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चतुर्थ सर्ग

  कथा 

कथा :

मैं ग्रन्थकर्ता अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ।

इसी भरतक्षेत्र के वत्सदेश में कौशाम्बी नामक नगरी है, वहाँ अतिबल राजा राज्य करता था । उसके मनोहरी नाम की प्रिय पट्टरानी थी और सोमशर्मा नाम का शास्त्रज्ञाता ब्राह्मण पुरोहित था । सोमशर्मा के काश्यपी नामक स्त्री थी, इनके दो पुत्र थे, बड़ा अग्निभूति और छोटा वायुभूति । इन दोनों पुत्रों को बाल्यकाल में खूब लडाया, खिलाया, पिलाया, पिता ने इनको पढ़ाने का प्रयत्न भी खूब किया परन्तु ये पढ़े ही नहीं । पाप के उदय से इन दोनों का पिता सोमशर्मा मर गया । राजा ने अज्ञान से इन दोनों मूर्खों को ही पुरोहित पद दे दिया । ये दोनों ब्राह्मण पुत्र सुखपूर्वक रहते हुए कामभोग सुखों में आसक्त हो गये, शास्त्रज्ञान से तो वे रहित थे ही ।

उन्हीं दिनों बहुत देशों में भ्रमण करते-करते न्यायशास्त्र सम्बन्धी विवाद से अनेक वादी विद्वानों का अभिमान चूर करनेवाले विजयजिह्व नाम के एक विद्वान् ने राजा के महल पर यह सूचनापत्र चिपका दिया कि जो राजपुरोहित हो, मुझसे विवाद करे । राजपुरोहित के सिवाय दूसरे को विवाद करने का अधिकार नहीं । इस सूचनापत्र से अन्य विद्वानों ने तो वादपत्र लिया नहीं, तब राजा अतिबल ने इन दोनों भाईयों को बुलाकर यह आज्ञा दी कि तुम यह वादपत्र लो और विजयजिह्व वादी से शास्त्रार्थ करो । उन दोनों मूर्ख ब्राह्मण पुत्रों ने उस वादपत्र को लेकर फाड़ डाला । तब राजा अतिबल ने उनको महामूर्ख समझकर पुरोहित पद से अलग कर दिया और सोमिल नामक दूसरे ब्राह्मण को राजपुरोहित का पद दे दिया । वे दोनों मानभंग से हृदय में बड़े दु:खी हुए, आजीविका नष्ट हो जाने से विचारने और कहने लगे कि हमको हमारे पिता ने पढ़ाने का बड़ा भारी प्रयत्न किया था परन्तु हम इतने मन्दभागी रहे कि पढ़ न सके, अत्यन्त मूर्ख ही रह गये और कुमार्गगामी भी हो गये ।

ज्ञानरूपी नेत्र के बिना धर्म-कुधर्म की परीक्षा नहीं हो सकती । इस लोक में मान्यता नहीं हो सकती, तब परलोक में तो कल्याण कैसे हो? जिन्होंने संसार के तत्त्वों को प्रकाशित करनेवाला गुरु के पास ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त नहीं किया, वे शिक्षा हितोपदेश आदि कुछ नहीं मानते, वे दुर्बुद्धि होते हैं और उनके दोनों भव बिगड़ जाते हैं । ज्ञान से ही स्वच्छ कीर्ति होती है और ज्ञान से ही सम्पूर्ण ऋद्धियाँ एवं भव्यजीवों का कल्याणकारी केवलज्ञान भी होता है । यह विचार कर वे दोनों श्रुतज्ञान प्राप्त करने को अत्यन्त उत्सुक हो गये और शीघ्र ही देशान्तर जाकर पढ़ने का दृढ़ निश्चय किया ।

