कथा :
इत्या तीन जगत् के नाथ, अज्ञानरूप अन्धकार के नाशक, केवलज्ञानरूप सूर्य से समस्त पदार्थों के दर्शक श्रीवीर भगवान की मैं वन्दना करता हूँ ॥1॥ अथानन्तर वीरप्रभु के केवलज्ञान की उत्पत्ति के प्रभाव से देवलोक में समुद्र की गर्जना को भी जीतनेवाला, घण्टाओं से स्वयं उत्पन्न हुआ अद्भुत मधुर नाद हुआ ॥2॥ देवगज अपनी सुंडों में कमलों को लेकर और उन्हें आधी ऊपर उठाकर चलते हुए पर्वत के समान स्वर्ग में सानन्द नाच ने लगे ॥3॥ देवलोक के कल्पवृक्षों ने पुष्पांजलि के समान पुष्पवृष्टि की। सर्व दिशाएँ रज-रहित हो गयीं और आकाश निर्मल हो गया ॥4॥ भगवान् की केवलोत्पत्ति के उत्सव में इन्द्रों के गर्व को सह ने में असमर्थ होकर मानो देवेन्द्रों के सिंहासन सहसा काँप ने लगे ॥5॥ सुरेन्द्रों के मुकुट स्वयं ही नम्रीभूत हो गये । इस प्रकार स्वर्ग में भगवान् के केवलोत्पत्ति के सूचक आश्चर्य हुए ॥6॥ इन तथा इसी प्रकार के अन्य चिह्नों से भगवान् के केवलज्ञान के उदय को जानकर इन्द्रगण अपने-अपने आसनों से उठकर हर्पित होते हुए धर्मोत्सुक भगवद्-भक्ति से नम्रीभूत हो गये ॥7। उस समय ज्योतिष्क लोक में महान् अद्भुत सिंहनाद हुआ । तथा स्वर्ग के समान सिंहासनों का कम्पन आदि सर्व आश्चर्य हुए ॥8॥ भवनवासी देवों के भवनों में शंखों की महाध्वनि हुई और मुकुट नम्रीभूत होना तथा आसनों का कँपना आदि शेष समस्त आश्चर्य हुए ॥9॥ व्यन्तरों के निलयों में भेरियों का भारी शब्द स्वयं होने लगा और भगवान् के केवलज्ञान की प्राप्ति के सूचक शेष सर्व आश्चर्य हुए ॥10॥ इन सब आश्चर्यों से सर्व देव और इन्द्रगणों ने वीरप्रभु के केवलज्ञानरूप नेत्र को प्राप्त हुआ जानकर ज्ञानकल्याणक मनाने का विचार किया ॥11॥ तब आदि सौधर्मकल्प का स्वामी शकेन्द्र प्रस्थान-भेरियों को उच्च स्वर से बजवाकर सर्व देवों से आवृत हो भगवान् के केवलज्ञान की पूजा के लिए निकला ॥12॥ तब बलाहक नामक आभियोग्य जाति के देव ने जम्बूद्वीपप्रमाण एक लाख योजन विस्तृत, रमणीक, मुक्तामालाओं से शोभित, किंकिणी (छोटी घण्टियों ) के शब्दों से मुखरित, तेज से सर्व दिशाओं के मुखों को व्याप्त करनेवाला, सर्वमनोरथों का पूरक ऐसा नानारत्नमयी बलाहकाकार दिव्य विमान बनाया ॥13-14॥ उसी समय नागदत्त नाम के आभियोग्य देवों के स्वामी ने एक विशाल ऐरावत हाथी को बनाया, जो उन्नतवंश का था, विशाल कायवाला था, जिस का मस्तक गोलाकार और उन्नत था, जो सात्त्विक प्रकृति का था, बलशाली था, दिव्य व्यंजन और लक्षणों से युक्त था, तिर्यग्लोक जैसे लम्बे, मोटे, विशाल अनेक करों ( शुण्डादण्डों) को धारण करनेवाला था, गोल शरीरवाला, महाउत्तुंग, इच्छानुसार गमन करनेवाला, इच्छानुसार अनेक रूप बनानेवाला था। जिस का सुगन्धित दीर्घ श्वासोच्छ्वास था, दीर्घ ओठ थे, दुन्दुभि के समान शब्द करनेवाला था, रमणीक था, जिस के दोनों कानों पर चामर शोभित हो रहे थे, जिस के दोनों ओर महाघण्टा लटक रहे थे, जिस के गले में सुन्दर माला अंकित थी, नक्षत्रमाला की शोभा से युक्त था, सुवर्णमयी सिंहासन से शोभित था, जम्बूद्वीप प्रमाण विस्तृत था, देदीप्यमान था, अपने श्वेत वर्ण से समस्त दिशाओं के मुखों को श्वेत कर रहा था, मद झर ने से जिस का सर्व अंग लिप्त था, जो चलते हुए पर्वत के समान ज्ञात होता था, ऐसा विक्रियाऋद्धिमय ऐरावत नामक ओजस्वी नागेन्द्र को उस ने अपनी विक्रिया ऋद्धि से बनाया ॥15-20॥ उस ऐरावत गज के बत्तीस मुख थे, एक-एक मुख में आठ-आठ दन्त थे, एक-एक दन्त के प्रति जल से पूर्ण एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनी में बत्तीस बत्तीस कमल खिल रहे थे, प्रत्येक कमल में बत्तीस रमणीक पत्र थे, उन विस्तृत पत्रों पर दिव्यरूप धारिणी मनोहर, लय के साथ स्मितमुख और ललित भ्रुकुटिवाली, मृदङ्ग, गीत, ताल आदि के साथ, विक्रियामय अंगों से रस-पूरित बत्तीस-बत्तीस देव-नर्तकियाँ नृत्य कर रही थीं ॥21-24॥ इत्यादि वर्णन से युक्त उस गजराज पर इन्द्राणी के साथ बैठा अपने शरीर के भूषणों की किरणों से और विभूति से तेजों के निधान के समान श्रीवर्धमानस्वामी के केवलज्ञान की पूजा के हेतु जाता हुआ वह अतिपुण्यात्मा सौधर्मेन्द्र अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रहा था ॥25-26॥ प्रतीन्द्र भी अपने वाहन पर आरूढ़ होकर अपने परिवार से संयुक्त हो महाविभूति और महाभक्ति से सौधर्मेन्द्र के साथ निकला ॥27॥ जो आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवाय शेष सब गुणों में इन्द्र के समान हैं, ऐसे चौरासी हजार सामानिक देव भी हर्ष से निकले ॥28॥ पुरोहित, मन्त्री और अमात्यों के समान तैंतीस त्रायस्त्रिंश देव भी पुण्य-प्राप्ति के लिए इन्द्र के समीप आये ॥29॥ बारह हजार देवों से युक्त आभ्यन्तर परिषद्, चौदह हजार देवों से संयुक्त मध्यम परिषद् और सोलह हजार देवों सहित बाह्य परिषद् ने आकर उस सुरेन्द्र सौधर्मेन्द्र को घेर लिया। अर्थात् तीनों सभाओं के उक्त संख्यावाले सभी देव ज्ञानकल्याणक की पूजा करने के लिए सौधर्मेन्द्र के समीप आये ॥30-31॥ शिरोरक्षक के समान तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव उसी समय सौधर्मेन्द्र के समीप आये ॥32॥ दुर्गपाल के समान लोकान्त तक स्वर्ग की पालना करनेवाले लोकपाल देव भी अपने परिवार के साथ सर्व दिशाओं को मण्डित करते हुए उस को चारों ओर से घेरकर आ खड़े हुए ॥33॥ इन्द्र की प्रथम वृषभसेना के चौरासी लाख दिव्यरूप के धारक उत्तम बैल इन्द्र के आगे चलने लगे ॥34॥ इन से द ने बैल वृषभों की दूसरी सेना में थे, उन से दू ने बैल वृषभों की तीसरी सेना में थे। इस प्रकार सातवीं वृषभ सेना तक दूने-दू ने प्रमाणवाले, नाना वर्णों के धारक सुन्दर बैल इन्द्र के आगे चलने लगे ॥35-36॥ बैलों की सातों सेनाओं की संख्या के समान ही प्रमाणवाली घोड़ों की सात सेनाएँ उनके पीछे-पीछे चलीं। उनके पीछे मणिमयी दीप्रियुक्त रथ, पर्वत के समान विशाल गज, उद्यम के साथ चलनेवाले शीघ्रगामी पैदल सैनिक, दिव्य कण्ठवाले और श्रीजिनोत्सव के गीत गानेवाले गन्धर्व, और जिनेन्द्र सम्बन्धी गीत-वाद्यों के साथ नाचती हुई देव-नर्तकियाँ ये सब क्रम से अपनी-अपनी उक्त संख्यावाली सात-सात कक्षाओं के साथ आगे-आगे चलने लगे ॥37-39॥ पुरवासी लोगों के सदृश असंख्यात प्रकीर्णक देव, दास के समान कार्य करनेवाले आभियोग्य जाति के देव और प्रजा से बाहर रहनेवाले बहुत- से किल्विपिक देव भक्ति से सौधर्मेन्द्र के साथ उस महोत्सव में आगे-आगे चल रहे थे ॥40-41। धर्मबुद्धिवाला ऐशानेन्द्र भी भक्ति के साथ अपनी विभूति से युक्त होकर अश्ववाहन पर आरूढ़ हो सौधर्मेन्द्र के साथ निकला ॥42॥ मृगराज (सिंह) के वाहन पर चढ़कर सनत्कुमारेन्द्र और दिव्य वृषभ पर चढ़कर माहेन्द्र भी सर्व सामग्री के साथ निकला ॥43॥ कान्ति युक्त सारस पर आरूढ होकर देवों से घिरा हुआ ब्रह्मेन्द्र, हंसवाहन पर आरूढ़ होकर महर्द्धिक लान्तवेन्द्र, दीप्त शरीरवाले गरुड़ पर आरूढ़ और देवों से घिरा हुआ शुक्रेन्द्र भी अपने सामानिकादि देवों से तथा देवियों से युक्त होकर भगवान् की पूजा के लिए निकले ॥44-45॥ अपने आभियोग्य देव से निर्मित मयूर वाहन पर चढ़कर शतारेन्द्र भी अपने देव और देवी-परिवार के साथ निकला ॥46॥ आनतेन्द्र आदि शेष चार कल्पों के स्वामी इन्द्र भी अपने-अपने देवपरिवारों के साथ पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर भगवान के ज्ञानकल्याणक के लिए निकले ॥47॥ इस प्रकार बारह कल्पों के इन्द्र अपने बारहों प्रतीन्द्रों से संयुक्त होकर अपनी-अपनी विभूति के साथ अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर भेरी आदि के महानादों से समस्त दिशाओं को परित करते, अपने भूषणों की कान्तिपूज से आकाश में इन्द्रधनष की शोभा को विस्तारते, कोटिकोटि ध्वजा और छत्रों से नभोभाग को आच्छादित करते, जय-जीव आदि शब्द-समूहों से दिशाओं को बधिर करते स्वर्ग से धीरे-धीरे उतरकर गीत नृत्य वादित्र आदि के साथ सैकड़ों उत्सवों को करते हुए ज्योतिषी देवों के पटल को प्राप्त हुए ॥