कथा :
धर्मोपदेश के देनेवाले, तीन लोक के बन्धु समस्त योगीश्वरों को मैं वन्दन करता हूँ, वे मेरे व्रतों को उत्तम करें । उस नागश्री कन्या ने मुनिराज के चरणकमलों को नमस्कार कर बड़ी श्रद्धा के साथ उपदेश से प्रभावित हो पाँचों अणुव्रत धारण कर लिये । भावी घटनाओं को जानकर अवधिज्ञान के बल से मुनिराज ने, जब नागश्री व्रत लेकर जाने लगी, तब उसे यह शिक्षा दी कि बेटी! तेरा पिता तुझसे इन व्रतों को छुड़ाने का पूर्ण प्रयत्न करेगा परंतु तू देवों के भी दुर्लभ इन व्रतों को कभी मत छोड़ना क्योंकि व्रतों के आचरणरूपी धर्म से स्वर्ग और मोक्ष की सम्पदायें मिलती हैं और ख्याति कीर्ति आदि सब अपनी इच्छा के अनुसार प्राप्त हो जाते हैं । जो लोग व्रत लेकर उसका भंग करते हैं, वे नीच निन्दा के अलावा सैकड़ों संकट भोगते हुए परलोक में भी दुर्गति में ही रुलते पिलते हैं । इसलिए यदि तू अपने पिता के आग्रह से व्रतों को धारण करने में कदाचित् असमर्थ भी हो जाय तो तू मेरे इन व्रतों को मुझे आकर सौंप जाना । मुझे मेरे व्रत वापिस सौंपने के पहले इनको भंग मत करना । नागश्री ने मुनिराज की यह शिक्षा सुनकर कहा कि हे जगत् के कल्याण करनेवाले तात! आपने जैसा कहा है, वैसा ही होगा । यह कहकर और मुनिराज को नमस्कार कर वह अपने घर चली गयी किन्तु नागश्री के साथ जो अन्य ब्राह्मणों की लड़कियाँ गयी थीं, उन्होंने पहले ही आकर नागश्री के पिता नागशर्मा पुरोहित से यह बात कह दी थी कि नागश्री ने दिगम्बर जैन साधुओं के चरणकमलों को नमस्कार कर उनसे कुछ जैनधर्म के व्रत ले लिये हैं । जब नागशर्मा ने उनसे यह बात सुनी तो वह क्रोधरूप अग्नि से प्रज्वलित हो उठा और अपनी पुत्री नागश्री से दुर्वचनों के साथ कहा कि बेटी! तैंने भोलेपन से आज यह बहुत ही खोटा काम किया है, जो नग्नमुनि को नमस्कार किया तथा उनसे व्रत भी ले डाले । तुझे तो अपने कुल में चले आये वेद-पुराणों में कहे हुए यज्ञ कर्मादि धर्म को ही पालना चाहिए, जो कि ब्राह्मणों के लिये उचित हैं । जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ जीवदयामयी धर्म व्रतादि पालना ब्राह्मणों के श्रेष्ठ कुल में योग्य नहीं है; इसलिए तूने जो व्रत लिये हैं, इन्हें मेरे कहने से छोड़ दे । ये व्रत उनके लिये स्वर्ग मोक्ष के देनेवाले हैं, अपने लिये कभी नहीं । नागश्री ने पिता के ये वचन सुनकर कहा कि पिताजी! लिये हुए व्रतों को तो दुर्बुद्धि लोग ही छोड़ते हैं क्योंकि व्रत लेकर छोड़ने से जगत में नीचता, निन्दा और महापाप होता है और परलोक में सदैव दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है; इसलिए स्वर्ग-मोक्ष के करनेवाले इन अंगीकार किये हुए सारभूत व्रतों को मैं अपने कल्याण की दृष्टि से नहीं छोडूँगी । उसके पिता नागशर्मा ने अपनी पुत्री का ऐसा वचन सुन क्रोध से प्रज्वलित हो कहा कि या तो इन व्रतों को तू छोड़ दे, अन्यथा मेरे घर से बाहर निकल जा । नागश्री ने अपने पिता के इस दुराग्रह को जानकर चित्त में अत्यन्त दु:खी हो, कहा कि पिताजी! मेरी