कथा :
जो सदा जीवों का कल्याण-हित करनेवाले हैं और संसार के सर्वोत्तम शरण हैं, उन अरहन्त, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञप्रणीत धर्म को मेरा नमस्कार है । एक दिन सुदर्शन अपने मित्रों को साथ लिये शहर में घूमने को निकला । वह हँसी-विनोद करता हुआ जा रहा था । उसकी खूबसूरती को देखकर लोग मुग्ध होते थे । इसी समय मनोरमा सोलहों श्रृंगार किये अपनी सखी-सहेलियों के साथ जिनमन्दिर को जा रही थी । सुदर्शन ने उसे देखा । उसकी रूपसुधा का पान किया । उसे जान पड़ा कि किसी गुप्त शक्ति ने उसके हृदय को बड़े जोर से पकड़ लिया । वह छूटने की कोशिश करता है, पर छूट नहीं पाता । मनोरमा पर वह अत्यन्त मोहित हो गया । वह वहाँ से आगे न बढ़कर वापिस घर की ओर लौटा । उसकी बेचैन अवस्था बढ़ती जा रही थी । घर जाते ही वह बिछौने पर जा पड़ा । उसकी यह दशा देखकर उसके माता-पिता ने उससे पूछा । बेटा! एकाएक तेरी ऐसी बुरी हालत क्यों हो गयी? सुदर्शन लज्जा के मारे उन्हें कुछ उत्तर न दे सका । तब उन्होंने उसके मित्र कपिल से पूछा । कपिल बोला । पिताजी! हम लोग शहर में घूमते हुए चले जा रहे थे । इसी समय अपने सागरदत्त सेठ की लड़की मनोरमा मन्दिर जा रही थी । सुदर्शन की उस पर नजर पड़ गयी । जान पड़ता है, उसे देखकर ही इसकी यह दशा हो गयी है । कपिल द्वारा यह हाल सुनकर वृषभदास को बड़ी प्रसन्नता हुई । इसलिए कि मनोरमा एक तो अपने मित्र की ही लड़की और उस पर भी सागरदत्त स्वयं सुदर्शन के साथ उसका ब्याह करने के लिये उसके जन्म न होने के पहले ही कह चुका है । तब पुत्र के सुख के लिये वे स्वयं सागरदत्त के घर जाने को तैयार ही हुए थे कि इतने में मनोरमा का पिता उनके घर पर आ उपस्थित हुआ । कारण कि इधर जैसे सुदर्शन मनोरमा को देखकर काम से पीड़ित हुआ, उधर मनोरमा की भी यही दशा हुई । सुदर्शन को देखकर जो कामाग्नि धधकी, वह उसके हृदय और शरीर को बड़े प्रचण्डरूप से जलाने लगी । काम ने मानों उसे ग्रास बना लिया । वह घर आकर अपनी सेज पर जा सोई । सुदर्शन का वियोग उसे अत्यन्त कष्ट देने लगा । उसकी यह दशा देखकर उसके पिता ने उसकी सखी-सहेलियों से इसका कारण पूछा । सुदर्शन पर मनोरमा का प्रेम हुआ सुनकर सागरदत्त उसके घर पहुँचा । सुदर्शन का पिता तो जाने के लिये तैयार खड़े ही थे कि इसी समय एकाएक सागरदत्त को अपने यहीं आया देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने सागरदत्त का उचित आदर-सत्कार कर उसे एक अच्छी जगह बैठाया और आप भी बैठे । इसके बाद बड़े नम्र शब्दों में उन्होंने सागरदत्त से पूछा । हाँ, आप वह कारण बतलाइए जिससे कि मेरे क्षुद्र गृह को अपने चरणों से पवित्र कर आपने मेरा सौभाग्य बढ़ाया । सागरदत्त ने तब मधुर-मधुर हँसते हुए कहा । महाशय, मुझे इस बात की आज अत्यन्त खुशी है कि मेरा किया संकल्प आज पूरा होता है । आपको स्मरण होगा कि मैंने आपसे कहा था कि मैं अपनी लड़की की शादी आपके पुत्र के साथ करँगा । वह समय उपस्थित है और खास उसी लिये मैं आज आपसे प्रार्थना करने आया हूँ । आशा ही नहीं, विश्वास है । आप मेरी नम्र प्रार्थना स्वीकार करेंगे । यह सुनकर सुदर्शन के पिता ने कहा । प्रियमित्र! जैसा मेरा सुदर्शन सुन्दर और गुणी, वैसी ही आपकी मनोरमा सुन्दरी और वदिुषी, भला तब कहिए, इस मणि-कांचन संयोग को कौन न चाहेगा? इसके बाद ही उन्होंने श्रीधर नाम के एक अच्छे ज्योतिषी विद्वान को विवाह का शुभ दिन