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गौतम गणधर के प्रश्नों के उत्तर

  कथा 

कथा :

त्रिलोक के नाथ, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी से विभूषित, समस्त तत्त्वों के उपदेशक और विश्व के बन्धु ऐसे श्री वीरजिनेश की मैं वन्दना करता हूँ ॥11॥

अथानन्तर वीरनाथ ने बतलाया कि ये जीवादि सात तत्त्व ही पुण्य और पाप इन से संयुक्त होने पर नौ पदार्थ कहे जाते हैं। ये पदार्थ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के कारण हैं ॥2॥

तत्पश्चात् तीर्थश सर्वज्ञ वीरनाथ ने विस्तार से पुण्य-पाप के कारण और फल भव्य जीवों के संवेग की प्राप्ति के लिए इस प्रकार से कहे ॥3॥

एकान्त विपरीत आदि पाँच प्रकार के मिथ्यात्वोंसे, क्रोधादि चार क्रूर कषायोंसे-षटकायिक जीवों की हिंसादि करने रूप असंयमों से, पन्द्रह प्रमादों से, सर्व निन्दनीय मन-वचन-कायरूप तीन योगों से, कुटिलकर्मों से, अति आर्त, रौद्ररूप ध्यानों से, कृष्णादि अशुभ लेश्याओं से, तीन शल्यों से, तीन दण्डों से, कुगुरुकुदेवादि की सेवा करने से, धर्मादि के कर्मों को रोकने से और पापों के करने का उपदेश देने से, तथा इसी प्रकार के अन्य दुराचारों से इस लोक में पापियों में सदा उत्कृष्ट पापकर्मों का संचय होता रहता है ॥4-6॥

परस्त्री, परधन और परवस्त्रादि में लम्पट, राग से दूषित, क्रोधमोहरूप अग्नि से सन्तप्त, विवेक-विचार से रहित, निर्दय, मिथ्यात्ववासना से वासित, और कुशास्त्रों का चिन्तवन करनेवाला और विषयों से व्याकुलित मन मनुष्यों के घोर पाप उत्पन्न करता है ॥७-८॥

संसार में पर-निन्दाकारक, स्वप्रशंसाकारक, निन्दनीय, असत्य से दूषित, पाप-प्ररूपक, कुशास्त्राभ्यास-संलग्न, तपोधर्मादि-दूषक और जिनागम-बाह्य वचन पुरुषों के महापाप का संचय करते हैं ॥9-10॥

क्रूर, क्रूरकर्म-कारक, वध-बन्ध-विधायक, दुःखद कार्य करनेवाला, विकार को प्राप्त, दान-पूजादि से रहित, स्वेच्छाचरणशीलवाला, और व्रत-तप से पराङ्मुख काय पापी जनों के नरक के कारणभूत महापाप को उपार्जन करता है ॥11-12॥

जिनेन्द्र देव, जिन सिद्धान्त, और निग्रन्थ धर्मधारक गुरुजनों की निन्दा करने से दुर्बुद्धि लोगों के निन्द्य महापाप उत्पन्न होता है ॥13॥

इत्यादि महापाप के निमित्तभूत प्रचुर निन्द्यकर्मों का श्री जिनेश्वर देव ने मनुष्यों को पापों से डरने के लिए उपदेश दिया ॥14॥

पापकर्म के उदय से ही क्रूर स्त्री, लोकनिन्द्य और शत्रुतुल्य बान्धव, दुर्व्यसनों से युक्त पुत्र, प्राण-घातक स्वजन, रोग-क्लेश-दरिद्रतादि तथा वध-बन्धनादि और सर्व प्रकार के दुःखादिक पापियों के उत्पन्न होते हैं ॥15-16॥

पापकर्म के उदय से ही प्राणी संसार में अन्धे, गूंगे, कुरूप, विकलाङ्गी, सुख-रहित, पंगु, बहिरे, कुबड़े, परघर में दास बनकर काम करनेवाले, दीन, दुबुद्धि, निन्द्य, क्रूर, पाप-परायण, और पापवर्धक शास्त्रों में निरत होते हैं ॥17-18॥

समस्त दुःखों के भंडार जो सात नरक हैं, सर्व दुःस्त्रों की खानि जो तिर्यग्योनि है, मातंग आदि के जो नीच कुल हैं और पापों की भूमि जो म्लेच्छजाति है, पापी जीव परभव में उन में उत्पन्न होकर वचन-अगोचर दुःखों को पाते हैं ॥19-20॥

अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोक में जित ने कुछ भी महान् दुःख हैं, क्लेश, दुर्गति-गमन और शारीरिक मानसिक आदि दुःख हैं, वे सब पाप से ही प्राप्त होते हैं ॥21॥

इस प्रकार से पाप कर्म के फल को जानकर सुखार्थीजनों को कोटिशत कों के होने पर और प्राणों के वियोग होने पर भी पाप के कार्य कभी भी नहीं करना चाहिए ॥22॥

इस प्रकार समवशरण सभा में विद्यमान सभ्यों को पापों से डरने के लिए पाप के फलादि का व्याख्यान करके पुनः पुण्य के कारणादि को इस प्रकार कहा ॥23॥

जित ने भी सभी पाप के कारण हैं, उन से विपरीत आचरण करनेसे, शुभ कार्यों के करनेसे, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसे, अणुव्रत और महावतों के पालनेसे, कषाय, इन्द्रिय और मनोयोगादि के निग्रह करनेसे, नियमादि धारण करनेसे, उत्तम दान देनेसे, पूजन करनेसे, अहंद्-भक्ति, गुरुभक्ति आदि करनेसे, शुभ भावना रखनेसे, ध्यान-अध्ययन आदि उत्तम कार्यो से और धर्मापदेश देने से पण्डित जन परम पुण्य को प्राप्त करते हैं॥२४-२६॥

वैराग्य में तत्पर, धर्मवासना से वासित, पाप से दूर रहनेवाला, पर-चिन्ता से विमुक्त, स्वात्मचिन्ता और व्रत में परायण, देव-गुरु-शास्त्र की परीक्षा करने में समर्थ और करुणा से व्याप्त मन उत्कृष्ट पुण्य को उत्पन्न करता है ॥27-28॥