एक बात सुनिये, वह यह कि जब मैं व्रत लेकर आने लगी तो मुनिराज ने मुझसे कहा था कि जो ये व्रत मैंने तुझे दिये हैं, उन्हें तेरा पिता तुझसे छुड़ावेगा, यदि ऐसा ही हो तो जो व्रत तू मुझसे ले जा रही है, वे मुझे वापस सौंप जाना । अत: यदि आप ये व्रत मुझसे छुड़ाना ही चाहते हैं तो उनके व्रत उन्हें वापस सौंप देने दीजिए । पुत्री के ये वचन सुनकर पिता नागशर्मा ने कहा कि यह ठीक है, मुझे स्वीकार है । यह कहते हुए मुनिराज की वचनों से निन्दा करता हुआ पुत्री को साथ लेकर व्रतों को वापस कराने के लिये घर से स्वयं भी चल दिया । जब पिता-पुत्री रास्ते में चल रहे थे तो रास्ते में राज्य के सिपाहियों द्वारा एक जवान पुरुष को फाँसी पर लटकाने के लिये ले जाते हुए देखा, वह जवान पुरुष हथकड़ी-बेड़ी में बँधा हुआ भी था । नागश्री ने अपने पिता से पूछा कि पिताजी! इसने ऐसा क्या अन्याय किया है जो इसे इस प्रकार बाँधकर ले जाया जा रहा है? पिता ने कहा कि बेटी! मुझे मालूम नहीं कि क्या बात है? कोटपाल से पूछते हैं । पुत्री के साथ ही पिता ने कोटपालजी से पूछा कि कोटपालजी! इसे किस अपराध से कैद किया है? पूछने पर कोटपाल ने जवाब दिया कि चम्पानगरी में 19 करोड़ द्रव्य का मालिक देवदत्त नाम का साहूकार रहता था, जिसके समुद्रदत्ता नाम की सेठानी स्त्री और वसुदत्त नाम का एक ही लड़का था जो खूब जुआ खेला करता था । इस जुआ नामक व्यसन से अक्षधूर्त नामक जुआरी से जुआ खेली और जुए में एक लाख दीनार हार गया । अक्षधूर्त ने वसुदत्त से वह धन माँगा जो कि वह जीता था और धन शीघ्र चुका देने को कहा । इस पर मूर्ख पापी, निर्दयी, वसुदत्त ने क्रोध में अंधे होकर छुरी से अक्षधूर्त को मार डाला । जुआ और हिंसा आदि दोषों से दुष्बुद्धि वसुदत्त को यहाँ के राजा ने फाँसी पर चढ़ाने और इसकी समस्त सम्पदा को छीन लेने का दण्ड दिया है । इसलिए इसको फाँसी पर लटका देने के लिये ले जाया जा रहा है । इस घटना को सुनकर नागश्री ने अपने पिता से कहा कि जिस हिंसारूपी कुकर्म से यहीं पर ऐसे दण्ड मिलते हैं तो मैंने तो संसार में सर्वोच्च पद का देनेवाला अहिंसाणुव्रत उन मुनिराज से लिया है, उसे कैसे छोडूँ? मेरा यह व्रत बहुत ही सारभूत और उत्तम है । अपनी बेटी नागश्री की यह बात सुनकर नागशर्मा ने कहा कि तूने जो इतने व्रत लिये हैं, उनमें से एक अहिंसाणुव्रत तो रहने दे, बाकी और व्रतों को उस मुनिराज के पास चल करके छोड़ दे, चल, अपन चलें । वे दोनों जा रहे थे कि रास्ते में एक जगह ऐसा मनुष्य देखने में आया कि जो उल्टे मुँह तो लटक रहा था और उसके मुँह में काँटे लगे हुए थे तथा उसे पीटा जा रहा था । उस आदमी की ऐसी बुरी हालत देखकर नागश्री ने अपने पिता नागशर्मा से पूछा कि पिताजी! इस आदमी को इतना कष्ट क्यों दिया जा रहा है? पिताजी ने उत्तर दिया कि बेटी! इस ही चन्द्रवाहन राजा के ऊपर व्रजवीर्य राजा ने अपनी सेना के साथ उसके देश की हद के ऊपर खड़े होकर चढ़ाई करने के इरादे से उसके पास अपने चतुर दूत के द्वारा यह कहलाकर भेजा कि मेरे