+ भगवान महावीर, सती चंदना, राजा श्रेणिक, अभयकुमार, राजा चेटक, चेलना, जीवन्धर चरित -
पर्व - 74

  कथा 

कथा :

अथानन्‍तर – सार्थक नाम को धारण करनेवाले श्रीमान् वर्धमान जिनेन्‍द्र, घातिया कर्मोंके नाशसे प्राप्‍त हुई वृद्धि मुझे दें ॥1॥

जिनके वचनों से सम्‍यग्‍ज्ञान उत्‍पन्‍न होता है ऐसे आप तत्‍त्‍वार्थ का निर्णय करनेसे सन्‍मति नाम को प्राप्‍त हुए और देवों के आगमनसे पूज्‍य होकर आप अकलंक हुए हैं ॥2॥

आपका नाम वीरसेन है, रूद्रके द्वारा आप महावीर कहलाये हैं, ऋद्धिधारी मुनियोंकी सेना के नायक हैं । गणधरदेव आपके चरण – कमलोंकी पूजा करते हैं, तथा अनेक मुनिराज आपका ध्‍यान करते हैं ॥3॥

हे देव ! लोक और अलोक के देखनेमें आपका ही केवलज्ञानरूपी प्रकाश मुख्‍य गिना जाता है जिसे आपका केवलज्ञान नहीं देख सका ऐसा क्‍या कोई फुटकर पदार्थ भी इस संसार में है ? ॥4॥

हे नाथ ! आपका रूप ही आपके क्रोधादिकके अभावको सूचित करता है सो ठीक ही है क्‍योंकि बहुमूल्‍य मणियोंकी कालिमाके अभावको कौन कहता है ? भावार्थ – जिस प्रकार मणियोंकी निर्मलता स्‍वयं प्रकट हो जाती है उसी प्रकार आपका शान्ति भाव भी स्‍वयं प्रकट हो रहा है ॥5॥

हे प्रभो ! अन्‍य अनेक कुतीर्थोंका उल्‍लंघनकर आपका तीर्थ अब भी चल रहा है इसलिए स्‍तुतिके अनन्‍तर आपका पुराण कहा जाता है ॥6॥

यह महापुराण एक महासागरके समान है इसके पार जानेके लिए कुछ कहने की इच्‍छा करनेवाले हम लोगों को श्रीजिनसेन स्‍वामी का अनुगामी होना चाहिये ॥7॥

यह पुराण रूपी महासागर अगाध और अपार है तथा मेरी बुद्धि थोड़ी और पारसहित है फिर भी मैं इस बुद्धि के द्वारा इस पुराणरूपी महासागरको पार करना चाहता हूँ ॥8॥

यद्यपि मेरी बुद्धि छोटी है और यह पुराण बहुत बडा है तो भी जिस प्रकार छोटी – सी नावसे समुद्र के पार हो जाते हैं उसी प्रकार मैं भी इस छोटी – सी बुद्धिसे इसके पार हो जाऊँगा ॥9॥

सबसे पहले कथा और कथाके कहनेवाले वक्‍ताका वर्णन किया जाता है क्‍योंकि यदि ये दोनों ही निर्दोष हों तो उनसे पुराणमें कोई दोष नहीं आता है ॥10॥

वाले पुरूषों के कानोंको कड़ुवी लगनेवाली अन्‍य कथाओंसे क्‍या प्रयोजन है ? ॥11॥

कथक – कथा कहनेवाला वह कहलाता है जो कि रागादि दोषोंसे रहित हो और अपने दिव्‍य वचनों के द्वारा निरपेक्ष होकर भव्‍य जीवोंका उपकार करता हो ॥12॥

ये दोनों ही अर्थात् कथा और कथक, जिनेन्‍द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए इसी महापुराणमें है अन्‍य मिथ्‍या पुराणोंमें नहीं हैं इसलिए विद्वानोंके द्वारा यही पुराण ग्रहण करने के योग्‍य है ॥13॥

अथानन्‍तर – सब द्वीपोंके मध्‍य में रहनेवाले इस जम्‍बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्‍तर किनारेपर पुष्‍कलावती नाम का देश है उसकी पुण्‍डरीकिणी नगरी में एक मधु नाम का वन है । उसमें पुरूरवा नाम का एक भीलों का राजा रहता था । उसकी कालिका नाम की अनुराग करनेवाली स्‍त्री थी सो ठीक ही है क्‍योंकि विधाता प्राणियोंका अनुकूल ही समागम करता है ॥14–16॥

किसी एक दिन दिग्‍भ्रम हो जानेके कारण सागरसेन नाम के मुनिराज उस वन में इधर – उधर भ्रमण कर रहे थे । उन्‍हें देख, पुरूरवा भील मृग समझकर उन्‍हें मारनेके लिए उद्यत हुआ परन्‍तु उसकी स्‍त्रीने यह कहकर मना कर दिया कि ‘ये बनके देवता घूम रहे हैं इन्‍हें मत मारो’ ॥17–18॥

वह पुरूरवा भील उसी समय प्रसन्‍नचित्‍त होकर उन मुनिराज के पास गया और श्रद्धाके साथ नमस्‍कारकर तथा उनके वचन सुनकर शान्‍त हो गया ॥19॥

जिस प्रकार ग्रीष्‍मऋतु में प्‍यासा मनुष्‍य शीतल जलसे भरे हुए तालाबको पाकर शान्‍त होता है अथवा जिस प्रकार संसार – दु:खके कारणोसे डरनेवाला जीव, जिनेन्द्र भगवान् का मत पाकर शान्‍त होता है अथवा जिस प्रकार शास्‍त्राभ्‍यास करनेवाला विद्यार्थी किसी बड़े प्रसिद्ध गुरूकुलको पाकर शान्‍त होता है उसी प्रकार वह भील भी सागरसेन मुनिराजको पाकर शान्‍त हुआ था । उसने उक्‍त मुनिराजसे मधु आदि तीन प्रकार के त्‍यागका व्रत ग्रहण किया और जीवन पर्यन्‍त उसका बड़े आदरसे अच्‍छी पालन किया । आयु समाप्‍त होने पर वह सौधर्म स्‍वर्ग में एक सागर की उत्‍तम आयुको धारण करनेवाला देव हुआ ॥20–22॥

इसी जम्‍बुद्वीप के भरत – क्षेत्र सम्‍बन्‍धी आर्यक्षेत्रके मध्‍यभाग में स्थित तथा सदा अच्‍छी स्थिति को धारण करनेवाला एक कोसल नाम का प्रसिद्ध देश है ॥23॥

उस देशमें कभी किसीको वाधा नहीं होती थी इसलिए अरक्षा थी परन्‍तु वह अरक्षा रक्षकोंके अभावसे नहीं थी । इसी तरह वहाँपर कोई दातार नहीं थे, दातारोंका अभाव कृपणतासे नहीं था परन्‍तु संतुष्‍ट रहनेके कारण कोई लेनेवाले नहीं थे इसलिए था ॥24॥

वहाँ कठोरता स्त्रियों के स्‍तनोंमें ही थी, वहाँ रहनेवाले किसी मनुष्‍य के चित्‍तमें कठोरता – क्रूरता नहीं थी । इसी तरह मुझे कुछ देओ, यह शब्‍द माँगनेके लिए नहीं निकलता था । और हमारी रक्षा करो यह शब्‍द भय से निकलता था ॥25॥

इसी प्रकार कलंक और क्षीणता ये दो शब्‍द चन्‍द्रमा के वाचक राजा में ही पाये जाते थे अन्‍य किसी राजा में नहीं पाये जाते थे । निराहार रहना तपस्वियोंमें ही था अन्‍यमें नहीं ॥26॥

पीड़ा अर्थात् पेला जाना तिल अलसी तथा ईखमें ही था अन्‍य किसी प्राणीमें पीड़ा अर्थात् कष्‍ट नहीं था । शिरका काटना बढ़ी हुई धानके पौधोंमें ही था किसी दूसरेमें नहीं । बन्‍ध और मोक्ष की चर्चा आगममें ही सुनाई देती थी किसी अपराधीमें नहीं । इन्‍द्रियोंका निग्रह विरागी लोगोंमें ही था किन्‍हीं दूसरे लोगोंमें नहीं । जड़ता जलमें ही थी किन्‍हीं अन्‍य मनुष्‍योंमें जड़ता – मूर्खता नहीं थी, तीक्ष्‍णता सुई आदि में ही थी वहांके मनुष्‍योंमें उग्रता नहीं थी, वक्रता तालियोंमें ही थी किसी अन्‍य कार्य में कुटिलता – माया‍चारिता नहीं थी । वहांके गोपाल भी अचतुर नहीं थे, स्त्रियाँ तथा बालक भी डरपोंक नहीं थे, बौने भी घूर्त नहीं थे, चाण्‍डाल भी दुराचारी नहीं थे । वहां ऐसी कोई भूमि नहीं थी जो कि ईखोंसे सुशोभित नहीं हो, ऐसा कोई पर्वत नहीं था जिसपर चन्‍दन न हों, ऐसा कोई सरोवर नहीं था जिसमें कमल न हों और ऐसा कोई वन नहीं था जिसमें मीठे फल न हों ॥27–31॥

उस देशके मध्‍यभाग में ह्णदयको ग्रहण करनेवाली विनीता ( अयोध्‍या ) नाम की नगरी थी जो कि विनीत स्‍त्रीके समान मनुष्‍यों को उत्‍तम सुख प्रदान करती थी ॥32॥

वह नगरी अपनी नगर – रचनाकी कुशलता दिखानेके लिए अथवा तीर्थंकरोंमें अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिए इन्‍द्र ने ही सबसे पहले बनाई थी ॥33॥

जिस प्रकार विनय से मुनिकी बुद्धि सुशोभित होती है, स्‍वामीसे सेना शोभायमान होती है और मणिसे मेखला सुशोभित होती है, उसी प्रकार मध्‍यभाग में बने हुए परकोटसे वह नगरी सुशोभित थी ॥34॥

खाईसे घिरा हुआ इस नगरी का कोट, केवल इसकी शोभाके लिए ही था क्‍योंकि इसका बनाने वाला इन्‍द्र था और स्‍वामी चक्रवर्ती था फिर भला इसे भय किससे हो सकता था ? ॥35॥

वहाँ पर प्रतिदिन घर – घर में जिनकी पूजा होती थी क्‍योंकि गृहस्‍थोंके सब मांगलिक कार्य जिन – पूजापूर्वक ही होते थे ॥36॥

वहाँपर बिना विद्याभ्‍यासके बालक – अवस्‍था व्‍यतीत नहीं होती थी, विना भोगों के यौवन व्‍यतीत नहीं होता था, बिना धर्मके बुढ़ापा व्‍यतीत नहीं होता था और विना समाधिके मरण नहीं होता था ॥37॥

वहाँपर किसीका भी ज्ञान क्रिया‍रहित नहीं था, क्रिया फलरहित नहीं थी, फल बिना उपभोगके नहीं था और भोग अर्थ तथा धर्म दोनोंसे रहित नहीं था ॥38॥

यदि वहाँके रहनेवाले लोगोंसे मन्‍त्री आदि प्रधान प्रकृतिका पृथक्‍करण होता था तो केवल स्‍वामित्‍वसे ही होता था आभूषणादि उपकरणों से नहीं होता था ॥39॥

वहाँके उत्‍तम मनुष्‍य स्‍वर्गसे आकर उत्‍पन्‍न होते थे इसलिए स्‍वर्ग में हुई मित्रताके कारण बहुतसे देव स्‍वर्गसे आकर बड़ी प्रसन्‍नतासे उनके साथ क्रीड़ा करते थे ॥40॥

इनमें देव कौन हैं ? और मनुष्‍य कौन हैं ? क्‍योंकि रूप आदिसे सभी समान हैं इस प्रकार आये हुए विद्याधरोंके राजा उनको अलग – अलग पहिचाननेमें मोहित हो जाते थे ॥41॥

वहाँ की वेश्‍याओं को देखकर देवकुमार बहुत ही आश्‍चर्य करते थे परन्‍तु जाति भिन्‍न होने के कारण उनके साथ क्रीड़ा नहीं करते थे ॥42॥

इन्‍द्रियोंको अच्‍छे लगनेवाले जो विषय वहाँ थे वे विषय चूंकि स्‍वर्ग में भी नहीं थे इसलिए देवताओं के द्वारा पूज्‍य तीर्थंकर भगवान् का जन्‍म वहीं होता था ॥43॥

देवों ने अपने कौशलसे जो घर वहां बनाये थे वे अकृत्रिम विमानोंको जीतनेके लिए ही बनाये थे, इससे बढ़कर उनका और क्‍या वर्णन हो सकता है ? ॥44॥

जिस प्रकार स्‍वर्ग की पंक्तिका स्‍वामी इन्‍द्र होता है उसी प्रकार उस नगरी का स्‍वामी भरत था जो कि इक्ष्‍वाकुवंशको बढ़ानेवाला था और भगवान् वृषभदेवका पुत्र था ॥45॥

अकम्‍पन आदि राजा, नमि आदि विद्याधर और मागध आदि देव अपना अभिमान छोड़कर और उत्‍कण्ठित होकर अपना मस्‍तक झुकाते हुए मालतीकी माला के समान जिसकी आज्ञाको ‘यह हमारा सबसे अधिक आभूषण है’ यह विचारकर धारण करते थे ॥46–47॥

अपने सत्‍कर्मोंकी भावनासे तथा कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्‍पन्‍न होनेवाले भावोंसे और भव्‍यत्‍व भाव की विशेषतासे वह श्रेष्‍ठ पुरूषोंकी अन्‍तिम सीमाको प्राप्‍त था अर्थात् सबसे अधिक श्रेष्‍ठ माना जाता था ॥48॥

वह भारत भगवान् आदिनाथका जेष्‍ठ पुत्र था, सोलहवाँ मनु था, प्रथम चक्रवर्ती था और एक मुहुर्तमें ही मुक्‍त हो गया था ( केवल ज्ञानी हो गया था ) इसलिए वह किनके साथ सादृश्‍यको प्राप्‍त हो सकता था ? अर्थात् किसी के साथ नहीं, वह सर्वथा अनुपम था ॥49॥

उसकी अनन्‍तमति नाम की वह देवी थी जो कि ऐसी सुशोभित होती थी मानो शरीरधारिणी कीर्ति हो अथवा कमल रूपी निवासस्‍थानको छोड़कर आई हुई मानो लक्ष्‍मी ही हो ॥50॥

जिसप्रकार बुद्धि और पराक्रम से विशेष लक्ष्‍मी उत्‍पन्‍न होती है उसी प्रकार उन दोनोंके पुरूरवा भीलका जीव देव, मरीचि नाम का ज्‍येष्‍ठ पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ ॥51॥

अपने बाबा भगवान् वृषदेवकी दीक्षाके समय स्‍वयं ही गुरू – भक्ति से प्रेरित होकर मरीचिने कच्‍छ आदि राजाओं के साथ सब परिग्रहका त्‍यागकर दीक्षा धारण कर ली थी । उसने बहुत समय तक तो तपश्‍चरण का क्‍लेश सहा और क्षुधा शीत आदि परीषह भी सहे परन्‍तु संसार – वासकी दीर्घताके कारण पीछे चलकर वह उन्‍हें सहन करने के लिए असमर्थ हो गया इसलिए स्‍वयं ही फल तथा वस्‍त्रादि ग्रहण करने के लिए उद्यत हुआ । यह देख वन – देवताओंने कहा कि निर्ग्रन्‍थ वेष धारण करनेवाले मुनियोंका यह क्रम नहीं है । यदि तुम्‍हें ऐसी ही प्रवृत्ति करना है तो इच्‍छानुसार दूसरा वेष ग्रहण कर लो । वन – देवताओं के उक्‍त वचन सुनकर प्रबल मिथ्‍यात्‍वसे प्रेरित हुए मरीचिने भी सबसे पहले परिव्राजककी दीक्षा धारण कर ली सो ठीक ही है क्‍योंकि जिनका संसार दीर्घ होता है उनके लिए वह मिथ्‍यातव कर्म मिथ्‍यामार्ग ही दिखलाता है ॥52–56॥

उस समय उसे परिव्राजकोंके शास्‍त्रका ज्ञान भी स्‍वयं ही प्रकट हो गया था सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंके समान दुर्जनोंको भी अपने विषय का ज्ञान स्‍वयं हो जाता है ॥57॥

उसने तीर्थंकर भगवान् की दिव्‍यध्‍वनि सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था । वह सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवने अपने आप समस्‍त परिग्रहोंका त्‍याग कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्‍पन्‍न करनेवाली सामर्थ्‍य प्राप्‍त की है उसी प्रकार मैं भी संसार में अपने द्वारा चलाये हुए दूसरे मतकी व्यवस्‍था करूँगा और उसके निमित्‍तसे होनेवाले बड़े भारी प्रवाभके कारण इन्‍द्र की प्रतीक्षा प्राप्‍त करूँगा – इन्‍द्र द्वारा की हुई पूजा प्राप्‍त करूँगा । मैं इच्‍छा करता हूं कि मेरे यह सब अवश्‍य होगा ॥58– 60॥

इस प्रकार मानकर्म के उदय से वह पापी खोटे मतसे विरत नहीं हुआ और अनेक दोषोंसे दूषित होने पर भी वही वेष धारण कर रहने लगा ॥61॥

यद्यपि वह तीन दण्‍ड रखता था परंतु समीचीन दण्‍डसे रहित था अर्थात् इन्द्रिय दमन रूपी समी‍चीन दण्‍ड उसके पास नहीं था । जिस प्रकार खोटा राजा अनेक प्रकार के दण्‍डोंको, सजाओं को पाता हैं उसी प्रकार वह भी रत्‍नप्रभा आदि पृथिवियोंमें अनेक प्रकार के दण्‍डोंको पानेवाला था ॥62॥

वह सम्‍यग्‍ज्ञानसे रहित था अत: कमण्‍डलु सहित होने पर भी शौच जानेके बाद शुद्धि नहीं करता था और कहता था कि क्‍या जलसे आत्‍माकी शुद्धि होती है ॥63॥

वह यद्यपि प्रात:काल शीतल जलसे स्‍नान करता था और कन्‍दमूल तथा फलों का भोजन करता था फिर भी परिग्रहका त्‍याग बतलाकर अपनी प्रसिद्धि करता था, लोगोंमें इस बातकी घोषणा करता था कि मैं परिग्रहका त्‍यागी हूं ॥64॥