48-51॥ तब ज्योतिष्क पटल के सभी असंख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण अपनी-अपनी विभूति से मण्डित होकर धर्मानुराग के रस से व्याप्त हो, अपनी-अपनी देवियों से युक्त हो जिनकल्याण की सिद्धि के लिए उक्त कल्पवासी देवों के साथ भूतल की ओर चले ॥52-53॥ उसी समय असुरकुमारादि दश जाति के भवनवासी देवों के 1 चमर, 2 वैरोचन, 3 भूतेश, 4 धरणानन्द, 5 वेणुदेव, 6 वेणुधारी, 7 पूर्ण, 8 अवशिष्ट, 9 जलप्रभ, 10 जलकान्ति, 11 हरिषेण, 12 हरिकान्त, 13 अग्निशिखी, 14 अग्निवाहन, 15 अमितगति, 16 अमितवाहन, 17 घोष, 18 महाघोष, 19 वेलंजन, और 20 प्रभंजन ये बीस इन्द्र और बीस ही उनके प्रतीन्द्र अपनी-अपनी विभूति, वाहनास तथा अपनी-अपनी देवियों से संयुक्त होकर भूमि को भेदन कर भगवान की पूजा के लिए इस महीतल पर आये ॥54-58॥ उसी समय किन्नर आदि आठों जाति के व्यन्तर देवों के 1 किन्नर, 2 किम्पुरुष, 3 सत्पुरुष, 4 महापुरुष, 5 अतिकाय, ६.महाकाय, 7 गीतरति, 8 रतिकीर्ति (गीतयश ), 9 मणिभद्र, 10 पूर्णभद्र, 11 भीम, 12 महाभीम, 13 सरूप, 14 प्रतिरूप, 15 काल और 16 महाकाल ये सोलह अद्भुतरूपधारी इन्द्र अपने सोलहों प्रतीन्द्रों के साथ अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर अपनी-अपनी परम सामग्री से भूषित और अपने-अपने देव-देवी परिवार से आवृत होकर भ्रूभाग को भेदन करके ज्ञानकल्याणक करने के लिए इस भूतल पर आये ॥59-63॥ ये चारों देवनिकायों के स्वामी, अपनी इन्द्राणियों और देवों से भूषित, निमेष-रहित उत्तम नेत्रों के धारक, परम आनन्दशाली, कर-कमलों को जोड़े, जय, नन्द आदि मांगलिक शब्दों को बोलते श्रीवीर प्रभु को देखने के लिए उत्सुक अतएव शीघ्र गमन करते हुए यहाँ पर आये ॥64-65॥ और उन्हों ने समस्त ऋद्धियों से परिपूर्ण, रत्न किरणों से दिङ्मुख को व्याप्त करनेवाले, देदीप्यमान ऐसे भगवान् के समवशरण मण्डल को दूर से देखा ॥66॥ कुबेर आदि महाशिल्पियों के द्वारा निर्मित जगद्गुरु के उस समवशरण की रचना को कहने के लिए गणधरदेव को छोड़कर और कौन समर्थ हो सकता है ॥67। तो भी भव्य जीवों के धर्म-प्रेम की सिद्धि के लिए अपनी शक्ति के अनुसार उस समवशरण का कुछ वर्णन करता हूँ ॥68। वह समवशरण गोलाकार एक योजन विस्तारवाला था, उसका प्रथमपीठ उत्तम इन्द्रनीलमणियों से रचा गया था, अतः वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था ॥69॥ हे भव्यो, वह बीस हजार मणिमयी सोपानों ( सीढ़ियों) से विराजित था और भूतल से अढ़ाई कोश ऊपर आकाश में अवस्थित था ॥70॥ उसके किनारे के भूभाग के सर्व ओर अतिदीप्तिमान , रत्नधूलि से निर्मित विशाल धूलिशाल नाम का पहला परकोटा था ॥71॥ वह कहीं पर विद्रुम (मूंगा ) की सुन्दर कान्तिवाला था, कहीं सुवर्ण आभावाला था, कहीं अंजन पुंज के समान काली आभावाला था और कहीं पर शुक ( तोता) के पंखों के समान हरे रंगवाला था ॥72॥ कहीं पर नाना प्रकार के रत्न और सुवर्णोत्पन्न धूलि के तेज-पुंज से आकाश में इन्द्रधनुषों की शोभा को विस्तारता अथवा हँसता हुआ शोभित हो रहा था ॥73॥ उस की चारों दिशाओं में दीप्ति-युक्त सुवर्णस्तम्भों के अग्र भाग पर मकराकृति मणिमालावाले , चार तोरणद्वार सुशोभित हो रहे थे ॥74॥ उसके भीतर कुछ दूर चलकर वीथियों की मध्यभमि में पजन-सामग्री से पवित्रित चार वेदियाँ थीं ॥75॥ वे चार गोपुरद्वारों से संयुक्त, तीन प्राकारों ( कोटों ) से वेष्टित, सुवर्णमयी सोलह सीढ़ियों से भूषित, देदीप्यमान और मन को हरण करनेवाली थीं ॥76। उन वेदियों के मध्यभाग में जिनेन्द्रदेव की प्रतिमासहित, मणियों की कान्ति और पूजनसामग्री से युक्त चार ऊँचे पीठ (सिंहासन ) शोभायमान थे॥७७। उन पीठों के मध्य में चार और छोटे पीठ थे जो उत्तम शोभासे, मणियों की कान्ति से और दिव्य तीन मेखला-(कटिनी-) युक्त शोभित हो रहे थे ॥