कथा :
केवलज्ञानरूप साम्राज्यपद के भोक्ता, भव्य जीवों से वेष्टित, और धर्मतीर्थ के प्रवर्तक श्रीमान महावीर स्वामी के लिए नमस्कार है ॥1॥ जिस गन्धकुटी में भगवान् विराजमान थे उस स्थान के सर्व भूभाग को व्याप्त कर देवरूपी मेव पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ॥2॥ गगनमण्डल से आती हुई वह दिव्य पुष्पवृष्टि अपनी सुगन्धि से आकृष्ट हुए भ्रमरों की गुंजार से जगत् के नाथ वीर जिनेश्वर के गुणों को गाती हुई-सी प्रतीत हो रही थी ॥3॥ जिनदेव के समीप में अति उन्नत दीप्तिमान अशोकवृक्ष था, जो कि जगत् के जीवों के शोक को दूर करने से अपने नाम को सार्थक कर रहा था |4॥ वह महान् अशोकवृक्ष मणिमयी विचित्र पुष्पोंसे, मरकतमणि-जैसे वर्णवाले उत्तम पत्तोंसे, तथा हिलती हुई शाखाओं से भव्य जीवों को बुलातासा प्रतीत होता था ॥5॥ प्रभु के शिर पर दीप्त कान्तिवाला, मुक्तामालाओं से भूषित, दिव्य नाना रत्न-समूह से जटित दण्डवाला, और अपनी कान्ति से चन्द्रमा की कान्ति को जीतनेवाला छत्रत्रय सज्जनों को भगवान् के तीन लोक के स्वामीप ने की सूचना देते हुए के समान शोभित हो रहा था ॥6-7॥ क्षीरसागर की तरंगों के सदृश शुभ्र वर्णवाले, यक्षों के हस्तों द्वारा चौसठ चामरों से वीज्यमान, तीन लोक के भव्य जीवों के मध्य में स्थित, और लक्ष्मी से अलंकृत शरीरवाले, उत्तम रूपवाले जगद्-गुरु श्री वर्धमान स्वामी मुक्तिरमा के उत्तम वर के समान शोभित हो रहे थे ॥8-9॥ मेघों को गर्जना को जीतनेवाली, देवों के हाथों से बजायी जाती हुई साढ़े बारह करोड़ उत्तम देव-दुन्दुभियाँ अनेक कर्म-शत्रुओं की तर्जना करती हुई और जगत् के सज्जनों को उत्तम जिनोत्सव की सूचना करती हुई नाना प्रकार के शब्दों को कर रही थीं ॥10-11॥ भगवान् के दिव्य औदारिक शरीर से उत्पन्न हुआ देदीप्यमान कोटि सूर्य से भी अधिक प्रभावाला रम्य भामण्डल शोभित हो रहा था ॥12॥ वह भामण्डल सर्वबाधाओं से रहित, अनुपम, सर्व प्राणियों के नेत्रों को प्रिय, यशों का पुंज अथवा तेजों का निधान-सा ही प्रतीत हो रहा था ॥13॥ वीरजिनेन्द्र के श्रीमुख से निकलनेवाली, विश्वहित-कारिणी, सर्व तत्त्व और धर्म को प्रकट करनेवाली दिव्य ध्वनि प्रतिदिन प्रकट होती थी ॥14॥ जैसे मेघों से बरसा हुआ एक रूपवाला, जलसमूह वृक्षादिकों के पात्र-योग से विविध प्रकार के फलों का उत्पन्न करनेवाला होता है, उसी प्रकार भगवान की एक रूपवाली भी अनक्षरी दिव्यध्वनि नाना भाषामयी और व्यक्त अक्षरवाली होकर अनेक देशों में उत्पन्न हुए मनुष्यों, पशुओं और देवों के समस्त सन्देहों का नाश करनेवाली और धर्म का स्वरूप कथन करनेवाली थी ॥15-17॥ तीन रत्नपीठों के अग्रभाग पर स्थित अनुपम सिंहासन पर विराजमान ऐसे तीन जगत् के नाथ वीरजिनेन्द्र धर्मराजा के समान शोभित हो रहे थे ॥18। इस प्रकार इन अमूल्य उत्कृष्ट आठ महाप्रातिहार्यों से अलंकृत भगवान महावीर समवशरण-सभा में अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ॥19॥ इस समवशरण-सभा में बारह कोठे थे। उनमें- से भगवान की पूर्वदिशा से लेकर प्रथम शुभ प्रकोष्ठ में गणधरादि मुनीश्वरों का समूह शिवपद की प्राप्ति के लिए विराजमान था ॥20॥ दूसरे कोठे में इन्द्राणी आदि कल्पवासिनी देवियाँ विराजमान थीं। तीसरे कोठे में सर्व आर्यिकाएँ श्राविकाओं के साथ हर्ष से बैठी हुई थीं ॥21॥ चौथे कोठे में ज्योतिषी देवों की देवियाँ बैठी थीं। पाँचवें कोठे में व्यन्तर देवों की देवियाँ और छठे कोठे में भवनवासी देवों की पद्मावती आदि देवियाँ बैठी थीं ॥22॥ सातवें कोठे में धरणेन्द्र आदि सभी भवनवासी देव बैठे थे। आठवें कोठे में अपने इन्द्रों के साथ व्यन्तर देव बैठे थे। नवें कोठे में चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देव बैठे थे ॥23॥ . दशवे कोठे में कल्पवासी देव बैठे थे। ग्यारहवें कोठे में विद्याधर आदि मनुष्य बैठे थे और बारहवें कोठे में सर्प, सिंह, मृगादि तिर्यंच बैठे थे। इस प्रकार बारह कोठों में बारह गणवाले जीव भक्ति से हाथों की अंजलि बाँधे हुए, संसारताप की अग्नि से पीड़ित होने से उस की शान्ति के लिए भगवान् के वचनामृत का पान करने के इच्छुक होकर त्रिजगद-गरु को घेरकर बैठे हुए थे॥२४-२६॥ उक्त बारह गणों से वेष्टित, अत्यन्त सुन्दर, जगद्-भर्ता श्री वर्धमान भगवान सर्वधर्मीजनों के मध्य में उन्नत धर्ममूर्ति के समान शोभायमान हो रहे थे ।॥27॥ अथानन्तर धर्मरूप रस के पान करने के उत्कट अभिलाषी वे सौधर्मादि इन्द्र अपने अपने देव-परिवार के साथ मस्तक पर कर-कमलों को रखे और जय-जय आदि घोषणा करते हुए समवशरण में प्रविष्ट हुए। उन्हों ने सज्जनों को शरण देनेवाले उस समवशरण मण्डल की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। पुनः जगद्-गुरु श्री वीरजिनेन्द्र के दर्शनों के इच्छुक उन देवेन्द्रादिकों ने परम भक्ति के साथ मानस्तम्भ, महाचैत्यवृक्ष और स्तूपों में विराजमान जिनेन्द्र और सिद्ध भगवन्तों के विम्ब-समूह की महान् द्रव्यों से पूजा की। पुनः समवशरण की देवों द्वारा रचित अनुपम दिव्य रचना को देखते हुए वे हर्ष के साथ उस सभा में प्रविष्ट हुए ॥28-31॥ वहाँ पर उत्तुग स्थान पर रखे हुए उन्नत सिंहासन पर विराजमान, अति उत्तम कोटि-कोटि गुणों से उत्तुंग कायवाले, चार मुखों के धारक, चामरों से वीज्यमान महावीर भगवान को विस्फारित नेत्रवाले इन्द्रादिकों ने परम विभूति के साथ देखा ॥32-33॥ तब भक्तिभार से नम्रीभूत होकर उन सब ने अति भक्ति के साथ भगवान की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर भमि-भाग पर अपनी जानओं (घुटनों) को रखकर कर्मों के नाश करने के लिए तीन लोक के जीवों से सेवित जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों को इन्द्रों ने समस्त देवों के साथ मस्तक से नमस्कार किया ॥34-35॥ शची आदि सभी देवियों ने अपनी-अपनी अप्सराओं के साथ त्रिजगदीश्वर को अति हर्ष से पंचांग नमस्कार किया ॥36॥ उनके नमस्कार करते समय इन्द्रों के रत्नमयी मुकुटों की किरणों से चित्र-विचित्र शोभा को धारण करते हुए जिनेन्द्रदेव के चरण-कमल अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ॥37॥ जिन के शरीर की छाया नहीं पड़ती है, ऐसे वे देवों के स्वामी इन्द्रादिक भगवान् के गुण-ग्राम से अनुरंजित होकर उत्कृष्ट दिव्य सामग्री के द्वारा वीरजिनेन्द्र की पूजा करने के लिए उद्यत हुए ॥38॥ उन्हों ने चमकते हुए सुवर्ण-निर्मित शृंगार नालों से स्वच्छ जल की धारा अपने पापों की विशुद्धि के लिए भगवान के चरणों के आगे छोड़ी ॥39॥ पुनः महाभक्ति से उन इन्द्रों ने भुक्ति और मुक्ति की प्राप्ति के लिए भगवान के रमणीक पीठ के आगे दिव्य गन्धविलेपन से पूजा की ॥40॥ पुनः अपनी स्वच्छता से आकाश को धवल करनेवाले मुक्ताफलमयी दिव्य अक्षतों से उन्हों ने अक्षय सुख पा ने के लिए भगवान् के आगे पाँच उन्नत पुंज बनाये ॥41॥ पुनः कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए दिव्य कोटि-कोटि पुष्पमालादि से सर्व अर्थों को सिद्ध करनेवाली भगवान् की महापूजा की ॥42॥ पुनः उन देवों ने रत्नों के थालों में रखे हुए अमृत पिण्डमयी नैवेद्य को अपने सुख की प्राप्ति के लिए भक्ति के साथ प्रभु के चरण-कमलों में चढ़ाया ॥43॥ पुनः स्फुरायमान रत्नमयी, विश्व के प्रकाश करने में कारणभूत दीपों के द्वारा अपने चैतन्यस्वरूप की प्राप्ति के लिए उन इन्द्रों ने जगत् के नाथ वीरजिनेन्द्र के चरण-कमलों को प्रकाशित किया ॥44॥ तत्पश्चात् उन इन्द्रों ने कालागुरु आदि उत्तम द्रव्यों से निर्मित, सुगन्धित श्रेष्ठ धूप-समूह से जिनदेव के चरण-कमलों को धूपित किया ॥