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जिनेन्द्र का समवशरण

  कथा 

कथा :

अहंत भगवान के उपदेश देने की सभा का नाम समवशरण है, जहाँ बैठकर तिर्यंच, मनुष्य और देव - पुरुष व स्त्रियाँ सभी उनकी अमृतवाणी श्रवण कर अपने कर्ण तो तृप्त करते ही हैं, परंतु निज-स्वरूप की आराधना करके मोक्ष की तैयारी भी करते हैं। इसकी रचना विशेष प्रकार से देव लोग करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियों में बड़ी आकर्षक रचनाएँ, नाट्यशालाएँ, पुष्प वाटिकाएँ, वापिकायें, चैत्यवृक्ष आदि होते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्यजन अधिकतर इसी के देखने में उलझ जाते हैं। सच्चा श्रद्धालु ही अष्टभूमि में प्रवेश कर साक्षात् भगवान के दर्शनों से तथा अमृतवचनों से अपने नेत्र, कान व जीवन सफल करते हैं।

नाम की सार्थकता - इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्यध्वनि के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं, इसलिए गणधरादि देवों ने इसका 'समवशरण' - ऐसा सार्थक नाम कहा है।

समवशरण में अन्य श्रुत-केवली आदि के उपदेश देने का स्थान - भवनभूमि नाम की सप्तम भूमि में स्तूपों से आगे एक पताका लगी हुई है, उसके आगे 1000 खम्भों पर खड़ा हुआ 'महोदय' नाम का मण्डप है, जिसमें मूर्तिमान श्रुतदेवता विद्यमान रहते हैं। उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में करके बहुश्रुत के धारक अनेक धीर-वीर मुनियों से घिरे श्रुतकेवली कल्याणकारी श्रुत का व्याख्यान करते हैं। महोदय मण्डप से आधे विस्तारवाले चार परिवार मंडप और हैं, जिनमें कथा कहने वाले पुरुष आक्षेपणी आदि कथाएँ कहते रहते हैं। इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने रहते हैं, जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महा ऋद्धिओं के धारक ऋषि इच्छुक जनों के लिए उनको इष्ट वस्तुओं के स्वरूप का निरूपण करते हैं।

मिथ्यादृष्टि अभव्यजन श्रीमण्डप के भीतर नहीं जाते - समवशरण के बारह कोठों में मिथ्यादृष्टि अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं से सहित जीव भी नहीं होते हैं। यही बात हरिवंशपुराण में भी कही गई है कि सप्तमभूमि में अनेक स्तूप हैं। उनमें सर्वार्थसिद्धि नाम के अनेकों स्तूप हैं। उनके आगे दैदीप्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नाम के स्तूप होते हैं, जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते हैं।

समवशरण का माहात्म्य - एक-एक समवशरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेव की वंदना में प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं। यद्यपि कोठों के क्षेत्र से जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा है, तथापि जिनदेव के माहात्म्य से वे सब जीव एक-दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं, और जिनेन्द्रदेव के माहात्म्य से बालक प्रभृति जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं, इसके अतिरिक्त किसी भी जीव को कभी भी कोई प्रकार की बाधादि नहीं आती अर्थात् आतंक, रोग, शोक, मरण, उत्पत्ति, बैर, कामबाधा तथा क्षुधा, तृषा आदि नहीं होने से चारों प्रकार का दान प्राप्त होता है। वे इसप्रकार हैं - प्रभु की दिव्यदेशना से ज्ञानदान तो मिलता ही है, वहाँ किसी को रोग नहीं होता इसलिए औषधदान हो गया, क्षुधा-तृषा नहीं लगने से आहारदान हो गया और किसी भी प्रकार का भय न

होने से अभयदान हो गया। इस तरह चारों दान वहाँ प्राप्त होते हैं ।

(सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा सम्पूर्ण तीर्थंकरों के समवशरण को विचित्र रूप से रचते हैं, यहाँ उसका भी थोड़ा अवलोकन कर लेना उचित है।)