कथा :
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप और धर्मरूप रत्नों के देनेवाले तपोधन मुनिराजों को स्वर्ग-मोक्षरूप सुख की प्राप्ति के लिये मैं नमस्कार करता हूँ । नागश्री अपने पिता के साथ-साथ जा रही थी कि मार्ग में अत्यन्त दु:खी, पुरुष के मस्तक से बँधे हुए कंठवाली, नाक, कान कटी हुई एक स्त्री को एक जगह देखकर अपने पिता से पूछने लगी कि इसने ऐसा कौन सा अपराध किया है, जिससे इसकी ऐसी दुर्गति हुई है । नागश्री के पिता नागशर्मा ने कहा कि इसी चम्पानगर में एक मनस्य नाम का वैश्य, उसके जैनी नामक स्त्री और उसके नन्द, सुनन्द नाम के दो पुत्र हैं । जैनी नामक वैश्य सेठ की स्त्री का सूरसेन नामक भाई है, जिसके 'मदग्ली' नाम की पुत्री है । एक दिन मनस्य सेठ का पुत्र 'नन्द' द्वीपान्तर जा रहा था । जाते हुए उसने अपने मामा सूरसेन से कहा कि हे मामा! मैं बहुत दूर द्वीपान्तर को जाऊँगा, सो तुम्हारी रूपवती जो पुत्री है, उसे मुझे दे दो, यदि तुम दूसरे को दे दोगे तो तुमको राजा की दुहाई है । तब सूरसेन ने कहा कि तुम काल की मर्यादा करके देशान्तर को जाओ । नन्द ने बारह वर्ष की अवधि में वापस आने को कहकर देशान्तर के लिये गमन किया । जब नन्द काल की मर्यादा बीत जाने के बाद छह महीने और व्यतीत हो जाने पर भी न आया तो उसने अपनी पुत्री उसके छोटे भाई अर्थात् मनस्य सेठ के छोटे पुत्र सुनन्द को देने का संकल्प कर लिया । बड़े ठाठ बाट के साथ दोनों ओर विवाह की तैयारियाँ हुई, विवाह मण्डप सजाये गये । जब लग्न में केवल पाँच दिन रह गये तो 'नन्द' भी द्वीपान्तर से आ गया । नन्द को सारा वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसने कन्यापक्ष के लोगों से कहा कि जब आपने अपनी पुत्री मेरे छोटे भाई को देने का संकल्प किया है तो छोटे भाई की पत्नी हो जाने के कारण वह मेरी पुत्री के समान है । छोटे भाई सुनन्द ने कहा कि जब सूरसेन इस कन्या को मेरे बड़े भाई को दे चुका था तो बड़ी भौजाई होने के कारण अब यह मेरी माता के बराबर है । इस तरह उस कन्या के साथ दोनों ही ने विवाह नहीं किया और वह कन्या अवस्था में ही अपने पिता के घर में ही युवती हो गयी । उसके पिता अर्थात् सूरसेन सेठ के घर के पास ही दूसरे मकान में एक दुष्बुद्धि नागचन्द्र नाम का वैश्य रहता था । जिसके बारह स्त्रियाँ थीं और बारह करोड़ धन का वह पुण्ययोग से धनी भी था परन्तु वह पापी और व्यभिचारी था, इसलिए सूरसेन की पुत्री में आसक्त हो गया । थोड़े दिनों बाद उन दोनों का वह पापकार्य प्रगट भी हो गया । सो ठीक ही है कि पाप कभी छिपाये छिपता नहीं, वह तो फूटता ही है । इन दोनों की व्यभिचार कथा जनता की जवान पर आ गयी तो भी यह दोनों व्यभिचार में तत्पर ही रहे । नगर के कोटपाल ने यह बात सुनी और परीक्षा के बाद इन दोनों अनाचारियों को कैद कर लिया । राजा की आज्ञा से इनको वध, बन्धन, अंगछेदक आदि प्राणनाशक दण्ड दिया जा रहा है । अपने पिता के मुख से नागश्री ने यह सब सुनकर कहा कि पिताजी! शीलव्रत के बिना ऐसे-ऐसे महान दु:ख भोगने पड़ते हैं । मैंने उन महात्मा से