45॥ तदनन्तर कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए, नेत्र-प्रिय, श्रेष्ठ अनेक महाफलों से उन्हों ने मुक्तिरूप महाफल की सिद्धि के लिए जिनेन्द्र के चरण-कमलों की पूजा की ॥46॥ इस प्रकार अष्टद्रव्यों से पूजा करने के अन्त में उन इन्द्रों ने कोटि-कोटि कुसुमांजलियों से जगद्-गुरु के सर्व ओर हर्षित होकर पुष्पवृष्टि की ॥47॥ तत्पश्चात् इन्द्राणी ने प्रभु के आगे पाँच जाति के रत्नों के चूर्णों द्वारा अपने हाथ से भक्ति के साथ अनेक प्रकार के उत्तम सांथिया आदि को लिखा ॥48॥ तदनन्तर पूजा करने से अति सन्तुष्ट हुए उन देवों के नायक इन्द्रों ने कुछ नम्रीभूत होकर महाभक्ति से अपने हाथों को जोड़कर तीर्थंकर प्रभु को नमस्कार कर दिव्य वचनों से जिनेन्द्रदेव के अन्त-रहित (अनन्त ) गुणों के द्वारा उन गुणों की प्राप्ति के लिए इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥49-50॥ हे देव, तुम सारे जगत् के नाथ हो, तुम गुरुजनों के महागुरु हो, पूज्यों के महापूज्य हो, वन्दनीय देवेन्द्रों के भी तुम वन्दनीय हो, ॥51॥ तुम योगियों में महायोगी हो, व्रतियों में महाव्रती हो, ध्यानियों में महाध्यानी हो, और बुद्धिमानों में तुम महाबुद्धिमान हो ॥52॥ ज्ञानियों में तुम महाज्ञानी हो, यतियों में तुम जितेन्द्रिय हो, स्वामियों के तुम परम स्वामी हो और जिनों में तुम उत्तम जिन हो ॥53॥। ध्यान करने योग्य पुरुषों के तुम सदा ध्येय हो, स्तुति करने योग्य पुरुषों के तुम स्तुत्य हो, दाताओं में तुम महादाता हो और हे प्रभो, गुणीजनों में तुम महागुणी हो ॥54॥ धर्मीजनों में तुम परमधर्मी हो, हितकारकों में तुम महान् हितकारक हो, भव-भीरुजनों के तुम त्राता ( रक्षक ) हो और अपने तथा अन्य जीवों के कर्मों के नाश करनेवाले हो ॥55॥ अशरणों को आप शरण देनेवाले हैं, शिवमार्ग में सार्थवाह हैं, अबन्धुओं के आप अकारण बन्धु हैं और जगत् के हितकर्ता हैं ॥56॥ लोभीजनों में आप महालोभी हैं, क्योंकि विश्व के अग्रभाग पर स्थित मुक्तिसाम्राज्य की आकांक्षा से युक्त हैं । रागियों में आप महारागी हैं, क्योंकि मुक्ति स्त्री के संगम का चिन्तन करते हैं ॥57॥ सग्रन्थों ( परिग्रहीजनों ) में आप महासग्रन्थ हैं, क्योंकि आप ने सम्यग्दर्शनादि रत्नों का संग्रह किया है । घातकजनों में आप महाघातक हैं, क्योंकि आप ने कर्मरूपी महाशत्रुओं का घात किया है ॥58॥ विजेताजनों में आप महाविजेता हैं, क्योंकि आप ने कषाय और इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लिया है। अपने शरीरादि में इच्छारहित हो करके भी आप विश्व के अग्रभाग पर स्थित मुक्ति लक्ष्मी के वांछक है ॥59॥ चतुर्निकायवाली देवियों के समूह के मध्य में स्थित हो करके भी आप परम ब्रह्मचारी हैं तथा एक मुखवाले हो करके भी आप चार मुखवाले दिखाई देते हैं ॥60॥ हे जगद्गुरो, आप विश्वातिशायिनी लक्ष्मी से अलंकृत हैं, आप महान् निर्ग्रन्थराज हैं, आप के समान संसार में कोई दूसरा नहीं है और आप गण के अग्रणी हैं ॥6॥ हे देव, आज हम लोग धन्य हैं, आज हमारा जीवन सफल हुआ है, और हे प्रभो, आज आप के दर्शनार्थ यात्रा में आ ने से हमारे चरण कृतार्थ हो गये हैं ॥62॥ हे गुरो, आप का पूजन करने से आज हमारे हाथ सफल हो गये हैं और आप के चरणकमलों को देखने से हमारे नेत्र भी सफल हुए हैं ॥63॥ आप के चरण-कमलों को प्रणाम करने से हमारे ये शिर सार्थक हो गये हैं और आप के चरणों की सेवा से हमारे ये शरीर आज पवित्र हुए हैं ॥64॥ हे देव, आप के गुणों को कहने से हमारी वाणी आज सफल हुई है और हे नाथ, आप के गुणों का चिन्तवन करने से हमारे मन आज निर्मल हो गये हैं ॥65॥ हे देव, आप की जो अनन्त महागुणराशि है, उस की सम्यक् प्रकार से स्तुति करने के लिए गौतमादि गणधरदेव भी अशक्य हैं, तब हम-जैसे अल्पज्ञानियों के द्वारा आप की परम गुणराशि कै से स्तवनीय हो सकती है। ऐसा समझकर हे नाथ, आप की स्तुति में हम ने अधिक श्रम नहीं किया है ॥66-67॥ इसलिए हे देव, आपको नमस्कार है, अनन्त गुणशाली, आपको नमस्कार है, विश्व के शिरोमणि, आप के लिए नमस्कार है और सन्तजनों के गुरु, आप के लिए हमारा नमस्कार है ॥68॥ हे परमात्मन् , आप के लिए नमस्कार है, हे लोकोत्तम, आप के लिए नमस्कार है, हे केवलज्ञान साम्राज्य से विभूषित भगवन् , आप के लिए हमारा नमस्कार है ॥69॥ हे अनन्तदर्शिन् , आप के लिए नमस्कार है, हे अनन्त सुखात्मन् , आप के लिए नमस्कार है, हे अनन्तवीर्यशालिन् , आप के लिए नमस्कार है, और तीन लोक के सन्तों के मित्र आप के लिए हमारा नमस्कार है ॥70॥ संसार का मंगल करनेवाले श्री वर्धमान स्वामी के लिए नमस्कार है, हे सन्मते आप के लिए हमारा नमस्कार है, हे महावीर, आप के लिए नमस्कार है ॥71॥ हे जगत्त्रयी नाथ, आप के लिए नमस्कार है, हे स्वामियों के स्वामिन , आप के लिए नमस्कार है, हे अतिशय सम्पन्न आप के लिए नमस्कार है, और हे दिव्य देह के धारक, आप के लिए हमारा नमस्कार है ॥72॥ हे धर्मात्मन् , आप के लिए नमस्कार है, हे सद्धर्ममर्ते, आप के लिए नमस्कार है, हे धर्मोपदेशदातः, आप के लिए नमस्कार है, और हे धर्मचक्र के प्रवर्तन करनेवाले भगवन् , आप के लिए हमारा नमस्कार है ॥73॥ हे जगन्नाथ, इस प्रकार स्तुति करने, नमस्कार और भक्ति आदि के करने से उपार्जित पुण्य के द्वारा आप के प्रसाद से आप की यह सकल गुणराशि आप के पद की सिद्धि के लिए शीघ्र ही हमें प्राप्त हो, हमारे कर्मशत्रुओं का नाश हो और हमें समाधिमरण,बोधिलाभ आदि की प्राप्ति हो ॥74-75॥। इस प्रकार वे चतुर्निकाय के इन्द्र अपने-अपने देवों के साथ जगन्नाथ श्री वीरप्रभु की स्तुति करके बार-बार नमस्कार करके और भक्ति के साथ इष्ट प्रार्थना करके धर्मोपदेश सुनने के लिए अपने-अपने कोठों में जिनेन्द्र की ओर मुख करके जा बैठे तथा अन्य भव्य जीव और देवियाँ भी अपनी हित की प्राप्ति के लिए इसी प्रकार अपने-अपने कोठों में जिनेन्द्र के सम्मुख जा बैठे ॥76-77। इसी अवसर में सम्यक् धर्म को सुनने के लिए उत्सुक और अपने-अपने कोठों में बैठे हुए बारह गणों को शीघ्र देखकर, तथा तीन प्रहरकाल बीत जाने पर भी इन अर्हन्तदेव की दिव्यध्वनि किस कारण से नहीं निकल रही है, इस प्रकार से इन्द्र ने अपने हृदय में चिन्तवन किया ॥78-79॥ तब अपने अवधिज्ञान से बुद्धिमान इन्द्र ने गणधरपद का आचरण करने में असमर्थ मनिवृन्द को जानकर इस प्रकार विचार किया ॥8॥ अहो, इन मुनीश्वरों के मध्य में ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हन्मुख कमल-विनिर्गत सर्व तत्त्वार्थसंचय को एक बार सुनकर द्वादशांग श्रुत की सम्पूर्ण रचना को शीघ्र कर स के और गणधर के पद के योग्य हो॥८१-८२॥ ऐसा विचार कर गौतमगोत्र से विभूषित गौतमविप्र को उत्तम एवं गणधर पद के योग्य जानकर किस उपाय से वह द्विजोत्तम गौतम यहाँ पर आयेगा, इस प्रकार प्रसन्नबुद्धि सौधर्मेन्द्र ने गम्भीरतापूर्वक चिन्तवन किया ॥83-84॥ कुछ देर तक चिन्तवन करने के पश्चात् वह मन ही मन बोला-अहो, उसके ला ने के लिए मैं ने यह उपाय जान लिया है कि विद्या आदि के गर्व से युक्त उस से कुछ दुर्घट ( अति कठिन ) काव्यादि के अर्थ को शीघ्र उस ब्राह्मण के आगे जाकर पूछु ? उस काव्य के अर्थ को नहीं जान ने से वह वाद (शास्त्रार्थ ) का इच्छुक होकर स्वयं ही यहाँ पर आ जायेगा ॥85-86॥ हृदय में ऐसा विचारकर वह बुद्धिमान सौधर्मेन्द्र लकड़ी हाथ में लिये हुए वृद्ध ब्राह्मण का वेष बना करके उस गौतम के निकट गया ॥87॥ विद्या के मद से उद्धत गौतम को देखकर उस ने उन से कहा-हे विप्रोत्तम, आप विद्वान् हैं, अतः मेरे इस एक काव्य का अर्थ विचार करें ॥88॥ मेरे गुरु श्री वर्धमान स्वामी हैं, वे इस समय मौन धारण करके विराज रहे हैं और मेरे साथ नहीं बोल रहे हैं। अतः काव्य के अर्थ को जान ने की इच्छावाला होकर मैं आप के पास यहाँ आया हूँ ॥89॥ काव्य का अर्थ जान ले ने से यहाँ मेरी बहुत अच्छी आजीवि का हो जायेगी, भव्य जनों का उपकार भी होगा और आप की ख्याति भी होगी ॥10॥ उस की इस बात को सुनकर गौतम विप्र बोला-हे वृद्ध, यदि तेरे काव्य को मैं शीघ्र सत्य अर्थ-व्याख्या कर दूँ, तो तुम क्या करोगे ॥91॥ तब इन्द्र ने यह कहा-हे विप्र, यदि तुम निश्चित यथार्थरूप से शीघ्र मेरे काव्य की स्पष्ट अर्थ-व्याख्या कर दोगे, तब मैं तुम्हारा शिष्य हो जाऊँगा। और यदि ठीक अर्थ-व्याख्या नहीं कर स के तो तुम क्या करोगे? यह सुनकरके गौतम बोला-रे वृद्ध, तू मेरे निश्चित वचन सुन-'यदि मैं तेरे काव्य के अर्थ की स्पष्ट व्याख्या न कर सकूँ, तो जगत्प्रसिद्ध मैं गौतम अपने इन पाँच सौ शिष्यों के तथा अपने इन दोनों भाइयों के साथ शीघ्र ही वेदादि के मत को छोड़कर अभी तत्काल ही तेरे गुरु का शिष्य हो जाऊँगा; इस में कोई संशय नहीं है ॥92-95॥ मेरी इस प्रतिज्ञा में इस नगर का पालक यह काश्यप नामक द्विज साक्षी है और ये समस्त लोग भी साक्षी हैं ॥26॥ गौतम की यह बात सुनकर वे सब उपस्थित लोग बोले-अहो, क्वचित्-कदाचित् दैववश सुमेरु चल जावे, किन्तु इस के सद्वचन सन्मति अर्हन्त के समान कभी नहीं चल सकते हैं ॥97। इस प्रकार उन दोनों में परस् पर प्रतिज्ञा-बद्ध वचनालाप होने पर उस इन्द्र ने दिव्य वाणी से यह काव्य कहा ॥9॥ "त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं सकलगतिगणाः सत्पदार्था नवैव, विश्वं पञ्चास्तिकाया व्रतसमितिचिदः सप्ततत्त्वानि धर्माः। इस काव्य को सुनकर आश्चर्ययुक्त हो और उसके अर्थ को जान ने में असमर्थ होकर वह गौतम मान-भंग के भय से मन में इस प्रकार विचारनेलगा ॥10॥ अहो. यह का व्य बहुत कठिन है, इस का जरा-सा भी अर्थ ज्ञात नहीं होता है। इस काव्य में सर्वप्रथम जो 'काल्यं' पद है, सो उस से दिन में होनेवाले तीन काल अभीष्ट हैं, अथवा वर्ष सम्बन्धी तीन काल अभीष्ट हैं ? ॥101॥ यदि भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्बन्धी तीन काल अभीष्ट हैं, तो जो इन तीनों कालों में उत्पन्न हुई वस्तुओं को जानता है, वही सर्वज्ञ है और वही उसके आगम का ज्ञाता हो सकता है, मुझ सरीखा कोई जन कभी उसका ज्ञाता नहीं हो सकता ॥102॥ काव्य में जो षड्द्रव्यों का उल्लेख है, सो वे छह द्रव्य कौन से कहे जाते हैं, और वे किस शास्त्र में निरूपण किये गये हैं ? समस्त गतियाँ कौन-सी हैं, और उनका क्या लक्षण है ? संसार में अरे, जिन नौ पदार्थों का नाम भी नहीं सुना है, उन्हें जान ने के लिए कौन योग्य हैं ? विश्व कि से कहते हैं, सब को या तीन लोकको, यह भी मैं नहीं जानता हूँ ॥103-104॥ इस काव्य में पठित पाँच अस्तिकाय कौन- से हैं, इस भूतल में कौन- से पाँच व्रत हैं, और कौन-सी पाँच समितियाँ हैं ? ज्ञान किस के द्वारा कहा गया है और उसका क्या फल है ॥105॥ सात तत्त्व कौन- से हैं, दश धर्म कौन- से हैं, और उनका कैसा स्वरूप है ? सिद्धि और कार्य-निष्पत्ति का मार्ग भी संसार में अनेक प्रकार का है ॥106॥ विधि का क्या स्वरूप है और उसका क्या फल उत्पन्न होता है ? छह जीवनिकाय कौन- से हैं ? छह लेश्याएँ तो कभी कहीं पर सुनी भी नहीं हैं ॥107॥ काव्योक्त इन सब का लक्षण मैं ने पहले कभी जरा-सा भी नहीं सना है और न हमार वेदमें, शास्त्रों में अथवा स्मृति आदि में इन का कुछ निरूपण ही किया गया है ॥108॥ अहो, मैं समझता है कि इस काव्य में सिद्धान्तसमद्र का सारा कठिन रहस्य भरा हआ है. और उसे ही यह बुड्डा ब्राह्मण मुझ से पूछ रहा है ॥