+ भगवान पार्श्वनाथ चरित -
पर्व - 73

  कथा 

कथा :

अथानन्‍तर-धरणेन्‍द्र और भक्तिवश पद्मावती के द्वारा किया हुआ छत्रधारण-इन दोनों का निषेध जिनकी केवल महिमा से ही हुआ था वे पार्श्‍वनाथ स्‍वामी हम सबकी रक्षा करें । भावार्थ-तपश्‍चरण के समय भगवान् पार्श्‍वनाथ के ऊपर कमठके जीवने जो उपसर्ग किया था उसका निवारण घरणेन्‍द्र और पद्मावती ने किया था परन्‍तु इसी उपसर्ग के बीच उन्‍हें केवलज्ञान हो गया उसके प्रभाव से उनका सब उपसर्ग दूर गया और उनकी लोकोत्‍तर महिमा बढ़ गई । केवलज्ञान के समय होनेवाले माहात्‍म्‍य से धरणेन्‍द्र और पद्मावती का कार्य अपने आप समाप्‍त हो गया था ॥1॥

हे भगवन् ! यद्यपि आपका धर्मरूपी श्‍वेत छत्र समस्‍त संसार में फैलनेवाली छाया को उत्‍पन्‍न करता है तो भी आश्‍चर्य है कि कितने ही लोग पाप रूपी घाम से संतप्‍त रहते हैं ॥2॥

सर्व भाषा रूप परिणमन करनेवाली, सत्‍य तथा सबका उपकार करनेवाली आपकी दिव्‍य-ध्‍वनि को संतुष्‍ट हुए सज्‍जन लोग ही सुनते हैं-दुर्जन लोग उसे कभी नहीं सुनते ॥3॥

हे देव ! अन्‍य तीर्थंकरों का माहात्‍म्‍य प्रकट नहीं है परन्‍तु आपका माहात्‍म्‍य अतिशय प्रकट है इसलिए आपकी कथा अच्‍छी तरह कहने के योग्‍य है ॥4॥

आचार्य कहते हैं कि हे प्रभो ! चूंकि आपकी धर्म-युक्‍त कथा कुमार्ग का निवारण और सन्‍मार्ग का प्रसारण करनेवाली है अत: मोक्षगामी भव्‍य जीवों के लिए उसे अवश्‍य कहूँगा ॥5॥

इसी जम्‍बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में एक सुरम्‍य नाम का बड़ा भारी देश है और उसमें बड़ा विस्‍तृत पोदनपुर नगर है ॥6॥

उस नगर में पराक्रम आदि से प्रसिद्ध अरविन्‍द नाम का राजा राज्‍य करता था उसे पाकर प्रजा ऐसी सन्‍तुष्‍ट थी जैसी कि प्रजापति भगवान् आदिनाथ को पाकर संतुष्‍ट थी । उसी नगर में वेद-शास्‍त्र को जाननेवाला एक विश्‍वभूति नाम का ब्राह्मण रहता था उसे प्रसन्‍न करनेवाली दूसरी श्रुति के समान अनुन्‍धरी नाम की उसकी ब्राह्मणी थी ॥7-8॥

उन दोनों के कमठ और मरूभूति नाम के दो पुत्र थे जो विष और अमृत से बनाये हुए के समान थे अथवा दूसरे पाप और धर्म के समान जान पड़ते थे ॥9॥

कमठ की स्‍त्री का नाम वरूणा था और मरूभू‍ति की स्‍त्री का नाम वसुन्‍धरी था । ये दोनों राजा के मन्‍त्री थे और इनमें छोटा मरूभूति नीतिका अच्‍छा जानकार था ॥10॥

नीच तथा दुराचारी कमठ ने वसुन्‍धरी के निमित्‍त से सदाचारी एवं सज्‍जनों के प्रिय मरूभूति को मार डाला ॥11॥

मरूभूति मर कर मलय देश के कुब्‍जक नामक सल्‍लकी के बड़े भारी वन में वज्रघोष नाम का हाथी हुआ । वरूणा मरकर उसी वन में हथिनी हुई और वज्रघोष के साथ क्रीडा करने लगी । इस प्रकार दोनों का बहुत भारी समय प्रीति-पूर्वक व्‍यतीत हो गया ॥12-13॥

किसी एक समय राजा अरविन्‍द ने विरक्‍त होकर राज्‍य छोड़ दिया और संयम धारणकर सब संघ के साथ वन्‍दना करने के लिए सम्‍मेद-शिखर की ओर प्रस्‍थान किया । चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचे और सामायिक का समय होने पर प्रतिमा योग धारणकर विराजमान हो गये सो ठीक ही है क्‍योंकि तेजस्‍वी मनुष्‍य अपने नियम का थोड़ा भी उल्‍लंघन नहीं करते हैं ॥14-15॥

उन्‍हें देखकर, जिसके दोनों कपोल तथा ललाट से मद झर रहा है ऐसा वह मदोद्धत महा-हाथी, उन प्रतिमायोग के धारक अरविन्‍द मुनिराज को मारने के लिए उद्यत हुआ ॥16॥

परन्‍तु उनके वक्ष:स्‍थल पर जो वत्‍स का चिह्न था उसे देखकर उसके ह्णदय में अपने पूर्व-भव का सम्‍बन्‍ध साक्षात् दिखाई देने लगा ॥17॥

मुनिराज में पूर्व-जन्‍म का स्‍नेह होने के कारण वह महाहाथी चुपचाप खड़ा हो गया सो ठीक ही है क्‍योंकि तिर्यन्‍च भी तो बन्‍धुजनों में मैत्री-भाव का पालन करते हैं ॥18॥

उस हाथी ने उन मुनिराज से हेतु पूर्वक धर्म का स्‍वरूप अच्‍छी तरह जानकर प्रोषधोपवास आदि श्रावक के व्रत ग्रहण किये ॥19॥