78॥ उनके मध्य में चमचमाते सुवर्ण से निर्मित, मध्यभाग में जिनप्रतिमा से युक्त, शिखर पर तीन छत्रों से शोभित, ध्वजा, घण्टा आदि से युक्त, उन्नत, मिथ्यादृष्टियों के मान-खण्डन से सार्थक नामवाले चारों दिशाओं की वेदियों पर चार मानस्तम्भ थे, जिन के समीप देव-देवांगनाएँ गीत-नृत्य करती हुई चामर ढोर रही थीं ॥79-88॥ उन मानस्तम्भों के समीपवाली भूमि पर चारों दिशा में मणिमयी सीढ़ियों से मनोहर, जलभरी और कमलों से युक्त ऐसी चार वापियाँ थीं ॥8॥ उन वापियों के नन्दा, नन्दोत्तरा आदि नाम थे, वे अपने जल-तरंगरूपी हाथों से नाचती हुई सी, और कमलों पर भौरों की गुंजार से गाती हुई के समान अत्यन्त शोभित हो रही थीं ॥82॥ उन वापियों के किनारों पर जल से भरे हुए कुण्ड विद्यमान थे, जो भगवान् की वन्दना-यात्रा के लिए आनेवाले भव्य जीवों के पाद-प्रक्षालन के लिए बनाये गये थे ॥83॥ वहाँ से थोड़ी दूर आगे चलकर वीथी (गली) थी और वीथी-धरा को घेरकर अवस्थित, जल से भरी, कमलों के समूहों और भौरों से व्याप्त खाई थी ॥84॥ वह खाई पवन के आघात से उत्पन्न हुई तरंगों से और तरंग-जनित शब्दों से भगवान के ज्ञानकल्याणक के महोत्सव में नृत्य करती और गाती हुई सी शोभित हो रही थी ॥85॥ उसके भीतर के भूभाग को उत्तम लताओं का वन घेरे हुए था और वह लतावन अनेक प्रकार की वेलों, गुल्मों और वृक्षों में लगे हुए सर्व ऋतुओं के फूलों से संयुक्त था ॥86॥ वहाँ पर रमणीक अनेक क्रीड़ा करने के पर्वत थे, जो उत्तम शय्याओंसे, लतामण्डपों से और पुष्प-समूह से व्याप्त थे और जो देवांगनाओं के क्रीड़ा-कौतूहल एवं विश्राम के लिए बनाये गये थे ॥8। उन पर्वतों पर लताभवनों के भीतर देवेन्द्रों के विश्राम के लिए शीतल और मनोहर चन्द्रकान्तमयी शिलाएँ रखी हुई थीं ॥88॥ उन पर्वतो पर अशोक आदि के ऊँचे महावृक्षों से और उनके पुष्पों पर भौरों की गुंजारों से युक्त फलशाली, अतीव सुन्दर प्रियवन शोभायमान था ॥89॥ उसके आगे कुछ दूर चलकर महीतल को घेरे हुए, सुवर्णमयी महान् उन्नत प्रथम प्राकार था ॥90॥ उस प्राकार के ऊपर, नीचे और मध्यभाग में मोती लगे हुए थे, जिन के द्वारा शोभायुक्त वह मनोहर प्राकार ताराओं की परम्परा की शं का को धारण कर रहा था ॥9॥ वह प्राकार कहीं पर विद्रम की कान्ति से यक्त था, कहीं पर नवीन मेघ की छवि को धारण कर रहा था, कहीं पर इन्द्रगोप जैसी लाल शोभा से युक्त था और कहीं पर इन्द्रनीलमणि की नीली कान्ति को धारण कर रहा था ॥92॥ कहीं पर नाना प्रकार के रत्नों की किरणों से महान इन्द्रधनुष की शोभा को विस्तार रहा था और कहीं पर अनेक वर्णवाले रत्नों की किरणों से युक्त होकर बिजली की शोभा दिखा रहा था ॥23॥ वह समस्त प्राकार हाथी, व्याघ्र, सिंह, हंस आदि प्राणियों, मनुष्यों और मयूरों के जोड़ोंसे, तथा वेलों के समूहों से हँसते हुए के समान शोभायमान था ॥94॥ इस प्राकार की चारों दिशाओं में तीन भूमियों ( खण्डों) वाले विशाल रजतमयी चार गोपुर शोभित थे, जो अपने तेज से हँसते हुए के समान प्रतीत हो रहे थे ॥95॥ वे गोपुर पद्मरागमयी, ऊँचे आकाश को उल्लंघन करनेवाले शिखरों से ऐसे शोभित हो रहे थे मानो महामेरु के उन्नत शिखर ही हों ॥१६॥उन शिखरों पर कितने ही गन्धर्व देव तीर्थश्वर के गुणों को गा रहे थे, कितने ही उन गुणों को सुन रहे थे, कितने ही नृत्य कर रहे थे और कितने ही तीर्थंकर देव की आराधना कर रहे थे ॥97। प्रत्येक गोपुर पर भृङ्गार, कला, दर्पण आदि आठों जाति के मंगलद्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ की संख्या में विराजमान थे ॥98॥ प्रत्येक गोपुर द्वार पर नाना प्रकार के रत्नों की कान्ति से गगनांगण को चित्र-विचित्र करनेवाले सौ-सौ तोरण शोभायमान हो रहे थे ॥99॥ उन तोरणों में लगे हुए आभूषण ऐसे प्रतीत होते थे, मानो स्वभाव से ही प्रकाशमान प्रभु के शरीर में रह ने के लिए अवकाश को न पाकर वे अब तोरणों को व्याप्त करके अवस्थित हैं ॥