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समवशरण की रचना

  कथा 

कथा :

समवशरण के स्वरूप वर्णन में 31 अधिकार होते हैं - 1. सामान्यभूमि, 2. सोपान, 3. विन्यास, 4. वीथी, 5. धूलि साल (प्रथम कोट), 6. चैत्य-प्रासाद-भूमियाँ, 7. नृत्यशाला, 8. मानस्तम्भ, 9. वेदी, 10. खातिका-भूमि, 11. द्वितीय वेदी, 12. लताभूमि, 13. साल (द्वितीय कोट), 14. उपवनभूमि, 15. नृत्यशाला, 16. तृतीय वेदी, 17. ध्वज-भूमि, 18. साल (तृतीय कोट), 19. कल्पभूमि, 20. नृत्यशाला, 21. चतुर्थ वेदी, 22. भवन भूमि, 23. स्तूप, 24. साल (चतुर्थ कोट), 25. श्रीमण्डप, 26. बारह सभाओं की रचना, 27. पंचम वेदी, 28. प्रथम पीठ, 29. द्वितीय पीठ, 30. तृतीय पीठ और 31. गंधकुटी - ये पृथक्-पृथक् इकतीस अधिकार होते हैं।

समवशरण की सामान्यभूमि गोल होती है। उसकी चारों दिशाओं में देव, मनुष्य और तिर्यंचों को चढ़ने के लिए आकाश में बीस-बीस हजार स्वर्णमयी सीढ़ियाँ (सोपान) होती हैं। इसमें चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक के अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं, यह उसका विन्यास (कोटों आदि का सामान्य निर्देश) है। प्रत्येक दिशा के सोपानों से लेकर अष्टमभूमि के भीतर गंधकुटी की प्रथम पीठ तक एक-एक वीथी (सड़क) होती है। वीथियों के दोनों पार्श्वभागों में वीथियों जितनी ही लम्बी दो वेदियाँ होती हैं। आठों भूमियों के मूल में वज्रमय कपाटों से सुशोभित और देवों, मनुष्यों एवं तिर्यंचों के संचार से युक्त बहुत से तोरणद्वार होते हैं। सर्वप्रथम धूलिसाल नामक प्रथम कोट है। इसकी चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार (गोपुर) हैं। प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगलद्रव्य, नवनिधि व धूप पुतलियाँ स्थित हैं। प्रत्येक द्वार के अन्दर दोनों पार्श्वभागों में एक-एक नाट्यशाला है। ज्योतिषी देव इन द्वारों की रक्षा करते हैं। धूलिसाल कोट के भीतर चैत्य-प्रासाद-भूमियाँ हैं। जहाँ पाँच-पाँच प्रासादों के अन्तराल से एक-एक चैत्यालय स्थित है। इस भूमि के भीतर पूर्वोक्त चार वीथियों के पार्श्वभाग में नृत्यशालाएँ हैं, जिनमें 32 रंगभूमियाँ हैं। प्रत्येक रंगभूमि में 32 भवनवासी कन्यायें नृत्य करती हैं।

प्रथम (चैत्य-प्रासाद) भूमि के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के बीचोंबीच गोल मानस्तम्भ भूमि है। इस प्रथम चैत्य-प्रासाद-भूमि से आगे प्रथम वेदी है, जिसका सम्पूर्ण कथन धूलिसाल कोट के समान जानना। इस वेदी से आगे दूसरी खातिका भूमि है, जिसमें जल से पूर्ण खातिकाएँ हैं। इससे आगे पूर्व वेदि सदृश ही द्वितीय वेदी है। इसके आगे तीसरी लताभूमि है, जो अनेक क्रीड़ा-पर्वतों व वापिकाओं आदि से शोभित है।

