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गौतम गणधर के प्रश्न

  कथा 

कथा :

विश्व के नाथ, अज्ञानान्धकार के विनाशक और जगत् के प्रकाशक ऐसे केवलज्ञानरूप सूर्य श्रीवर्धमानस्वामी के लिए नमस्कार है ॥1॥

अथानन्तर उन गौतमस्वामी ने तीर्थनायक श्री महावीरप्रभु को हर्ष के साथ सिर से प्रणाम करके अपने और जगत् के सन्तजनों के हितार्थ अज्ञान के विनाश और ज्ञान की प्राप्ति के लिए समस्त प्राणियों का हित करनेवाली यह सर्वज्ञ-गम्य उत्तम प्रश्नावली पूछी ॥2-3॥

हे देव, सात तत्त्वों में जो संसार में जीवतत्त्व है उसका कैसा लक्षण है, कैसी अवस्था है, कितने गुण हैं, उनके विभागात्मक कितने भेद हैं, कितनी पर्याय हैं, सिद्ध और संसारीविषयक उसके कितने भेद हैं ? इसी प्रकार अजीवतत्त्व के भी कितने भेद, गुण और पर्याय आदि हैं ॥4-5॥

तथा आस्रवादि शेष तत्त्वों के दोष और गुणों के कारण कौन हैं ? किस तत्त्व का कौन कर्ता है, उसका क्या लक्षण है, क्या फल है और किस तत्त्व के द्वारा इस संसार में निश्चय से क्या कार्य सिद्ध किया जाता है ? किस प्रकार के दुराचारों से पापी लोग नरक में जाते हैं. किस दष्कर्म से मढ लोग दःखकारी तिर्यग्योनि को जाते हैं. और किस प्रकार के सदाचरणों से धर्मीजन स्वर्ग जाते हैं ॥6-8॥

किस शुभकर्म से जीव लक्ष्मी और सुख से सम्पन्न मनुष्यगति को जाते हैं और किस दान से उत्तम भाववाले जीव भोगभूमि को जाते हैं ॥9॥

किस प्रकार के आचरण से इस संसार में मनुष्यों के पुरुषवेद, पुण्यशीला नारियों के स्त्रीवेद और पापाचारी दुरात्माओं के नपुंसक वेद होता है ॥10॥

किस पाप से प्राणी लँगड़े, बहरे, अन्धे, गँगे, विकलाङ्ग और अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित होते हैं ॥11॥

किस प्रकार के कर्म करने से जीव यहाँ पर रोगी-निरोगी, सुरूपी-कुरूपी, सौभाग्यवान और दुर्भागी होते हैं ॥12॥

किस कर्म से मनुष्य सुबुद्धि-कुबुद्धि, विद्वान्-मूर्ख, शुभाशय और दुराशयवाले होते हैं ॥13॥

किस प्रकार के आचरण करने से मनुष्य धर्मात्मा-पापात्मा, भोगशाली-भोगविहीन, धनी और

निर्धन होते हैं ॥14॥

किस कर्म से जीव अपने इष्ट जनादिकों से वियोग पाते हैं और किस कर्म से इष्ट-बन्धु आदि के तथा अभीष्ट वस्तुओं के साथ संयोग प्राप्त करते हैं ॥15॥

किस कर्म से मनुष्य दानशीलता, कृपणता, गुणशालिता-गुणहीनता, स्वामित्व और परदासत्व को प्राप्त होता है ॥16॥

किस कर्म से इस संसार में मनुष्यों के पुत्र नहीं जीते हैं और किस कम से चिरजीवी पुत्र उत्पन्न होते हैं ? तथा कै से कर्म करने से स्त्रियों के निन्द्य बन्ध्यापन होता है ॥17॥

किस कर्म से जीवों के कायरता-धीरता, अपयश-निर्मल यश और कुशीलता-सुशीलता प्राप्त होती है ॥18॥

किस कारण से जीव सत्संग-कुसंग, विवेकिता-मढता, श्रेष्ठकुल और निन्द्यकुल प्राप्त करते हैं ॥19॥

किस कर्म से मनुष्य मिथ्यामार्गानुरागी और जिनधर्मानुरक्त होते हैं, तथा दृढ़ ( सबल ) काय और निर्बल काय को पाते हैं ॥20॥

इस संसार में मुक्ति का क्या मार्ग है, उसका क्या लक्षण और क्या फल है ? साधुओं का परम धर्म कौन सा है और गृहस्थों का अ पर धर्म क्या है ॥21॥

पुरुषों को इन दोनों धर्मो के सेवन से क्या सत्फल प्राप्त होता है ? धर्म की उत्पत्ति करनेवाले कौन से कारण हैं और शुभ आचरण कौन से हैं ॥22॥

उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छहों कालों का क्या स्वरूप है, उस की स्थिति कैसी है, और इस महीतल पर तीन लोक में प्रसिद्ध शला का (गण्य-मान्य ) कौन होते हैं ॥23॥

इस विषय में बहुत कहने से क्या ? हे कृपानाथ, जो पहले हो चु का है, वर्तमान में हो रहा है और आगे होगा ? ऐसा त्रिकाल-विषयक द्वादशाङ्गश्रुतजनित जो ज्ञान है, वह सब कृपाकरके भव्यजीवों के उपकार के लिए और उन्हें स्वर्गमुक्ति के कारणभूत धर्म की प्राप्ति के लिए अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश दीजिए ॥24-25॥