पंचपरमेष्ठी के जाप, स्तोत्र और गुण कथन में तत्पर, स्वनिन्दाकारक, पर-निन्दा से दूर रहनेवाला, सुकोमल, धर्म का उपदेश देनेवाला, मिष्ट और सत्य की सीमा आदि से युक्त वचन अरिहन्तपद आदि को उत्पन्न करनेवाले पुण्य को सज्जनों के उत्पन्न करता है ॥29-30॥

कायोत्सर्ग आसन को प्राप्त, जिनेन्द्र पूजन में उद्यत, गुरुसेवा में तत्पर, पात्रदान करनेवाला, विकार से रहित, शुभ कार्य करनेवाला और समता भाव को प्राप्त काय बुद्धिमानों के सर्व सुख उत्पन करनेवाले अद्भत पुण्य को उत्पन्न करता है ॥31-32॥

जो बात अपना अनिष्ट करनेवाली है, उसे कभी भी, जो दूसरों के लिए नहीं चिन्तवन करता है, उसके सर्वदा परम पुण्य का उपार्जन होता रहता है, इस में कोई संशय नहीं है ॥33॥

इस प्रकार से तीथ के सम्राट् वर्धमान स्वामी ने पुण्य के कारणभूत बहुत से कार्यों को कहकर द्वादशगण के जीवों को संवेग-प्राप्ति के लिए पुनः उन्हों ने पुण्य के अनेक प्रकार के फलों को कहा ॥34॥ पुण्य के फल से जीव सुन्दर शरीरवाली स्त्रियोंको, कामदेव के समान सुपुत्रोंको, मित्रतुल्य स्वजनोंको, सुन्दर शरीरको, मिष्ट शुभ वचनको, करुणा से व्याप्त मनको, और रूपलावण्य-सम्पदा को तथा अन्य भी दुर्लभ वस्तुओं को प्राप्त करते हैं ॥35-37॥

पुण्य के उदय से तीन लोक में स्थित, पुण्यकारिणी लक्ष्मी गृहदासी के समान धर्मी पुरुषों के वश में होकर स्वयं प्राप्त होती है ॥38॥

पुण्य के उदय से सज्जनों को मुक्ति का कारण तथा तीन लोक के स्वामियों से पूज्य उत्कृष्ट सर्वज्ञवैभव प्राप्त होता है ॥39॥

पुण्य के उदय से सुकृती पुरुष समस्त देवों से पूज्य, सर्व भोगों का एक मात्र मन्दिर, और संसार की श्रेष्ठ लक्ष्मी से भूषित इन्द्रपद प्राप्त होता है ॥40॥

पुण्यसेवी पुरुषों के पुण्य के उदय से नौ निधि और चौदह रत्नों से परिपूर्ण, षट् खण्ड भूमि में उत्पन्न और सुख की भण्डार ऐसी चक्रवर्ती की सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ॥41॥

संसार में जो कुछ भी दुर्लभ अथवा दुर्घट सार उत्तम वस्तुएँ हैं, वे सब हे भव्यो, शुभ पुण्य से तत्क्षण प्राप्त होती हैं ॥42॥

इत्यादि विविध प्रकार के पुण्य के श्रेष्ठ फर को जानकर सुख के इच्छुक जनों को प्रयत्न पूर्वक उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करना चाहिए ॥43॥

इस प्रकार से जिनाग्रणी जिनराज ने पुण्य-पाप के साथ सात तत्त्वों को कहकर गणों के लिए उनके हेय-उपादेयादि कारक कर्तव्यों को कहना प्रारम्भ किया ॥44॥

इस संसार में सर्व जीव-राशियों के मध्य पाँचों ही परमेष्ठी सज्जनों के उपादेय जानना चाहिए, क्योंकि ये समस्त भव्य जीवों के हित करने में उद्यत हैं ॥45॥ निर्विकल्पपद के इच्छुक मुमुक्षुजनों को ज्ञानवान्, सिद्ध-सदृश, और गुणों का सागर ऐसा अपना आत्मा ही उपादेय है ॥46॥

अथवा शुद्ध निश्चयनयसे, व्यवहार से परवर्ती ज्ञानियों को सभी जीव उपादेय जानना चाहिए ॥47॥

व्यवहारनय की अपेक्षा इस संसार में सभी मिथ्यादृष्टि, अभव्य, विषयासक्त, पापी और शठ जीव हेय हैं॥४८॥

सरागी मनुष्यों को धर्मध्यान के लिए कहीं पर अजीवतत्त्व उपादेय है और विकल्प त्यागी अर्थात् निर्विकल्प योगियों के लिए अजीवतत्त्व हेय है ॥49॥

सरागी जीवों को क्वचित् कदाचित् पुण्यास्रव और पुण्य बन्ध दुष्कर्मों ( पापों) की अपेक्षा उपादेय हैं और मुमुक्षु जनों को मुक्ति की प्राप्ति के लिए वे दोनों हेय हैं ॥50॥

अयत्न-जनित पापास्रव और पापबन्ध समस्त दुःखों के कारण हैं, निन्द्य हैं, अतः वे सर्वथा ही हेय हैं ॥51॥

संवर और निर्जरा सर्वयत्न से सर्वत्र उपादेय हैं ॥52॥

इस हेय और उपादेय तत्त्व को जानकर निपुण पुरुष प्रयत्नपूर्वक हेय का परित्याग कर सर्व उपादेय उत्तम तत्त्व को ग्रहण करें ॥53॥

अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती गृहस्थ और सकलव्रती सरागसंयमी साधु मुख्यरूप से पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध का कर्ता होता है ॥54॥

और कभी मिथ्यादृष्टि जीव भी पापकर्मों के मन्द उदय होने पर भोगों की प्राप्ति के लिए शारीरिक क्लेशादि सह ने से पुण्यासव और पुण्यबन्ध को करता है ॥55॥

दुराचारी मिथ्यादृष्टि करोड़ों खोटे आचरणों के द्वारा मुख्य रूप से पापात्रव और पापबन्ध का विधाता होता है ॥56॥

संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन तत्त्वों के कर्त्ता संसार में केवल जितेन्द्रिय, रत्नत्रय-विभूषित और दक्ष योगी ही होते हैं ॥57॥