स्वामी ने यह कहा है कि आप मेरी सेवा स्वीकार करो जिसमें कि तुम्हारी भलाई है, यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो आपकी यह जो चम्पापुरी उत्तम नगरी है, उसे मेरे स्वामी को दे दो । दूत की यह बात चम्पापुर के राजा चन्द्रवाहन ने कहा कि यहाँ से चला जा और सामर्थ्य हो तो युद्ध के लिये सामने आजा, मैं आज ही तेरे स्वामी की समस्त शक्ति देखने के लिये खड़ा हूँ । यह कहकर उसे विदा कर बहुत बड़ी सेना के साथ बल नाम के सेनापति को उससे मुकाबले के लिये स्वयं भेज दिया । बल नामक सेनापति ने भी बड़ी भारी सेना के साथ राजा की आज्ञा से जाकर कायर लोगों को डरा देनेवाला युद्ध उस राजा के साथ छेड़ दिया, जब उन दोनों के बीच महान युद्ध हुआ तो तक्षक नाम का जो राजा का अंगरक्षक था, वह मौत के डर से भागकर राजा के पास आया और यह मिथ्यावचन बोला कि हे राजन्! वज्रवीर्य राजा ने तो आपकी सारे हाथी-घोड़े आदि सारी वस्तुएँ छीन ली हैं, बल नामक सेनापति को भी पकड़ लिया है । राजा चन्द्रवाहन तक्षक के ये वचन सुनकर अत्यन्त दु:खी और उदास हुआ किन्तु घटना सर्वथा इसके विपरीत थी । उधर बल नामक सेनापति अपने शत्रु वज्रवीर्य राजा को बाँधकर अपने साथ लेकर अपनी चम्पानगरी को चला । जब वह चम्पानगरी में प्रवेश करने लगा तो उसके आगमन के क्षोभ और आडम्बर से चन्द्रवाहन राजा ने यही समझा कि वज्रवीर्य ही आ रहा है । स्वयं तैयार हो गया । अपने किले की रक्षा के लिये बड़े-बड़े शूरवीर योद्धाओं को तैनात कर नगरी के दरवाजे बन्द करवा दिये और स्वयं राजा चन्द्रवाहन हाथी पर चढ़कर सामने खड़ा हो गया । बल सेनापति ने अपने स्वामी राजा की इस प्रकार की आकुलता जानकर स्वयं आगे आकर प्रगट होकर सभी दरवाजे खुलवाये, राजा चन्द्रवाहन को नमस्कार कर वज्रवीर्य राजा को जिसे कि बाँधकर पकड़कर लाया था, सामने पेश कर दिया । चन्द्रवाहन राजा ने प्रसन्न हो सेनापति को इनाम दिया, जिसे उसने बड़े आदर से स्वीकार किया । राजा चन्द्रवाहन ने वज्रवीर्य को भी छोड़ने की आज्ञा देकर अपने वचनों से उसे तृप्त कर उसके नगर को भिजवा दिया । वज्रवीर्य के अपने देश को चले जाने पर सुखपूर्वक समय व्यतीत करते हुए राजा चन्द्रवाहन ने तक्षक नामक अंगरक्षक की कही असत्य वाणी को याद कर उसका दण्ड देने के लिये कोटपाल को आज्ञा दी है, सो हे पुत्री! कोटपाल इस तक्षक को यह महान दण्ड दे रहा है । इसने जिस मुँह से झूठ वचन कहे थे, उसी मुँह में इसके शूल (काँटे) चुभाये जा रहे हैं तथा और भी कठोर दण्ड दिया जा रहा है । नागश्री ने अपने पिता नागशर्मा से यह सब बात सुनकर कहा कि । पिताजी! जिस झूठ के बोलने से यहीं इस प्रकार का दु:ख मिलता है तो परभव में तो न जाने क्या हो होगा? मैंने उन मुनिराजों से जो असत्य विरमण या सत्याणुव्रत लिया है, वह तो इज्जत रखनेवाला महान सुन्दर व्रत है, इसे कैसे छोडूँ! नागशर्मा ने स्वयं लज्ज्ति होकर कहा कि बेटी! यह व्रत जो तूने लिया है, इसे भी रहने दे परंतु बाकी तो छोड़नेयोग्य ही हैं । अत: जल्दी-जल्दी चल । उस यति के पास चलकर इन बाकी व्रतों को छोड़कर आवें । इस प्रकार वे व्रत छोड़ने तथा छुड़वाने जा रहे थे कि रास्ते में एक ऐसे मनुष्य को देखा जो शूल में लटकाये हुए ले जाया जा रहा था । उसे देखकर नागश्री के हृदय में करुणा आई और उसने अपने पिता से पूछा कि पिताजी! इस आदमी को किसलिए इस प्रकार दण्ड दिया जा रहा है? पिता ने उत्तर दिया कि पुत्री! मुझे तो मालूम नहीं है, कोटपाल से पूछना पड़ेगा । पुत्री के आग्रह से नागशर्मा ने कोटपाल से पूछा कि इस मनुष्य ने क्या अपराध किया है, जिससे आप इसे ऐसा दण्ड दे रहे हैं? इस प्रकार पूछने पर कोटपाल ने कहा कि इसी नगरी में एक वसुदत्त नाम का महान धनी बड़ा सेठ है । जिसके वसुमती नाम की स्त्री और उनके वसुकान्ता नाम की रूपवती पुत्री थी । एक दिन उसे सर्प खा गया और जब वह विष से मूर्छित हो गयी तो उसे मरी हुई जानकर सब घर के लोग श्मशान ले गये और जलाने के लिये चिता पर रखी तो उसी समय उसके पुण्योदय से अनेक देशों में घूमता-फिरता एक गरुड़नाभि नामक गारुडी रूपवान वणिक्पुत्र (व्यापारी) आ पहुँचा । उसने चिता पर पड़ी हुई उस रूपवती कन्या को देखकर कहा कि यदि आप इसे मेरे साथ विवाहित करने का वचन दें तो मैं इसे जीवित कर सकता हूँ । उसके स्वरूप को विचारकर अर्थात् यह भी वैश्य ही है और इसके साथ विवाह का अधिकार भी रखता है, शीघ्र ही वसुकान्ता के पिता वसुदत्त ने कहा कि मेरी पुत्री को शीघ्रता से जीवित कर दो, मैं तुम्हारे साथ इसका विवाह कर दूँगा । तब उसने कहा कि मैं इस रात को तो नहीं किन्तु प्रात:काल होते ही इसे निर्विष करके जीवित कर दूँगा । आप रातभर इसकी रक्षा करो । वसुदत्त सेठ ने उसकी चिता के चारों कोनों पर एक-एक हजार दीनारों को एक-एक कपड़े में बाँधकर रख दिया और चार शूरवीर मनुष्यों को चिता की रक्षा करने के लिये आदेश दिया, साथ यह भी कहा कि मैं इस निर्जन श्मशान में इस रात्रि के समय इसकी रक्षा करने के उपलक्ष्य में तुमकों एक-एक हजार दीनार दूँगा । ऐसा कहकर लड़की के सब परिवारीजन अपने-अपने घर चले गये और वे चारों शूरवीर धन के लोभ से चिता के चारों ओर पहरा देते रहे । रात बीत जाने पर प्रात:काल होते ही उस गरुडविद्या के जाननेवाले व्यापारी वैश्य ने मन्त्र शक्ति द्वारा वसुकान्ता को निर्विष करके जीवित कर दी । वसुदत्त सेठ को पुत्री के जीवित हो जाने पर बहुत हर्ष हुआ और उसने अपने पूर्व वचनों के अनुसार विधिपूर्वक विवाह के साथ उस वसुकान्ता को उस गारुड़ी व्यापारी के साथ ब्याह दी । वे जो चार पोटलियाँ (गाँठें) एक-एक हजार दीनार की उस चिता के साथ रखी थी, उनमें से एक नहीं मिली, तीन ही मिली । तब वसुदत्त ने कहा कि इन चारों में से एक ने तो एक गाँठ एक हजार दीनार की ले ही ली, बाकी तीन गाँठों को तुममें से तीन व्यक्ति ले लो । तब वे चारों ही कहने लगे कि मैंने वह गाँठ नहीं ली, मैंने वह गाँठ नहीं ली । तब वसुदत्त सेठ ने नगरी के राजा से जाकर निवेदन किया कि महाराज! मेरी हजार दीनारें चोरी हो गई हैं, सो पता लगाकर चोर से दिलाइये । राजा ने उसी समय चण्डकीर्ति नामक कोटपाल से कहा कि दुरात्मन्! एक हजार दीनार जो चोरी गई हैं, चोर से दिलाइये अन्यथा तुम्हारा मस्तक काट लिया जायेगा । चण्डकीर्ति ने कहा कि महाराज पाँच दिन के भीतर-भीतर माल सहित चोर का पता लगाकर न ला दूँ तो जो भी आप चाहें मेरा कर सकते हैं । राजा ने कोटपाल की यह बात सुन पाँच दिन की मोहलत दे दी । चण्डकीर्ति को चोर का पता लगाने की बड़ी भारी चिन्ता हुई । वह उन चारों शूरवीरों को अपने साथ लेकर घर चला गया । इस चण्डकीर्ति कोटपाल की सुमति नाम की अत्यन्त चतुर पुत्री रूपवती वेश्या थी, उसने अपने पिता को चिन्ता में मग्न देखकर पूछा कि पिताजी! आप चित्त में चिन्तित दिखते हैं, सो मुझे चिन्ता का कारण बतलावें तो मैं उसे दूर करने का प्रयत्न कर सकती हूँ । चण्डकीर्ति कोटपाल ने पुत्री से कहा कि इन चारों में से किसी ने एक हजार दीनार की गाँठ चुराई है परन्तु ये सब इनकार करते हैं । राजा ने कहा है कि सच्चे चोर का पता न लगा तो तुम्हारा मस्तकछेद होगा तो मुझे बड़ी भारी चिन्ता है । वेश्या पुत्री ने पिता की बात सुनकर कहा कि पिताजी! आप चिन्ता न कीजिये । मैं आज ही पता लगाकर आपको चोर बतला दूँगी । चण्डकीर्ति ने उन चारों शूरवीरों को भोजनादि कराकर कहा कि पाँच रात तक तुमको यहीं ठहरना होगा । यह कहकर अपने घर के एक स्थान पर उनके सोने, बैठने, रहने का प्रबन्ध कर चण्डकीर्ति उनसे भेद लेने को बातचीत करने लगा । चण्डकीर्ति की पुत्री सुमति वेश्या ने अनुक्रम से एक-एक को बुलाकर अपनी गद्दी पर बैठाकर कटाक्षों द्वारा अनेक प्रकार के काम विकार के निमित्त बनाती हुई कहने लगी कि मैं तुम चारों में से एक पर आसक्त हो सकती हूँ, परन्तु मेरे हृदय में एक बड़ा भारी प्रश्न और विकल्प यह है कि तुम चारों शूरवीरों के होते हुए, तुम्हारे द्वारा पहरा लगते हुए चोर एक हजार दीनार की गाँठ कैसे उठा ले गया? तुम चारों ही व्यक्ति वहाँ क्या कर रहे थे? इस बात को जानने की मेरी बड़ी उत्कण्ठा है । वेश्या पुत्री की बात सुनकर उनमें से एक बोला कि सुमते! मैं तो रात्रि के पहले भाग में ही वेश्या के यहाँ चला गया और वहाँ से रात के पश्चिम भाग में वहाँ आ गया । दूसरा बोला कि मैं भी इसके पीछे-पीछे ही चला गया और एक मींढा चुराकर लाया, मेरे पीछे घटना कैसे हुई, वह मुझे ज्ञात नहीं । तीसरा बोला कि मैं तो माँस के लिये मींढे को रांधने लग गया था, सो मुझे मालूम नहीं । चौथे ने कहा कि मैंने तो चिता पर रखे हुए मुर्दे की तरफ आँख लगा रखी थी, मेरी दृष्टि इन दीनारों की गाँठों पर बिल्कुल न थी । इन चारों पहरेदारों (चौकीदारों) की ये बातें सुनकर सुमति वेश्या असली चोर का पता लगाने में संशययुक्त ही रही और अपनी प्रयोजन सिद्धि के लिये तत्पर कुटिल आशय धूर्त वेश्या ने उनसे कहा कि आप लोगों का दोष प्रतीत नहीं होता और अब नेत्रों में आलस्य भी आने लगा है, इसलिए आलस्य को मिटाने के लिये एक कोई कहानी कहिये । वे चौकीदार बोले कि हम कोई कहानी नहीं जानते, आप ही कहिये, तब वह वेश्या बोली कि । मैं कहती हूँ । तुम सुनो! पाटलिपुत्र (पटना) नगर में धनदत्त नामक वैश्य रहता था, जिसके सुदामा नाम की पुत्री थी! एक दिन वह अपने महल के पश्चिम भाग में उद्यानवाले तालाब में पाँच धोने के लिये चली गयी, सो मगरमच्छ ने उसका एक पाँव पकड़ लिया, वह बड़ी दु:खी हुई । उसी समय उसने अपने जीजा धनदेव को कहा कि जीजाजी! मुझे मगरमच्छ ने पकड़ लिया है, सो मुझे जल्दी छुड़ाइये! हँसी में धनदेव बोला कि । तू मेरा कहना माने तो मैं तुझे छुड़ा लूँ । तब उस सुदामा ने कहा कि आप क्या कहते हैं, सो कहिये । तब वह बोला कि जिस दिन तेरा विवाह लग्न हो, उस दिन सबसे पहली रात में तू मेरे पास समस्त वस्त्राभूषणसहित आने का वचन दे । सुदामा ने कहा कि मुझे स्वीकार है । धनदेव ने उसका दाहिना हाथ जोर से खींचकर उस मच्छ से उसे छुड़ा लिया । वह संकट से उस समय छूट गयी । थोड़े दिनों बाद उसका विवाह हो गया । उसे प्रतिज्ञा पूरी करनी थी; अत: वह समस्त वस्त्राभूषण से सुसज्ज्ति उसी विवाह की रात को धनदेव की दुकान पर जाने को अपने घर से निकल पड़ी । वह रास्ते में जा ही रही थी कि उसे एक चोर मिल गया और उस चोर ने कहा कि तेरे पास जितने वस्त्राभूषण हैं, सो मुझे दे दे । सुदामा ने कहा कि इन वस्त्राभूषणों के साथ मुझे एक जगह जाना है, सो वहाँ जाकर मैं वापस लौटने पर तुझे दे दूँगी, इससे अन्यथा न होगा । वह उस चोर को यह वचन दे आगे बढ़ी, चोर भी उसके पीछे-पीछे कौतुक से ऐसे चला जैसे उसे दिख न सके । थोड़ी दूर जाने पर उस सुदामा को एक राक्षस मिल गया और बोला कि तू तेरे इष्देव का स्मरण कर क्योंकि मैं तुझे निगलूँगा । वह बोली कि मेरी एक जगह जाने की प्रतिज्ञा है, सो मैं वहाँ जा रही हूँ, मैं जब वापस लौटूँ, तब जो भी तेरी इच्छा हो सो कर लेना । इस प्रकार उसे भी वचन दे आगे बढ़ी, वह राक्षस भी छिपकर उसके पीछे रास्ते में लग कर चलने लगा । थोड़ी दूर जाने पर कोटपाल मिल गया, उस द्वारा भी रोकने पर इसी प्रकार धर्मवचन देकर वह सत्यवादिनी वचन में दृढ़ता रखनेवाली आगे बढ़ी और निर्विघ्न अपने जीजा धनदेव की दुकान पर जो वचन दिया था, उसे छुड़ाने के लिये जा पहुँची । ऐसी रात्रि के समय उस अकेली को आती देखकर विद्वान चतुर और परनारी से परांगमुख धनदेव ने उस अपनी छोटी साली सुदामा से कहा कि मुग्धे! ऐसी अंधेरी रात में इस समय क्यों आई? तू मेरी जो साली है, सो मेरी लड़की ही है, मेरे तो परस्त्री बहिन-बेटी के समान है । जिस समय तुझे तालाब में मच्छ ने पकड़ा था और तूने छुड़ाने को कहा था, उस समय जो भी मैंने कहा था, वह हँसी में ही कहा था, सत्यरूप से नहीं । मेरी ओर से ऐसा वचन कैसे कहा जा सकता था? जो परनारी में आसक्त होते हैं, वे पापी, पाप से मारपीट, बन्धन सर्वस्वहरणादि दु:ख पाते हैं और अन्त में नरक जाते हैं; इसलिए तू अपने स्थान को जा । इस प्रकार अपने वचनों से छूटी हुई उस पुराने मार्ग में जिससे कि आयी थी, रवाना हो गयी । रास्ते में तीन जो चोर, राक्षस और कोटपाल मिले थे, उन्होंने उसका सत्य देखकर उसे कहा कि तू महान सत्यवती है और हमारी माता