इस प्रकार गौतमस्वामी के प्रश्न के वा से संसार के समस्त भव्य जीवों के हित करने के लिए उद्यत, तीर्थंकर वर्धमानदेव ने मुक्तिमार्ग की प्रवृत्ति के लिए सप्त तत्त्वादि-विषयक समस्त प्रश्न-समूहों का सद्भाव और उनका अभीष्ट अभिप्राय जीवों को स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्राप्त करा ने के लिए दिव्य ध्वनि से इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया ।26-27॥

भगवान् ने कहाहे धीमन् , सर्वगण के साथ मन को स्थिर करके तुम्हारे सर्व अभीष्ट-साधक मेरा यह वक्ष्यमाण (उत्तर)-सुनो ॥28॥

अब भगवान् ने उत्तर देना प्रारम्भ किया, तब बोलते समय प्रभु के साम्यता को प्राप्त मुख-कमल में रंचमात्र भी ओष्ठ आदि चलने की विक्रिया (विशेष-क्रिया) नहीं हुई। तथापि उनके मुख-कमल से सर्व संशयों का नाश करनेवाली मन्दराचल की गुफामें से निकली प्रतिध्वनि के समान गम्भीर, शुभ और रमणीय वाणी निकली ॥29-30॥

आचार्य कहते हैं कि अहो, तीर्थंकरों की यह योग-जनित ऊर्जस्विनी शक्ति है कि जिस के द्वारा इस संसार में समस्त सज्जनों का महान उपकार होता है ॥31॥

भगवान् बोले-हे गौतम, इस संसार में ज्ञानी जन जि से यथार्थ सत्य कहते हैं, वह सर्वज्ञोक्त पदार्थों का वास्तविक स्वरूप है, वही तत्त्व कहलाता है, यह तू निश्चित समझ ॥32॥

उस प्रयोजनभूत तत्त्व के सात भेद हैं। उन में प्रथम जीवतत्त्व है। संसारी और मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। मुक्त जीव भेदों से रहित हैं, अर्थात् सभी एक प्रकार के हैं। किन्तु भव-भ्रमण करनेवाले संसारी जीव अनेक भेदवाले हैं ॥33॥

इन में मुक्त (सिद्ध) जीव आठ कर्मरूप शरीर से रहित हैं, सम्यक्त्वादि आठ गुणों से विभूषित हैं, एक भेदवाले हैं, जगत् के भव्य जीवों के ध्येय हैं, समान सुख के सागर हैं, सर्वदुःखों से रहित हैं, लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, सर्वबाधाओं से विमुक्त हैं, ज्ञानशरीरी हैं, सर्व उपमाओं से रहित हैं और उन की अनन्त संख्या है। ऐसे संसार से मुक्त हए जीवों को सिद्ध जानना चाहिए ॥34-35॥

त्रस और स्थावर नाम के भेद से संसारी जीव दो प्रकार के हैं, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से वे तीन प्रकार के मा ने गये हैं ॥36॥

नरक आदि चार गतियों के भेद से वे निश्चयतः चार प्रकार के कहे गये हैं, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से वे पाँच प्रकार के हैं ॥३जा पृथिवीकायादि पाँच स्थावर और त्रसकाय के भेद से संसारी प्राणी छह प्रकार के कहे गये हैं, अतिदयालु जिनेन्द्रों ने इन छह काय के जीवों की रक्षा के लिए सज्जनों को उपदेश दिया है ॥38॥

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति से पाँच स्थावरकाय, विकलेन्द्रिय जीवराशि और पंचेन्द्रिय इस प्रकार सात भेदरूप जीव-जातियाँ जानना चाहिए ॥39॥

पाँच प्रकार के स्थावर, एक भेदरूप विकलेन्द्रिय और संज्ञी-असंज्ञीरूप दो प्रकार के पंचेन्द्रिय, इस प्रकार इस संसार में आठ जाति की जीवयोनियाँ हैं ॥40॥

पाँचों ही स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव, इस प्रकार श्री जिनागम में संसारी जीव नौ प्रकार के कहे गये हैं. ॥41॥

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक और पंचेन्द्रिय, इस प्रकार संसार में दश प्रकार के जीव हैं ॥42॥

पाँच प्रकार के स्थावर जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दश प्रकार के हैं, तथा द्वीन्द्रियादि सर्व त्रसकाय, इस प्रकार ग्यारह जाति के संसारी प्राणी ज्ञानियों को जानना चाहिए ॥43॥

सूक्ष्म-बादर के भेद से वर्गीकृत दश प्रकार के स्थावर जीव, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय (सकलेन्द्रिय) ये सब मिलकर बारह प्रकार के संसारी जीव होते हैं ॥44॥

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और सर्व वनस्पति, ये सब स्थावर जीव सूक्ष्म-बादर के भेद से दश प्रकार के हैं, तथा विकलेन्द्रिय, मान-रहित असंज्ञी पंचेन्द्रिय और मन-सहित संज्ञी पंचेन्द्रिय इस प्रकार से संसारी जीव तेरह प्रकार के समझना चाहिए ॥45-46॥

समनस्क (संज्ञी) पंचेन्द्रिय मन-रहित अमनस्क (असंज्ञी) पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ये सात प्रकार के प्राणी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से गुणित होकर चौदह प्रकार के हो जाते हैं। ये ही चौदह जीवसमास उन की दया (रक्षा) करने के लिए ज्ञानियों को जान ने के योग्य है ॥47-48॥