भव्य जीवों को संवरादि तीन तत्त्वों की सिद्धि के लिए व्यवहारनय से इस लोक में पंचपरमेष्ठी कारण जानना चाहिए और निश्चयनय से निर्विकल्प निज आत्मा ही कारण जानना चाहिए ॥58॥

मिथ्यादृष्टि जीव इस लोक में अपने और अन्य अज्ञानी जीवों के पापास्रव और पापबन्ध के लिए संसार के कारण भूत होते हैं ॥59॥

इस प्रकार समस्त बुद्धिमानों को पाँच प्रकार का अजीवतत्त्व निश्चय से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का कारण जानना चाहिए ॥60॥

दृष्टिशाली अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीवों के पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध तीर्थंकरादि की विभूति के कारणभूत हैं और मिथ्यादृष्टियों के पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध संसार के कारण हैं ॥61॥

अज्ञानी मिथ्यात्वियों के पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध ये दोनों ही केवल संसार के कारण और समस्त दुःखों के निमित्त जानना चाहिए ॥62॥

संवर और निर्जरा मुक्ति के परम्परा कारणभूत हैं और मोक्ष अनन्त सुख-सागर का साक्षात् हेतु है ॥63॥

इस प्रकार सर्व पदार्थों के स्वामी, हेतु और फलादि को कहकर पुनः भगवान् ने गौतम के शेष प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देना प्रारम्भ किया ॥64॥ जो जीव सप्त दुव्यसनों में आसक्त हैं, पर-स्त्री और पर-धन आदि की आकांक्षा रखते हैं, बहत आरम्भ-समारम्भ करने में उत्साही हैं, बहत लक्ष्मी और परिग्रह के संग्र महमें उद्यत हैं, क्रूर हैं, क्रूर कर्म करनेवाले हैं; निर्दयी हैं, रौद्र चित्तवाले हैं, रौद्रध्यान में निरत हैं, नित्य ही विषयों में लम्पट हैं, मांस-लोलुपी हैं, निन्द्य कर्मों में संलग्न हैं, निन्दनीय हैं, जैनशास्त्रों के निन्दक हैं, जिनेन्द्रदेव, जिनधर्म और उत्तम गुरुजनों के प्रतिकूल आचरग करते हैं, कुशास्त्रों के अभ्यास में संलग्न हैं, मिथ्यामतों के मद से उद्धत हैं, कुदेव और कुगुरु के भक्त हैं, खोटे कर्मों और पापों की प्रेरणा देते हैं, दुष्ट हैं, अत्यन्त मोही हैं, पाप करने में कुशल हैं, धर्म से दूर रहते हैं, शील-रहित हैं, दुराचारी हैं, व्रतमात्र से पराङ्मुख हैं, जिन का हृदय कृष्णलेश्या-युक्त रहता है, जो भयंकर हैं, पाँचों महापापों को करते हैं, तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से दुष्कर्मों के करनेवाले हैं, ऐसे समस्त पापी जीव इन दुष्कर्मों से उत्पन्न हुए पाप के द्वारा, तथा रौद्रध्यान से मरकर पापियों के घर नियम से जाते हैं ॥65-71॥

वह पापियों का घर पहले से लेकर सातवें तक सात नरक हैं, वे पापी अपने दुष्कर्म के अनुसार यथायोग्य नरकों में जाते हैं। वे नरक संसार के समस्त दुःखों के निधानस्वरूप हैं और उन में अर्ध निमेष मात्र भी सुख नहीं है ॥72॥

जो मायाचारी हैं, अति कुटिलतायुक्त कोटि-कोटि कार्यों के विधायक हैं, पर-लक्ष्मी के अपहरण करने में आसक्त हैं, दिन-रात के आठों पहरों में खाते-पीते रहते हैं, महामूर्ख हैं, खोटे शास्त्रों के ज्ञाता हैं, धर्म मानकर पशुओं और वृक्षों की सेवा-पूजा करते हैं, शुद्धि के लिए नित्य स्नान करते हैं, कुतीर्थों की यात्रार्थ जाने को उद्यत रहते हैं, जिनधर्म से बहिभूत है, व्रतशीलादि से दूर रहते हैं, निन्दनीय हैं, कापोतलेश्या से युक्त हैं, सदा आर्तध्यान करते रहते ह, तथा इसी प्रकार के अन्य दुष्कर्मों के करने में जो मूढचित्त पुरुष संलग्न रहते हैं, वे आर्तध्यान से मरण कर दुःखों से विह्वल हो बहुत दुःखों की खानिरूप तिर्यग्गति में जाते हैं, जहाँ पर वे उत्पत्ति से लेकर मरण-पर्यन्त पराधीन और दुःखी रहते हैं ॥73-77॥

जो नास्तिक हैं, दुराचारी हैं, परलोक, धर्म, तप, चारित्र, जिनेन्द्र शास्त्र आदि को नहीं मानते हैं, दुर्बुद्धि हैं, विषयों में अत्यन्त आसक्त हैं, तीव्र मिथ्यात्व से भरे हुए हैं, ऐसे जीव अनन्त दुःखों के सागर ऐसे निगोद को जाते हैं। और वहाँ पर वे पापी अपने पाप से अनन्त काल-पर्यन्त वचनातीत जन्म-मरण-जनित महादुःखों को भोगते हैं ॥78-80॥

जो तीर्थंकरोंकी, सद्-गुरुओंकी, ज्ञानियोंकी, धर्मात्माओंकी, तपस्वियों की सदा सेवा भक्ति और पूजा करते हैं, जो पंच महाव्रतों का और अर्हन्तदेव वा निर्ग्रन्थ गुरुओं की आज्ञा का पालन करते हैं, ऐसे मुनिजन है, तथा जो सर्व अणुव्रतों का पालन करते हैं, ऐसे श्रावक हैं, जो हर्ष से अपनी शक्ति के अनुसार बारह प्रकार के तपों को करते हैं, जो ज्ञानी कषाय और इन्द्रियरूप चोरों का निग्रह करके तथा आर्त-रौद्रध्यान को दूर करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याते हैं, मन को जीतनेवाले हैं, शुभलेश्याओं से जिन का चित्त युक्त है, जो अपने हृदय में सम्यग्दर्शन रूपी हारको, दोनों कानों में ज्ञानरूप कुण्डल-युगलको, और मस्तक पर चारित्ररूप मुकुट को धारण करते हैं, जो संसार, शरीर, भोग और भवनादिक में अतिसंवेग भाव रखते हैं, जो सदाचार की प्राप्ति के लिए सदा शुभ भावनाओं को भाते रहते हैं, जो प्रतिदिन क्षमादि दशलक्षणों से उत्तम धर्म को अपनी शक्ति के अनुसार स्वयं करते हैं, और वचनों के द्वारा धर्म-पालन का भली-भाँति उपदेश देते हैं, इन और इसी प्रकार के अन्य शुभ आचरणों से जो महान् धर्म का उपार्जन करते हैं, वे सब जीव मरकर शुभध्यान के योग से देवों के आलय (स्वर्ग) को जाते हैं ॥81-88॥

जो संसार में श्रावक, मुनि और सम्यग्दर्शन से भूषित दक्ष पुरुष हैं, वे नियम से कल्पवासी देवों में उत्पन्न होते हैं, उन की व्यन्तरादि गति कभी नहीं होती हैं ॥89-90॥

जो मूढ अज्ञान तप से कायक्लेश करते हैं, वे जीव ही व्यन्तरादि की नीचगति को प्राप्त करते हैं ॥9॥

जो स्वभाव से मृदुता-युक्त हैं, जिन का शरीर सरलता से संयुक्त है, सन्तोषी हैं, सदाचारी हैं, सदा जिन की कषाय मन्द रहती है, शुद्ध अभिप्राय रखते हैं, विनीत है, जिनेन्द्र देव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिनधर्म का विनय करते हैं, इन तथा ऐसे ही अन्य निर्मल आचरणों से जो जीव यहाँ पर विभूषित होते हैं, वे पुण्य के परिपाक से शुभ के आश्रयभूत आर्यखण्ड में सत्कुल से युक्त, राज्यादि लक्ष्मी के सुख से भरी हुई मनुष्यगति को प्राप्त करते हैं ॥92-94॥

जो पुरुष भक्ति से उत्तम सुपात्रों को यहाँ पर आहारदान देते हैं, वे महान् भोगों और सुखों से भरी हुई भोगभूमि को जाते हैं ॥95॥

जो मनुष्य यहाँ पर मायावी होते हैं, काम सेवन करने पर भी जिन की तृप्ति नहीं होती, शरीरादि में विकारी कार्य करते हैं, स्त्री आदि के वेष को धारण करते हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, रागान्ध हैं, शील-रहित हैं और मूढचित्त हैं, ऐसे मनुष्य मरकर स्त्रीवेद के परिपाक से इस लोक में स्त्री होते है ॥96-27॥ जो शद्धाचरणशाली है, माया-कुटिलतास रहित हैं; हेय-उपादेय के विचार में चतुर हैं, दक्ष हैं, दान पूजादि में तत् पर हैं, अल्प इन्द्रियसुख से जिन का चित्त सन्तोष-युक्त है, और सम्यग्दर्शन-ज्ञान से विभूषित है, ऐसी स्त्रियाँ पुरुषवेद के परिपाक से यहाँ पर मनुष्य होती हैं ॥98-99॥

जो पुरुष काम-सेवन में अत्यन्त अन्ध (आसक्त) होते हैं, परस्त्री-पुत्री आदि में लम्पट है, हस्तमैथुनादि अनङ्गक्रीड़ा में आसक्त रहते हैं, शील-रहित हैं, व्रत-रहित हैं, नीच धर्म में संलग्न हैं, नीच हैं और नीच मार्ग के प्रवर्तक हैं; ऐसे जड़ जीव नपुंसक वेद के वश से नपुंसक होते हैं ॥100-101॥

___ जो शठ पशुओं के ऊपर उन की शक्ति से अधिक भार को लादते और लदवाते हैं, पैरों से प्राणियों को मारते हैं, विना देखे मार्ग पर चलते हैं। कुतीर्थ में और पाप-कार्यादि में जाते हैं, ऐसे निर्दय चित्तवाले निन्द्य जीव मरकर अंगोपांगनामकर्म के उदय से पंगु ( लँगड़े ) होते हैं ॥102-103॥

जो जड़ लोग नहीं सु ने हुए भी पर-दोषों को ईर्ष्या से कहते हैं, पर-निन्दा, विकथा और कुशास्त्रों को सुनते हैं, केवली भगवान , श्रुत संघ और धर्मात्माओं को दूषण लगाते हैं, वे कुज्ञानावरणकर्म के विपाक से बधिर ( बहरे ) होते हैं ॥104-105॥

जो अन्य लोगों के देखे या अनदेखे दूषणों को कहते हैं, नेत्रों की विकार युक्त चेष्टा करते हैं, जो दुष्ट परस्त्रियों के स्तन, योनि आदि अंगों को आदर और प्रेम से देखते हैं, कुतीर्थी, कुदेवभक्त और कुलिंगी है, वे पुरुष चक्षुदर्शनावरणकर्म के उदय से अतीव दुःख भोगनेवाले अन्धे होते हैं ॥106-107॥

जो शठ यहाँ पर प्रतिदिन वथा ही विकथाओं को कहते रहते हैं. निर्दोष अर्हन्त, श्रुत, सद्-गुरु और धार्मिकजनों के मन-गढन्त दोषों को कहते हैं, पापशास्त्रों को अपनी इच्छा से पढ़ते हैं, और जिनागम को विनय आदि के बिना लोभ, ख्याति, पूजा आदि की इच्छा से पढ़ते हैं, जो धर्म, सिद्धान्त और तत्त्वार्थ का कुयुक्तियों से अन्यथारूप दूसरों को उपदेश देते हैं, वे जीव ज्ञानावरणकर्म के विपाक से श्रुतज्ञान से रहित मूक (गूंगे ) होते हैं ॥108-110॥

जो जीव हिंसादि पाँचों पापों में अपनी इच्छा से प्रवृत्त होते हैं, श्रीजिनेन्द्रदेव से उपदिष्ट तत्त्वार्थ को उन्मत्त पुरुष के समान यद्वा-तद्वा रूप से ग्रहण करते हैं, तथा सत्य और असत्य देव शास्त्र, गुरु, धर्म, प्रतिमा आदि को भी समान मानते हैं, ऐसे जीव मति ज्ञानावरणकर्म के उदय से विकलाङ्गी होते हैं ॥111-112॥

जो लोग कुबुद्धि से यहाँ पर सातों व्यसनों का भरपूर सेवन करते हैं, वे मूर्ख विषय-लोलुपता और मांस-भक्षण की लम्पटता से दुर्गतियों में जाते हैं ॥113॥

जो लोग नरकादि की सिद्धि के लिए व्यसनासक्त चित्तवाले मिथ्यादृष्टियों के साथ मित्रता करते हैं, और साधु पुरुषों से दूर रहते हैं, वे पापी जन विनाश को प्राप्त होते हैं, वे अति पाप के उदय से नरकादि गतियों में परिभ्रमण कर दुर्व्यसनी और दुःखों से व्याकुल दुर्गतियों में उत्पन्न होते है ॥114-115॥

जो अति लम्पट चित्तवाले पुरुष तप, संयम, व्रतादि के विना धर्म को छोड़कर नाना प्रकार के भोगों से शरीर को सदा पोषण करते रहते हैं, रात्रि में अन्नादि को खाते है, प्राणियों को अकारण वृथा पीड़ा देते हैं, अभक्ष्य वस्तुओं को खाते हैं, और करुणा से रहित हैं, वे पापी असाताकर्म के परिपाक से सर्व रोगों के भाजन, तीव्र वेदना से विह्वल चित्तवाले ऐसे महारोगी उत्पन्न होते हैं ॥116-118॥

जो पुरुष शरीर में ममता का त्याग कर तप और व्रत को पालते हैं, अपने समान सर्वजीवराशि को मानकर किसी भी जीव का कभी भी घात नहीं करते हैं, जो आक्रन्दन, दुःख, शोक आदि न स्वयं करते हैं और न दूसरों को उत्पन्न कराते हैं, वे मनुष्य यहाँ पर साता कर्म के उदय से सर्व रोगादि से दूर रहते हैं, और निरोगी सुखी जीवन यापन करते हैं ॥119-120॥ जो ज्ञानी पुरुष आभूषण आदि से शरीर का संस्कार नहीं करते हैं, और तप-नियम-योगादि के द्वारा कायक्लेश को करते हैं, परम भक्ति से जिनदेव और योगियों के चरण-कमलों की सेवा करते हैं, वे शुभकर्म के परिपाक से दिव्यरूप के धारी होते हैं ॥121-122॥

जो पश-तुल्य मढ जीव यहाँ पर शरीर को अपना मानकर उस की शुद्धि के लिए जल से प्रक्षालन करते हैं, जो रागी पुरुष आभूषणादि से शरीर का श्रृंगार करते हैं, जो शुभ (पुण्य ) की इच्छा से कुदेव, कुगुरु और कुधर्मादि की सेवा करते हैं, वे जीव अशुभ कर्म के उदय से अति बीभत्स कुरूप के धारक होते हैं ॥123-124॥

जो पुरुष जिनदेव, जिनागम और योगियों की परम भक्ति करते हैं, तप, धर्म, व्रत और नियम आदि को धारण करते हैं, खोटे ममत्व आदि का घात कर इन्द्रियरूप चोरों को जीतते हैं, ये पुरुष सुभग कर्म के उदय से लोक में सौभाग्यशाली और नेत्रप्रिय होते हैं ॥125-126॥

जो शठ मल-मूत्रादि से लिप्त मुनि पर घृणा करते हैं, जो रूप आदि मदों के गर्व से परस्त्रियों की इच्छा करते हैं, जो मृषा भाषणों से स्वजनों के प्रीति को उत्पन्न करते हैं, वे पुरुष दुर्भगनामकर्म के उदय से दुर्भागी और लोकनिन्दित होते हैं ॥127-128॥

दूसरों को छल से ठग ने में उद्यत जो पुरुष खोटी शिक्षा देते हैं और जो जड़ पुरुष सद्-असद् विचार के विना धर्म के लिए सच्चे और झूठे देव शास्त्र गुरुओं की भक्ति-पूजा करते हैं, वे मतिज्ञानावरणकर्म के उदय से दुर्बुद्धि और अशुभ प्रवृत्तिवाले होते हैं ॥129-130॥

जो पुरुष दूसरों को सद्-बुद्धि देते हैं, तप और धर्मादि कार्यों में नित्य ही जो तत्त्व-अतत्त्व और सत्य-असत्य आदि अनेक बातों का विचार करते हैं, जो उत्तम बुधजन धर्मादि सार बातों को ग्रहण करते हैं और असार बातों को छोड़ देते हैं, वे पुरुष मत्यावरण के मन्द होने से मेधावी और विद्वान् होते हैं ॥131-132॥

ज्ञान के मद से गर्व-युक्त जो पुरुष पढ़ा ने के योग्य भी व्यक्ति को नहीं पढ़ाते हैं, जो दुष्ट यथार्थ तत्त्व को जानते हुए भी अपने और दूसरों के लिए दुराचारों का विस्तार करते हैं, हितकारी जैनागम को छोड़कर ज्ञान-प्राप्ति के लिए कुशास्त्र को पढ़ते हैं, लोक में कटुक वचनालाप करते हैं, आगम-निन्दित, पर-पीडाकारी, असत्य और धर्म से पराङ्मुख वचन बोलते हैं, वे पुरुष श्रुतज्ञानावरणकर्म के उदय से महामूर्ख और निन्दनीय होते हैं ॥133-135॥

जो कालशुद्धि आदि आठ प्रकार के ज्ञानाचारों के साथ सदा श्रीजिनागम को स्वयं पढ़ते हैं, औरों को पढ़ाते हैं, धर्म-सिद्धि के लिए उसका व्याख्यान करते हैं, धर्मोपदेशादि के द्वारा अनेक भव्यजीवों को बोध देते हैं, स्वयं सदा निर्मल धर्म-कर्म में प्रवृत्ति करते हैं, हितकारी और सत्य वचन ही बोलते हैं और लोक में कभी भी असत्य वचन नहीं बोलते हैं, वे पुरुष श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से विद्वान् और जगत्पूज्य होते हैं ॥136-138॥

