कथा :
समस्त अन्तरंग बहिरंग परिग्रहों से रहित, श्रेष्ठ गुणों की सम्पदा से युक्त; सबसे महान, जगत के वन्दनीय और विद्या के समुद्र परमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ । इसके अनन्तर ये सूर्यमित्र ग्राम, नगर, खेट, वन आदि में अपने गुरु के साथ विहार करते हुए चम्पापुर आये । यह चम्पानगरी या चम्पापुर वासपूज्य भगवान भगवान की निर्वाण भूमि है, जिसको स्तुति-प्रदक्षिणा-नमस्कार करके आचार्य महाराज के साथ निर्वाणभक्ति का पाठ किया । वासुपूज्य स्वामी के गुणों के समूह और निर्वाण लाभ की भावना से जो भी इन सूर्यमित्र महात्मा महामुनि के परिणामों में विशुद्धि आई, उससे अज्ञानरूपी अन्धकार का नाशक तीन लोक के पदार्थों का प्रकाश करनेवाला उत्तम अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । वास्तव में जो नि:स्पृह होते हैं, उनके सारी अभीष्ट ऋद्धियाँ तपश्चरण के प्रभाव से स्वयमेव प्रगट हो जाती हैं । श्री सुधर्माचार्य ने इन सूर्यमित्र मुनिराज को ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, गुणों के सागर, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विशुद्ध आत्मावाले, संघ का भार उठाने में समर्थ, महान तपस्वी, महान तेजस्वी, महाध्यानी, महाव्रती, महान जितेन्द्रिय, महान शीलयुक्त, महान योगी, महान हृदयवाले, संसार के प्राणियों का हित चाहनेवाले, जगत को सुखी करने में नि:स्पृह, सम्पूर्ण अन्य शिष्यों में गुणों से बड़े जानकर समस्त संघ की साक्षीपूर्वक आचार्य पद देकर वे आप एकल विहारी हो गये । अब ये सुधर्मस्वामी आचार्यपद की झंझट से हटकर घोरातिघोर तपश्चरण करते हुए नाना प्रकार के देशों, नगरों और ग्रामादि में विहार करते हुए ध्यान-अध्ययन में तत्पर, प्रमादहीन, जितेन्द्रिय, धीर-वीर, मौनव्रत धारी महान् आत्मा, महामुनि वाराणसी (बनारस-काशी) नगर पहुँचे । उसके बाहर के स्थान पर प्रासुक निर्जन स्वच्छ स्थान पर हर्षपूर्वक आत्मध्यान के साथ योग साधन किया । आत्मध्यान और योग साधन के योग से मोक्ष के मार्ग में ले जानेवाली क्षपकश्रेणी माँडकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों को नष्कर मुक्तिरूपी लक्ष्मी के मुख के लिये दर्पण के समान नौ केवल लब्धियों के साथ केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । केवलज्ञान होते ही इन्द्रादि देवों ने पूजा की और वहीं पर सम्पूर्ण अघाति कर्मों को नष्ट कर शरीर त्याग कर दिया और अनन्त सुख के सागर समस्त लोक के अग्रभाग में स्थित, नित्य गुणों के खान श्री सुधर्मस्वामी ने निर्वाण को प्राप्त किया । अब सूर्यमित्र आचार्य ने भव्य जीवों के कल्याण के लिये धर्मोपदेशादि देते हुए, धर्म प्रभावना करते हुए ईर्यापथशुद्धि से अनेक स्थानों में विहार करते-करते एक दिन कौशाम्बी नगरी में आहार के लिये प्रवेश किया । वहाँ इनके गृहस्थावस्था के भानजे तथा शिष्य अग्निभूति ने उन्हें सम्पूर्ण परिग्रहों से रहित निर्ग्रंथ अवस्था में देख दुर्लभ धरोहर की तरह परमानन्द को प्राप्त हो तीन बार 'तिष्ठ तिष्ठ आहार-जल शुद्ध' यह कर उनको पड़गाहा और नवधाभक्तिपूर्वक दाता के सात गुणों से युक्त विधिपूर्वक ज्ञान की वृद्धि करनेवाला प्रासुक, सरस और मधुर आहार देकर परम प्रसन्नता प्राप्त की । जब वीतरागी महामुनि श्री सूर्यमित्र आचार्य आहार ग्रहण करके आत्मध्यान के लिये जाने लगे तो अग्निभूति ब्राह्मण ने कहा कि भगवन्! मेरा भाई वायुभूति क्रोध मायाचार आदि अनाचार करता हुआ धन पैदा करता है और आपकी निन्दा भी करता रहता है, इसलिए उस दुष्ट के घर जाकर उसे आप समझाइये क्योंकि तीन जगत के जीवों को समझाकर मार्ग में लगाने के लिये आप ही समर्थ हैं । आचार्य महाराज ने कहा कि वत्स! उसके पास जाना भी ठीक नहीं क्योंकि वह स्वभाव से ही कठोर परिणामवाला है, इसलिए हमें देखकर ही वह निन्दादि द्वारा दुर्धर पाप का बन्ध करेगा, जिससे वह चिरकाल तक दु:खी होता हुआ दुर्गति में ही भ्रमण करता रहेगा । आचार्य महाराज की यह बात सुनकर अग्निभूति ने कहा कि स्वामिन्, मेरे अनुरोध से ही आपको उसके पास चलना और समझाना चाहिए, फिर जैसा होनहार होगा, वैसा हो जाएगा । अग्निभूति की यह बात सुन जगत के कल्याण के लिये सदैव तैयार रहनेवाले सबके साथ समान भाव रखनेवाले आचार्य महाराज अग्निभूति के आग्रह से वायुभूति के साथ उसके पास चले गये । वायुभूति पापी ने पाप के उदय से उन्हें देखकर, मुनि जानकर कटुक और खोटे वचनों से क्रोधित हो उनकी बड़ी भारी निन्दा की और कहा कि तू वही पुराना दुष्ट क्रूर कंजूस ब्राह्मण है, जिसने हम दोनों से (वायुभूति अग्निभूति से) भीख मंगाई थी और अब नग्न हो गया है । इत्यादि कटुवाक्यों से महामुनि की निन्दा करके अशुभ तिर्यंचगति का बन्ध बाँध लिया । सो ठीक ही है कि जिसका जैसा शुभ या अशुभ होनहार होता है, वैसी ही उसको सारी सामग्री मिल जाती है । सूर्यमित्र आचार्य महान योगी थे, क्षमादि गुणों के धारक थे, सो समताभाव की अधिक वृद्धि के लिये जो उसने निन्दा करके आक्रोश परीषह दी थी, उसे सहते हुए वे वन को चले गये । जब वायुभूति ने इस प्रकार मुनिराज आचार्य की निन्दा की तो अग्निभूति को बड़ा ही दु:ख हुआ । उसने हृदय में संवेग भाव धारण कर विचार किया कि यह दुष्ट बुद्धि पाप के उदय से कैसा महान् पापी है, जिसने इन महामुनि की अपने ही को दुर्गति देनेवाली निन्दा की । अथवा इसका दोष भी क्या है? वास्तव में तो मैं ही पापी हूँ जो मैं इनको जबर्दस्ती वायुभूति के पास ले गया, हालांकि भविष्य के ज्ञान के कारण वे नहीं जा रहे थे । इसलिए मुनि निन्दा से जो पाप लगा है, उसका मैं भी भागी हूँ क्योंकि कृत-कारित और अनुमोदना इन तीनों से बराबर ही पाप अथवा पुण्य होता है । अब मुझे इस पाप का प्रायश्चित करना चाहिए, वह यही है कि इन पाप की विशुद्धि के लिये जेल के समान घर को और शत्रुओं के समान बन्धुजनों को जानकर तथा छोड़कर संयम धारण करूँ । उस भाई से मुझे क्या लाभ है जो अपने गुरु की ही निन्दा करता हो? अथवा उस घर तथा कुटुम्ब से क्या करना है, जिनसे अशुभ कर्मों का आस्रव होता है । अरहन्त भगवान, मुनि तथा शास्त्रों की भक्ति के समान उत्तम धर्म नहीं और इनकी निन्दा के अतिरिक्त नरक पहुँचानेवाला कोई पाप नहीं । इस घटना तथा इस विचार से उस पुण्यात्मा के हृदय में वैराग्य भाव और भी दूना हो गया । इस अग्निभूति ने अब संसार के भोगों में वैराग्य धारणकर गृहस्थाश्रम को शत्रु के समान समझते हुए उसका त्यागकर अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह छोड़ और देवों के भी दुर्लभ महाव्रतों को मन-वचन-काय की शुद्धि से धारण किया, जो कि किसी सौभाग्य से ही प्राप्त होते हैं । अग्निभूति महाव्रतों के धारणार्थ जब वन को चला गया तो उसकी भार्या सोमदत्ता को बड़ा दु:ख हुआ । वह उदास होकर वायुभूति के पास गयी और शोक की शान्ति के लिये उससे कहा कि तुमने दुष्टता से महामुनि की जो निन्दा की, उससे मेरा पति हृदय में वैरागी हो, दीक्षित हो गया । जब तक ये बातें किसी को मालूम न पड़े, तब तक अपना कर्तव्य है कि अपन चलकर उनको समझाकर ले आवें । यदि अपन ने विलम्ब किया तो फिर लाना असम्भव हो जाएगा । सोमदत्ता की बात सुनकर वायुभूति को बड़ा भारी क्रोध आया और उसने क्रोध में अन्धे हो अपनी भौजाई के मुँह पर लात मारी । इस तरह की मार फटकार से सोमदत्ता को भी अपना और दूसरे का नाश करनेवाला क्रोध आया और उसने निन्दनीय कर्म करानेवाला, जगत में निन्द्य निदानबन्ध किया और कहा कि मैं असमर्थ अबला हूँ, सो इस समय तो इस अपराध के फल स्वरूप तेरा बिगाड़ मैं कर नहीं सकती किन्तु अगले जन्म में मैं ऐसी बनूँगी जो तेरे पाँव को तोड़-तोड़कर खाऊँगी, यह निश्चय समझना । सो ठीक ही है कि । दुर्बुद्धि जब क्रोध से अन्धे हो जाते हैं, तब हानि-लाभ कुछ नहीं देखते; इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि दोनों लोक बिगाड़नेवाले, धर्म और कल्याण को नष्ट करनेवाले इस क्रोध को क्षमारूपी बाणों से नष्ट करना चाहिए । वायुभूति भी उस मुनि निन्दा की घटना के सातवें दिन ही महान पाप के उदय से उदम्बर कुष्ठ से पीड़ित हो गया जो कि 18 प्रकार के कोढ़ों में एक असाध्य कुष्ठ (कोढ़) है । इस तरह वह वायुभूति महान दु:खी हो गया । सो ठीक ही है कि महान पापों के संचय से परभव की तो क्या बात? इस भव में भी महान क्लेशों और दु:खों को वे मूर्ख पापी भोगते हैं । वह वायुभूति ब्राह्मण विद्वान महाकुष्ठ नामक महान व्याधि से अत्यंत पीड़ा को भोगते हुए आर्तध्यानपूर्वक मर गया और उसी नगरी में गधी हो गया । सत्य है कि देव-गुरु-शास्त्र और धर्मात्माओं की निन्दा करनेवालों की ऐसी ही दुर्गति होती है । ऐसे लोगों का वर्तमान, अनागत तथा अतीत सारा शुभ सुख पाप से नष्ट हो जाता है; इसलिए यह जानकर चाहे प्राण ही चले जाँए तो भी निर्दोष अरहन्त भगवान, गुरु, मुनिराज, श्रावक तथा धर्मात्माओं की निन्दा कभी नहीं करनी चाहिए । उस गर्दभी (गधी) ने भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि के अनेकों दु:खों का अनुभव कर सहन किया । पाप के उदय से थोड़ी ही आयु में गधी की दु:ख से भरी हुई पर्याय से भी छूटकर उसी नगर में शूकरी (सूअरी अथवा सूरड़ी) हो गयी जो कि गधी की पर्याय से भी निम्न है । उस शूकरी की पर्याय में भी उसने भूख आदि महान दु:ख तथा जनता से ताड़न-मारण आदि सहकर किसी मालिक के न होने से सर्वथा पराधीन वह अत्यन्त कष्ट से मर गयी और इसी चम्पानगरी में विकराल भयंकर मुँहवाली, क्रूर, दु:ख से व्याकुल चाण्डाल के घर में कुत्ती हो गयी । इस पर्याय में भी भूख-प्यास, सर्दी, गर्मी आदि अनेक कष्ट भोगकर अत्यन्त क्लेशपूर्वक मरण कर उसी चाण्डाल के घर कौशाम्बी नाम की चाण्डाली के जन्म से अन्धी, दुर्गन्धि से सड़ रही, महान कुरूप चाण्डाली हुई । यह सब मुनिनिन्दाजनित पाप से अशुभ का उदय था । किसी समय धर्मध्यानपरायण सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिराज भूमण्डल में विहार करते-करते वहाँ आ गये । सूर्यमित्र मुनिराज के तो उपवास था, इसलिए वे तो वन में ही ठहर गये किन्तु अग्निभूति मुनिराज शरीर की स्थिति के अर्थ आहार के लिये वन से चम्पानगरी में आये । उन्होंने मार्ग में जाते हुए बहुत वृक्षों से सने हुए जामुन के वृक्ष के नीचे खड़ी हुई उस दु:ख से पीड़ित चाण्डाली को देखा । उस चाण्डाली को देखते ही वे अग्निभूति महामुनिराज भी कुछ दु:खी हो गये और स्नेह तथा दु:ख से उनकी आँखों में आँसू आ गये । श्री अग्निभूति महाराज ने उस चाण्डाली के देखने से अपनी ऐसी अवस्था देख वन को वापस लौटकर अपने गुरु श्री सूर्यमित्र महाराज को नमस्कार कर पूछा कि महाज्ञान के धारण करनेवाले गुरु महाराज! चाण्डाली के देखने से मुझे शोक क्यों हुआ, मेरी आँखों में आँसू क्यों आ गये? इन शोक आदि दु:खों के होने का क्या कारण है, सो कृपा करके मुझे बतलाइये । अग्निभूति मुनिराज के इस प्रश्न को सुन गुरुराज श्री सूर्यमित्र मुनिराज (मैं) बोले कि धीमन्! यह चाण्डाली तुम्हारे भाई वायुभूति का ही जीव है । इसने मेरी निन्दा की थी, उसी निन्दाजनित पाप से उस वायुभूति पर्याय में भी महान कुष्ट (कोढ़) व्याधि के दु:ख भोगे और मरकर अनेक तिर्यंचगति में रुलकर जगत् में निन्दनीय नेत्रहीना कुरूप चाण्डाली हुआ है । पुराने जन्म के स्नेह सम्बन्ध से यह शोक और दु:ख तुमको हुआ है । प्राणियों के भव-भव में स्नेह और वैर के भाव प्रकट होते रहते हैं । अग्निभूते! तुम एक बात और भी सुनो और वह यह है कि तुम्हारे भाई वायुभूति के जीव इस चाण्डाली की आसन्न भव्यता बहुत निकट है अर्थात् आ ही गयी है । इसका मरण आज ही होनेवाला है, इसलिए तुम वापस जाओ और उसे सम्बोधकर युक्तिपूर्ण वाक्यों से उसके कल्याण के लिये उसे व्रतपूर्वक संन्यास ग्रहण कराओ । श्रीगुरु महाराज के ये वाक्य सुनकर परोपकारी अग्निभूति महामुनि ने शीघ्र ही वहाँ जाकर उत्तम वाणी द्वारा संबोधते हुए कहा कि बेटी! तू देव-गुरु-शास्त्र की निन्दा के पाप से तिर्यंचगति के दु:ख भोगकर अब इस नीचकुल में पैदा होकर महान दु:ख भोग रही है । इसलिए तू पाप को नष्ट करने के लिये अब धर्म को ग्रहण कर । उस धर्म की सिद्धि के लिये मद्य, माँस, मधु और पाँच उदम्बर फलों का त्याग कर । खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इस प्रकार चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दे । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ग्रहण कर ले और तू मेरा कहना मानकर संन्यास ग्रहण कर, क्योंकि तेरा आज ही मरण होनेवाला है; इसलिए अब तू अपने कल्याण के लिये मैंने जो कहा है, वह शीघ्र कर । उस चाण्डाली ने भी श्री अग्निभूति मुनिराज के वचन से वैसा ही करके व्रत ग्रहण किये और भोजनपानादि का त्याग कर संन्यास धारण कर लिया । इसी समय इस नागशर्मा ब्राह्मण की स्त्री त्रिदेवी, पुत्री की प्राप्ति की इच्छा से उत्सवसहित नागों को पूजने के लिये आयी । जो उसी मार्ग से जा रही थी । तब वायुभूति के जीव उस चाण्डाली ने जिसने कि अग्निभूति मुनिराज के उपदेश से व्रतपूर्वक संन्यास धारण किया था, गाजे-बाजे आडम्बर की आवाज सुन यह निदान किया कि मैंने जो व्रतपूर्वक संन्यास लिया है, उसके फल से इस नागशर्मा की स्त्री त्रिदेवी के कन्या हो जाऊँ और दूसरी गति नहीं पाऊँ । जैसे कोई मूर्ख रत्न देकर काँच लेना चाहे, ऐरावत हाथी बेचकर गधा खरीदना चाहे, सुवर्ण के बदले लोह का टुकड़ा लेना चाहे; वैसे ही उस ज्ञानहीना ने स्वर्ग की सम्पदा के देनेवाले संन्यास और व्रत से इस प्रकार का निदान किया, सो यह सब कुबुद्धि का ही फल है । जिस व्रतपूर्वक संन्यास धारण से स्वर्ग और परम्परा से मोक्ष तक की प्राप्ति होती, उसको इसने उस त्रिदेवी के गर्भ से स्त्री पर्याय में कन्या होने की इच्छा की । सो इस निदान बन्ध से वह चाण्डाली मरकर नागश्री कन्या के रूप में उत्पन्न हुई परन्तु उसमें व्रत संस्कार की वासना थी, जिससे अब भी इसने व्रत ग्रहण किये हैं । सो यही नागश्री आज यहाँ नाग पूजने आयी थी । हम दोनों (सूर्यमित्र और अग्निभूति) ने इसे व्रत ग्रहण करा दिये हैं । वायुभूति का जीव चार पर्यायें भोगकर यह नागश्री हुआ है । इस प्रकार पूर्वभव सम्बन्धी वृतान्त कहकर वे श्री सूर्यमित्र मुनिमहाराज श्री चन्द्रवाहन राजा से कहते हैं कि । राजन्! मनुष्य अपने पाप से ही दुर्गतियों में भ्रमण करते हैं और धर्म से उत्तम गति में जाते हैं एवं पुण्य-पापरूप दोनों प्रकार के परिणामों तथा आचरण से मध्यम गति (मनुष्यपर्याय) प्राप्त होती है । धर्म से ही धर्मात्मा लोग इन्द्र, अहमिन्द्र आदि के उत्तम पद प्राप्त करते हैं और पापी लोग पाप के फल से नरक, तिर्यग्गति प्राप्त करते हैं । तीन जगत् के स्वामी तीर्थंकर भगवान की सम्पूर्ण सम्पदा भी धर्म से ही मिलती है और दुर्बुद्धि लोग पाप से दरिद्रता जैसा महान पाप का फल भोगते हैं । राजन्! तीन लोक में जितने भी कल्याण और सुख के साधन हैं, वे सब धर्म से ही प्राप्त होते हैं और पापी लोग पाप से ही समस्त दु:खों का समूह प्राप्त करते हैं । धर्म से ही जिनेन्द्र भगवान आदि पुरुषोत्तम होते हैं और पाप से नौकर-चाकर, गरीब और भिखारी बनते हैं, चाहे कोई वस्तु कितनी ही दूर और दुर्लभ हो, किन्तु अपने को प्यारी हो और वह तीन लोक में कहीं भी हो, धर्म से प्राप्त हो जाती है और पाप से हथेली में आई हुई भी चली जाती है । इस प्रकार धर्म से चतुर विद्वान लोग महान सद्गतियों को पाते हैं और पापीजन कुगतियों में रुला करते हैं, जो कि सब बुराईयों की खान होती हैं । यह विश्वास कर विद्वानों को चाहिए कि धर्म का पालन करें, जो कि समस्त सुख समृद्धि और मोक्ष का साधन है और पाप कार्यों को मन-वचन-काय की विशुद्धिपूर्वक छोड़ें । धर्म ही ऐसा है जो देव, नरेन्द्र, देवेन्द्र, आदि पदों का देनेवाला है, इसलिए मैं धर्म का सेवन करता हूँ । मैं धर्म से धर्म का आचरण करता हूँ और धर्म के लिये ही तप करता हूँ । धर्म से अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसका मैं सहारा ले सकूँ; इसलिए धर्म के गुणों का ही मैं सेवन करता हूँ । मैं धर्म में चित्त लगाता हूँ, इसलिए हे धर्म! मेरा संसार भय दूर करो । |