कथा :
समस्त तीर्थंकर, सिद्ध परमेष्ठी, आचार्य, उपाध्याय और साधु, इस प्रकार पंच परमेष्ठियों को उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ । अब वे सूर्यमित्र और अग्निभूति महामुनि, जो कि रत्नत्रय की शुद्धि प्राप्त कर चुके और उत्कृष्ट आचरण से विभूषित हैं, अनेक देशों में विहार करते हुए, लोगों को मोक्षमार्ग में लगाते हुए एक दिन वाराणसी नगरी के बाहर के उद्यान में चले गये । वहाँ उन दोनों महामुनियों ने आत्मध्यान में अपने परम निश्चल चित्त को लगाकर घातिकर्मों के नष्ट करनेवाले योग को धारण किया और क्षपकश्रेणी माँडकर, जो कि मोक्षरूपी महल में चढ़ने के लिये सीढ़ियों के समान है, पृथक्त्ववितर्कवीचारनामक शुक्लध्यान से मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया । इसके बाद कर्मों की विजयभूमि को पाकर इन दोनों महामुनियों ने एकत्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानरूपी शस्त्र से बाकी के तीन घातिकर्मों को भी नष्ट कर डाला । चारों घातिकर्मों के नष्ट हो जाने से तीन लोक के प्रकाश करने में दीपक के समान केवलज्ञान उनके प्रगट हो गया । मुक्ति लक्ष्मी के देनेवाले समस्त क्षायिक गुणों के साथ-साथ उपमा रहित सारभूत नव केवल-लब्धियाँ इनके प्रगट हो गयी । केवलज्ञान के प्रगट होते ही इन्द्रादि देवों ने उत्कृष्ट विभूति से आकर बड़ी भारी पूजा की । समस्त धर्मात्माओं और देवों से पूजित वे दोनों केवलज्ञानी अपनी दिव्यध्वनि से मोक्षमार्ग के प्रकाशित करने में पूर्ण समर्थ होते हुए ग्राम, देश, पुर, पर्वत आदि प्रदेशों में विहार करते हुए मोक्षसुख की प्राप्ति के लिये अग्नि मंदिर नामक पर्वत पर आये और वहाँ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्लध्यानों के योग से चारों अघाति कर्मों को भी नष्ट कर शाश्वत सुखवाले मोक्षधाम के साम्राज्य को प्राप्त कर लिया । शाश्वतसुख-मोक्षधाम में अनंत सुख है, समस्त प्रकार की बाधाओं से जो रहित है, उपमारहित, अपनी आत्मा में ही उत्पन्न, वृद्धि और ह्रास से रहित, सारभूत अक्षय और अतीन्द्रिय है । परम दिव्य सम्यक्त्वादि आठ गुणोंवाले, सिद्धत्व को वे प्राप्त होकर ज्ञान-देह से युक्त और समस्त प्रकार के जड़ देह से रहित होते हुए मुक्तिश्री का सुख भोगने लगे । जब पद्मनाभादि देवों को अवधिज्ञान से मालूम हुआ कि इस प्रकार वे महामुनि मोक्षधाम में जा विराजे हैं, तो उन्होंने बड़े उत्साह से निर्वाण पूजा की । जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विनयवान् श्रेष्ठ धर्मात्माओं से संयुक्त अवन्ति देश है । जहाँ सदैव केवली भगवान, संघनायक आचार्य और मुनिराज मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये विहार करते रहते हैं । जहाँ के नगर, ग्राम, देश आदि बड़े-बड़े धर्मात्माओं और जिन चैत्यालयों से सुशोभित हैं । जहाँ के वनों, पर्वतों, नदीतटों, पर्वत-गुफाओं आदि में ध्यानाध्ययन में लीन धीर-वीर मुनिराज देखे जाते हैं । जहाँ जैनगुरुओं