इस प्रकार विवक्षा-भेद से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अट्ठानबे आदि अनेक भेद रूप बहुत प्रकार की जीव जातियाँ श्रीवीर स्वामी ने गौतमादि सर्व गणों के लिए कहीं॥४९॥

पुनः वर्धमानदेव ने गौतमादि सर्व गणों को चौरासी लाख योनियों का वर्णन इस प्रकार से किया-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति रूप नित्यनिगोद, इतरनिगोद इन छहों जाति के जीवों की सात-सात लाख योनियाँ हैं (647=42 ) प्रत्येक वनस्पतिरूप वृक्षों की दश लाख योनियाँ हैं। विकलेन्द्रियों की छह लाख योनियाँ हैं, तिर्यंच, नारक और देवों की बारह लाख योनियाँ हैं और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । इस प्रकार भगवान् ने कुल कोटियों के साथ चौरासी लाख प्रमाण जीव जातियाँ कहीं ॥50-52॥

___पुनः भगवान ने जीवों की जातियों के अन्वेषण करानेवाली चौदह मार्गणाओं का वर्णन करते हुए बतलाया-गति मार्गणा चार प्रकार की है, इन्द्रियमार्गणा पाँच प्रकार की है, कायमार्गणा छह प्रकार को है, योगमार्गणा विस्तार से पन्द्रह प्रकार की है (और संक्षेप से तीन प्रकार की है। ) ॥53॥

वेदमार्गणा तीन प्रकार की है, कषायमार्गणा (संक्षेप से क्रोधादि चार भेदरूप है और विस्तारसे) पच्चीस भेदवाली है। ज्ञानमार्गणा आठ प्रकार की है, संयममार्गणा शुभ और अशुभ (असंयम) के भेद से सात प्रकार की है, दर्शनमार्गणा चार भेद रूप है, लेश्यामार्गणा तीन शुभ और तीन अशुभ के भेद से छह प्रकार की है, भव्यमार्गणा भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार की है, सम्यक्त्वमार्गणा छह प्रकार की है, संज्ञामार्गणा की अपेक्षा जीव संज्ञी और असंज्ञी के भेद से दो प्रकार की है, तथा आहारमार्गणा आहारक-अनाहारक के भेद से दो प्रकार की है । इस प्रकार तीर्थ-नायक वीरनाथ ने चौदह मार्गणाओं का उपदेश दिया ॥54-56॥

मार्गणाओं के जानकार विद्वानों को अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए तथा सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए चारों गतियो में रहनेवाले संसारी जीवों का इन मार्गणाओं के द्वारा शीघ्र यत्न से मार्गण (अन्वेषण) करना चाहिए ॥57॥

पुनः जीवों के क्रमशः विकास को प्राप्त होनेवाले चौदह गुणस्थानों का उपदेश दिया। उनके नाम इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, नवम अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशान्तकषायसंयत, क्षीणकपायसंयत, सयोगिजिन और अयोगिजिन । इन चौदहों गुणस्थानों का भगवान् ने विस्तार से वर्णन किया ॥58-60॥

जो भव्य जीव इस संसार में निर्वाण (मोक्ष) को गये हैं, जा रहे हैं और भविष्य में जावेंगे, वे इन गुणस्थानों पर आरोहण करके ही गये, जा रहे और जावेंगे। यह नियम कचित् कदाचित् भी अन्यथा नहीं हो सकता है ॥61॥

अभव्यजीव के सदा केवल पहला ही गुणस्थान होता है, भले ही वह यहाँ पर ग्यारह अंगों का वेत्ता हो और दीर्घकाल का दीक्षित हो। उसके पहले के सिवाय अन्य गुणस्थान नहीं हो सकता ॥62॥ जैसे काला साँप शक्कर-मिश्रित दूध को पीता हुआ भी अपने विष को नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार आगमरूप अमृत का पान करके भी अभव्यजीव मिथ्यात्वरूप विष को नहीं छोड़ता है ॥63॥

इसलिए निकट भव्यजीवों के ऊपर के तेरह गुणस्थान होते हैं, अभव्यों के और दूर भव्यजीवों के कभी भी ये गुणस्थान नहीं होते हैं ॥14॥

इस प्रकार वीर जिनेन्द्र ने आगम भाषा से आदि के जीवतत्त्व को कहकर पुनः सज्जनों को उसका उपदेश अध्यात्म भाषा से देना प्रारम्भ किया ॥65॥

ज्ञान-कुशल जनों ने गुण और दोष के कारण प्राणियों को तीन प्रकार का कहा है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इन में परमात्मा अति निर्मल है, ( अन्तरात्मा अल्प निर्मल है और बहिरात्मा अति मलयुक्त है।) ॥66॥

इन में से जो जीव तत्त्व-अतत्त्वमें, गुण-अगुणमें, सुगुरु-कुगुरुमें, धर्म-अधर्ममें, शुभमार्ग-अशुभमार्गमें, जिनसूत्र-कुशास्त्रमें, देव-अदेवमें, और हेय-उपादेय के विचार करने में तथा उन की परीक्षा आदि करने में विचार-रहित होता है, वह बहिरात्मा कहा जाता है । जो जीव इस लोक में दूसरों के द्वारा प्ररूपित सत्य-असत्य का विचार न करके स्वेच्छा से यद्वा-तद्वा पदार्थों को जानता है और उन्हें उसी प्रकार से ग्रहण करता है, वह पहला बहिरात्मा है ॥69॥ जो शठ पुरुष इन्द्रिय-विषय-जनित, हालाहल विष-सदृश भयंकर वैषयिक सुख को यहाँ पर उपादेय बुद्धि से सेवन करता है, वह बहिरात्मा है ॥70॥

