते हैं ? ॥131-136॥ नेमिनाथ ने कहा कि 'मैं यह कार्य अच्छी तरह कर दूंगा' इतना कहकर वे गर्वसे प्रेरित हो नगरकी ओर चल पड़े और वह आश्चर्यपूर्ण कार्य करने के लिए आयुधशालामें जा घुसे । वहाँ वे नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशय्यापर अपनी ही शय्याके समान चढ़ गये, बार बार स्फालन करनेसे जिसकी डोरी रूपी लता बड़ा शब्द कर रही है ऐसा धनुष उन्होंने चढ़ा दिया और दिशाओं के अन्तरालको रोकनेवाला शंख फूंक दिया ॥137-139॥ उस समय उन्होंने अपने आपको महान् उन्नत समझा सो ठीक ही है क्योंकि राग और अहंकारका लेशमात्र भी प्राणीको अवश्य ही विकृत बना देता है ॥140॥ जिस समय आयुधशाला में यह सब हुआ था उस समय श्रीकृष्ण कुसुमचित्रा नाम की सभाभूमिमें विराजमान थे । वे सहसा ही यह आश्चर्यपूर्ण काम सुन कर व्यग्र हो उठे, उनका मन अत्यन्न व्याकुल हो गया ॥141॥ बड़े आश्चर्य के साथ उन्होंने किंकरों से पूछा कि 'यह क्या है ?' किंकरोंने भी अच्छी तरह पता लगा कर श्रीकृष्णसे सब बात ज्योंकी त्यों निवेदन कर दी । किंकरोंके वचन सुनकर चक्रवर्ती कृष्णसे बड़ी सावधानीके साथ विचार करते हुए कहा कि आश्चर्य है, बहुत समय बाद कुमार नेमिनाथका चित्त राग से युक्त हुआ है । अब यह नवयौवन से सम्पन्न हुए हैं अत: विवाहके योग्य हैं-इनका विवाह करना चाहिए । सो ठीक ही है ऐसा कौन सकर्मा प्राणी है जिसे दुष्ट काम के द्वारा बाधा नहीं होती हो ॥142-144॥ यह कह कर उन्होंने विचार किया कि उग्रवंश रूपी समुद्रको बढ़ानेके लिए चन्द्रमा के समान, राजा उग्रसेनकी जयावती रानीसे उत्पन्न हुई राजीमति नाम की पुत्री है जो सर्वांग सुन्दर है ॥145॥ विचार के बाद ही उन्होंने राजा उग्रसेनके घर स्वयं जाकर बड़े आदरसे 'आपकी पुत्री तीन लोक के नाथ भगवान् नेमिकुमारकी प्रिया हो' इन शब्दोंमें उस माननीय कन्याकी याचना की ॥146॥ इसके उत्तरमें राजा उग्रसेनने कहा कि 'हे देव ! तीन खण्डमें उत्पन्न हुए रत्नोंके आप ही स्वामी हैं, और खास हमारे स्वामी हैं, अत: यह कार्य आपको ही करना है-आप ही इसके नाथ हैं हम लोग कौन होते हैं ?' इस प्रकार राजा उग्रसेनके वचन सुन कर श्रीकृष्ण महाराज बहुत ही हर्षित हुए । तदनन्तर उन्होंने किसी शुभ दिन में वह विवाह का उत्सव करना प्रारम्भ किया और सबसे उत्तम तथा मनोहर पाँच प्रकार के रत्नोंका विवाहमण्डप बनवाया । उसके बीच में एक वेदिका बनवाई गई थी जो नवीन मोतियोंकी सुन्दर रंगावलीसे सुशोभित थी, मंगलमय सुगन्धित फूलों के उपहार तथा वृष्टि से मनोहर थी, उस पर सुन्दर नवीन वस्त्र ताना गया था, और उसके बीच में सुवर्णकी चौकी रखी हुई थी । उसी चौकी पर नेमिकुमार ने वधू राजीमतीके साथ गीले चावलोंपर बैठने का नेंग (दस्तूर) किया ॥147-151॥ दूसरे दिन वर के हाथ में जलधारा देनेका समय था । उस दिन मायाचारियोंमें श्रेष्ठ तथा दुर्गतिको जानेकी इच्छा करनेवाले श्रीकृष्णका अभिप्राय लोभ कषायके तीव्र उदय से कुत्सित हो गया । उन्हें इस बातकी आशंका उत्पन्न हुई कि कहीं इन्द्रों के द्वारा पूजनीय भगवान् नेमिनाथ हमारा राज्य न ले लें । उसी क्षण उन्हें विचार आया कि 'ये नेमिकुमार वैराग्य का कुछ कारण पाकर भोगों से विरक्त हो जावेंगे ।' ऐसा विचार कर वे वैराग्यका कारण जुटानेका प्रयत्न करने लगे । उनकी समझमें एक उपाय आया । उन्होंने बड़े-बड़े शिकारियों से पकड़वाकर अनेक मृगोंका समूह बुलाया और उसे एक स्थानपर इकट्ठाकर उसके चारों ओर बाड़ी लगवा दी तथा वहाँ जो रक्षक नियुक्त किये थे उनसे कह दिया कि यदि भगवान् नेमिनाथ दिशाओं का अवलोकन करने के लिए आवें और इन मृगों के विषय में पूछें तो उनसे आप लोग साफ साफ कह देना कि आपके विवाहमें मारने के लिए चक्रवर्ती ने यह मृगोंका समूह बुलाया है । महापाप का बन्ध करनेवाले श्रीकृष्ण ने ऐसा उन लोगों को आदेश दिया ॥152-157॥ तदनन्तर जो नाना प्रकार के आभूषणों से देदीप्यमान हैं, जिनके शिरके बाल सजे हुए हैं, जो लाल कमलोंकी माला से अलंकृत हैं, घोड़ोंके खुरोंसे उड़ी हुई धूलिके द्वारा जिन्होंने दिशाओं के अग्रभाग लिप्त कर दिये हैं, और जो समान अवस्था वाले, अतिशय प्रसन्न बड़े-बड़े मण्डलेश्वर राजाओं के पुत्रोंसे घिरे हुए हैं ऐसे नयनाभिराम भगवान् नेमिकुमार भी चित्रा नाम की पालकीपर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिए निकले । वहाँ उन्होनें घोर करूण स्वरसे चिल्ला-चिल्लाकर इधर-उधर दौड़ते, प्यासे, दीनदृष्टिसे युक्त तथा भय से व्याकुल हुए मृगोंको देख दयावश वहाँके रक्षकों से पूछा कि यह पशुओं का बहुत भारी समूह यहाँ एक जगह किस लिए रोका गया है ? ॥158–162॥ उत्तर में रक्षकों ने कहा कि 'हे देव ! आपके विवाहोत्सव में व्यय करने के लिए महाराज श्रीकृष्ण ने इन्हें बुलाया है' ॥163॥ यह सुनते ही भगवान् नेमीनाथ विचार करने लगे 'कि ये पशु जंगल में रहते हैं, तृण खाते हैं और कभी किसीका कुछ अपराध नहीं करते हैं फिर भी लोग इन्हे अपने भोगके लिए पीडा पहुँचाते हैं । ऐसे लोगों को धिक्कार है । अथवा जिनके चित्तमें गाढ़ मिथ्यात्व भरा हुआ है ऐसे मूर्ख तथा दयाहीन प्राणी अपने नश्वर प्राणों के द्वारा जीवित रहने के लिए क्या नहीं करते हैं ? देखों, दुर्बुद्धि श्रीकृष्ण ने मुझपर अपने राज्य-ग्रहणकी आशंकाकर ऐसा कपट किया है । यथार्थमें दुष्ट मनुष्यों की चेष्टा कष्ट देनेवाली होती है' । ऐसा विचारकर वे विरक्त हुए और लौटकर अपने घर आ गये । रत्नत्रय प्रकट होनेसे उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उन्हें समझाया, अपने पूर्व भवों का स्मरण कर वे भय से काँप उठे । उसी समय इन्होंने आकर दीक्षाकल्याणका उत्सव किया ॥164–168॥ तदनन्तर देवगुरू नामक पालकीपर सवार होकर वे देवों के साथ चल पड़े । सहस्त्राम्रवन में जाकर तेलाका नियम लिया और श्रावण शुल्का षष्ठी के दिन सांयकाल के समय, कुमार-काल के तीन सौ वर्ष बीत जानेपर एक हजार राजाओं के साथ-साथ संयम धारण कर लिया । उसी समय उन्हें चौथा-मन:-पर्यय ज्ञान हो गया और केवलज्ञान भी निकट कालमें हो जावेगा ॥169–171॥ जिस प्रकार संध्या सूर्य के पीछे-पीछे अस्ताचलपर चली जाती है उसी प्रकार राजीमती भी उनके पीछे-पीछे तपश्चरणके लिए चली गई सो ठीक ही है क्योंकि शरीर की बात तो दूर रही, वचन मात्रसे भी दी हुई कुलस्त्रियोंका यही न्याय है ॥172॥ अन्य मनुष्य तो अपने दुखसे भी विरक्त हुए नहीं सुने जाते पर जो सज्जन पुरूष होते हैं वे दूसरेके दु:खसे ही महाविभूतिका त्याग कर देते हैं ॥173॥ बलदेव तथा नारायण आदि मुख्य राजा और इन्द्र आदिदेव, सब अनेक स्तवनोंके द्वारा उन भगवान् की स्तुतिकर अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥174॥ पारणा के दिन उन सज्जनोत्तम भगवान् ने द्वारावती नगरी में प्रवेश किया । वहाँ सुवर्गके समान कान्तिवाले तथा श्रद्धा आदि गुणों से सम्पन्न राजा वरदत्तने पडिगाहन आदि नवधा भक्तिकर उन्हें मुनियों के ग्रहण करने योग्य-शुद्ध प्रासुक आहार दिया तथा पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥175–176॥ उसके घर देवों के हाथ से छोड़ी हुई साढ़े बारह करोड़ रत्नों की वर्षा हुई, फूल बरसे, मन्दता आदि तीन गुणों से युक्त वायु चलने लगी, मेघोंके भीतर छिपे देवों के द्वारा ताडित दुन्दुभियोंका सुन्दर शब्द होने लगा और आपने बहुत अच्छा दान दिया यह घोषणा होने लगी ॥177-178॥ इस प्रकार तपस्या करते हुए जब उनकी छद्मस्थ अवस्थाके छप्पन दिन व्यतीत हो गये तब एक दिन वे रैवतक (गिरनार) पर्वतपर तेलाका नियम लेकर किसी बड़े भारी बाँस के वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये । निदान, आसौज कृष्ण पडिमाके दिन चित्रा नक्षत्र में प्रात:काल के समय उन्हें समस्त पदार्थों को विषय करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवों ने केवलज्ञान कल्याणका उत्सवकर उनकी पूजा की ॥179-181॥ उनकी सभा में वरदत्त को आदि लेकर ग्यारह गणधर थे, चार सौ श्रुतज्ञानरूपी समुद्र के पारगामी पूर्वोंके जानकार थे, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक थे, पन्द्रह सौ तीन ज्ञान के धारक थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, ग्यारह सौ विक्रियाऋद्धि के धारक थे, नौ सौ मन:पर्ययज्ञानी थे और आठ सौ वादी थे । इस प्रकार सब मिलाकर उनकी सभा में अठारह हजार मुनिराज थे । यक्षी, राजीमती, कात्यायनी आदि सब मिला कर चालीस हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्यात देव-देवियाँ थीं और संख्यात तिर्यन्च थे । इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान् नेमिनाथ, पापोंको नष्ट करने वाले, धर्मोपदेश रूपी सूर्यकी किरणोंके प्रसारसे भव्य जीव रूपी कमलों को बार-बार विकसित करने हुए समस्त देशों में घूमे थे । अन्त में कृतकृत्य भगवान् द्वारावती नगरी में आकर रैवतक गिरिके उद्यानमें विराजमान हो गये । अन्तिम नारायण कृष्ण तथा बलदेवने जब यह समाचार सुना तब वे अपनी समस्त विभूतिके साथ उनके पास गये । वहाँ जाकर उन दोनोंने वन्दना की, धर्म का स्वरूप सुना और प्रसन्नता का अनुभव किया ॥182-190॥ भगवान् नेमिनाथ ने जीव के सद्भाव का निरूपण किया ॥191-197॥ उसे सुन कर जो भव्य जीव थे, उन्होंने जैसा भगवान् ने कहा था वैसा ही मान लिया परन्तु जो अभव्य अथवा दूरभव्य थे वे मिथ्यात्वके उदय से दूषित होने के कारण संसार को बढ़ानेवाली अपनी अनादि वासना नहीं छोड़ सके । तदनन्तर देवकीने वरदत्त गणधरसे पूछा कि हे भगवन् ! मेरे घर पर दो दो करके छह मुनिराज भिक्षाके लिए आये थे उन छहोंमें मुझे कुटुम्बियों जैसा स्नेह उत्पन्न हुआ था सो उसका कारण क्या है ? ॥198-200॥ इस प्रकार पूछने पर गणधर भी उस कथा को इस प्रकार कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी मथुरा नगर में शौर्य देशका स्वामी शूरसेन नाम का राजा रहता था । उसी नगर में भानुदत्त सेठके सात पुत्र हुए थे । उनकी माताका नाम यमुनादत्ता था । उन सात पुत्रों में सुभानु सबसे बड़ा था, उससे छोटा भानुकीर्ति, उससे छोटा भानुशूर, पाँचवा शूरदेव, उससे छोटा शूरदत्त, सातवाँ शूरसेन था । इन सातों पुत्रोंसे माता-पिता दोनों ही सुशोभित थे और वे अपने पुण्य कर्म के फलस्वरूप गृहस्थ धर्म को प्राप्त हुए थे । किसी दूसरे दिन आचार्य अभयनन्दीसे धर्म का स्वरूप सुन कर राजा शूरसेन और सेठ भानुदत्त दोनोंने उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया । इसी प्रकार सेठकी स्त्री यसुनादत्ताने भी जिनदत्ता नाम की आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली ॥201-206॥ माता-पिता के चले जानेपर सेठके सातों पुत्र सप्त व्यसनोंमें आसक्त हो गये । उन्होंने पापमें पड़कर अपना सब मूलधन नष्ट कर दिया और ऐसी दशामें राजा ने भी उन्हें अपने देशसे बाहर निकाल दिया॥207॥ अब वे अवन्तिदेशमें पहुँचे और उज्जयिनी नगरी के श्मशानमें छोटे भाई शूरसेनको बैठा कर बाकी छह भाई चोरी करने के लिए नगरी में प्रविष्ट हुए ॥208॥ उन छहों भाइयोंके चले जानेपर उस श्मशानमें एक घटना और घटी जो कि इस प्रकार है-उस समय उज्जयिनीका राजा वृषभध्वज था, उसके एक दृढ़प्रहार नाम का चतुर सहस्त्रभट योद्धा था, उसकी स्त्री का नाम वप्रश्री था और उन दोनोंके वज्रमुष्टि नाम का पुत्र था ॥209-210॥ उसी नगर में विमलचन्द्र सेठकी विमला स्त्रीसे उत्पन्न हुई मंगी नाम की पुत्री थी, वह वज्रमुष्टिकी प्रिया हुई थी । किसी एक दिन बसन्त ऋतुमें उस समयका सुख प्राप्त करने की इच्छा से सब लोग राजा के साथ वन में जानेके लिए तैयार हुए । मंगी भी जानेके लिए तैयार हुई । उसने माला के लिए कलशमें हाथ डाला परन्तु उसकी सास वप्रश्रीने बहूकी ईर्ष्यासे एक काला साँप माला के साथ उस कलशमें पहलेसे ही रख छोड़ा था सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा कौन सा कार्य है जिसे स्त्रियाँ नहीं कर सकें ॥211-213॥ वसन्त ऋतुके तीव्र विषवाले साँपने उस मंगीको हाथ डालते ही काट खाया जिससे उसके समस्त शरीर में विष फैल गया और वह उसी समय निश्चेष्ट हो गई ॥214॥ वपश्री, बहूको पयालसे लपेट कर श्मशानमें छोड़ आई । जब वज्रमुष्टि वनक्रीड़ा समाप्त होने पर लौट कर आया तो उसने आकुल होकर अपनी माँसे पूछा कि मंगी कहाँ है ? माताने झूटमूठ कुछ उत्तर दिया परन्तु उससे वह संतुष्ट नहीं हुआ । मंगीके नहीं मिलनेसे वह बहुत दु:खी हुआ और नंगी तीक्ष्ण तलवार लेकर ढूँढ़नेके लिए रात्रिमें ही चल पड़ा ॥215-216॥ उस समय श्मशानमें वरधर्म नाम के मुनिराज योग धारण कर विराजमान थे । वज्रमुष्टिने भक्ति से हाथ जोड़ कर उनके दर्शन किये और कहा कि हे पूज्य ! यदि मैं अपनी प्रियाको देख सकूंगा तो सहस्त्रदल वाले कमलोंसे आपकी पूजा करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर वज्रमुष्टि आगे गया । आगे चलकर उसने जिसे कुछ थोड़ी सी चेतना बाकी थी, ऐसी विषसे दूषित अपनी प्रिया देखी । वह शीघ्र ही पयाल हटाकर उसेमुनिराज के समीप ले आया ॥217-219॥ और मुनिराज के चरण-कमलोंके स्पर्श रूपी ओषधिसे उसने उसे विषरहित कर लिया । मंगीने भी उठकर अपने पतिका आनन्द बढ़ाया ॥220॥ तदनन्तर गुरूदेव के ऊपर जिसका मन अत्यन्त प्रसन्न है ऐसा वज्रमुष्टि इधर सहस्त्रदल कमल लानेके लिए चला गया । उधर वृक्षोंसे छिपा हुआ शूरसेन यह सब काम देख रहा था ॥221॥ वह मंगी की परीक्षा करने के लिए उसके पास आया और उसने उसे अपना शरीर दिखाकर मीठी बातों, चेष्टाओं, लीलापूर्ण विलोकनों और हँसी मजाक आदिसे शीघ्र ही अपने वश कर लिया । वह शूरसेनने कहने लगी कि मैं आपके साथ चलूँगी, आप मुझे लेकर चलिए । मंगीकी बात सुनकर उसने स्पष्ट कहा कि मैं तुम्हारे पतिसे डरता हूँ इसलिए तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए । उत्तरमें मांगीने कहा कि तुम डरो मत, वह नीच डरपोंक तुम्हारा क्या कर सकता है ? फिर भी जिससे तुम्हारी कुछ हानि न हो वह काम मैं किये देती हूँ ॥