इन दोनों की माता काश्यपी इनकी अपने कल्याण के लिये शिक्षाभ्यास के प्रति अत्यन्त उत्सुकता देख बोली कि पुत्रों! राजगृहनगर में सुबल नाम का राजा और उसके सुप्रभा नामक स्त्री है, उनके जो सूर्यमित्र नाम का पुरोहित है, वह मेरा भाई है, जो ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न और विद्वानों में शिरोमणि है, वह तुम्हारा मामा होता है, सो तुम्हारा हितैषी है । यदि तुम्हारी शास्त्राभ्यास के लिये वास्तव में ही इच्छा है तो तुमको उसके पास शीघ्र जाकर पढ़ना प्रारम्भ कर देना चाहिए । अपनी माता की बात सुन वे दोनों विद्या के इच्छुक राजगृहनगर जा पहुँचे और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ सूर्यमित्र को नमस्कार कर बोले कि मामा! हमें हमारे पिताजी ने पढ़ाने का बड़ा भारी प्रयत्न किया परन्तु हम मूर्ख ही रहे, खेलकूद में लगे रहने से कुछ भी न पढ़ सके । पिता के मर जाने पर हमारा पद राजा ने दूसरे को दे दिया । अब हमको हमारी माता ने आपके पास पढ़ने को भेजा है, आप ही हमारा हित करनेवाले हैं । आप हमें पढ़ाइये, जिससे हम शास्त्रज्ञ होकर अपने खोये हुए पद को फिर से प्राप्त कर सकें ।

विद्वान सूर्यमित्र पुरोहित ने अपने हृदय में सोचा कि लाड-चाव के कारण ये पिता से न पढ़ सके, यदि मैं भी इनको अच्छा भोजन दूँगा तो ये खिलाड़ी हो जाँएगे, जिससे न ये कुछ पढ़ सकेंगे और न इनकी कार्यसिद्धि ही हो सकेगी । यह विचार सूर्यमित्र ने कहा कि जब मेरे कोई बहिन ही नहीं है तो तुम भानजे कहाँ से आये? मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध मामा-भानजेपन का नहीं है तो भी तुम अन्य ब्राह्मणों के घर से भिक्षा माँगकर भोजन करते रहोगे और पढ़ते रहोगे तो मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा, अन्यथा नहीं । उन्होंने सूर्यमित्र विद्वान की इस बात को स्वीकार कर पढ़ना प्रारम्भ किया और थोड़े ही समय में प्रमादरहित हो परमादर से अनेक शास्त्र पढ़ गये और महाविद्वान बन गये । जब वे अनेक शास्त्रों के पारगामी हो गये और अपने घर लौटने लगे तो सूर्यमित्र विद्वान ने उनको वस्त्रादिक देकर विदा करते समय कहा कि मैं तुम्हारा हितैषी मामा ही हूँ । यदि मैं भी तुम्हारे पिता की तरह यहाँ भी लाड़-प्यार करके अपने घर में ही भोजनादि कराता तो तुम कभी न पढ़ते; इसलिए मैंने तुमसे कह दिया था कि मैं तुम्हारा मामा नहीं हूँ और तुम्हारे हित के लिये ही इस प्रकार तुमको दरिद्रतापूर्वक रख भिक्षा भोजन कराके पढ़ाया है । मामा सूर्यमित्र की यह बात सुन अग्निभूति ने उसकी प्रशंसा की और कहा कि आप हमारे पिता ही हो, आपने जो किया है, वह सब हित और पथ्य ही है, आपने हमारा जन्म सफल कर दिया और ज्ञानदान से आजीविका का उपाय भी कर दिया । विद्या और धर्म के दान से बड़ा दूसरा कोई दान नहीं है । ज्ञान और धर्म के दाता के अलावा कोई दूसरा दाता नहीं । जो विद्या और धर्म के दाता का उपकार नहीं मानते, वे मूर्ख और कृतघ्न होते हैं । कल्याण के कारणभूत उपकार का न मानना ही कृतघ्नता और मूर्खता है । ऐसे जो कृतघ्नी मूर्ख होते हैं, उन पापियों के पाप से सब पढ़ी हुई विद्या भी नष्ट हो जाती है और वे यहाँ तो महामूर्ख होते ही हैं किन्तु परलोक में भी दुर्गति के पात्र होते हैं । अग्निभूति ने तो इस प्रकार अपने विद्वान मामा का बड़ा भारी उपकार मानकर स्तुति की, किन्तु वायुभूति ने दुर्गति करनेवाली मामा की निन्दा करते हुए कहा कि तू हमारा कैसा मामा है? तू तो महान निर्दय नीच और चाण्डाल के समान है, जो तूने हमसे भिक्षा भोजन कराया ।

यहाँ आचार्य कहते हैं कि ये दोनों सहोदर (एक ही माता के गर्भ से पैदा हुए) हैं परन्तु दोनों में ही कितना अन्तर है? इस बात से ज्ञात होता है कि कर्मों की गति विचित्र है, जीवों के परिणामों की योग्यता भी विचित्र है । इसके बाद वे दोनों अपने नगर जाकर राजा के पास गये, राजा को आशीर्वाद दे अपनी बुद्धि से राजा को अपनी शास्त्र-कुशलता का परिचय दिया । राजा ने भी सन्मानपूर्वक उनको उनका पुराना पद दिया और वे सम्पत्तिशाली होकर सुखपूर्वक रहने लगे ।

इस कथा को यही रखकर । बीच में एक घटना और हुई, उसका अवलोकन करते हैं । जो इस प्रकार है । राजगृहनगर का राजा सुबल बहुमूल्य रत्नों जड़ी हुई अंगूठी पहने हुए था । जब स्नान के पहले तेल-मर्दन कराने को तैयार हुआ तो रत्नों की आभा खराब न हो जावे, इसलिए अंगूठी खोलकर सूर्यमित्र विद्वान पुरोहित को सौंप दी । पुरोहित ने उसे अपनी अंगुली में पहन ली और घर चला गया, घर जाकर उसने सन्ध्यातर्पणादि ब्राह्मण कर्म कर जब राजा के दरबार में जाने की तैयारी की तो उसे हाथ की अंगुली में अंगूठी नहीं दिखायी दी, तब वह महान उदास हो गया । उसने परमबोध नामक विद्वान ज्योतिषी निमित्तज्ञानी को स्वयं बुलाकर पूछा कि मेरे हाथ जो सुवर्ण रत्नमयी अंगूठी गिर गयी है, वह मिलेगी या नहीं? उस निमित्तज्ञानी ने उत्तर दिया कि मिल जाएगी ।

पश्चात् उसे उसने विदा कर दिया परन्तु उसकी चिन्ता इसलिए न गई कि उसे तो राजा को उसी समय अंगूठी वापस देनी थी । वह चिन्ता से व्याकुल हो अपने महल के ऊपर चला गया, उसने नगर के बाहर उपवन में जाते हुए बड़े संघ सहित, भव्य जीवों को सम्बोधनेवाले, तीन लोक के देवों से पूजित चरणवाले मति-श्रुत-अवधिज्ञान के धारी, जगत के हित करनेवाले, जगत से वंदित, जगत में श्रेष्ठ, जगत से स्तुत्य सुधर्म नामक आचार्य को देखा ।

उसने उन आचार्य को देखकर विचार किया यह ज्ञानवान साधु है, सो मेरी अंगूठी की बात को अवश्य ही जानता होगा; इसलिए एकान्त में इससे पूछना चाहिए । यह विचार काललब्धि से वह सूर्यास्त होने के समय से कुछ पहिले अंगूठी के विषय में पता लगाने के लिये आचार्य-संघ के निकट आया । ज्ञान, ऋद्धि आदि गुणों के सागर और अपने शरीर में भी नि:स्पृह, मोक्ष सिद्धि में इच्छावाले योगी को देखकर भी लज्जा और अभिमान से प्रश्न करने में असमर्थ होता हुआ भी अपने कार्य की सिद्धि के लिये आसपास चक्कर काटने लगा ।

