कथा :
गुणों के समुद्र, जगत के स्वामी, लक्ष्मीयुक्त और महान ऐसे अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु परमेष्ठियों को मुक्ति की प्राप्ति के लिये मेरा प्रतिदिन नमस्कार है । योगिराज मुनीश्वर की वाणी से पाप के फल से उत्पन्न दु:खों से पूर्ण पूर्व भवों के घटनाचक्र को सुनकर श्री चन्द्रवाहन राजा, नागशर्मा तथा अन्य नागरिक श्रोताओं को संसार के भोगों तथा शरीर देहादि पदार्थों में वैराग्य उत्पन्न हो गया और हृदय में विचार किया कि जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा हुआ जैनधर्म ही महान शुभ है, दयामयी तथा सत्य है । अन्य द्वारा कहा हुआ धर्म तो जीवहिंसक है । भक्ति और मुक्ति के कारण होने से जिनेन्द्रदेव ही केवल सर्वज्ञ हैं, वे ही निर्दोष और महादेव भी हैं; बाकी अन्य सब तो दोषों से भरे हुए हैं । अंगों और पूर्वों में जिनका वर्णन है, ऐसे सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रणीत शास्त्र ही सच्चे और धर्म के मूल हैं । दुर्जनों के द्वारा कहे हुए अन्य शास्त्र मिथ्या और अधर्म के मूल हैं । लोक-अलोक के ज्ञाता, संसार के बन्धु, चतुर निर्ग्रंथ गुरु ही पूज्य हैं और विषयों से आकुलित वेषधारी कुगुरु पूज्य नहीं हैं । तीन जगत का दीपक और तीन काल की सूचना देनेवाला जैसा निर्ग्रंथ दिगम्बर योगियों का ज्ञान होता है, वैसा अन्य मिथ्यादृष्टियों का नहीं है । जैसे कोई विष खाकर भी जीने की इच्छा करता हो, वैसे कुमार्गगामी मिथ्यादृष्टि जीवहिंसा से कल्याण की इच्छा करते हैं । जैसे कोई साँप को माला समझकर गले में डालता है; वैसे ही खोटे मार्ग में जानेवाले धर्मबुद्धि से पितृतर्पणादि पाप का सेवन करते हैं । अन्तरंग और बहिरंग इस प्रकार दोनों प्रकार के मैल छूट जाने से केवल जैनधर्मी ही शुद्ध होते हैं, बाकी सब अन्य मिथ्यादृष्टि ऊपर से जल से धोये हुए मदिरा के घड़े के समान हैं । मिथ्यात्व और मोहरूपी मैल से लिपटे हुए जो केवल स्नान से अपने को शुद्ध मानते हैं, वे बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से मृग-मरीचिका में पानी समझते हैं । धर्म के बिना हमारे इतने दिन खोटे मतों के आश्रय से वृथा ही चले गये । आज किसी अत्यन्त पुण्य के योग से सन्मार्गरूप जैनधर्म का लाभ हुआ है । इसप्रकार के विचार और निमित्त से उस नागशर्मा पुरोहित के हृदय में वैराग्यभाव और भी दूना हो गया और मुनिराज के वचनरूपी अमृत से उसको परम निर्वेदभाव की प्राप्ति हो जाने से उसने जो पहले मिथ्यात्वरूपी विष का भक्षण किया था, उसे निकालकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह को छोड़ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । उसी समय साथ में जो अन्य विद्वान ब्राह्मण थे, उनमें से बहुत-सों ने मुनिराज के वचनों से श्रेष्ठ धर्म का माहात्म्य जानकर कुमार्ग का त्याग कर दिया और संसार-देह-भोगादि से विरक्त हो दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़ मुनिपद धारण कर लिया । श्री नागशर्मा पुरोहित की सुपुत्री नागश्री ने भी अपने समस्त पूर्वभव के वृत्तान्त को सुन अनाचार और पापों से डरकर वैराग्यरूपी भूषण को धारण कर लिया । उस अत्यन्त विदुषी पण्डित ने एक साड़ी के अतिरिक्त सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़ बालकपन में भी आर्यिका की दीक्षा धारण कर ली । त्रिदेवी आदि जो अत्यन्त समझदार और विचक्षण ब्राह्मणियाँ थीं, उन्होंने भी धर्म श्रवण करने से मोहरूपी शत्रु को पछाड़कर वैराग्य से स्वर्ग और मोक्ष के सुखों की प्राप्ति के लिये समस्त परिग्रहों को छोड़ जैन दीक्षा धारण कर ली । चम्पानगरी के राजा श्री चन्द्रवाहन ने भी इस कथा के सुनने से संसार-देह-भोगादि से विरक्त होकर अपने पुत्र लोकपाल को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं मुनिदीक्षा धारण कर ली । इस राजा के साथ अन्य कितने ही लोगों ने संवेग धारण कर लिया । अन्त:पुर में रहनेवाली कितनी ही रानियों तथा महिलाओं ने भी संवेग में तत्पर हो आर्यिका दीक्षा ले ली । बहुत से नागरिकों ने, उस कथारूपी अमृत के पीने से मिथ्यात्वरूपी विष को उगलकर जैनधर्म स्वीकार कर लिया । कितने ही लोगों ने महाव्रत लेकर मुक्तिलाभार्थ मुनिपद धारण कर लिया और कितने ही ने अणुव्रत लेकर श्रावक दीक्षा अंगीकार कर ली तो कितने ही ने जैनधर्म में अपनी हार्दिक श्रद्धा रख श्रावक पद धारण किया । इस प्रकार श्री सूर्यमित्र मुनिराज का बड़ा विशाल संघ हो गया । श्री मुनिराज ने धर्मप्रभावना और धर्मप्रसार के लिये एक बड़े विशाल संघ के साथ विहार करना प्रारम्भ किया । सभी नवीन दीक्षित साधुओं ने गुरु के वचन से यत्नपूर्वक उत्तम ज्ञान की प्राप्ति के लिये अंग-पूर्वों का पठन-पाठन प्रारम्भ किया और कर्मरूपी वन को दावानल के समान जो बारह प्रकार का तपश्चरण है, उसे करना प्रारम्भ किया । इस प्रकार सांसारिक मोहरूपी शत्रु के विनाश के लिये अपने गुरु के साथ-साथ सभी तपश्चरण में लीन हो गये । वे सब सूने मकानों, गुफाओं, पर्वतों आदि निर्जन और शान्त स्थानों में ध्यान और अध्ययन के लिये प्रमाद रहित होकर रहने लगे । उन्हें मार्ग में चलते-चलते जब सूर्य अस्त हो जाता था, तब वे जीव दया के लिये वहीं कायोत्सर्गपूर्वक खड़े रह जाते थे । वे सभी साधु मुनिराज स्थिर चित्त हो यत्नपूर्वक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लगे रहते थे । आर्तध्यान और रौद्रध्यान का तो उनके काम ही क्या था? वे लोगों को स्वाध्याय, देवपूजादि आवश्यकों के पालन आदि का धर्मोपदेश ही देते थे, किसी भी विकथा का उनके पास काम नहीं था । वे सदैव अतिचाररहित चन्द्रमा के समान निर्मल चारित्र को पालते थे और सारभूत मूलगुणों-उत्तरगुणों का यत्नपूर्वक पालन करते थे । वे समस्त मुनिराज पाप, स्त्रियों के रूप और मिथ्यात्ववर्धक स्थानों के देखने में अन्धे थे और जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति, सिद्धभूमि, धर्मस्थान आदि के देखने में नेत्रसहित थे । खोटे मिथ्यात्ववर्धक किन्तु लोक में तीर्थस्थान कहानेवाले मार्गों के जाने में पंगु (पाँव रहित) थे । उत्तम आत्महितैषी तीर्थ स्थानों की यात्रा तथा गुरु उपासना आदि धर्म कार्यों में पाँवसहित और शीघ्रगामी थे । इस प्रकार श्री सूर्यमित्र आचार्य अपने संघ के साथ भूमण्डल में विहार करते हुए मार्ग में लोगों को धर्मोपदेश द्वारा तृप्त करते हुए, धर्म में स्थापित करते हुए राजगृह नगर के प्रासुक उद्यान की भूमि में धर्म के प्रकाश के लिये एक दिन आ पहुँचे । कौशांबी नगरी का राजा अतिबल भी उसी समय अपने चाचा सुबल से मिलने के लिये वहाँ आया था । राजा अतिबल की सुबल राजा ने बड़ी मनुहार व आवभगत की थी, इसलिए थोड़े दिन दोनों राजाओं ने साथ ही निवास किया । वनपाल ने इन दोनों राजाओं से उद्यान में मुनिसंघ के आगमन के समाचार कहे, सो ये राजा सुनते ही मुनि वन्दना के लिये उद्यान की ओर चल पड़े । महान दीप्तिऋद्धिधारी आचार्यवर्य को उद्यान में विराजमान देखकर नतमस्तक हो नमस्कार कर उत्तम सामग्री से पूजन कर राजा सुबल बहुत ही आश्चर्यान्वित हो गया । राजा सुबल ने जब श्री सूर्यमित्र आचार्य महाराज की शरीर की कान्ति को सूर्य के तेज को भी मात करनेवाली देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ । राजा ने यह अतिशय देखकर अपने हृदय में सोचा कि यह सारा जैन दीक्षा और तपस्या का चमत्कार है, जो मेरा यह सूर्यमित्र नाम का ब्राह्मण पुरोहित जिनदीक्षा और तपश्चरण के फल से इस प्रकार का दीप्तरूप, दिव्यशरीर, महाज्ञानी, महातेजस्वी, कान्ति और ज्योति का पुंज संघनेता आचार्य हो गया । जब तप, संयम, ध्यान आदि से यहीं महान ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तीन जगत में मान्यता हो जाती है, प्रतिष्ठा सत्कारादि प्राप्त होते हैं, तब परलोक में तो न मालूम उन महात्माओं को किस प्रकार की महान विभूति मिलती होगी? राज्यलक्ष्मी जो मनुष्य को प्राप्त होती है, वह भी किसी तपस्या के फल से ही प्राप्त होती है । यदि इस राज्यलक्ष्मी का त्याग करके तपस्या की जाय तो अविनाशी सुख और लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है; इसलिए इस राज्यलक्ष्मी को छोड़ने में अधिक विलम्ब करना ठीक नहीं । इस प्रकार विचार से सुबल राजा के हृदय में पूर्ण वैराग्य भावों की उत्पत्ति हो गयी । संसार के विषयभोगादि से अरुचि हो गयी । धर्म और धर्म के फल में अनुराग हो गया । उसने निश्चय कर लिया कि राज्य का यह अत्यन्त खोटा भार अपने सर से उतारकर तपश्चरण का श्रेष्ठ भार लादना चाहिए । इस प्रकार उसने तपस्या के लिये तैयार होकर अतिबल राजा से राज्यभार सम्भालने को कहा और कहा कि यह राज्य का भार तुम सम्भालो । मैं अब संयम ग्रहण करता हूँ । सुबल राजा की यह बात सुनकर राजा अतिबल ने कहा कि बुद्धिमान्! जिस राज्य के दोष आप जानकर छोड़ रहे हो, उनसे ज्यादा मैंने जान लिये हैं और जिन तपश्चरण चारित्र और धर्म के गुण आपने जाने हैं, उनसे भी अधिक ज्ञानरूपी निर्मल नेत्रों से मैंने जान लिये हैं; इसलिए मैं इस अनर्थों के मूल राज्य के भार को उठाने में समर्थ नहीं हूँ और आपके समान ही कठिन और दुर्धर तपश्चरण करँगा । क्योंकि इस संसार राज्य से भी बड़ा मुक्ति साम्राज्य तपस्या से ही प्राप्त होगा । जब राजा सुबल ने यह अच्छी तरह जान लिया कि अतिबल संसार से उदासीन है और राज तक करना नहीं चाहता तो उसने मीनध्वज पुत्र को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं अतिबल आदि अनेक लोगों के साथ सम्पूर्ण परिग्रह का त्यागकर महान् मुनिपद धारण कर लिया । उन मुनिराजों सहित धर्म प्रभावना में तत्पर जगत के बन्धु हितंकर श्री सूर्यमित्र आचार्य मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये नगर, ग्राम, वनादि में वहाँ से चल विहार करने लगे । नागश्री आर्यिका भी अपनी शक्ति को न छिपाकर निरतिचार संयम और तप पाल रही थी । उसकी आयु केवल एक मास शेष रह गई और ऐसा जान लिया गया तो उसने समाधिमरण के लिये सब प्रकार के आहार का त्याग कर संन्यास धारण कर लिया । सम्पूर्ण क्षुधा-तृषादि परिषहों को जीतकर उपवासरूपी अग्नि के संयोग से अपने समस्त शरीर को पवित्र और शुद्ध कर चार प्रकार की आराधनाओं को साधकर धर्मध्यानरूपी यत्न से समाधिपूर्वक प्राण छोड़े । नागश्री ने अपने मानव पर्याय से प्राण त्यागकर तप और संन्यास के प्रभाव से सुख की खान अच्युत स्वर्ग के रत्नमयी पद्मगुल्म विमान में महर्द्धिक दिव्यरूपधारी देव पर्याय प्राप्त की अर्थात् नागश्री का जीव पद्मनाभ नामक देव हुआ । नागश्री का पिता जो नागशर्मा पुरोहित था, वह भी तपस्या और अन्त में समाधिमरण के लिये संन्यास के प्रभाव से उसी अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव हो गया । नागश्री की माता जो त्रिदेवी थी और जो आर्यिका हो गयी थी, वह भी तप संयम के प्रभाव से अन्त समय अनशनादि तप के कारण आत्मशुद्धिपूर्वक शरीर त्याग किया और इसी पद्मनाभदेव के अंगरक्षक देव की पर्याय में जा पहुँची । चन्द्रवाहन राजा, सुबल राजा और अतिबल राजा जो योगिराज हो गये थे, वे उत्तम-उत्तम तपश्चरण करते हुए संन्यास-पूर्वक प्राणों का त्यागकर तप और संयम धर्म के प्रभाव से सुख की खान आरण नामक स्वर्ग में महान विभूतिधारी देव हो गये । अन्य मुनिराज भी जीवनपर्यन्त अद्भुत तपश्चरण कर अन्त में संन्यास धारण कर धर्मध्यान से प्राण त्यागकर अपने-अपने पुण्य के योग्य स्वर्गों में दिव्य स्वर्गीय विभूति के धारी महर्द्धिक देव हो गये । कितनी ही आर्यिकाँए भी रत्नत्रय के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेदकर यथायोग्य सुख से भरे अच्युत स्वर्गों तक में जाकर देव हो गयीं । अब वे पद्मनाभादिक देव अन्तर्मुहूर्त काल में ही सम्पूर्ण यौवन को प्राप्त होकर स्वभाव से ही उत्पन्न दिव्य श्रेष्ठ वस्त्राभरणों से मण्डित शिला के सम्पुट के बीच दिव्य कोमल शय्या पर बैठते हुए आश्चर्य से भरे चित्त से उस देवलोक सम्बन्धी सम्पदाओं को देख क्षणमात्र में ही अवधिज्ञान से युक्त हो गये । उस अवधिज्ञान से इस समस्त देव सम्पदा को तप का फलस्वरूप जान और पूर्व जन्म के सारे वृत्तान्त जान धर्म के प्रति और भी दृढ़ बुद्धि के धारी हो गये । इसके बाद वे पद्मनाभादिकदेव अपने परिवार सहित श्रेष्ठ धर्म की साधना के लिये स्फटिकमणिमयी जिनालय के दर्शनार्थ गये । वहाँ जाकर करोड़ सूर्यों के तेज से भी अधिक तेजवाले श्री तीर्थंकर भगवान के बिम्बों के दर्शन कर नमस्कार और स्तुति करते हुए महान पूजा की । बड़े भारी देवोपुनीत ठाटबाट से भक्तिपूर्वक दिव्य और उत्कृष्ट अष्टविध सामग्री द्वारा पूजा अर्चा करते हुए गीत, नृत्य, वादित्रादि द्वारा चैत्यवृक्षों में स्थित जिनमूर्तियों की पूजा की और पश्चात् नन्दीश्वरादि मेरुओं में जाकर वहाँ जिनपूजा करके महान आनन्द प्राप्त किया । वहाँ से विदेहक्षेत्रों में जाकर श्री जिनेन्द्रदेव, गणधरदेव, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं के चरण कमलों की भक्तिपूर्वक पूजा करके सिर झुकाकर प्रणाम कर उनसे परम धर्मामृत का पान कर वे देव अपने-अपने स्थान चले गये । वहाँ जाकर धर्म, संयम और तप से प्राप्त दिव्य स्त्री विमानादि सम्पदाओं में लीन हुए । धर्म में लीन ये देव स्वर्गों में श्री जिनेन्द्रदेवाधिदेव के पंच कल्याणकों की पूजा करते रहते हैं तथा बाकी केवलियों की भक्तिपूर्वक ज्ञानकल्याणक की पूजा करते हैं । गणधरों मुनिराजों आदि की पूजा करते रहते हैं । इस प्रकार अन्य-अन्य श्रेष्ठ आचरण से वे देव सदैव शुभ पुण्यबन्ध करते हुए सहस्रों देवांगनाओं के साथ नाना प्रकार के भोग भोगते हैं । स्वर्गों के दिन-रात्रि का भेद नहीं होता । वहाँ वस्तुएँ दु:खदायक नहीं होतीं, वहाँ सदैव सुख देनेवाला समान काल ही रहता है । वहाँ न कोई दीन गरीब है, न निर्धन है, न रोगी है, न कुरूप है, न दु:स्वर है, न दु:खी है, न पागल है, न विकलांग ही है । ऐसे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं दिखते हैं । स्वर्गों में सभी देव दिव्य लक्ष्मी कान्ति धैर्य आदि से विभूषित सम्पूर्ण दु:खों से रहित और सुखरूपी समुद्र के मध्य में मग्न होते हैं । पद्मनाभादि सम्पूर्ण देव समस्त दु:खों से दूर, बिना टिमकार के नेत्रवाले, चतुर, जिनेन्द्रभक्ति में तत्पर, सप्तधातु मल पसेव आदि से रहित और दिव्य शरीर के धारक थे । इनका तीन हाथ ऊँचा शरीर था और बाईस सागर प्रमाण आयु थी । वे बाईस हजार वर्ष में केवल मानसिक आहार ग्रहण करते थे और ग्यारह मास में एक बार श्वास लेते थे, छठे नरक पर्यन्त शुभाशुभरूपी द्रव्य को अवधिज्ञान के योग से ये जान लेते हैं । छठे नरक तक की पृथ्वीपर्यन्त क्षेत्र में विक्रियाऋद्धि के बल से ये गमनागमन करते हैं । देवांगनाओं के दिव्यरूप सौन्दर्य श्रृंगार और नाना प्रकार के नृत्यों को देखते हुए अप्सराओं के मुख से नाना प्रकार के मनोरम-मनोहर गीतों को सुनते हुए महल, उद्यान, पर्वत, मेरु आदि असंख्य द्वीप समुद्रों में देवांगनाओं के साथ क्रीड़ा करते हुए अपनी इच्छानुसार नाना प्रकार के भोगों को भोगते हुए बीते हुए काल को नहीं जानते हैं अर्थात् समय जाता हुआ उनको दिखता ही नहीं है और वे सुखरूप समुद्र में मग्न रहते हैं । इस प्रकार पुण्य के बल से, जो कि तपश्चरण से प्राप्त होता है, परम सुख की दाता विभूति को प्राप्तकर भोग भोगते रहते हैं । इसलिए धर्मात्मा सज्ज्न पुरुषों को चाहिए कि सुख की प्राप्ति के लिये समस्त शक्ति के साथ एक धर्म का ही सेवन करें । धर्म ही समस्त विश्व के मनोरथों को सिद्ध करनेवाला है । धार्मिक लोग धर्म का ही सहारा लेते हैं । धर्म से ही सत्पुरुषों को शिवपद की प्राप्ति होती है, इसलिए धर्म को नित्य नमस्कार हो । धर्म के अतिरिक्त जगत में सुखकारी दूसरा पदार्थ नहीं, इसलिए धर्म में मेरा सदैव मनोयोग बना रहे । हे धर्म! मेरे घातिकर्मों को नष्ट कर । इस प्रकार धर्म की महिमापूर्वक उससे निवेदन करते रहना चाहिए । |