जिन के हृदय में संसार, भोग और शरीर से वैराग्य है, जिनेन्द्र देव और सद्-गुरु के गुणोंका, धर्म का और तत्त्वादि का धर्म-प्राप्ति के लिए सदा चिन्तवन करते हैं, जो आर्जव आदि सद्-गुणों को छोड़कर क्वचित्-कदाचित् भी कुटिलता नहीं करते हैं, वे शुभ आशयवाले पुरुष पुण्यकम के उदय से शुभ कार्यों के करनेवाले होते है ॥139-140॥

जो कुटिल अभिप्रायवाले मनुष्य परस्त्रीहरण आदि कुटिल प्रवृत्ति करते हैं, धर्मात्माजनों के उच्चाटन का चित्त में सदा विचार करते रहते हैं और दुर्बुद्धियों के दुराचारों को देखकर मन में सन्तुष्ट होते हैं, वे अशुभ कर्म के उदय से पापोपार्जन के लिए अशुभ अभिप्रायवाले उत्पन्न होते हैं ॥141-142॥

जो पुरुष तप, व्रत, क्षमादि के द्वारा, सत्पात्रदान-पूजादि के द्वारा, दर्शन-ज्ञान और चारित्र के द्वारा सदा धर्म को करते हैं, सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, वे स्वर्गादि में सुख भोगकर पुनः उच्च पदों की प्राप्ति के लिए धर्म-कार्य करते हैं, वे जीव इस लोक में धर्म के प्रभाव से धर्मात्मा उत्पन्न होते हैं ॥143-144॥

जो दुष्ट मनुष्य हिंसा, झूठ आदि के द्वारा दुर्बुद्धिसे, विषयों में आसक्ति से और कुदेवादि की भक्ति से सदा पापों का उपार्जन करते हैं, वे जीव इस लोक में ही चिरकाल तक दुःख भोगकर उस पाप कर्म के फल से नरकादि गतियों में उत्पन्न होते हैं। अहो गौतम, वे जीव दुर्गति को जाने के लिए पाप से पापी ही उत्पन्न होते हैं ॥145-146॥

जो पुरुष सत्पात्रों के लिए अति भक्ति से प्रतिदिन दान देते हैं, जिनेन्द्रदेव के और गुरुजनों के शुभ चरण-कमलों को पूजते हैं, और धर्म की सिद्धि के लिए विद्यमान बहुत से भोगों को छोड़ते हैं, वे मनुष्य इस लोक में धर्म के द्वारा महा भोग-सम्पदाओं को पाते हैं ॥147-148॥

जो परुष इस लोक में प्रतिदिन अन्याय और अत्याचार-परिपूर्ण कार्यों के द्वारा भोगों को भोगते हैं, बहुत भोगों के सेवन से भी कभी सन्तोष को प्राप्त नहीं होते हैं, और पात्रदान, जिनपूजा आदि को स्वप्न में भी नहीं करते हैं, वे उस पाप के परिपाक द्वारा भोगों से रहित दीन अनाथ उत्पन्न होते हैं ॥149-150॥

जो सदा धर्म का विस्तार करते हैं, जिनेशों का पूजन करते हैं, भक्तिभार से युक्त होकर सुपात्रों को दान देते हैं, तप, व्रत, संयमादि का आचरण करते हैं, और लोभ से दूर रहते हैं, उनके पास पुण्यकर्म के उदय से जगत् में सारभूत लक्ष्मी स्वयं जाती है ॥151-152॥

जो पुरुष समर्थ होकरके भी पात्रदान, श्री जिनपूजन, धर्म-कार्य और जैनों का उपकार नहीं करते हैं, धर्म और व्रत से दूर रहते हैं और लोभ से संसार की सम्पदाओं की वांछा करते हैं. वे जीव पाप के परिपाक से भव-भव में निर्धन और दुःख भोगनेवाले होते हैं ॥153-154॥

जो जीव पशुओं का अथवा मनुष्यों का उनके बन्धु जनों से वियोग करते हैं, पर-स्त्री, पर-लक्ष्मी और पर-वस्तु आदि का निरन्तर अपहरण करते हैं, तथा व्रत-शील से रहित हैं, वे जीव यहाँ पद-पद पर पाप कर्म के उदय से पुत्र, बान्धव, स्त्री और लक्ष्मी आदि इष्ट वस्तुओं से वियोग को प्राप्त होते हैं ॥155-156॥

जो पुरुष वियोग, ताड़न आदि से दूसरे जीवों को दुःख नहीं पहुँचाते हैं, सदा जैनों का उन की अभीष्ट सम्पदा से अर्थात् मनोवांछित वस्तु देकर पोषण करते हैं, यत्नपूर्वक व्रत, दान, पूजनादि के द्वारा धर्म का सेवन करते हैं, मोक्ष के विना सांसारिक सुख-स्त्री, पुत्र और धनादि की इच्छा नहीं करते हैं, उन पुण्यशाली लोगों की सुपुण्य के निमित्त से मनोभीष्ट पुत्र स्त्री और कोटि-कोटि धन के साथ इस लोक में संयोग प्राप्त होते हैं ॥157159॥

जो धर्म के अभिलाषी जन पात्रों के लिए सदा दान देते हैं, जिन-प्रतिमा और जिनालय आदि के निर्माण के लिए भक्ति के साथ धन देते हैं, उनके पूर्व संस्कार के योग से सर्वत्र उत्तम दातृत्व गुण प्राप्त होता है, जो उनके इस लोक और परलोक में कल्याण के लिए कारण होता है ॥160-161॥

जो कृपण पुरुष क्वचित् कदाचित् भी पात्रों के लिए दान नहीं देते हैं और तीन लोक की लक्ष्मी और सुख के इच्छुक होकरके भी जिनपजा के लिए धन नहीं देते हैं, वे कृपण अपने इस पाप के द्वारा तीन लोभ से आकुलित होकर चिरकाल तक दुर्गतियों में परिभ्रमण कर पुनः सर्प आदि की गति पानेवाले होते हैं ॥162-163॥

जो पुरुष अरिहन्तोंके, गणधरों के और अन्य मुनिधर्म पालन करनेवालों के लोकोत्तम गुणों का तथा उनके वचनों का उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए सदा ध्यान करते हैं, गुण-ग्रहण करने का जिन का स्वभाव है, जो सर्वत्र सर्वदा दुर्गुणों से दूर रहते हैं, ऐसे पुरुष इस लोक में गुणवृद्धि के लिए विद्वानों द्वारा पूजित ऐसे गुणवान होते हैं ॥164-165॥

जो मूढ पुरुष दोषों को ही ग्रहण करते हैं और गुणी जनों के गुणों को क्वचित् कदाचित् भी ग्रहण नहीं करते हैं, गुण-हीन कुदेव आदि के गुणों का व्यर्थ स्मरण करते हैं और मिथ्यामार्ग पर चलनेवाले कुलिंगियों के दोषों को कदाचित् भी नहीं जानते हैं, वे पुरुष इस लोक में निर्गन्ध कुसुम के समान निर्गणी होते हैं ॥166-167॥

जो पुरुष मिथ्यादृष्टि कुदेवों की और खोटे आचरण करनेवाले कुलिंगियों की धर्म-प्राप्ति के लिए सेवा और भक्ति करते हैं और श्री जिननाथोंकी, धर्मात्मा सुयोगियों की सेवा-भक्ति नहीं करते हैं, वे अपने इस उपार्जित पाप से बैलों के समान पद-पद पर पर-बन्धन में बद्ध होकर दासप ने को पाते हैं ॥168-169॥

जो लोग तीन जगत् के स्वामी अर्हन्तोंकी, गणधरोंकी, जिनागमकी, योगी जनोंकी, रत्नत्रयधर्म की और तप की निरन्तर मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक और सर्व मतान्तरों को छोड़कर आराधना करते हैं, वे इस लोक में उस पुण्य से सर्व सम्पदाओं के स्वामी होते हैं ॥170-171॥

जो निर्दय, व्रत-हीन मनुष्य इस लोक में दूसरों के बालकों का घात करते हैं और सन्तान आदि की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार का मिथ्यात्व सेवन करते हैं, उन शठ पुरुषों के मिथ्यात्वपाप के परिपाक से उनके पुत्र अल्प आयु के धारक होते हैं, वे जीते नहीं हैं और जित ने दिन जीवित रहते हैं, उत ने दिन पुण्य और सौभाग्य आदि से हीन रहते हैं ॥172-173॥

जो मूर्ख पुत्र-लाभ के लिए चण्डि का गौरी क्षेत्रपाल आदि देवी-देवताओंकी, पूजा-अर्चना आदि से सेवा करते हैं, अनेक प्रकार के यज्ञ-यागादिक को करते हैं, और दूर्वा-पीपल आदि को पूजते हैं, किन्तु पुत्रादि सर्व अर्थों की सिद्धि देनेवाले अर्हन्तों की पूजा-उपासना नहीं करते हैं, वे पुरुष मिथ्यात्व कर्म के उदय से भव-भव में पुत्र हीन होते हैं, अर्थात् बन्ध्याप ने वाली स्त्रियों को पाते हैं ॥174-175॥ जो पुरुष अन्य के पुत्रों को अपनी सन्तान के समान मानकर उनका स्वप्न में भी घात नहीं करते (किन्तु प्रेम से पालन-पोषण करते हैं) और मिथ्यात्व को शत्रु के समान जान उसे छोड़कर अहिंसादि व्रतों को धारण करते हैं, तथा जो अपनी इष्ट सिद्धि के लिए जिन देव, जिनसिद्धान्त और जिनानुयायी साधुओं की पूजा-उपासना करते हैं, उस पुण्य के उदय से उनके पुत्र चिरकाल तक जीनेवाले और दिव्यरूप के धारक होते है ॥176-177) जो लोग तप, नियम, सद्-ध्यान और कायोत्सर्ग आदि कार्यो में तथा अन्य धार्मिक कार्यो में, एवं अतिकठिन दीक्षा ले ने में कायरता प्रकट करते हैं, वे हीन सत्त्ववाले जीव उस पाप से इस लोक में कायर और सर्व कार्यों के करने में असमर्थ होते हैं ॥178-179॥ जो अपने धैर्य को प्रकट कर अति दुष्कर तपों को ध्यान, अध्ययन आदि योगों को और कायोत्सर्ग को करते हैं, तथा अपनी शक्ति से समस्त घोर उपसर्ग और परीषहों को सहन करते हैं, अहो गौतम, वे पुरुष उस तपस्या के प्रभाव से कर्मरूप शत्रुओं के घात ने में समर्थ ऐसे धीर-वीर होते हैं ॥180-181॥

जो दुष्ट पुरुष जिनराजोंकी, गणधरोंकी, जिनसिद्धान्तकी, निम्रन्थ साधु साध्वी, श्रावक और श्राविकादि धार्मिक जनों की निन्दा करते हैं, तथा पापी मिथ्या देव शास्त्र गरुओं की प्रशंसा करते हैं. वे अयशःकीर्तिकर्म के उदय से तीनों लोकों में निन्दनीय और दुःखों से संयुक्त होते हैं ॥182-183॥

जो पुरुष दिगम्बर गुरुओंकी, ज्ञानी गुणी सज्जन और शीलवान् पुरुषों की सदा सेवा भक्ति और पूजा करते हैं जो त्रियोग से सदा सारभूत सर्व व्रतों के साथ शीलवत को पालते हैं, वे शीलवान होते हैं और शीलधर्म के प्रभाव से स्वर्ग और मुक्ति-गामी होते हैं ॥184-185॥

जो व्रत-रहित जीव शील-रहित दुष्ट कुगुरुओं की कुदेव, कुशास्त्र और पापियों की नमस्कार-पूजादि से सेवा-उपासना करते हैं, स्वयं शीलरहित रहते हैं, और अन्याययुक्त कार्यों के द्वारा विषय जनित सुख की नित्य इच्छा करते हैं, वे लोग इस लोक में निःशील और दुर्गतिगामी होते हैं ॥186-187॥