जिस प्रकार इन्‍द्रजालियाके द्वारा लाये हुए सूर्य चन्‍द्रमा तथा समुद्र अवास्‍तविक होते हैं – आभास मात्र होते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा लाये देखे हुए तत्‍व अवास्‍तविक थे – तत्‍वाभास थे ॥65॥

इस प्रकार कपिल आदि अपने शिष्‍योंके लिए अपने कल्पित तत्‍वका उपदेश देता हुआ सम्राट् भरतका पुत्र मरीचि चिरकाल तक इस पृथिवीपर भ्रमण करता रहा ॥66॥

आयु के अन्‍त में मरकर वह ब्रह्म स्‍वर्ग में दश सागर की आयुवाला देव हुआ । वहाँसे च्‍युत हुआ और अयोध्‍या नगरी में कपिल नामक ब्राह्मणकी काली नाम की स्‍त्रीसे वेदोंको जाननेवाला जटिल नाम का पुत्र हुआ ॥67– 68॥

परिव्राजकके मतमें स्थित होकर उसने पहलेकी तरह चिरकाल तक उसीके मार्गका उपदेश दिया और मरकर सौधर्म स्‍वर्ग में देव हुआ । दो सागर तक वहाँके सुख भोगकर आयु के अन्‍त में वह वहाँसे च्‍युत हुआ और इसी भरत क्षेत्रके स्‍थूणागार नामक श्रेष्‍ठ नगर में भारद्वाज नामक ब्राह्मणकी पुष्‍पदत्‍ता स्‍त्रीसे पुष्‍पमित्र नाम का पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ ॥69–71॥

उसने वही पहला पारिव्राजकका वेष धारणकर प्रकृति आदिके द्वारा नि‍रूपित पच्‍चीस मिथ्‍यातत्‍व मूर्ख मनुष्‍यों की बुद्धिमें प्राप्‍त कराये अर्थात् मूर्ख मनुष्‍यों की पच्‍चीस तत्‍वोंका उपदेश दिया । य‍ह सब होने पर भी उसकी कषाय मन्‍द थी अत: देवायुका बन्‍धकर सौधर्म स्‍वर्ग में एक सागर की आयुवाला देव हुआ ॥72–73॥

वहाँ के सुख भोगकर वहाँ से आया और इसी भरत क्षेत्रके सूतिका नामक गाँवमें अग्निभूति नामक ब्राह्मणकी गौतमी नाम की स्‍त्रीसे अग्निसह नाम का पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ ॥74॥

वहाँ भी उसने परिव्राजककी दीक्षा लेकर पहलेके समान ही अपनी आयु बिताई और आयु के अन्‍त में मरकर देवपदको प्राप्‍त हुआ । वहाँ सात सागर प्रमाण उसकी आयु थी । देवों के सुख भोगकर आयु के अन्‍त में वह वहाँसे च्‍युत हुआ और इसी भरतक्षेत्रके मंदिर नामक गाँवमें गौतम ब्राह्मणकी कौशिकी नाम की ब्राह्मणीसे अग्निमित्र नाम का पुत्र हुआ । वहाँपर भी उसने वही पुरानी परिव्राजककी दीक्षा धारणकर मिथ्‍याशास्‍त्रोंका पूर्णज्ञान प्राप्‍त किया । अबकी बार वह माहेन्‍द्र स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर वहाँसे च्‍युत होकर उसी मंदिर नामक नगर में शालंकायन ब्राह्मणकी मंदिरा नाम की स्‍त्रीसे भारद्वाज नाम का जगत् प्रसिद्ध पुत्र हुआ और वहाँ उसने त्रिदण्‍डसे सुशोभित अखण्‍ड दीक्षाका आचरण किया । तदनन्‍तर वह माहेद्र स्‍वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हुआ । फिर वहाँसे च्‍युत होकर कुमार्ग के प्रकट करने के फलस्‍वरूप समस्‍त अधोगतियोंमें जन्‍म लेकर उसने भारी दु:ख भोगे । इस प्रकार त्रस स्‍थावर योनियोंमें असंख्‍यात वर्ष तक परिभ्रमण करता हुआ बहुत ही श्रान्‍त हो गया – खेद खिन्‍न हो गया । तदनन्‍तर आयु का अन्‍त होने पर मगधदेशके इसी राजगृह नगर में वेदोंके जानने वाले शाण्डिल्‍य नामक ब्राह्मणकी पारशरी नाम की स्‍त्रीसे स्‍थावर नाम का पुत्र हुआ । वह वेद वेदांगका पारगामी था, साथ ही अनेक पापों का पात्र भी था ॥75– 83॥

वह सम्‍यग्‍दर्शनसे शून्‍य था अत: उसका मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, तप, शान्ति, समाधि और तत्‍त्वावलोकन – सभी कुछ मरीचिके समान निष्‍फल था ॥84॥

उसने फिर भी परिव्राजक मतकी दीक्षामें आसक्ति धारणकी और मरकर माहेन्‍द्र स्‍वर्ग में सात सागर की आयुवाला देव हुआ ॥85॥

वहांसे च्‍युत होकर वह इसी मगध देशके राजगृह नामक उत्‍तम नगर में विश्‍वभूति राजाकी जैनी नाम की स्‍त्रीसे प्रसिद्ध पराक्रमका धारी विश्‍वनन्‍दी नाम का पुत्र हुआ । इसी राजा विश्‍वभूतिका विशाखभूति नाम का एक छोटा भाई था जो कि बहुत ही वैभवशाली था । उसकी लक्ष्‍मणा नाम की स्‍त्रीसे विशाखनन्‍द नाम का मूर्ख पूत्र उत्‍पन्‍न हुआ था । ये सब लोग सुख से निवास करते थे ॥86– 88॥

किसी दूसरे दिन शुद्ध बुद्धि को धारण करनेवाला राजा विश्‍वभू‍ति, शरद्ऋतुके मेघका नाश देखकर विरक्‍त हो गया । महापुरूषोंमें आगे रहनेवाले उस राजा ने अपना राज्‍य तो छोटे भाईके लिए दिया और युवराज पद अपने पुत्र के लिए प्रदान किया । तदनन्‍तर उसने सात्विक वृत्तिको धारण करनेवाले तीन सौ राजाओं के साथ श्रीधर नामक गुरूके समीप दिगम्‍बर दीक्षा धारण कर ली और समता भावसे युक्‍त हो चिरकाल तक बाह्य और आभ्‍यन्‍तर दोनों प्रकार के कठिन तप किये ॥89–91॥

तदनन्‍तर किसी दिन विश्‍वनन्‍दी कुमार अपने मनोहर नाम के उद्यानमें अपनी स्त्रियों के साथ क्रीडा कर रहा था । उसे देख, विशाखनन्‍द उस मनोहर नामक उद्यानको अपने आधीन करने की इच्‍छा से पिता के पास जाकर कहने लगा कि मनोहर नाम का उद्यान मेरे लिए दिया जाय अन्‍यथा मैं देश परित्‍याग कर दूंगा – आपका राज्‍य छोड़कर अन्‍यत्र चला जाऊंगा । आचार्य कहते हैं‍ कि जो उत्‍तम भोगों के रहते हुए भी विरूद्ध विषयोंमें प्रेम करता है वह आगामीभवमें होनेवाले दु:खोंका भार ही धारण करता है ॥92–95॥

पुत्र के वचन सुनकर तथा ह्णदय में धारणकर स्‍नेहसे भरे हुए पिताने कहा कि ‘वह वन कितनी – सी वस्‍तु है, मैं तुझे अभी देता हूँ’ इस प्रकार अपने पुत्रको सन्‍तुष्‍टकर उसने विश्‍वनन्‍दीको बुलाया और कहा कि ‘इस समय यह राज्‍य का भार तुम ग्रहण करो, मैं समीपवर्ती विरूद्ध राजाओंपर आक्रमणकर उनके द्वारा किये हुए क्षोभको शान्‍तकर कुछ ही दिनोंमें वापिस आ जाऊंगा’ । राजा के वचन सुनकर श्रेष्‍ठपुत्र विश्‍वनन्‍दीने उत्‍तर दिया कि ‘हे पूज्‍यपाद ! आप यहीं निश्‍चिन्‍त होकर रहिये, मैं ही जाकर उन राजाओं को दास बनाये लाता हूँ’ ॥96–99॥

आचार्य कहते हैं कि देखो राजा ने यह विचार नहीं किया कि राज्‍य तो इसीका है, भाईने स्‍नेह वश ही मुझे दिया है । केवल वनके लिए ही वह उस श्रेष्‍ठ पुत्रको ठगनेके लिए उद्यत हो गया सो ऐसे दुष्‍ट अभिप्रायको धिक्‍कार है ॥100॥

तदनन्‍तर पराक्रम से सुशोभित विश्‍वनन्‍दी जब काकाकी अनुमति ले, शत्रुओं को जीतनेके लिए अपनी सेना के साथ उद्यम करता हुआ चला गया तब बुद्धिहीन विशाखभूतिने क्रमका उल्‍लंघनकर वह वन अन्‍यायकी इच्‍छा रखनेवाले विशाखनन्‍दके लिए दे दिया ॥101–102॥

विश्‍वन्‍नदीको इस घटनाका तत्‍काल ही पता चल गया । वह क्रोधग्निसे प्रज्‍वलित हो कहने लगा कि देखो काकाने मुझे तो धोखा देकर शत्रु राजाओं के प्रति भेज दिया और मेरा वन अपने पुत्र के लिए दे‍ दिया । क्‍या ‘देओं’ इतना कहनेसे ही मैं नहीं दे देता ? वन है कितनी – सी चीज ? इसकी दुश्‍चेष्‍टा मेरी सज्‍जनताका भंग कर रही है । ऐसा विचारकर वह लौट पड़ा और अपना वन हरण करनेवाले को मारनेके लिए उद्यत हो गया । इसके भय से विशाखनन्‍द बाड़ी लगाकर किसी ऊंचे कैंथाके वृक्षपर चढ़ गया । कुमार विश्‍वनन्‍दीने वह कैंथाका वृक्ष जड़से उखाड़ डाला और उसी से मारनेके लिए वह उद्यत हुआ । यह देख विशाखनन्‍द वहांसे भागा और एक पत्‍थरके खम्‍भाके पीछे छिप गया परन्‍तु बलवान् विश्‍वनन्‍दीने अपनी हथेलियोंके प्रहारसे उस पत्‍थरके खम्‍भाको शीघ्र ही तोड़ डाला । विशाखनन्‍द वहांसे भी भागा । यद्यपि वह कुमारका अपकार करनेवाला था परन्‍तु उसे इस तरह भागता हुआ देखकर कुमार को सौहार्द और करूणा दोनोंने प्रेरणा दी जिससे प्रेरित होकर कुमार ने उससे कहा कि डरो मत । यही नहीं, उसे बुलाकर वह वन भी दे दिया तथा स्‍वयं संसार की दु:खमय स्थितिका विचारकर सम्‍भूत नामक गुरूके समीप दीक्षा धारण कर ली सो ठीक ही है क्‍योंकि नीचजनों के द्वारा किया हुआ अपकार भी सज्‍जनोंका उपकार करनेवाला ही होता है ॥103–110॥

उस समय विशाखभूतिको भी बड़ा पश्‍चात्‍ताप हुआ । ‘यह मैंने बड़ा पाप किया है’ ऐसा विचारकर उसने प्रायश्चित्‍त स्‍वरूप संयम धारण कर लिया ॥111॥

इधर विश्‍वनन्‍दी सब देशोंमें विहार करता हुआ घोर तपश्‍चरण करने लगा । उसका शरीर अत्‍यन्‍त कृश हो गया । अनुक्रम से वह मथुरा नगरी में पहुंचा और आहार लेने के लिए भीतर प्रविष्‍ट हुआ । उस समय उसकी निजकी शक्ति नष्‍ट हो चुकी थी और पैर डगमग पड़ रहे थे । व्‍यसनोंके संसर्गसे जिसका राज्‍य भ्रष्‍ट हो गया है ऐसा विशाखनन्‍द भी उस समय किसी राजाका दूत बनकर उसी मथुरा नगरी में आया हुआ था । वहां एक वेश्‍याके मकानकी छत्र पर बैठा था । दैव योगसे वहीं हालकी प्रसूना एक गायने क्रुद्ध होकर विश्‍वनन्‍दी मुनि को धक्‍का देकर गिरा दिया उन्‍हें गिरता देख, क्रोध करता हुआ विशाखनन्‍द कहने लगा कि ‘तुम्‍हारा जो पराक्रम पत्‍थरका खम्‍भा तोड़ते समय देखा गया था वह आज कहाँ गया’ ? इस प्रकार उसने खोटे परिणामोंसे उन मुनिकी हँसी की ॥112–116॥

मुनि भी उसके वचन चित्‍तमें धारणकर कुछ कुपित हुए और मन ही मन कहने लगे कि इस हँसीका फल तू अवश्‍य ही पावेगा ॥17॥ अन्‍त में निदान सहित संन्‍यास धारण कर वे महाशुक्र स्‍वर्ग में देव हुए और विशाखभूतिका जीव भी वहीं देव हुआ ॥117–118॥

वहाँ उन दोनोंकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी । चिर काल तक वहाँके सुख भोग कर दोनों ही वहांसे च्‍युत हुए । उनमेंसे विश्‍वनन्‍दीके काका विशाख‍भूतिका जीव सुरम्‍य देशके पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराजकी जयावती रानीसे विजय नाम का पुत्र हुआ और उसके बाद ही विश्‍वनन्‍दीका जीव भी इन्‍हीं प्रजापति महाराजकी दूसरी रानी मृगावतीके त्रिपृष्‍ठ नाम का पुत्र हुआ । यह होनहार अर्ध चक्रवर्ती था ॥119–122॥

उत्‍पन्‍न होते ही एक साथ समस्‍त शत्रुओं को नष्‍ट करनेवाला इसका प्रताप, सूर्य के प्रतापके समान समस्‍त संसार में व्‍याप्‍त होकर भर गया था ॥123॥

अर्ध चक्रवर्तियोंमें गाढ़ उत्‍सुकता रखनेवाली तथा जो दूसरी जगह नहीं रह सके ऐसी लक्ष्‍मी असंख्‍यात वर्षसे स्‍वयं इस त्रिपृष्‍ठकी प्रतीक्षा कर रही थी ॥124॥

पराक्रमके द्वारा सिद्ध किया हुआ उसका चक्ररत्‍न क्‍या था मानो लक्ष्‍मी का चिह्न ही था और मगधादि जिसकी रक्षा करते हैं ऐसा समुद्र पर्यन्‍तका समस्‍त महीतल उसके आधीन था ॥125॥

यह त्रिपृष्‍ठ ‘सिंह के समान शूरवीर है’ इस प्रकार जो लोग इसकी स्‍तुति करते थे वे मेरी समझसे बुद्धिहीन ही थे क्‍योंकि देवों के भी मस्‍तकको नम्‍नीभूत करनेवाला वह त्रिपृष्‍ठ क्‍या सिंह के समान निर्बुद्धि भी था ? ॥126॥

उसकी कान्तिने परिमित क्षेत्र में रहनेवाली और हानि वृद्धि सहित चन्‍द्रमाकी चाँदनी भी जीत ली थी तथा वह ब्रह्माकी जातिके समान समस्‍त संसार में व्‍याप्‍त होकर चिरकाल के लिए स्थित हो गई थी ॥127॥

इधर विजयार्ध पर्वत की उत्‍तर श्रेणीके अलकापुर नगर में मयूरग्रीव नाम का विद्याधरोंका राजा रहता था । उसकी रानीका नाम नीलांजना था । विशाखनन्‍दका जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमणकर तथा अत्‍यन्‍त दुखी होकर अनेक दुराचार करनेवाला उन दोनोंके अश्‍वग्रीव नाम का पुत्र हुआ ॥128–129॥

वे सब, पूर्वोपार्जित पुण्‍य कर्म के विशिष्‍ट उदय से प्राप्‍त हुए इच्छित काम भोग तथा उपभोगों से संतुष्‍ट होकर सुख से रहते थे ॥130॥

इधर विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी को अलंकृत करनेवाला ‘रथनूपुर चक्रवाल’ नाम का एक श्रेष्‍ठ नगर था ॥131॥

इन्‍द्रके समान ज्‍वलनजटी नाम का विद्याधर उसका पालन करता था । वह ज्‍वलनजटी, कुल परम्‍परासे आई हुई, सिद्ध की हुई तथा किसीसे प्राप्‍त‍ हुई इन तीन विद्याओंसे विभूषित था ॥132॥

उसने अपने प्रतापसे दक्षिण श्रेणीके समस्‍त विद्याधर राजाओं को वश कर लिया था इसलिए उनके नम्रीभूत मुकुटोंकी मालाओंसे उसके चरणकमल सदा सुशोभित रहते थे ॥133॥

उसकी रानीका नाम वायुवेगा था जो कि द्युतिलक नगर के राजा विद्याधर और सुभद्रा नामक रानीकी पुत्री थी ॥134॥

उन दोनोंके अपने प्रतापसे सूर्य को जीतनेवाला अर्ककीर्ति नाम का पुत्र हुआ था और स्‍वयंप्रभा नाम की पुत्री हुई थी जो कि अपनी कान्ति से महामणिके समान सुशोभित थी ॥135॥

उस स्‍वयंप्रभाके शरीर में शिरसे लेकर पैर तक स्त्रियों के समस्‍त सुलक्षण विद्यमान थे जो कि उसके शरीर में व्‍याप्‍त होकर उदाहरणताको प्राप्‍त हो रहे थे ॥136॥

आभूषणोंको भी सुशोभित करनेवाले यौवनको पाकर उस स्‍वयंप्रभाने अपने आपके द्वारा, विधाता को स्त्रियोंकी रचना करने के कार्य में कृतकृत्‍य बना दिया था ॥137॥

उसे पूर्ण सुन्‍दरी तथा कामको निकट बुलानेवाली देख पिता ज्‍वलनजटी विचार करने लगा कि यह किसे देनी चाहिये ? किसके देनेके योग्‍य है ? ॥138॥