अवधिज्ञान के योग से परोपकारी सुधर्माचार्य ने उसे निकट भव्य जान कहा कि । हे सूर्यमित्र! राजा की अंगूठी को अपनी अंगुली से गिराकर चिन्तित हो क्या तू यहाँ मेरे पास अपनी चिन्ता मिटाने आया है? सूर्यमित्र पुरोहित ने अपनी मानसिक चिन्ता और सम्पूर्ण बात जानकर परम आश्चर्यान्वित हो, योगीराज से कहा कि 'हाँ'! सूर्यमित्र ने मुनिराज को नमस्कार कर पूछा कि स्वामिन्! जहाँ वह अंगूठी गिरी है, वहाँ का पता बतलाइये । तीन ज्ञानरूपी नेत्रवाले योगीराज ने उत्तर दिया कि विद्वन्! तुम्हारे महल के पीछे उद्यानवाले तालाब में जब तुम सूर्य को अर्घ दे रहे थे, तब तुम्हारे हाथ की अंगुली से अंगूठी निकलकर सरोवरवाले कमल की कली में गिर गयी और अदृश्य होकर अभी तक वहीं मौजूद है, सो तुम उसके लिये चिन्ता छोड़ दो और मेरे वचनों में निश्चय करो ।

पुरोहित विद्वान् ने यह सुन वहाँ जाकर उसे देखा तो उसे वह ऐसी ही मिली और अंगूठी राजा को सौंपकर हृदय में बड़ा भारी आश्चर्य किया और विचारा कि यह समस्त ज्ञानियों में श्रेष्ठ, सारे विश्व को प्रत्यक्ष जाननेवाला, अनुपम ज्ञानी है । ऐसा निमित्तज्ञान सब निमित्तज्ञानों में सारभूत है । इसलिए इस योगीराज की आराधना कर यह प्राप्त करना चाहिए, जिससे मेरी सत्पुरुष विद्वानों में बड़ी प्रसिद्धि होगी, मान्यता होगी, बहुत ऐश्वर्य बढ़ेगा और उत्तम पद मिलेगा । इस प्रकार धनादि के लोभ के विचार से गुरु के निकट वह विद्या सीखने गया और उन योगियों के स्वामी को नमस्कार कर हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि भगवन्! मुझ पर दया करके समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष दिखलानेवाली यह दुर्लभ विद्या मुझे भी प्रदान करने की कृपा कीजिए क्योंकि आप कृपानाथ हैं ।

यह सुन ज्ञानी श्री मुनिराज ने कहा कि यह उत्कृष्ट विद्या निर्ग्रंथ नग्न दिगम्बर ज्ञानी के बिना किसी को भी प्राप्त नहीं होती, इसलिए यदि तुमको यह विद्या प्राप्त करनी है तो मेरे समान तुम भी निर्ग्रंथ दिगम्बर बनो ।

ब्राह्मण विद्वान ने योगीराज की यह बात सुनकर अपने घर जा समस्त कुटुम्ब के लोगों को बुलाकर दिगम्बर भेष धारण करने का उनसे विचार प्रगट किया और कहा कि इस योगिराज के पास बड़ी अद्भुत विद्या है, जो निर्ग्रंथ दिगम्बर भेष धारण किये बिना वह किसी को देता नहीं; इसलिए उस विद्या की सिद्धि के लिये मैं निर्ग्रन्थ दिगम्बर बन जाता हूँ । मैं उचित युक्ति से इस विद्या को सीखकर काम बनाकर पीछे आ जाऊँगा, सो आप मेरे इस वियोग से जरा सा भी शोक मत करना । उसकी यह बात सुन कुटुम्ब-परिवार के लोगों ने भी उसे निर्ग्रंथ दिगम्बर बनकर विद्या सीखने की आज्ञा दे दी ।

इस प्रकार वह सूर्यमित्र ब्राह्मण विद्वान विद्यालाभ के लिये मुनीश्वर के पास जाकर नमस्कार कर बोला कि भगवन्! मैंने स्वार्थसिद्धि के लिये यह निर्ग्रंथ दिगम्बर भेष धारण किया है, सो मुझे आप जल्दी से जल्दी वह विद्या दे दीजिए । भविष्य में होनेवाली घटनाओं के प्रत्यक्ष ज्ञाता मुनिराज ने भी इससे बाह्य परिग्रह छुड़ाकर स्वर्ग-मोक्ष लक्ष्मी को वशीभूत करनेवाले सारभूत मूलगुणों को दे तीन लोक में कल्याण करनेवाली, जगत में वन्दनीय जैनदीक्षा उस ब्राह्मण को दी । सूर्यमित्र ब्राह्मण विद्वान ने मुनि को नमस्कार कर प्रार्थना की कि भगवन्! वह विद्या अब मुझे दया करके दे दीजिए । तब मुनिराज ने कहा कि विद्वन्! क्रियाकलाप के पाठ और तप के बिना वह विद्या सिद्ध नहीं होती । तब उस विद्वान ब्राह्मण ने बड़े भारी उद्यम से बुद्धि लगाकर गुरु से चारों अनुयोगों का पढ़ना प्रारम्भ किया ।