कलंकरहित और जगत में पूज्य-ऐसा शीलव्रत लिया है, वह तो महान कल्याणकारी है, इसलिए उसे कैसे छोडूँ? तब पिता नागशर्मा ने कहा कि इस व्रत को भी तू रहने दे परन्तु बाकी जो और हैं, उन्हें तो चलकर छोड़ दे । इस प्रकार वे दोनों आगे जाने लगे । आगे जाते हुए मार्ग में उस नागश्री ने सिपाहियों द्वारा मारने के लिये ले जाते हुए एक पुरुष को देखकर पूछा कि पिताजी इस व्यक्ति को क्यों बाँध रखा है और किस अतिनिन्दनीय पापकर्म से इसकी ऐसी दुर्गति हो रही है? नागशर्मा ने कहा कि यह वीरपूर्ण नाम का पुरुष है, जो क्षीर भोजन ही करता है और महान लोभी है । यह राजा की अश्वशाला की रक्षा पर नियुक्त था । इस अश्वशाला में बहुत सा घास था, जिसे चरने के लिये एक गाय-बैलों का झुण्ड घुस गया । उसने राजा के सामने जब इसे उपस्थित किया तो राजा ने उसे ही वह सारा झुण्ड दे दिया, सो वह और भी अति लोभी हो गया और कहने लगा कि इस देश में जितना भी अच्छा गोधन है, वह सब मुझे दे दिया है । यह कहता हुआ उसने सब लोगों के गाय-बैल आदि छीन लिये । रानी के यहाँ जो भैंसें आदि थीं, वे भी सब इसने मँगा लीं । रानी ने क्रोधित हो उसका सारा हाल राजा से कह दिया कि यह महान लोभी इस प्रकार की कुचेष्टा कर रहा है । राजा चन्द्रवाहन ने अत्यन्त क्रोधित हो इस पापी को महान लोभजनित पाप के कारण शीघ्र ही मार डालने की आज्ञा दी है, इसीलिए इसे मारने को ले जाया जा रहा है । नागश्री ने अपने पिता से यह बात सुनकर कहा कि पिताजी! जिस महान परिग्रह से इस प्रकार का महान दु:ख लोभीजन भोगते हैं, तो मैंने जो मुनिराज के निकट परिग्रह का प्रमाण किया है, वह तो बहुत ही लाभकारी है, सो उसे प्राणान्त हो जाने पर भी छोड़ना ठीक नहीं । नागशर्मा ने अपनी पुत्री से कहा कि बेटी! यह व्रत तो ठीक है तू रख ले, किन्तु उस यति को शीघ्र जाकर फटकारना तो चाहिए; इसलिए उस दिगम्बर यति की भर्त्सना के लिये अपन अवश्य वहाँ चलेंगे । यह कहकर उस स्थान पर वे जा पहुँचे, जहाँ वे मुनिराज विराजमान थे । दूर से ही खड़े रहकर उसने मुनिराज को कठोर और निन्दनीय वचन कहना प्रारम्भ किया और कहा कि हे दिगम्बर! तुमने मेरी पुत्री को जो ये पाँच प्रकार के व्रत दिये हैं, वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के द्वारा कहे हुए शास्त्र के विपरीत हैं, सो किस प्रकार दे दिये? यह ब्राह्मण की लड़की है, उसके लिये ये तुम्हारे द्वारा दिये हुए व्रत सर्वथा अयोग्य हैं, तुमको वेद शास्त्र का भी विचार करना चाहिए । यह सुनकर भविष्य के ज्ञाता योगीराज ने मधुर स्वर से द्विजातियों के हितार्थ कहा कि मैंने मेरी ही पुत्री को ये पाँच व्रत जो कि धर्म के बीज और दया के मूल हैं, दिये हैं, इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ गया? मुनिराज के ये वचन सुन क्रोध से ज्वलित हो नागशर्मा ने कहा कि नागश्री तुम्हारी पुत्री कैसे हो सकती है? मुनिराज ने उत्तर दिया कि द्विज! यह नागश्री अवश्यमेव मेरी पुत्री है, इसमें कोई सन्देह नहीं, मैं असत्य नहीं बोलता हूँ । नागश्री साम्यभाव धारण कर व्रतों के पालने में तत्पर