222-224॥ इस प्रकार इन दोनोंकी परस्पर बात-चीत हो रही थी कि उसी समय हाथमें कमल लिये वज्रमुष्टि आ गया । उसने अपनी तलवार तो मंगीके हाथमें दे दी और स्वयं वह भक्ति से मुनिराज के दोनों चरण-कमलोंकी पूजा करने के लिए नम्रीभूत हुआ । उसी समय उसकी प्रियाने उसपर प्रहार करने के लिए तलवार उठाई परन्तु शूरसेनने उसके हाथसे उसी वक्त तलवार छीन ली । इस कर्मसे शूरसेनके हाथकी अंगुलियाँ कट-कट कर जमीन पर गिर गईं ॥226-228॥ यह देखकर वज्रमुष्टिने कहा कि हे प्रिये ! डरो मत । इसके उत्तरमें मंगी ने झूठमूठ ही कह दिया कि हाँ, मैं डर गई थी ॥229॥ जिस समय यह सब हो रहा था उसी समय शूरसेनके छह भाई चोरीका धन लेकर आ गये और उससे कहने लगे कि हे भाई ! तू अपना हिस्सा ले ले ॥230॥ परन्तु, वह भव्य अत्यन्त विरक्त हो चुका था अत: कहने लगा कि मुझे धनसे प्रयोजन नहीं है, मैं तो संसार से बहुत ही डर गया हूं इसलिए संयम धारण करूँगा ॥231॥ उसकी बात सुनकर भाइयोंने कहा कि तेरे तप ग्रहण करनेका क्या कारण है ? सो कह । इस प्रकार भाइयोंके कहनेपर उसने अपने हाथकी कटी हुई अंगुलियोंका घाव दिखाकर मंगी तथा अपने बीचकी सब चेष्टाएँ कह सुनाई । उन्हें सुनकर सुभानु इस प्रकार स्त्रियोंकी निन्दा करने लगा ॥232-233॥ कि पर पुरूषमें आसक्तिको प्राप्त हुई स्त्रियाँ ही निन्दाका स्थान हैं । ये वर्ण मात्रसे सुन्दर दिखती हैं और दूसरे पुरूषोंको अत्यन्त राग युक्त कर लेती हैं । ये बनावटी प्रेमसे ही रागी मनुष्यों के नेत्रोंको प्रिय दिखती हैं और अनेक प्रकार के आभूषणोंसे रमणीय चित्र विचित्र वेष धारण करती हैं ॥234-235॥ ये विषय-सुख करने के लिए तो बड़ी मधुर मालूम होती हैं परन्तु अन्त में किंपाक फलके समूह के समान जान पड़ती हैं । आचार्य कहते हैं कि ये स्त्रियाँ किन्हें नहीं नष्ट कर सकती हैं अर्थात् सभीको नष्ट कर सकती हैं ॥236॥ ये स्त्रियाँ केवल अपने पुत्रोंकी ही माताएँ नहीं हैं किन्तु दोषोंकी भी माताएँ हैं और जिस प्रकार बुरी शिक्षासे प्राप्त हुई बुरी विद्याएँ दु:ख देती हैं उसी प्रकार दु:ख देती हैं ॥337॥ ये स्त्रियाँ यद्यपि कोमल हैं, शीतल हैं, चिकनी हैं और प्राय: स्पर्शका सुख देनेवाली हैं तो भी सर्पिणियोंके समान प्राण हरण करनेवाली तथा पाप रूप हैं ॥238॥ साँपोंका विष तो उनके दाँतोंके अन्त में ही रहता है फिर भी वह किसीको मारता है और किसीको नहीं मारता है किन्तु स्त्री का विष उसके सर्व शरीर में रहता है वह उनका सहभावी होने के कारण दूर भी नहीं किया जा सकता और वह हमेशा मारता ही रहता है ॥239॥ पापी मनुष्य दूसरे प्राणियोंका अपकार करते अवश्य हैं परन्तु उनके प्राण रहते पर्यन्त ही करते हैं मरनेके बाद नहीं करते पर दयाके साथ द्वेष रखनेवाली स्त्रियाँ हिंसाके समान मरणोत्तर कालमें भी अपकार करती रहती हैं ॥240॥ जिन नीतिकारोंने अलगसे विषकन्याओंकी रचना की है उन्हें यह मालूम नहीं रहा कि सभी स्त्रियाँ उत्पत्ति मात्रसे अथवा स्त्रीत्व जाति मात्रसे विषकन्याएँ होती हैं ॥241॥ ये स्त्रियाँ कुटिलताकी अन्तिम सीमा हैं, इनकी क्रूरताका पार नहीं है ये सदा पाँच पाप रूप रहती हैं और इनकी चेष्टाएँ सदा तलवार उठाये रखनेवाले पुरूषके समान दुष्टता पूर्ण रहती हैं फिर ये अनार्थ अर्थात् म्लेच्छ क्यों न कही जावें ॥242॥ इस प्रकार सुभानुने अपने भाइयोंके साथ संसार से विरक्त होकर अपना सब कमाया हुआ धन स्त्रियों के लिए दे दिया और उन्हीं वरधर्म मुनिराजसे दीक्षा धारण कर ली ॥243॥ उनकी स्त्रियोंने भी जिनदत्ता नामक आर्यिकाके समीप तप ले लिया सो ठीक ही है क्योंकि निकट भव्य जीवों के तप ग्रहण करने में कौन सा हेतु नहीं हो जाता अर्थात् वे अनायास ही तप ग्रहण कर लेते हैं ॥244॥ दूसरे दिन ये सातों ही भाई उज्जयिनी नगरी के उपवन में पधारे तब वज्रमुष्टिने पास जाकर उन्हें विधि पूर्वक प्रणाम किया और पूछा कि आप लोगोंने यह दीक्षा किस कारणसे ली है ? उन्होंने दीक्षा लेनेका जो यथार्थ कारण था वह बतला दिया । इसी प्रकार वज्रमुष्टिकी स्त्री मंगीने भी उन आर्यिकाओंसे दीक्षाका कारण पूछा और यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उन्हींके समीप दीक्षा धारण कर ली । वज्रमुष्टि वरधर्म मुनिराजका शिष्य बन गया । सुभानु आदि सातों मुनिराज आयु के अन्त में संन्यासमरण कर प्रथम स्वर्ग में त्रायस्त्रिंश जातिके देव हुए ॥245–248॥ वहाँ दो सागर प्रमाण उनकी आयु थी । वहाँ से चयकर, अपने पुण्य प्रभाव से धातकीखण्ड द्वीप में भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्थ पर्वत की दक्षिण श्रेणीमें जो नित्यालोक नाम का नगर है उसके राजा चन्द्रचूलकी मनोहारी रानीसे सुभानुका जीव चित्रांगद नाम का पुत्र हुआ॥249–250॥ बाकी छह भाइयोंके जीव भी इन्हीं चनद्रचूल राजा और मनोहरी रानी के दो – दो करके तीन वारमें छह पुत्र हुए । गरूड़ध्वज, गरूड़वाहन, मणिचूल, पुष्पचूल, गगननन्दन और गगनचर ये उनके नाम थे । उसी धातकीखण्डद्वीप के पूर्व भरत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीमें एक मेघपुर नाम का नगर है । उसमें धनंजय राजा राज्य करता था । उसकी रानीका नाम सर्वश्री था, उन दोनोंके धनश्री नाम की पुत्री थी जो सुन्दरतामें मानो दूसरी लक्ष्मी ही थी । उसी विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीमें एक नन्दपुर नाम का नगर है उसमें शत्रुओं के लिए सिंह के समान राजा हरिषेण राज्य करता था । उसकी स्त्री का नाम श्रीकान्ता था और उन दोनोंके हरिवाहन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था । वह गुणों से प्रसिद्ध हरिवाहन नातेमें धनश्रीके भाईका साला था । उसी भरतक्षेत्र के अयोध्यानगर में धनश्रीका स्वयंवर हुआ उसमें धनश्रीने बड़े प्रेमसे हरिवाहनके गलेमें वरमाला डाल दी । उसी अयोध्यामें पुष्पदन्त नाम का चक्रवर्ती राजा था । उसकी प्रीतिंकरी स्त्री थी और उन दोनोंके पापकार्य में पण्डित सुदत्त नाम का पुत्र था । सुदत्तने हरिवाहनको मार कर धनश्रीको स्वयं ग्रहण कर लिया ॥251–257॥ यह सब देखकर चित्रांगद आदि सातों भाई विरक्त हो गये और उन्होंने श्रीभूतानन्द तीर्थंकरके चरणमूल में जाकर संयम धारण कर लिया । आयु का अन्त होने पर वे सब चतुर्थ स्वर्ग में सामानिक जातिके देव हुए । वहाँ सात सागर की उनकी आयु थी । उसके बाद वहाँसे च्युत होकर इसी भरतक्षेत्रके कुरूजांगल देशसम्बन्धी हस्तिनापुर नगर में सेठ श्वेतवाहनके उसकी स्त्री बन्धुमतीसे सुभानुका जीव शंख नाम का पुत्र हुआ । वह सुभानु धन – सम्पदामें स्वयं कुबेर था । उसी नगर में राजा गंगदेव रहता था । उसकी स्त्री का नाम नन्दयशा था, सुभानुके बाकी छह भाइयोंके जीव उन्हीं दोनोंके दो – दो कर तीन बारमें छह पुत्र हुए । गंग, गंगदेव, गंगमित्र, नन्द, सुनन्द, और नन्दिषेण ये उनके नाम थे । ये छहों भाई परस्पर में बडे स्नेहसे रहते थे । नन्दयशाके जब सातवां गर्भ रहा तब राजा उससे उदास हो गया, रानीने राजाकी इस उदासीका कारण गर्भ में आया बालक ही समझा इसलिए उसने रेवती धायको आज्ञा दे दी कि तू इस पुत्रको अलग कर दे ॥258–264॥ रेवती भी उत्पन्न होते ही वह पुत्र नन्दयशाकी बड़ी बहिन बन्धुमतीके लिए सौंप आई । उसका नाम निर्नामक रक्खा गया । किसी एक दिन ये सब लोग नन्दनवन में गये, वहाँपर राजा के छहों पुत्र एक साथ खा रहे थे, यह देखकर शंखने निर्नामकसे कहा कि तू भी इनके साथ खा शंखके कहनेसे निर्नामक उनके साथ खानेके लिए बैठा ही था कि नन्दयशा उसे देखकर क्रोध करने लगी और यह किसका लड़का है, यह कहकर उसे एक लात मार दी । इस प्रकरणसे शंख और निर्नामक दोनोंको बहुत शोक हुआ । किसी एक दिन शंख और निर्नामक दोनों ही राजा के साथ-साथ अवधिज्ञानी द्रुमसेन नामक मुनिराजकी वन्दनाके लिए गये । दोनोंने मुनिराजकी वन्दना की, धर्मश्रवण किया और तदनन्तर शंखने मुनिराजसे पूछा कि नन्दयशा निर्नामकसे अकारण ही क्रोध क्यों करती है ? इस प्रकार पूछे जानेपर मुनिराज कहने लगे कि सुराष्ट्र देशमें एक गिरिनगर नाम का नगर है । उसके राजाका नाम चित्ररथ था । चित्ररथके एक अमृत - रसायन नाम का रसोइया था । वह मांस पकानेमें बहुत ही कुशल था इसलिए मांसलोभी राजा ने सन्तुष्ट होकर उसे बारह गाँव दे दिये थे । एक दिन राजा चित्ररथने सुधर्म नामक मुनिराज के समीप आगमका उपदेश सुना ॥265-272॥ उसकी श्रद्धा करनेसे राजा को रत्नत्रयकी प्राप्ति हो गई । जिसके फलस्वरूप वह मेघरथ पुत्र के लिए राज्य देकर दीक्षित हो गया और राजपुत्र मेघरथ भी श्रावक बन गया ॥273॥ तदनन्तर राजा मेघरथने रसोइयाके पास एकही गाँव बचने दिया, बाकी सब छीन लिये । 'इन मुनिके उपदेश से ही राजा ने मांस खाना छोड़ा है और उनके पुत्रने हमारे गांव छीने हैं' ऐसा विचार कर वह रसोइया उक्त मुनिराजसे द्वेष रखने लगा । एकदिन उस रसोइयाने सब प्रकार के मसालोंसे तैयार की हुई कडुवी तुमड़ीका आहार उन मुनिराज के लिए करा दिया । जिससे गिरनार पर्वतपर जाकर उनका प्राणान्त हो गया । वे समाधिमरण कर अपराजित नामक कल्पातीत विमान में वहाँ की जघन्य आयु पाकर बड़ी - बड़ी ऋद्धियोंके धारक अहमिन्द्र हुए । रसोइया आयु के अन्त में तीसरे नरक गया और वहाँसे निकलकर अनेक दु:ख भोगता हुआ चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा ॥274-277॥ तदनन्तर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी मंगलदेशमें पलाशकूट नगर के यक्षदत्त गृहस्थके उसकी यक्षदत्ता नाम की स्त्रीसे यक्ष नाम का पुत्र हुआ । कुछ समय बाद उन्हीं यक्षदत्त और यक्षदत्ताके एक यक्षिल नाम का दूसरा पुत्र भी उत्पन्न हुआ । उन दोनों भाइयोंमें बड़ा भाई अपने कर्मोंके अनुसार निरनुकम्प - निर्दय था इसलिए लोग उसे उसकी क्रियाओं के अनुसार निरनुकम्प कहते थे और छोटा भाई सानुकम्प था – दया सहित था इसलिए लोग उसे सानुकम्प कहा करते थे ॥278-280॥ किसी एक दिन दोनों भाई गाड़ीमें बैठकर कहीं जा रहे थे । मार्ग में एक अन्धा साँप बैठा था । सानुकम्पके रोकनेपर भी दया से दूर रहनेवाले निरनुकम्पने उस अन्धे साँपपर बर्तनोंसे भरी गाड़ी बैलोंके द्वारा चला दी । उस गाड़ीके भार से साँप कट गया और अकामनिर्जरा करता हुआ मर गया ॥281–282॥ मरकर श्वेतविका नाम के नगर में वहाँके राजा वासवके उसकी रानी वसुन्धरासे नन्दयशा नाम की पुत्री हुआ ॥283॥ छोटे भाई सानुकम्पने निरनुकम्प नामक अपने बड़े भाईको फिर भी समझाया कि आपके लिए इस प्रकार दूसरोंको दु:ख देनेवाला कार्य नहीं करना चाहिए' इस प्रकार समझाये जानेपर वह शान्तिको प्राप्त हुआ ॥284॥ वही निरनुकम्प आयु के अन्त में मरकर यह निर्नामक हुआ है । पूर्वभवमें उपार्जन किये हुए पापकर्म के उदय से ही नन्दयशाका निर्नामकके प्रति क्रोध रहता है । राजा द्रुमसेनके यह वचन सुनकर राजा के छहों पुत्र, शंख तथा निर्नामक सब विरक्त हुए और सभीने दीक्षा धारण कर ली । इसी प्रकार पुत्रों के स्नेहसे उत्पन्न हुई इच्छा से रानी नन्दयशा तथा रेवती धायने भी सुव्रता नामक आर्यिकाके समीप संयम धारण कर लिया । किसी एक दिन उन दोनों आर्यिकाओंने मूर्खतावश निदान किया । नन्दयशाने तो यह निदान किया कि 'आगामी जन्ममें भी ये मेरे पुत्र हों' और रेवतीने निदान किया कि 'मैं इनका पालन करूँ' । तदनन्तर तपश्चर्या कर और अपनी योग्यताके अनुसार आराधनाओंकी आराधनाकर आयु के अन्त में वे सब महाशुक स्वर्ग में सामानिक जातिके देव हुए । वहाँ सोलह सागर की उनकी आयु थी और सब दिव्य भोगों के वशीभूत रहते थे ॥285–290॥ वहाँसे च्युत होकर शंखका जीव हलका धारण करनेवाला बलदेव हुआ है और नन्दयशा जीव मृगावती देश के दशार्णपुर नगर के राजा देवसेनके रानी धनदेवीसे देवकी नाम की पुत्री पैदा हुई है । निदान – बन्धके कारण ही तू स्त्रीपर्यायको प्राप्त हुई है ॥291–292॥ रेवतीका जीव मलय देशके भद्रिलपुर नगर में सुदृष्टि सेठकी अलका नाम की सेठानी हुई है । पहलेके छहों पुत्रों के जीव दो दो करके तीन बारमें तेरे छह पुत्र हुए । उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कंसके भयके कारण नैगमर्षिं देवने उन्हें अलका सेठानीके घर रख दिया था इसलिए अलकाने ही उन पुत्रोंका पालन किया है । देवदत्त, देवपाल, अनीकदत्त, अनीकपाल, शत्रुघ्र और जितशत्रु ये उन छहों पुत्रों के नाम हैं, ये सभी इसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे ॥293–296॥ ये सब नई अवस्था में ही दीक्षा लेकर भिक्षाके लिए नगर में आये थे इसलिए इन्हें देखकर तेरा पूर्वजन्मसे चला आया स्नेह इनमें उत्पन्न हो गया है ॥297॥ पूर्व जन्ममें जो तेरा निर्नामक नाम का पुत्र था उसने तपश्चरण करते समय स्वयंभू नारायणका ऐश्वर्य देखकर निदान किया था अत: वह कंसका मारनेवाला श्री कृष्ण हुआ है ॥298॥ गणधर देव देवकीसे कहते हैं कि 'हे देवकी ! तू कहाँ से आई ? तेरे ये पुत्र कहाँ से आये ? और बिना कारण ही इनके साथ यह सम्बन्ध कैसे आ मिला ? इसलिए जान पड़ता है कि कर्म का उदय बड़ा विचित्र है और योगियोंके द्वारा भी अगम्य है' ! इस प्रकार स्वभावसे ही समस्त भव्य जीवोंका उपकार करनेवाले गणधर भगवान् ने यह सब कथा कही । कथा सुनकर देवकीने उन्हें बड़ी भक्ति से वन्दना की ॥299-300॥ तदनन्तर - भक्ति से भरी सत्यभामाने भी, अक्षरावधिको धारण करनेवाले गणधर भगवान् से अपने पूर्व भवोंका सम्बन्ध पूछा ॥301॥ तब गणधर भगवान् भी उसका अभीष्ट कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि कृतकृत्य मनुष्योंका अनुग्रहको छोड़कर और दूसरा कार्य नहीं रहता है ॥302॥ वे कहने लगे कि शीतलनाथ भगवान् के तीर्थ में जब धर्म का विच्छेद हुआ तब भद्रिलपुर नगर में राजा मेघरथ राज्य करता था, उसकी रानीका नाम नन्दा था । उसी समय उस नगर में भूतिशर्मा नाम का एक श्रेष्ठ ब्राह्मण था, उसकी कमला नाम की स्त्री थी और उन दोनोंके मुण्डशालायन नाम का पुत्र था । मुण्डशालायन यद्यपि वेदवेदांगका पारगामी था परन्तु साथ ही उसकी बुद्धि हमेशा भोगोंमें आसक्त रहती थी इसलिए वह कहा करता था कि तप का क्लेश उठाना व्यर्थ है, जिनके पास धन नहीं है ऐसे साहसी मूर्ख मनुष्योंने ही परलोक के लिए इस तप के क्लेशकी कल्पना की है । वास्तवमें पृथिवीदान – सुवर्ण - दान आदिसे ही इष्ट सुख प्राप्त होता है । इस प्रकार उसने अनेक कुदृष्टान्त और कुहेतुओं के बतलानेमें निपुण वाक्योंके द्वारा कायक्लेशके सहनेमें असमर्थ राजा को झूठमूठ उपदेश दिया । राजा को ही नहीं, अन्य दुर्बुद्धि मनुष्यों के लिए भी वह अपने जीवन भर ऐसा ही उपदेश देता रहा । अन्त में मर कर वह सातवें नरक गया । वहाँसे निकल कर तिर्यन्च हुआ । इस तरह नरक और तिर्यन्च गतिमें घूमता रहा ॥303-308॥ अनुक्रम से वह गन्धमादन पर्वत से निकली हुई गन्धवती नदी के समीपवर्ती भल्लंकी नाम की पल्लीमें अपने पापकर्म के उदय से काल नाम का भील हुआ । उस भीलने किसी समय वरधर्म नामक मुनिराज के पास जाकर मधु आदि तीन मकारोंका त्याग किया था । उसके फलस्वरूप वह विजयार्ध पर्वत पर अलकानगरी के राजा पुरबल और उनकी रानी ज्योतिर्मालाके हरिबल नाम का पुत्र हुआ । उसने अनन्तवीर्य नाम के मुनिराज के पास द्रव्य – संयम धारण कर लिया जिसके प्रभाव से वह मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ, वहाँसे च्युत होकर उसी विजयार्ध पर्वत पर रथनूपुर नगर के राजा सुकेतुके उनकी स्वयंप्रभा रानीसे तू सत्यभामा नाम की पुत्री हुई । एक दिन तेरे पिताने निमित्त आदिके जानने में कुशल किसी निमित्तज्ञानीसे पूछा कि मेरी यह पुत्री किसकी पत्नी होगी ? इसके उत्तरमें उस श्रेष्ठ निमित्तज्ञानीने कहा था कि यह अर्धवक्रवर्तीकी महादेवी होगी । इस प्रकार गणधरके द्वारा कहे हुए अपने भव सुनकर सत्यभामा बहुत सन्तुष्ट हुई ॥309–315॥ अथानन्तर – महादेवी रूक्मिणीने नमस्कार कर अपने भवान्तर पूछे और जिनकी समस्त चेष्टाएँ परोपकारके लिए ही थीं ऐसे गणधर भगवान् कहने लगे ॥316॥ कि भरत क्षेत्र सम्बन्धी मगध देशके अन्तर्गत एक लक्ष्मीग्राम नाम का ग्राम है । उसमें सोम नाम का एक ब्राह्मण रहता था, उसकी स्त्री का नाम लक्ष्मीमति था । किसी एक दिन लक्ष्मीमति ब्राह्मणी, आभूषणादि पहिन कर दर्पण देखनेके लिए उद्यत हुई ही थी कि इतनेमें समाधिगुप्त नाम के मुनि भिक्षाके लिए आ पहुँचे । 'इसका शरीर पसीना तथा मैलसे लिप्त है और यह दुर्गन्ध दे रहा है' इस प्रकार क्रोध करती हुई लक्ष्मीमतिने घृणासे युक्त होकर निन्दाके वचन कहे ॥317–319॥ मुनि – निन्दाके पापसे उसका समस्त शरीर उदुम्बर नामक कुष्ठसे व्याप्त हो गया इसलिए वह जहाँ जाती थी वहीं पर लोग उसे कठोर शब्द कह कर कुत्तीके समान ललकार कर भगा देते थे ॥320॥ वह सूने मकानमें पड़ी रहती थी, अन्त में ह्णदय में पतिका स्नेह रख बड़े दु:खसे मरी और उसी ब्राह्मणके घर दुर्गन्ध युक्त छछूँदर हुई ॥321॥ वह पूर्व पर्यायके स्नेहके कारण बार – बार पतिके ऊपर दौड़ती थी इसलिए उसने क्रोधित होकर उसे पकड़ा और बाहर ले जाकर बडी दुष्टतासे दे पटका जिससे मर कर उसी ब्राह्मणके घर साँप हुई ॥322॥ फिर मरकर अपने पापकर्म के उदय से वहीं गधा हुई, वह बार – बार ब्राह्मणके घर आता था इसलिए ब्राह्मणोंने कुपित होकर उसे लाठी तथा पत्थर आदिसे ऐसा मारा कि उसका पैर टूट गया, घावोंमें कीड़े पड़ गये जिनसे व्याकुल होकर वह कुएँ में पड़ गया और दु:खी होकर मर गया ॥323–324॥ फिर अन्धा साँप हुआ, फिर मरकर अन्धा सुअर हुआ, उस सुअरको गाँवके कुत्तोंने खा लिया जिससे मरकर मन्दिर नामक गाँवमें नदी पार करानेवाले मत्स्य नामक धीवरकी मण्डूकी नाम की स्त्रीसे पूतिका नाम की पापिनी पुत्री हुई । उत्पन्न होते ही उसका पिता मर गया और माता भी चल बसी इसलिए मातामही (नानी) ने उसका पोषण किया । वह सब प्रकारसे अशुभ थी और सबलोग उससे घृणा करते थे । किसी एक दिन वह नदी के किनारे बैठी थी वहींपर उसे उन समाधिगुप्त मुनिराज के दर्शन हुए जिनकी कि उसने लक्ष्मीमतिपर्यायमें निन्दा की थी । वे मुनि प्रतिमायोगसे अवस्थित थे, पूतिका की काललब्धि अनुकूल थी इसलिए वह शान्तभावको प्राप्तकर रात्रिभर मुनिराज के शरीरपर बैठनेवाले मच्छर आदिको दूर हटाती रही । जब प्रात:काल के समय प्रतिमायोग समाप्तकर मुनिराज विराजमान हुए तब वह उनके चरणकमलोंके समीप जा पहुँची और उनका कहा हुआ धर्मोपदेश सुनने लगी । धर्मोपदेशसे प्रभावित होकर उस बुद्धिमतीने पर्वके दिन उपवास करनेका नियम लिया । दूसरे दिन वह जिनेन्द्र भगवान् की पूजा (दर्शन) करने के लिए जा रही थी कि उसी समय उसे एक आर्यिकाके दर्शन हो गये । वह उन्हीं आर्यिकाके साथ दूसरे गाँव तक चली गई । वहींपर उसे भोजन भी प्राप्त हो गया । इस तरह वह प्रतिदिन ग्रामान्तरसे लाये हुए भोजनसे प्राण रक्षा करती और पाप के भय से अपने आचारकी रक्षा करती हुई किसी पर्वत की गुफामें रहने लगी । एक दिन एक श्राविका आर्यिकाके पास आई । आर्यिकाने उससे कहा कि पूतिका नीच कुलमें उत्पन्न होकर भी इस तरह सदाचारका पालन करती है यह आश्चर्य की बात है । आर्यिकाकी बात सुनकर उस श्राविकाको बड़ा कौतुक हुआ । जब पूतिका पूजा (दर्शन) कर चुकी तब वह स्नेहवश उसके पास आकर उसकी प्रशंसा करने लगी । इसके उत्तरमें पूतिकाने कहा कि हे माता ! मैं तो महापापिनी हूँ, मुझे आप पुण्यवती क्यों कहती हैं ? यह कह, उसने समाधिगुप्त मुनिराजसे जो अपने पूर्वभव सुने थे वे सब कह सुनाये । वह श्राविका पूतिकाल की पूर्वभवकी सखी थी । पूतिकाके मुखसे यह जानकर उसने कहा कि 'यह जीव पाप का भय होनेसे ही जैनमार्ग-जैनधर्म को प्राप्त होता है । इस संसार में पूर्वभव से अर्जित पापकर्म के उदय से विरूपता, रोगीपना, दुर्गन्धता तथा निर्धनता आदि किन्हें नहीं प्राप्त होती ? अर्थात् सभीको प्राप्त होती है इसलिए तू शोक मतकर, तेरे द्वारा ग्रहण किये हुए व्रत शील तथा उपवास आदि पर - जन्म के लिए दुर्लभ पाथेय (संबल) के समान हैं तू अब भय मत कर ।' इस प्रकार उस श्राविकाने उसे खूब उत्साह दिया । तदनन्तर - समाधिमरणकर वह अच्युतेन्द्रकी अतिशय प्यारी देवी हुई । पचपन पल्य तक वह अखण्ड सुख का उपभोग करती रही । वहाँसे च्युत होकर विदर्भ देशके कुण्डलपुर नगर में राजा वासबकी रानी श्रीमतीसे तू रूक्मिणी नाम की पुत्री हुई ॥325-341॥ तदनन्तर कोशल नाम की नगरी में राजा भेषज राज्य करते थे । उनकी रानीका नाम मद्री था; उन दोनोंके एक तीन नेत्रवाला शिशुपाल नाम का पुत्र हुआ । मनुष्योंमें तीन नेत्रका होना अभूतपूर्व था इसलिए राजा ने निमित्तज्ञानीसे पूछा कि इसका क्या फल है ? तब परोक्षकी बात जाननेवाले निमित्तज्ञानीने साफ - साफ कहा कि जिसके देखने से इसका तीसरा नेत्र नष्ट हो जावेगा । यह उसीके द्वारा मारा जावेगा । इसमें संशय नहीं है ॥