के मुख से धर्म श्रवण कर कितने ही वैरागी मनुष्य तपश्चरण करते हैं तो कितने ही धर्मार्थ व्रतों को ग्रहण करते हैं । जहाँ उत्पन्न होनेवाले साधु बनकर कितने ही मोक्ष जाते हैं तो कितने ही कल्पनातीत सुखों के स्थान स्वर्गों में जाते हैं । जहाँ कितने ही जिनेन्द्रदेवाधिदेव की पूजा-स्तुति आदि के प्रभाव से स्वर्गों में सम्यग्दृष्टि इन्द्र होते हैं और कितने ही सत्पात्र को दान देकर उसके पुण्य से भोगभूमि को प्राप्त होते हैं । जहाँ उत्पन्न होने के लिये देव और इन्द्र भी तरसते हैं क्योंकि मोक्ष की सिद्धि इसी कर्मभूमि क्षेत्र से होती है; इसलिए इस क्षेत्र का वर्णन कहाँ तक किया जाये? । इत्यादि वर्णनों से युक्त देश के मध्य भाग में सुख और सम्पत्ति से सहित उज्ज्यिनी नगरी है, जहाँ बड़ी-बड़ी ऊँची अट्टलिकाऐं, कोट, गहरी-गहरी खाइयाँ हैं और जो बड़े-बड़े योद्धाओं के होने से अत्यन्त दुर्गम हैं । जहाँ नाना प्रकार के रंगों से रंगे हुए महलों की पंक्तियाँ हैं और जहाँ बड़े-बड़े धर्म की खान जिनमन्दिर सुशोभित हैं, जो सोने और रत्नों से बने हुए हैं, बड़ी-बड़ी जिनमें ध्वजाएँ हैं, रात-दिन स्त्री, पुरुष, दर्शन पूजार्थ जहाँ जाते-आते रहते हैं । गान वाद्य नृत्य स्तवन आदि से जो सदैव गुंजायमान रहते हैं । जिस नगरी में पुण्यवन्त नर-नारी सवेरे बिस्तरों से उठकर धर्मसाधना के लिये सामायिक ध्यानादि करते हैं, इसके बाद ही वे गृहकार्य करते हैं क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ धर्म ही समस्त अर्थों की सिद्धि का देनेवाला है । जहाँ गृहकार्य से निवृत्त होकर जिनालयों में जाकर गृहस्थ लोग तीर्थंकर भगवान की पूजा करते हैं और पीछे पात्रदान के लिये अपने-अपने घरों के दरवाजों पर खड़े होकर द्वारपेक्षण किया करते हैं । सायंकाल, दिन में जो भी गृहकार्यादि द्वारा पाप लगता है, उसे मिटाने के लिये कायोत्सर्गादि शुभ क्रियाँए करते रहते हैं । जहाँ पुत्रजन्मोत्सव, विवाह आदि शुभ और मांगलिक कार्यों में श्रावक गृहस्थ लोग मंगल कामना के लिये बड़े ठाट -बाट से जिनेन्द्रदेव की पूजा किया करते हैं । इस प्रकार श्रेष्ठ कर्मों द्वारा उज्ज्यिनी नगरी के प्रजाजन व्रताचरण शील, दान, पूजा आदि द्वारा निरन्तर धर्मसाधना में लीन रहते थे । धर्मसाधना के फल से ही श्रीमन्त चतुर लोगों के बड़े-बड़े महलों में पैंड पैंड पर सम्पदाएँ बिछी रहती हैं । ऐसी विभूतिवाली इस उज्ज्यिनी नगरी का धर्म में चित्त रखनेवाला वृषभांक नामक राजा था, जो श्रेष्ठ धर्माचरणों, जिनेन्द्र पूजा, मुनिसेवा आदि द्वारा कीर्ति, कान्ति और श्रेष्ठ लक्षणों से सहित धर्म की मूर्ति के समान सुशोभित होता था । इसी नगरी में पुण्यवानरूप समस्त लक्षणों से सुशोभित, धर्मकर्म में अगुआ, सुरेन्द्रदत्त नाम का महान धनी सेठ रहता था । वह श्रावकोत्तम सदा शीलव्रत, उपवास, पात्रदान, जिनपूजा आदि द्वारा पुण्य की मूर्ति के समान लगता था । इस सेठ के महान रूपवती, सुखकारक, प्रेमपात्र और मनोहर