हो मुनिराज के चरणकमलों को प्रणाम कर उनके निकट बैठ गयी । नागशर्मा ने अत्यन्त क्रोध से शीघ्र ही राजा को जाकर प्रार्थना की और पुकारते हुए कहा कि महाराज! एक दिगम्बर जैन साधु मेरी नागश्री पुत्री को अपनी पुत्री बतलाकर असत्य तथा बलपूर्वक मुझसे छीन रहा है । नागशर्मा पुरोहित ने जो कहा वह सर्वथा असम्भव बात थी, इसलिए सभी राजा की सभा के सदस्यों को हृदय में महान आश्चर्य हुआ । विचार करने में महान चतुर राजा ने बड़े आश्चर्य में पड़कर अपने हृदय में सोचा कि चाहे सुमेरु पर्वत चलायमान हो जाए, चाहे अग्नि शीतल हो जाए, किंतु योगीजन कभी झूठ नहीं बोलते । जिन निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओं ने सम्पूर्ण परिग्रह तक का त्याग कर दिया, उनको मिथ्या-भाषण से क्या प्रयोजन? किन्तु यह बात भी जगत में प्रसिद्ध है कि नागश्री नागशर्मा ब्राह्मण की ही पुत्री है । ऐसी अवस्था में कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है । यह विचार कर राजा चन्द्रवाहन अनेक लोगों के साथ सन्देह को दूर करने के लिये मुनिराज के निकट गया । कितने ही लोग तो मुनिवन्दना के लिये धर्म सेवनार्थ उस उपवन को गये और कितने ही इस आश्चर्यकारी विवाद को सुनने के लिये और कितने ही तमाशा देखने के लिये भी उस उपवन में जा पहुँचे । वहाँ चन्द्रमा के समान निर्मल, अनेक जनों द्वारा पूजित, विद्वान्, प्रासुक भूमि पर बैठे हुए श्री सूर्यमित्र मुनिराज को देख उस महाव्रती धीर-वीर को नमस्कार किया और बैठकर उस बुद्धिमान राजा ने मीठे वचनों द्वारा मुनिराज से प्रश्न किया कि स्वामिन्! चाहे समुद्र अपनी मर्यादा को लांघ दे, कुलाचल पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी उलट-पुलट हो जाय अथवा कोई भी कुछ हो जाय परन्तु सत्य महाव्रतधारी मुनिराजों के मुख से निकले वचन कभी अन्यथा नहीं होते, यह बात मैं हृदय में अच्छी तरह जानता हुआ भी चित्त में उत्पन्न हुए सन्देह के दूर करने के लिये कुछ आपसे पूछना चाहता हूँ और वह यह है कि यह नागश्री जो आपके चरणों के निकट ही बैठी है, वह किसकी पुत्री है? मुनिराज ने उत्तर दिया कि इतने बैठे हुए विद्वज्ज्नों के बीच मैं सत्य कहता हूँ कि यह मेरी पुत्री है । मुनिराज के यह वचन सुनकर नागशर्मा ने लाल आँखें करके कहा कि राजन्! अत्यन्त भक्तिपूर्वक नाग देवता की आराधना और पूजा के फल से आप ही के नगर में मैंने अपनी भार्या से यह पुत्री प्राप्त की है । क्या ये अन्य बैठे हुए नगर-निवासी इस बात को नहीं जानते हैं? यह साधु तो ब्रह्मचारी हैं, इसके पुत्री का क्या काम? इसलिए आप इस बात के निर्णय करने में मन लगावें और उपस्थित जन समुदाय भी विचार करे । मुनिराज बोले कि राजन्! यदि यह इसी की कन्या है तो क्या इसने इसे व्याकरणादि शास्त्र पढ़ाया है? क्योंकि पठन-पाठन और शास्त्रज्ञान से ही अज्ञान की हानि होती है । नागशर्मा ने इसके बाद कहा कि मैंने तो अभी तक कुछ भी नहीं पढ़ाया । तब योगीराज बोले कि तब तुम्हारी पुत्री यह कैसे हो गयी? फिर नागशर्मा बोला कि यदि आपने इसे पढ़ाया है तो बतलाइये क्या पढ़ाया