जो मनुष्य गुणों के सागर ऐसे जिन-योगियोंकी, ज्ञानी गुरुओं की और सम्यग्दृष्टि पुरुषों की उनके गुण पा ने के लिए सदा संगति करते हैं उन्हें गुणी गुरु अनादि सुजनों के साथ स्वर्ग-मुक्ति का दाता महान संगम प्राप्त होता है ॥188-189॥ जो लोग उत्तम जनों का संगम छोडकर अज्ञानी मिथ्यादष्टियों का गण-नाशक संगम नित्य करते हैं. वे अधोगामी जीव इस लोक और परलोक में प्राण-नाशक और दुर्गति का कारणभूत कुसंग-दुर्जनों का साथ सदा पाते हैं ॥190-191॥

जो पुरुष अपनी सूक्ष्म बुद्धि से निरन्तर तत्त्व-अतत्त्वका, शास्त्रकुशास्त्रका, तथा देव, गुरु, तपस्वी, धर्म-अधर्म और दान-कुदान आदि का विचार करते रहते हैं, परलोक में उनका विवेक सभी देव-अदेव आदि की परीक्षा करने में समर्थ होता है ॥192193॥

जो समझते हैं कि सभी देव और सभी गुरु, भक्ति पूर्वक वन्दनीय हैं, किसी की निन्दा नहीं करना चाहिए । तथा सभी धर्म मोक्ष के देनेवाले हैं, ऐसा मानकर दुर्बुद्धि से सभी धर्मों की और सभी देवादि की इस लोक में सेवा करते हैं, वे भव-भव में निन्दनीय एवं मूढ़ता को प्राप्त होते हैं ॥194-195॥

जो आर्यजन तीर्थकर, सुगुरु, जिनसंघ और उच्चपदमयी पंचपरमेष्ठियों की प्रतिदिन पूजा-भक्ति करते हैं, उनके गुणों का कीर्तन करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, अपने दोषों की निन्दा करते है और दूसरे गुणी जनों के दोषों का उपगृहन करते हैं, वे पुरुष उच्च गोत्र कर्म के परिपाक से परभव में त्रिजगद्-वन्द्य गोत्र कर्म का आश्रय प्राप्त करते हैं अर्थात् तीर्थंकर होते हैं ॥196-197॥

जो जड़ पुरुष अपने-अपने गुणों को प्रकट करते हैं और गुणी जनों के दोषों को सदा प्रकट करते रहते हैं, तथा नीच देवोंकी, नीच धर्म की और नीच गुरुओं की धर्म के लिए सेवा करते हैं, वे लोग इस संसार में नीच गोत्र कर्म के उदय से नीचगोत्र पाते हैं और नीच पद के भागी होते हैं ॥198-199॥

जो दुर्बुद्धि पुरुष इस लोक में मिथ्यामाग के अनुराग से एकान्ती मिथ्यामार्ग में स्थित हैं और कुगुरु कुदेव कुधर्म की आत्मकल्याण के लिए सेवा करते हैं उनका पूर्व भव के संस्कार के योग से परभव में अशुभ का भण्डार-ऐसा अनुराग मिथ्यामार्ग में होता है ॥200-201॥

जो अपने ज्ञाननेत्र से यथार्थ जिनदेव, शास्त्र-गुरु और धर्म की परीक्षा करके उनके गुणानुरागी होकर उन गुणों की प्राप्ति के अभिप्राय से भक्ति पूर्वक उन की सेवा करते हैं, उन्हें ही अपने अनन्य ( एक मात्र) शरण मानते हैं और कुमार्ग में स्थित अन्य . कुदेवादि की स्वप्न में भी सेवा नहीं करते हैं, वे परलोक में जिनधर्मानुरक्त और शिवमार्ग के पथिक होते हैं ॥202-203॥

जो स्वर्ग-मुक्ति के इच्छुक ज्ञानी पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार अति दुष्कर कायोत्सर्गयोग को और मौनव्रत आदि को धारण करते हैं, तपश्चरण और धर्म सेवनादि कार्यों में अपने विद्यमान बल-वीर्य को नहीं छिपाते हैं, वे परभव में तप के भार को सहन करने में समर्थ ऐसे शुभ वज्रवृषभनाराचसंहननवाले दृढ़ शरीर को पाते हैं ॥204-205॥

जो समर्थ होकरके भी धर्म तप व्युत्सर्ग आदि की सिद्धि के लिए कदाचित् भी अपने बलवीर्य को व्यक्त नहीं करते हैं और शरीर के सुख में मग्न रहते हैं, तथा घर के व्यापारसम्बन्धी करोड़ों कार्यों के द्वारा पाप कर्मो को करते रहते हैं, उन जीवों को उस पाप से परभव में तप करने में असमर्थ और निन्दनीय शरीर प्राप्त होता है ॥206-207॥

___इस प्रकार जिस वीर जिनेन्द्र ने स्वर्ग और मोक्षगति की कारणभूत गौतम की प्रश्नावली का विशद वाणी द्वारा अर्थरूप से युक्तिपूर्वक समस्त गण और गणधर के लिए उत्तर दिया, उस वीरनाथ की मैं यहाँ पर परम भक्ति से स्तुति करता हूँ ॥208॥

जो वीरप्रभु मेरे द्वारा यहाँ पर नमस्कृत स्तुति के विषयभूत हैं, मैं उन वीरनाथ का आश्रय लेता हूँ। वीर प्रभु के साथ मैं भी शिवमार्ग का अनुसरण करता हूँ, तथा वीरप्रभु के लिए नमस्कार करता हूँ। वीर से अतिरिक्त अन्य कोई मेरा हित करनेवाला नहीं है, इसलिए मैं वीर जिनेन्द्र के चरणों का आश्रय लेता हूँ। मैं वीर-भगवान में अपने चित्त की परम स्थिति को करता हूँ। हे वीरभगवान् , आप मुझे अपने समीप ले जायें ॥209॥

इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीर्ति-विरचित श्री वीरवर्धमानचरित में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गये प्रश्नमाला के उत्तर वर्णन करनेवाला सत्रहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥17॥