उस समय से वह हाथी पाप से डरकर दूसरे हाथियों के द्वारा तोड़ी हुई वृक्ष की शाखाओं और सूखे पत्‍तों को खाने लगा ॥20॥

पत्‍थरों पर गिरने से अथवा हाथियों के समूह के संघटन से जो पानी प्रासुक हो जाता था उसे ही वह पीता था तथा प्रोषधोपवास के बाद पारणा करता था । इस प्रकार चिरकाल तक तपश्‍चरण करता हुआ वह महाबलवान् हाथी अत्‍यन्‍त दुर्बल हो गया । किसी एक दिन वह पानी पीने के लिए वेगवती नदी के दह में गया था कि वहाँ कीचड़ में गिर गया । यद्यपि कीचड़ से निकलनेके लिए उसने बहुत भारी उद्यम किया परन्‍तु समर्थ नहीं हो सका । वहीं पर दुराचारी कमठ का जीव मर कर कुक्‍कुट साँप हुआ था उसने पूर्व पर्याय के वैर के कारण उस हाथी को काट खाया जिससे वह मरकर सहस्‍त्रार स्‍वर्ग में सोलह सागर की आयु वाला देव हुआ ॥21-24॥

यथायोग्‍य रीति से वहाँ के भोग भोग कर वह आयु के अन्‍त में वहाँ से च्‍युत हुआ और इसी जम्‍बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में जो पुष्‍कलावती देश है उसके विजयार्ध पर्वत पर विद्यमान त्रिलोकोत्‍तम नामक नगर में वहाँ के राजा विद्युद्गति और रानी विद्यन्‍माला के रश्मिवेग नाम का पुत्र हुआ । जिसके संसार की अवधि अत्‍यन्‍त निकट रह गई है ऐसे उस बुद्धिमान् रश्मिवेग ने सम्‍पूर्ण यौवन पाकर समाधिगुप्‍त मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली तथा सर्वतोभद्र आदि श्रेष्‍ठ उपवास धारण किये ॥25-28॥

किसी एक दिन वह हिमगिरि पर्वत की गुहा में योग धारण कर विराजमान था कि इतने में जिस कुक्‍कुट सर्प ने वज्रघोष हाथी को काटा था वही पापी धूमप्रभा नरक के दु:ख भोग कर निकला और वहीं पर अजगर हुआ था । उन मुनिराज को देखते ही अजगर क्रोधित हुआ और उन्‍हें निगल गया जिससे उनका जीव अच्‍युत स्‍वर्ग के पुष्‍कर विमान में बाईस सागर की आयुवाला देव हुआ । वहाँ की आयु समाप्‍त होने पर वह पुण्‍यात्‍मा, जम्‍बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में पद्मनामक देश सम्‍बन्‍धी अश्‍वपुर नगर में वहाँ के राजा वज्रवीर्य और रानी विजयाके वज्रनाभि नाम का पुत्र हुआ ॥29-32॥

पुण्‍य के द्वारा रक्षित हुआ वज्रनाभि, चक्रवर्ती की अखण्‍ड लक्ष्‍मी का उपभोग कर भी संतुष्‍ट नहीं हुआ इसलिए मोक्षलक्ष्‍मी का उपभोग करने के लिए उद्यत हुआ ॥33॥

उसने क्षेमंकर भट्टारक के मुख-कमल से निकले हुए धर्मरूपी अमृत-रस का पानकर अन्‍य समस्‍त रसों की इच्‍छा छोड़ दी तथा अपने राज्‍य पर पुत्र को स्‍थापित कर अनेक राजाओं के साथ समस्‍त जीवों पर अनुकम्‍पा करनेवाला संयम अच्‍छी तरह धारण कर लिया ॥34-35॥

कमठ का जीव, जो कि पहले अजगर हुआ था मरकर छठवें नरकमें उत्‍पन्‍न हुआ और वहाँ बाईस सागर तक अत्‍यन्‍त दु:ख भोगता रहा ॥36॥

चिरकाल बाद वहाँ से निकल कर कुरंग नाम का भील हुआ । यह भील उस वन में उत्‍पन्‍न हुए समस्‍त जीवों को कम्पित करता रहता था ॥37॥

किसी एक दिन शरीर सम्‍बन्‍धी बल से शोभायमान तथा शरीर से स्‍नेह छोड़ने वाले तपस्‍वी चक्रवर्ती वज्रनाभि आर्तध्‍यान छोड़कर उस वन में आतापन योग से विराजमान थे । उन्‍हें देखने ही जिसका वैर भड़क उठा है ऐसे पापी भील ने उन मुनिराज पर कायर जनों के द्वारा असहनीय अनेक प्रकार का भयंकर उपसर्ग किया ॥38-39॥

उक्‍त मुनिराज का जीव धर्म-ध्यान में प्रवेशकर तथा अच्‍छी तरह आराधनाओं की आराधना कर सुभद्र नामक मध्‍यम-ग्रैवेयक के मध्‍यम विमान में सम्‍यग्‍दर्शन का धारक श्रेष्‍ठ अहमिन्‍द्र हुआ ॥40॥

वहाँ वह सत्‍ताईस सागर की आयु तक दिव्‍य-भोग भोगता रहा । आयु के अन्‍त में वहाँ से च्‍युत होकर इसी जम्‍बूद्वीप के कौसल देश सम्‍बन्‍धी अयोध्‍या नगर में काश्‍यप गोत्री इक्ष्‍वाकुवंशी राजा वज्रबाहु और रानी प्रभंकरी के आनन्‍द नाम का प्रिय पुत्र हुआ । बड़ा होने पर वह महावैभव का धारक मण्‍डलेश्‍वर राजा हुआ ॥41-43॥

किसी एक दिन उसने अपने स्‍वामिहित नामक महामन्‍त्री के कहने से वसन्‍तऋतु की अष्‍टाह्निकाओं में पूजा कराई । उसे देखने के लिए वहाँ पर विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे । आनन्‍द ने उनकी बड़ी विनय से वन्‍दना की तथा उनसे सब जीवों को सुख देनेवाला समीचीन धर्म का स्‍वरूप सुना और तदनन्‍तर कहा कि हे भगवन् ! मुझे कुछ संशय हो रहा है उसे आपसे सुनना चाहता हूँ ॥44-46॥

उसने पूछा कि जिनेन्‍द्र भगवान् की प्रतिमा तो अचेतन है उसमें भला बुरा करने की शक्ति नहीं है फिर उसकी की हुई पूजा भक्‍तजनों को पुण्‍य रूप फल किस प्रकार प्रदान करती है ॥47॥

इसके उत्‍तर में मुनिराज ने हेतु सहित निम्‍न प्रकार वचन कहे कि हे राजन् ! सुन, यद्यपि जिनेन्‍द्र भगवान् की प्रतिमा और जिनेन्‍द्र मन्दिर अचेतन हैं तथापि भव्‍य जीवों के पुण्‍य-बन्‍ध के ही कारण हैं । यथार्थ में पुण्‍य-बन्‍ध परिणामों से होता है और उन परिणामों की उत्‍पत्ति में जिनेन्‍द्र की प्रतिमा तथा मन्दिर कारण पड़ते हैं । जिनेन्‍द्र भगवान् रागादि दोषों से रहित हैं, शास्‍त्र तथा आभूषण आदि से विमुख हैं, उसके मुख की शोभा प्रसन्‍न चन्‍द्रमा के समान निर्मल है, लोक-अलोक के जाननेवाले हैं, कृतकृत्‍य हैं, जटा आदि से रहित हैं तथा परमात्‍मा हैं इसलिए उनके मन्दिरों और उनकी प्रतिमाओं का दर्शन करने वाले लोगों के शुभ परिणामों में जैसी प्रकर्षता होती है वैसी अन्‍य कारणों से नहीं हो सकती क्‍योंकि समस्‍त कार्यों की उत्‍पत्ति अन्‍तरंग और बहिरंग दोनों कारणों से होती है इसलिए जिनेन्‍द्र भगवान् की प्रतिमा पुण्‍य-बन्‍ध के कारणभूत शुभ परिणामों का कारण है यह बात अच्‍छी तरह जान लेने के योग्‍य है ॥48-53॥

इसी उपदेश के समय उक्‍त मुनिराज ने तीनों-लोकों सम्‍बन्‍धी चैत्‍यालयों के आकार आदि का वर्णन करना चाहा और सबसे पहले उन्‍होंने सूर्य के विमान में स्थित जिन-मन्दिर की विभूति का अच्‍छी तरह वर्णन किया भी । उस असाधारण विभूति को सुनकर राजा आनन्‍द को बहुत ही श्रद्धा हुई । वह उस समय से प्रतिदिन आदि और अन्‍त समय में दोनों हा‍थ जोड़कर तथा मुकुट झुकाकर सूर्य के विमान में स्थित जिन प्रतिमाओं की स्‍तुति करने लगा । यही नहीं, उसने कारीगरों के द्वारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्य-विमान भी बनवाया और उसके भीतर फैलती हुई कान्ति का धारक जिन-मन्दिर बनवाया । तदनन्‍तर उसने शास्‍त्रोक्‍त विधि से भक्ति-पूर्वक आष्‍टाह्निक पूजा की । चतुर्मुख, रथावर्त, सबसे बड़ी सर्वतोभद्र और दीनों के लिए मन-चाहा दान देनेवाली कल्‍पवृक्ष पूजा की । इस प्रकार उस राजा को सूर्य की पूजा करते देख उसकी प्रामाणिकता से अन्‍य लोग भी स्‍वयं भक्ति-पूर्वक सूर्य-मण्‍डल की स्‍तुति करने लगे । आचार्य कहते है कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है ॥54–60॥

अथानन्‍तर-किसी एक दिन राजा आनन्‍द ने यौवन चाहनेवाले लोगों के ह्णदय को दो-टूक करने वाला सफेद बाल अपने शिर पर देखा । इस निमित्‍त से उसे वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया । विरक्‍त होते ही उसने बड़े पुत्र के लिए अभिषेक पूर्वक अपना राज्‍य दे दिया और समुद्रगुप्‍त मुनिराज के समीप राजसी भाव छोड़कर अनेक राजाओं के साथ नि:स्‍पृह (नि:स्‍वार्थ) तप धारण कर लिया । शुभ-लेश्‍या के द्वारा उसने चारों आराधनाओं की आराधना की विशुद्धता प्राप्‍त कर ग्‍यारह-अंगो का अध्‍ययन किया, तीर्थंकर नाम-कर्म के बन्‍ध में कारणभूत सोलह-कारण भावनाओं का चिन्‍तवन किया, शास्‍त्रानुसार सोलह-कारण भावनाओं का चिन्‍तवन कर तीर्थंकर नामक पुण्‍य प्रकृतिका बन्‍ध किया और चिरकाल तक घोर तपश्‍चरण किया । आयु के अन्‍त में, जिसकी अन्‍तरात्‍मा अत्‍यन्‍त शान्‍त हो गई है, जो धीर वीर है, धर्म-ध्‍यान के अधीन है और आकुलता-रहित है ऐसा वह आनन्‍द मुनि प्रायोपगमन संन्‍यास लेकर क्षीरवन में प्रतिमा-योग से विराजमान हुआ ॥61-66॥

पूर्व जन्‍म के पापी कमठ का जीव नरक से निकलकर उसी वन में सिंह हुआ था सो उसने आकर उन मुनि का कण्‍ठ पकड़ लिया ॥67॥

इस प्रकार सिंह का उपसर्ग सहकर चार आराधना रूपी धन को धारण करने वाला वह मुनि प्राण-रहित हो अच्‍युत स्‍वर्ग के प्राणत विमान में इन्‍द्र हुआ ॥68॥