उसी समय उसने संभिन्‍नश्रोता नामक पुरोहितको बुलाकर उससे वह प्रयोजन पूछा । वह पुरोहित निमित्‍तशास्‍त्रमें बहुत ही कुशल था इसलिए कहने लगा कि यह स्‍वयंप्रभा पहले नारायणकी महादेवी होगी और आप भी उसके द्वारा दिये हुए विद्याधरोंके चक्रवर्ती पदको प्राप्‍त होंगे ॥139–140॥

उसके इस प्रकार विश्‍वास करने योग्‍य वचन चित्‍तमें धारणकर उसने पवित्र ह्णदयवाले, शास्‍त्रोंके जानकार और राजभक्‍त इन्‍द्र नामक मन्‍त्रीको लेख तथा भेंद देकर पोदनपुरकी ओर भेजा । वह शीघ्रता से जाकर पोदनपुर जा पहुँचा । उस समय पोदनपुरके राजा पुष्‍पकरण्‍डक नामक वन में विराजमान थे । मन्‍त्री ने उन्‍हें देखकर प्रणाम किया, पत्र दिया, भेंट समर्पित की और वह यथास्‍थान बैठ गया ॥141–143॥

राजा प्रजापतिने मुहर देखकर पत्र खोला और भीतर रखा हुआ पत्र निकालकर बाँचा । उसमें लिखा था कि सन्धि विग्रहमें नियुक्‍त, विद्याधरोंका स्‍वामी, अपने लोकका शिखामणि, अपनी प्रजाको प्रसन्‍न रखनेवाला, महाराज नमिके वंशरूपी आकाशका सूर्य, श्रीमान्, प्रसिद्ध राजा ज्‍वलनजटी रथनूपुर नगरसे, पोदनपुर नगर के स्‍वामी, भगवान् ऋषभदेव के पुत्र बाहुवलीके वंश में उत्‍पन्‍न हुए महाराज प्रजापति को शिरसे नमस्‍कार कर बड़े स्‍नेहसे कुशल प्रश्‍न पूछता हुआ बड़ी विनयके साथ इस प्रकार निवेदन करता है कि हमारा और आपका वैवाहिक सम्‍बन्‍ध आजका नहीं है क्‍योंकि हम दोनोंकी वंश – परम्‍परा से वह चला आ रहा है । हम दोनोंके विशुद्धवंश सूर्य और चन्‍द्रमा के समान पहलेसे ही अत्‍यन्‍त प्रसिद्ध हैं अत: इस कार्य में आज दोनों वंशोके गुण – दोषकी परीक्षा करना भी आवश्‍यक नहीं है । हे पूज्‍य ! मेरी पुत्री स्‍वयंप्रभा, जो कि तीन खण्‍डमें उत्‍पन्‍न हुई लक्ष्‍मी के समान है वह मेरे भानेज त्रिपृष्‍ठकी स्‍त्री हो और अपने गुणों के द्वारा अपने आपमें इसकी बड़ी प्रीतिको बढ़ानेवाली हो ॥144–151॥

प्रजापति महाराजने भाईका यह कथन सुन, मन्‍त्रीको यह कहकर सन्‍तुष्‍ट किया, कि जो बात ज्‍वलनजटीको इष्‍ट है वह मुझे भी इष्‍ट है ॥152॥

प्रजापति महाराजने बड़े आदर – सत्‍कारके साथ मन्‍त्रीको बिदा किया और उसने भी शीघ्र ही जाकर सब समाचार अपने स्‍वामीसे निवेदन कर दिये ॥153॥

ज्‍वलनजटी अर्ककीर्तिके साथ शीघ्र ही आया और स्‍वयंप्रभा को लाकर उसने बड़े वैभवके साथ उसे त्रिपृष्‍ठके लिए सौंप दी – विवाह दी ॥154॥

इसके साथ – साथ ज्‍वलनजटीने त्रिपृष्‍ठके लिए यथोक्‍तविधिसे, जिनकी शक्ति प्रसिद्ध है तथा जो सिद्ध है ऐसी सिंहवाहिनी और गरूड़वाहिनी नाम की दो विद्याएँ भी दीं ॥155॥

इधर अश्‍वग्रीवने अपने गुप्‍तचरोंके द्वारा जब यह बात सुनीतो उसका ह्णदय क्रोधाग्निसे जलने लगा । वह युद्ध करने की इच्‍छासे, तीन प्रकारकी विद्याओंसे सम्‍पन्‍न विद्याधर राजाओं, शत्रु के सन्‍मुख चढ़ाई करनेवाले मार्ग कुशल एवं अनेक अस्‍त्र – शस्‍त्रोंसे सुसज्जित योद्धाओंसे आवृत होकर रथावर्त नामक पर्वतपर आ पहुँचा ॥156–157॥

अश्‍वग्रीवकी चढ़ाई सुनकर शत्रुओं के लिए अत्‍यन्‍त कठोर त्रिपृष्‍ठकुमार भी अपनी चतुरंग सेना के साथ पहलेसे ही आकर वहाँ आ डटा ॥158॥

जो युद्धके लिए तैयार हैं, अतिशय उद्धत हैं, स्‍वयं तथा अपने साथी अन्‍य धनुषधारियोंके साथ बाणवर्षाकर जिन्‍होंने सूर्य को ढक लिया है और जो यथोक्‍त व्‍यूहकी रचना करनेवाले, पैदल सिपाहियों से घिरे हुए घोडों, रथों तथा हाथियों से महाबलवान् हैं ऐसे वे दोनों योद्धा क्रूद्ध होकर परस्‍पर युद्ध करने लगे ॥159–160॥

जिस प्रकार सिंह हाथीको भगा देता है, वज्र महापर्वतको गिरा देता है और सूर्य अन्‍धकार को नष्‍ट कर देता है उसी प्रकार त्रिपृष्‍ठने अश्‍वग्रीवको पराजित कर दिया ॥161॥

जब अश्‍वग्रीव मायायुद्धमें भी पराजित हो गया तब उसने लज्जित होकर त्रिपृष्‍ठके ऊपर कठोर चक्र चला दिया परन्‍तु वह चक्र प्रदक्षिणा देकर शीघ्र ही उसकी दाहिनी भुजा पर आ‍कर स्थिर हो गया । त्रिपृष्‍ठने भी उसे लेकर क्रोधवश शत्रुपर चला दिया ॥162–163॥

उसने जाते ही अश्‍वग्रीवकी ग्रीवाके दो टुकडे कर दिये । त्रिखण्‍डका अधिपति होनेसे त्रिपृष्‍ठको अर्धचक्रवर्तीका पद मिला ॥164॥

युद्धमें प्राप्‍त हुई विजयके समान विजय नाम के भाईके साथ चक्रवर्ती त्रिपृष्‍ठ, विजयार्ध पर्वतपर गया और वहाँ उसने रथनूपुर नगर के राजा ज्‍वलनजटीको दोनों श्रेणियोंका चक्रवर्ती बना दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि स्‍वामी के क्रोध और प्रसन्‍न होनेका फल यहाँ ही प्रकट हो जाता है ॥165–166॥

उस त्रिपृष्‍ठने चिरकाल तक राज्‍यलक्ष्‍मी का उपयोग किया परन्‍तु तृप्‍त न होने के कारण उसे भोगोंकी आकांक्षा बनी रही । फलस्‍वरूप बहुत आरम्‍भ और बहुत परिग्रहका धारक होनेसे वह मरकर सातवें नरक गया ॥167॥

वह वहाँ परस्‍पर किये हुए दु:खको तथा पृथिवी सम्‍बन्‍धी दु:खको चिरकाल तक भोगता रहा । अन्‍त में उस दुस्‍तर नरकसे निकलकर वह तीव्र पाप के कारण इसी जम्‍बूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगानदी के तट के समीपवर्ती वन में सिंहगिरि पर्वतपर सिंह हुआ । वहाँ भी उसने तीव्र पाप किया अत: जिसमें अग्नि जल रही है ऐसी रत्‍नप्रभा नाम की पृथिवीमें गया । वहाँ एक सागर तक भयंकर दु:ख भोगता रहा । तदनन्‍तर वहाँसे च्‍युत होकर इसी जम्‍बूद्वीप में सिन्धुकूटकी पूर्व दिशामें हिमवत् पर्वत की शिखरपर देदीप्‍यमान बालोंसे सुशोभित सिंह हुआ ॥168–171॥

जिसका मुख पैनी दांढ़ोंसे भयंकर है ऐसा भय उत्‍पन्‍न करनेवाला वह सिंह किसी समय किसी एक हरिणको पकड़कर खा रहा था । उसी समय अतिशय दयालु अजितंजयनामक चारण मुनि, अमितगुण नामक मुनिराज के साथ आकाश में जा रहे थे । उन्‍होंने उस सिंहको देखा, देखते ही वे ती‍र्थंकरके वचनों का स्‍मरण कर दयावश आकाशमार्गसे उतर कर उस सिंह के पास पहुँचे और शिलातलपर बैठकर जोर – जोरसे धर्ममय वचन कहने लगे । उन्‍होंने कहा कि हे भव्‍य मृगराज ! तूने पहले त्रिपृष्‍ठ के भवमें पाँचों इन्द्रियों के श्रेष्‍ठ विषयोंका अनुभव किया है । तूने कोमल शय्यातलपर मनोभिलाषित स्त्रियों के साथ चिरकाल तक मनचाहा सुख स्‍वच्‍छन्‍दता पूर्वक भोगा है ॥172–176॥

रसना इन्द्रियको तृप्‍त करनेवाले, सब रसों से परिपूर्ण तथा अमृतरसायनके साथ स्‍पर्धा करनेवाले दिव्‍य भोजनका उपभोग तूने किया है ॥177॥

उसी त्रिपृष्‍ठके भवमें तूने सुगन्धित धूपके अनुलेपनोंसे, मालाओंसे, चूर्णोंसे तथा अन्‍य सुवासोंसे चिरकाल तक अपनी नाकके दोनों पुट संतुष्‍ट किये हैं ॥178॥

रस और भावसे युक्‍त, विविध करणों से संगत, स्त्रियों के द्वारा किया हुआ अनेक प्रकार का नृत्‍य भी देखा है ॥179॥

इसी प्रकार जिसके शुद्ध तथा देशज भेद हैं, और जो चेतन – अचेतन एवं दोनोंसे उत्‍पन्‍न होते हैं ऐसे षड्ज आदि सात स्‍वर तूने अपने दोनों कानों में भरे हैं ॥180॥

तीन खण्‍ड़से सुशोभित क्षेत्र में जो कुछ उत्‍पन्‍न हुआ है वह सब मेरा ही है इस अभिमानसे उत्‍पन्‍न हुए मानसिक सुख का भी तूने चिरकाल तक अनुभव किया है ॥181॥

इस प्रकार विषयसम्‍बन्‍धी सुख भोगकर भी संतुष्‍ट नहीं हो सका और सम्‍यग्‍दर्शन त‍था पाँच व्रतों से रहित होने के कारण सप्‍तम नरकमें प्रविष्‍ट हुआ ॥182॥

वहाँ खौलते हुए जलसे भरी वैतरणी नामक भयंकर नदीमें तुझे पापी नारकियोंने घुसाया और तुझे जबर्दस्‍ती स्‍नान करना पड़ा ॥183॥

कभी उन नार‍कियोंने तुझे जिसपर जलती हुई ज्‍वालाओंसे भयंकर उछल – उछलकर बड़ी – बड़ी गोल चट्टानें पड़ रही थीं ऐसे पर्वतपर दौड़ाया और तेरा समस्‍त शरीर टांकीसे छिन्‍न – भिन्‍न हो गया ॥184॥

कभी भाड़की बालूकी गर्मीसे तेरे आठों अंग जल जाते थे और कभी जलती हुई चितामें गिरा देने से तेरा समस्‍त शरीर जलकर राख हो जाता था ॥185॥

अत्‍यन्‍त प्रचण्‍ड और तपाये हुए लोहेके घनोंकी चोटसे कभी तेरा चूर्ण किया जाता था तो कभी तलवार – जैसे पत्‍तोंसे आच्‍छादित वन में बार – बार घुमाया जाता था ॥186॥

अनेक प्रकार के पक्षी वनपशु और काल के समान कुत्‍तोंके द्वारा तू दु:खी किया जाता था तथा परस्‍परकी मारकाट एवं ताडनाके द्वारा तुझे पीडित किया जाता था ॥187॥

दुष्‍ट आशयवाले नारकी तुझे बड़ी निर्दयताके साथ अनेक प्रकार के बन्‍धनोंसे बाँधते थे और कान ओठ तथा नाक आदि काटकर तुझे बहुत दु:खी करते थे ॥188॥

पापी नारकी तुझे कभी अनेक प्रकार के तीक्ष्‍ण शूलोंपर चढ़ा देते थे । इस तरह तूने परवश होकर वहाँ चिरकाल तक बहुत प्रकार के दु:ख भोगे ॥189॥

वहाँ तूने प्रलाप आक्रन्‍द तथा रोना आदिके शब्‍दोंसे व्‍यर्थ ही दिशाओं को व्‍याप्‍त कर बड़ी दीनतासे शरणकी प्रार्थना की परन्‍तू तुझे कहीं भी शरण नहीं मिली जिससे अत्‍यन्‍त दु:खी हुआ ॥190॥

अपनी आयु समाप्‍त होने पर तू वहाँसे निकलकर सिंह हुआ और वहाँ भी भूख – प्‍यास वायु गर्मी वर्षा आदि की बाधासे अत्‍यन्‍त दु:खी हुआ । वहाँ तू प्राणिहिंसाकर मांसका आहार करता था इसलिए क्रूरताके कारण पाप का संचयकर पहले नरक गया ॥191–192॥

वहाँसे निकलकर तू फिर सिंह हुआ है और इस तरह क्रूरता कर महान् पाप का अर्जन करता हुआ दु:खके लिए फिर उत्‍साह कर रहा है ॥193॥

अरे पापी ! तेरा अज्ञान बहुत बढ़ा हुआ है उसीके प्रभाव से तू तत्‍वको नहीं जानता है । इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर उस सिंहको शीघ्र ही जातिस्‍मरण हो गया । संसार के भंयकर दु:खोंसे उत्‍पन्‍न हुए भय से उसका समस्‍त शरीर काँपने लगा तथा आँखोंसे आँसू गिरने लगे ॥194–195॥

सिंहकी आँखोंसे बहुत देर तक अश्रुरूपी जल गिरता रहा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो ह्णदय में सम्‍यक्‍त्‍यके लिए स्‍थान देनेकी इच्छा से मिथ्‍यात्‍व ही बाहर निकल रहा था ॥196॥

जिन्‍हें पूर्व जन्‍मका स्‍मरण हो गया है ऐसे निकटभव्‍य जीवों को पश्‍चात्‍तापसे जो शोक होता है वह शोक संसार में किसीको नहीं होता ॥197॥

मुनिराजने देखा कि इस सिंहका अन्‍त:करण शान्‍त हो गया है और मेरी ही ओर देख रहा है इससे जान पड़ता है कि यह इस समय अवश्‍य ही अपना हित ग्रहण करेगा, ऐसा विचार कर मुनिराज फिर कहने लगे कि तू पहले पुरूरवा भील था फिर धर्म सेवन कर सौधर्म स्‍वर्ग में देव हुआ । वहाँसे चयकर इसी भरतक्षेत्र में अत्‍यन्‍त दुर्मति मरीचि हुआ ॥198–199॥

उस पर्यायमें तूने सन्‍मार्गको दूषित कर कुमार्गकी वृद्धि की । श्री ऋषभदेव तीर्थंकरके वचनों का अनादर कर तू संसार में भ्रमण करता रहा । पापोंका संचय करनेसे जन्‍म, जरा और मरणके दु:ख भोगता रहा तथा बड़े भारी पापकर्म के उदय से प्राप्‍त होनेवाले इष्‍ट – वियोग तथा अनिष्‍ट संयोगका तीव्र दु:ख चिरकाल तक भोगकर तूने त्रस स्‍थावर योनियोंमें असंख्‍यात वर्ष तक भ्रमण किया ॥200–202॥

किसी कारणसे विश्‍वनन्‍दीकी पर्याय पाकर तूने संयम धारण किया तथा निदान कर त्रिपृष्‍ठ नारायणका पद प्राप्‍त किया ॥203॥

अब इस भव से तू दशवें भवमें अन्तिम तीर्थंकर होगा । यह सब मैंने श्रीधर तीर्थंकरसे सुना है ॥204॥

हे बुद्धिमान ! अब तू आज से लेकर संसाररूपी अटवीमें गिरानेवाले मिथ्‍यामार्गसे विरत हो और आत्‍मा का हित करनेवाले मार्ग में रमण कर – उसीमें लीन रह ॥205॥

यदि आत्‍मकल्‍याणकी तेरी इच्‍छा है और लोक के अग्रभाग पर तू स्थिर रहना चाहता है तो आप्‍त आगम और पदार्थों की श्रद्धा धारण कर ॥206॥

इस प्रकार उस सिंहने मुनिराज के वचन ह्णदय में धारण किये तथा उन दोनों मुनिराजोंकी भक्ति के भार से नम्र होकर बार – बार प्रदक्षिणाएँ दीं, बार – बार प्रणाम किया, काल आदि लब्‍धियोंके मिल जाने से शीघ्र ही तत्‍वश्रद्धान धारण किया और मन स्थिर कर श्रावक के व्रत ग्रहण किये ॥207–208॥

मुनिराज के वचनों से क्रूरता दूरकर दयाने सिंह के मन में प्रवेश किया सो ठीक ही है क्‍योंकि काल का बल प्राप्‍त किये विना ऐसा कौन है जो शत्रु को दूर हटा सकता है ? ॥209॥

मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हानेसे उस सिंहका रौद्र रस स्थिर हो गया और उसने नटकी भाँति शीघ्र ही शान्‍तरस धारण कर लिया ॥210॥

निराहार रहनेके सिवाय उस सिंहने और कोई सामान्‍य व्रत धारण नहीं किया क्‍योंकि मांसके सिवाय उसका और आहार नहीं था । आचार्य कहते हैं कि इससे बढ़कर और साहस क्‍या हो सकता है ? ॥211॥

प्राण नष्‍ट होने पर भी चूँकि उसने अपने व्रतका अखण्‍ड रूप से पालन किया था इससे जान पड़ता था कि उसकी शूरवीरता सफल हुई थी और उसकी वह पुरानी शूरता उसीका घात करनेवाली हुई थी ॥212॥