100। उन द्वारों के समीप रखी हुई शंख आदि नवों निधियाँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो जिनेन्द्रदेव के द्वारा वैराग्य से तिरस्कृत होकर द्वार पर ही ठहरकर भगवान की सेवा कर रही हैं ॥101। इन गोपुर द्वारों के भीतर एक-एक महावीथी थी, जिस के दोनों पार्श्वभागों में दो-दो नाट्यशालाएँ थीं। इस प्रकार चारों दिशाओं में दोदो महानाट्यशालाएँ थीं ॥102॥ तीन भ मियों ( खण्डों) से युक्त, ऊँचे वे नाट्यमण्डप ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो सज्जनों को मुक्ति का रत्नत्रयस्वरूप त्रिधात्मक मार्ग कहने के लिए उद्यत है ॥103॥ उन नाट्यमण्डपों के विशाल स्तम्भ सुवर्णमयी थे, उन की भित्तियाँ निर्मल स्फटिक मणिमयी थीं। उन मण्डपों के भीतर उत्तम अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं ॥104॥ कितनी ही देवियाँ वीगा के साथ प्रभु के विजय का गान कर रही थीं और कितने ही दिव्य कण्ठवाले गन्धर्व भगवान् के कैवल्यप्राप्ति से उत्पन्न हुए गुणों को गा रहे थे ॥105॥ उन वीथियों की दोनों दिशाओं में दो-दो धूपघट थे, जिन के धूप की सुगन्धी को विस्तारनेवाले धुएँ के द्वारा गगनांगण सुगन्धित हो रहा था ॥106। उसके आगे कुछ दूर चलकर वीथियों के मध्य में चार वनवीथियाँ थीं, जो सर्व ऋतु के फल-फूलों से युक्त दूसरे नन्दनादि वनों के समान मालूम पड़ती थीं ॥107॥ उन बनवीथियों में अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्रवृक्षों के वन थे, जो कि अति उन्नत वृक्षसमूहों से शोभित हो रहे थे ॥108॥ उन वनों के मध्यभाग में जल से भरी हुई वापियाँ थीं और कहीं पर तिकोन और चतुष्कोनवाली पुष्करिणियाँ थीं ॥109॥ उन वनों में कहीं पर सुन्दर भवन थे, कहीं पर सुन्दर क्रीडामण्डप थे, कहीं पर दर्शनीय प्रेक्षागृह थे और कहीं पर उन्नत शोभायुक्त चित्रशालाएँ थीं ॥110॥ कहीं पर एक खण्डवाले और कहीं पर दो खण्डवाले देदीप्यमान प्रासादों की पंक्तियाँ थीं, कहीं पर क्रीडास्थल थे और कहीं पर कृत्रिम पर्वत थे ॥111॥ वहाँ अशोक वन के बीच में अशोक नाम का चैत्यवृक्ष था, जिस का पीठ रम्य, सुवर्णमयी तीन मेखलाओंवाला था और वह चैत्यवृक्ष बहुत ऊँचा था ॥112॥ चैत्यवृक्ष तीन शालों ( कोटों) से वेष्टित था, प्रत्येक शाल में चार-चार गोपुर द्वार थे। वह चैत्यवृक्ष तीन छत्रों से युक्त था और उसके शिखर पर शब्द करता हुआ अतिसुन्दर घण्टा अवस्थित था ॥113॥ वह चैत्यवृक्ष ध्वजा, चामर आदि मंगल द्रव्यों से और श्री जिनदेव की प्रतिमा आदि से युक्त था, देवगण जहाँ पर पूजन कर रहे थे और वह जम्बूवृक्ष के समान उन्नत था ॥114॥ इस चैत्यवृक्ष के ऊपर चारों दिशाओं में दीप्तियुक्त श्री जिनमर्तियाँ थीं, जहाँ पर आकर अपने पुण्योपार्जन के लिए देवेन्द्र महान् द्रव्यों से उन की पूजा कर रहे थे ॥115। इसी प्रकार शेष वनों में भी देवों से पूजित, छत्रचामर और अहत्प्रतिमाओं से युक्त रमणीय सप्तपर्णादि चैत्यवृक्ष थे ॥116॥ माला, शुक, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, वृषभ, हाथी और चक्र इन दश चिह्नों की धारक दिव्य रूपवाली ऊँची ध्वजाएँ फहराती हुई ऐसी ज्ञात होती थीं मानो मोह-शत्रु को जीत ले ने से उपार्जित प्रभु के तीन लोक के ऐश्वर्य को एकत्रित करने के लिए उद्यत हुई हो ॥117-118॥ एक-एक दिशा में प्रत्येक चिह्नवाली एक सौ आठ रमणीय ध्वजाएँ जानना चाहिए। वे ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो आकाशरूप समुद्र की तरंगें ही हों ॥119॥ उन ध्वजाओं के पवन से हिलते और चारों ओर घूमते हुए वस्त्र ऐसे मालूम होते थे मानो जिनराज के पूजन के लिए जगत् के जनों को बुला ही रहे. हों ॥120॥ उन दश चिह्नवाली ध्वजाओंमें- से माला चिह्नवाली ध्वजाओं में रमणीक फूलों की मालाएँ लटक रही थीं। वस्त्र-चिह्नवाली ध्वजाओं में सूक्ष्म चिक ने वस्त्र लटक रहे थे ॥12॥ इसी प्रकार मयूर आदि चिह्नवाली ध्वजाओं में देव-शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर मूर्तिवाले मयूर आदि शोभित हो रहे थे ॥122॥ वे ध्वजाएँ एक-एक दिशा में एक हजार अस्सी ( 1080) थीं और चारों दिशाओं की मिलाकर चार हजार तीन सौ बीस (4320) थीं ॥123॥ उस से आगे चलकर भीतरी भूभाग में चाँदी से बना हुआ, लक्ष्मीयुक्त दूसरा महान् शाल ( कोट ) था, जिस का वर्णन प्रथम शाल के समान ही जानना चाहिए ॥124॥ इस शाल में भी पूर्वशाल के समान ही रजतमयी गोपुर द्वार थे और वहाँ पर आभूषणों से युक्त बड़े-बड़े तोरण थे ॥125॥ यहाँ पर भी पूर्व के समान नवनिधियाँ, अष्टप्रकार के मंगलद्रव्य, दो-दो नाट्यशालाएँ और दो-दो धूपघट महावीथी के दोनों ओर थे॥१२६॥ उन दोनों नाट्यशालाओं में गीत-नृत्य आदि तथा शेष समस्त विधि भी प्रथम शाल के समान जानना चाहिए ॥127। इस से आगे वीथी के अन्तराल में नाना प्रकार के रत्नों की प्रभा से शोभित कल्पवृक्षों का एक देदीप्यमान वन था । जिस में दिव्य माला, वस्त्र, आभूपण आदि की सम्पदा से युक्त ऊंचे, फळवाले, और उत्तम छायावाल रमणीक कल्पवृक्ष शोभायमान हो रहे थे ॥128-129॥ उन्हें देखकर ऐसा ज्ञात होता था मानो देवकुरु और उत्तरकस ही अपने दश जाति के कल्पवृक्षों के साथ भगवान् की सेवा करने के लिए यहाँ पर आये हैं ॥130॥ उन कल्पवृक्षों के फल आभूषणों के समान, पत्ते वस्त्रों के समान, और शाखाओं के अग्रभाग पर लटकती हुई देदीप्यमान मालाएँ वट-वृक्ष की जटाओं के समान प्रतीत होती थीं ॥131॥ इन कल्पवृक्षोंमें- से ज्योतिरंग कल्पवृक्षों के नीचे ज्योतिष्क देव, दीपांग कल्पवृक्षों के नीचे कल्पवासी देव, और मालांग कल्पवृक्षों के नीचे भवनवासी इन्द्र क्रीड़ा करते हुए विश्राम कर रहे थे ॥132॥ इन कल्पवृक्षों के वन के मध्य में दिव्य सिद्धार्थ वृक्ष थे, जो कि सिद्ध प्रतिमाओं से अधिष्ठित और छत्र-चामरादि विभूति से विराजित थे ॥133॥ पूर्व में जो चैत्यवृक्षों का वर्णन किया गया है वह इन सिद्धार्थ वृक्षों में भी समझना चाहिए। किन्तु ये कल्पवृक्ष संकल्पित सभी उत्तम भोगों को देनेवाले थे ॥134॥ इन कल्पवृक्षों के वनों के चारों ओर एक रमणीक वनवेदि का थी जो कि सुवर्ण-निर्मित, रत्नों से जड़ी हुई और अति प्रभायुक्त थी॥१३५॥ उस वनवेदि का में मोतियों की लटकती हुई मालाओं के पुंज से और लटकते हुए घण्टा-समूह से युक्त रजतमयी चार उत्तम गोपुर द्वार थे ॥136॥ वे सब संगीत, वादित्र और नृत्योंसे, पुष्पमाला आदि अष्टमंगलद्रव्योंसे, ऊँचे शिखरों से तथा देदीप्यमान रत्नों के आभूषणवाले तोरणों से शोभित थे ॥137। उस से आगे वीथी के अन्तराल में सोने के स्तम्भों के अग्रभाग पर फहराती हुई अनेक प्रकार की ध्वजा पंक्तियाँ वहाँ की श्रेष्ठ भूमि को अलंकृत कर रही थीं ॥138॥ मणिमयी पीठों पर अवस्थित वे ध्वजस्तम्भ अपनी उन्नत शोभा से ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो स्वामी की कर्म-शत्रु की जीत को पुरुषों से कहने के लिए ही उद्यत हो रहे हैं ॥139॥ उन ध्वजास्तम्भों की मोटाई अठासी ( 88 ) अंगुल और स्तम्भों का पारस्परिक अन्तराल पचीस (25) धनुष गणधरों ने बताया है। समवशरण में स्थित सर्व मानस्तम्भ, ध्वजास्तम्भ, सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष, स्तूप, तोरण-सहित प्राकार और वनवेदिकाएँ तीर्थ करके शरीर की ऊँचाई से बारह गुनी ऊँचाईवाली कही गयी हैं। इन का आयाम और विस्तार ज्ञानियों को इन के योग्य जान लेना चाहिए ॥140-142॥ समवशरण में स्थित वनोंकी, सर्व भवनों की तथा पर्वतों की ऊँचाई भी इतनी ही द्वादशांग श्रुत-सागर के पारगामी गणधर देवों ने कही है ॥143॥ पर्वत अपनी ऊँचाई से आठ गुणित विस्तीर्ण हैं, और स्तूपों की मोटाई उन की ऊँचाई से निश्चयतः कुछ अधिक है ॥144॥ विश्वतत्त्वों के ज्ञाता, देव-पूजित गणधरदेव वनवेदिकादि की चौड़ाई ऊँचाई से चौथाई कहते हैं ॥145॥ इस वन के मध्य में कहीं नदियाँ, कहीं वापियाँ, कहीं सिकता-(बालुका-) मण्डल, और कहीं पर सभागृह आदि थे ॥146॥ इन वनवीथी को घेरे हुए सुवर्णमयी, उन्नत और चार गोपुर द्वारों से भूषित वनवेदि का थी ॥147। इस के तोरणद्वार, मांगलिक द्रव्य, आभूषण सम्पदा, और गीत-नृत्य वादित्रादि की शोभा पूर्वोक्त वर्णन के समान ही जाननी चाहिए ॥148॥ इस के पश्चात् इस प्रतोली को उल्लंघन करके उस से आगे सर्व ओर एक और वीथी थी जो देव-शिल्पियों से निर्मित नाना प्रकार के प्रासाद-( भवन )-पंक्तियों से शोभित हो रही थी ॥149॥ उन प्रासादों के सुवर्णमयी महास्तम्भ थे, उनका वज्रमय अधिष्ठान बन्धन था, चन्द्रकान्तमणिमयी शिलावाली उन की दिव्य भित्तियाँ थीं और वे नाना प्रकार की मणियों से जड़ी हुई थीं ॥150॥ उस प्रासाद-पंक्ति में कितने ही भवन दो खण्डवाले, कितने ही तीन खण्डवाले और कितने चार खण्डवाले थे। कितने ही चन्द्रशाला (छत ) से युक्त थे और कितने ही वलभी (छज्जा और गेलेरी) से शोभित थे॥१५॥ देदीप्यमान, ऊँचे कूटानों से शोभित, अपने तेजकान्तिरूपी समुद्र के मध्य में अवस्थित वे प्रासाद ऐसे शोभा दे रहे थे, मानो चन्द्र की चन्द्रि का से ही निर्मित हुए हों ॥152॥ वे प्रासाद कूटागार, सभागृह, प्रेक्षणशाला, शय्या और आसनों से युक्त एवं उत्तुंग थे। उनके सोपान अपनी धवलिमा से आकाश को धवलित कर रहे थे ॥153॥ उन में गन्धर्व, व्यन्तर, ज्योतिष्क और पन्नगदेव, तथा विद्याधर किन्नरों के साथ सदा क्रीड़ा कर रहे थे ॥154॥ उन में से कितने ही गीत-गायनोंसे, कितने ही वादित्र बजानेसे, कितने ही नृत्यों से और कितने ही धर्मगोष्ठी आदि के द्वारा जिनभगवान् की आराधना कर रहे थे ॥155॥ उन वीथियों के मध्य भूभाग में पद्मराग मणिमयी, नौ ऊँचे स्तूप थे जो सिद्ध और अरहन्तदेव की प्रतिमाओं के समूह से युक्त थे ॥156॥ इन स्तूपों के अन्तराल में नभोभाग को चित्र-विचित्रित करनेवाली मणिमयी तोरणमालिकाएँ इन्द्रधनुष के समान शोभित हो रही थीं ॥157॥ वे अर्हन्त-सिद्धों की प्रतिमासमूहसे, ध्वजा-छत्रादि सर्व सम्पदा से और अपने तेज से धर्ममूर्तियों के समान शोभायमान हो रही थीं ॥158॥ वहाँ पर जाकर भव्य जीव उन उत्तम प्रतिमाओं का अभिषेक कर, पूजन कर, प्रदक्षिणा देकर और स्तुति करके उत्तम धर्म का उपार्जन कर रहे थे ॥159॥ इस स्तूप और प्रासादों की पंक्ति से व्याप्त वीथीवाली भूमि का उल्लंघन कर उस से कुछ आगे अपनी स्फुरायमान शुभ्र ज्योत्स्ना से दिग्भाग को आलोकित करनेवाला, आकाश के समान स्वच्छ स्फटिकमणिमयी एक शाल (प्राकार ) था। इस शाल के पद्मरागमणिमयी, ऊँचे दिव्य गोपुरद्वार शोभित हो रहे थे, जो ऐसे प्रतीत होते थे, मानो भव्य जीवों का धर्मानुराग ही एकत्रित हो गया है ॥160-161॥ यहाँ पर भी पूर्व के समान ही मंगलद्रव्यसम्पदा, आभूषणयुक्त तोरण, नवों निधियाँ और गीत-वादित्र-नर्तन आदि सब साज-बाज थे ॥162॥ प्रत्येक गोपुर द्वार पर चामर, तालवृन्त, दर्पण, ध्वजा, और छत्रों के साथ प्रकाशमान सुप्रतिष्ठिक, श्रृंगार और कलश ये अष्ट मंगलद्रव्य शोभित हो रहे थे ॥163॥ उक्त तीनों ही शालों के द्वारों पर गदा आदि को हाथों में लिये हुए व्यन्तर, भवनवासी और कल्पवासी देव क्रम से द्वारपाल बनकर खड़े हुए थे ॥164॥ वहाँ पर उक्त स्वच्छ स्फटिक मणिमयी शाल से लेकर पीठ-पर्यन्त लम्बी, चारों महावीथियों के अन्तराल के आश्रित सोलह भित्तियाँ थीं ॥165॥ उन स्फटिकमणिमयी भित्तियों के शिखर पर रत्नमयी स्तम्भों से उठाया हुआ, निर्मल रत्न-निर्मित, उत्तुंग श्रीमण्डप था ॥166॥ यह सत्यार्थ में श्रीमण्डप ही था, क्योंकि यह तीन जगत् की सर्वोत्कृष्ट श्री (लक्ष्मी) से भरपूर था और जहाँ पर आकर भव्यजीव अर्हन्तदेव की दिव्यध्वनि से स्वर्ग और मोक्ष की श्री को प्राप्त करते थे ॥167। उस श्रीमण्डप के मध्य में ऊँची प्रथम पीठि का अति शोभित हो रही थी, जो कि वैडूर्यरत्नों से निर्माण की गयी थी और अपने तेज से सर्व दिशाओं के मुखों को व्याप्त कर रही थी ॥16॥ उस प्रथम पीठि का के सर्व ओर सोलह अन्तराल-युक्त सोलह सोपानमार्ग थे। जिन में से चार सोपानमार्ग तो चारों दिशाओं में थे और बारह सोपानमार्ग बारह कोठों के प्रवेशद्वारों की ओर फैले हुए थे ॥169॥ इस प्रथम पीठि का को आठों मंगलद्रव्य अलंकृत कर रहे थे और यक्षदेव अपने मस्तकों पर धर्मचक्रों को धारण किये हुए खड़े थे। वे धर्मचक्र एक-एक हजार आरेवाले थे और ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो अपनी किरणरूप वचन-समूह से जगत् के सज्जनों को धर्म का स्वरूप ही कह रहे हों, अथवा जिनदेव के आश्रय से हँस ही रहे हों ॥170-171॥ इस प्रथम पीठ के ऊपर हिरण्यमयी अति उन्नत द्वितीय पीठ था, जो अपनी कान्ति से चन्द्रमण्डल को जीत रहा था ॥172॥ इस दूसरे पीठ के उपरितल पर चक्र, गजराज, वृषभ, कमल, दिव्यांशुक, सिंह, गरुड़ और माला की आठ मनोहर ऊँची ध्वजाएँ आठों दिशाओं में शोभायमान हो रही थीं, जो अपने प्रदीप आकारों से सिद्धों के आठ गुणों के सदृश प्रतीत हो रही थीं ॥173-174॥ इस द्वितीय पीठ के ऊपर अपनी स्फुरायमान रत्नकिरणों के द्वारा अन्धकार के समूह को विध्वस्त करनेवाला, सर्वरत्नमयी तेजस्वी तृतीय पीठ था ॥175॥ यह परम पीठ अपनी उज्ज्वल किरणों के द्वारा और अनेक मांगलिक सम्पदा से देवों के तेजों को जीतकर हँसता हुआ शोभित हो रहा था ॥176॥ इस तीसरे पीठ के ऊपर कुबेरराज ने जगत् में सारभूत उत्कृष्ट गन्धकुटी नाम की पृथ्वी को रचा था जो कि अद्भुत तेजोमूर्ति के समान थी ॥17॥ वह दिव्य सुगन्धीवाले धूपोंसे, और नाना प्रकार के पुष्पों की वर्षा से गगनांगण को सगन्धित करती हुई अपना 'गन्धकटी' यह नाम सार्थक कर रही थी ॥178॥ यक्षराज ने उस गन्धकुटी की दिव्य रचना नाना प्रकार के आभरण-विन्यासोंसे, उपमा-रहित मुक्ताजालोसे, सुवर्ण-जालोंसे, स्थूल, स्फुरायमान और अन्धकार-विनाशक रत्नों से की थी, उस की शोभा का वर्णन करने के लिए श्री गणधरदेव के बिना और कौन बुद्धिमान् समर्थ है ॥179-180॥ उस गन्धकुटी के मध्य में यक्षराज ने अनमोल उत्कृष्ट मणियों से भूषित, अपनी प्रभा से सूर्य की प्रभा को जीतनेवाला, स्वर्णमयी दिव्य सिंहासन बनाया था ॥181॥ उस सिंहासन को कोटिसूर्य की प्रभा से अधिक प्रभावाले और तीन लोक के भव्यजीवों से वेष्टित श्री महावीर प्रभु अलंकृत कर रहे थे ॥182॥ उस पर अनन्त महिमाशाली, विश्व के सर्वप्राणियों के उद्धार करने में समर्थ, और अपनी महिमा से सिंहासन के तलभाग को चार अंगुलों से नहीं स्पर्श करते हुए भगवान् अन्तरिक्ष में विराजमान थे ॥183॥ इस प्रकार विद्वज्जनों से नमस्कृत, विश्व के एकमात्र चूडामणि, जिनश्रेष्ठ श्रीवीरप्रभु ने देवों द्वारा रचित बाहरी अतुल उत्कृष्ट समवशरण विभूतिको, तथा अनुपम अनन्त गुणों के साथ केवल विभूति को प्राप्त किया, उन लोक के अनुपम पितामह श्री वर्धमान जिनेन्द्र की मैं गुणगणों के द्वारा स्तुति करता हूँ ॥184॥ जो श्री वीरनाथ तीनों लोकों के तार ने में कुशल हैं, कर्म-शत्रुओं के विध्वंसक हैं, दिव्य सभागणों से परिवत हैं, धर्मोपदेश देने के लिए उद्यत हैं, जो तीन जगत् के जीवों के अकारण बन्धु हैं, और अनन्त चतुष्टय को जिन्हों ने प्राप्त किया है और जो महान हैं, ऐसे श्री महावीर प्रभु को मैं उन की विभूति पा ने के लिए अपना मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ॥185॥ जो अनुपम गुणों के निधान हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्र के धारक हैं, त्रिभुवन के स्वामियों द्वारा सेवित हैं, समस्त विश्व के एकमात्र बन्धु हैं, सर्व दोषों के नाशक हैं, इस भूतल पर धर्मतीर्थ के कर्ता हैं, ऐसे श्री वीरनाथ की मैं शिव के गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ॥186॥ इति श्री भट्टारक सकलकीति-विरचित श्री वीरवर्धमानचरित में देवों का आगमन और भगवान् के समवशरण-रचना का वर्णन करनेवाला चौदहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥14॥ |