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विपुलाचल पर वीर प्रभो

  कथा 

कथा :

भव्य जीवों के संदेह निवारक श्री 108 पूज्य सन्मति (महावीर) मुनिराज अनेक वन-उपवन एवं पर्वतों पर विहार करते हुए राजगृही नगर के विपुलाचल पर्वत पर आ विराजमान हुए। प्रचुर आत्मिक स्वसंवेदन की उग्रता में वैशाख शुक्ला दशमी के शुभ दिन उन्हें केवलज्ञान लक्ष्मी उदित हुई, जिसके शुभ चिह्न स्वर्गपुरी, मध्यलोक आदि में दूर-दूर तक उदित हो गये अर्थात् स्वर्गवासी देवों के विमानों में क्षुभित समुद्र के शब्दों के समान घंटनाद होने लगा; ज्योतिषी देवों के विमानों में सिंहनाद गुंजायमान होने लगा, जिससे ऐरावत हाथी का मद भी गलित हो गया; व्यंतर देवों के निवास स्थानों में मेघों की गर्जना को भी दबा देनेवाले दुंदुभि बाजों के शब्द होने लगे और धरणेन्द्रों व भवनवासी देवों के भवनों में मधुर ध्वनिमय शंखों की महान ध्वनियाँ होने लगीं।

चतुर्निकाय देवों ने जब ये ध्वनियाँ सुनी, तब उनने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि पूज्य श्री सन्मति मुनिराज को केवलज्ञान सूर्य उदित हुआ है, इसीकारण हम लोगों के आसन कंपायमान हो रहे हैं। तभी देवों ने अपने-अपने सिंहासन से उठकर सात कदम आगे जाकर केवलज्ञानी वीर प्रभु को नमस्कार किया। वे जब वातावरण की ओर नजरें दौड़ाते हैं तो उन्हें चारों ओर की छटा कोई अद्भुत एवं निराली ही दिखाई देती है।

मनवांछित सिद्धि के दाता कल्पवृक्ष सम वीरप्रभु को लख कल्पवृक्ष भी दोलायमान होने लगे। उनसे निर्गत पुष्पों की वर्षा भी केवलज्ञानी प्रभु को पूजने लगी। मेघराज मानो स्वच्छ गगन से पराजित हो कहीं छिप गये, जिससे सर्व दिशायें अपनी निर्मलता को बिखेरने लगी। पृथ्वीराज भी कंटक एवं धूल रहित हो गये। वायुमंडल भी मंद, सुगंध, शीतल एवं मनभावनी बहारें चलाने लगा। केवलज्ञान रूपी पूर्ण चन्द्रमा को पाकर तीन जगत रूपी समुद्र भी आनंद तरंगों से पुलकित हो गया।

तभी केवली भगवान के दर्शन-पूजन के लिए सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो एवं अन्य सभी इन्द्र और देवगण अपनी-अपनी योग्य सवारियों पर आरूढ़ हो आकाश मार्ग से गमन करते हुए शीघ्र ही प्रभु के निकट पहुँचे, सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने शीघ्र भव्य एवं जगत को आश्चर्यचकित कर देने वाले एवं इस भूतल से पाँच हजार धनुष ऊँचे समवशरण की रचना की। इन्द्र आदि सभी प्रभु के दर्शन करते हुए प्रभु की जय-जयकार करने लगे, वीर प्रभो की जय हो! महावीर प्रभो की जय हो! इसके बाद सभी अपने-अपने योग्य कोठों में बैठ गये।

सौधर्म इन्द्र का मन-चकोर प्रभु के आन्तरिक वैभव - अनंत केवलज्ञान, अनंत केवलदर्शन, अनंत अतीन्द्रिय सुख, अनंत वीर्य, अनंत प्रभुता, अनंत विभुता, अनंत आनंद, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रकाश, अनंत ईश्वरता आदि को अनुमान ज्ञान से तथा बाह्य में अद्भुत पुण्य के भंडार शरीर को देख-देखकर मन ही मन आनंदित हो रहा है। अहो! यह कैसी अद्भुत रचना - मानो इसे दैवी शिल्पियों ने बड़ी ही भक्ति से अलौकिक रचा। जब प्रभु ही अलौकिक हैं, तब उनका समवशरण भी अलौकिक ही होना चाहिए; जिसमें अंतरिक्ष में विराजमान प्रभो! नभमंडल में चन्द्र के समान शोभ रहे हैं, उनका चैतन्यबिम्ब तो शरीर से भिन्न निराला ही है, परन्तु उनका देह भी समवशरण विभूति से अत्यन्त भिन्न निराला का निराला ही रहता है।