तमस्‍तम:प्रभा नामक सातवें नरक के नारकी उपशम सम्‍यग्‍दर्शन को स्‍वभावसे ही ग्रहण कर लेते हैं इसलिए सिंह के सम्‍यग्‍दर्शन ग्रहण करने में आश्‍चर्य नहीं है ॥213॥

परमपदकी इच्‍छा करनेवाला वह धीरवीर, सब दुराचारोंको छोड़कर सब सदाचारोंके सन्‍मुख होता हुआ चिरकाल तक निराहार रहा ॥214॥

तिर्यंचोंके संयमासंयमके आगेके व्रत नहीं होते ऐसा आगममें कहा गया है इसी लिए वह रूक गया था अन्‍यथा अवश्‍य ही मोक्ष प्राप्‍त करता’ वह इस कहावतका विषय हो रहा था ॥215॥

जिस प्रकार अग्निमें तपाया हुआ सुवर्ण शीतल जलमें डालनेसे ठंडा हो जाता है उसी प्रकार क्रूरता से बढ़ी हुई उसकी शूरवीरता उस समय बिल्‍कुल नष्‍ट हो गई थी ॥216॥

दयाको धारण करनेवाले उस सिंहमें मृगारि शब्‍दने अपनी सार्थकता छोड़ दी थी अर्थात् अब वह मृगोंका शत्रु नहीं रहा था सो ठीक ही है क्‍योंकि आश्रित रहनेवाले मनुष्‍योंका स्‍वभाव प्राय: स्‍वामी के समान ही हो जाता है ॥217॥

वह सिंह सब जीवों के लिए केवल शरीरसे ही चित्रलिखितके समान नहीं जान पड़ता था किन्‍तु चित्‍तसे भी वह इतना शान्‍त हो चुका था कि उससे किसीको भी भय उत्‍पन्‍न नहीं होता था सो ठीक ही है क्‍योंकि दयाका माहात्‍म्‍य ही ऐसा है ॥218॥

इस प्रकार व्रत सहित संन्‍यास धारण कर वह एकाग्र चित्‍तसे मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्‍वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हुआ ॥219॥

वहाँ उसने दो सागर की आयु तक देवों के सुख भोगे । तदनन्‍तर वहाँसे चयकर वह, घातकीखण्‍ड द्वीप के पूर्व मेरूसे पूर्व की ओर जो विदेह क्षेत्र है उसके मंगलावती देशके विजयार्ध पर्वत की उत्‍तर श्रेणीमें अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ कनकप्रभ नगर के राजा कनकपुंख विद्याधर और कनकमाला रानी के कनकोज्‍जल नाम का पुत्र हुआ ॥220–222॥

किसी एक दिन वह अपनी कनकवती नामक स्‍त्रीके साथ क्रीडा करने के लिए मन्‍दगिरी पर गया था वहाँ उसने प्रियमित्र नामक अवधिज्ञानी मुनिके दर्शन किये ॥223॥

उस चतुर विद्याधरने भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा देकर उन मुनिराजको नमस्‍कार किया और ‘हे पूज्‍य ! धर्म का स्‍वरूप कहिये’ इस प्रकार उनसे पूछा ॥224॥

उत्‍तरमें मुनिराज कहने लगे कि धर्म दयामय है, तू धर्म का आश्रय कर, धर्मके द्वारा तू मोक्ष के निकट पहुंच रहा है, धर्मके द्वारा कर्म का बन्‍धन छेद धर्मके लिए सद्बुद्धि दे, धर्म से पीछे नहीं हट, धर्म की दासता स्‍वीकृत कर, धर्म में स्थिर रह और ‘हे धर्म मेरी रक्षाकर’ सदा इस प्रकारकी चिन्‍ता कर ॥225–226॥

इस प्रकार धर्म का निश्‍चय कर उसके कर्ता करण आदि भेदोंका निरन्‍तर चिन्‍तवन किया कर । ऐसा करनेसे तू कुछ ही समयमें मोक्षको प्राप्‍त हो जावेगा ॥227॥

इस तरह मुनिराजने कहा । मुनिराज के वचन ह्णदय में धारण कर और उनसे धर्मरूपी रसायनका पानकर वह ऐसा सन्‍तुष्‍ट हुआ जैसा कि प्‍यासा मनुष्‍य जल पाकर संतुष्‍ट होता है ॥228॥

उसने उसी समय भोगों से विरक्‍त होकर समस्‍त परिग्रहका त्‍याग कर दिया और चिर काल तक संयम धारणकर अन्‍त में सन्‍यास मरण किया जिसके प्रभाव से वह सातवें स्‍वर्ग में देव हुआ ॥229॥

वहाँ तेरह सागर की आयु प्रमाण उसने वहाँके सुख भोगे और सुख से काल व्यतीतकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़े । वहाँ से च्‍युत होकर वह इसी जम्‍बूद्वीप के कोसल देश सम्‍बन्‍धी साकेत नगर के स्‍वामी राजा वज्रसेनकी शीलवती रानीसे अपने स्‍वाभाविक गुणों के द्वारा सबको हर्षित करने वाला हरिषेण नाम का पुत्र हुआ । उसने कुलवधूके समान राज्‍यलक्ष्‍मी अपने वश कर ली ॥230–232॥

अन्‍त में उसने सारहीन माला के समान वह समस्‍त लक्ष्‍मी छोड़ दी और उत्‍तम व्रत तथा उत्‍तम शास्‍त्र – ज्ञान से सुशोभित श्रीश्रुतसागर नाम के सद्गुरूके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥233॥

जिसके व्रत निरन्‍तर बढ़ रहे हैं ऐसा हरिषेण आयु का अन्‍त होने पर महाशुक्र स्‍वर्ग में देव उत्‍पन्‍न हुआ । वहाँ वह सोलह सागर की आयु प्रमाण उत्‍तम सुख भोगता रहा ॥234॥

जिस प्रकार उदित हुआ सूर्य अस्‍त हो जाता है उसी प्रकार वह देव भी अन्‍तकालको प्राप्‍त हुआ और वहाँसे चलकर घातकीखण्‍डद्वीपकी पूर्व दिशा सम्‍बन्‍धी विदेह क्षेत्रके पूर्वभाग में स्थित पुष्‍कलावती देश की पुण्‍डरीकिणी नगरी में राजा सुमित्र और उनकी मनोरमा नाम की रानी के प्रियमित्र नाम का पुत्र हुआ । वह पुत्र नीतिरूपी आभूषणोंसे विभूषित था, उसने अपने नाम से ही समस्‍त शत्रुओं को नम्रीभूत कर दिया था, तथा चक्रवर्तीका पद प्राप्‍तकर समस्‍त प्रकार के भोगों का उपभोग किया था । अन्‍त में वह क्षेमंकर नामक जिनेन्‍द्र भगवान् के मुखारबिन्‍दसे प्रकट हुए, तत्‍वों से भरे हुए और गम्‍भीर अर्थको सूचित करने वाले वाक्‍योंसे सब पदार्थों के समागमको भंगुर मानकर विरक्‍त हो गया तथा सर्वमित्र नामक अपने पुत्र के लिए राज्‍य का भार देकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गया । पाँच समितियों और तीन गुप्तियों रूप आठ प्रवचन मातृकाओं के साथ – साथ अहिंसा महाव्रत आदि पाँच महाव्रत उन मुनिराजमें पूर्ण प्रतिष्‍ठाको प्राप्‍त हुए थे ॥235–240॥

आयु का अन्‍त होने पर वे सहस्‍त्रार स्‍वर्ग में जाकर सूर्यप्रभ नाम के देव हुए । वहाँ उनकी आयु अठारह सागर प्रमाण थी, अनेक ऋद्धियाँ बढ़ रही थीं और वे सब प्रकार के भोगों का उपभोग कर चुके थे ॥241॥

जिस प्रकार मेघसे एक विशेष प्रकारकी बिजली निकल पड़ती है उसी प्रकार वह देव उस स्‍वर्गसे च्‍युत हुआ और इसी जम्‍बूद्वीप के छत्रपुर नगर के राजा नन्दिवर्धन तथा उनकी वीरवती नाम की रानीसे नन्‍दनाम का सज्‍जन पुत्र हुआ । इष्‍ट अनुष्‍ठानको पूरा कर अर्थात् अभिलषित राज्‍य का उपभोग कर वह प्रोष्ठिल नाम के श्रेष्‍ठ गुरूके पास पहुँचा । वहाँ उसने धर्म का स्‍वरूप सुनकर आप्‍त, आगम और पदार्थ का निर्णय किया; संयम धारण कर लिया और शीघ्र ही ग्‍यारह अंगोंका ज्ञान प्राप्‍त कर लिया ॥242–244॥

उसने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्‍ध होनेमें कारण भूत और संसार को नष्‍ट करने वाली दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओं का चिन्‍तवनकर उच्‍चगोत्रके साथ – साथ तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍ध किया ॥245॥

आयु के अन्‍त समय सब प्रकारकी आराधनाओं को प्राप्‍तकर वह अच्‍युत स्‍वर्गके पुष्‍पोत्‍तर विमान में श्रेष्‍ठ इन्‍द्र हुआ ॥246॥

वहाँ उसकी बाईस सागर प्रमाण आयु थी, तीन हाथ ऊंचा शरीर था, द्रव्‍य और भाव दोनों ही शुल्‍क लेश्‍याएं थीं, बाईस पक्षमें एक बार श्‍वास लेता था, बाईस हजार वर्षमें एक बार मानसिक अमृत का आहार लेता था, सदा मानसिक प्रवीचार करता था और श्रेष्‍ठ भोगों से सदा तृप्‍त रहता था ॥247–248॥

उसका अवधिज्ञान रूपी दिव्‍य नेत्र छठवीं पृथिवी तककी बात जानता था और उसके बल, कान्ति तथा विक्रियाकी अवधि भी अवधिज्ञान के क्षेत्रके बराबर ही थी ॥249॥

सामानिक देव और देवियों से घिरा हुआ वह इन्‍द्र अपने पुण्‍य कर्म के विशेष उदय से सुख रूपी सागरमें सदा निमग्‍न रहता था ॥250॥

जब उसकी आयु छह माहकी बाकी रह गई और वह स्‍वर्गसे आनेको उद्यत हुआ तब इसी भरत क्षेत्रके विदेह नामक देशसम्‍बन्‍धी कुण्‍डपुर नगर के राजा सिद्धार्थके भवनके आंगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्‍नों की बड़ी मोटी धारा बरसने लगी ॥251–252॥

आषाढ़ शुल्‍क षष्‍ठी के दिन जब कि चन्‍द्रमा उत्‍तराषाढ़ा नक्षत्र में था तब राजा सिद्धार्थकी प्रसन्‍नबुद्धि वाली रानी प्रियकारिणी, सातखण्‍ड वाले राजमहलके भीतर रत्‍नमय दीपकों से प्रकाशित नन्‍द्यावर्त नामक राजभवन में हंस – तूलिका आदिसे सुशोभित रत्‍नोंके पलंगपर सो रही थी । जब उस रात्रिके रौद्र, राक्षस और गन्‍धर्व नाम के तीन पहर निकल चुके और मनोहर नामक चौथे पहरका अन्‍त होनेको आया तब उसने कुछ खुली – सी नींदमें सोलह स्‍वप्‍न देखे । सोलह स्‍वप्‍नोंके बाद ही उसने मुख में प्रवेश करता हुआ एक अन्‍य हाथी देखा । तदनन्‍तर सबेरेके समय बजने वाले नगाडोंकी आवाजसे तथा चारण और मागधजनों के द्वारा पढ़े हुए मंगलपाठोंसे वह जाग उठी और शीघ्र ही स्‍नान कर पवित्र वस्‍त्राभूषण पहन महाराज सिद्धार्थके समीप गई । वहाँ नमस्‍कार कर वह महाराज के द्वारा दिये हुए अर्धासनपर विराजमान हुई और यथा-क्रम से स्‍वप्‍न सुनाने लगी । महाराजने भी उसे यथा-क्रम से स्‍वप्‍नों का होनहार फल बतलाया ॥253–259॥

स्‍वप्‍नों का फल सुनकर वह इतनी संतुष्‍ट हुई मानो उसने उनका फल उसी समय प्राप्‍त ही कर लिया हो । तदनन्‍तर सब देवों ने आकर बड़े वैभवके साथ राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीका गर्भकल्‍याणक सम्‍बन्‍धी अभिषेक किया, देव और देवियोंको यथायोग्‍य कार्योंमें नियुक्‍त किया और यह सब करने के बाद वे अलग – अलग अपने – अपने स्‍थानों पर चले गये ॥260–261॥

तदनन्‍तर नौवाँ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुल्‍क त्रयोदशीके दिन अर्यता नाम के शुभ योगमें, जिस प्रकार पूर्व दिशामें बाल सूर्य उत्‍पन्‍न होता है, रात्रिमें चन्‍द्रमा उत्‍पन्‍न होता है, पद्म नामक ह्णदमें गंगाका प्रवाह उत्‍पन्‍न होता है, पृथिवीमें धनका समूह प्रकट होता है, सरस्‍वतीमें शब्‍दोंका समूह उत्‍पन्‍न होता है, और लक्ष्‍मीमें सुख का उदय उत्‍पन्‍न होता है उसी प्रकार उस रानीमें वह अच्‍युतेन्‍द्र नाम का पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ । वह पुत्र अपने कुलका आभूषण था, शीलका बड़ा भारी घर था, गुणरूपी रत्‍नों की खान था, प्रसिद्ध लक्ष्‍मी का आधार था, भाईरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य था, तीनों लोकों का नायक था, मोक्ष का सुख देनेवाला था, समस्‍त प्राणियोंकी रक्षा कानेवाला था, सूर्य के समान कान्तिवाला था, संसार को नष्‍ट करनेवाला था, कर्मरूपी शत्रु के मर्मको भेदन करनेवाला था, धर्मरूपी तीर्थका भार धारण करनेवाला था, निर्मल था, सुख का सागर था, और लोक तथा अलोकको प्रकाशित करने के लिए एक सूर्य के समान था ॥262–267॥

रानी प्रियकारिणीने उस बालक को जन्‍म देकर मनुष्‍यों, देवों और तिर्यंचोंको बहुत भारी प्रेम उत्‍पन्‍न किया था इसलिए उसका प्रियकारिणी नाम सार्थक हुआ था ॥268॥

उस समय सबके मुख – कमलोंने अकस्‍मात् ही शोभा धारण की थी और आकाश से आनन्‍दके आँसुओं के समान फूलों की वर्षा हुई थी ॥269॥

उस समय नगाड़ोंका समूह शब्‍द कर रहा था, स्त्रियोंका समूह नृत्‍य कर रहा था, गानेवालों का समूह गा रहा था और बन्‍दीजनोंका समूह मंगल पाठ पढ़ रहा था ॥270॥

सब देव लोग अपने – अपने निवासस्‍थानको ऊजड़ बनाकर नीचे उतर आये थे । तदनन्‍तर, सौधर्मेन्‍द्रने मायामय बालक को माताके सामने रखकर सूर्य के समान देदीप्‍यमान उस बालक को ऐरावत हाथी के कन्‍धेपर विराजमान किया । बालकके तेज से दशों दिशाओं को प्रकाशित करता और देवों से घिरा हुआ वह इन्‍द्र सुमेरू पर्वतपर पहुँचा । वहाँ उसने जिनबालक को पाण्‍डुकशिलापर विद्यमान सिंहासनपर विराजमान किया और क्षीरसागरके जलसे भरे हुए देदीप्‍यमान कलशोंसे उनका अभिषेककर निम्‍न प्रकार स्‍तुति की । वह कहने लगा कि हे भगवान् ! आपकी आत्‍मा अत्‍यन्‍त निर्मल है, तथा आपका यह शरीर विशुद्ध पुद्गल परमाणुओंसे बना हुआ है इसलिए स्‍वयं अपवित्र निन्‍दनीय जलके द्वारा इनकी शुद्धि कैसे हो सकती है ? हम लोगोंने जो अभिषेक किया है वह आपके तीर्थंकर नाम-कर्म के द्वारा प्रेरित होकर ही किया है अथवा यह एक आम्‍नाय है – तीर्थंकरके जन्‍म के समय होनेवाली एक विशिष्‍ट क्रिया ही है इसीलिए हम लोग आकर आपकी किंकरताको प्राप्‍त हुए हैं ॥271–275॥

अधिक क‍हनेसे क्‍या ? इन्‍द्र ने उन्‍हें भक्तिपूर्वक उत्‍तमोत्‍तम आभूषणोंसे विभूषितकर उनके वीर और श्रीवर्धमान इन प्रकार दो नाम रक्‍खे ॥276॥

तदनन्‍तर सब देवों से घिरे हुए इन्‍द्रने, जिन – बालक को वापिस लाकर माताकी गोदमें विराजमान किया, बड़े उत्‍सव से आनन्‍द नाम का नाटक किया, माता पिताको आभूषण पहिनाये, उत्‍सव मनाया और यह सब कर चुकनेके बाद श्रीवधमान स्‍वामीको नमस्‍कारकर देवों के साथ अपने स्‍थानपर चला गया ॥277–278॥

श्री पार्श्‍वनाथ तीर्थंकरके बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जानेपर श्री महावीर स्‍वामी उत्‍पन्‍न हुए थे उनकी आयु भी इसीमें शामिल है । कुछ कम बहत्‍तर वर्षकी उनकी आयु थी, वे सात हाथ ऊँचे थे, सब लक्षणों से विभूषित थे, पसीना नहीं आना आदि दशगुण उनके जन्‍म से ही थे, वे सात भयों से रहित थे और सब तरहकी चेष्‍टाओंसे सुशोभित थे ॥279–281॥

एक बार संचय और विजय नाम के दो चारणमुनियोंको किसी पदार्थमें संदेह उत्‍पन्‍न हुआ था परन्‍तु भगवान् के जन्‍म के बाद ही वे उनके समीप आये और उनके दर्शन मात्रसे ही उनका संदेह दूर हो गया इस लिए उन्‍होंने बडी भक्ति से कहा था कि यह बालक सन्‍मति तीर्थंकर होनेवाला है, अर्थात् उन्‍होंने उनका सन्‍मति नाम रक्‍खा था ॥282–283॥

गुणोंको कहनेवाले सार्थक शब्‍दोंकी तो बात ही क्‍या थी श्रीवीरनाथको छोड़कर अन्‍यत्र जिनका गुणवाचक अर्थ नहीं होता ऐसे शब्‍द भी श्रीवीरनाथ में प्रयुक्‍त होकर सार्थक हो जाते थे ॥284॥

उन भगवान् के त्‍यागमें यही दोष था कि दोषोंको कहनेवाले शब्‍द जहाँ अन्‍य लोगों के पास जाकर खूब सार्थक हो जाते थे वहां वे ही शब्‍द उन भगवान् के पास आकर दूरसे ही अनर्थक हो जाते थे ॥285॥

उन भगवान् की जैसी प्रीति गुणोंमें थी वैसी न लक्ष्‍मीमें थी और न कीर्ति में ही थी । सो ठीक ही है क्‍योंकि शुभलेश्‍याके धारक पुरूषोंको गुण ही प्‍यारे होते हैं ॥286॥

इन्‍द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन उन भगवान् के समय आयु और इच्‍छा के अनुसार स्‍वर्ग की सारभूत भोगोपभोगकी सब वस्‍तुएँ स्‍वयं लाया करता था और सदा खर्च करवाया करता था । किसी एक दिन इन्‍द्र की सभा में देवोंमें यह चर्चा चल रही थी कि इस समय सबसे अधिक शूरवीर श्रीवर्धमान स्‍वामी ही हैं । यह सुनकर एक संगम नाम का देव उनकी परीक्षा करने के लिए आया ॥287–289॥

आते ही उस देवने देखा कि देदीप्‍यमान आकारके धारक बालक वर्द्धमान, बाल्‍यावस्‍थासे प्रेरित हो, बालकों जैसे केश धारण करनेवाले तथा समान अवस्‍थाके धारक अनेक राजकुमारोंके साथ बगीचामें एक वृक्ष पर चढ़े हुए क्रीड़ा करने में तत्‍पर हैं । यह देख संगम नाम का देव उन्‍हें डरवानेकी इच्छा से किसी बड़े सांपका रूप धारणकर उस वृक्ष की जड़से लेकर स्‍कन्‍ध तक लिपट गया । सब बालक उसे देखकर भय से काँप उठे और शीघ्र ही डालियोंपरसे नीचे जमीनपर कूदकर जिस किसी तरह भाग गये सो ठीक ही है क्‍योंकि महाभय उपस्थित होने पर महापुरूषके सिवाय अन्‍य कोई नहीं ठहर सकता है ॥290–293॥

जो लहलहाती हुई सौ जिह्णाओंसे अत्‍यन्‍त भयंकर दिख रहा था ऐसे उस सर्पपर चढ़कर कुमार महावीरने निर्भय हो उस समय इस प्रकार क्रीड़ा की जिस प्रकार कि माताके पलंगपर किया करते थे ॥294॥

कुमारकी इस क्रीड़ासे जिसका हर्षरूपी सागर उमड़ रहा था ऐसे उस संगम देवने भगवान् की स्‍तुति की और ‘महावीर’ यह नाम रक्‍खा ॥295॥

इस प्रकार तीस वर्षोंमें भगवान् का कुमार काल व्‍यतीत हुआ । तदनन्‍तर दूसरेही दिन मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमविशेषसे उन्‍हें आत्‍मज्ञान प्रकट हो गया और पूर्वभवका स्‍मरण हो उठा । उसी समय स्‍तुति पढ़ते हुए लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी स्‍तु‍ति की ॥296–297॥

समस्‍त देवों के समूहने आकर उनके निष्‍क्रमण कल्‍याणकी क्रिया की, उन्‍होंने अपने मधुर वचनों से बन्‍धुजनोंको प्रसन्‍नकर उनसे विदा ली । तदनन्‍तर व्रतोंको दृढ़तासे पालन करनेवाले वे भगवान् चन्द्रप्रभा नाम की पालकीपर सवार हुए । उस पालकीको सबसे पहले भमिगोचरी राजाओंने, फिर विद्याधर राजाओं ने और फिर इन्‍द्रों ने उठाया था । उनके दोनों ओर चामरोंके समूह ढुल रहे थे । इस प्रकार वे षण्‍ड नाम के उस वन में जा पहुँचे जो ‍कि भ्रमण करते हुए भ्रमरोंके शब्‍दों और कोकिलाओंकी कमनीय कूकसे ऐसा जान पड़ता था मानो बुला ही रहा हो, फूलों के समूह से ऐसा जान पड़ता था मानो हर्ष से हँस ही रहा हो, और लाल – लाल पल्‍लवोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपना अनुराग ही प्रकट कर रहा हो ॥298–301॥

अतिशय श्रेष्‍ठ भगवान् महावीर, षण्‍डवन में पहुँचकर अपनी पालकीसे उतर गये और अपनी ही कान्ति के समूह से घिरी हुई रत्‍नमयी बड़ी शिलापर उत्‍तरकी ओर मुँहकर तेलाका नियम ले विराजमान हो गये । इस तरह मंगसिर वदी दशमीके दिन जब कि निर्मल चन्‍द्रमा हस्‍त और उत्‍तरा फाल्‍गुनी नक्षत्रके मध्‍य में था, तब संध्‍याके समय अतिशय धीर – वीर भगवान् महावीरने संयम धारण किया ॥302–304॥

भगवान् ने जो वस्‍त्र, आभरण तथा माला, आदि उतारकर फेंक दिये थे उन्‍हें इन्‍द्र ने स्‍वयं उठा लिया सो ठीक ही है क्‍योंकि भगवान् का माहात्‍म्‍य ही ऐसा था ॥305॥

उस समय भगवान् के शरीर में जो सुगन्धित अंगराग लगा हुआ था वह सोच रहा था कि मैं इन उत्‍तम भगवान् को कैसे छोड़ दूं ? ऐसा विचारकर ही वह मानो उनके शरीर में स्थिर रहकर शोभा को प्राप्‍त हो रहा था ॥306॥

मलिन और कुटिल पदार्थ अज्ञानी जनों के द्वारा पूज्‍य होते हैं परन्‍तु मुमुक्षु लोग उन्‍हें त्‍याज्‍य समझते हैं ऐसा जानकर ही मानो उन तरूण भगवान् ने मलिन और कुटिल ( काले और घुंघुराले ) केश जड़से उखाड़कर दूर फेंक दिये थे ॥307॥

इन्‍द्र ने वे सब केश अपने हाथसे उठा लिये, मणियोंके देदीप्‍यमान पिटारेमें रखकर उनकी पूजा की, आदर सत्‍कार किया, अनेक प्रकारकी ‍किरण रूपी वस्‍त्रसे उन्‍हें लपेटकर रक्‍खा और फिर देवों के साथ स्‍वयं जाकर उन्‍हें क्षीरसागरमें पधरा दिया ॥308–309॥

मोक्षलक्ष्‍मी की इष्‍ट और चतुर दूतीके समान तपोलक्ष्‍मी ने स्‍वयं आकर उनका आलिंगन किया था ॥310॥

अंतरंग परिग्रहोंका त्‍याग कर देनेसे उनका निर्ग्रन्‍थपना अच्‍छी तरह सुशोभित हो रहा था सो ठीक ही है क्‍योंकि जिस प्रकार साँपका केवल कांचली छोड़ना शोभा नहीं देता उसी प्रकार केवल बाह्य परिग्रह का छोड़ना शोभा नहीं देता ॥311॥

उसी समय संयमने उन भगवान् को केवलज्ञान के वयानेके समान चौथा मन:पर्ययज्ञान भी समर्पित किया था ॥312॥

अप्रमत्‍त गुणस्‍थान में जाकर उन भगवान् ने मोक्षरूपी साम्राज्‍य की कण्‍ठी स्‍वरूप जो तपश्‍चरण प्राप्‍त किया था वह प्रमादी जीव को कहां सुलभ है ? ॥313॥

मन:पर्ययज्ञानरूपी नेत्र को धारण करनेवाले और स्‍वाभाविक बलसे सुशोभित उन भगवान् के पहला सामायिक चरित्र ही था क्‍योंकि दूसरा छेदोपस्‍थापनाचरित्र प्रमादी जीवों के ही होता है ॥314॥

मैंने पहले सिंह पर्यायमें ही वन में मुनिराज के उपदेशसे व्रत धारण किये थे यही समझकर मानो उन्‍होंने सिंह के साथ एकताका ध्‍यान रखते हुए सिंहवृत्ति धारण की थी ॥315॥

यद्यपि उनके सिंह के समान तीक्ष्‍ण नख और तीक्ष्‍ण दांडे नहीं थीं, वे सिंह के समान क्रूर नहीं थे और न सिंह के समान उनकी गरदनपर लाल बाल ही थे फिर भी शूरवीरता, अकेला रहना तथा वन में ही निवास करना इन तीन विशेषताओंसे वे सिंहका अनुसरण करते थे ॥316॥

सब देव, उन भगवान् को नमस्‍कारकर तथा उनके साहसकी स्‍तुति करने में लीन हो संतुष्‍टचित्‍त हो कर अपने – अपने स्‍थानको चले गये ॥317॥

अथानन्‍तर पारणाके दिन वे भट्टारक महावीर स्‍वामी आहारके लिए वन से ‍निकले और विद्याधरोंके नगर के समान सुशोभित कूलग्राम नाम की नगरी में पहुँचे । वहां प्रियंगुके फूलके समान कान्ति वाले कूल नाम के राजा ने भक्ति – भावसे युक्‍त हो उनके दर्शन किये, तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, चरणोंमें शिर झुकाकर नमस्‍कार किया और घर पर आई हुई निधिके समान माना । उत्‍तम व्रतोंको धारण करने वाले उन भगवान् को उस राजा ने श्रेष्‍ठ स्‍थान पर बैठाया, अर्घ आदिके द्वारा उनकी पूजा की, उनके चरणोंके समीपवर्ती भूतलको गन्‍ध आदिकसे विभूषित किया और उन्‍हें मन, वचन, कायकी शुद्धिके साथ इष्‍ट अर्थ को सिद्ध करने वाला परमात्र ( खीरका आहार ) समर्पण किया । यह तो तुम्‍हारे दानका आनुष‍ंगिक फल है परन्‍तु इसका होनहार फल बहुत बड़ा है यही कहने के लिए मानो उसके घर पंचाश्‍चर्योंकी वर्षा हुई ॥318–322॥

तदनन्‍तर शिष्‍योंका पुण्‍य बढ़ाने वाले वे भगवान् एकान्‍त स्‍थानोंमें विधिपूर्वक तप करने की इच्‍छा से उसके घरसे निकले ॥323॥

जो विषयरूपी वृक्षोंसे संकीर्ण है, इन्‍द्रिय रूपी व्‍याधोंसे भरा हुआ है, परीषह रूपी महाभयंकर सब प्रकार के दुष्‍ट जीवोंसे सहित है, कषाय रूपी मदोन्मत्‍त हाथियोंके सैकडों समूह से व्‍याप्‍त है, मुँह फाड़े हुए यमराज रूपी अनन्‍त अजगरोंसे भयंकर है, चार प्रकार के उपसर्ग रूपी दुष्‍ट सिंहोंसे कठोर है, और विघ्‍नोंके समूह रूपी चोरोंसे घिरा हुआ है ऐसे संसार रूपी वनको धीरे – धीरे छोड़कर उन परम पुरूष भगवान् ने, जो सज्‍जनोंके द्वारा सेवन करने योग्‍य है, जिसमें अव्याबाध – बाधारहित सुख भरा हुआ है, जो उत्‍तम मनुष्‍योंसे व्‍याप्‍त है, विस्‍तीर्ण है और सब तरह के उपद्रवोंसे रहित है ऐसे तपोवनमें, महाव्रत रूपी महा सामन्‍तों सहित, उत्‍तम नयोंकी अनुकूलता धारणकर, सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान तथा सम्‍यक्‍चारित्र रूपी प्र‍कट हुई तीन शक्तियों से अत्‍यन्‍त बलवान्, शील रूपी आयुध लेकर, गुणों के समूह का कवच पहिनकर, शुद्धता रूपी मार्गसे चलकर और उत्‍तम भावनाओंकी सहायता लेकर प्रवेश किया ॥324–329॥

वहाँपर नि:शंक रीतिसे रहकर उन्‍होंने अनेक योगोंकी प्रवृत्ति की और एकान्‍त स्‍थान में स्थिर होकर बार – बार दश प्रकार के धर्म्‍यध्‍यानका चिन्‍तवन किया ॥330॥

अथानन्‍तर – किसी एक दिन अतिशय धीर वीर वर्धमान भगवान् उज्‍जयिनीके अतिमुक्‍तक नामक श्‍मशानमें प्रतिमा योगसे विराजमान थे । उन्‍हें देखकर महादेव नामक रूद्रने अपनी दुष्‍टतासे उनके धैर्यकी परीक्षा करनी चाही । उसने रात्रिके समय ऐसे अनेक बड़े – बड़े वेतालों का रूप बनाकर उपसर्ग किया कि जो तीक्ष्‍ण चमड़ा छीलकर एक दूसरेके उदरमें प्रवेश करना चाहते थे, खोले हुए मुंहोंसे अत्‍यन्‍त भयंकर दिखते थे, अनेक लयों से नाच रहे थे तथा कठोर शब्‍दों, अट्टहास और विकराल दृष्टिसे डरा रहे थे । इनके सिवाय उसने सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायुके साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया । इस प्रकार एक पाप का ही अर्जन करने में निपुण उस रूद्रने, अपनी विद्याके प्रभाव से किये हुए अनेक भयंकर उपयर्गोंसे उन्‍हें समाधिसे विचलित करनेका प्रयत्‍न किया परन्‍तु वह उसमें समर्थ नहीं हो सका । अन्‍त में उसने भगवान् के महति और महावीर ऐसे दो नाम रख कर अनेक प्रकारकी स्‍तुति की, पार्वतीके साथ नृत्‍य किया और सब मात्‍सर्यभाव छोड़ कर वह वहाँसे चला गया सो ठीक ही है क्‍योंकि साहसको स्‍पष्‍ट रूप से देखने वाले पापी जीव भी सन्‍तुष्‍ट हो जाते हैं ॥331–337॥

अथानन्‍तर – किसी एक दिन राजा चेटककी चन्‍दना नाम की पुत्री वनक्रीड़ामें आसक्‍त थी, उसे देख कोई विद्याधर कामबाणसे पीडित हुआ और उसे किसी उपाससे लेकर चलता बना । पीछे अपनी स्‍त्रीसे डरकर उसने उस कन्‍याको महाटवीमें छोड़ दिया ॥338–339॥

वहाँ किसी भीलने देख कर उसको धनकी इच्छा से वृषभदत्‍त सेठको दी ॥340॥

उस सेठकी स्‍त्री का नाम सुभद्रा था उसे शंका हो गई कि कहीं अपने सेठका इसके साथ सम्‍बन्‍ध न हो जाय । इस शंकासे वह चन्‍दनाको खानेके लिए मिट्टीके शकोरामें कांजीसे मिला हुआ कोदौंका भात दिया करती थी और क्रोध वश उसे सदा सांकलसे बाँधे रहती थी ॥341–342॥

किसी दूसरे दिन वत्‍स देश की उसी कौशाम्‍बी नगरी में आहारके लिए भगवान् महावीर स्‍वामी गये । उन्‍हें नगरी के भीतर प्रवेश करते देख चन्‍दना उनके सामने जाने लगी । उसी समय उसके सांकलके सब बन्‍धन टूट गये, चंचल भ्रमर समूह के समान काले उसके बड़े – बड़े केश चंचल हो उठे और उनसे मालतीकी माला टूटकर नीचे गिरने लगी, उसके वस्‍त्र आभूषण सुन्‍दर हो गये, वह नव प्रकार के पुण्‍यकी स्‍वामिनी बन गई, भक्तिभावके भार से झुक गई, शीलके माहात्‍म्‍यसे उसका मिट्टीका शकोरा सुवर्णपात्र बन गया और कोदोंका भात शाली चाँवलों का भात हो गया । उस बुद्धिमतीने विधिपूर्वक पड़गाहकर भगवान् को आहार दिया इसलिए उसके यहाँ पंचाश्‍चर्योंकी वर्षा हुई और भाई – बन्‍धुओं के साथ उसका समागम हो गया ॥343–347॥

इधर जगद्बन्‍धु भगवान् वर्धमानने भी छद्मस्‍थ अवस्‍थाके बाहर वर्ष व्‍यतीत किये । किसी एक दिन वे जृम्भिक ग्रामके समीप ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वनके मध्‍य में रत्‍नमयी एक बड़ी शिलापर सालवृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर प्रतिमा योगसे विराजमान हुए । वैशाख शुल्‍का दशमीके दिन अपराह्ण कालमें हस्‍त और उत्‍तरा फाल्‍गुनी नक्षत्रके बीच में चनद्रमाके आ जाने पर परिणामोंकी विशुद्धताको बढ़ाते हुए वे क्षपकश्रेणीपर आरूढ हुए । उसी समय उन्‍होंने शुलकध्‍यान के द्वारा चारों घातिया कर्मों को नष्‍टकर अनन्‍तचतुष्‍टय प्राप्‍त किये और चौंतीस अतिशयों से सुशोभित हो कर वे महिमाके घर हो गये ॥348–352॥

अब वे सयोगकेवली गुणस्‍थान के धारक हो गये, निज और परका प्रयोजन सिद्ध करने लगे, तथा परमौदारिक शरीर को धारण करते हुए आकाशरूपी आंगन में सुशोभित होने लगे ॥353॥

उसी समय सौधर्म स्‍वर्ग का इन्‍द्र चारों प्रकार के देवों के साथ आया और उसने ज्ञानकल्‍याणक सम्‍बन्‍धी पूजा की समस्‍त विधि पूर्ण की ॥354॥

पुण्‍यरूप परमौदारिक शरीर की पूजा तथा समवसरणकी रचना होना आदि अतिशयों से सम्‍पन्‍न श्रीवर्धमान स्‍वामी परमेष्‍ठी कहलाने लगे और परमात्‍मा पदको प्राप्‍त हो गये ॥355॥

तदनन्‍तर इन्‍द्र ने भगवान् की दिव्‍यध्‍वनिका कारण क्‍या होना चाहिये इस बात का विचार किया और अवधिज्ञान से मुझे उसका कारण जानकर वह बहुत ही संतुष्‍ट हुआ ॥356॥

