
कथा :
अथानन्तर - तीनों जगत् की सभाभूमि अर्थात् समवसरण में अपने पूर्वभव जानकर बुद्धिमान् बलदेव ने सबको प्रकट करने के लिए प्रद्युम्न की उत्पत्ति का सम्बन्ध पूछा सो वरदत्त गणधर अनुग्रह की बुद्धि से इस प्रकार कहने लगे ॥1-2॥ इसी जम्बूद्वीप के मगधदेश सम्बन्धी शालिग्राम में रहनेवाले सोमदेव ब्राह्मण की एक अग्निला नाम की स्त्री थी ॥3॥ उन दोनों के अग्निभूति और वायुभूति नाम के दो पुत्र थे, किसी एक दिन वे दोनों पुत्र नन्दिवर्धन नाम के दूसरे सुन्दर गाँव में गये । वहाँ उन्होंने नन्दिघोष नाम के वन में, मुनि-संघ के आभूषण-स्वरूप नन्दिवर्धन नामक मुनिराज के दर्शन किये ॥4-5॥ उन दोनों दुष्टों को आया हुआ देख, मुनिराज ने संघ के अन्य मुनियों से कहा कि 'ये दोनों मिथ्यात्व से दूषित हैं और विसंवाद करने के लिए आये हैं अत: आप लोगोंमेंसे कोई भी इनके साथ बातचीत न करें । अन्यथा इस निमित्तसे भारी उपसर्ग होगा' ॥6-7॥ शासन करने वाले गुरू के इस प्रकार के वचन सुनकर सब मुनि उस समय मौन लेकर बैठ गये ॥8॥ वे दोनों ब्राह्मण सब मुनियों को मौनी देखकर उनकी हँसी करते हुए अपने गाँव को जा रहे थे कि उन मुनियों में से एक सत्यक नाम के मुनि आहार करने के लिए दूसरे गाँवमें गये थे और लौटकर उस समय आ रहे थे । अहंकार से प्रेरित हुए दोनों ब्राह्मण उन सत्यक मुनि को देख उनके पास जा पहुँचे और कहने लगे कि 'अरे नंगे ! न तो कोई आप्त है, न आगम है, और न कोई पदार्थ ही है फिर क्यों मूर्ख बनकर प्रत्यक्ष को नष्ट करनेवाले इस उन्मार्ग में व्यर्थ ही क्लेश उठा रहा है'। इस प्रकार उन दोनों ने उक्त मुनि का बहुत ही तिरस्कार किया । मुनि ने भी, जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमलसे निकले विवक्षित तथा अविवक्षित रूप से अनेक धर्मों का निरूपण करनेवाले, एवं प्रत्यक्ष सिद्ध द्रव्य तत्त्व का हेतु सहित कथन करनेवाले अतिशय उत्कृष्ट स्याद्वाद का अवलम्बन लेकर उसका उपदेश देनेवाले आप्तकी प्रामाणिकता सिद्ध कर दिखाई तथा परोक्ष तत्त्व के विषय में भी उन्हीं आप्त के द्वारा कथित आगम की समीचीन स्थितिका निरूपण कर उन दुष्ट ब्राह्मणोंकी वाद करने की खुजली दूर की एवं विद्वज्जनों के द्वारा समर्पण की हुई उनकी विजय - पताका छीन ली । मान भंग होने से जिन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे दोनों ही पापी ब्राह्मण तीक्ष्ण शस्त्र लेकर दूसरे दिन रात्रि के समय निकले । उस समय शुद्ध चित्त के धारक वही सत्यक मुनि, एकान्त स्थान में प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे सो वे पापी ब्राह्मण उन्हें शस्त्रसे मारनेके लिए उद्यत हो गये । यह देखकर और यह अन्याय हो रहा है ऐसा विचारकर सुवर्णयक्ष ने क्रोध में आकर उन दोनों ब्राह्मणों को कीलित हुए के समान स्तम्भित कर दिया-ज्यों-का-त्यों रोक दिया ॥9-17॥ यह देखकर उनके माता, पिता, भाई आदि सब व्याकुल होकर मुनियोंकी शरण में आये । तब बुद्धिमान् यक्षने कहा कि 'यदि तुम लोग हिंसाधर्म को छोड़कर जैन-धर्म स्वीकृत करोगे तो इन दोनोंका छुटकारा हो सकता है' ॥18-19॥ यक्ष की बात सुनकर सब डर गये और कहने लगे कि हम लोग शीघ्र ही ऐसा करेंगे अर्थात् जैनधर्म धारण करेंगे । इतना कहकर उन लोगोंने मुनिराजकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम किया और झूठमूठ ही श्रावक धर्म स्वीकृत कर लिया । तदनन्तर दोनों पुत्र जब कीलित होनेसे छूट आये तब उनके माता - पिता आदिने उनसे कहा कि अब यह धर्म छोड़ देना चाहिये क्योंकि कारण वश ही इसे धारण कर लिया था । उन पुत्रोंकी काललब्धि अनुकूल थी अत: वे अपने द्वारा ग्रहण किये हुए सन्मार्ग से विचलित नहीं हुए ॥20-22॥ पुत्रों की यह प्रवृत्ति देख, उनके माता - पिता आदि उनसे क्रोध करने लगे और मरकर पाप के उदय से दीर्घकाल तक अनेक कुगतियोंमें भ्रमण करते रहे । उधर उन दोनों ब्राह्मण - पुत्रों ने व्रतसहित जीवन पूरा किया इसलिए मरकर सौधर्म स्वर्ग में पाँच पल्यकी आयुवाले पारिषद जातिके श्रेष्ठ देव हुए ॥23-24॥ वहाँ पर उन्होंने अनेक उत्तम सुख भोगे । तदनन्तर इसी जम्बूद्वीप के कोशल देश सम्बन्धी अयोध्या नगरी में शत्रुओं को जीतनेवाला अरिंजय नाम का पराक्रमी राजा राज्य करता था । उसी नगरी में एक अर्हद्दास नाम का सेठ रहता था उसकी स्त्री का नाम वप्रश्री था । वे अग्निभूति और वायुभूतिक जीव पाँचवें स्वर्ग से चयकर उन्हीं अर्हद्दास और वप्रश्रीके क्रमश: पूर्णभद्र और मणिभद्र नाम के पुत्र हुए । किसी एक दिन राजा अरिंजय, सिद्धार्थ नामक वन में विराजमान महेन्द्र नामक गुरूके समीप गया । वहाँ उसने अनेक लोगों के साथ धर्म का उपदेश सुना जिससे उसकी बुद्धि अत्यन्त पवित्र हो गई और उसने भार धारण करने में समर्थ अरिन्दम नामक पुत्र के ऊपर राज्य भार रखकर अर्हद्दास आदिके साथ संयम धारण कर लिया । उसी समय पूर्णभद्र नामक श्रेष्ठि - पुत्र ने मुनिराज से पूछा कि हमारे पूर्वभवके माता - पिता इस समय कहाँ पर हैं ? उत्तरमें मुनिराज कहने लगे कि तेरे पिता सोमदेवने जिनधर्म से विरूद्ध होकर बहुत पाप किये थे अत: वह मरकर रत्नप्रभा पृथिवीके सर्पावर्त नाम के विलमें नारकी हुआ था और वहाँ से निकलकर अब इसी नगर में काकजंघ नाम का चाण्डाल हुआ है । इसी तरह तेरी माता अग्निलाका जीव मरकर उसी चाण्डालके घर कुत्ती हुआ है । मुनिराज के वचन सुनकर पूर्णभद्र ने उन दोनों जीवों को संबोधा जिससे उपशम भावको प्राप्त होकर दोनोंने विधिपूर्वक संन्यास धारण किया और उसके फलस्वरूप काकजंघ तो नन्दीश्वरद्वीप में कुबेर नाम का व्यन्तर देव हुआ । और कुत्ती उसी नगर के स्वामी अरिन्दम नामक राजाकी श्रीमती नाम की रानीसे सुप्रबुद्धा नाम की प्यारी पुत्री हुई ॥25-34॥ जब वह पूर्ण यौवनवती होकर स्वयंवर - मण्डप की ओर जा रही थी तब उसके पूर्व-जन्म के पति कुवेर नामक यक्ष ने उसे समझाया जिससे उसने प्रियदर्शना नाम की आर्यिकाके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली और आयु के अन्त में वह सौधर्म इन्द्र की मणिचूला नाम की रूपवती देवी हुई । इधर पूर्णभद्र और उसके छोटे भाई मणिभद्र ने बड़ी दृढ़ता से श्रावक के व्रत पालन किये, सात क्षेत्रों में धन खर्च किया और आयु के अन्त में दोनों ही सौधर्म नामक स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए ॥35-37॥ S वहाँ उनकी दो सागर की आयु थी, उसके पूर्ण होने पर वे इसी जम्बूद्वीप के कुरूजांगल देश सम्बन्धी हस्तिनापुर नगर के राजा अर्हद्दासकी काश्यपा नाम की रानीसे मधु और कीडव नाम के पुत्र हुए । किसी एकदिन राजा अर्हद्दासने मधुको राज्य और क्रीडवको युवराज पद देकर विमलप्रभ मुनिकी निर्दोष शिष्यता प्राप्त कर ली अर्थात् उनके पास दीक्षा धारण कर ली । किसी समय अमलकण्ठ नगरका राजा कनकरथ (हेमरथ) राजा मधुकी सेवा करने के लिए उसके नगर आया था वहाँ उसकी कनकमाला नाम की स्त्रीको देखकर राजा मधु काम से पीडित हो गया । निदान उसने कनकमालाको स्वीकृत कर लिया -अपनी स्त्री बना लिया । इस घटना से राजा कनकरथको बहुत निर्वेद हुआ जिससे उसने द्विजटि नामक तापसके पास व्रत ले लिये । इधर मधु और क्रीडवका काल सुख से व्यतीत हो रहा था । किसी एक दिन मधुने विमलवाहन नामक मुनिराजसे अच्छी तरह धर्म का स्वरूप सुना, अपने दुराचारकी निन्दा की और क्रीडव के साथ - साथ संयम धारण कर लिया । आयु के अन्त में विधिपूर्वक आराधना कर मधु और क्रीडव दोनों ही महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए । आयु के अन्त में वहाँ से च्युत होकर बड़ा भाई मधुका जीव अपने अवशिष्ट पुण्य कर्म के उदय से शुभ स्वप्न पूर्वक रूक्मिणीके पुत्र उत्पन्न हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि दुराचारके द्वारा कमाया हुआ पाप सम्यक् चारित्रके द्वारा नष्ट हो ही जाता है ॥35–46॥ इधर राजा कनकरथका जीव तपश्चरणकर धूमकेतु नाम का ज्यौतिषी देव हुआ था । वह बालक प्रद्युम्नके पूर्वभवमें संचित किये हुए तीव्र पाप के समान जान पड़ता था । किसी दूसरे दिन वह इच्छानुसार विहार करने के लिए आकाश में वायुके समान वेगसे जा रहा था कि जब उसका विमान चरमशरीरी प्रद्युम्नके ऊपर पहुँचा तब वह ऐसा रूक गया मानो किन्हीं दूसरोंने उसे पकड़कर रोक लिया हो । यह कार्य किसने किया है ? यह जानने के लिए जब उसने उपयोग लगाया तब विभंगावधि ज्ञान से उसे मालूम हुआ कि यह हमारा पूर्वजन्मका शत्रु है । जब मैं राजा कनकरथ था तब इसने दर्पवश मेरी स्त्री का अपहरण किया था । अब इसे उसका फल अवश्य ही चखाता हूँ । ऐसा विचारकर वह वैर रूपी अग्निसे प्रज्वलित हो उठा ॥47-50॥ वह अन्त:पुरमें रहनेवाले लोगों को महानिद्रासे अचेतकर बालक प्रद्युम्नको उठा लाया और आकाशमार्गसे बहुत दूर ले जाकर सोचने लगा कि मैं इसकी ऐसी दशा करूँगा कि जिससे चिरकाल तक महादु:ख भोगकर प्राण छोड़ दे - मर जावे । ऐसा विचारकर वह बालकके पुण्य से प्रेरित हुआ आकाश से नीचे उतरा और खदिर नाम की अटवीमें तक्षक शिलाके नीचे बालक को रखकर चला गया ॥51-53॥ उसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीके आभूषण स्वरूप मृतवती नामक देशके कालकूट नगरका स्वामी कालसंवर नाम का विद्याधर राजा अपनी कान्चनमाला नाम की स्त्रीके साथ जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओंकी पूजा करने के लिए जा रहा था ॥54-55॥ वह उस बड़ी भारी शिलाके समस्त अंगोंको जोरसे हिलता देख आश्चर्यमें पड़ गया । सब ओर देखनेपर उसे देदीप्यमान कान्तिका धारक बालक दिखाई दिया । देखते ही उसने निश्चय कर लिया कि 'यह सामान्य बालक नहीं है, कोई पूर्वजन्मका वैरी पापी जीव क्रोधवश इसे यहाँ रख गया है । हे प्रिये ! देख, यह कैसा बालसूर्य के समान देदीप्यमान हो रहा है । इसलिए हे सुन्दरी ! यह तेरा ही पुत्र हो, तू इसे ले ले' । इस प्रकार बालक को उठाकर विद्याधरने अपनी स्त्रीसे कहा । विद्याधरीने उत्तर दिया कि 'यदि आप इसे युवराजपद देते हैं तो ले लूँगी' । राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली और रानी के कानमें पड़े हुए सुवर्ण के पत्रसे ही उसका पट्टबंध कर दिया ॥56-59॥ इस प्रकार राजा कालसंवर और रानी कान्चनमाला ने उस बालक को लेकर अनेक उत्सवोंसे भरे हुए अपने नगर में प्रवेश किया और बालकका विधिपूर्वक देवदत्त नाम रक्खा ॥60॥ उस बालकके लालन - पालन तथा लीलाके विलासोंसे जिनका चित्त प्रसन्न हो रहा है और जो सदा उत्तमोत्तम सुखों का अनुभव करते रहे हैं ऐसे राजा - रानीका समय विना किसी छलसे व्यतीत होने लगा ॥61॥ इधर जिस प्रकार दावानलसे गुलाबकी वेल जलने लगती है उसी प्रकार पुत्र - विरहके कारण रूक्मिणी शोकाग्निसे जलने लगी ॥62॥ जिस प्रकार चारित्रहीन मनुष्यकी दयाभावसे रहित सम्पत्ति शोभा नहीं देती, अथवा जिस प्रकार कार्य और अकार्यके विचारमें शिथिल बुद्धि सुशोभित नहीं होती और जिस प्रकार काल पाकर जिसका पानी बरस चुका है ऐसी मेघमाला सुशोभित नहीं होती उसी प्रकार वह रूक्मिणी भी सुशोभित नहीं हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि प्राण निकल जानेपर शरीर की शोभा कहाँ रहती है ? ॥63– 64॥ रूक्मिणी की भांति श्रीकृष्ण भी पुत्र के वियोगसे शोकको प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि जब वृक्ष और लताका संयोग रहता है तब उन्हें नष्ट करने के लिए अलग - अलग वज्रपातकी आवश्यकता नहीं रहती ॥65॥ जिस प्रकार प्याससे पीडित मनुष्य के लिए जलाशयका मिलना सुखदायक होता है और मयूर के लिए मेघका आना सुखदायी होता है उसी प्रकार श्रीकृष्णको सुख देनेके लिए नारद उनके पास आया ॥66॥ उसे देखते ही श्रीकृष्णने बालकका सब वृत्तान्त सुनाकर कहा कि जिस किसी भी उपायसे जहाँ कहीं भी संभव हो आप उस बालकी खोज कीजिये ॥67॥ यह सुनकर नारद कहने लगा कि सुनो 'पूर्वविदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरी में स्वयंप्रभ तीर्थकरसे मैंने बालककी बात पूछी थी । अपने प्रश्नके उत्तरमें मैंने उनकी वाणीसे बालकके पूर्व भव जान लिये हैं, वह वृद्धिका स्थान है अर्थात् सब प्रकारसे बढ़ेगा, उसे बड़ा लाभ होगा और सोलह वर्ष बाद उसका आप दोनोंके साथ समागम हो जावेगा' । इस प्रकार नारदने जैसा सुना था वैसा श्रीकृष्ण तथा रूक्मिणीको समझा दिया ॥68- 70॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् का जन्म होते ही देवोंकी सेना तथा मनुष्य लोक में परम हर्ष उत्पन्न होता है उसी प्रकार नारदके वचन सुनते ही रूक्मिणी तथा श्रीकृष्णको परम हर्ष उत्पन्न हुआ ॥71॥ उधर पुण्यात्मा देवदत्त (प्रद्युम्न) क्रम - क्रम से नवयौवनको प्राप्त हुआ । किसी एक समय अतिशय बलवान् प्रद्युम्न पिताकी आज्ञा से सेना साथ लेकर अपने पराक्रम से स्वयं ही अग्निराज शत्रु के ऊपर जा चढ़ा और उसे युद्धमें प्रताप रहित बना जीतकर ले आया तथा पिताको सौंप दिया ॥72- 73॥ उस समय राजा कालसंवरने, जिसका पराक्रम देख लिया है ऐसे प्रद्युम्नका श्रेष्ठ वस्तुएँ देकर बहुत भारी सम्मान किया ॥74॥ यौवन ही जिसका आभूषण है, जो स्वर्गसे पृथिवीपर अवतीर्ण हुए के समान जान पड़ता है, और जो आभूषणोंसे अत्यन्त देदीप्यमान है ऐसे प्रद्यम्नको देखकर किसी समय राजा कालसंवरकी रानी कान्चनमालाकी बुद्धि काम से आक्रान्त हो गई, वह पूर्वजन्मसे आये हुए स्नेहके कारण अनेक विकार करने लगी, तथा पापसे युक्त हो अपने मनका भाव प्रकट करती हुई कुमारसे कहने लगी कि 'हे कुमार' मैं तेरे लिए प्रज्ञप्ति नाम की विद्या देना चाहती हूँ उसे तू विधि पूर्वक ग्रहण कर' । इस प्रकार माया पूर्व चेष्टासे युक्त रानीने कहा । बुद्धिमान् प्रद्युम्नने भी 'हे माता ! मैं वैसा ही करूँगा' यह कहकर बड़े हर्ष से उससे वह विद्या ले ली और उसे सिद्ध करने के लिए सिद्धकूट चैत्यालयकी ओर गमन किया । वहाँ जाकर उसने चारणऋद्धि धारी मुनियोंको नमस्कार किया, उनसे धर्मोपदेश सुना और तदनन्तर उनके कहे अनुसार विद्या सिद्ध करने के लिए सन्जयन्त मुनिकी प्रतिमाका आश्रय लिया ॥75-80॥ उसने संजयन्त मुनिका पुराण सुना, उनकी प्रतिमाके चरणोंके आश्रय से विद्या सिद्ध की और तदनन्तर हर्षित होता हुआ वह अपने नगरको लौट आया ॥81॥ विद्या सिद्ध होनेसे उसके शरीर की शोभा दूनी हो गई थी अत: उसे देखकर रानी कान्चनमाला काम से कातर हो उठी । उसने अनेक उपायों के द्वारा कुमारसे प्रार्थना की परन्तु महाबुद्धिमान् कुमार ने उसकी इच्छा नहीं की । जब उसे इस बात का पता चला कि यह कुमार पुरूषव्रत सम्पन्न है और हमारे सहवासके योग्य नहीं है तब उसने अपने पति कालसंवरसे कहा कि यह कुमार कुचेष्टा युक्त है अत: जान पड़ता है कि यह कुलीन नहीं है-उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ नहीं है । विचार रहित कालसंवरने स्त्री की बात का विश्वास कर लिया । उसने उसी समय विद्युद्दंष्ट्र आदि अपने पाँच सौ पुत्रोंको बुलाकर एकान्तमें आज्ञा दी कि 'यह देवदत्त अपनी दुष्टताके कारण एकान्तमें बध करने के योग्य है अत: आप लोग इसे किसी उपायसे प्राणरहित कर डालिये' । इस प्रकार विद्याधरोंके राजा कालसंवरसे आज्ञा पाकर वे पाँच सौ कुमार अत्यन्त कुपित हो उठे । वे पहले ही उसे मारनेके लिए परस्पर सलाह कर चुके थे फिर राजाकी आज्ञा प्राप्त हो गई । 'ऐसा ही करूँगा' यह कहकर उन्होंने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की और सबके सब उसे पूरा करने की इच्छा करते हुए नगरसे बाहर निकल पड़े । यही आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार हिंसा प्रधान शास्त्रसे, नीति रहित राज्यसे और मिथ्या मार्ग में स्थित तपसे निश्चित हानि होती है उसी प्रकार दुष्ट स्त्रीसे निश्चित ही हानि होती है ॥82-88॥ दोषोंके विकारोंसे युक्त स्त्रियाँ मनुष्यकी स्थिर बुद्धि को चन्चल बना देती हैं, सीधीको कुटिल बना देती है और देदीप्यमान बुद्धि को ढक लेती हैं ॥89॥ ये पापिनी स्त्रियाँ अपने पतियोंके प्रति उसी समय सन्तुष्ट हो जाती हैं और उसी समय क्रोध करने लगती हैं और इनके ऐसा करने में लाभ वा हानि इन दोके सिवाय अन्य कुछ भी कारण नहीं है ॥90॥ संसार में ऐसा कोई कार्य बाकी नहीं जिसे खोटी स्त्रियाँ नहीं कर सकती हों । हाँ, पुत्र के साथ व्यभिचारकी इच्छा करना यह एक कार्य बाकी था परन्तु कान्चनमाला ने वह भी कर लिया ॥91॥ जिन किन्हीं स्त्रियोंमें व्रत शील आदि सत्क्रियाएँ रहती हैं वे भी शुद्धि को प्राप्त नहीं होतीं फिर जिनमें सत्क्रियाएँ नहीं हैं वे अपनी अशुद्धताके परम प्रकर्षको क्यों न प्राप्त हों ? ॥92॥ जिस प्रकार कमल के पत्तोंपर पानी स्थिर नहीं रहता उसी प्रकार इन स्त्रियोंका चित्त भी किन्हीं पुरूषोंपर स्थिर नहीं ठहरता । वह स्पर्श करके भी स्पर्श नहीं करनेवालेके समान उनसे पृथक् रहता है ॥93॥ सब स्त्रियों के सब दोषोंसे भरे भाव दुर्लक्ष्य रहते हैं - कष्टसे जाने जा सकते हैं । ये सन्निपातके समान दु:साध्य तथा बहुत भारी मोह उत्पन्न करनेवाले होते हैं ॥94॥ कौन किसके प्रति किस कारणसे क्या कहता है !' इस बात का विचार कार्य करनेवाले मनुष्य को अवश्य करना चाहिए । क्योंकि जो इस प्रकार का विचार करता है वह इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी कर्मोंमें कभी प्रतारणा को प्राप्त नहीं होता - ठगाया नहीं जाता ॥95॥ 'यह वक्ता प्रामाणिक वचन बोलता है या नहीं' इस बातकी परीक्षा विद्वान् पुरूषको उसके आचरण अथवा ज्ञान से स्पष्ट ही करना चाहिए ॥96॥ नयों के जाननेवाले मनुष्य को पहले यह देखना चाहिये कि इसमें यह बात संभव है भी या नहीं ? इसी प्रकार जिसे लक्ष्यकर वचन कहे जावें पहिले उसके आचरण से उसकी परीक्षा कर लेनी चाहिए । विचार कर कार्य करनेवाले मनुष्य को शब्द अथवा अर्थके द्वारा कहे हुए पदार्थ का 'यह विश्वास करने के योग्य है अथवा नहीं' इस प्रकार स्पष्ट ही परीक्षा कर लेनी चाहिए॥97- 98॥ 'यह जो कह रहा है सो भय से कह रहा है, या स्नेहसे कह रहा है, या लोभसे कह रहा है, या मात्सर्यसे कह रहा है, या क्रोध से कह रहा है, या लज्जा से कह रहा है, या अज्ञान से कह रहा है, या जानकर कह रहा है, और या दूसरों की प्रेरणासे कह रहा है, इस प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य को निमित्तों की परीक्षा करनी चाहिए । जो मनुष्य इस प्रकार प्रवृत्ति करता है वह विद्वानोंमें भी विद्वान् माना जाता है ॥99-100॥ 'अच्छी और बुरी आज्ञा देने में जो शिष्ट (उत्तम) पुरूष भी भूलकर जाते हैं वह बड़े कष्टकी बात है' यह बात दुष्टा स्त्री अपने स्त्रीस्वभावके कारण नहीं समझ पाती है ॥101॥ अथानन्तर - वे विद्युद्दंष्ट्र आदि पाँच सौ राजकुमार प्रद्युम्नको उत्साहित कर उसी समय विहार करने के लिए वनकी ओर चल दिये । वहाँ जाकर उन्होंने प्रद्युम्नके लिए अग्निकुण्ड दिखाकर कहा कि जो इसमें कूदते हैं वे निर्भय कहलाते हैं । उनकी बात सुनकर प्रद्युम्न निर्भय हो उस अग्नि - कुण्डमें कूद पड़ा । सो ठीक ही है क्योंकि भाग्यसे प्रेरित हुआ बुद्धिमान् मनुष्य किसी कार्यका विचार नहीं करता ॥102-103॥ उस कुण्ड में कूदते ही वहाँ की रहनेवाली देवीने उसकी अगवानी की तथा सुवर्णमय वस्त्र और आभूषणादि देकर उसकी पूजा की । इस तरह देवीके द्वारा पूजित होकर प्रद्युम्न उस कुंडसे बाहर निकल आया ॥104॥ इस घटना से उन सबको आश्चर्य हुआ तदनन्तर वे दुष्ट उसे उत्साहितकर फिरके चले और मेष के आकारके दो पर्वतोंके बीच में उसे घुसा दिया ॥105॥ वहाँ दो पर्वत मेष का आकार रख दोनों ओरसे उस पर गिरने लगे तब भुजाओंसे सुशोभित प्रद्युम्न उन दोनों पर्वतोंको रोककर खड़ा हो गया । यह देख वहाँ रहनेवाली देवीने संतुष्ट होकर उसे मकरके चिह्नसे चिह्नित रत्नमयी दो दिव्य कुण्डल दिये । वहांसे निकलकर प्रद्युम्न, भाइयोंके आदेशानुसार वराह पर्वत की गुफामें घुसा । वहाँ एक वराह नाम का भयंकर देव आया तो प्रद्युम्नने एक हाथसे उसकी दाढ़ पकड़ ली और दूसरे हाथसे उसका मस्तक ठोकना शुरू किया इस तरह वह दोनों जबड़ोंके बीच में लीलापूर्वक खड़ा हो गया । रूक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नकी चेष्टा देखकर वहां रहनेवाली देवी ने उसे विजयघोष नाम का शंख और महाजालमें दो वस्तुएँ दी । सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यात्मा जीवों को कहाँ लाभ नहीं होता है ? ॥