342-344॥ किसी एक दिन राजा भेषज, रानी मद्री, शिशुपाल तथा अन्य लोग बड़ी उत्सुकताके साथ श्रीकृष्णके दर्शन करने के लिए द्वारावती नगरी गये थे वहाँ श्रीकृष्णके देखते ही शिशुपालका तीसरा नेत्र अदृश्य हो गया सो ठीक ही है क्योंकि द्रव्योंकी शक्तियाँ विचित्र हुआ करती हैं ॥345-346॥ यह देख मद्रीको निमित्तज्ञानीकी बात याद आ गई इसलिए उसने डरकर श्रीकृष्णसे याचना की कि 'हे पूज्य ! मेरे लिए पुत्रभिक्षा दीजिये' ॥347॥ श्रीकृष्णने उत्तर दिया कि 'हे अम्ब ! सौ अपराध पूर्ण हुए बिना इसे मुझसे भय नहीं हैं अर्थात् जब तक सौ अपराध नहीं हो जावेंगे तब तक मैं इसे नहीं मारूँगा' इसप्रकार श्रीकृष्णसे वरदान पाकर मद्री अपने नगरको चली गई ॥348॥ इधर वह शिशुपाल बाल - अवस्था में ही सूर्य के समान देदीप्यमान होने लगा क्योंकि जिस प्रकार सूर्य का मण्डल विशुद्ध होता है उसी प्रकार उसका मण्डल-मन्त्री आदिका समूह भी विशुद्ध था – विद्वेष रहित था, जिस प्रकार सूर्य उदित होते ही अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार शिशुपाल भी उदित होते ही निरन्तर शत्रुरूपी अन्धकार को नष्ट कर देता था, जिस प्रकार सूर्य पद्म अर्थात् कमलों को आनन्दित करता है उसी प्रकार शिशुपाल भी पद्म अर्थात् लक्ष्मी को आनन्दित करता था, जिस प्रकार सूर्यकी किरण तीक्ष्ण अर्थात् उष्ण्ा होती है उसी प्रकार उसका महसूल भी तीक्ष्ण अर्थात् भारी था, जिस प्रकार सूर्य क्रूर अर्थात् उष्ण होता है उसी प्रकार शिशुपाल भी क्रूर अर्थात् दुष्ट था, जिस प्रकार सूर्य प्रतापवान् अर्थात् तेज से सहित होता है उसी प्रकार शिशुपाल भी प्रतापवान् अर्थात् सेना और कोशसे उत्पन्न हुए तेज से युक्त था और जिस प्रकार सूर्य अन्य पदार्थों के तेज को छिपाकर भूभृत अर्थात् पर्वत के मस्तकपर - शिखर पर अपने पाद अर्थात् किरण स्थापित करता है उसी प्रकार शिशुपाल भी अन्य लोगों के तेज को आच्छादितकर राजाओं के मस्तकपर अपने पाद अर्थात् चरण रखता था । वह आक्रमणकी इच्छा रखनेवाले पराक्रम से अपने आपको सब राजाओं में श्रेष्ठ समझने लगा और सिंह के समान, श्रीकृष्णके ऊपर भी आक्रमण कर उन्हें अपनी इच्छानुसार चलानेकी इच्छा करने लगा ॥349-351॥ इस प्रकार अहंकारी, समस्त संसार में फैलनेवाले यशसे उपलक्षित और अपनी आयुको समर्पण करनेवाले उस शिशुपालने श्रीकृष्णके सौ अपराध कर डाले ॥352॥ वह अपने आपको ऊँचा - श्रेष्ठ बनाकर सबका शिरोमणि समझता था, सदा करने योग्य कार्योंकी पक्षसे सहित रहता था और श्रीकृष्णको भी ललकारकर उनकी लक्ष्मी छीननेका उद्यम करता था ॥353॥ शान्त हुआ भी शत्रुओं का समूह पापोंके समूह के समान नष्ट कर ही देता है इसलिए विजयकी इच्छा रखनेवाले राजा को मुमुक्षके समान, शत्रु को नष्ट करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये ॥354॥ गणधर भगवान्, महारानी रूक्मिणीसे कहते हैं कि इस प्रकार समय बीत रहा था कि इसी बीच में तेरा पिता तुझे बड़ी प्रसन्नतासे शिशुपालको देनेके लिए उद्यत हो गया । जब युद्धकी चाह रखनेवाले नारदने यह बात सुनी तो वह श्रीकृष्णको सब समाचार बतला आया । श्रीकृष्णने छह प्रकारकी सेना के साथ जाकर उस बलवान् शिशुपालको मारा और तुझे लेकर महादेवीके पट्टपर नियुक्त किया । गणधर भगवान् के यह वचन सुनकर रूक्मिणीको बड़ा हर्ष हुआ । आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि इस तरह रूक्मिणीकी कथा सुनकर दुर्बुद्धिके सिवाय ऐसा कौन मनुष्य होगा जो कि महामुनियोंको मलिन देखकर उनसे घृणा करेगा ॥355-358॥ अथानन्तर-रानी जाम्बवतीने भी बड़े आदरके साथ नमस्कार कर गणधर भगवान् से अपने पूर्वभव पूछे और गणधर भगवान् भी इस प्रकार कहने लगे कि इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है । उसके वीतशोक नगर में दमक नाम का वैश्य रहता था ॥359-360॥ उसकी स्त्री का नाम देवमति था, और उन दोनोंके एक देविला नाम की पुत्री थी । वह पुत्री वसुमित्र के लिए दी गई थी परन्तु कुछ समय बाद विधवा हो गई जिससे विरक्त होकर उसने जिनदेव नामक मुनिराज के पास जाकर व्रत ग्रहण कर लिये और आयु के अन्त में वह मरकर मेरू पर्वत के नन्दनवन में व्यन्तर देवी हुई ॥361-362॥ तदनन्तर वहाँ की चौरासी हजार वर्षकी आयु समाप्त होने पर वह वहाँ से चयकर पुष्कलावती देशके विजयपुर नामक नगर में मधुषेण वैश्यकी बन्धुमती स्त्रीसे अतिशय सुन्दरी बन्धुयशा नाम की पुत्री हुई । उसका अभ्युदय दिनोंदिन बढ़ता ही जाता था । वहींपर उसकी जिनदेवकी पुत्री जिनदत्ता नाम की एक सखी थी उसके साथ उसने उपवास किये, जिसके फलस्वरूप मरकर प्रथम स्वर्ग में कुबेरकी देवांगना हुई ॥363-365॥ वहाँसे चयकर पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रनामक वैश्य और उसकी सुभद्रा स्त्रीके सुमति नाम की उत्तम पुत्री हुई । उसने वहाँ सुव्रता नाम की आर्यिकाके लिए आहार दान देकर रत्नावली नाम का उपवास किया, जिससे ब्रह्म स्वर्ग में श्रेष्ठ अप्सरा हुई । बहुत दिन बाद वहाँसे चयकर इसी जम्बूद्वीप के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणीपर जाम्बव नाम के नगर में राजा जाम्बव और रानी जम्बुषेणाके तू जाम्बवती नाम की पुत्री हुई । उसी विजयार्थ पर्वतपर पवनवेग तथा श्यामलाका पुत्र नमि रहता था वह रिश्तेमें भाईका साला था और तुझे चाहता था । एक दिन वह ज्योतिर्वनमें बैठा था वहाँ तेरे प्रति तीव्र इच्छा होने के कारण उसने कहा कि यदि जाम्बवती मुझे नहीं दी जावेगी तो मैं उसे छीनकर ले लूँगा । यह सुनकर तेरे पिता जाम्बवको बड़ा क्रोध आ गया । उसने उसे खानेके लिए माक्षिकलक्षिता नाम की विद्या भेजी । उस समय वहाँ किन्नरपुर का राजा नमिकुमारका मामा यक्षमाली विद्याधर विद्यमान था उसने वह विद्या छेद डाली ॥366-372॥ अपनी सब विद्याओं के छेदी जानेकी बात सुनकर राजा जाम्बवने अपना जम्बु नाम पुत्र भेजा । सेना के साथ आक्रमण करता हुआ जम्बुकुमार जब वहाँ पहुँचा तो वह नमि डरकर अपने मामाके साथ अपने स्थानसे भाग खड़ा हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जो कार्य बिना विचारके किये जाते हैं उनका फल पराभवके सिवाय और क्या हो सकता है ? ॥373-374॥ नारद, यह सब जानकर शीघ्र ही कृष्णके पास गया और जाम्बवतीके अतिशय सुन्दररूप का वर्णन करने लगा । यह सुनकर श्रीकृष्णने कहा कि मैं उस सतीको हठात् (जबरदस्ती) हरण करूँगा । यह कहकर वे अपनी सेना रूपी सम्पत्तिके साथ चल पड़े और विजयार्ध पर्वत के समीपवर्ती वन में ठहर गये । बलदेव उनके साथ थे ही । यह कार्य अत्यन्त कठिन है ऐसा जानकर उन्होंने उपवासका नियम लिया और रात्रिके समय मन में विचार किया कि यह कार्य किसके द्वारा सिद्ध होगा । देखो, जिसने तीन खण्ड वशकर लिये ऐसे श्रीकृष्णका भी भविष्य वहाँ खण्डित दिखने लगा परन्तु उस विद्याधर राजा के विरोधी श्रीकृष्णका पुण्य भी कुछ वैसा ही प्रबल था ॥375-378॥ कि जिससे पूर्व जन्मका यक्षिल नाम का छोटा भाई, जो तपकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ था, आया और कहने लगा कि 'मैं ये दो विद्याएँ देता हूँ इन्हें तुम सिद्ध करो' इस प्रकार कह कर तथा विद्याएँ सिद्ध करने की विधि बतला कर वह स्वर्ग चला गया । इधर श्रीकृष्ण क्षीरसागर बनाकर उसमें नागशय्यापर आरूढ़ हुए और विधि पूर्वक चार माह तक विद्याएँ सिद्ध करते रहे । अन्त में बलदेव को सिंहवाहिनी और श्रीकृष्णको गरूड़वाहिनी विद्या सिद्ध हो गई । तदनन्तर उन विद्याओं पर आरूढ़ होकर श्रीकृष्णने युद्धमें जाम्बवको जीता और उसकी पुत्री तुझ जाम्बबती को ले आये । घर आकर उन्होंने तुझे बड़ी प्रीतिके साथ महादेवीके पद पर नियुक्त किया ॥379-382॥ यद्यपि पूर्व जन्मका वृत्तान्त अस्पष्ट था तो भी वक्ता विशेषके मुखसे सुननेके कारण वह सबका सब जाम्बवतीको प्रत्यक्षके समान स्पष्ट हो गया ॥383॥ अथानन्तर - इन्हीं गणनायक मुनिराजको नमस्कार कर सुसीमा नाम की पट्टरानी अपने पूर्व भवोंका सम्बन्ध पूछने लगी ॥384॥ तब शिष्यजनों के अकारण बन्धु गणधर भगवान् अपने वचन रूपी किरणोंके समूह से उसके मनरूपी कमल को प्रफुल्लित करते हुए इस प्रकार कहने लगे ॥385॥ धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्ध भागके पूर्व विदेह में एक अतिशय प्रसिद्ध मंगलावती नाम का देश है जो प्राणियोंके भोगोपभोगका एक ही साधन है । उसमें रत्नसंचय नाम का एक नगर है । उसमें राजा विश्वदेव राज्य करता था और उसके शोभासम्पन्न अनुन्दरी नाम की रानी थी ॥386-387॥ किसी एक दिन अयोध्याके राजा ने राजा विश्वदेव को मार डाला इसलिए अत्यन्त शोकके कारण मंत्रियोंके निषेध करनेपर भी वह रानी अग्निमें प्रवेश कर जल मरी । मर कर वह विजयार्ध पर्वत पर दश हजार वर्षकी आयु वाली व्यन्तर देवी हुई । वहाँ की आयु पूर्ण होने पर वह अपने कर्मोंके अनुसार संसार में भ्रमण करती रही । तदनन्तर किसी समय इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी शालिग्राममें यक्षकी स्त्री देवसेना के यक्षदेवी नाम की बुद्धिमती पुत्री हुई ॥388-390॥ किसी एक दिन उसने धर्मसेन मुनिके पास जाकर व्रत ग्रहण किये और एक महीनेका उपवास करनेवाले मुनिराजको उसने आहार दिया ॥391॥ यक्षदेवी किसी दिन क्रीड़ा करने के लिए वन में गई थी । वहाँ अचानक बड़ी वर्षा हुई । उसके भय से वह एक गुफामें चली गई । वहाँ एक अजगरने उसे निगल लिया जिससे हरिवर्ष नामक भोग - भूमिमें उत्पन्न हुई । वहाँ के भोग भोगकर नागकुमारी हुई । फिर वहाँसे चय कर विदेह क्षेत्रके पुष्कलावती देश - सम्बन्धी पुण्डरीकिणी नगरी में राजा अशोक और सोमश्री रानी के श्रीकान्ता नाम की पुत्री हुई । किसी एक दिन उसने जिनदत्ता आर्यिकाके पास दीक्षा लेकर अच्छे - अच्छे व्रतों का पालन किया, चिरकाल तक तपस्या की और कनकावली नाम का घोर उपवास किया ॥391-395॥ इन सबके प्रभाव से वह माहेन्द्र स्वर्ग में देवी हुई, वहाँ देवों के भोग भोगकर आयु के अन्त में कहाँसे च्युत हुई और सुराष्ट्रवर्धन राजाकी रानी सुज्येष्ठाके अच्छे लक्षणोंवाली तू पुत्री हुई है और श्रीकृष्णकी पट्टरानी होकर आनन्दसे बढ़ रही है ॥396-397॥ इस प्रकार अपने भवान्तरोंका सम्बन्ध सुनकर सुसीमा रानी हर्षको प्राप्त हुई सो ठीक ही है क्योंकि अपनी उत्तरोत्तर वृद्धि को सुन कर कौन संतोषको प्राप्त नहीं होता ? ॥398॥ अथानन्तर - महारानी लक्ष्मणा भी मुनिराजको नमस्कार कर अपने भव सुननेकी इच्छा करने लगी और इसका अनुग्रह करने की इच्छा रखनेवाले मुनिराज भी इस प्रकार कहने लगे । इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक पुष्कलावती नाम का देश है । उसके अरिष्टपुर नगर में राजा वासव राज्य करता था । उसकी वसुमती नाम की रानी थी और उन दोनोंके समस्त गुणों की खान स्वरूप सुषेण नाम का पुत्र था । किसी कारणसे राजा वासवने विरक्त होकर सागरसेन मुनिराज के समीप दीक्षा ले ली परन्तु रानी वसुमती पुत्र के प्रेमसे मोहित होने के कारण गृहवास छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हो सकी इसलिए कुचेष्टासे मरकर भीलनी हुई । एक दिन उसने नन्दिवर्धन नामक चारण मुनिके पास जाकर श्रावक के व्रत ग्रहण किये ॥399-403॥ मर कर वह आठवें स्वर्ग में इन्द्र की प्यारी नृत्यकारिणी हुई । वहाँसे चयकर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्थ पर्वत की दक्षिण श्रेणीपर चन्द्रपुर नगर के राजा महेन्द्रकी रानी अनुन्दरीके नेत्रोंको प्रिय लगनेवाली कनकमाला नाम की पुत्री हुई और सिद्धविद्य नाम के स्वयंवरमें माला डालकर उसने हरिवाहनको अपना पति बनाया ॥404-406॥ किसी एक दिन उसने सिद्धकूटपर विराजमान यमधर नामक गुरूके पास जाकर अपने पहले भवोंकी परम्परा सुनी । तदनन्तर मुक्तावली नाम का उपवासकर तीसरे स्वर्ग की प्रिय इन्द्राणी हुई । वहाँ नौ कल्पकी उसकी आयु थी, आयु के अन्त में वहाँसे चयकर सुप्रकारनगर के स्वामी राजा शम्बरकी श्रीमती रानीसे पुत्री हुई है । तू भी पद्म और ध्रुवसेनकी छोटी बहिन है, गुणोंमें ज्येष्ठ है, सर्व लक्षणों से युक्त है और लक्ष्मणा तेरा नाम है । किसी एक दिन पवनवेग नाम का विद्याधर श्रीकृष्णके समीप जाकर कहने लगा कि हे चक्रपते ! विद्याधरोंके राजा शम्बरके एक लक्ष्मणा नाम की पुत्री है जो आकाश में निर्मल चन्द्रमाकी कलाकी तरह सुशोभित है, कामको उद्दीपित करनेवाली है और आपके योग्य है । पवनवेग के वचन सुनकर श्रीकृष्णने 'तो तूही उसे ले आ' यह कहकर उसे ही भेजा और वह भी शीघ्र ही जाकर तेरे माता - पिताकी स्वीकृतिसे तुझे ले आया तथा श्रीकृष्णको समर्पित कर दी ॥407-413॥ कृष्णने भी महादेवीका पट्ट बाँधकर तुझे इस प्रकार सन्मानित किया है इस तरह अपने भवान्तर सुनकर लक्ष्मणा बहुत ही प्रसन्न हुई ॥414॥ तदनन्तर - श्रीकृष्णने गान्धारी, गौरी और पद्मावतीके भवान्तर पूछे । तब गणधरदेव इस प्रकार कहने लगे ॥415॥ इसी जम्बूद्वीप में एक सुकोशल नाम का देश है । उसकी अयोध्या नगरी में रूद्र नाम का राजा राज्य करता था और उसकी विनयश्री नाम की मनोहर रानी थी । किसी एक दिन उस रानीने सिद्धार्थ नामक वन में बुद्धार्थ नामक मुनिराज के लिए आहार दान दिया जिससे अपनी आयु पूरी होने पर उत्तरकुरू नामक उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुई । वहाँ के भोग भोगकर च्युत हुई तो चन्द्रमाकी चन्द्रवती नाम की देवी हुई । आयु समाप्त होने पर वहांसे च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीपर गगनवल्लभ नगर में विद्याधरों के कान्तिमान् राजा विद्युद्वेगकी रानी विद्युद्वेगा के सुरूपा नाम की पुत्री हुई । वह विद्या और पराक्रम से सुशोभित, नित्यालोक पुरके स्वामी राजा महेन्द्रविक्रमके लिए दी गई । किसी एक दिन वे दोनों दम्पति चैत्यालयोंमें जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने के लिए उत्सुक होकर सुमेरू पर्वत पर गये ॥416-421॥ वहांपर विराजमान किन्हीं चारणऋद्धिधारी मुनिके मुखरूपी चन्द्रमासे झरे हुए अमृतके समान धर्म का दोनों कानोंसे पानकर वे दोनों ही परमतृप्तिको प्राप्त हुए ॥422॥ उन दोनों में से राजा महेन्द्रविक्रमने तो उन्हीं चारण मुनिराज के समीप दीक्षा ले ली और रानी सुरूपाने सुभद्रा नामक आर्यिकाके चरणमूलमें जाकर संयम धारण कर लिया ॥423॥ आयु पूरीकर सौधर्म स्वर्ग में देवी हुई, जब वहांकी एक पल्य प्रमाण आयु पूरी हुई तो वहांसे चयकर गान्धार देश की पुष्करावती नगरी के राजा इन्द्रगिरि की मेरूमती रानीसे गान्धारी नाम की पुत्री हुई है। राजा इन्द्रगिरि इसे अपनी बूआके लड़केको देना चाहता था, जब यह बात जगत् को अप्रिय पापबुद्धि नारदने सुनी तब शीघ्र ही उसने तुम्हें इसकी खबर दी । सुनते ही तू भी प्रेमके वश हो गया और सेना सजाकर युद्धके लिए चल पड़ा । युद्धमें राजा इन्द्रगिरि और उसके सहायक अन्य राजाओं को पराजितकर इस गान्धारीको ले आया और फिर इसे महादेवीका पट्टबन्ध प्रदान कर दिया – पट्टरानी बना लिया ॥424-428॥ अथानन्तर - गणधर भगवान् कहने लगे कि अब मैं गौरीके भव कहता हूं सो हे कृष्ण तू सुन ! इसी जम्बू द्वीप में एक पुन्नागपुर नाम का अतिशय प्रसिद्ध बड़ा भारी नगर है । उसकी रक्षा करनेवाला राजा हेमाभ था और उसकी रानी यशस्वती थी । किसी एक दिन यशोधर नाम के चरण ऋद्धिधारी मुनिराजको देखकर उसे अपने पूर्व भवोंका स्मरण हो आया । राजा के पूछनेपर वह अपने दांतोकी कान्ति से उन्हें नहलाती हुई इस प्रकार अपने पूर्वभव कहने लगी ॥429-431॥ धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरूसे पश्चिमकी ओर जो विदेह क्षेत्र हैं उसमें एक अशोकपुर नाम का नगर है । उसमें आनन्द नाम का एक उत्तम वैश्य रहता था उसकी स्त्रीके एक आनन्दयशा नाम की पुत्री उत्पन्न हुई । किसी समय आनन्दयशाने अमितसागर मुनिराज के लिए आहार दान देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किये । इस दानजन्य पुण्य के प्रभाव से वह आयु पूर्ण होने पर उत्तरकुरूमें उत्पन्न हुई, वहांके सुख भोगनेके बाद भवनवासियोंके इन्द्र की इन्द्राणी हुई और वहाँसे च्युत होकर यहाँ उत्पन्न हुई हूँ । इस प्रकार रानी यशस्वतीने अपने पति राजा हेमाभके लिए बड़े हर्ष से अपने पूर्वभव सुनाये । तदनन्तर, रानी यशस्वती किसी समय सिद्धार्थ नामक वन में गई, वहाँ सागरसेन नामक मुनिराज के पास उसने उपवास ग्रहण किये । आयु के अन्त में मरकर प्रथम स्वर्ग में देवी हुई । तदनन्तर वहांकी स्थिति पूरी होने पर इसी जम्बूद्वीपकी कौशाम्बी नगरी में सुमति नामक सेठकी सुभद्रा नाम की स्त्रीसे धार्मिकी नाम की पुत्री हुई ॥432-437॥ यहाँपर उसने जिनमति आर्यिंकाके दिये हुए जिनगुणसम्पत्ति नाम के व्रतका अच्छी तरह पालन किया जिसके प्रभाव से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देवी हुई । बहुत समय बाद वहांसे चयकर वीतशोकनगर के स्वामी राजा मेरूचन्द्रकी चन्द्रवती रानी के रूप, लावण्य और कान्ति आदिकी खान यह गौरी नाम की पुत्री हुई है । स्नेहसे भरे, विजयपुर नगर के स्वामी राजा विजयनन्दनने यह लाकर तुझे दी है और तू ने भी इसे पट्टरानी बनाया है । इस प्रकार गणधर भगवान् ने गौरीके भवान्तर कहे जिन्हें सुनकर श्रीकृष्ण हर्षको प्राप्त हुए ॥438-441॥ तदनन्तर – गुणों की खान, गणधर देव, लोगोंका मन हरण करने वाले पद्मावती के पूर्व भवों का सम्बन्ध इस प्रकार कहने लगे ॥442॥ इसी भरतक्षेत्रकी उज्जयिनी नगरी में राजा विजय राज्य करता था उसकी विक्रान्तिके समान अपराजिता नाम की रानी थी । उन दोनोंके विनयश्री नाम की पुत्री थी । वह हस्तशीर्षपुरके राजा हरिषेण को दी गई थी । विनयश्रीने एक बार समाधिगुप्त मुनिराज के लिए बड़े हर्ष से आहार - दान दिया था जिसके पुण्य से वह हैमवत क्षेत्र में उत्पन्न हुई । चिरकाल तक वहाँके भोग भोगकर आयु के अन्त में वह चन्द्रमाकी रोहिणी नाम की देवी हुई । जब एक पल्य प्रमाण वहांकी आयु समाप्त हुई तब मगध देशके शाल्मलि गाँवमें रहनेवाले विजयदेवकी देविला स्त्रीसे पद्मदेवी नाम की पतिव्रता पुत्री हुई । उसने किसी समय वरधर्म नामक मुनिराज के पास 'मैं कष्टके समय भी अनजाना फल नहीं खाऊँगी' ऐसा दृढ़व्रत लिया । किसी एक समय आक्रमणकर घात करनेवाले भीलोंने उस गांवको लूट लिया । उस समय सब लोग, भीलोंके राजा सिंहरथके डरसे पद्मदेवीको महाअटवीमें ले गये । वहाँ भूखसे पीडि़त होकर सब लोगोंने विषफल खा लिये जिससे वे शीघ्रही मर गये परन्तु व्रतभंगके डरसे पद्मदेवीने उन फलोंको छुआ भी नहीं इसलिए वह आहारके बिना ही मरकर हैमवत क्षेत्र नामक भोगभूमिमें उत्पन्न हुई । आयु पूर्ण होने पर वहांसे चयकर स्वयंप्रभद्वीप में स्वयंप्रभ नामक देवकी स्वयंप्रभा नाम की देवी हुई । वहांसे चयकर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी जयन्तपुर नगर में वहांके राजा श्रीधर और रानी श्रीमतीके सुन्दर शरीरवाली विमलश्री नाम की पुत्री हुई । वह भद्रिलपुरके स्वामी राजा मेघरथकी इच्छित सुख देनेवाली रानी हुई थी । किसी समय शुद्ध बुद्धि के धारक राजा मेघनादने राज्य छोड़कर धर्म नामक मुनिराज के समीप व्रत धारण कर लिया जिससे वह सहस्त्रार नामक स्वर्ग में अठारह सागर की आयुवाला देदीप्यमान कान्तिका धारक इन्द्र हो गया । इधर रानी विमलश्रीने भी पद्मावती नामक आर्यिकाके पास जाकर संयम धारण कर लिया और आचाम्लवर्ध नाम का उपवास किया जिसके फलस्वरूप वह आयु के अन्त में उसी सहस्त्रार स्वर्ग में देवी हुई और आयु के अन्त में वहाँसे च्युत होकर अरिष्टपुर नगर के स्वामी राजा हिरण्यवर्माकी रानी श्रीमतीके यह पद्मावती नाम की पुत्री है । इसने स्नेहसे युक्त हो स्वयंवरमें रत्नमाला डालकर आपका सम्मान किया और तदनन्तर इस शीलवतीने महादेवीका पद प्राप्त किया । इस प्रकार गणधर भगवान् के मुखारविन्दसे अपने - अपने भव सुनकर श्रीकृष्णकी गौरी, गान्धारी और पद्मावती नाम की तीनों रानियाँ हर्षको प्राप्त हुई ॥443-459॥ इस प्रकार गुणों के भण्डार गणधर देवने स्पष्ट और मिष्ट अक्षरोंके द्वारा पूर्व भवावलीसे सुशोभित निर्णयका साक्षात् वर्णन कर दिखाया और श्रीकृष्ण भी अपनी प्यारी आठों रानियोंकी सुख - दु:खभरी कथाएँ अच्छी तरह सुनकर अन्त में प्रवृत्ति प्रदान करनेवाले संतोषको प्राप्त हुए । वे देवियाँ भी अनेक जन्ममें कमाये हुए अपने पापोंका नाश करनेवाले श्री गणधर भगवान् के दिव्य वचन ह्णदय में धारण कर बहुत प्रसन्न हुईं और सबने कल्याणकारी तथा बहुत भारी सुख प्रदान करनेवाले अर्हन्त भगवान् के धर्म में अपनी बुद्धि लगाई ॥461॥ 'इस संसार में एक धर्म को छोड़कर दूसरा कार्य प्राणियोंका कल्याण करनेवाला नहीं है, धर्म रहित मूर्ख जीवोंका जो चरित्र है उसे धिक्कार है' इस प्रकार विचार करते हुए सब सभासदोंने पाप रहित होकर, श्री नेमिनाथ भगवान् का कहा हुआ धर्म स्वीकार किया ॥462॥ |