वह उसी समय मेरे गाँवमें आया । मैं वहाँ पर गोतमगोत्रीय इन्‍द्रभूति नाम का उत्‍तम ब्राह्मण था, महाभिमानी था, आदित्‍य नामक विमानसे आकर शेष बचे हुए पुण्‍य के द्वारा वहाँ उत्‍पन्‍न हुआ था, मेरा शरीर अतिशय देदीप्‍यमान था, और मैं वेद – वेदांगका जानने वाला था ॥357–358॥

मुझे देखकर वह इन्‍द्र मुझे किसी उपायसे भगवान् के समीप ले आया और प्रेरणा करने लगा कि तुम जीव तत्‍वके विषय में जो कुछ पूछना चाहते थे सो पूछ लो ॥359॥

इन्‍द्र की बात सुनकर मैंने भगवान् से पूछा कि हे भगवन् ! जीव नाम का कोई पदार्थ है या नहीं ? उसका स्‍वरूप कहिये । इसके उत्‍तरमें भव्‍यवत्‍सल भगवान् कहने लगे कि जीव नाम का पदार्थ है और वह ग्रहण किये हुए शरीर के प्रमाण है, सत्‍संख्‍या आदि सदादिक और निर्देश आदि किमादिकसे उसका स्‍वरूप कहा जाता है । वह द्रव्‍य रूप से न कभी उत्‍पन्‍न हुआ है और न कभी नष्‍ट होगा किन्‍तु पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिणमन करता है । चेतना उसका लक्षण है, वह कर्ता है, भोक्‍ता है, और पदार्थों के एकदेश तथा सर्वदेशका जानकार है ॥360–362॥

संसारी और मुक्‍तके भेदसे वह दो प्रकार का निरूपण किया जाता है । इसका संसार अनादि काल से चला आ रहा है और मोक्ष सादि माना जाता है ॥363॥

जो जीव मोक्ष चला जाता है उसका फिर संसार नहीं होता अर्थात् वह लौटकर संसार में नहीं आता । किसी – किसी जीव का संसार नित्‍य होता है अर्थात् वह अभव्‍य या दूराद्दूर भव्‍य होने के कारण सदा संसार में रहता है । इस संसार में अनन्‍त जीव मोक्ष प्राप्‍त कर चुके हैं और अनन्‍त जीव ही अभी बाकी हैं । कर्मबन्‍धनमें बंधे हुए जीवोंमें से मुक्‍त हो जानेपर हानि अवश्‍य होती है परन्‍तु उनका क्षय नहीं होता और उसका कारण जीवोंका अनन्‍तपना ही है । जिस प्रकार पदार्थमें अनन्‍त शक्तियाँ रहती हैं अत: उनका कभी अन्‍त नहीं होता इसी प्रकार संसार में अनन्‍त जीव रहते हैं अत: उनका कभी अन्‍त नहीं होता ॥364–365॥

इस प्रकार भगवान् ने युक्ति पूर्वक जीव तत्वका स्‍पष्‍ट स्‍वरूप कहा । भगवान् के वचन को द्रव्‍य हेतु मानकर तथा काललब्धि आदिकी कारण सामग्री मिलनेपर मुझे जीवतत्‍वका निश्‍चय हो गया और मैं उसकी श्रद्धाकर भगवान् का शिष्‍य बन गया । तदनन्‍तर सौधर्मेन्‍द्रने मेरी पूजा की और मैंने पाँच सौ ब्राह्मणपुत्रों के साथ श्रीवर्धमान स्‍वामीको नमस्‍कारकर संयम धारण कर लिया । परिणामोंकी विशेष शुद्धि होनेसे मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्‍त हो गईं । तदनन्‍तर भट्टारक वर्धमान स्‍वामी के उपदेशसे मुझे श्रावण वदी प्रतिपदाके दिन पूर्वाह्ण कालमें समस्‍त अंगोंके अर्थ और पद स्‍पष्‍ट जान पड़े । इसी तरह उसी दिन अपराह्ण कालमें अनुक्रम से पूर्वोंके अर्थ तथा पदोंका भी स्‍पष्‍ट बोध हो गया ॥366–370॥

इस प्रकार जिसे समस्‍त अंगों तथा पूर्वोंका ज्ञान हुआ है और जो चार ज्ञान से सम्‍पन्‍न है ऐसे मैंने रात्रिके पूर्व भाग में अंगोंकी और पिछले भाग में पूर्वोंकी ग्रन्‍थ – रचना की । उसी समय से मैं ग्रन्‍थकर्ता हुआ । इस तरह श्रुतज्ञान रूपी ऋद्धिसे पूर्ण हुआ मैं भगवान् महावीर स्‍वामी का प्रथम गणधर हो गया ॥371–372॥

इसके बाद वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौन्‍द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अकम्‍पन, अन्‍धवेला तथा प्रभास ये गणधर और हुए । इस प्रकार मुझे मिलाकर श्रीवर्धमान स्‍वामी के इन्‍द्रों द्वारा पूजनीय ग्‍यारह गणधर हुए ॥373–374॥

इनके सिवाय तीन सौ ग्‍यारह अंग और चौदह पूर्वोंके धारक थे, नौ हजार नौ सौ यथार्थ संयम को धारण करनेवाले शिक्षक थे, एक हजार तीन सौ अवधिज्ञानी थे, सात सौ केवलज्ञानी परमेष्‍ठी थे, नौ सौ विकियाऋद्धि के धारक थे, पाँच सौ पूजनीय मन:पर्ययज्ञानी थे और चार सौ अनुत्‍तरवादी थे इस प्रकार सब मुनीश्‍वरोंकी संख्‍या चौदह हजार थी ॥375–378॥

चन्‍दनाको आदि लेकर छत्‍तीस हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएं थीं, असंख्‍यात देव देवियाँ थीं, और संख्‍यात तिर्यंच थे । इस प्रकार ऊपर कहे हुए बारह गणों से परिवृत भगवान् ने सिंहासनके मध्‍य में स्थित हो अर्धमागधी भाषाके द्वारा छह द्रव्‍य, सात तत्‍व, संसार और मोक्ष के कारण तथा उनके फलका प्रमाण नय और निक्षेप आदि उपायों के द्वारा विस्‍तारपूर्वक निरूपण किया । भगवान् का उपदेश सुनकर स्‍वाभाविक बुद्धिवाले कितने ही शास्‍त्रज्ञ सभासदोंने संयम धारण किया कितनों ही ने संयमासंयम धारण किया, और कितनोंने अपने भव्‍यत्‍व गुणकी विशेषतासे शीघ्र ही सम्‍यग्‍दर्शन धारण किया । इस प्रकार श्रीवर्धमान स्वामी धर्मदेशना करते हुए अनुक्रम से राजग्रह नगर आये और वहाँ विपुलाचल नामक पर्वतपर स्थित हो गये । हे मगधेश ! जब तुमने भगवान् के आगमन का समाचार सुना तब तुम शीघ्र ही यहाँ आये ॥379–385॥

यह सब सुनकर राजा श्रेणिक बहुत ही संतुष्‍ट हुआ, उसने बार – बार, उन्‍हें प्रणाम किया, तथा संवेग और निर्वेदसे युक्‍त होकर अपने पूर्वभव पूछे । उसके उत्‍तरमें गणधर स्‍वामी भी समझाने लगे कि तूने पहले तिरसठशलाका पुरूषोंका पुराण पूछा था सो मैंने स्‍पष्‍ट रूप से तुझे कहा है और तूने उसे स्‍पष्‍ट रूप से सुना भी है । हे श्रावकोत्‍तम श्रेणिक ! अब मैं तेरे तीन भव का चरित कहता हूँ सो तू चित्‍तको स्थिरकर सुन । इसी जम्‍बूद्वीप के विन्‍ध्‍याचल पर्वतपर एक कुटज नामक वन है उसमें किसी समय खदिरसार नाम का भील रहता था । एक दिन उसने समाधिगुप्‍त नाम के मुनिराज के दर्शनकर उन्‍हें बड़ी प्रसन्‍नतासे नमस्‍कार किया ॥386–390॥

इसके उत्‍तरमें मुनिराजने ‘आज तुझे धर्म लाभ हो’ ऐसा आशीर्वाद दिया । तब उस भीलने पूछा कि हे प्रभो ! धर्म क्‍या है ? और उससे लाभ क्‍या है ? भीलके ऐसा पूछनेपर मुनिराज कहने लगे कि मधु मांस आदिका सेवन करना पाप का कारण है अत: उससे विरक्‍त होना धर्म कहलाता है । उस धर्म की प्राप्ति होना धर्मलाभ कहलाता है । उस धर्म से पुण्‍य होता है और पुण्‍य से स्‍वर्ग में परम सुखकी प्राप्ति होती है ॥391–393॥

यह सुनकर भील कहने लगा कि मैं ऐसे धर्म का अधिकारी नहीं हो सकता । मुनिराज उसका अभिप्राय समझ कर कहने लगे कि, हे भव्‍य ! क्‍या तूने कभी पहले कौआका मांस खाया है ? बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ भील, मुनिराज के वचन सुनकर और विचारकर कहने लगा कि मैंने वह तो कभी नहीं खाया है । इसके उत्‍तरमें मुनिराजने कहा कि यदि ऐसा है तो उसे छोड़ देना चाहिये । मुनिराज के वचन सुनकर उसने बहुत ही संतुष्‍ट होकर कहा कि हे प्रभो ! यह व्रत मुझे दिया जाय ॥394–396॥

तदनन्‍तर वह भील व्रत लेकर चला गया । किसी एक समय उस भीलको असाध्‍य बीमारी हुई तब वैद्योंने बतलाया कि कौआका मांस खानेसे यह बीमारी शान्‍त हो सकती है । इसके उत्‍तरमें भीलने दृढ़ताके साथ उत्‍तर दिया कि मेरे ये प्राण भले ही चले जावें ? मुझे इन चंचल प्राणोंसे क्‍या प्रयोजन है, मैंने धर्म की इच्छा से तपस्‍वी – मुनिराज के समीप व्रत ग्रहण किया है । जो गृहीत व्रतका भंग कर देता है उससे पुरूष व्रत कैसे हो सकता है ? मैं इस पापरूप मांसके द्वारा आज जीवित नहीं रहना चाहता । इस प्रकार कहकर उसने कौआका मांस खाना स्‍वीकृत नहीं किया । यह सुनकर उसका साला शूरवीर जो कि सारसौख्‍य नामक नगरसे आया था कहने लगा कि जब मैं यहाँ आ रहा था तब मैंने सघन वनके मध्‍य में स्थित वट वृक्ष के नीचे किसी स्‍त्रीको रोती हुई देखा । उसे रोती देख, मैंने पूछा कि तू क्‍यों‍रो रही है ? इसके उत्‍तरमें वह कहने लगी कि तू चित्‍त लगाकर सुन । मैं बनकी यक्षी हूँ और इसी वन में रहती हूँ । तेरा बहनोई खदिरसार रोगसे पीडित है और कौआका मांस त्‍याग करनेसे वह मेरा पति होगा ! पर अब तू उसे त्‍याग किया हुआ मांस खिलानेके लिए जा रहा है और उसे नरक गतिके भयंकर दु:खोंका पात्र बनाना चाहता है । मैं इसीलिए रो रही हूं । हे भद्र ! अब तू अपना आग्रह छोड़ दे ॥397–405॥

इस प्रकार देवीके वचन सुनकर शूरवीर, बीमार – खदिरसारके पास पहुँचा और उसे देखकर कहने लगा कि वैद्यने जो औषधि बतलाई है वह और नहीं तो मेरी प्रसन्‍नताके लिए ही तुझे खाना चाहिये । खदिरसार उसकी बात अस्‍वीकृत करता हुआ कहने लगा कि तू प्राणोंके समान मेरा भाई है । स्‍नेह वश मुझे जीवित रखनेके लिए ही ऐसा कह रहा है परन्‍तु व्रत भंगकर जीवित रहना हितकारी नहीं है क्‍योंकि व्रत भंग करना दुर्गतिकी प्राप्तिका कारण है । जब शूरवीरको निश्‍चय हो गया कि यह अपने व्रतमें दृढ़ है तब उसने उसे यक्षीका वृत्‍तान्‍त बतलाया ॥406–409॥

यक्षीके वृत्‍तान्‍तका विचारकर खदिरसारने श्रावक के पांचों व्रत धारण कर लिये जिससे आयु समाप्‍त होने पर वह सौधर्मस्‍वर्ग में अनुपम देव हुआ । इधर शूरवीर भी बहुत दुखी हुआ और पारलौकिक क्रिया करके अपने घर की ओर चला । मार्ग में वह उसी वटवृक्ष के समीप खड़ा होकर उस यक्षीसे कहने लगा कि हे यक्षि ! क्‍या हमारा वह बहनोई तेरा पति हुआ है ? इसके उत्‍तममें यक्षीने कहा कि नहीं, वह समस्‍त व्रतोंसे सम्‍पन्‍न हो गया था अत: व्‍यन्‍तर योनिसे पराड्.मुख होकर सौधर्म स्‍वर्ग में देव हुआ है वह मेरा पति कैसे हो सकता था ॥410–413॥

वह तो स्‍वर्गके श्रेष्‍ठ भोगों का भोक्‍ता हुआ है । इस प्रकार बनका स्‍वामी शूरवीर, यक्षीके यथार्थ वचनोंपर विचार करता हुआ कहने लगा कि अहो ! व्रतका ऐसा माहात्‍म्‍य है ? अवश्‍य ही वह इच्छित सुख को प्राप्‍त कराता है । ऐसा विचारकर उसने समाधिगुप्‍त मुनिराज के समीप जाकर श्रावक के व्रत धारण कर लिये ॥414–415॥

इस प्रकार उस यक्षीने उसे भव्‍य समझकर उसके पक्षपातसे इस उपायके द्वारा उसे जैनधर्म धारण कराया सो ठीक ही है क्‍योंकि हितैषिता – पर हितकी चाह रखना, यही है ॥416॥

उधर खदिरसारका जीव भी दो सागर तक दिव्‍य भोगों का उपभोगकर स्‍वर्गसे च्‍युत हुआ और यहाँ राजा कुणिककी श्रीमती रानीसे तू श्रेणिक नाम का पुत्र हुआ है । अथानन्‍तर किसी दिन तेरे पिताने यह जानना चाहा कि मेरे इन पुत्रों में राज्‍य का स्‍वामी कौन होगा ? उसने निमित्‍तज्ञानियोंके द्वारा बताये हुए समस्‍त निमित्‍तोंसे तेरी अच्‍छी तरह परीक्षा की और वह इस बात का निश्‍चय कर बहुत ही संतुष्‍ट हुआ कि राज्‍य का स्‍वामी तू ही है । तुझपर वह स्‍वभावसे ही स्‍नेह करता था अत: राज्‍य का अधिकारी घोषित होने के कारण तुझपर कोई संकट न आ पड़े इस भय से दायादोंसे तेरी रक्षा करने के लिए उस बुद्धिमानने तुझे बनावटी क्रोधसे उस नगरसे निकाल दिया । तू दूसरे देशको जानेकी इच्छा से नन्दिग्राममें पहुँचा । राजाकी प्रकट आज्ञाके भय से नन्दिग्राममें रहने वाली समस्‍त प्रजा तुझे देखकर न उठी और न उसने स्‍नान, भोजन, शयन आदि कार्योंकी व्‍यवस्‍था ही की, वह इन सबसे विमुख रही ॥417–422॥

तदनन्‍तर तू भी किसी ब्राह्मणके साथ आगे चला और देवमूढ़ता, जातिमूढ़ता तथा पाषण्डिमूढता का खण्‍डन करने वाली कथाओं को कहता हुआ बड़े प्रेमसे उसके स्‍थानपर पहुँचा । तेरे वचनकौशल और यौवन आदि गुणों से अनुर‍ंजित हो कर उस ब्राह्मण ने तेरे लिए अपनी यौवन वती पुत्री दे दी और तू उसके साथ विवाहकर वहाँ चिरकाल तक सुख से रहने लगा ॥423–425॥

किसी एक समय किसी कारणवश राजा कुणिकने अपने राज्‍य का परित्‍याग करना चाहा तब उन्‍होंने उस ब्राह्मणके गाँवसे तुझे बुलाकर अपना सब राज्‍य तुझे दे दिया और तू भी राज्‍य का पालन करने लगा । यद्यपि तूने अपना क्रोध बाह्यमें प्रकट नहीं होने दिया था तो भी पहले किये हुए अनादर की याद आनेसे तू नन्दिग्रामके निवासियोंका अत्‍यन्‍त कठोर निग्रह करना चाहता था इसी इच्छा से तू ने वहाँ रहने वाले लोगोंपर इतना कठोर कर लेनेका आदेश दिया जितना कि वे सहन नहीं कर सकते थे ॥426–428॥

तेरे उस ब्राह्मणकी पुत्रीसे अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ था वह किसी समय अपने घरसे तेरे दर्शन करने के लिए माताके साथ आ रहा था । जब वह नन्दिग्राममें आया तब उसने वहाँ की प्रजाको तुझसे अत्‍यन्‍त व्‍यग्र देखा, इसलिए उसने वहीं ठहर कर योग्‍य उपायों से तेरा क्रोध शान्‍त कर दिया ॥429–430॥

तेरा वह अभय नाम का पुत्र नाना उपायोंमें निपुण है इसलिए उस समय बुद्धिमानोंने उसे ‘पण्डित’ इस नाम से पुकारा था ॥431॥

हे राजन ! आज तू इहाँ उसी बुद्धिमान् पुत्र के साथ उपस्थित हुआ पुराण श्रवण कर रहा है । इस प्रकार गणधर स्‍वामी के वचन सुनकर राजा श्रेणिकने अपने ह्णदय में धारण किये और कहा कि हे भगवन् ! यद्यपि मेरी जैनधर्म में श्रद्धा बहुत भारी है तो भी मैं व्रत ग्रहण क्‍यों नहीं कर पाता ? ॥432–433॥

राजा श्रेणिकका प्रश्‍न समाप्‍त होने पर गणधर स्‍वामीने कहा कि तूने इसी जन्‍ममें पहले भोगोंकी आसक्ति, तीव्र मिथ्‍यात्‍वका उदय, दुश्‍चरित्र और महान् आरम्‍भके कारण, जो बिना फल दिये नहीं छूट सकती ऐसी पापरूप नरकायुका बन्‍ध कर लिया है । ऐसा नियम है कि जिसने देवायुको छोड़कर अन्‍य आयु का बन्‍ध कर लिया है वह उस पर्यायमें व्रत धारण नहीं कर सकता । हाँ, सम्‍यग्‍दर्शन धारण कर सकता है । यही कारण है कि तू इच्‍छा रहते हुए भी व्रत धारण नहीं कर पा रहा है ॥434–436॥

इस प्रकार पुराणोंके सुनने से उत्‍पन्‍न हुई विशुद्धिके द्वारा उसने अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप तीन परिणाम प्राप्‍त किये और उनके प्रभाव से मोहनीय कर्मकी सात प्रकृतियों का उपशमकर प्रथम अर्थात् उपशम सम्‍यग्‍दर्शन प्राप्‍त किया ॥437॥

अन्‍तर्मुहूर्तके बाद उसके सम्‍यक्‍त्‍व प्रकृतिका उदय हो गया जिससे चलाचलात्‍मक, क्षयोप‍शमिक सम्‍यग्‍दर्शनमें आ गया और उसके कुछ ही बाद सातों प्रकृतियों का निर्मूल नाशकर वह क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन को प्राप्‍त हो गया । सम्‍यग्‍दर्शन उत्‍पत्तिकी अपेक्षा दश प्रकार का कहा गया है – आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्‍थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्‍तारज, अर्थज, अवगाढ और परमावगाढ़ ॥438–440॥

सर्वज्ञ देवकी आज्ञाके निमित्‍तसे जो छह द्रव्‍य आदिमें श्रद्धा होती है उसे आज्ञा सम्‍यक्‍त्‍व कहते हैं । मोक्षमार्ग परिग्रह रहित है, वस्‍त्र रहित है और पाणिपात्रतारूप है इस प्रकार मोक्षमार्गका स्‍वरूप सुनकर जो श्रद्धान होता है वह मार्गज सम्‍यक्‍त्‍व है । तिरसेठ शलाका पुरूषोंका पुराण सुनने से जो शीघ्र ही श्रद्धा उत्‍पन्‍न हो जाती है वह उपदेशोत्‍थ सम्‍यग्‍दर्शन है । आचारांग आदि शास्‍त्रोंमें कहे हुए तपके भेद सुनने से जो शीघ्र ही श्रद्धा उत्‍पन्‍न होती है वह सूत्रज सम्‍यग्‍दर्शन कहलाता है । बीजपदोंके ग्रहण पूर्वक सूक्ष्‍मपदार्थों से जो श्रद्धा होती है उसे बीजज सम्‍यग्‍दर्शन कहते हैं । पदार्थों के संक्षेप कथनसे जो श्रद्धा होती है वह संक्षेपज सम्‍यग्‍दर्शन है, जो विस्‍तारसे कहे हुए प्रमाण नय विक्षेप आदि उपायों के द्वारा अवगाहनकर अंग पूर्व आदिमें कहे हुए तत्‍वोंकी श्रद्धा होती है वह विस्‍तारज सम्‍यग्‍दर्शन कहलाता है । वचनों का विस्‍तार छोड़कर महाबुद्धिमान् उपदेशसे जो केवल अर्थमात्रका ग्रहण होनेसे श्रद्धा उत्‍पन्‍न होती है वह अर्थज सम्‍यग्‍दर्शन है । जिसका मोहनीय कर्म क्षीण हो गया है ऐसे मनुष्‍य को अंग तथा अंगबाह्य ग्रन्‍थोंकी भावनासे जो श्रद्धा उत्‍पन्‍न होती है वह अवगाढ़ सम्‍यग्‍दर्शन कहलाता है ॥441–448॥

केवल – ज्ञान के द्वारा देखे हुए समस्‍त पदार्थों की जो श्रद्धा होती है उसे परमावगढ सम्‍यग्‍दर्शन कहते हैं ऐसा परमर्षियोंने कहा है ॥449॥

हे महाभाग ! इन श्रद्धाओंमेंसे आज तेरे कितनी ही श्रद्धाएँ – सम्‍यग्‍दर्शन विद्यमान हैं । इनके सिवाय आगममें जिन दर्शन – विशुद्धि आदि शुद्ध सोलह कारण भावनाओं का वर्णन किया गया है उन सभीसे अथवा यथा सम्‍भव प्राप्‍त हुई पृथक् – पृथक् कुछ भावनाओंसे भव्‍य जीव तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍ध करता है । उनमेंसे दर्शनविशुद्धि आदि कितने ही कारणों से तू तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्‍धकर रत्‍नप्रभा नामक पहिली पृथिवीमें प्रवेश करेगा, मध्‍यम आयुसे वहाँका फल भोगकर निकलेगा और तदनन्‍तर हे भव्‍य ! तू इसी भरतक्षेत्र में आगामी उत्‍सर्पिणी कालमें सज्‍जनोंका कल्‍याण करनेवाला महापद्म नाम का पहला तीर्थंकर होगा । तू निकट भव्‍य है अत: संसार से भय मत कर ॥450–453॥

तदनन्‍तर अपने आपको रत्‍नप्रभा पृथिवी की प्राप्ति सुनकर जिसे खेद हो रहा है ऐसे राजा श्रेणिक ने फिर पूछा कि हे बुद्धिरूपी धनको धारण करनेवाले गुरूदेव ! पुण्‍य के घर स्‍वरूप इस नगर में मेरे सिवाय और भी क्‍या कोई नरक जानेवाला है ? उत्‍तरमें गणधर भगवान् कहने लगे कि हाँ, इस नगर में कालसौकरिक और ब्राह्मणकी पुत्री शुभाका भी नरकमें प्रवेश होगा । उनका नरकमें प्रवेश क्‍यों होगा ? यदि यह जानना चाहता है तो सुन मैं कहता हूँ । कालसौकरिक इसी नगर में नीच कुलमें उत्‍पन्‍न हुआ था । वह यद्यपि पहले बहुत पापी था तो भी उसने भवस्थितिके वशसे सात बार मनुष्‍य आयु का बन्‍ध किया था । अबकी वार उसे जातिस्‍मरण हुआ है जिससे वह सदा ऐसा विचार करता रहता है ॥454–457॥

कि यदि पुण्‍य – पाप के फलके साथ जीवोंका सम्‍बन्‍ध रहता है तो फिर मुझ जैसे पापी को मनुष्‍य – भव कैसे मिल गया ? इसलिए जान पड़ता है कि न पुण्‍य है और न पाप है इच्‍छानुसार प्रवृत्ति करना ही सुख है । ऐसा विचारकर वह पापी नि:शंक हो हिंसादि पाँचों पाप करने लगा है, मांस आदि खानेमें आसक्‍त हो गया है और बहुत आरम्‍भ तथा परिग्रहोंके कारण नरककी उत्‍कृष्‍ट आयु का बन्‍ध भी कर चुका है । अब वह मरकर भयंकर दु:ख देनेवाली सातवीं पृथिवीमें जावेगा । इसी प्रकार शुभा भी तीव्र अनुभागजन्‍य स्‍त्रीवेदके उदय से युक्‍त है, अतिशय बढ़े हुए राग-द्वेष पैशुन्‍य आदि दोषोंसे अत्‍यन्‍त दूषित है, गुण शील तथा सदाचारकी बात सुनकर और देखकर बहुत क्रोध करती है । निरन्‍तर संक्‍लेश परिणाम रखनेसे वह नरकायुका बन्‍ध कर चुकी है और शरीर छूटनेपर तम:प्रभा पृथिवी सम्‍बन्‍धी घोर दु:ख भोगेगी ॥458–463॥

इस प्रकार गणधरके वचन समाप्‍त होने पर अभयकुमार ने उठकर उन्‍हें नमस्‍कार किया और अपने भवान्‍तरोंका समूह पूछा ॥464॥

भव्‍य जीवों पर स्‍नेह रखनेवाले गणधर भगवान्, अभय कुमारका उपकार करने की भावनासे इस प्रकार कहने लगे कि तू इस भव से तीसरे भवमें कोई ब्राह्मण का पुत्र था और भव्‍य होने पर भी दुर्बुद्धि था । वह वेद पढ़नेके लिए अनेक देशोंमें घूतता – फिरता था, पाषण्डिमूढता, देवमूढता, तीर्थमूढमा, जातिमूढता और लोकमूढतासे मोहित हो व्‍याकुल रहता था, उन्‍हींके द्वारा किये हुए कार्योंकी बहुत प्रशंसा करता था और पुण्‍य – प्राप्तिकी इच्छा से उन्‍हींके द्वारा किये हुए कार्योंका स्‍वयं आचरण करता था ॥465–467॥

एक बार वह किसी जैनी पथिकके साथ मार्ग में कहीं जा रहा था । मार्ग में पत्‍थरोंके ढेरके समीप दिखाई देने वाला भूतोंका निवासस्‍थान स्‍वरूप एक वृक्ष था । उसके समीप जाकर और उसे अपना देव समझकर ब्राह्मण – पुत्रने उस वृक्ष की प्रदक्षिणा दी तथा उसे नमस्कार किया । उसकी इस चेष्‍टाको देखकर श्रावक हँसने लगा तथा उसका अनादर करने के लिए उसने उस वृक्ष के कुछ पत्‍ते तोड़कर उनसे अपने पैरोंकी धूलि झाड़ ली और ब्राह्मणसे कहा कि देख तेरा देवता जैनियोंका कुछ भी विघात करने में समर्थ नहीं है । इसके उत्‍तरमें ब्राह्मण ने कहा कि अच्‍छा ऐसा ही सही, क्‍या दोष है ? मैं भी तुम्‍हारे देवताका तिरस्‍कार कर लूंगा, इस विषय में तुम मेरे गुरू ही सही । इस प्रकार कहकर वे दोनों फिर साथ चलने लगे और किसी एक स्‍थान में जा पहुँचे । वहाँ करेंचकी लताओं का समूह देखकर श्रावकने कहा कि ‘यह हमारा देवता है’ यह कहकर श्रावकने उस लता – समूहकी भक्ति से प्रदक्षिणा की, नमस्‍कार किया और यह सबकर वह वहीं खड़ा हो गया । अज्ञानी ब्राह्मण ने कुपित होकर दोनों हाथोंसे उस लतासमूह के पत्‍ते तोड़ लिये तथा उन्‍हें मसलकर उनका रंग सब शरीर में लगा लिया । लगाते देर नहीं हुई कि वह, उस करेंचके द्वारा उत्‍पन्‍न हुई असह्य खुजलीकी भारी पीड़ासे दु:खी होने लगा तथा डरकर श्रावकसे कहने लगा कि इसमें अवश्‍य ही तुम्‍हारा देव रहता है ॥468–475॥

ब्राह्मण – पुत्रकी बात सुन, श्रावक हँसता हुआ कहने लगा कि जीवों को जो सुख – दु:ख होता है उसमें उनके पूर्वकृत कर्मको छोड़कर और कुछ मूल कारण नहीं है ॥476॥

इसलिए तू तप दान आदि सत्‍कार्योंके द्वारा पुण्‍य प्राप्‍त करनेका प्रयत्‍न कर और हे बुद्धिमन् ! इस देवविषयक मूढ़ताको छोड़ दे । निश्‍चयसे देवता पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍यों की ही सहायता करते हैं वे भृत्‍यके समान हैं और पुण्‍य क्षीण हो जानेपर किसीका कुछ भी नहीं कर सकते हैं ॥477–478॥

इस प्रकार कहकर श्रावकने उस ब्राह्मणकी देवमूढता दूर कर दी । तदनन्‍तर अनुक्रम से उस ब्राह्मणके साथ चलता हुआ श्रावक गंगा नदी के किनारे पहुँचा ॥479॥

भूख लगनेपर उस ब्राह्मण ने ‘यह मणिगंगा नाम का उत्‍तम तीर्थ है’ यह समझकर वहाँ स्‍नान किया और इस तरह वह तीर्थमूढताको प्राप्‍त हुआ ॥480॥

तदनन्‍तर जब वह ब्राह्मण भोजन करने की इच्‍छा करने लगा तब उस श्रावकने पहले स्‍वयं भोजनकर अपनी जूंठनमें गंगाका जल मिला दिया और हित का उपदेश देनेके लिए यह कहते हुए उसे दिया कि ‘यह पवित्र है तुम खाओ’ । यह देख ब्राह्मण ने कहा कि ‘मैं तुम्‍हारी जूंठन कैसे खाऊँ’ ? क्‍या तुम मेरी विशेषता नहीं जानते ? ब्राह्मणकी बात सुनकर श्रावक कहने लगा कि तीर्थजल यदि आज जूंठनका दोष दूर करने में समर्थ नहीं है तो फिर पाप रूप मलको दूर हटानेमें समर्थ कैसे हो सकता है ? इसलिए तू अकारण तथा मूर्ख जनों के द्वारा विश्‍वास करने योग्‍य इस मिथ्‍या वासनाको छोड़ दे कि जल के द्वारा पाप धोया जा सकता है । यदि जलके द्वारा पाप धोये जाने लगे तो फिर व्‍यर्थ ही तप तथा दान आदिके करनेसे क्‍या लाभ है ? ॥481–485॥

जल सब जगह सुलभ है अत: उसीके द्वारा पाप धो डालना चाहिये । यथार्थमें बात यह है कि मिथ्‍यात्‍व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय इन चारके द्वारा तीव्र पाप का बन्‍ध होता है और सम्‍यक्‍त्‍व, ज्ञान, चारित्र तथा तप इन चारके द्वारा पुण्‍यका बन्‍ध होता है । और अन्‍त में इन्‍हींसे मोक्ष प्राप्‍त होता है । यह जिनेन्‍द्र देवका तत्‍व है – मूल उपदेश है, इसे तू ग्रहण कर । ऐसा उस श्रावकने ब्राह्मणसे कहा ॥486–487॥

श्रावक के उक्‍त वचन सुनकर ब्राह्मण ने तीर्थमूढ़ता छोड़ दी । तदनन्‍तर वहीं एक तापस, पंचाग्नियोंके मध्‍य में अन्‍य लोगों के द्वारा दु:स‍ह – कठिन तप कर रहा था । वहाँ जलती हुई अग्निके बीच में छह कायके जीवोंका जो निरन्‍तर घात होता था उसे दिखलाकर श्रावकने युक्तियोंके द्वारा उस ब्राह्मणकी पाषण्डिमूढ़ता भी दूर कर दी । तदनन्‍तर जातिमूढ़ता दूर करने के लिए वह श्रावक कहने लगा कि गोमांस भक्षण और अगम्‍यस्‍त्रीसेवन आदिसे लोग पतित हो जाते हैं यह देखा जाता है, इस शरीर में वर्ण तथा आकृतिकी अपेक्षा कुछ भी भेद देखनेमें नहीं आता और ब्राह्मणी आदिमें शूद्र आदिके द्वारा गर्भधारण किया जाना देखा जाता है इसलिए जान पड़ता है कि मनुष्‍योंमें गाय और घोड़ेके समान जाति कृत कुछ भी भेद नहीं है य‍दि आ‍कृतिमें कुछ भेद होता तो जातिकृत भेद माना जाता परन्‍तु ब्राह्मण – क्षत्रिय – वैश्‍य और शूद्रमें आकृ‍ति भेद नहीं हैं अत: उनमें जातिकी कल्‍पना करना अन्‍यथा है । जिनकी जाति तथा गोत्र आदि कर्म शुल्‍कध्‍यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण कहलाते हैं और बाकी शूद्र कहे गये हैं । विदे‍ह क्षेत्र में मोक्ष जानेके योग्‍य जातिका कहीं विच्‍छेद नहीं होता क्‍योंकि वहीं उस जातिमें कारणभूत नाम और गोत्रसे सहित जीवोंकी निरन्‍तर उत्‍पत्ति होती रहती है परन्‍तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकालमें ही जातिकी परम्‍परा चलती है अन्‍य कालोंमें नहीं । जिनागममें मनुष्‍योंका वर्णविभाग इस प्रकार बतलाया गया है ॥488–495॥

इत्‍यादि हेतुओं के द्वारा श्रावकने ब्राह्मणकी जातिमूढ़ता दूर कर दी । ‘इस वटवृक्षपर कुबेर रहता है’ इत्‍यादि वाक्‍योंका विश्‍वासकर राजा लोग जो उसके योग्‍य आचरण करते हैं, उसकी पूजा आदि करते हैं सो क्‍या कुछ जानते नहीं है । कुछ सचाई होगी तभी तो ऐसा करते हैं यह लोकका मार्ग बहुत बड़ा प्रसिद्ध मार्ग है इसे छोड़ा नहीं जा सकता – लोक में जो रूढियाँ चली आ रही हैं उन्‍हें छोड़ना नहीं चाहिये इत्‍यादि लौकिक जनों के वचन, आप्‍त भगवान् के द्वारा कहे इस आगमसे बाह्य होने के कारण नशेसे मस्‍त अथवा पागल मनुष्‍य के वचनोंके समान ग्राह्य नहीं हैं ॥496–498॥

इस प्रकार श्रावकने उस ब्राह्मणकी लोकमूढ़ता भी दूर कर दी । तदनन्‍तर ब्राह्मण ने श्रावकसे कहा कि तुमने जो हेतु दिया है कि आप्‍त भगवान् के द्वारा कहे हुए आगमसे बाह्य होने के कारण लौकिक वचन ग्राह्य नहीं हैं सो तुम्‍हारा यह हेतु मेरे प्रति लागू नहीं होता क्‍योंकि सांख्‍य आदि आप्‍तजनों के जो भी आगम विद्यमान हैं वे पौरूषेयत्‍व दोषसे प्रमाणभूत नहीं हैं । पुरूषकृत रचना होने से ग्राह्य नहीं हैं । यथार्थमें संसार में जितने पुरूष हैं वे सभी रागादि अविद्यासे दूषित हैं अत: उनके द्वारा बनाये हुए आगम प्रमाण कैसे हो सकते हैं ? ॥499–500॥