जो मूढ़ जड़ शरीर और चेतन आत्मा को शरीर के संसर्गमात्र से एक मानता है, वह सद्-ज्ञान से रहित बहिरात्मा है ॥71॥

तप, श्रुत और त से युक्त हो करके भी जो पुरुष स्व- पर आत्मा के विवेक को नहीं जानता है, वह स्वविज्ञान से बहिष्कृत बहिरात्मा है ॥72॥

बहिरात्मा जीव पुण्य-पाप को जानकर कुबुद्धि से पुण्य के लिए क्लेश करके उसके फल से भव-वन में परिभ्रमण करता है ॥73॥

ऐसा जानकर बुद्धिमानों को कुमार्ग में ले जानेवाला बहिरात्मपना सर्वथा छोड़ देना चाहिए और उस की संगति यहाँ स्वप्न में भी कभी नहीं करनी चाहिए ॥74॥

इस ऊपर बतलाये गये बहिरात्मा के स्वरूप से जो विपरीत स्वरूप का धारक है, अर्थात् देह और देही का विवेकवाला है, जिनसूत्र का वेत्ता है, जो तत्त्व-अतत्त्व और शुभ-अशभ के विचार को स्पष्ट जानता है, देव-अदेवको, सत्य-असत्य मतको, धर्म-अधर्मयोगी कार्योंको, कुमार्ग और मुक्तिमाग आदि को भलीभाँति से जानता है, उसे जिनराजों ने अन्तरात्मा माना है ॥75-76॥

जो इन्द्रिय-विषयजनित सुख को हालाहल विष के समान सर्व अनर्थो की खानि मानता है और जो संसार के बन्धनों से छूटना चाहता है, वह अन्तरात्मा कहा जाता है ॥7॥

जो निश्चयतः कर्मोंसे, कों के कार्योंसे, मोह, इन्द्रिय और राग-द्वेषादि अपनी अनन्तगुणाकर आत्मा को पृथग्भूत ( भिन्न ) निष्कल (शरीर-रहित) सिद्ध-सदृश, योगि-गम्य और उपमा-रहित अपने भीतर ध्यान करता है, वह स्वात्म-रत ज्ञानी और महान् अन्तरात्मा है ॥78-79॥

जो अपने आत्मद्रव्य और देहादि अन्य द्रव्यों के सर्व महान् अन्तर को जानता है, वह महाप्राज्ञ अन्तरात्मा है ॥8। इस विषय में अधिक कहने से क्या, जिस का मन सद्विचार में कसौटी के पाषाण-तुल्य है, जो असार असद्-विचार का त्याग कर सद्-विचार को ही ग्रहण करता है, वह परम ज्ञानवान् अन्तरात्मा है ॥8॥

यह अन्तरात्मा अपने उत्तम चारित्र और ज्ञानादिगुणों के द्वारा इस संसार में सर्वार्थसिद्धि तक के सुखों को और जिनेन्द्र के वैभव को भोगता है ॥82॥

ऐसा जानकर सर्व आत्माओं में मूढपना छोड़कर परमात्मपद की प्राप्ति के लिए अन्तरात्मा का पद ग्रहण करना चाहिए ॥83॥

सकल (शरीर-सहित ) और निष्कल ( शरीर-रहित ) के भेद से परमात्मा दो प्रकार का है । परमौदारिक दिव्य देहमें स्थित अरिहन्त सकल परमात्मा हैं और देह-रहित सिद्ध भगवन्त निष्कल परमात्मा हैं ॥84॥

जो चार घातिया कर्मो से विमुक्त हैं, अनन्तज्ञान आदि नौ केवललब्धियों के धारक हैं, तीन लोक के मनुष्य और देवों से सेव्य हैं, मुमुक्षजनों के द्वारा नित्य ध्यान किये जाते हैं, धर्मोपदेशरूपी हाथों से भव-सागर में गिरते हुए भव्य जीवों के उद्धार करने के लिए उद्यत हैं, दक्ष हैं, सर्वज्ञ हैं, महात्माओं के गुरु हैं, धर्मतीर्थ के स्थापक तीर्थंकर केवली हैं, अथवा सामान्य केवली हैं, विश्ववन्दित हैं, दिव्य औदारिकदेहमें स्थित हैं, समस्त अतिशयों से युक्त हैं और जो भव्य जीवों को स्वर्ग-मुक्ति का फल प्राप्त करा ने के लिए लोक में निरन्तर धर्मामृतमयी दृष्टि को करते रहते हैं, वे सकल परमात्मा हैं ॥85-88॥

यही जिनाग्रणी जगन्नाथ सकल परमात्मपद के आकांक्षी लोगों के द्वारा उस पद की प्राप्ति के लिए अनन्यशरण होकर सेवनीय हैं ॥8॥

जो सर्व कर्मों से और शरीर से रहित हैं, अमूर्त हैं, ज्ञानमय है, महान हैं, तीन लोक के शिखर पर जिन का निवास है, क्षायिकसम्यक्त्व आदि आठ गुणों से विभूषित हैं, तीन लोक के अधीश्वरों के द्वारा संसेव्य हैं, मुमुक्षु जनों के द्वारा वन्द्य हैं और जगच्चूड़ामणि हैं, ऐसे महान् सिद्ध भगवान् निष्कल परमात्मा हैं ॥90-91॥