है? तब फिर योगीराज बोले कि मैंने अनेक शास्त्ररूपी समुद्र के पार तक इसे पहुँचा दिया है और मेरे इस कथन में रंचमात्र भी सन्देह नहीं है । योगीराज के वचन सुनकर सब लोग अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये । राजा चन्द्रवाहन ने भी आश्चर्यसहित हो मुनिराज को नमस्कार कर फिर कहा कि स्वामिन्! यदि आपने इस नागश्री कन्या को पढ़ाया है तो शास्त्र पठन की परीक्षा दिलवाइये, जिससे कि मालूम पड़े? राजा की यह बात सुनकर योगीराज ने अपनी अद्भुत वाणी से कहा कि राजन! इसी समय इसके द्वारा समस्त शास्त्रों की परीक्षा दिलाता हूँ । मुनिराज ने भरी सभा में जिसमें कि बड़े-बड़े विद्वान भी उपस्थित थे, कन्या नागश्री के मस्तक पर दाहिना हाथ रखकर अपनी दिव्य वाणी से कहा । वायुभूते! मुझ सूर्यमित्र ने राजगृह नामक नगर में जो बहुत से शास्त्र पढ़ाये थे, उन सारे शास्त्रों की विद्वानों और राजा को इस समय परीक्षा दो, जिससे कि सबका सन्देह दूर हो जाय । इतना कहते ही नागश्री अपनी दिव्य वाणी से सरस्वती की तरह अनेक शास्त्रों का पाठ करने लगी और जो भी कोई विद्वान उससे कुछ प्रश्न करता था, उसका युक्ति-प्रमाणपूर्वक ठीक-ठीक उत्तर देने लगी । इस शास्त्र परीक्षा से राजा तथा समस्त उपस्थित विद्वानों को उस समय बड़ा भारी आश्चर्य हुआ । तत्पश्चात् चन्द्रवाहन राजा ने मुनिराज को नमस्कार करके कहा कि स्वामिन्! यह नागश्री आपकी ही पुत्री है, इस ब्राह्मण की नहीं है परन्तु मेरे तथा इन उपस्थित अन्य लोगों के हृदय में भी एक सन्देह अवश्य है कि आपने नागश्री से तो परीक्षा दिलाई और नागश्री को 'वायुभूति' कहकर सम्बोधन किया, सो क्या कारण? इसमें सभी को बड़ा भारी आश्चर्य है । राजा के इस प्रश्न पर सूर्यमित्र मुनिराज ने उत्तर दिया कि राजन्! पूर्वभव में यह जो इस समय नागश्री है, सो वायुभूति ही था । यह सुनकर राजा को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ और मस्तक से मुनिराज को नमस्कार कर सविनय कहा कि भगवन्! कृपा करके नागश्री और वायुभूति के पूर्व भवों का अपनी वाणी से वर्णन करें । राजा के इस प्रश्न से भव्य जीवों के कल्याणार्थ अनुग्रहपूर्वक योगीराज बोले कि राजन्! अन्य उपस्थित भव्यजीवों के साथ अपने मन को वशीभूत करके वैराग्यभाव को पैदा करनेवाली नागश्री की कथा मैं कहता हूँ, सो सब लोग सुनें । वायुभूति का तथा हमारा पूर्वजन्मों का सम्बन्ध तथा भवान्तर हुए और उनमें जो-जो पुण्य-पाप किये और उनके द्वारा जो-जो फल हुआ, उस सबका वर्णन मैं करता हूँ । महान् पाप के कमाने से इस नागश्री ने जो-जो क्लेशकारक दुर्गतियाँ प्राप्त कीं और जिस पुण्य के लेश से यह इस ब्राह्मण की पुत्री हुई, यह सब भी मैं कह रहा हूँ, सो सारे सत्पुरुष सुनें । अनन्त गुणों के समुद्र, धर्मतत्त्व प्रकाश करने के लिये दीपक के समान, व्रतरूप आभूषणवाले, स्वर्ग-मोक्षादि के कारण, मानव और देवों से पूज्य, कर्म शत्रुओं से दूर और महान ऐसे अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु इन पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूँ । |