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धर्मपरायण महाराज श्रेणिक

  कथा 

कथा :

वर्तमान तीर्थनायक श्री देवाधिदेव वीर प्रभु के चरण-कमलों से पवित्र यह राजगृही नगरी हैं, जिसमें भावी तीर्थंकर श्री श्रेणिक महाराज अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं धार्मिक भावनाओं से युक्त राज्य करते हैं। जिनके चरणों में अनेक भूपाल नतमस्तक होते हैं तथा जिनका पौद्गलिक देह अनेक शुभ लक्षणों से युक्त है, जिसका वर्णन करना कठिन होने पर भी सामुद्रिक शास्त्रज्ञान के माध्यम से कुछ लक्षण कहे जाते हैं। श्रेणिक राजा रूप, लावण्य एवं सौन्दर्य सम्पन्न हैं। उनका मुख कमल-समान है और वाणी ऐसी मधुर एवं सारगर्भित है मानो सरस्वती ही हो, भ्रमर समान नेत्र जिनमुद्रा से अलंकृत हैं अर्थात् उनके नेत्र जिनदेव को ही मुख्यरूप से अपना विषय बनाते हैं। जो स्वयं गुरु नहीं, परन्तु गुरु समान जगतजनों को सच्चे शास्त्रों के अवलोकन का पाठ सिखाते हैं। जैसे ओस की बूंद कमलपत्र के संपर्क से मोती का रूप धारण कर लेती है, वैसे ही राजा के कंठहार के मोती चन्द्रमा की चमक से भी अधिक शोभा को धारण कर रहे हैं। उससे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो राजा का चौड़ा एवं विशाल वक्षस्थल चंदन से सुरभित सुमेरू पर्वत के तट के समान है तथा उस पर चंद्रमा की चाँदनी ही छायी हुई है।

मेरू-सम मुकुट से शोभायमान जिनका मस्तक है, नीलपर्वत के समान जिनके केश हैं तथा नाभि ने भी नदी के आवर्त समान जहाँ गंभीरता धारण की है, कमल मंडल स्वर्णमय कटिबंधों से वेष्ठित हैं और दोनों जंघाएँ स्थिर गोल एवं सुगंधित हैं, उनके पैर रक्तामरयुक्त कोमल हैं, जो जलकमल की शोभा को धारण किये हुए हैं। राज्यसंपदा उनके सहवास से गौरवान्वित है और रूपसंपदा चंद्रमूर्ति समान आनंददायिनी है, उनका शास्त्रज्ञान भी शाश्वत अतीन्द्रिय आनंद प्रदाता है, क्योंकि बुद्धि की प्रवीणता आगम ज्ञान से ही शोभा को पाती है। जो आगमरूपी वाचक से वाच्य को ग्रहण करे वही शब्द, अर्थ एवं पदों के मर्म का वेत्ता होता है, तथा विनयवान एवं जितेन्द्रियता भी राजा में अपना स्थान जमाये हुए है। महाराज विद्या एवं कीर्ति के अनुरागी तो हैं ही, परंतु लौकिक वादित्र-रसिक भी हैं। वे लक्ष्मी समृद्ध तो हैं ही तथा विद्वानों द्वारा मान्य अर्थात् विद्वान भी उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं।

श्रेणिक नृप प्रतापशाली होने से अग्निसम मानकषाय से दग्ध अभिमानी शत्रु भी उनके सामने आते ही हिम समान ठंड़े हो जाते हैं और प्रवाहशाली होने से बड़े-बड़े नृप भी कमल की सौरभ को चूसने वाले भौंरों के समान इनके निकट आ नतमस्तक हो न्याय-नीति एवं धर्म का रसपान करते हैं।

(आइये! अब हम इसी नृप के मिथ्याबुद्धि युक्त भूतकाल का भी संक्षिप्त अवलोकन कर लें। आगम एवं लोक में सर्वत्र यह प्रसिद्ध है कि "अज्ञान समान कोई और अनर्थकारी नहीं"। जिस अभिप्राय अर्थात् मान्यता की विपरीतता ने निगोद तक की सैर अनंतों बार कराई है, उसी का एक नमूना प्रत्यक्ष भी देख लें। जिसमें अपने बौद्ध गुरुओं की चेलना द्वारा की गई परीक्षा को अपमान समझकर श्रेणिक ने अपने क्रोध का उपचार श्री वीतरागी मुनिराज पर उपसर्ग करके किया था।)

वह प्रसंग इसप्रकार था कि अनेक नगर, पर्वत, वनादि में विहार करते हुए श्री यशोधर मुनिराज राजगृही नगरी के पर्वत पर पधारे। वे वहाँ ध्यानमग्न थे कि उसी समय राजा श्रेणिक भी वन की छटा देखने के लिए घूमते-घूमते वहाँ पहुँचे। उन्हें देखकर श्रेणिक को अपने गुरुओं के अपमान का बदला लेने का भाव हो गया। राजा ने वहीं कहीं मरे हुए सर्प को मुनिराज के ऊपर डाल दिया, जिससे अगणित चींटी आदि हो जाने से उनके काटने की पीड़ा को वीतरागी संत ने साम्यभाव से सहनकर उस पर जय प्राप्त की।

उससमय श्रेणिक ने तीव्र मिथ्यात्व एवं अज्ञानता के कारण सातवें नरक की आयु का बंध किया था। उसी बुद्धिमान श्रेणिक ने बाद में काललब्धि और सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा विशुद्ध भाव को धारण कर श्री वर्धमान प्रभु के समवशरण में सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा विशुद्ध भाव को धारण कर क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया। वही राजा श्रेणिक का जीव शीघ्र ही कर्मवन को दग्ध कर भावी उत्सर्पिणी काल में श्री महापद्म नाम के प्रथम तीर्थकर होंगे।

इन्हीं राजा श्रेणिक की एक चेलना नामक रानी भी है, जो जैनधर्म परायण, पतिव्रता, व्रत, शील एवं सम्यग्दर्शन आदि गुणों से सम्पन्न भी है। यद्यपि श्रेणिक राजा के अंत:पुर में अनेक रानियां हैं, परन्तु रानी चेलना सत्यधर्म की उपासक होने से राजा के प्रेम की सर्वश्रेष्ठ पात्र है। वह रूप, लावण्य, यौवन आदि से युक्त होने से कल्पवृक्ष समान शोभती है। सदा जिनधर्म की आराधना से स्वयं तो आनंदामृत का रसपान करती ही है, परन्तु अपने पति बौद्धधर्मी श्रेणिक राजा को भी जिसने जिन-धर्म के सन्मुख किया है।