शिवार्थी जनों को मुक्ति की सिद्धि के लिए मन को अति निश्चल करके विश्व के अग्रणी यही सिद्ध परमेष्ठी नित्य ध्यान करने के योग्य हैं ॥92॥

हे गौतम, भ्रम-रहित होकर योगी पुरुष जैसे परमात्मा का ध्यान करता है, वह उसी प्रकार शिवस्वरूप परमात्मा को प्राप्त करता है ॥13॥

जो शठ प्रथम गुणस्थान में निवास करता है, वह उत्कृष्ट अर्थात् सब से निकृष्ट बहिरात्मा है। जो द्वितीय गुणस्थान में रहता है, वह मध्यम जाति का बहिरात्मा है। और जो तृतीय गुणस्थान में वास करता है, उसे दक्ष पुरुषों ने जघन्य बहिरात्मा कहा है ॥94॥

चौथे गुणस्थान में रहनेवाला जघन्य अन्तरात्मा है, बारहवें गुणस्थान में रहनेवाला और अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाला है, वह उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । चौथे और बारहवें इन दोनों गुणस्थानों के मध्य में जो सात शुभ गुणस्थान हैं, उन में रहनेवाले शिवमार्गगामी क्रमशः विकसित गुणवाले, अनेक प्रकार के मध्यम अन्तरात्मा हैं ॥95-96॥

अन्तिम दो गुणस्थानों में रहनेवाले परमात्मा जानना चाहिए। उन में जो तेरहवें गुणस्थानवर्ती हैं, वे सयोगिजिन हैं और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिजिन कहलाते हैं। ये दोनों प्रकार के परमात्मा तीन लोक की जनता के आराध्य है ॥27॥

यतः जीव द्रव्यप्राणों और भावप्राणों से भूतकाल में जीता था, वर्तमानकाल में जी रहा है और भविष्यकाल में जीवेगा, अतः उसका 'जीव' यह सार्थक नाम कहा जाता है ॥98॥

स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय ये तीन योग, आयु और श्वासोच्छवास ये दश ढव्यप्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के होते हैं॥१९॥

मन के विना शेष नौ उक्त प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों से सन्त पुरुषों ने मा ने हैं। उक्त नौ प्राणोंमें- से कर्णेन्द्रिय के विना शेष आठ प्राण चतुरिन्द्रिय जीवों के होते हैं॥१००। इनमें से नेत्रेन्द्रिय के बिना शेष सात प्राण त्रीन्द्रिय प्राणियों के होते हैं। इनमें से घ्राणेन्द्रिय के विना शेष छह प्राण द्वीन्द्रिय जीवों के होते हैं ॥101॥

उनमें से रसनेन्द्रिय और वचन के विना शेष चार प्राण एकेन्द्रिय जीवों के आगम में मा ने गये हैं। इस प्रकार पर्याप्त जीवों के ये अनेक प्रकार के प्राण जानना चाहिए ॥102॥

ज्ञान और दर्शनरूप चेतना भावप्राण है। निश्चय नय से जीव चेतना लक्षणवाला है, उपयोगमयी है, महान् है, कर्म नोकर्म और बन्ध-मोक्षादि कार्यों का अकर्ता है, असंख्यात प्रदेशी है, अमूर्त है, सिद्ध भगवान के सदृश है और सर्व परद्रव्यों से रहित है ऐसा दक्षपुरुष निश्चयनय की अपेक्षा से कहते हैं ॥103-104॥ अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से वह जीव रागादि भावकहे का कर्ता और उनके फल का भो का है और अपने आत्मीय ज्ञान से बहिर्भत है ॥105॥

अपने आत्मध्यान से पराङ्मुख हुआ जीव उपचरित व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि कोका, और औदारिकादि शरीररूप नोकर्मो का कर्ता है, तथा असद्भूतोपचरित व्यवहारनय से यह अपनी इन्द्रियों से उगाया हआ संसारी जीव घट-पट आदि द्रव्यों का भी कर्ता कहा जाता है ॥106-107॥

समुद्घात-अवस्था के सिवाय यह जीव सदा शरीर-प्रमाण रहता है। संकोच-विस्तारगुण के निमित्त से यह छोटे-बड़े शरीर में प्रदीप के समान निरन्तर अवगाह को प्राप्त होता रहता है ॥108॥

मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए कुछ आत्म प्रदेशों के बाहर निकल ने को समुद्घात कहते हैं। वह सात प्रकार का है-१ वेदना, 2 कषाय, 3 वैक्रियिक, 4 मारणान्तिक, 5 तेजस, 6 आहारक और 7 केवलिसमुद्घात । इन सात समुद्घातोंमें से अन्त के तीन समुद्घात योगियों के जानना चाहिए और प्रारम्भ के शेष चार समुद्रात सर्व संसारी जीवों के मा ने गये हैं ॥102-110॥ जीवक कंवलज्ञान, केवलदर्शन आदि स्वाभाविक गुण हैं और मतिज्ञानादि कमें-जनित वैभाविक गण जानना चाहिए ॥11॥

मनुष्य नारक और देवादि वैभाविक पर्याय है और शरीर-रहित शुद्ध आत्मप्रदेश स्वाभाविक पर्याय है ॥112॥

संसारी जीव जन्म-मरण करता रहता है, अतः मरण-समय पूर्व शरीर का विनाश होता है, जन्म लेते हुए नवीन शरीर का उत्पाद होता है और आत्मा तो दोनों ही अवस्थाओं में वही का वही ध्रौव्यरूप से रहती है, अतः जीव के उत्पाद व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही हैं ॥113॥