वहाँ पर उसकी बीस सागर की आयु थी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था, शुक्‍ल-लेश्‍या थी, वह दश माह बाद श्‍वास लेता था, और बीस हजार वर्ष बाद मानसिक अमृताहार ग्रहण करता था । उसके मानसिक स्‍त्री-प्रवीचार था, पांचवीं पृथिवी तक अवधिज्ञान का विषय था, उतनी दूरी तक ही उसकी कान्ति, विक्रिया और बल था, सब ऋद्धियों के धारक सामानिक आदि देव उसकी पूजा करते थे, और वह इच्‍छानुसार काम प्रदान करने वाली अनेक देवियों के द्वारा उत्‍पादित सुख की खान था । इस प्रकार समस्‍त विषय-भोग प्राप्‍तकर वह निरन्‍तर उनका अनुभव करता रहता था और उन्‍हीं में सतृष्‍ण रहकर लीला-पूर्वक बहुत लम्‍बे समय को एक कला की तरह व्‍यतीत करता था ॥69-73॥

जिस समय उसकी आयु के अन्तिम छह माह रह गये और वह इस पृथिवी पर आने के लिए सन्‍मुख हुआ उस समय इस जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्‍बन्‍धी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर था । उसमें काश्‍यपगोत्री राजा विश्‍वसेन राज्‍य करते थे । उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था । देवों ने रत्‍नों की धारा बरसाकर उसकी पूजा की थी । रानी ब्राह्मी ने वैशाखकृष्‍ण द्वितीया के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में सोलह शुभ स्‍वप्‍न देखे और उसके बाद अपने मुख-कमल में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । प्रात:काल के समय बजनेवाले नगाड़ों के शब्‍दों से उसकी आँख खुल गई और मंगलाभिषेक से संतुष्‍ट होकर तथा वस्‍त्राभरण पहिन कर वह राजा के समीप इस प्रकार पहुँची मानो चाँदनी रात चन्‍द्रमा के समीप पहुँची हो ॥74-78॥

आदर-पूर्वक वह महाराज के आधे सिंहासन पर बैठी और अपने द्वारा देखे हुए सब स्‍वप्‍न यथा-क्रम से कहने लगी ॥79॥

महाराज विश्‍वसेन अवधिज्ञानी थे ही, अत: स्‍वप्‍न सुनकर इस प्रकार उनका फल कहने लगे । वे बोले कि हाथी के स्‍वप्‍न से पुत्र होगा, बैल के देखने से वह तीनों लोकों का स्‍वामी होगा, सिंह के देखने से अनन्‍त वीर्य का धारक होगा, लक्ष्‍मी का अभिषेक देखने से उसे मेरू पर्वत पर अभिषेक की प्राप्ति होगी, दो मालाओं को देखने से वह गृहस्‍थ धर्म और मुनि धर्मरूप तीर्थ की प्रवृत्ति करनेवाला होगा, चन्‍द्रमण्‍डल के देखने से वह तीन-लोक का चन्‍द्रमा होगा, सूर्य के देखने से तेजस्‍वी होगा, मत्‍स्‍यों का जोड़ा देखने से सुखी होगा, कलश देखने से निधियों का स्‍वामी होगा, सरोवर के देखने से समस्‍त लक्षणों से युक्‍त होगा, समुद्र के देखने से सर्वज्ञ होगा, सिंहासन के देखने से समस्‍त लोगों के द्वारा पूजनीय होगा, विमान देखने से स्‍वर्ग से अवतार लेनेवाला होगा, नागेन्‍द्र का भवन देखने से तीन-ज्ञान का धारक होगा, रत्‍नों की राशि देखने से गुणों से आलिंगित होगा, निर्धूम अग्नि के देखने से पापों को जलानेवाला होगा और हे कृशोदरि ! मुखकमल में हाथी का प्रवेश देखने से सूचित होता है कि देवों के द्वारा पूजित होनेवाला वह पुत्र आज तेरे उदर में आकर विराजमान हुआ है । इस प्रकार वह मृगनयनी पति से स्‍वप्‍नों का फल सुनकर बहुत सन्‍तुष्‍ट हुई ॥80-87॥

उसी समय समस्‍त इन्‍द्रों ने आकर बड़े हर्ष से स्‍वर्गावतरण की वेला में भगवान् के माता-पिता का कल्‍याणाभिषेक कर उत्‍सव किया ॥88॥

उस समय महाराज विश्‍वसेन का राजमन्दिर अपनी सम्‍पदा के द्वारा स्‍वर्गलोक का भी उल्‍लंघन कर रहा था सो ठीक ही है क्‍योंकि पुण्‍यात्‍मा जीवों का समागम कौन-सा कल्‍याण नहीं करता है ? अर्थात् सभी कल्‍याण करता है ॥89॥

नौ माह पूर्ण होने पर पौषकृष्‍ण एकादशी के दिन अनिलयोग में वह पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ ॥90॥

उसी समय अपने आसनों के कम्‍पायमान होने से सौधर्म आदि सभी इन्‍द्रों ने तीर्थंकर भगवान् के जन्‍म का समाचार जान लिया तथा सभी ने आकर सुमेरू पर्वत के मस्‍तक पर उनके जन्‍म-कल्‍याण की पूजा की, पार्श्‍वनाथ नाम रक्‍खा और फिर उन्‍हें माता-पिता के लिए समर्पित कर दिया ॥91-92॥

श्री नेमिनाथ भगवान् के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर मृत्‍यु को जीतने वाले भगवान् पार्श्‍वनाथ उत्‍पन्‍न हुए थे, उनकी आयु सौ वर्ष की थी जो कि उसी पूर्वोक्‍त अन्‍तराल में शामिल थी । उनके शरीर की कान्ति धान के छोटे पौधे के समान हरे रंग की थी, वे समस्‍त लक्षणों से सुशोभित थे, नौ हाथ ऊँचा उनका शरीर था, वे लक्ष्‍मीवान् थे और उग्र वंश में उत्‍पन्‍न हुए थे, सोलह वर्ष बाद जब भगवान् नव यौवन से युक्‍त हुए तब वे किसी समय क्रीड़ा करने के लिए अपनी सेना के साथ नगर से बाहर गये । वहाँ आश्रम के वन में इनकी माता का पिता, महीपाल नगर का राजा महीपाल अपनी रानी के वियोग से तपस्‍वी होकर तपकर रहा था, वह पन्‍चाग्नियों के बीच में बैठा हुआ तपश्‍चरण कर रहा था । देवों के द्वारा पूजित भगवान् पार्श्‍वनाथ उसके समीप जाकर उसे नमस्‍कार किये बिना ही अनादर के साथ खड़े हो गये । यह देख, वह खोटा साधु, बिना कुछ विचार किये ही क्रोध से युक्‍त हो गया । वह मन में सोचने लगा कि 'मैं कुलीन हूँ-उच्‍च कुल में उत्‍पन्‍न हुआ हूँ, तपोवृद्ध हूं-तप के द्वारा बड़ा हूँ, और इसकी माता का पिता हूं फिर भी यह अज्ञानी कुमार अहंकार से विह्वल हुआ मुझे नमस्‍कार किये बिना ही खड़ा है' ऐसा विचार कर वह अज्ञानी बहुत ही क्षोभ को प्राप्‍त हुआ और बुझती हुई अग्नि में डालने के लिए वहाँ पर पड़ी हुई लकड़ी को काटने की इच्छा से उसने लकड़ी काटने के लिए अपना मजबूत फरसा ऊपर उठाया ही था कि अवधिज्ञानी भगवान् पार्श्‍वनाथ ने 'इसे मत काटो, इसमें जीव है' यह कहते हुए मना किया परन्‍तु उनके मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली । इस कर्म से उस लकड़ी के भीतर रहनेवाले सर्प और सर्पिणी के दो-दो टुकड़े हो गये । यह देखकर सुभौम कुमार कहने लगा कि तू 'मैं गुरू हूं, तपस्‍वी हूँ' यह समझकर यद्यपि भारी अहंकार कर रहा है परन्‍तु यह नहीं जानता कि इस कुतप से पापास्‍त्रव होता है या नहीं । इस अज्ञान तप से तुझे इस लोक में दु:ख हो रहा है और परलोक में भी दु:ख प्राप्‍त होगा ।' सुभौमकुमार के यह वचन सुनकर वह तपस्‍वी और भी कुपित हुआ तथा इस प्रकार उत्‍तर देने लगा ॥93-105॥

कि 'मैं प्रभु हूँ, यह मेरा क्‍या कर सकता है' इस प्रकार की अवज्ञा से मेरे तप का माहात्‍म्‍य बिना जाने ही तू ऐसा क्‍यों बक रहा है ? पन्‍चाग्नि के मध्‍य में बैठना, वायु भक्षण कर ही जीवित रहना, ऊपर भुजा उठाकर चिरकाल तक एक ही पैर से खड़े रहना, और उपवास कर अपने आप गिरे हुए पत्‍ते आदि से पारण करना । इस प्रकार शरीर को सन्‍तापित करनेवाला तपस्वियों का तप बहुत ही कठिन है, इस तपश्‍चरण से बढ़कर दूसरा तपश्‍चरण हो ही नहीं सकता । उस तपस्‍वी के ऐसे वचन सुन सुभौम-कुमार हँसकर कहने लगा कि मैं न तो आपको गुरू मानता हूं और न आपका तिरस्‍कार ही करता हूँ किन्‍तु जो आप्‍त तथा आगम आदि को छोड़कर मिथ्‍यात्‍व एवं क्रोधादि चार कषायों के वशीभूत हो पृथिवीकायिक आदि छह काय के जीवों की हिंसा में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से प्रवृत्ति करते हैं और इस तरह अनाप्‍त के कहे हुए मत का आश्रय लेकर निर्वाण की प्रार्थना करते हैं-मोक्ष प्राप्‍त करना चाहते हैं सो उनकी यह इच्‍छा चावल पाने की इच्छा से धान के छिलके कूटने के प्रयास के समान है, अथवा जल मथकर घी प्राप्‍त करने की इच्‍छा के समान है, अथवा अन्‍ध-पाषाण के समूह को जलाकर सुवर्ण करने की इच्‍छा के समान है, अथवा जिस प्रकार कोई अन्‍धा मनुष्‍य दावानल के डर से भागकर अग्नि में जा पड़े उसके समान है । ज्ञानहीन मनुष्‍य का काय-क्‍लेश भावी दु:ख का कारण है । यह बात मैं, आप पर बहुत भारी स्‍नेह होने के कारण कह रहा हूँ' ॥106-114॥

इस प्रकार सुभौम-कुमार के कहे वचन, विपरीत बुद्धिवाले उस तापस ने समझ तो लिये परन्‍तु पूर्व वैर का संस्‍कार होने से, अथवा अपने पक्ष का अनुराग होने से अथवा दु:खमय संसार से आने के कारण अथवा स्‍वभाव से ही अत्‍यन्‍त दुष्‍ट होने के कारण उसने स्‍वीकार नहीं किये प्रत्‍युत, यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा इस तरह तिरस्‍कार कर रहा है, यह सोचकर वह भगवान् पार्श्‍वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा । इसी शल्‍य से वह मरकर शम्‍बर नाम का ज्‍योतिषी देव हुआ सो ठीक ही है क्‍योंकि क्रोधी मनुष्‍यों की तप से ऐसी ही गति होती है । इधर सर्प और सर्पिणी कुमार के उपदेश से शान्त-भाव को प्राप्‍त हुए और मरकर बहुत भारी लक्ष्‍मी को धारण करनेवाले धरणेन्‍द्र और पद्मावती हुए । तदनन्‍तर भगवान् पार्श्‍वनाथ का जब तीस वर्ष प्रमाण कुमारकाल बीत गया तब एक दिन अयोध्‍या के राजा जयसेन ने भगली देश में उत्‍पन्‍न हुए घोड़े आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान् पार्श्‍वनाथ के समीप भेजा । भगवान् पार्श्‍वनाथ ने भेंट लेकर उस श्रेष्‍ठ दूत का हर्ष-पूर्वक बड़ा सम्‍मान किया और उससे अयोध्‍या की विभूति पूछी । इसके उत्‍तर में दूत ने सबसे पहले भगवान् वृषभदेव का वर्णन किया और उसके पश्‍चात् अयोध्‍या नगर का हाल कहा सो ठीक ही है क्‍योंकि बुद्धिमान् लोग अनुक्रम को जानते ही हैं । दूत के वचन सुनकर भगवान् विचारने लगे कि मुझे तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍ध हुआ है इससे क्‍या लाभ हुआ ? भगवान् वृषभदेव को ही धन्‍य है कि जिन्‍होंने मोक्ष प्राप्‍त कर लिया । ऐसा विचार करते ही उन्‍होंने अपने अतीत भवों की परम्‍परा का साक्षात्‍कार कर लिया-पिछले सब देख लिये ॥115-124॥

मतिज्ञानावरण कर्म के बढ़ते हुए क्षयोपशमंके वैभव से उन्‍हें आत्‍मज्ञान प्राप्‍त हो गया और लौकान्तिक देवों ने आकर उन्‍हें सम्‍बोधित किया । उसी समय इन्‍द्र आदि देवों ने आकर प्रसिद्ध दीक्षा-कल्‍याणकका अभिषेक आदि महोत्‍सव मनाया ॥125-226॥

तदनन्‍तर भगवान्, विश्‍वास करने योग्‍य युक्तियुक्‍त वचनोंके द्वारा भाई बन्‍धुओं को विदाकर विमला नाम की पालकीपर सवार हो अश्‍ववन में पहुँचे । वहां अतिशय धीर वीर भगवान् तेलाका नियम लेकर एक बड़ी शिलातल पर उत्‍तराभिमुख हो पर्यंकासनसे विराजमान हुए । इस प्रकार पौषकृष्‍ण एकादशी के दिन प्रात:काल के समय उन्‍होंने सिद्ध भगवान् को नमस्‍कार कर तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा-रूपी लक्ष्‍मी स्‍वीकृत कर ली । वह दीक्षा-लक्ष्‍मी क्‍या थी ? मानो कार्य सिद्ध करनेवाली मुक्ति रूपी कन्‍याकी माननीय दूती थी ॥127-130॥

भगवान् ने पन्‍च मुष्टियों के द्वारा उखाड़कर जो केश दूर फेंक दिये थे इन्‍द्र ने उनकी पूजा की तथा बड़े आदरसे ले जाकर उन्‍हें क्षीरसमुद्रमें डाल दिया ॥131॥

जिन्‍होंने दीक्षा लेते ही सामायिक चारित्र प्राप्‍त किया है और विशुद्धताके कारण प्राप्‍त हुए चतुर्थ-मन:पर्ययज्ञान से देदीप्‍यमान हैं ऐसे भगवान् पारणाके दिन आहार लेने के लिए गुल्‍मखेट नाम के नगर में गये ॥132॥

वहाँ श्‍यामवर्ण वाले धन्‍य नामक राजा ने अष्‍ट मंगल द्रव्‍यों के द्वारा पडगाहकर उन्‍हें शुद्ध आहार दिया और आहार देकर इस क्रियाके योग्‍य उत्‍तम फल प्राप्‍त किया ॥133॥

इस प्रकार अत्‍यन्‍त विशुद्धि को धारण करनेवाले भगवान् ने छद्मस्‍थ अवस्‍थाके चार माह व्‍यतीत किये । तदनन्‍तर जिस वन में दीक्षा ली थी उसी वन में जाकर वे देवदारू नामक एक बड़े वृक्ष के नीचे विराजमान हुए । वहां तेलाका नियम लेनेसे उनकी विशुद्धता बढ़ रही थी, उनके संसारका अन्‍त निकट आ चुका था और उनकी शक्ति उत्‍तरोत्‍तर बढ़ती जाती थी, इस प्रकार वे सात दिनका योग लेकर धर्मध्‍यानको बढ़ाते हुए विराजमान थे । इसी समय कमठका जीव शम्‍बर नाम का असुर आकाशमार्गसे जा रहा था कि अकस्‍मात् उसका विमान रूक गया । जब उसने विभंगावधि ज्ञान से इसका कारण देखा तो उसे अपने पूर्वभवका सब वैर-बन्‍धन स्‍पष्‍ट दिखने लगा । फिर क्‍या था, क्रोधवश उसने महा गर्जना की और महावृष्टि करना शुरू कर दिया । इस प्रकार यमराज के समान अतिशय दुष्‍ट उस दुर्बुद्धिने सात दिन तक लगातार भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के महा उपसर्ग किये । यहाँ तक कि छोटे-छोटे पहाड़ तक लाकर उनके समीप गिराये ॥134-138॥

अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्‍द्र अपनी पत्‍नीके साथ पृथिवीतलसे बाहर निकला उस समय वह धरणेन्‍द्र, जिसपर रत्‍न चमक रहे हैं ऐसे फणारूपी मण्‍डपसे सुशोभित था । धरणेन्‍द्र भगवान् को फणाओं के समूह से आवृतकर खड़ा हो गया और उसकी पत्‍नी मुनिराज पार्श्‍वनाथ के ऊपर बहुत ऊँचा वज्रमय छत्र तानकर स्थित हो गयी । आचार्य कहते हैं कि देखो, स्‍वभाव से ही कूर रहने वाले सर्पसर्पिणीने अपने ऊपर किया उपकार याद रखा सो ठीक ही है, क्‍योंकि दयालु पुरूष अपने ऊपर किये उपकार को कभी नहीं भूलते ॥139-141॥

तदनन्‍तर भगवान् के ध्‍यान के प्रभाव से उनका मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए वैरी कमठका सब उपसर्ग दूर हो गया ॥142॥

मुनिराज पार्श्‍वनाथ ने द्वितीय शुक्‍लध्‍यान के द्वारा अवशिष्‍ट तीन घातिया कर्मों को और भी जीत लिया जिससे उन्‍हें चैत्रकृष्‍ण त्रयोदशीके दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोक-अलोकको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्‍त हो गया और इस कारण उनका अभ्‍युदय बहुत भारी हो गया ॥143-144॥

उसी समय इन्‍द्रों ने केवलज्ञान की पूजा की । शम्‍बर नाम का ज्‍यौतिषीदेव भी काललब्धि पाकर शान्‍त हो गया और उसने सम्‍यग्‍दर्शन सम्‍बन्‍धी विशुद्धता प्राप्‍त कर ली । यह देख, उस वन में रहनेवाले सात सौ तपस्वियोंने मिथ्‍यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्‍यग्‍दृष्टि हो गये और बड़े आदरके साथ प्रदक्षिणा देकर भगवान् पार्श्‍वनाथ के चरणोंमें नमस्‍कार करने लगे । आचार्य कहते हैं कि पापी कमठके जीव का कहाँ तो निष्‍कारण वैर और कहाँ ऐसी शान्ति ? सच कहा है कि महापुरूषोंके साथ मित्रता तो दूर रही शत्रुता भी वृद्धिका कारण होती है ॥145-148॥

भगवान् पार्श्‍वनाथ के समवसरणमें स्‍वयंभूको आदि लेकर दश गणधर थे, तीन सौ पचास मुनिराज पूर्वके ज्ञाता थे, दश हजार नौ सौ शिक्षक थे, एक हजार चार सौ अवधिज्ञानी थे, एक हजार केवलज्ञानी थे, इतने ही विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, सात सौ पचास मन:पर्यय ज्ञानी थे, और छह सौ वादी थे । इस प्रकार सब मिलाकर शीघ्र ही मोक्ष जानेवाले सोलह हजार मुनिराज उनके समवसरण में थे ॥149-152॥

सुलोचनाको आदि लेकर छत्‍तीस हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्‍यात देव-देवियाँ थीं और संख्‍यात तिर्यन्‍च थे । इस प्रकार बारह सभाओं के साथ धर्मोपदेश करते हुए भगवान् ने पांच माह कम सत्‍तर वर्ष तक विहार किया । अन्‍त में जब उनकी आयु का एक माह शेष रह गया तब वे विहार बन्‍दकर सम्‍मेदाचलकी शिखर पर छत्‍तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये । श्रावणशुक्‍ला सप्‍तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में शुक्‍लध्‍यान के तीसरे और चौथे भेदोंका आश्रय लेकर वे अनुक्रम से तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्‍थान में स्थित रहे फिर यथा-क्रम से उस समयके योग्‍य कार्य कर समस्‍त कर्मों का क्षय हो जानेसे मोक्षमें अविचल विराजमान हो गये । उसी समय इन्‍द्रों ने आकर उन‍के निर्वाण कल्‍याणकका उत्‍सव कर उनकी वन्‍दना की । आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि उनके निर्मल गुणों से समृद्ध होने के कारण हम भी इन भगवान् पार्श्‍वनाथको नमस्‍कार करते हैं ॥153-159॥

जो समुद्र के समान आदि मध्‍य और अन्‍त में गम्‍भीर रहते हैं ऐसे सज्‍जनोंका यदि कोई उदाहरण हो सकता है तो क्षमावानोंमें गिनती करने के योग्‍य भगवान् पार्श्‍वनाथ ही हो सकते हैं ॥160॥

'भगवन्' ! जन्‍माभिषेकके समय सुमेरूपर्वत पर अपने उच्‍छ्वास और नि:श्‍वाससे उत्‍पन्‍न वायुके द्वारा आपने इन्‍द्रोंको भी अच्‍छी तरह बार-बार झूला झुला दिया था फिर भला यह शम्‍बर जैसा क्षुद्रदेव आपका क्‍या कर स‍कता है ? जिस प्रकार मच्‍छ समुद्रमें उछल-कूदकर उसे पीडि़त करता है परन्‍तु स्‍वयं उसी समुद्रसे जीवित रहता है-उससे अलग होते ही छटपटाने लगता है उसी प्रकार इस क्षुद्रदेवने आपको पीड़ा पहुँचाई है तो भी यह अन्‍त में आपकी ही शान्तिसे अभ्‍युदयको प्राप्‍त हुआ है' इस प्रकार जिनकी स्‍तुति की गई वे पार्श्‍वनाथ स्‍वामी हम सबकी रक्षा करें ॥161॥

'हे प्रभो ! अकम्‍प हुआ आपका ज्ञान अत्‍यन्‍त निर्मलताको प्राप्‍त है उसे समुद्रकी उपमा कैसे दी जा सकती है क्‍योंकि समुद्र तो महावायुके चलनेपर चंचल हो जाता है और उसमें भरा हुआ पानी नीला है इस प्रकार समुद्र दूरसे ही आपके ज्ञान को नहीं पा सकता है । इसी तरह आपका ध्‍यान भी अकम्‍प है तथा अत्‍यन्‍त शुक्‍लता को प्राप्‍त है उसे भी समुद्रकी उपमा नहीं दी जा सकती है । हे नाथ ! आप सुमेरू पर्वत के समान अचल हैं फिर भला श्‍वासोच्‍छ्वासकी वायुके समान इस क्षुद्रदेवसे आपको क्‍या क्षोभ हो सकता है ?'' इस प्रकार अनेक स्‍तुतियोंके स्‍वामी पार्श्‍वनाथ भगवान् हमारी रक्षा करें ॥162॥

हे स्‍वामिन् ! धैर्य आदि बड़े-बड़े गुणों से यद्यपि सभी तीर्थंकर समान हैं तथापि सबको संतुष्‍ट करनेवाले आपके गुण संसार में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं वे सब एक कमठके कारण ही प्रसिद्ध हुए हैं । सो ठीक ही है क्‍योंकि अपकार करनेवाले शत्रुसे महापुरूषोंकी जो ख्‍याति होती है वह उपकार करनेवाले मित्रसे कभी नहीं होती ? ॥163॥

हे देव ! आपने शान्‍तचित्‍त रहकर शम्‍बर देव की विक्रिया दूर कर दी उससे आपको न कोई बाधा हुई, न क्रोध आया और न भय ही उत्‍पन्‍न हुआ इस कारण 'आप सहनशील हैं' इस प्रकार विद्वज्‍जन आपकी स्‍तुति नहीं करते किन्‍तु आपका माहात्‍म्‍य और शान्ति आश्‍चर्यजनक है इसलिए आपकी स्‍तुति की जानी चाहिये । इस प्रकार जिनकी स्‍तुति की गई थी वे पार्श्‍वनाथ भगवान् हम सबके संसारका उच्‍छेद करनेवाले हों ॥164॥

देखो, ये धरणेन्‍द्र और पद्मावती दोनों ही बड़े कृतज्ञ हैं, और बड़े धर्मात्‍मा हैं इस प्रकार संसार में स्‍तुतिको प्राप्‍त हुए हैं परन्‍तु तीनों लोगों के कल्‍याणकी एकमात्र भूमि स्‍वरूप आपका ही यह उपकार है ऐसा समझना चाहिये । यदि ऐसा न माना जाय और दोनोंने ही पर्वतोंका पटकना आदि बन्‍द किया है ऐसा माना जाय तो फिर यह भी खोजना पड़ेगा कि पहले उपद्रव किसके द्वारा नष्‍ट हुए थे ? इस प्रकार जिनकी सारभूत स्‍तुति की जाती है वे पार्श्‍वनाथ भगवान् हम सबकी रक्षा करें ॥165॥

हे विभो ! पर्वतका फटना, धरणेन्‍द्रका फणामण्‍डलका मण्‍डप तामना, पद्मावतीके द्वारा छत्र लगाया जाना, घातिया कर्मों का क्षय होना, केवलज्ञान की प्राप्ति होना, धातुरहित परमौदारिक शरीर की प्राप्ति होना, जन्‍म-मरण रूप संसारका विघात होना, शम्‍बरदेवका भयभीत होना, आपके तीर्थंकर नाम-कर्म का उदय होना और समस्‍त विघ्‍नोंका नष्‍ट होना ये सब कार्य जिनके एक साथ प्रकट हुए थे ऐसे उग्र वंशके शिरोमणि भगवान् पार्श्‍वनाथ सदा यमराजका भय नष्‍ट करें-जन्‍ममरणसे हमारी रक्षा करें ॥166॥

'यह शान्ति, क्‍या भगवान् के ध्‍यानसे हुई है ? वा धरणेन्‍द्रसे हुई है ?, अथवा पद्मावतीसे हुई है ? अथवा भगवान् की क्षमासे हुई है ? अथवा इन्‍द्रसे हुई है ? अथवा स्‍वयं अपनेआप हुई है ? अथवा मन्‍त्रके विस्‍तारसे हुई है ? अथवा शत्रु के भयभीत हो जानेसे हुई है ? अथवा भगवान् के पुण्‍योदय से हुई है ? अथवा समय पाकर शान्‍त हुई है ? अथवा घातिया कर्मों का क्षय होनेसे हुई है' इस प्रकार अर्घ हाथ में लिये हुए देव लोग, शंवरदेव के द्वारा किये हुए जिनके विघ्‍नोंकी शान्तिकी आशंका कर रहे हैं ऐसे धीर वीरोंमें अग्रगण्‍य भगवान् पार्श्‍वनाथ हमारे पाप नष्‍ट करें ॥167॥

कानोंको सुख देनेवाले, ह्णदयको प्रिय लगनेवाले, हित करनेवाले और हेतुसे युक्‍त जिनके वचन सुनकर शम्‍बरदेवने परम्‍परागत वैरसे उत्‍कट मिथ्‍यात्‍वको विष के समान छोड़ दिया, स्‍वयं आकर जिनकी स्‍तुति की और उस प्रकार का क्रूर होने पर भी वह कल्‍याणको प्राप्‍त हुआ तथा जो इन्‍द्रके द्वारा धारण किये हुए सिंहासनके अग्रभाग पर विराजमान होकर सिद्ध अवस्‍था को प्राप्‍त हुए ऐसे भगवान् पार्श्‍वनाथ हमारे विघ्‍नोंके समूहको नष्‍ट करें ॥168॥

पार्श्‍वनाथका जीव पहले मरूभूति मंत्री हुआ, फिर सहस्‍त्रार स्‍वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर विद्याधर हुआ, फिर अच्‍युत स्‍वर्ग में देव हुआ, वहाँसे आकर वज्रनामि चक्रवर्ती हुआ, फिर मध्‍यम ग्रैवेयकमें अहमिन्‍द्र हुआ, वहाँ से आकर राजाओं के गुणों से सुशोभित आनन्‍द नाम का राजा हुआ, फिर आनत स्‍वर्ग में इन्‍द्र हुआ और तदनन्‍तर घातिया कर्मोंके समूहको नष्‍ट करनेवाला भगवान् पार्श्‍वनाथ हुआ ॥169॥

कमठका जीव पहले कमठ था, फिर कुक्‍कुट सर्प हुआ, फिर पाँचवें नरक गया, फिर अजगर हुआ, फिर नरक गया, फिर भील होकर नरक गया, फिर सिंह होकर नरक गया और फिर महीपाल राजा होकर शम्‍बर देव हुआ ॥170॥