109॥ मेरा मन यह मानता है कि यह काव्य गूढ़ अर्थवाला है, उसे सर्वज्ञ के अथवा उनके उत्तमज्ञानी शिष्य के बिना अन्य कोई भी मनुष्य अर्थ-व्याख्यान करने के लिए समर्थ नहीं है ॥110॥ अब यदि मैं इस के साथ विवाद करता हूँ तो साधारण ब्राह्मण के साथ बात करने से मेरा मान भंग होगा? अतः इस के त्रिजगत्स्वामी गुरु के समीप शीघ्र जाकर संसार में चमत्कार करनेवाले विवाद को करूँगा। उस उत्तम विवाद से मेरी महाप्रसिद्धि होगी और जगद्-गुरु के आश्रय ले ने से मेरी मान-हानि भी कुछ नहीं होगी ॥111-113॥ इस प्रकार विचारकर और काललब्धि से प्रेरित हुआ वह गौतम बोला-हे विप्र, निश्चय से तेरे गुरु के बिना मैं तेरे साथ वाद-विवाद नहीं करता हूँ । अर्थात् तेरे गुरु के साथ ही बात करूँगा ॥114॥ इस प्रकार सभा के मध्य में कहकर अपने पाँच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों से घिरा हुआ वह गौतम विप्र सन्मति प्रभ के समीप जाने के लिए वहाँ से बैंक निकला ॥115॥ वह बद्धिमान क्रमशः मार्ग में जाते हए हृदय में इस प्रकार सोच ने लगा कि जब यह बूढ़ा. ब्राह्मण ही असाध्य है, तब इस के गुरु मेरे लिए साध्य कै से हो सकता है ॥116॥ अथवा महापुरुष के योग से जो कुछ होनेवाला है, वह मेरे होवे । किन्तु श्री वर्धमानस्वामी के आश्रय से मेरी वृद्धि ही होगी, हानि नहीं हो सकती है ॥117॥ इस प्रकार चिन्तवन करते और जाते हुए गौतम ने दूसरे ही संसार में आश्चर्य करनेवाले अति उन्नत मानस्तम्भों को पुण्योदय से देखा ॥118॥ उनके दर्शनरूप वज्र से उसका मानसरूपी पर्वत शतधा चूर्ण-चूर्ण हो गया और उसके हृदय में शुभ मृदुभाव उत्पन्न हुआ ॥119॥ तब वह गौतम आश्चर्ययुक्त चित्तवाला होकर अति शुद्ध भाव से महान दिव्य विभूति को देखता हुआ उस समवशरणसभा में प्रविष्ट हुआ ॥120॥ वहाँ पर सभा के मध्य में स्थित, समस्त ऋद्धि-गग से वेष्टित, और दिव्य सिंहासन पर विराजमान श्री वर्धमानस्वामी को उस द्विजोत्तम गौतम ने देखा ॥121॥ तब वह परम भक्ति से जगद्-गुरु की तीन प्रदक्षिणा देकर और अपने दोनों हाथों को जोड़कर उनके चरण-कमलों को मस्तक से नमस्कार कर भक्तिभार से अवनत हो नाम, स्थापना आदि छह प्रकार के सार्थक स्तुति-निक्षेपों के द्वारा अपनी सिद्धि के अर्थ स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ॥१२२-१२३॥ हे भगवन् , आप जगत् के नाथ हैं, उत्तम, सार्थक एक हजार आठ नामों से विभूषित हैं और नामकर्म के विनाशक हैं ॥124॥ सब नामों के अर्थों को जाननेवाला जो बुद्धिमान पुरुष आप के एक नाम से भी हष के साथ आप की स्तुति करता है, वह उसके फल से आप के समान ही एक हजार आठ नामों को शीघ्र प्राप्त कर लेता है, अर्थात् आप-जैसा बन जाता है ॥125॥ ऐसा मानकर हे देव, आप के नामों को पाने का इच्छुक मैं भक्ति से एक सौ आठ उत्तम नामों के द्वारा आप का स्तवन करता हूँ॥१२६॥ हे भगवन , आप धर्मराजा, धर्मचक्री, धर्मी, धर्मक्रिया में अग्रणी, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक. धर्मनेता और धर्मपद के ईश्वर हैं ॥127॥ आप धर्मकर्ता, सुधर्माढ्य, धर्मस्वामी, सुधर्मवेत्ता, धर्मीजनों के आराध्य, धर्मीजनों के ईश्वरधर्मी जनों के पूज्य और सर्वप्राणियों के धर्मबन्धु हैं ॥128॥ आप धर्मीजनों में ज्येष्ठ हैं, अतिधर्मात्मा हैं, धर्म के स्वामी हैं और सुधर्म के धारक एवं पोषक हैं । धर्मभागी हैं, सुधर्मज्ञ हैं, धर्मराज हैं और अति धर्मवृद्धिवाले हैं ॥129॥ महाधर्मी हैं, महादेव हैं, महानाद, महेश्वर, महातेजस्वी, महामान्य, महापवित्र और महातपस्वी हैं ॥130॥ आप महात्मा हैं, महादान्त (जितेन्द्रिय), महायोगी, महाव्रती, महाध्यानी, महाज्ञानी, महाकारुणिक (दयालु) और महान हैं ॥131॥ आप महाधीर, महावीर, महापूजा के योग्य और महान ईशत्व के धारक हैं । आप महादाता, महात्राता, महान कर्मशील और महीधर हैं ॥132॥ आप जगन्नाथ, जगद्-भर्ता, जगत्कर्ता, जगत्पति, जगज्ज्येष्ठ, जगन्मान्य, जगत्सेव्य और जगन्नमस्कृत हैं ॥133॥ आप जगत्पूज्य, जगत्स्वामी, जगदीश, जगद्गुरु, जगबन्धु, जगज्जेता, जगन्नेता और जगत् के प्रभु है ॥134॥ आप तीर्थकृत , तीर्थस्वरूपात्मा, तीर्थनाथ, सुतीर्थवेत्ता, तीर्थंकर, सुतीर्थात्मा, तीर्थेश और तीर्थकारक हैं, ॥135॥ आप तीर्थनेता, सुतीर्थज्ञ, तीर्थ-पूज्य, तीर्थनायक, तीर्थराज, सुतीर्थाङ्ग, तीर्थभृत् और तीर्थकारण हैं ॥136॥ आप विश्वज्ञ, विश्वतत्त्वज्ञ, विश्वव्यापी, विश्ववेत्ता, विश्व के आराध्य, विश्व के ईश और विश्व ( समस्त) लोक के पितामह हैं ॥137॥ आप विश्व के अग्रणी हैं, विश्वस्वरूप हैं, विश्वपूज्य, विश्वनायक, विश्वनाथ, विश्वाज़, विश्वधृत् और विश्वधर्मकृत् हैं ॥138॥ हे भगवन , आप सर्वज्ञ हैं, सर्व लोक के ज्ञाता हैं, सर्वदर्शी और सर्ववेत्ता हैं। आप सर्वात्मस्वरूप हैं, सर्वधर्म के ईश हैं, सार्व ( सब के कल्याणकारी ) हैं और सर्व बुधजनों में अग्रणी हैं ॥139॥ आप सर्वदेवों के अधिपति हैं, सर्वलोक के ईश हैं, सर्वकर्मों के हर्ता हैं, सर्वविद्याओं के ईश्वर हैं, सर्वधर्म के कर्ता और सर्व सुखों के भोक्ता हैं ॥140॥ हे त्रिजगत्पते, इन यथार्थ के लिए नामों के समूह से आप की स्तुति की है, अतः स्तुति करनेवाले मुझे भी अपनी करुणा से आप अपने नाम के सदृश कीजिए ॥141॥ हे नाथ, तीन लोक से जितनी भी सुवर्ण, रत्न और पाषाणमयी कृत्रिम-अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं उन सब की मैं भक्तिराग के वश होकर वन्दना करता हूँ और आप के रस नित्य भक्ति से पूजन करता हूँ ॥142-143॥ हे देव, जो लोग भक्तिभाव से आप की इन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं, स्तुति करते हैं और नमस्कार करते हैं, वे तीन लोक के स्वामी होते हैं ॥144॥ और जो मूर्तिमान आप की नमस्कार, स्तवन और पूजनादि से साक्षात् अहर्निश ( रात-दिन) सेवा करते हैं, उन को प्राप्त होनेवाले फलों की संख्या को मैं नहीं जानता हूँ ॥145॥ __ हे भगवन् , इस लोक में जित ने भी शुभ और स्निग्ध परमाणु हैं, उनके द्वारा ही आप का यह अतिसुन्दर दिव्य देह रचा गया है ॥146॥ क्योंकि आप का यह उपमा-रहित और जगत्प्रिय शरीर अति शोभायमान हो रहा है। आप का तेज कोटि सूर्यो के तेज से भी अधिक है और समस्त दिशाओं के अन्तराल को प्रकाशित कर रहा है ॥147॥ हे ईश, आप का सर्व विकारों से रहित साम्यता को प्राप्त और प्रदीप्त यह मुख आप की आत्यन्तिक हृदयशुद्धि को कहते हुए के समान प्रतीत हो रहा है ॥148॥ हे जगद्-गुरो, आप के चरण-कमलों से जो भूमि आश्रित हुई और हो रही है, वह यहाँ पर ही तीर्थप ने को प्राप्त हुई है और मुनिजन एवं देवगण से वन्दनीय हो रही है ॥149॥ हे नाथ, आप के गर्भ-जन्मादि कल्याणकों के द्वारा जो क्षेत्र पवित्र हुए हैं, वे सब तीर्थप ने को प्राप्त हुए हैं, अतः पूज्य हैं ॥150॥ हे प्रभो, वही काल धन्य है, जिस काल में आप पैदा हुए, गर्भ-कल्याणक हुआ, निष्क्रमण ( दीक्षा ) कल्याणक हुआ और केवलज्ञान का उदय हुआ है ॥151॥ हे विभो, आप का यह अनन्त केवलज्ञान विश्व का दीपक है , क्योंकि वह लोकाकाश और अलोकाकाश को व्याप्त करके अवस्थित है, उसके जान ने योग्य पदार्थ का अभाव है, अर्थात् आप के ज्ञान ने जान ने योग्य सभी पदार्थों को जान लिया है ॥152॥ इसलिए हे देव, आप तीन जगत् के स्वामी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वतत्त्ववेत्ता हैं, विश्वव्यापी हैं, और सन्तजनों ने आपको जगन्नाथ माना है ॥153॥ हे स्वामिन , आप का अन्त-रहित और जगत् से नमस्कृत यह केवलदर्शन लोकालोक को अवलोकन करके अवस्थित है, अतः हे ईश, वह आप के ज्ञान के समान ही अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रहा है ॥154॥ हे नाथ, सर्वदोषों से रहित आप का अनुपम यह अनन्तवीर्य विश्व के समस्त पदार्थों के देखने में समर्थ हो रहा है ॥155॥ हे देव, आप का बाधारहित, अनुपम और अतीन्द्रिय अनन्त परम सुख विश्व के समस्त प्राणियों के अगोचर हैं ॥156॥ हे वीर प्रभो, दूसरों में नहीं पाये जानेवाले ऐसे असाधारण ये सर्व दिव्य और महान उदयवाले परम अतिशय आप में शोभायमान हो रहे हैं ॥157॥ हे भगवन् , सर्वविश्वातिशायिनी, उपमा-रहित ये आठ प्रातिहार्य-विभूतियाँ सर्व इच्छाओं से रहित आप के शोभित हो रही हैं ॥158॥ इन के अतिरिक्त अन्य जो आप में गणनातीत और त्रिलोक के अग्रगामी अनन्त निरुपम गुण हैं, उन की स्तुति करने के लिए मेरे समान जन कै से समर्थ हो सकते हैं ॥159॥ हे गुणसमुद्र, जैसे मेघधारा की बिन्दुएँ, आकाश के तारे, समुद्र की तरंगे और अनन्त प्राणियों की संख्या हमारे-जैसों के द्वारा नहीं जानी जा सकती है, उसी प्रकार आप के गुण-समुद्र की संख्या नहीं जानी जा सकती है ॥160। ऐसा मानकर हे देव, आप की स्तुति करने में और गणधरों के भी अगोचर आप के गुणों के कहने में मैं ने अधिक श्रम नहीं किया है ॥161॥ अतः हे देव, आपको नमस्कार है, हे दिव्य मूर्तिवाले, आपको नमस्कार है, हे सर्वज्ञ, आपको नमस्कार है और हे अनन्तगुणशालिन् , आपको नमस्कार है ॥162॥ दोषों के नाशक आपको नमस्कार है, अबान्धवों के बन्धु हे भगवन , आपको नमस्कार है, हे लोकोत्तम, आपको नमस्कार है ॥163॥ विश्व को शरण देनेवाले आपको मेरा नमस्कार है, हे मन्त्रमूर्ति, आपको नमस्कार है, हे वर्धमान, आपको नमस्कार है, हे सन्मते, आपको नमस्कार है, हे विश्वात्मन् , आपको नमस्कार है, हे त्रिजगद्-गुरो, आपको नमस्कार है और अनन्त सुख के सागर हे देव, आपको मेरा नमस्कार है ॥164-165॥ इस प्रकार स्तवन, नमस्कार और भक्तिराग से उत्पन्न हुए धर्म के द्वारा हे भगवन, मैं आप से तीन लोक की लक्ष्मी को नहीं माँगता हूँ, किन्तु हे नाथ, कर्मो के झय से उत्पन्न होनेवाली, अनन्त सुखकारी, जगन्नमस्कृत, अपनी नित्य विभूति को मुझे दीजिए, क्योंकि आप इस संसार में परमदाता है और में महान लोभी हूँ। अतः आप के प्रसाद से मेरी यह प्रार्थना सफल ही होवे ॥166-168॥ हे देव, आप स्वर्ग के अधीश्वर इन्द्रों के द्वारा पूजित पदवाले हैं, आप धर्मतीर्थ के उद्धारक हैं, कर्म-शत्रु के विध्वंसक हैं, अतः आप महासुभट हैं, आप विश्व के निर्मल दीपक हैं, आप तीनों लोकों को तार ने में अद्वितीय चतुर हैं और सद्गुणों के निधान हैं, अतएव हे जिनपते, संसार सागर में डूब ने से आप मेरी सर्व प्रकार से रक्षा कीजिए ॥169॥ इस प्रकार विद्वानों के अधिपतियों से पूज्य, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप रत्न को प्राप्त, मिथ्यामतरूप शत्रु के नाशक और सद्-धर्म के मार्ग के ज्ञाता गौतम ने जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों को नमस्कार करके और स्तुति करने की भक्ति से अपने आपको कृतार्थ माना ॥17॥ वीर भगवान् वीर जिनों में अग्रणी हैं, गुणों के निधान हैं, ऐसे वीर जिनेन्द्र की ज्ञानीजन सेवा करते हैं। वीर के द्वारा ही शिवपद प्राप्त होता है, ऐसे वीर के लिए आत्म-शुद्धयर्थ नमस्कार है । वीर से अतिरिक्त अन्य कोई मनुष्य परमार्थ का जनक नहीं है, वीर के वचन सत्य हैं, ऐसे वीर जिनेश में मैं अपने मन को धरता हूँ, हे वीर, मुझे अपने सदृश शीघ्र करो ॥171॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोति-विरचित श्रीवीर-वर्धमानचरित में श्री गौतम के आ ने और स्तुति करने का वर्णन करनेवाला यह पन्द्रहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥15॥ |