इसके आगे दूसरा कोट (साल) है, जिसका वर्णन धूलिसालवत् है, परन्तु यह यक्षदेवों से रक्षित है। इसके आगे चौथी उपवन नाम की चौथी भूमि है, जो अनेक प्रकार के वनों, वापिकाओं चैत्य वक्षों से शोभित है। सभी वनों के आश्रित सभी वीथियों के दोनों पार्श्वभागों में दो, दो (कुल 16) नृत्यशालाएँ होती हैं। आदि वाली (1 से लेकर 8 तक की) आठ नाट्यशालाओं में भवनवासी देव कन्याएँ और उससे आगे (9 से लेकर 16 तक) की आठ नाटयशालाओं में कल्पवासी देवकन्याएँ नृत्य करती हैं। इसके आगे पूर्व सदृश ही तीसरी वेदी है जो यक्षदेवों से रक्षित है। इसके आगे पाँचवीं ध्वजभूमि है, जिसकी प्रत्येक दिशा में सिंह, गज आदि दस चिह्नों से चिह्नित ध्वजाएँ हैं। प्रत्येक चिह्न वाली 108 ध्वजाएँ हैं और प्रत्येक ध्वजा अन्य 108 क्षुद्र ध्वजाओं से युक्त है। कुल ध्वजाएँ = (10 x 108 x 4) + (10 x 108 x 4 x 108) = 470880 हैं।

इसके आगे तृतीय कोट (साल) है, जिसका समस्त वर्णन धूलिसाल कोट के समान है। इसके आगे छठवीं कल्पभूमि है, जो दस प्रकार के कल्पवृक्षों से तथा अनेक वापिकाओं, प्रासादों, सिद्धार्थ वृक्षों (चैत्य वृक्षों) से शोभित है। कल्पभूमि के दोनों पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के आश्रित चार-चार (कुल 16) नृत्यशालाएँ हैं। यहाँ ज्योतिषी देव कन्याएँ नृत्य करती हैं। इसके आगे चौथी वेदी है, जो भवनवासी देवों द्वारा रक्षित हैं। इसके आगे सातवीं भवनभूमि हैं, जिनमें ध्वजा-पताकायुक्त अनेक भवन हैं। इस भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में जिनप्रतिमाओं युक्त नौ-नौ स्तूप (कुल 72 स्तूप) हैं। इसके आगे चतुर्थ कोट (साल) है, जो कल्पवासी देवों द्वारा रक्षित है।

इसके आगे अन्तिम आठवीं श्रीमण्डप भूमि है। इसमें कुल 16 सोलह दीवालों के मध्य बारह कोठे (सभा) हैं। इस कोठों के भीतर पूर्वादि प्रदक्षिण-क्रम से पृथक्-पृथक् बारह गण बैठते हैं। उन बारह कोठों में से प्रथम कोठे में अक्षीणमहानसिक ऋद्धि तथा सर्पिरास्त्रव, क्षीरास्त्रव एवं अमृतास्त्ररूप रस-ऋद्धियों के धारक पूज्य गणधर देव प्रमुख एवं अन्य मुनिराज बैठा करते हैं।

स्फटिकमणिमयी दीवालों से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ एवं तीसरे कोठे में अतिशय विनम्र पूज्य आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ बैटती हैं। चतुर्थ कोठे में परमभक्ति से संयुक्त ज्योतिषी देवों की देवियाँ और पाँचवें कोठे में व्यन्तर देवों की विनीत देवियाँ बैठती हैं। छठे कोठे में जिनेन्द्रदेव के अर्चन में कुशल भवनवासिनी देवियाँ और सातवें कोठे में दस प्रकार के जिनभक्त भवनवासी देव बैठते हैं। आठवें कोठे में किन्नरादिक आठ प्रकार के व्यन्तरदेव और नवमें कोठे में जिनेन्द्रदेव में मन को निर्विष्ट करनेवाले चन्द्र-सूर्यादिक ज्योतिषीदेव बैठते हैं। दसवें कोठे में सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त के देव एवं उनके इन्द्र तथा म्यारहवें कोठे में चक्रवर्ती, माण्डलिक राजा एवं अन्य मनुष्य बैठते हैं और बारहवें कोठे में हाथी, सिंह, व्याघ्र और हिरणादिक तिर्यंच जीव बैठते हैं। इनमें परस्पर जाति-विरोधी जीव पूर्व वैर को छोड़कर शत्रु भी उत्तम मित्रभाव से संयुक्त होते हैं ।

इनके अनन्तर निर्मल स्फटिक पाषाणों से विरचित और अपने-अपने चतुर्थ कोट के सदृश विस्तारादि सहित पांचवीं वेदी होती है।

इसके आगे वैडूर्य-मणियों से निर्मित प्रथम पीठ है, इस पीठ की ऊँचाई अपने-अपने मानस्तम्भादि की ऊँचाई सदृश है। इस पीठ के ऊपर बारह कोठों में से प्रत्येक कोठे के प्रवेश द्वार में एवं चारों वीथियों के सम्मुख सोलह-सोलह सोपान होते हैं। पीठ की परिधि का प्रमाण अपने-अपने विस्तार से तिगुणा होता है, यह पीठिका उत्तम रत्नों से निर्मित एवं अनुपम रमणीय शोभा से सम्पन्न होती है। चूड़ी सदृश गोल तथा नाना प्रकार के पूजा-द्रव्य एवं मंगलद्रव्यों सहित इस पीठ पर चारों दिशाओं में धर्मचक्र को सिर पर रखे हुए यक्षेन्द्र स्थित हैं। पूर्वोक्त गणधर देवादिक बारह गण उस पीठ पर चढ़कर और तीन प्रदक्षिणा देकर बार-बार जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं तथा सैकड़ों स्तुतियों द्वारा कीर्तन कर कर्मों की असंख्यात गुणश्रेणी रूप निर्जरा करके प्रसन्नचित्त होते हुए अपने-अपने कोठों में प्रवेश करते हैं अर्थात् अपने-अपने कोठों मे बैठ जाते हैं।

(इस प्रथम पीठ के ऊपर आगे कोई भी देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि नहीं जाते।)

प्रथम पीठ के ऊपर द्वितीय पीठ होता है। उस स्वर्णमयी पीठ के ऊपर चढ़ने के लिए चारों दिशाओं में पाँच वर्ण के रत्नों से निर्मित समान आकार वाले आठ-आठ सोपान होते हैं। इस पीठ पर सिंह, बैल, कमल, चक्र, वस्त्र, माला, गरुड़ और हाथी इन चिह्नों से युक्त ध्वजाएँ शोभायमान हैं तथा अष्ट मंगलद्रव्य, नवनिधि, धूपघट आदि शोभित हैं।

(नोट :- ये धूपघट ऐसे नहीं होते कि उनमें अग्नि हो और उसमें धूप डालने से त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होती हो। ये तो देवोपनीत हैं, इनमें सुगंध तो होती है, परन्तु हिंसा रंचमात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार पुष्प भी देवोपनीत होते हैं, वनस्पतिकाय के नहीं हैं, जो उनके तोड़ने में स्थावर जीवों की और उनमें रहनेवाले त्रस जीवों की हिंसा हो। समवशरण में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि सौधर्म इन्द्र विक्रिया से चाहे जैसी रचना करवा सकता है, फिर भी हिंसा लेशमात्र भी नहीं होती। पुष्प, दीप और धूपघट का वर्णन पढ़कर हिंसाकारक क्रियाओं का प्रचार वीतरागदेव के मंदिर में नहीं होना चाहिए। )