इसके उत्‍तरमें श्रावकने कहा कि चूंकि तुमने पदार्थका अच्‍छी तरह विचार नहीं किया है इसलिए तुम्‍हारे वचन सारताको प्राप्‍त नहीं हैं – ठीक नहीं हैं । तुमने जो कहा है कि संसार के सभी पुरूष रागादि अविद्यासे दूषित हैं यह कहना ठीक नहीं है क्‍योंकि किसी पुरूषमें राग आदि अविद्याओं का निर्मूल क्षय हो जाना संभव है । तुम युक्तिवादका अनुसरण करनेवाले विद्वान् हो अत: तुम्‍हारे लिए सर्वज्ञवीतराग की सिद्धिका प्रयोग किया जाता है ॥501–502॥

रागादिक भावों और अविद्यामें तारतम्‍य देखा जाता है अत: किसी पुरूषमें अविद्याके साथ – साथ रागादिक भाव सर्वथा अभावको प्राप्‍त हो जाते हैं । जिस प्रकार सामग्री मिलनेसे सुवर्ण पाषाणकी कीट कालिमा आदि दोष दूर हो जाते हैं उसी प्रकार तपश्‍चरण आदि सामग्री मिलनेपर पुरूषके रागादिक दोष भी दूर हो सकते हैं । यदि ऐसा नहीं माना जाय तो उनमें तारतम्‍य - हीनाधिकपना भी सिद्ध नहीं हो सकेगा परन्‍तु तारतम्‍य देखा जाता है इसलिए रागादि दोषोंकी निर्मूल हानिको कौन रोक सकता है ? समस्‍त शास्‍त्रों और कलाओं के तानने वाले मनुष्‍य को लोग सर्वज्ञ कह देते हैं सो उनकी यह सर्वज्ञकी गौण युक्ति ही मुख्‍य सर्वज्ञको सिद्ध कर देती है जिस प्रकार कि चैत्र नामक किसी पुरूषको सिंह कह देनेसे मुख्‍य सिंहकी सिद्धि हो जाती है ॥503–506॥

‘कदाचित् यह कहा जाय कि सर्वज्ञ सिद्ध करनेका यह प्रयोग मेरे लिए नहीं हो सकता क्‍योंकि आपने जो मोक्षका कारण बतलाया है उसका निराकरण किया जा चुका है । अवस्‍था देश – काल आदि के भेदसे शक्तियाँ भिन्‍न - भिन्‍न प्रकारकी हैं इसलिए रागादि दोषोंकी हीनाधिकता तो संभव है परन्‍तु उनका सर्वथा अभाव संभव नहीं है । अनुमानके द्वारा भावोंकी प्रतीति करना अत्‍यन्‍त दुर्लभ है क्‍योंकि बड़े कुशल अनुमाता यत्‍न पूर्वक जिस पदार्थ को सिद्ध करते हैं अन्‍यप्रवादियोंकी ओेरसे वह पदार्थ अन्‍यथा सिद्ध कर दिया जाता है । प्रकार केवल हाथके स्‍पर्शसे विषय – मार्ग में दौड़ने वाले अन्‍धे मनुष्‍यका मार्ग में दुर्लभ नहीं है उसी प्रकार अनुमानको प्रधान मानकर चलने वाले पुरूषका भी पड़ जाना दुर्लभ नहीं है । हे विप्र ! यदि तुम ऐसा कहते हो तो इससे महापुरूषोंका मन आ‍कर्षित नहीं हो सकता’ ॥507–510॥

इसका भी कारण यह है कि यदि हेतुवादको अप्रमाण मान लिया जाता है तो जिस प्रकार ‘वेद अकृत्रिम हैं – अपौरूषेय हैं’ आपका यह कहना सत्‍य है तो उसी प्रकार ‘वेद कृत्रिम हैं – पौरूषेय हैं’ हमारा यह कहना भी सत्‍य ही क्‍यों‍ नहीं होना चाहिये ? हेतुके अभाव की बात कहो तो वह दोनों ओर समान है । इस प्रकार मर – सड़ कर भी आपको हेतुवाद स्‍वीकृत करना ही पड़ेगा और जब आप इस तरह हेतुवाद स्‍वीकृत कर लेते है तब मेरे द्वारा अभीष्‍ट सर्वज्ञ क्‍या सिद्ध नहीं हो जाता है ? अवश्‍य सिद्ध हो जाता है । इसलिए विद्वान् लोग सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा कहे हुए वचनोंके विरूद्ध कोई बात स्‍वीकृत नहीं करते हैं ॥511–513॥

इसके सिवाय एक बात यह भी विचारणीय है कि हे प्रिय ! तुम प्रत्‍यक्ष, अनुमान, शब्‍द, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणोंको मानने वाले मीमांसक हो, केवल प्रत्‍यक्षको मानने वाले चार्वाक नहीं हो अत: तुम्‍हारा मेरे प्रति यह कहा जाना कि अनुमानका प्रयोग मुझे स्‍वीकृत नहीं है । संगत नहीं बैठता ॥514॥

साध्‍यसाधनसम्‍बन्‍धो हेतुश्‍चाध्‍यक्षगोचर: । ऊहाद्वयाप्ति: कथं न स्‍यात्‍प्रयोगस्‍त्‍वां प्रति प्रमा ॥515॥

साध्‍य – साधनके सम्‍बन्‍धको हेतु कहते हैं वह प्रत्‍यक्षका विषय है और अविनाभाव सम्‍बन्‍धसे उसकी व्‍याप्तिका ज्ञान होता है फिर आप अनुमानको प्रमाण क्‍यों नहीं मानते ? ॥515॥

यदि यह कहा जाय कि अनुमान् में कदाचित् व्‍यभिचार ( दोष ) देखा जाता है तो यह व्‍यभिचार क्‍या प्रत्‍यक्षमें भी नहीं होता ? अवश्‍य होता है । इसलिए हे आर्य ! ‘अनुमान प्रमाण नहीं हैं’ यह आग्रह छोडिये ॥516॥

यदि य‍ह कहा जाय कि प्रत्‍यक्ष विसंवादरहित है इसलिए प्रमाणभूत है तो अनुमानमें भी तो विसंवादका अभाव रहता है उसे भी प्रमाण क्‍यों नहीं मानते हो । युक्तिकी समानता रहते हुए एकको प्रमाण माना जाय और दूसरेको अप्रमाण माना जाय यदि यही आपका पक्ष है तो फिर राजाओंकी क्‍या आवश्‍यकता ? अथवा सांख्‍य आदि दर्शनोंमें अप्रामाणिकता भले ही रहे क्‍योंकि उनमें विरोध देखा जाता है परन्‍तु अरहन्‍त भगवान् के दर्शनमें अप्रामाणिकता नहीं हो सकती क्‍योंकि प्रत्‍यक्ष प्रमाणसे उसका संवाद देखा जाता है । इस प्रकार साथके जैनी – श्रावक के द्वारा कहे हुए समस्‍त यथार्थ तत्‍वको सुनकर ब्राह्मण ने कहा कि जिस धर्म को आपने ग्रहण किया है वही धर्म आज से मेरा भी हो ॥517–519॥

श्रावककी आज्ञा से उस ब्राह्मण ने जिनेन्‍द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ निर्मल धर्म ग्रहण कर लिया सो ठीक ही है क्‍योंकि जिस प्रकार औषधि बीमार मनुष्‍यका हित करती है उसी प्रकार सज्‍जन पुरूषके वचन भी अन्‍त में हित ही करते हैं ॥520॥

अथानन्‍तर वे दोनों ही साथ – साथ जाते हुए किसी सघन अटवीके बीच में पाप के उदय से मार्ग भूल कर दिशाभ्रान्‍त हो गये ॥521॥

उस समय श्रावकने विचार किया कि चूँकि यह वन मनुष्‍य रहित है अत: वहाँ कोई मार्गका बतलानेवाला नहीं है । इस समय जिनेन्‍द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए उपायको छोड़कर और कोई उपाय नहीं है । ऐसी दशामें आहार तथा शरीरका त्‍याग कर देना ही शूरवीरकी पण्डिताई है’ ऐसा विचार कर वह संन्‍यास की प्रतिज्ञा लेकर उत्‍तमध्‍यान के लिए बैठ गया । श्रावकको बैठा देख उसके उपदेशसे जिसकी बुद्धि निर्मल हो गई है ऐसा ब्राह्मण भी समाधिका नियम लेकर उसी प्रकार बैठ गया । आयु पूर्ण होने पर वह ब्राह्मण सौधर्म स्‍वर्ग में देव हुआ और वहां देवों के सुख भोग कर आयु के अन्‍त में अपने पुण्‍य के उदय से यहां राजा श्रेणिकके तू अभय नाम का ऐसा बुद्धिमान पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ है । आगे तू श्री जिनेन्‍द्र देवका कहा हुआ बारह प्रकार का तपश्‍चरण कर मुक्ति का पद प्राप्‍त करेगा । यह सब जानकर अभयकुमार बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ और श्रीजिनेन्‍द्र भगवान् को नमस्‍कार कर राजा श्रेणिकके साथ नगर में चला गया ॥522–527॥

अथानन्‍तर किसी एक दिन महाराज श्रेणिक राजसभा में बैठे हुए थे वहां उन्‍होंने समस्‍त शास्‍त्रोंके जानने वाले श्रेष्‍ठ वक्‍ता अभय कुमारसे उसका माहात्‍म्‍य प्रकट करने की इच्छा से तत्‍वका यथार्थ स्‍वरूप पूछा । अभय कुमार भी निकटभव्‍य होने के कारण वस्‍तुके यथार्थ स्‍वरूपको देखने बाला था तथा स्‍पष्‍ट मिष्‍ट और इष्‍टरूप वाणीके गुणों से सहित था इसलिए अपने दाँतोकी फैलने वाली कान्ति के भार से सभा से मध्‍यभागको सुशोभित करता हुआ इस प्रकार निरूपण करने लगा ॥528–530॥

आचार्य कहते हैं कि जिसे जीवादि पदार्थों का ठीक – ठीक बोध होता है विद्वान् लोग उसे ही पण्डित कहते हैं बाकी दूसरे लोग तो नाममात्रके पण्डित कहलाते हैं ॥531॥

अभयकुमार कहने लगा कि जिनेन्‍द्र भगवान् ने जीवसे लेकर काल पर्यन्‍त अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह पदार्थ कहे हैं । ये सभी पदार्थ द्रव्‍यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके भेदसे क्रमश: नित्‍य तथा अनित्‍य स्‍वभाव वाले हैं ॥532॥

यदि जीवादि पदार्थों को अज्ञान वश सर्वथा नित्‍य मान लिया जावे तो सभी द्रव्‍यों में जो परिणमन देखा जाता है वह संभव नहीं हो सकेगा ॥533॥

इसी प्रकार यदि सभी पदार्थों को सर्वथा क्षणिक मान लिया जावे तो न क्रिया बन सकेगी, न कारक बन सकेगा, न क्रियाका फल सिद्ध हो सकेगा और लेन – देन आदि समस्‍त लोक – व्‍यवहार का सर्वथा नाश हो जाकेगा ॥534॥

कदाचित् य‍ह कहा जाय कि उपचारसे पदार्थ नित्‍य है इसलिए लोकव्‍यवहारका सर्वथा नाश नहीं होगा तो यह कहना भी ठीक नहीं हैं क्‍योंकि उपचारसे सत्‍य पदार्थ की सिद्धि कैसे हो सकती है ? आखिर उपचार तो असत्‍य ही है उससे सत्‍य पदार्थका निर्णय होना संभव नहीं है ॥535॥

जब कि नित्‍य – अनित्‍य दोनों धर्मोंसे ही पदार्थ की अर्थ क्रिया होती देखी जाती है तब दो धर्मोंमें से एकको भ्रान्‍त कहने वाला पुरूष दूसरे धर्म को अभ्रान्‍त किस प्रकार कह सकता है ? भावार्थ – जब अर्थ क्रियामें दोनों धर्म साधक हैं तब दोनों हीं अभ्रान्‍त हैं यह मानना चाहिये ॥536॥

जो वादी समस्‍त पदार्थों को एक धर्मात्‍मक ही मानते हैं उनके मतमें सामान्‍य तथा विशेषसे उत्‍पन्‍न होने वाले संशय और निर्णय, सामान्‍य और विशेष धर्म के आश्रय से ही उत्‍पन्‍न होते हैं इसलिए जब पदार्थ को सामान्‍य विशेष – दोनों रूप न मानकर एक रूप ही माना जायगा तो उनकी उत्‍पत्ति असंभव हो जायगी ॥537॥

पदार्थ उभय धर्मात्‍मक है ऐसा ही ज्ञान होता है और ऐसा ही कहने में आता है फिर भी जो उसे असत्‍य कहता है सो उसके उस असत्‍य ज्ञान और असत्‍य अभिधानमें सत्‍यता किस कारण होती है ? भावार्थ – जिसका प्रत्‍यक्ष अनुभव हो रहा है और लोकव्‍यवहारमें जिसका निरन्‍तर कथन होता देखा जाता है उसे प्रतिवादी असत्‍य बतलाता है सो उसके इस बतलानेसे सत्‍यता है इसका निर्णय किस हेतुसे होता है ? प्रतीयमान पदार्थ को असत्‍य और अप्रतीयमान पदार्थ को सत्‍य मानना युक्तिसंगत नहीं है ॥538॥

पदार्थोंमें गुणगुणी सम्‍बन्‍ध विद्यमान है उसके रहते हुए भी जो वादी समवाय आदि अन्‍य सम्‍बन्‍धोंकी कल्‍पना करता है उसके मतमें सम्‍बन्‍ध का अभाव होनेसे अभ्‍युपेत – स्‍वीकृत मतकी हानि होती है और अनवस्‍था दोषकी अनिवार्यता आती है । भावार्थ – गुणगुणी सम्‍बन्‍धके रहते हुए भी जो वादी समवाय आदि अन्‍य सम्‍बन्‍धोंकी कल्‍पना करता है । उससे पूछना है ‍कि तुम्‍हारे द्वारा कल्पित समवाय आदि सम्‍बन्‍धोंका पदार्थ के साथ सम्‍बन्‍ध है या नहीं ? यदि नहीं है तो सम्‍बन्‍धका अभाव कहलाया और ऐसा माननेसे ‘तुम्‍हारा जो स्‍वीकृत पक्ष है कि सम्‍बन्‍धरहित कोई पदार्थ नहीं है’ उस पक्ष में बाधा आती है । इससे बचनेके लिए यदि यह मानते हो कि समवाय आदि सम्‍बन्‍धोंका पदार्थ के साथ सम्‍बन्‍ध है तो प्रश्‍न – होता है कि कौन – सा सम्‍बन्‍ध है ? इसके उत्‍तरमें किसी दूसरे सम्‍बन्‍धकी कल्‍पना करोगे तो उस दूसरे सम्‍बन्‍धके लिए तीसरे सम्‍बन्‍धकी कल्‍पना करनी पड़ेगी इस तरह अनवस्‍था दोष अनिवार्य हो जावेगा ॥539॥

इसलिए बुद्धिमानोंको एकान्‍त मिथ्‍यावादका गर्व छोड़कर सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा कहा हुआ नित्‍यानित्‍यात्मक ही पदार्थ मानना चाहिए ॥540॥

सर्वज्ञ और सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए मतमें श्रद्धा रखना सम्‍यग्‍दर्शन है, सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए पदार्थों का जानना सो सम्‍यग्‍ज्ञान है और सर्वज्ञप्रणीत आगम के कहे अनुसार तीनों योगोंका रोकना सम्‍यक्‍चारित्र कहलाता है । ये तीनों मिलकर भव्‍य जीव के मोक्ष के कारण माने गये हैं ॥541–542॥

सम्‍यक्‍चारित्र सम्‍यग्‍दर्शन और सम्‍यग्‍ज्ञानसे सहित ही होता है परन्‍तु सम्‍यग्‍दर्शन और सम्‍यग्‍ज्ञान चतुर्थगुणस्‍थान में सम्‍यक्‍चारित्रके विना भी होते हैं ॥543॥

इसलिए सम्‍यग्‍दृष्टि भव्‍य जीव को समस्‍त कर्मों का उत्‍कृष्‍ट संवर और उत्‍कृष्‍ट निर्जरा कर मोक्ष रूप परमस्‍थान प्राप्‍त करना चाहिये ॥544॥

इस प्रकार मनको हरण करने वाला, अभयकुमारका समस्‍त निरूपण सुनकर सभा में बैठे सब लोग कहने लगे कि यह अभयकुमार, वस्‍तुतत्‍वका उपदेश देनेमें ब‍हुत ही कुशल पण्डित है । इस तरह सभी लोगोंने उसके माहात्‍म्‍यकी स्‍तुति की सो ठीक ही है क्‍योंकि ईर्ष्‍या रहित ऐसे कौन मनुष्‍य हैं जो सज्‍जनों के गुणों की स्‍तुति नहीं करते ? ॥545–546॥

इस बुद्धिमान् की बुद्धि जन्‍मसे ही कुशाग्र थी फिर शास्‍त्रके संस्‍कार और भी तेज होकर अनोखी हो गई थी इसीलिए अनेक उपायोंमें निपुण मनुष्‍योंमें विजयपताका प्राप्‍त करने वाले उस अभयकुमार पण्डितने अपने वचनके गुणों से समस्‍त सभाको प्रसन्‍न कर दिया था ॥547॥

आचार्य कहते हैं कि देखो, कहाँ तो अच्‍छे तत्‍वोंको जानने वाला वह श्रावक और कहाँ उदयागत पापकर्म के कारण बहुत दूरतक बढ़ी मूढ़ताओंसे अत्‍यन्‍त दृढ यह अज्ञानी ब्राह्मण ? फिर भी उसके उपदेशसे देवपद पाकर यह वैभवशाली अभयकुमार हुआ है सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंका समागम क्‍या नहीं करता है ? अर्थात् सब कुछ करता है ॥548॥

जिस कुशल पुरूष की बुद्धि तत्‍वोंका विचार करने वाली है तथा उस बुद्धि के साथ अटल श्रद्धा अनुविद्ध है वह उस बुद्धि के द्वारा छोड़ने योग्‍य तत्‍वको छोड़कर तथा ग्रहण करने योग्‍य तत्‍वको ग्रहण कर विचरता है । मिथ्‍यात्‍व आदि प्रकृतियोंकी बन्‍धव्‍युच्छित्ति करता है, सत्‍तामें स्थित कर्मोंकी निरन्‍तर असंख्‍यातगुणी निर्जरा करता है और इस तरह संसारका अन्‍त पाकर अभयकुमार के समान मोक्षसुख का स्‍थान बन जाता है ॥549॥