इस प्रकार से जिनेन्द्रदेव ने अनेक नय-भंगादि की विवक्षा से मनुष्य-देवादि गणों को सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए जीवतत्त्व का अनेक प्रकार से उपदेश दिया ॥114॥

तत्पश्चात् जिनदेव ने अजीवतत्त्व का उपदेश देते हुए कहा कि वह पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोक-अलोकरूप आकाश और काल के भेद से पाँच प्रकार का है ॥115॥

पुद्गल अनन्त हैं और वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शमय है । पूरण और गलन होने से यह 'पुद्गल' ऐसा सार्थक नामवाला है ॥116॥

सामान्यतः अणु और स्कन्ध के भेद से पुद्गल दो प्रकार का है । पुद्गल के अविभागी अंश को अणु कहते हैं। दो या दो से अधिक अणुओं के समुदाय को स्कन्ध कहते हैं। विस्तार की अपेक्षा वह अनेक भेदवाला है ॥117॥

अथवा सूक्ष्मसूक्ष्म आदि के भेद से पुद्गल के छह भेद मा ने गये हैं, जो इस प्रकार हैं-१. सूक्ष्मसूक्ष्म, 2. सूक्ष्म, 3. सूक्ष्मस्थूल, 4. स्थूलसूक्ष्म, 5. स्थूल और 6. स्थूलस्थूल । ये छहों प्रकार के पुद्गल स्निग्ध क्ष गण से संयुक्त जानना चाहिए ॥118-119॥

एक अण सूक्ष्मसूक्ष्म पुदगल है, जो कि मनुष्यों की आँखों से अदृश्य है। आठ कर्ममयी स्कन्ध सूक्ष्म पुद्गल हैं ॥120॥

शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध ये सूक्ष्मस्थूल पुद्गल हैं। छाया, चन्द्रिका, आतप आदि स्थूलसूक्ष्म पुद्गल हैं ॥121॥

जल, अग्निज्वाला आदि अनेक प्रकार स्थूल पुद्गल मा ने गये हैं और भूमि, विमान, पर्वत, मकान आदि स्थूलस्थूल पुद्गल जानना चाहिए ॥122॥

(पुद्गल में जो स्पर्शादि चार गुण कहे गये हैं, उन में स्पर्श के आठ भेद हैं, रस के पाँच, गन्ध के दो और वर्ण के पाँच भेद होते हैं। ) स्पर्शादि के ये बीस गुण अणु में निर्मल स्वाभाविक हैं और स्कन्ध में वे स्पर्शादि 22 और विभावरूप गुण हैं ॥123॥

अनेक प्रकार का शब्द, स्थूल-सूक्ष्म की अपेक्षा से दो प्रकार का बन्ध, छह प्रकार का संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप तथा उद्योत आदि पुद्गल की विभाव संज्ञावाली पर्याय है, (जो कि स्कन्धों में होती है ) । पुद्गलों की स्वभावपर्याय अणुओं में होती है ॥124-125॥

शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास, और पाँच इन्द्रियाँ आदि सब पुद्गलों की पर्याय हैं, जो कि प्राणियों के होती हैं ॥126॥

ये पुद्गल संसार में जीवों के जीवन, मरण, सुख, दुःख आदि अनेक प्रकार के उपकारों को करते हैं ॥127॥

एक अणु की अपेक्षा संसार में शरीर नहीं बन सकता है, किन्तु बहुत अणुओं की अपेक्षा से शरीर बनता है, अतः स्कन्ध में अणु के उपचार से शरीर को पुद्गल की पर्याय कहा जाता है ॥128॥

धर्मास्तिकाय द्रव्य जीव और पुद्गलों की गति का सहकारी कारण माना गया है। कर्ता या प्रेरक नहीं है । जैसे संसार में जल मत्स्य की गति का सहकारी कारण माना जाता है। यह धर्मास्तिकाय अमूर्त, निष्क्रिय और नित्य है ॥129॥

अधर्मास्तिकाय द्रव्य जीव और पुद्गलों की स्थिति का सहकारी कारण है, जैसे पथिकजनों के ठहर ने में छाया सहकारी कारण मानी जाती है। यह अधर्मास्तिकाय द्रव्य भी स्थिति का कर्ता या प्रेरक नहीं है और नित्य अमूर्त और क्रियाहीन हे ॥130॥

लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से यहाँ आकाश दो प्रकार का है। यह सर्व द्रव्यों को ठहर ने के लिए अवकाश देता है। यह भी मूर्ति-रहित और निष्क्रिय है ॥131॥

जित ने आकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव रहते हैं, वह लोकाकाश कहा जाता है ॥132॥

उस से बाहर जितना भी अनन्त आकाश है, वह अलोकाकाश कहलाता है । उस में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं पाया जाता है। यह दोनों भेदरूप आकाश नित्य, अमूर्त, क्रियाहीन और सर्वज्ञ के दृष्टिगोचर है ॥133॥

जो द्रव्यों का नवीन जीणं आदि पर्यायों के द्वारा परिवर्तन करता है, वह समयादिरूप व्यवहारकाल है ॥134॥

लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक-एक कालाणु भिन्न-भिन्न प्रदेशरूप से स्थित हैं, उन निष्क्रिय स्वरूपवाले असंख्य कालाणुओं को सन्तों के लिए जिनेन्द्रों ने 'निश्चयकाल' इस नाम से कहा है ॥135-136॥ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, एक जीव और लोकाकाश, इन के असंख्यात प्रदेश कहे गये हैं, किन्तु काल के प्रदेश कभी नहीं होते हैं । अतएव काल के बिना शेष पाँच द्रव्य 'अस्तिकाय' कहलाते हैं। काल के साथ वे ही सब श्री जिनागम में षद्रव्य कहे गये हैं ॥137-138॥

इस लोक में जितना आकाश एक अणु के द्वारा व्याप्त है, उतना आकाश ज्ञानियों के द्वारा एक प्रदेश कहा गया है। वह एक प्रदेश भी अपनी अवगाहनाशक्ति से समस्त परमाणओं को अवगाह देने की शक्ति रखता है ॥13 रागी जनों के रागादि से दूषित जिस भाव के द्वारा कर्म आत्मा के भीतर आते हैं, वह भावास्रव है ॥140॥

दुर्भाव-संयुक्त जीव में मिथ्यात्व आदि कारणों से पुद्गलों का कर्मरूप से जो आगमन होता है, वह जैनागम में द्रव्यास्रव माना गया है ॥141॥

इस आस्रव के मिथ्यात्व आदि कारण विस्तार से मैं ने पहले अनुप्रेक्षा के स्थल पर कहे हैं, उन्हें जान लेना चाहिए॥१४२॥

जीव के राग-द्वेषमयी जिस चेतन परिणाम से कर्म बँधते हैं, वह भावास्रव है ॥143॥

उस भावबन्ध के निमित्त से जीव और कर्म का जो परस् पर संश्लेष होता है, वह ज्ञानियों के द्वारा द्रव्यबन्ध माना गया है । यह चार प्रकार का है-१. प्रकृतिबन्ध, 2. स्थितिबन्ध, 3. अनुभागबन्ध और 4. प्रदेशबन्ध । यह चारों ही प्रकार का बन्ध अशुभ है और समस्त अनर्थो की खानि है ॥144-145॥

इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगों से होते हैं और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायों से होते हैं, ये सब प्राणियों को दुःख देते है। ऐसा मुनिजनों ने कहा है ॥146॥

ज्ञानावरणकर्म जीवों के मतिज्ञानादि सद्-गुणों को आच्छादित करता है । जैसे कि वस्त्र देवमूर्तियों के मुखों को आच्छादित करते हैं॥१४७॥

दर्शनावरणकर्म चक्षदर्शन आदि दर्शनों को रोकता है । जैसे कि द्वारपाल राजा से मिल ने के लिए आये हुए लोगों को अपने कार्य आदि करने में रोकता है ॥148॥

मधुलिप्त खड्गधारा के समान वेदनीय कर्म मनुष्यों को सुख तो सरसों के समान अल्प देता है और दुःख मेरु के समान भारी देता है ॥149॥

मोहनीयकर्म मूढजनों को मदिरा के समान सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और धर्म-कर्मादि के विचार में विकल करता है ॥150॥

आयुकर्म शरीररूपी बन्दीगृह से जीवों को इच्छानुसार अभीष्ट स्थान पर नहीं जाने देता है और साँकल से जकड़े हुए के समान दुःख शोक आदि समस्त अशुभ वेदनाओं का आकर है ॥151॥

नामकर्म चित्रकार के समान जीवों के साँप, मार्जार, सिंह, हाथी, मनुष्य और देवादि के अनेक रूपों को करता है ॥152॥

गोत्रकर्म कुम्भकार के समान कभी तीन लोकपूजित उच्चगोत्र में जीवों को उत्पन्न करता है और कभी मनुष्यों से निन्दित नीचकुल में उत्पन्न करता है ॥153॥

अन्तरायकर्म भण्डारी के समान सदा ही जीवों के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन पाँचों की प्राप्ति में विघ्न करता है ॥154॥ इत्यादि प्रकार से आठों कर्मों के अनेक जातिरूप स्वभाव जानना चाहिए। जीवों के ये कर्मागमन के कारण प्रति समय होते रहते हैं, अतः जीव उन से बँधता रहता है ॥155॥

( यह प्रकृतिबन्ध का स्वरूप कहा । अब कर्मों के स्थितिबन्ध को कहते हैं)-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर-प्रमाण है ॥156॥

दर्शनमोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर-प्रमाण है। नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरप्रमाण है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव ने आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति कही ॥157-158॥

वेदनीयकर्म को जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त-प्रमाण है। नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त-प्रमाण है और शेष पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण है। मध्यम स्थिति सर्व कर्मो की मनुष्यों के (जीवों के ) अनेक प्रकार की जाननी चाहिए ॥159-160॥

(अब कर्मों का अनुभागबन्ध कहते हैं-) अशुभ कर्म प्रकृतियों का अनुभागबन्ध निम्ब-सदृश, कांजीर-सदृश, विष-सदृश और हालाहाल के सदृश चार प्रकार का अशुभ होता है ॥161॥ सभी शुभकर्म प्रकृतियों का अनुभागबन्ध गुड़-सदृश, खाँड-सदृश, शक्कर-सदृश और अमृत के सदृश प्राणियों के शुभ होता है ॥162॥

इस प्रकार संसारी प्राणियों को सुख-दुःखादि का देनेवाला सर्वकर्मो का अनेक जातिवाला अनुभाग क्षण-क्षण में उत्पन्न होता रहता है ॥163॥

( अब प्रदेशबन्ध कहते हैं-) रागी जीव के सर्व आत्म-प्रदेशों पर अनन्तानन्त संख्यावाले सूक्ष्म कर्म पुद्गल परमाणु सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं और वे परमाणुओं से भरे हुए एक क्षेत्र में निरन्तर एक प्रदेशावगाही होकर अवस्थित होते रहते हैं । यह प्रदेशबन्ध ही समस्त दुःखों का सागर है ॥164-165॥

यह चारों प्रकार का कर्म-बन्ध सर्व दुःखों का कारण है, अतः दक्ष पुरुषों को चाहिए कि वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप बाणों के द्वारा उसका शत्रु के समान विनाश कर ॥166॥

राग-द्वेष से रहित जो महान् चैतन्य-परिणाम कर्मास्रव के विरोध का कारण है, वह भावसंवर है ॥167। इसलिए योगी पुरुष महाव्रतादि के पालन और उत्तम ध्यान के द्वारा जो कर्मास्रव का निरोध करते हैं, वह सुखों का आकर द्रव्यसंवर है ॥168॥

संवर के कारण जो व्रत समिति गुप्ति आदिक और परीषहजयादिक मैं ने पहले कहे हैं, वे बुधजनों के द्वारा जान ने के योग्य हैं ॥169॥ कर्मों के आत्मा के भीतर से झड़ ने को निर्जरा कहते हैं। वह जीवों के सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की होती है। इनमें से अविपाकनिर्जरा तपस्वी मुनियों के होती है और सविपाकनिर्जरा सर्व प्राणियों के होती है ॥170॥

निर्जरा का विस्तार से वर्णन पहले कहा है, अतः पुनरुक्तादि दोष के भय से अब नहीं करता हूँ ॥171॥

शिवार्थी मनुष्य का जो अत्यन्त शुद्ध परिणाम सर्व कमौ के क्षय का कारण होता है, वह जिनेन्द्रों के द्वारा भावमोक्ष माना गया है ॥172॥

अन्तिम शुक्लध्यान के योग द्वारा सर्व कर्मजालों से आत्मा का विश्लेष ( सम्बन्धविच्छेद ) होता है, वह द्रव्यमोक्ष कहा जाता है ॥173॥

जिस प्रकार पैरों से लगाकर मस्तक-पर्यन्त कोटि-कोटि बन्धनों से बँधे हुए जीव के बन्धनों के विमोचन से परम सुख होता है, उसी प्रकार असंख्य कर्म-बन्धनों के द्वारा सर्वाङ्ग में बंधे हुए जीव के भी उनके विमोक्ष से निराबन्ध चरम सीमा को प्राप्त अनन्त सुख प्रति समय होता है ॥174-175॥

जब यह आत्मा समस्त कर्म-बन्धनों से विमुक्त होता है, तभी वह अमूर्त ज्ञानवान और अति निर्मल आत्मा ऊर्ध्वगामी स्वभाव होने से ऊपर को जाता है, अर्थात् लोकान्त में जाकर अवस्थित हो जाता है ॥176॥

वहाँ पर वह महान ज्ञानशरीरी मुक्तजीव आत्मोत्पन्न, निराबाध, निरुपम, विषयातीत, सर्व-द्वन्द्व-विमुक्त, आत्यन्तिक, वृद्धि हानि से रहित, शाश्वत और सर्वोत्कृष्ट सुख को भोगता है ॥177-178॥

इस संसार में जो अहमिन्द्रादि देव हैं, चक्रवर्ती आदि मनुष्य हैं, भोगभूमिज आर्य और पशु हैं, तथा व्यन्तरादिक हैं, इन सब ने जितना सुख आज तक भोगा है, वर्तमान में प्रतिदिन भोग रहे हैं और भविष्यकाल में भोगेंगे, वह सब विषय-जनित सुख यदि एकत्र पिण्डित कर दिया जाये, तो उस पिण्डीकृत सुख से अनन्त-गुणित विषयातीत सुख को कर्मशरीर से रहित सिद्ध जीव एक समय में भोगते हैं ॥179-281॥

ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग उस अनन्त गुणवाले सुख की प्राप्ति के लिए तप और रत्नत्रय के द्वारा मोक्ष की प्रमाद-रहित होकर साधना करते हैं ॥182॥

इस प्रकार शिवगति के कारणभूत सात तत्त्वों को और भव्यजीवों के योग्य दर्शन-ज्ञान के समग्र बीजों को समस्त देव-मनुष्यादिगणों की दृग्विशुद्धि के लिए नरपति, खगपति और सुरपति से पूजित वीर जिनेन्द्र ने दिव्यध्वनि से कहा ॥18॥

.. * जिन के चरण देवेन्द्रों और नरेन्द्रों से वन्दित हैं, योगीजन जिन का ध्यान करते हैं, जिन के द्वारा त्रिलोक-नमस्कृत प्रभुता प्राप्त की गयी है, जिस के लिए संसार के समस्त अधीश्वर नमस्कार करते हैं, जिस से बड़ा कोई दूसरा त्रिभुवन में गुरु नहीं है, जिस के गुण अनन्त हैं, और जिस के विषय में मुक्ति वधू इच्छा करती है उन वीर प्रभु को उन की विभूति पा ने के लिए मैं उन की स्तुति करता हूँ ॥184॥

इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरित में गौतम के प्रश्न और उनके उत्तर में सात तत्त्वों का वर्णन करनेवाला यह सोलहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥16॥