त्रेसठ शलाका पुरुषों के पूर्व भवादिक, सुख सामग्री, आयु, वैभव आदि का सूचक पुण्य-पाप का फल प्रकट करने के लिये सिद्धान्त और धर्म का कारण प्रथमानुयोग उसने पढ़ा । लोक-अलोक विभाग, उसका संस्थान, सात नरकों का दु:ख, स्वर्गादि के सुख, संसार की स्थिति का दीपक, ऐसा करणानुयोग उसने गुरु के मुख से पढ़ा । मुनिराजों और गृहस्थों के आचरण, महाव्रतों, अणुव्रतों, शीलव्रतों, इनके फलादि को बतलानेवाला चरणानुयोग योगीराज ने उसे पढ़ाया और छह द्रव्य, सात तत्त्व, पंच मिथ्यात्व, सत्यासत्यमतों की परीक्षा, प्रमाण नय आदि को बतलानेवाला द्रव्यानुयोग भी गुरु ने उसे पढ़ाया ।

द्रव्यानुयोग शास्त्रों के पढ़ने से वह सूर्यमित्र ब्राह्मण विद्वान सम्यग्दृष्टि हो गया । अब उसके हृदय में हेयोपादेय का ज्ञान हो गया । तब उसने धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ तथा जैनधर्म, अन्यधर्म का भेद अपने निर्मल चित्त में अच्छी तरह जान, विचार किया कि जिनेन्द्र भगवान के मुख से निकला जैनधर्म ही सार और महान है एवं स्वर्ग-मोक्ष का देनेवाला है । जैनमत को छोड़कर अन्यमत स्वार्थी लोगों द्वारा बनाये हुए ठीक नहीं हैं, जो अब सब मुझे विष के समान दीखते हैं । जैनधर्म को छोड़कर सब मत-मतान्तर हितकर नहीं हैं । सम्पूर्ण जीव-अजीवादि पदार्थ तत्त्वयुक्त, महान सत्य हैं और दर्शन ज्ञान के कारण एवं सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रणीत हैं । मैंने कुमार्गगामियों द्वारा कहे हुए असत्य, अशुभ कुतत्त्वों को पढ़ने में वृथा ही इतना समय लगा दिया, जिसका खेद है । मति और श्रुत ये दो परोक्षज्ञान ही ऐसे हैं, जिनसे समस्त चराचर का ज्ञान हो जाता है । अवधिज्ञान तो यहाँ ऐसा है जिससे सारे जगत के रूपी पदार्थ तथा भवान्तर प्रत्यक्ष दीख जाते हैं । सूक्ष्म पदार्थों का दिखलानेवाला मन:पर्ययज्ञान भी प्रत्यक्ष ज्ञान है, यह तप से होता है और योगीराजों के ही होता है । घातिकर्मों के नाश से उत्पन्न होनेवाला, आत्मा में उत्पन्न, तीन जगत को देखने को दीपक के समान, विश्व का प्रत्यक्षदर्शी केवलज्ञान है । इस पाँच प्रकार के ज्ञान को जिससे कि जगत के पदार्थ स्पष्ट होते हैं, कोई भी विद्वान यहाँ किसी को भी नहीं दे सकता । ये ज्ञान तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से श्रेष्ठ योगियों के स्वयमेव ही होते हैं । मैंने अपने हित के लिए यह बहुत ही उत्तम कर्म किया जो कि ज्ञान के लोभ से संयम धारण कर लिया । जैसे कोई कन्दमूलादि ढूंढ़नेवाला जंगल में किसी बड़ी धरोहर को प्राप्त कर ले, वैसे ही ख्याति-लाभ-पूजा के लोभी मैंने यह निर्ग्रंथ दिगम्बर जैन दीक्षारूपी धरोहर पा ली है । इन योगीराज ने भी मेरे हित की दृष्टि