106-110॥ इसी तरह उसने काल नामक गुहामें जाकर महाकाल नामक राक्षसको जीता और उससे वृषभ नाम का रथ तथा रत्नमय कवच प्राप्त किया ॥111॥ आगे चलकर किसी विद्याधरने किसी विद्याधरको दो वृक्षोंके बीच में कीलित कर दिया था वह प्रद्युम्नको दिखाई दिया, वह कीलित हुआ विद्याधर असह्य वेदनासे दु:खी हो रहा था । यद्यपि उसके पास वन्धनसे छुड़ानेवाली गुटिका थी परन्तु कीलित होने के कारण वह उसका उपयोग नहीं कर सकता था । उसे देखते ही प्रद्युम्न उसके पास गया और उसके संकेत को समझ गया । उसने विद्याधरके पासकी गुटिका लेकर उसकी आँखों पर फेरा और उसे बन्धनसे मुक्त कर दिया । इस तरह उपकार करने वाले प्रद्युम्नने उस विद्याधरसे सुरेन्द्र जाल, नरेन्द्र जाल, और प्रस्तर नाम की तीन विद्याएँ प्राप्त कीं । तदनन्तर-वह प्रद्युम्न, सहस्त्रवक्त्र नामक नागकुमार के भवन में गया वहाँ उसने शंख बजाया जिससे नाग और नागी दोनों ही बिलसे बाहर आये और प्रसन्न होकर उन्होंने उसके लिए मकरचिह्नसे चिह्नित ध्वजा, चित्रवर्ण नाम का धनुष, नन्दक नाम का खंग और कामरूपिणी नाम की अंगूठी दी । वहाँ से चलकर उसने एक कैथका वृक्ष हिलाया जिसके उसपर रहनेवाली देवीसे आकाश में चलनेवाली दो अमूल्य पादुकाएँ प्राप्त कीं ॥112-117॥ वहाँ से चलकर सुवर्णार्जुन नामक वृक्ष के नीचे पहुँचा और वहाँ पन्च फणवाले नागराज के द्वारा दिये हुए तपन, तापन, मोदन, विलापन और मारण नाम के पांच वाण उस पुण्यात्माको प्राप्त हुए ॥118-119॥ तदनन्तर वह क्षीरवन में गया वहाँ सन्तुष्ट हुए मर्कट देवने उसे मुकुट, औषधिमाला, छत्र और दो चमर प्रदान किये ॥120॥ इसके बाद वह कदम्बमुखी नाम की बावड़ीमें गया ओर वहाँके देवसे एक नागपाश प्राप्त किया । तदनन्तर इसकी वृद्धि को नहीं सहनेवाले सब विद्याधरपुत्र इसे पातालमुखी बावड़ीमें ले जाकर कहने लगे कि जो कोई इसमें कूदता है वह सबका राजा होता है । नीतिका जाननेवाला प्रद्युम्न उन सबका अभिप्राय समझ गया इसलिए उसने प्रज्ञप्ति विद्याको अपना रूप बनाकर बावड़ीमें कुदा दिया और स्वयं अपने आपको छिपाकर वहीं खड़ा हो गया ॥121-123॥ जब उसे यह मालूम हुआ कि ये सब बड़ी - बड़ी शिलाओं के द्वारा मुझे मारना चाहते थे तब वह क्रोधसे संतप्त हो उठा, उसने उसी समय विद्युद्दंष्ट्र आदि शत्रुओं को नागपाशसे मजबूतीके साथ बांधकर तथा नीचेकी ओर मुख कर उसी बावड़ीमें लटका दिया और ऊपरसे एक शिला ढक दी । उन सब भाइयोंमें ज्योतिप्रभ सबसे छोटा था सो प्रद्युम्नने उसे समाचार देनेके लिए नगरकी ओर भेज दिया और स्वयं वह उसी शिलापर बैठ गया सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्य अपने पापसे पराभवको प्राप्त करते ही हैं ॥124-126॥ अथानन्तर - प्रद्युम्न ने देखा कि इच्छानुसार चलनेवाले नारदजी आकाश - स्थलसे अपनी ओर आ रहे है ॥127॥ वह उन्हें आता देख उठकर खड़ा हो गया उसने विधिपूर्वक उनकी पूजा की, उनके साथ बातचीत की तथा नारदने उसका सब वृत्तान्त कहा । उसे सुनकर प्रद्युम्न बहुत संतुष्ट हुआ और उसपर विश्वास कर वहीं बैठ गया । शत्रुकी सेनाका आगमन देखकर वह आश्चर्यमें पड़ गया । थोड़े ही देर बाद, जिस प्रकार वर्षा ऋतुमें बादलों का समूह सूर्य को घेर लेता है उसी प्रकार अकस्मात् विद्याधर राजाकी सेनाने प्रद्युम्नको घेर लिया परन्तु प्रद्युम्नने युद्ध कर उन कालसंवर आदि समस्त विद्याधरोंको पराजित कर दिया । तदनन्तर - उसने राजा कालसंवरके लिए उनके पुत्रोंका समस्त वृत्तान्त सुनाया, शिला हटाकर नागपाश दूर किया और सबको बन्धन रहित किया, इसी तरह नारदके आनेका कारण भी विस्तारके साथ कहा । तत्पश्चात् वह राजा कालसंवरकी अनुमति लेकर वृषभ नामक रथपर सवार हो नारदके प्रति रवाना हुआ । बीच में नारदजीके द्वारा कहे हुए अपने पूर्वभवोंका सम्बन्ध सुनता हुआ वह हस्तिनापुर जा पहुंचा । वहांके राजा दुर्योधनकी जलधि नाम की रानीसे उत्पन्न हुई एक उदधिकुमारी नाम की उत्तम कन्या थी । भानुकुमार को देनेके लिए उसका महाभिषेक रूप उत्सव हो रहा था । उसे देख प्रद्युम्नने प्रस्तर विद्यासे उत्पन्न एक शिलाके द्वारा नारदजीको तो रथपर ही ढक दिया और आप स्वयं रथसे उतर कर पृथिवी तलपर आ गया और उन लोगोंकी बहुत प्रकारकी हँसी कर वहाँसे आगे बढ़ा ॥128-136॥ चलते - चलते वह मथुरा नगर के बाहर पहुँचा, वहाँपर पाण्डव लोग अपनी प्यारी पुत्री भानुकुमार को देनेके लिए जा रहे थे उन्हें देख, उसने धनुष हाथमें लेकर एक भीलका रूप धारण कर लिया और उन सबका नाना प्रकार का तिरस्कार किया । तदनन्तर वहाँसे चलकर द्वारिका पहुँचा ॥137-138॥ वहाँ उसने नारदजीको तो पहलेके ही समान विद्याके द्वारा रथपर अवस्थित रक्खा और स्वयं अकेला ही नीचे आया । वहाँ आकर उसने विद्याके द्वारा एक वानरका रूप बनाया और नन्दन वनके समान सत्यभामाका जो वन था उसे तोड़ डाला, वहाँ की बावड़ीका समस्त पानी अपने कमण्डलुमें भर लिया । फिर कुछ दूर जाकर उसने अपने रथमें उल्टे मेढे तथा गधे जोते और स्वयं मायामयी रूप धारण कर लिया ॥139-141॥ इस क्रियासे उसने नगर के गोपुरमें आने जानेवाले लोगों को खूब हँसाया । तदनन्तर नगर के भीतर प्रवेश किया ॥142॥ और अपनी विद्याके बलसे शाल नामक वैद्यका रूप बनाकर घोषणा करना शुरू कर दी कि मैं कटे हुए कानोंका जोड़ना आदि कर्म जानता हूँ ॥143॥ इसके बाद भानुकुमार को देनेके लिए कुछ लोग अपनी कन्याएँ लाये थे उनके पास जाकर उसने उनकी अनेक प्रकारसे हँसी की । पश्चात् एक ब्राह्मण का रूप बनाकर सत्यभामाके महलमें पहुंचा वहाँ भोजनके समय जो ब्राह्मण आये थे उन सबको उसने अपनी घृष्टतासे बाहर कर दिया और स्वयं भोजन कर दक्षिणा ले ली ॥144-145॥ तदनन्तर क्षुल्लकका वेष रखकर अपनी माता रूक्मिणीके यहाँ पहुंचा और कहने लगा कि हे सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाली ! मैं भूखा हूँ, मुझे अच्छी तरह भोजन करा । इस तरह प्रार्थना कर अनेक तरह के भोजन खाये परन्तु तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ तब फिर व्याकुलताको प्रकट करता हुआ कहने लगा कि हे देवि ! मुझे संतुष्ट कर, पेट भर भोजन दे ! तदनन्तर उसके द्वारा दिये हुए महामोदक खाकर संतुष्ट हो गया । भोजनके पश्चात् वह कुछ शान्तचित्त होकर वहीं पर सुख से बैठ गया ॥146-148॥ उसी समय रूक्मिणीने देखा कि असमयमें ही चम्पक तथा अशोकके फूल फूल गये हैं और सारा का सारा वन भ्रमरों तथा कोकिलाओं के मनोहर कूजनसे शब्दायमान हो रहा है । यह देख वह आश्रर्यसे चकित बड़े हर्ष से पूछने लगी कि हे भद्र ! क्या आप मेरे पुत्र हैं और नारदके द्वारा कहे हुए समय पर आये हैं । माताका ऐसा प्रश्न सुनते ही प्रद्युम्नने अपना असली रूप प्रकट कर दिया और उसके चरण-नखोंकी किरण रूप मंजरीको शिरपर रखकर उसे अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया । माताके साथ भोजन किया, उसकी इच्छानुसार बाल - काल की क्रीड़ाओंसे उसे परम प्रसन्नता प्राप्त कराई और पूर्व जन्ममें उपार्जित अपूर्व पुण्य कर्म के उदयके समान वहीं ठहर गया ॥149-153॥ उसी समय एक नाई रूक्मिणीके पास आया और कहने लगा कि श्रीकृष्णके प्रश्न करनेपर श्रीविनयन्धर नाम के मुनिराजसे सत्यभामा और तुम दोनोंने अपने पुत्रकी उत्पत्ति जानकर परस्पर शर्त की थी कि हम दोनों में जिसके पहले पुत्र होगा वह पुत्र, अपने विवाहके समय दूसरीके शिर के बाल हरणकर स्नान करेगा । इसलिए हे देवी ! आप उस शर्तका स्मरणकर भानुकुमार के स्नानके लिए अपने केश मुझे दीजिये । आज विवाहके दिन सत्यभामाने मुझे शीघ्र ही भेजा है' । नाईकी बात सुनकर प्रद्युम्नने मातासे पूछा कि 'यह क्या बात है ?' वह कहने लगी कि 'तुम्हारा और भानुकुमारका जन्म एक साथ हुआ था । हम दोनोंने श्रीकृष्णको दिखानेके लिए तुम दोनोंको भेजा था परन्तु उस समय वे सो रहे थे इसलिए तू उनके चरणोंके समीप रख दिया गया था और वह उनके शिरके समीप रखा गया था । जब वे जागे तो उनकी दृष्टि सबसे पहले तुझपर पड़ी इसलिए उन्होंने तुझे ही जेठापन प्रदान किया था-तू ही बड़ा है यह कहा था' । माताके वचन सुनकर प्रद्युम्नने उस नाईको विकृतिकी खान बना दी - उसकी बुरी चेष्टा कर दी और उसके साथ जो सेवक आये थे उन सबको नीचे शिरकर गोपुर में उल्टा लटका दिया तथा श्रीकृष्णका रूप बनाकर उनके विदूषकको खूब डाटा । तदनन्तर मार्ग में सो रहा और जगानेपर अपने पैर लम्बेकर जर नामक प्रतीहारीको खूब ही धौंस दी ॥154-161॥ फिर मेष का रूप बनाकर बाबा वासुदेव को टक्कर द्वारा गिरा दिया और सिंह बनकर बलभद्रको निगलकर अदृश्य कर दिया । तदनन्तर - माताके पास आकर बोला कि 'हे माता ! तू यहीं पर सुख से रह' यह कहकर उसने अपनी विद्यासे ठीक रूक्मिणीके ही समान मनोहर रूप बनाया और उसे विमान में बैठाकर शीघ्रता से बलभद्र तथा कृष्णके पास ले जाकर बोला कि मैं रूक्मिणीको हरकर ले जा रहा हूं, यदि सामर्थ्य हो तो छुड़ा लो ! यह सुनकर असमयमें आये हुए यमराजकी उपमा धारण करनेवाले श्रीकृष्ण भी उसे छुड़ानेके लिए सामने जा पहुँचे परन्तु भीलका रूप धारण करनेवाले प्रद्युम्नने नरेन्द्रजाल नामक विद्याकी मायासे उन्हें जीत लिया और इस तरह वह शत्रु रहित होकर खड़ा रहा ॥162-165॥ उसी समय नारदने आकर हँसते हुए, बलभद्र तथा श्रीकृष्णसे कहा कि जिसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हैं ऐसे पुत्रका आज आप दोनोंको दर्शन हो रहा है ॥166॥ उसी समय प्रद्युम्नने भी अपना असली रूप प्रकट कर दिया तथा बलभद्र और श्रीकृष्णको उनके चरण - कमलोंमें अपना शिर झुकाकर नमस्कार किया ॥167॥ तदनन्तर चक्रवर्ती श्रीकृष्ण महाराजने बड़े प्रेमसे प्रद्युम्नका आलिंगन किया, उसे अपने हाथी के स्कन्धपर बैठाया और फिर बड़े प्रेमसे नगर में प्रवेश किया ॥168॥ वहाँ जाकर प्रद्युम्नने अपने पुण्योदयसे, सत्यभामाके पुत्र भानुकुमार के लिए जो कन्याएँ आई थी उनके साथ सर्वकी सम्मतिसे विवाह किया ॥169॥ इस प्रकार काल सुख से बीतने लगा । किसी एक दिन सबने सुना कि प्रद्युम्नका पूर्वजन्मका भाई स्वर्गसे आकर श्रीकृष्णका पुत्र होगा । यह सुनकर सत्यभामाने अपने पतिसे याचना की कि जिस प्रकार वह पुत्र मेरे ही उत्पन्न हो ऐसा प्रयत्न कीजिये ॥170-171॥ जब रूक्मिणीने यह सुना तो उसने बड़े आदरके साथ प्रद्युम्नसे कहा कि तुम्हारे पूर्वभवके छोटे भाई - को जाम्बवती प्राप्त कर सके ऐसा प्रयत्न करो ॥172॥ प्रद्युम्नने भी जाम्बवतीके लिए इच्छानुसार रूप बनाने वाली अंगूठी दे दी उसे पाकर जाम्बवती ने सत्यभामाका रूप बनाया और पतिके साथ संयोगकर स्वर्गसे च्युत हुए क्रीडवके जीव को प्राप्त किया, उत्पन्न होने पर उसका शम्भव नाम रक्खा गया । उसी समय सत्यभामाने भी सुभानु नाम का पुत्र प्राप्त किया । इधर शम्भव और सुभानुमें जब परस्पर ईर्ष्या बढ़ी तो गान्धर्व आदि विवादोंमें शम्भवने सुभानु को जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने पूर्वभवमें पुण्य उपार्जन किया है उन्हें सब जगह विजय प्राप्त होना कठिन नहीं है ॥173-175॥ इसके बाद रूक्मिणी और सत्यभामा ईर्ष्या छोड़कर परस्परकी प्रीतिक अनुभव करने लगीं ॥176॥ इस प्रकार गणधर भगवान् के द्वारा कहा हुआ सब चरित सुनकर समस्त सभाने हाथ जोड़कर उनके चरण - कमलोंमें नमस्कार किया ॥177॥ अथानन्तर किसी दूसरे दिन, श्रीकृष्णके स्नेहने जिनका चित्त वशकर लिया है ऐसे बलदेवने हाथ जोड़कर भगवान् नेमिनाथको नमस्कार किया और पू्छा कि हे भगवन् श्रीकृष्णका यह वैभवशाली निष्कण्टक राज्य कितने समय तक चलता रहेगा ? कृपाकर आप यह बात मेरे लिए कहिये ॥178-179॥ उत्तर में भगवान् नेमिनाथ ने कहा कि भद्र ! बारह वर्ष के बाद मदिराका निमित्त पाकर यह द्वारावती पुरी द्वीपायनके द्वारा निर्मूल नष्ट हो जायगी । जरत्कुमारके द्वारा श्रीकृष्णाका मरण होगा । यह एक सागर की आयु लेकर प्रथमभूमिमें उत्पन्न होगा और अन्त में वहाँसे निकलकर इसी भरत क्षेत्र में तीर्थंकर होगा । तू भी इसके वियोगसे छह माह तक शोक करता रहेगा और अन्त में सिद्धार्थदेव के सम्बोधनसे समस्त दु:ख छोड़कर दीक्षा लेगा तथा माहेन्द्र स्वर्ग में देव होगा ॥180-183॥ वहांपर सात सागर की उत्कृष्ट आयु पर्यन्त भोगों का उपभोगकर इसी भरत क्षेत्र में तीर्थंकर होगा तथा कर्मरूपी शत्रुओं को जलाकर शरीरसे मुक्त होगा ॥184॥ श्री तीर्थंकर भगवान् का यह उपदेश सुनकर द्वीपायन तो उसी समय संयम धारणकर दूसरे देश को चला गया तथा जरत्कुमार कौशाम्बीके वन में जा पहुँचा । जिसने पहले ही नरकायुका बन्ध कर लिया था ऐसे श्रीकृष्णने सम्यग्दर्शन प्राप्तकर तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धमें कारणभूत सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया तथा स्त्री बालक आदि सबके लिए घोषणा कर दी कि मैं तो दीक्षा लेने में समर्थ नहीं हूं परन्तु जो समर्थ हों उन्हें मैं रोकता नहीं हूं ॥185-187॥ यह सुनकर प्रद्युम्न आदि पुत्रों तथा रूक्मिणी आदि देवियोंने चक्रवर्ती श्रीकृष्ण एवं अन्य बन्धुजनोंसे पूछकर उनकी आज्ञानुसार संयम धारण कर लिया ॥188॥ द्वीपायन द्वारिका - दाहका निदान अर्थात् कारण था जब वहांसे अन्यत्र चला गया तब जाम्बवतीके पुत्र शम्भव तथा प्रद्युम्नके पुत्र अनिरूद्धने भी संयम धारण कर लिया और प्रद्युम्नमुनिके साथ गिरनार पर्वत की ऊँची तीन शिखरोंपर आरूढ होकर सब प्रतिमा योगके धारक हो गये ॥189-190॥ उन तीनोंने शुल्कध्यानको पूराकर घातिया कर्मों का नाश किया और नव केवललब्धियाँ पाकर मोक्ष प्राप्त किया ॥191॥ अथानन्तर - किसी दूसरे दिन भगवान् नेमिनाथ ने वहाँसे विहार किया । उस समय पुण्यकी घोषणा करनेवाले यक्षके द्वारा धारण किया हुआ धर्मचक्र उनके आगे चल रहा था, पैर रखनेकी जगह तथा आगे और पीछे अलग-अलग सात सात कमलोंके द्वारा उनकी शोभा बढ़ रही थी, छत्र आदि आठ प्रातिहार्य अलग सुशोभित हो रहे थे, आकाशमार्ग में चलनेवाले समस्त देव तथा विद्याधर उनकी सेवा कर रहे थे, देव और विद्याधरोंके सिवाय अन्य शिष्य जन पृथिवीपर ही उनके पीछे - पीछे जा रहे थे, पवनकुमार देवों ने पृथिवी की सब धूली तथा कण्टक दूर कर दिये थे और मेघकुमार देवों ने सुगन्धित जल बरसाकर भूमिको उत्तम बना दिया था, इत्यादि अनेक आश्चर्योंसे सम्पन्न एवं समस्त प्राणियोंका मन हरण करनेवाले भगवान् नेमिनाथ धर्मामृतकी वर्षा करते हुए समस्त देशोंमें विहार करने के बाद पल्लव देशमें पहुँचे ॥192-196॥ आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि यहाँ पर ग्रन्थके विस्तारसे डरनेवाले शिष्योंकी आयु और बुद्धि के अनुरोधसे पाण्डवोंका भी कुछ वर्णन किया जाता है ॥197॥ कम्पिला नाम की नगरी में राजा द्रुपद राज्य करता था उसकी देवीका नाम दृढरथा था और उन दोनोंके द्रौपदी नाम की पुत्री थी । वह द्रौपदी स्त्रियोंमें होनेवाले समस्त गुणों से प्रशंसनीय थी तथा सबको प्यारी थी । उसे पूर्ण यौवनवती देखकर पिताने मन्त्रचर्चाके द्वारा मन्त्रियों से पूछा कि यह कन्या किसे देनी चाहिये । मन्त्रियोंने कहा कि यह कन्या अतिशय बलवान् पाण्डवोंके लिए देनी चाहिये ॥198-200॥ पाण्डवोंकी प्रशंसा करते हुए मन्त्रियोंने कहा कि राजा दुर्योधन इनका जन्मजात शत्रु है उसने इन लोगों को मारनेके लिए किसी उपायसे लाक्षाभवन (लाखके बने घर) में प्रविष्ट कराया था ॥201॥ परन्तु अपने पुण्य के उदय से प्रेरित हुए ये लोग दुर्योधनकी यह चालाकी जान गये इसलिए जलमें खड़े हुए किसी वृक्ष के नीचे रहनेवाले पिशाचको स्वयं हटाकर भाग गये और अपने कुटुम्बी जनोंसें प्राप्त दु:खका अनुभव करने के लिए देशान्तरको चले गये हैं । इधर गुप्तचरके मुखसे इनके विषयकी यह बात सुनी गई है कि पोदनपुरके राजा चन्द्रदत्त और उनकी रानी देविलाके इन्द्रवर्मा नामक पुत्रको पाण्डवोंने समस्त कलाओं और गुणोंमें निपुण बनाया है तथा उसकी प्रतिद्वन्द्वी स्थूणगन्धको नष्टकर उसके लिए राज्य प्रदान किया है । सो वे पाण्डव यहाँ भी अवश्य ही आवेंगे । अत: अपने लिए द्रौपदीका स्वयंवर करना चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे किसी के साथ विरोध नहीं होगा । मन्त्रियोंके उक्त वचन सुनकर राजा ने बसन्त ऋतुमें स्वयंवर - मण्डप बनवाया जिसमें सब राजा लोग आये । पाण्डव भी आये, उनमें भीम तो भोजन बनाने तथा मदोन्मत्त हाथीको हाथसे ताडित करनेसे प्रकट हुआ, अर्जुन मत्स्यभेद तथा धनुष चढ़ानेके साहस से प्रसिद्ध हुआ एवं अन्य लोग नारदके आगमनसे प्रकट हुए । जब सब लोग निश्चित रूप से स्वयंवर - मण्डपमें आकर विराजमान हो गये तब अर्हन्त भगवान् की महा पूजाकर रत्नों से सजी हुई द्रौपदी स्वयंवर - मंडपमें प्रविष्ट हुई । सिद्धार्थ नामक पुरोहित कुल - रूप आदि गुणोंका वर्णन करता हुआ समस्त राजाओं का अनुक्रम से परिचय दे रहा था । क्रम - क्रम से द्रौपदी समस्त राजाओं को उल्लंघन करती हुई आगे बढ़ती गई । अन्त में उसने अपनी निर्मल माला के द्वारा अर्जुनको सम्मानित किया ॥202-211॥ यह देखकर द्रुपद आदि उग्रवंश में उत्पन्न हुए राजा कुरूवंशी तथा अन्य अनेक राजा 'यह सम्बन्ध अनुकूल सम्बन्ध है' यह कहते हुए संतोषको प्राप्त हुए ॥212॥ इस प्रकार अनेक कल्याणोंको प्राप्तकर वे पाण्डव अपने नगर में गये और सुख पूर्वक बड़े लम्बे समयको क्षणभरके समान व्यतीत करने लगे ॥213॥ तदनन्तर अर्जुनके सुभद्रासे अभिमन्यु नाम का पुत्र हुआ और द्रौपदीके अनुकमसे पान्चाल नाम के पाँच पुत्र हुए ॥214॥ यहाँ युधिष्ठिरका राजा दुर्योधनके साथ जुआ खेला जाना, भुजंगशैल नामक नगरी में कीचकोंका मारा जाना, पाण्डवका विराट नगरी के राजा विराट का सेवक बनकर रहना, अर्जुनके द्वारा राजा विराट की बहुत भारी गायोंके समूह का लौटाया जाना, तथा अर्जुनके अनुज सहदेव और नकुलके द्वारा उसी सुख - सम्पन्न राजा विराटकी कुछ गायोंका वापिस लौटाना, आदि जो घटनाएँ हैं उनका आगम के अनुसार पुराण के जाननेवाले लोगों को विस्तारसे कथन करना चाहिए ॥215-217॥ अथानन्तर - कुरूक्षेत्र में पाण्डवोंका कौरवोंके साथ युद्ध हुआ उसमें युधिष्ठिर दुर्योधन राजा को जीतकर समस्त देशका स्वामी हो गया और छोटे भाइयोंके साथ विभागकर राज्यलक्ष्मी का उपभोग करता हुआ सबको प्रसन्न करने लगा ॥218-219॥ इस प्रकार वे सब पांडव अपने द्वारा किये हुए पुण्य कर्म के उदय से उत्पन्न सम्पूर्ण सुख का विना किसी आकुलताके निरन्तर उपभोग करने लगे ॥220॥ तदनन्तर - 'द्वारावती जलेगी, कौशाम्बी-वन में जरत्कुमारके द्वारा श्रीकृष्णकी मृत्यु होगी और उनके बड़े भाई बलदेव संयम धारण करेंगे' इस प्रकार द्वारावतीमें नेमिनाथ भगवान् ने जो कुछ कहा था वह सब वैसा ही हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं ॥221-222॥ आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि वैसे लोकोत्तर पुरूषोंकी वैसी दशा हुई इसलिए अशुभ कर्मोंकी गति को बार - बार धिक्कार हो और निश्चयसे इसीलिए बुद्धिमान् पुरूष इन कर्मों को निर्मूल करते हैं - उखाड़ कर नष्ट कर देते हैं ॥223॥ मथुराके स्वामी पाण्डव, यह सब समाचार सुनकर वहाँ आये । वे सब, स्वामी - श्रीकृष्ण तथा अन्य बन्धुजनों के वियोगसे बहुत विरक्त हुए और राज्य छोड़कर मोक्ष के लिए महाप्रस्थान करने लगे । उन भक्त लोगोंने नेमिनाथ भगवान् के पास जाकर उस समयके योग्य नमस्कार आदि सत्कर्म किये तथा संसार से भयभीत होकर अपने पूर्वभव पूछे । उत्तरमें अचिन्त्य वैभवके धारक भगवान् भी इस प्रकार कहने लगे ॥224-226॥ उन्होंने कहा कि इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी अंगदेशमें एक चम्पापुरी नाम की नगरी है उसमें कुरूवंशी राजा मेघवाहन राज्य करता था । उसी नगरी में एक सोमदेव नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी ब्राह्मणीका नाम सोमिला था । उन दोनोंके सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति ये वेदांगोंके पारगामी परम ब्राह्मण तीन पुत्र हुए थे । इन तीनों भाइयोंके मामा अग्निभूति थे उसकी अग्निला नाम की स्त्रीसे धनश्री, मित्रश्री और नागश्री नाम की तीन प्रिय पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं । अग्निभूति और अग्निलाने शुभ लक्षणोंवालीये तीनों कन्याएँ अपने तीनों भानेजोंके लिए यथा क्रम से दे दीं ॥227-230॥ तदनन्तर - बुद्धिमान् सोमदेवने किसी कारणसे विरक्त होकर जिन - दीक्षा ले ली । किसी एक दिन भिक्षाके समय धर्मरूचि नाम के तपस्वी मुनिराजको अपने घर में प्रवेश करते देखकर दयालुता वश सोमदत्तने उनका पडिगाहन किया और छोटे भाईकी पत्नीसे कहा कि हे नागश्री ! तू इनके लिए बड़े आदरके साथ भिक्षा दे दे । नागश्रीने मन में सोचा कि 'यह सदा सभी कार्यके लिए मुझे ही भेजा करता है' यह सोचकर वह बहुत ही क्रुद्ध हुई और उसी क्रुद्धावस्थामें उसने उन तपस्वी मुनिराज के लिए विष मिला हुआ आहार दे दिया जिससे संन्यास धारण कर तथा चारों आराधनाओं की आराधना कर उक्त मुनिराज सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान में जा पहुंचे ॥231-234॥ जब सोमदत्त आदि तीनों भाइयोंको नागश्रीके द्वारा किये हुए इस अकृत्यका पता चला तो उन्होंने वरूणार्यके समीप जाकर मोक्ष प्रदान करनेवाली दीक्षा धारण कर ली ॥235॥ यह देख, नागश्रीको छोड़कर शेष दो ब्राह्मणियोंने भी गुणवती आर्यिकाके समीप संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन और दुर्जनोंका चरित्र ऐसा ही होता है ॥236॥ इस प्रकार ये पाँचों ही जीव, आयु के अन्त में आराधनाओंकी आराधना कर आरण और अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर की आयु वाले सामानिक देव हुए ॥237॥ वहाँ उन्होंने चिरकाल तक प्रवीचार सहित भोगों का उपभोग किया । इधर नागश्री भी पाप के कारण पाँचवें नरकमें पहुँची, वहाँके दु:ख भोगकर आयु के अन्त में निकली और वहाँसे च्युत होकर स्वयंप्रभ द्वीप में दृष्टिविष नाम का सर्प हुई । फिर मरकर दूसरे नरक गई वहाँ तीन सागर की आयु पर्यन्त दु:ख भोगकर वहाँसे निकली और दो सागर तक त्रस तथा स्थावर योनियोंमें भ्रमण करती रही । इस प्रकार संसार - सागरमें भ्रमण करते - करते जब उसके पाप का उदय कुछ मन्द हुआ तब चम्पापुर नगर में चाण्डाली हुई ॥238-241॥ किसी एक दिन उसने समाधिगुप्त नामक मुनिराज के पास जाकर उन्हें नमस्कार किया, उनसे धर्म - श्रवण किया, और मधु - मांसका त्याग किया । इनके प्रभाव से वह मरकर उसी नगर में सुबन्धु सेठकी धनदेवी स्त्रीसे अत्यन्त दुर्गन्धित शरीरवाली पुत्री हुई । माता - पिताने उसका 'सुकुमारी' यह सार्थक नाम रक्खा । इसी नगर में एक धनदत्त नाम का सेठ रहता था उसकी अशोकदत्ता स्त्रीसे जिनदेव और जिनदत्त नाम के दो पुत्र हुए थे । जिनदेव के कुटुम्बी लोग उसका विवाह सुकुमारीके साथ करना चाहते थे परन्तु जब उसे इस बात का पता चला तो वह सुकुमारीकी दुर्गन्धतासे घृणा करता हुआ सुव्रत नामक मुनिराजका शिष्य हो गया अर्थात् उनके पास उसने दीक्षा धारण कर ली ॥242-246॥ तदनन्तर छोटे भाई जिनदत्तको उसके बन्धुजनोंने बार - बार प्रेरणा की कि बड़े लोगोंकी कन्या का अपमान करना ठीक नहीं है । इस भय से उसने उसे विवाह तो लिया परन्तु क्रुद्ध सर्पिणीके समान वह कभी स्वप्न में भी उसके पास नहीं गया । इस प्रकार पतिके विरक्त होनेसे सुकुमारी अपनी पुण्यहीनताकी सदा निन्दा करती रहती थी ॥247-248॥ किसी दूसरे दिन उसने उपवास किया, उसी दिन उसके घर अन्य अनेक आर्यिकाओं के साथ सुव्रता और क्षान्ति नाम की आर्यिकाएँ आईं उसने उन्हें वन्दना कर प्रधान आर्यिकासे पूछा कि इन दोनों आर्यिकाओंने किस कारण दीक्षा ली है ? यह बात आप मुझसे कहिए । सुकुमारीका प्रश्न सुनकर क्षान्ति नाम की आर्यिका कहने लगी कि हे शुभ नामवाली ! सुन, ये दोनों ही पूर्वजन्ममें सौधर्म स्वर्गके इन्द्रोंकी विमला और सुप्रभा नाम की प्रिय देवियां थीं । किसी एक दिन ये दोनों ही सौधर्म इन्द्रके साथ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने के लिए नन्दीश्वर द्वीप में गई थीं । वहां इनका चित्त विरक्त हुआ इसलिए इन दोनोंने परस्पर ऐसा विचार स्थिर किया कि हम दोनों इस पर्यायके बाद मनुष्य पर्याय पाकर तप करेंगी । आयु के अन्त में वहांसे च्युत होकर ये दोनों, साकेत नगर के स्वामी श्रीषेण राजाकी श्रीकान्ता रानीसे हरिषेणा और श्रीषेणा नाम की पुत्रियां हुई हैं । यौवन अवस्था प्राप्तकर ये दोनों विवाहके लिए स्वयम्बर - मंडपके भीतर खड़ी थीं कि इतनेमें ही इन्हें अपने पूर्वभव तथा पूर्वभवमें की हुई प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया । उसी समय इन्होंने समस्त बन्धुवर्ग तथा राजकुमारोंका त्यागकर दीक्षा धारण कर ली । इस प्रकार क्षान्ति आर्यिकाके वचन सुनकर सुकुमारी बहुत विरक्त हुई और अपने कुटुम्बीजनोंकी संमति लेकर उसने उन्हीं आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली । किसी दूसरे दिन वन में वसन्तसेना नाम की वेश्या आई थी, उसे बहुतसे व्यभिचारी मनुष्य घेरकर उससे प्रार्थना कर रहे थे । यह देखकर सुकुमारीने निदान किया कि मुझे भी ऐसा ही सौभाग्य प्राप्त हो । आयु के अन्त में मरकर वह, पूर्वजन्ममें जो सोमभूति नाम का ब्राह्मण था और तपश्चरणके प्रभाव से अच्युत स्वर्ग में देव हुआ था उसकी देवी हुई ॥249-259॥ वहां की उत्कृष्ट आयु बिताकर उन तीनों भाइयोंके जीव वहांसे च्युत होकर रत्नत्रयके समान तुम प्रसिद्ध पुरूषार्थके धारक युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन हुए हो । तथा धनश्री और मित्रश्रीके जीव प्रशंसनीय पराक्रमके धारक नकुल एवं सहदेव हुए हैं । इनकी कान्ति चन्द्रमा और सूर्य के समान है । सुकुमारीका जीव काम्पिल्य नगर में वहांके राजा द्रपद और रानी दृढरथाके द्रौपदी नाम की पुत्री हुई है । इस प्रकार नेमिनाथ भगवान् के द्वारा कहे हुए अपने भवान्तर सुनकर पाण्डवोंने अनेक लोगों के साथ संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंका बन्धुपना यही है । गुणरूपी आभूषणको धारण करनेवाली कुन्ती सुभद्रा तथा द्रौपदीने भी राजिमति गणिनीके पास उत्कृष्ट दीक्षा धारण कर ली । अन्त में तीनोंके जीव सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए और वहांसे च्युत होकर नि:सन्देह समस्त कर्ममलसे रहित हो मोक्ष प्राप्त करेंगे । जिन्हें अनेक उत्तमोत्तम ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं और जो अतिशय भक्ति से युक्त हैं ऐसे पाँचों पाण्डव कितने ही वर्षों तक नेमिनाथ भगवान् के साथ विहार करते रहे और अन्त में शत्रुन्जय पर्वतपर जाकर आतापन योग लेकर विराजमान हो गये । दैवयोगसे वहां दुर्योधनका भानजा 'कुर्यवर' आ निकला वह अतिशय दुष्ट था, पाण्डवोंको देखते ही उसे अपने मामाके वधका स्मरण हो आया जिससे क्रुद्ध होकर उस पापीने उनके शरीरोंपर अग्निसे तपाये हुए लोहेके मुकुट आदि आभूषण रखकर उपसर्ग किया । उन पाँचों भाइयोंमें कुन्तीके पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तो क्षपकश्रेणी चढ़कर शुक्ल ध्यान रूपी अग्निके द्वारा कर्मरूपी ईन्धनको जलाते हुए मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए और नकुल तथा सहदेव सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुए । इधर भट्टारक नेमिनाथ स्वामी भी गिरनार पर्वत पर जा विराजमान हुए ॥260-271॥ उन्होंने छह सौ निन्यानवें वर्ष नौ महीना और चार दिन विहार किया । फिर विहार छोड़कर पांच सौ तैंतीस मुनियों के साथ एक महीने तक योग निरोधकर आषाढ शुक्ल सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रिके प्रारम्भमें ही चार अघातिया कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया ॥272-274॥ उसी समय इन्द्रादि देवों ने आकर बड़ी भक्ति से विधिपूर्वक उनके पंचम कल्याणका उत्सव किया और तदनन्तर वे सब अपने - अपने स्थान को चले गये ॥275॥ जो दूरसे ही आकाश में अपनी - अपनी सवारियों से नीचे उतर पड़े हैं, जिन्होंने शीघ्र ही अपने मस्तक झुका लिये हैं, जिनके मुख स्तुतियोंके पढ़नेसे शब्दायमान हो रहे हैं, जिन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिये हैं और जिनका चित्त अत्यन्त स्थिर है ऐसे इन्द्र आदि श्रेष्ठदेव जिनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं तथा जिन्होंने अपने तेज से ह्णदयका समस्त अन्धकार नष्ट कर दिया है ऐसे श्रीमान् नेमिनाथ भगवान् केवलज्ञान की प्राप्तिके लिए हम सबका शीघ्र ही कल्याण करें ॥276॥ श्रीनेमिनाथ भगवान् का जीव पहले चिन्तागति विद्याधर हुआ, फिर चतुर्थ स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर अपराजित राजा हुआ, फिर अच्युत स्वर्ग का इन्द्र हुआ, वहाँसे आकर सुप्रष्ठि राजा हुआ, फिर जयन्त विमान में अहमिन्द्र हुआ और उसके बाद इसी जम्बूद्वीप में महान् वैभवको धारण करनेवाला, हरिवंशरूपी आकाशका निर्मल चन्द्रमास्वरूप नेमिनाथ तीर्थंकर हुआ ॥277॥ यद्यपि भगवान् नेमिनाथ की वह लक्ष्मी थी कि जिसके द्वारा उनके चरणकमलोंकी समस्त देव पूजा करते थे, उनकी वह कुमारावस्था थी कि जिसका सौन्दर्यरूपी ऐश्वर्य अपरिमित था, और वह कन्या राजीमति थी कि जिसकी अत्यन्त स्तुति हो रही थी तथापि इन बुद्धिमान् भगवान् ने इन सबको जीर्ण तृणके समान छोड़कर संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा क्या कारण है कि जिससे भगवान् नेमिनाथ धर्मचक्रके चारों ओर नेमिपनाको - चक्रधारापनाको धारण न करें ? ॥278॥ बलदेवका जीव पहले सुभानु हुआ था, फिर पहले स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से च्युत होकर विद्याधरों का राजा हुआ, फिर चतुर्थ स्वर्ग में देव हुआ, इसके बाद शंख नाम का सेठ हुआ, फिर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ, फिर नौवाँ बलभद्र हुआ, उसके बाद देव हुआ, और फिर तीर्थंकर होगा ॥279॥ कृष्णका जीव पहले अमृतरसायन हुआ, फिर तीसरे नरकमें गया, उसके बाद संसार - सागरमें बहुत भारी भ्रमण कर यक्ष नाम का गृहस्थ हुआ फिर निर्नामा नाम का राजपुत्र हुआ, उसके बाद देव हुआ और उसके पश्चात् बुरा निदान करने के कारण अपने शत्रु जरासन्धको मारनेवाला, चक्ररत्नका स्वामी कृष्ण नाम का नारायण हुआ, इसके बाद प्रथम नरकमें उत्पन्न होने के कारण बहुत दु:खोंका अनुभव कर रहा है और अन्त में वहाँसे निकलकर समस्त अनर्थोंका विघात करनेवाला तीर्थंकर होगा ॥280-281॥ कृष्ण के जीव ने चाण्डाल अवस्था में मुनिके साथ द्रोह किया था इसलिए वह दुर्बुद्धि नरक गया और उसी कारणसे तपश्चरणके द्वारा राज्यलक्ष्मी पाकर अन्त में उसके विनाशको प्राप्त हुआ इसलिए आचार्य कहते हैं कि परिग्रहका त्याग करनेवाले मुनियोंका पाप - बुद्धिसे थोड़ा भी अपकार मत करो ॥282॥ जिस प्रकार सिंह हरिणको मार डालता है उसी प्रकार जिसने चाणूरमल्लको मार डाला था, जिस प्रकार वज्र कंस (कांसे) के टुकड़े - टुकड़े कर डालता है उसी प्रकार जिसने कंसके (मथुराके राजाके) टुकड़े - टुकड़े कर डाले थे और जिसप्रकार मृत्यु बालकका हरण कर लेती है उसी प्रकार जिसने युद्धमें शिशुपाल का हरण किया था - उसे पराजित किया था । ऐसा श्रीकृष्ण नारायण भला प्रतापी मनुष्योंमें सबसे मुख्य क्यों न हो ? ॥283॥ जिस प्रकार सिंह बलवान् हाथीको जीतकर गरजता है उसी प्रकार शूरवीरता के सागर श्रीकृष्णने अतिशय बलवान् जरासन्धको जीतकर गरजना की थी, इन्होंने अपने समस्त शत्रुओं को जीत लिया था इसलिए ये विश्वविजयी कहलाये थे तथा जिस प्रकार इन्होंने बाल अवस्था में गायोंकी रक्षा की थी इसलिए गोप कहलाये थे उसी प्रकार इन्होंने तरूण अवस्था में भी हाथमें केवल एक दण्ड धारणकर किसी के द्वारा अविजित इस तीन खण्ड की अखण्ड भूमिकी रक्षा की थी इसलिए बादमें भी वे गोप (पृथिवीके रक्षक) कहलाते थे ॥284॥ देखो, कहाँ तो श्रीकृष्णको बड़े - बड़े समस्त शत्रुओं का नाश करनेसे उस आश्चर्यकारी लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी और कहां समस्त जगत् से जुदा रहकर निर्जन वन में उनका समूल नाश हुआ सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में अपने किये हुए कर्मोंके अनुसार किसे क्या नहीं प्राप्त होता है ? यथार्थमें संसाररूपी चक्र पहियेकी हालकी तरह घूमा ही करता है ॥285॥ देखो, श्रीकृष्णने पहले नरक आयु का बन्ध कर लिया था और उसके बाद सम्यग्दर्शन तथा तीर्थंकर नाम - कर्म प्राप्त किया था इसीलिए उन्हें राज्य का भार धारण करने के बाद नरक जाना पड़ा । आचार्य कहते हैं कि हे बुद्धिमान् जन ! यदि आप लोग सुख के अभिलाषी हैं तो पद - पदपर आयु बन्धके लिए अखण्ड प्रयत्न करो अर्थात् प्रत्येक समय इस बात का विचार रक्खो कि अशुभ आयु का बन्ध तो नहीं हो रहा है ॥286॥ इन्हीं नेमिनाथ भगवान् के तीर्थ में ब्रह्मदत्त नाम का बारहवाँ चक्रवर्ती हुआ था वह ब्रह्मा नामक राजा और चूड़ादेवी रानीका पुत्र था, उसका शरीर सात धनुष ऊँचा था और सात सौ वर्षकी उसकी आयु थी । वह सब चक्रवर्तियोंमें अन्तिम चक्रवर्ती था - उसके बाद कोई चक्रवर्ती नहीं हुआ ॥287-288॥ |