यशोभद्रा नामक स्त्री थी । पुण्य के उदय से इनके घर में सुवर्ण, चाँदी, परिवार, कुटुम्ब आदि सभी प्रकार की विभूतियाँ थीं परन्तु केवल कुलदीपक कोई पुत्र नहीं था । यशोभद्रा को इस बात की हृदय में बड़ी भारी वेदना थी कि मेरे घर में सब प्रकार की सम्पदाओं के होते हुए भी कोई पुत्र नहीं है । एक दिन मति-श्रुत-अवधिज्ञान के धारी श्रेष्ठ मुनि वर्धमान नामक मुनिराज विहार करते-करते नगरी के उद्यान में पधारे । ये महामुनि जगत के हितैषी, जगत्पूज्य, देव, मुनि, मानव और सबसे पूजित थे, जो धर्मात्माओं के धर्म की प्रेरणा होने पर ही प्राप्त हो सकते थे । जब उज्ज्यिनी नगरी के राजा श्रीवृषभांक को यह विदित हुआ कि नगर के बाहरी उद्यान में मुनिराज का आगमन हुआ है तो उसने सूचना के लिये नगर में डोंडी पिटवाई और हर्षपूर्वक सैनिकजनों के साथ मुनि वन्दनार्थ प्रस्थान किया । डोंडी की आवाज सुन यशोभद्रा सेठानी ने अपनी सखी से पूछा कि यह डोंडी क्यों पिटी है, इसका कारण जानकर बतलाओ । सखी ने उत्तर दिया कि नगरोद्यान में मुनिराज पधारे हैं, सो राजा ने जनता के सूचनार्थ भेरी (डोंडी) बजवाई है और उनकी वन्दना के लिये स्वयं ठाठबाट से जा रहा है । यशोभद्रा अपनी सखी की यह बात सुन पूजा की सामग्री तैयार कर अपने हाथ में ले अपनी अभीष्ट की सिद्धि के लिये मुनिराज के दर्शनार्थ गयी । उद्यान के प्रासुक भाग में मुनीन्द्र को विराजमान देखकर राजा आदि सभी ने वन्दना-पूजा की और यशोभद्रा भी वन्दना-पूजा कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गई । मुनिराज के मुख से इन्द्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकरादि की सम्पदा / विभूति देनेवाले स्वर्ग-मोक्षदाता गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का व्याख्यान जो कि दयाप्रधान और जगत् का कल्याण करनेवाला है; सुनकर, सिर झुकाकर नमस्कार कर यशोभद्रा सेठानी ने मुनिराज से प्रश्न किया कि हे प्रभो! आप यह बतलाइये कि मेरे पुत्र होगा या नहीं? यह प्रश्न सुन मुनिराज बोले कि । महान धीर, दिव्यरूपधारी, गुणों का समुद्र, महान भागी, जगत में मान्य, सम्पूर्ण कार्यों के करने में समर्थ ऐसा पुत्र तेरे गर्भ से अवश्य जन्म लेगा, किन्तु तेरा पति सुरेन्द्रदत्त संसार के भोगों से अत्यन्त विरक्त होकर तपोवन जाना चाहते हुआ भी लक्ष्मी आदि के मोह के कारण पुत्र के अभाव से तब तक ही घर में रहेगा, जब तक कि वह अपने पुत्र का मुख न देख लेगा । पुत्र का मुख देखते ही वह श्रेष्ठ गुणों की खान सेठ तुझको तथा सम्पूर्ण लक्ष्मी को छोड़कर तपोवन जाकर संयम ग्रहण कर लेगा और तेरा वह भावी पुत्र भी इतना धर्मात्मा होगा कि तब तक ही घर में रहेगा, जब तक वह मुनिराज के वचनों को अपने कान से नहीं सुन लेगा । मुनिराज के केवल दर्शन तथा वचन के सुनने से ही धीर-वीर पुरुषों के योग्य दुर्धर तप को अंगीकार कर लेगा । इस प्रकार मुनिराज से अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर यशोभद्रा सेठानी इष्ट और अनिष्ट दोनों के वश हर्ष और विषाद से युक्त हो गयी । शुभ पुण्योदय से थोड़े ही दिनों बाद उसे गर्भ रह गया किन्तु सेठानी यशोभद्रा चाहती थी कि गर्भाधान और पुत्रोत्पत्ति की बात को घर में कोई भी न जान सके । उसे डर था कि मेरे पति पुत्रमुख देखते ही तप ग्रहण कर लेंगे, इसलिए इनसे भी छिपाना चाहिए । वह सेठानी घर के एक कोने में बैठी रहती और किसी को गर्भाधान की बात तक ज्ञात नहीं होने देती । नौ महीने पूर्ण हो जाने पर अपने दिव्य भूमिगृह (जमीन के अन्दर का घर) में जाकर उसने देदीप्यमान भाग्यशाली पुत्र को जन्म दिया । जब अपवित्रता से भरे प्रसूतिवस्त्रों को सेठानी की नौकरानी घर के बाहर धोने को ले गयी और उन वस्त्रों को धो रही थी, तब किसी ब्राह्मण ने देखकर हृदय में विचार किया कि सेठ पुत्रहीन था, सो आज उसके पुत्र हुआ; इसी कारण यह नौकरानी इन वस्त्रों को धोने लायी है । उसने अपने सिर की बोरी हाथ से बाँधकर सेठजी के पास जाकर कहा कि सेठजी! आपके महान पुण्य से आपके निश्चय से पुत्र ही हुआ है । सेठ ने उस ब्राह्मण से यह शुभ समाचार सुन हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हो, सेठानी के पास जा पुत्र के मुख का अवलोकन किया और उस ब्राह्मण को बधाई में इनाम के रूप में बहुत ही सम्पदा दी और सारी लक्ष्मी को गले तृण के समान समझकर छोड़ता हुआ वह सेठ तपश्चरण के लिये उसी समय वन में चला गया । वहाँ श्रीगुरु चरणों के कमलों को नमस्कार कर, मन-वचन-काय की शुद्धि से अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह छोड़ मुक्ति के लिये हर्षपूर्वक गुरु से दीक्षा की याचना की और गुरुराज ने दीक्षा प्रदान कर दी । इसके बाद उस श्रेष्ठबुद्धि ने संयमपूर्वक अपना पराक्रम प्रगट करके मोक्षकल्याण के देनेवाले तपश्चरण का करना प्रारम्भ किया । यशोभद्रा ने पुत्र जन्मोत्सव की प्रसन्नता में जिनालय में जिनेन्द्रदेव की महोत्सव और ठाटबाट से पूजा की, अपने कुटुम्बीजनों को तृप्त किया, नाना प्रकार के दान दिये, बाजे नृत्य-गान आदि द्वारा बन्धुजनों का सत्कार करते हुए पुत्र जन्मोत्सव बड़े आनंद के साथ मनाया । पुत्र जन्मोत्सव के दूसरे दिन यशोभद्रा ने अपने पुत्र का नाम अत्यन्त कोमल अंग होने से समस्त बन्धुजनों के समक्ष सुकुमार (सुकुमाल) रखा । नामकरण संस्कार के बाद जिनालय में महोत्सवपूर्वक बड़े उत्साह और ठाठ से जिनेन्द्रदेवाधिदेव की पूजा की । वह सुकुमाल बालक अर्थात् द्वितिया के चन्द्रमा के समान अत्यन्त सुन्दर, नेत्रों को आनन्द देनेवाला दैदीप्यमान कान्ति समूह के साथ-साथ गुणों और शरीर के अवयवों से बढ़ने लगा । वह सुकुमार बालक अपने शरीर के योग्य मधुर दुग्धपानादि, तथा आभूषणों और वस्त्रों से लोकप्रिय लगता हुआ बड़ा होने लगा । स्वभाव से ही सुन्दर रूप का धारक, अत्यंत मनोहरांग अपनी मन्द हास्य (मुस्कान) पूर्ण चेष्टाओं से माता आदि कुटुम्बीजनों को आनन्दित करता था । वह सुकुमाल बालक दिव्य लक्षणों और आभूषणादि तथा शरीर की कान्ति तेज आदि से कुमार अवस्था में देवकुमार के समान सोहता था । सुकुमाल की माता सदैव चित्त में इस बात की चिन्ता रखती थी कि मैं ऐसा प्रबन्ध करूँ कि यह कभी मुनिराज का दर्शन न कर ले । उसे मुनिराजों के इस वाक्य में विश्वास था कि यह मुनिदर्शन प्राप्त करते ही तप स्वीकार कर लेगा, इसलिए मुनिदर्शन से बचाने के लिये उसकी माता यशोभद्रा ने नाना प्रकार के रत्नों से जड़ा हुआ स्वर्णमयी ऊँचा एक सर्वतोभद्र महल तैयार कराया । उसके चारों तरफ बड़ी लागत से चाँदी के बत्तीस छोटे महल और बनवाये । उस महल के चारों ओर द्वारपाल नियुक्त कर दिये और मोहनीय कर्म से अन्धी हुई उसने महल के चारों तरफ मुनिराजों के आने की मनाही (निषेध) करा दी । सो ठीक ही है कि जिनके चित्त महामोह से अन्धे हो रहे हैं, उनको कुछ विचार नहीं रहता और जिनको कार्य-अकार्य का विचार नहीं रहता, उनको धर्म की प्राप्ति कैसे हो? वह सुकुमाल अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा तथा आमोद-प्रमोद करता हुआ रात-दिन के भेद को नहीं जानता था; न मनुष्य आदि के जाति भेद को जानता था; न उसे सर्दी-गर्मी आदि की बाधा ही मालूम पड़ती थी । वह सम्पूर्ण दु:खों से रहित और सुख में मग्न स्वर्ग में इन्द्र की तरह रहने लगा । वह सुकुमाल अब युवा हो गया । यौवन के समस्त प्रकार के लक्षणों से सुशोभित, कान्ति तेज कला, आलाप, महान लावण्य और सुन्दरता आदि से मनोहर देव की तरह वह सुन्दर दीखने लगा । यशोभद्रा ने सुकुमाल को विवाह योग्य जानकर चतुरिका, चित्रा, रेवती, पद्मिनी, मणिमाला, सुशीला, रोहणी, सुलोचना, सुदामा आदि 32 सेठ कन्याओं के पिता सेठों को पुत्र के विवाहार्थ बुलाया । यशोभद्रा ने अपने घर पर ही उन कन्याओं से विवाह करने का निश्चयकर विवाह मण्डप तैयार कराया और बड़े भारी वैभव तथा ठाठ-बाट के साथ उस सर्वतोभद्र महल पर ही विधिपूर्वक विवाह सम्पन्न किया । विवाह मण्डप के बाहर भी गीत, नृत्य, वादित्र आदि से बड़ा उत्सव हो रहा था । विवाह कार्य में जो बन्धुजन उपस्थित हुए थे, वे सभी आनन्द में मग्न थे । सुकुमाल की माता श्री यशोभद्रा ने सुकुमाल के विवाह के बाद बत्तीसों पुत्रवधुओं को एक-एक महल सूखपूर्वक रहने के लिये दे दिये । ये बत्तीस महल वे ही हैं जो पहिले इसने रूप्यमयी बनाये थे । वह सुकुमाल उन रूप लावण्य की खान, पुण्यवान स्त्रियों के साथ निरन्तर विषयभोग भोगता हुआ सर्वथा चिन्तारहित हो इन्द्र के समान सुख के समुद्र में मग्न होकर बीते हुए काल को भी न जानता था । एक दिन एक परदेशी व्यापारी रत्नों से जड़ा हुआ एक शाल (रत्नकम्बल) बेचने के लिये लाया और उसे उस नगरी के राजा वृषभांक को दिखलाया । यह शाल बहुत मूल्य का था । व्यापारी ने जो उसका मूल्य माँगा, उसे देने में राजा असमर्थ था; इसलिए वापस ही दे दिया । तब उस व्यापारी सेठ ने वह रत्नकम्बल उस महान धनाढघ सेठानी यशोभद्रा को खरीदने के लिये दिखलाया । यशोभद्रा सेठानी को रत्नकम्बल पसन्द आ गया, उस व्यापारी सेठ ने जितना भी उसका मूल्य माँगा, बदले में देकर वह रत्नकम्बल ले लिया और अपने पुत्र सुकुमार के उपयोग के योग्य जानकर उसे दे दिया । श्री सुकुमाल ने उसे देखकर तथा हाथ लगाकर जब यहnजाना कि यह तो महान कठिन (कड़ा) होने से मेरे उपयोग के लायक नहीं है, छोड़ दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े कराकर उन टुकड़ों से अपनी बत्तीस स्त्रियों के पाँवों में जो जूतियाँ थी, उनमें उन रत्नों को जड़वा दिया अर्थात् उस रत्नकम्बल की जूतियाँ बनवा दीं । इन बत्तीस स्त्रियों में जो सुदामा नामक स्त्री थी, वह रत्नजड़ित जूतियों को पहनकर अपने महल के ऊपर चली गयी-वहाँ थोड़ी देर तक तो बैठी रही और जब आने लगी तो पश्चिम द्वारमण्डप में उन खुली हुई जूतियों को भूल आयी और अपने महल में आ गयी । महल की छत पर पड़ी हुई जूतियों को माँस समझकर एक गिद्ध उठा ले गया और राजा वृषभांक के बहुत ऊँचे महल पर ले जाकर उसमें खाने के लिये चौंच मारी । कठोर रत्न था, कैसे खाया जाता? गिद्ध ने खाने का यत्न बहुत किया परन्तु जब वह न खा सका तो उसे क्रोध आया और उसने वहीं उसे डाल दिया । समय पाकर राजा ने उस रत्नकम्बल से अंकित जूती को जब वहाँ पड़े हुए देखा तो आश्चर्य में मग्न होकर पूछा कि यह सुन्दर जूती किसकी है? इस प्रकार पूछने पर राजा को उत्तर मिला कि महान लक्ष्मी और सौख्य के धारक सुकुमाल की स्त्री की यह जूती (पगरखी) है । राजा को यह बात सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उसे सुकुमाल को देखने की बड़ी इच्छा हुई । वह उससे मिलने के लिये उसी समय चल पड़ा । जब यशोभद्रा (सुकुमाल की माता) को विदित हुआ कि स्वयं राजा वृषभांक यहाँ आ रहे हैं तो उसने बड़े भारी ठाट-बाट से राजा को स्वागत समारोह के साथ अपने घर में प्रवेश कराया । स्वर्णमयी सिंहासन लगाकर उस पर बिठलाया और राजा को नजर भेंटकर पूछा कि । आज आपने यहाँ पधारकर मेरा घर पवित्र कर दिया है । कृपा करके मुझे यह बतलाइये कि आपके यहाँ पधारने का क्या कारण है? राजा वृषभांक ने कहा कि मैं तुम्हारे पुत्र से मिलने के लिये ही यहाँ आया हूँ और कोई कारण नहीं है । यशोभद्रा ने राजा के मान-सम्मान सत्कार की व्यवस्था करके अपने पुत्र सुकुमाल को बुलाया और राजा से मुलाकात करायी । राजा ने उस दिव्य रूपधारी सुकुमाल के रूप के अतिशय को देखकर प्रभावित हो अपने आसन के आधे भाग पर उसे बिठलाया और बड़ा प्रसन्न हुआ । यशोभद्रा ने इसके बाद राजा से प्रार्थना की कि महाराज! आज मेरे इस घर पर ही आपको भोजन ग्रहण करना पड़ेगा । मेरी इस प्रार्थना को आपको स्वीकार करना ही होगा । राजा ने वहीं भोजन करना स्वीकार कर लिया । राजा ने सुुकुमाल श्रेष्ठिपुत्र के साथ सुवर्ण पात्रों में भोजन किया । भोजन के बाद राजा ने सेठानी यशोभद्रा से कहा कि तुम्हारे पुत्र सुकुमाल को तीन रोग हैं । जिनका तुमको इलाज कराना चाहिए । तुमने इन रोगों की उपेक्षा किस प्रकार कर रखी है? राजा की यह बात सुनकर यशोभद्रा ने कहा कि महाराज! वे तीन व्याधियाँ कौन सी हैं, बतलाने की कृपा करें । राजा ने फिर कहा कि इसके तीन व्याधियाँ ये हैं कि । एक तो इसका आसन स्थिर नहीं, किन्तु चलायमान रहता है; दूसरे इसकी आँखों में से पानी आता है; तीसरे यह एक-एक चावल उठाकर खाता है । राजा के द्वारा बतलायी हुई इन तीन व्याधियों की बात सुनकर यशोभद्रा ने कहा कि महाराज! ये तीनों ही जो आप व्याधि बतलाते हैं, व्याधियाँ नहीं हैं । सुकुमाल की माता यशोभद्रा ने राजा को बतलाया कि महाराज! यह मेरा पुत्र सुकुमाल सदैव अत्यन्त कोमल दिव्य शस्या पर ही सोता है और वैसी ही गद्दी पर बैठता है । आज जो यह आपके साथ इस सिंहासन पर बैठा है और हमने मंगलस्वरूप आप पर सरसों डाली है, उन सरसों में से कुछ इस आसन पर भी गिर गई है जो इस मेरे अतिकोमलांग पुत्र सुकुमाल के चुभ रही हैं, उस कठोरता से इसका आसन चलायमान हो रहा है । अतएव यह रोग नहीं है । आँखों में पानी आने का कारण यह है कि यह सुकुमाल सदैव रत्नों के दीपक के प्रकाश में ही रहता है, इसने रत्नों की प्रभा के अतिरिक्त दूसरी कोई प्रभा देखी ही नहीं । आज आप जो यहाँ पधारे हैं, सो आपकी मंगलस्वरूप आरती उतारी गयी है, जिसमें घृत जलाया गया है, सो इस प्रभा के कारण इसके नेत्रों में पानी आ गया है क्योंकि इसके नेत्र ऐसी तेज प्रभा सहन नहीं कर सकते । चावल एक-एक खाने का कारण यह है कि जो यह चावल खाया करता है, उनको सूर्यास्त के समय सरोवर में गीली कमल की कली में रख दिये जाते हैं, जब चावल अत्यंत सुगन्धित और कोमल हो जाते हैं, तब प्रात:काल उनको धोकर बनाये जाते हैं परन्तु आज आपके पधारने से कुछ अधिक चावलों की आवश्यकता थी, इसलिए उन चावलों में कुछ साधारण चावल भी मिला दिये थे, सो इन सबको खाने में इसकी अरुचि थी; इसलिए अरुचिपूर्वक एक -एक उठाकर खाता था । अत: राजन्! जिनको आपने बीमारी समझा, वह बीमारी नहीं हैं । राजा को यशोभद्रा के द्वारा कही हुई बातें सुनकर बड़ा भारी आश्चर्य हुआ । राजा को सेठानी ने रत्नाभूषण वस्त्रादि भेंट देकर विदा करते हुए स्तुति की । राजा ने भी उस सुकुमार का नाम अवन्ति सुकुमार (सारी पृथ्वी पर कोमल-नाजुक) रख दिया और आनन्दपूर्वक अपने महलों में चला गया । अब इस अवन्ति सुकुमार की तीन लोक में कीर्ति फैल गयी और यह अपने पुण्योदय से नाना प्रकार के भोग भोगता रहा । इस प्रकार वह सुकुमाल श्रेष्ठिपुत्र पुण्योदय से महान दु:ख से रहित, अनुपम, दिव्य भोगों उपभोगों को भोगता हुआ अपार लक्ष्मी का पात्र होकर । राजाओं से भी सम्मानित हुआ । इसलिए अत्यन्त निपुण सुखाभिलाषी मनुष्यों को उचित है कि मन-वचन-काय की विशुद्धि से जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे हुए धर्म की शक्ति को न छिपाकर साधना करें । धर्म के प्रभाव से ही तीन जगत में उत्पन्न होनेवाली इन्द्र, तीर्थंकरादि की विभूतियाँ प्राप्त होती हैं और जो जिनेन्द्र प्रणीत धर्म का सेवन करते हैं, वे क्रम से अनन्त सुखों की खान मोक्ष सुखों को भी प्राप्त कर लेते हैं । |