से ही जगत की कल्याणकारिणी यह दीक्षा मुझे दी है और मैंने ज्ञान की आशा से इसे प्राप्त कर ली । आज इस जैनदीक्षा से मैं कृतकृत्य होकर मोक्ष के मार्ग का पथिक बन गया और पापों से दूर हटकर पवित्र होता हुआ तीन जगत में पूज्य हो रहा हूँ । महाभाग्य के उदय से मैंने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय यह बोधि प्राप्त की है, जो जिनशासन में ही प्राप्त हो सकती थी । भुक्तिमुक्ति का देनेवाला एक यह निर्दोष जैनधर्म ही है । यही गुणों की खान और जगत का स्वामी है, जिसे मैंने काललब्धि से पा लिया है । ये निर्ग्रन्थ गुरु ही दुस्तर संसार से स्वयं तिरने एवं अन्य लोगों को तैराने में समर्थ हैं, जिन्हें किसी पुण्य योग से धर्म बुद्धि द्वारा मैंने प्राप्त किये हैं । मिथ्यामार्ग में लगकर मैंने स्नान-तर्पणादि द्वारा संक्लेश को पाकर इतना समय वृथा ही गँवा दिया । जैनधर्म से पृथक् रहनेवाले ये मिथ्यादृष्टि कुमार्ग में रत होकर वृथा ही धर्म के लिये दुर्भाग्य से प्रयत्न करते हैं । मैं तो बड़ा भाग्यशाली हूँ, जो मोक्षमार्ग का बटोही बनकर मैंने जगत् में सार जिनशासन ग्रहण कर लिया । ज्योतिर्मण्डल में सूर्य; धातुओं में सुवर्ण; पत्थरों में चिन्तामणि रत्न; वृक्षों में कल्पवृक्ष; स्त्रियों में शीलवती नारी; धनियों में दाता; तपस्वियों में विद्वान सदाचारी जितेन्द्रिय तपस्वी बड़ा होता है; उसी प्रकार जितने भी धर्म संसार में कहलाते हैं, उनमें जिनेन्द्रदेव प्रणीत जैनधर्म ही महान और सेवनीय है और यही मार्ग उत्तम मार्ग है । जैसे गाय का सींग दुहने से दूध, सर्प के मुख से अमृत, अनाचार से कीर्ति और अभिमान से महत्व प्राप्त नहीं होता; उसी तरह कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म और कुमार्ग से कभी श्रेष्ठ कल्याण की प्राप्ति नहीं होती ।

इस प्रकार वह सूर्यमित्र पुरोहित विद्वान हस्तरेखा की तरह सम्पूर्ण हेयोपादेय को जानकर परम दृढ़ वैराग्य को प्राप्त हो गया । ज्ञान से जिनशासन और संयम में अनुक्त हो तपश्चरण और मुनिराज के आचरण को पालन करने में पूर्ण तत्पर हो गया । इस तरह वह सूर्यमित्र गुणों के समूह से बढ़कर मुनि होता हुआ यशस्वी हो मोक्षगामी बन गया ।

हे भव्य जीवो! इसलिए प्रयत्नपूर्वक सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करो, जिससे तीन जगत में पूज्यता प्राप्त होती है । यह सम्यग्ज्ञान ही पाप को दूर करनेवाला शुभ घर है । ज्ञानवान ज्ञान को ही प्राप्त करते रहते हैं । ज्ञान से ही मुक्तिवधू दीखती है । इसलिए सम्यग्ज्ञान को नमस्कार है । ज्ञान के बराबर बढ़िया नेत्र नहीं । ज्ञान का फल मोक्ष है, इसीलिए मैं ज्ञान में चित्त लगाता हूँ; सो हे ज्ञान! मुझे ज्ञानी बना ।