इस द्वितीय पीठ के ऊपर विविध प्रकार के रत्नों से खचित तृतीय पीठ होता है। उसकी ऊँचाई अपनी दूसरी पीठिका के सदृश होती है। इसका विस्तार प्रथम पीठ के विस्तार के चतुर्थ भाग प्रमाण होता है और तिगुणे विस्तार से कुछ अधिक इसकी परिधि होती है। सूर्यमण्डल सदृश गोल होती है। इस पीठ पर एक गंधकुटी होती है। यह गंधकुटी चामर, किंकणी, वन्दमाला एवं हारादिक से रमणीय, गोशीर, मलयचन्दन और कालागुरु समान धूपों की सुगंधसे व्याप्त, प्रज्वलित रत्नदीपों से युक्त तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं की पंक्तियों से संयुक्त होती है।

इस गंधकुटी की चौड़ाई पचास धनुष प्रमाण है और ऊँचाई पचहत्तर धनुष प्रमाण है। इस गंधकुटी के मध्य पादपीठ सहित उत्तम स्फटिकमणियों से निर्मित एवं घन्टियों के समूह से रमणीय सिंहासन होता है। लोकालोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य सदृश भगवान अरहन्त देव उस सिंहासन पर आकाश में चार अंगुत ले अन्तराल से विराजमान रहते हैं।

(नोट :- समवशरण का विस्तृत विवरण तिलोयपण्णति ग्रन्थ से तथा चित्रादि से सहित विवरण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग 4 से जानना चाहिये।)

जिनेन्द्रदेव चौंतीस अतिशय से युक्त होते हैं, जिनमें जन्म के दस अतिशय तो विदित हैं एवं ग्यारह केवलज्ञान के अतिशय होते हैं, जो इसप्रकार हैं
  1. अपने स्थान से चारों दिशाओं में एक सौ योजन पर्यंत सुभिक्षता,
  2. आकाशगमन,
  3. अहिंसा (हिंसा का अभाव),
  4. स्वयं भोजन नहीं करना,
  5. उपसर्ग का अभाव,
  6. सबकी ओर मुख करके स्थित होना,
  7. छाया नहीं पड़ना,
  8. निर्निमेष दृष्टि,
  9. विद्याओं की ईशता,
  10. शरीर में नख-केश का न बढ़ना तथा
  11. अठारह महाभाषा, सात सौ लधु भाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ हैं, उनमें तालु दाँत ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित एक साथ स्वभावत: अस्खलित तथा अनुपम दिव्यध्वनि द्वारा भव्यजनों को दिव्य उपदेश तीनों संध्या कालों में नव मुहर्तों तक निकलना, जो एक योजन पर्यन्त विस्तारित हो जाती है। इसके अतिरिक्त इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के आने पर असमय में भी अर्थात् मध्यरात्रि में भी दिव्यध्वनि खिर जाती है
और तेरह अतिशय देवों कृत होते हैं।

तीर्थंकर भगवंतों के अष्ट प्रातिहार्य भी होते हैं।
  1. तीर्थंकर प्रभु को जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान लक्ष्मी उदित होती है, उस वृक्ष का नाम अशोकवृक्ष है, (श्री वीरप्रभु को जिस वृक्ष के नीचे कैवल्य प्रगट हुआ, उसका नाम लोक में शालवृक्ष होनेपर भी वह अशोकवृक्ष ही कहलाता है)। जो लटकती हुई मोतियों की मालाओं, घंटों के समूहों से रमणीय तथा पल्लवों एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं वाला यह अशोकवृक्ष अत्यन्त शोभायमान होता है। इस अशोकवृक्ष को देखकर इन्द्र का भी चित्त अपने उद्यान-वनों में नहीं रमता है।
  2. सिर पर तीन छत्र
  3. सिंहासन
  4. भक्तियुक्त गणों (द्वादश गण) द्वारा वेष्ठित
  5. दुन्दुभि वाद्य,
  6. पुष्पवृष्टि होना,
  7. प्रभामण्डल और
  8. देवों के हाथों से झुलाये (ढोरे) गए मृणाल, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शंख जैसे सफेद चौंसठ चामरों से विराजमान जिनेन्द्र भगवान जयवन्त होते हैं।
ऐसे मुक्तिपति तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार हो।