के समान है; इसलिए हम तुझे छोड़ते हैं । इस प्रकार वह सबसे छूटकर अपने घर चली गयी । वेश्या ने इस प्रकार यह कहानी उन चौकीदारों को कहकर पूछा कि बतलाओ, इन चारों में कौन सा अच्छा है? तब मींढे के चोर ने तो चोर की प्रशंसा की और माँस पकानेवाले ने राक्षस की प्रशंसा की, मुर्दे की रक्षा करनेवाले ने कोटपाल की प्रशंसा की और वेश्यापति ने धनदेव की प्रशंसा की । इस प्रकार इन चारों में प्रत्येक के अभिप्राय को जान सुमति वेश्या ने इनकी इस बातचीत से ही असली चोर का पता लगा लिया और चित्त में हर्षित हो उनको उनके स्थान पर भेजकर अपने पलंग पर सो गयी । दूसरे दिन जिस मींढा चुरानेवाले चोर चौकीदार ने रास्ते में मिले हुए चोर की प्रशंसा की थी, उसे बुलाकर अपने पलंग पर बिठलाया और उससे कहा कि मैं तुम पर आसक्त हुई हूँ परन्तु मेरा पिता यह नहीं चाहता कि मैं किसी एक के साथ रहूँ; इसलिए मैं चाहती हूँ कि अपन किसी दूसरी जगह चले चलें । उसने भी इस बात की स्वीकारता दी, तब सुमति वेश्या बोली कि बाहर कहीं अपन दोनों के चलने में धन की जरूरत है, मेरे पास तो इतना धन है जो कि देख इस गाँठ में बंधा हुआ है परन्तु तुम्हारे पास भी कुछ है या नहीं? तब वह वेश्या में आसक्त होने से सुध-बुध भूलकर बोला कि मेरे पास भी है और उसने उसी एक हजार दीनारवाली गाँठ को बतलाया । वेश्या ने उससे वह गाँठ ले ली और कहा कि अब तुम अपने स्थान में जहाँ सोते हो चले जाओ, अपन अपने दोनों के आनंद के लिये प्रात:काल देशान्तर को चलेंगे, यह कहकर उसने तो विदा दे दी और वह धन की गाँठ अपने पिता को सौंप दी और चोर का पता लगा दिया । कोटपाल ने उस चोर और माल को ले जाकर राजा के सामने पेश कर दिया । सो राजा ने उस चोर को यह दण्ड दिया है । पाप से भयभीत हुई नागश्री ने यह बात सुनकर अपने पिता नागशर्मा से कहा कि पिताजी! जिस चोरी से वध, बन्धन, धन नाश, कुलक्षय आदि ऐसे महान दण्ड मिलते हैं, उससे अलग होने का अर्थात् बिना दी हुई वस्तु के लेने के त्यागस्वरूप जो अचौर्य अणुव्रत है, वही मैंने योगिराज से लिया है । वह बहुत ही हितकारी है, उसे कैसे छोडूँ? तब उस नागश्री के पिता ने कहा कि इस अचौर्य अणुव्रत को भी रहने दे परन्तु और जो व्रत हैं, उनको तो उसके पास चलकर छोड़ देवें, अत: चल । इस प्रकार जीव हिंसा, असत्य वचन और चोरी से जिन-जिन लोगों ने अनेक कष्ट, अपकीर्ति और सर्वस्व हरणादि दण्ड पाये, उनको नागश्री ने अपनी आँखों से देखकर दु:खों से भयभीत हो व्रतों में अधिक तत्पर हो गयी । इसलिए बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि अपने हित के लिये सदैव व्रतों का पालन करते ही रहें । विद्वानों से वन्दनीय, स्वर्ग-मोक्ष के सिद्ध करनेवाले वे मुनिराज धन्य हैं, जो तीन लोक को संसार सागर से तैराने में चतुर हैं और जो स्वयं संसार के पार चले गये हैं । वे महामुनि धन्य हैं, जिनका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अतुल और निर्मल है, जो भव्यजीवों को कल्याण के लिये अणुव्रत व महाव्रत दिया करते हैं । |