पूछने को बुलाया । ज्योतिषी महाशय ने तब अपने पोथी-पाने देखकर विवाह का शुभ दिन बतलाया । बैसाख सुदी पंचमी । वही दिन निश्चय कर वृषभदास और सागरदत्त ने विवाह का काम-काज भी शुरु कर दिया । दोनों के यहाँ अच्छे मंडप तैयार किये गये । सुबह और शाम को नौबतें झड़ने लगीं । खूब उत्सव किया गया । जो दिन विवाह के लिये निश्चित था, उस दिन पहले ही दोनों सेठों ने जिनमन्दिर जाकर बड़े ठाट-बाट से जिन भगवान की अभिषेकपूर्वक पूजा की । इसलिए कि उनका विवाहोत्सव निर्विघ्न पूरा हो । कोई प्रकार का विघ्न न आवे और सब सुखों की प्राप्ति हो । इसके बाद उन्होंने अपने बन्धु-बन्धवों को बहुमूल्य वस्त्राभूषण आदि भेंटकर उनका उचित आदर-सम्मान किया । अविरत होनेवाले गीत-नृत्य-संगीत आदि से उनका घर उत्सवमय बन गया । जिधर देखो उधर ही उत्सव-आनन्द दिखायी पड़ने लगा । सुदर्शन और मनोरमा एक तो वैसे ही स्वभाव से ही सुन्दर, उसपर उन्हें जो बहुमूल्य जवाहरात के भूषण, सुन्दर वस्त्र, फूलमाला आदि पहनाये गये, उनसे उनकी शोभा और भी बढ़ गयी । वे ऐसे जान पड़ने लगे मानों देवकुमार और सुरबाला का जोड़ा इस लोक में अपना ऐश्वर्य बतलाने को स्वर्ग से आया है । समय पर बड़े वैभव के साथ इनका पवित्र विवाहोत्सव सम्पन्न हो गया । पुण्य के उदय से दोनों दम्पति को अपनी-अपनी मनचाही वस्तु प्राप्त हो गयी । दोनों को इससे जो सुख, जो आनन्द मिला, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । इन नव दम्पति के अब ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे, त्यों-त्यों उनका प्रेम अधिकाधिक बढ़ता ही गया । दोनों सुन्दर, दिव्य देह के धारी, दोनों गुणी, फिर इनके प्रेम का, इनके सुख का क्या पूछना । दोनों ही दम्पति कल्पवृक्ष से उत्पन्न हुए सुख को भोगते हुए आनन्द से समय बिताने लगे । इनकी सुन्दरता बड़ी ही मोहित करनेवाली थी । इन्हें जो देख पाता था, उसकी आँखों को बड़ी शान्ति मिलती थी । इसी तरह सुख से रहते हुए पुण्य से इन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । वह भी इन्हीं सरीखा दिव्यरूप धारी, गुणी और नेत्रों को आनन्द देनेवाला था । उसका नाम सुकान्त रखा गया । एक बार समाधिगुप्त मुनिराज अपने बड़े विशाल संघ के साथ विहार करते हुए चम्पापुरी में आये । आकर वे शहर के बाहर बाग में ठहरे । वे बड़े ज्ञानी और तपस्वी थे । बड़े-बड़े राजे-महाराजे, देव, विद्याधर आदि सभी उन्हें मानते थे । उनकी सेवा-भक्ति करते थे । सच्चे मोक्षमार्ग का प्रचार करना और भव्यजनों को उसमें प्रवृत्त करना उनका काम था । जीवमात्र का हित हो और वे ज्ञान लाभ करें, ऐसे उपायों-कोशिशों के करने में वे सदा तत्पर रहा करते थे । बाग के माली ने उनके आने के समाचार राजा वगैरह को दिए । शहर के सब लोग अपने-अपने परिजन के साथ पूजन सामग्री ले-लेकर बड़े आनन्द से उनकी पूजा-वन्दना करने को गये । वहाँ सब संघ के साथ विराजे हुए समाधिगुप्त योगिराज की उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ आठ द्रव्यों से पूजा की, उन्हें सिर झुका नमस्कार किया, बड़े प्रेम के साथ उनके गुण गाये-स्तुति की । इसके बाद धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से वे सब उनके चरणों के पास बैठ गये । समाधिगुप्त मुनिराज ने उस धर्मामृत की प्यासी भव्यसभा को धर्मवृद्धि देकर इस प्रकार उपदेश करना आरम्भ किया । भव्यजनो! जिनभगवान ने जिस धर्म का उपदेश किया, वह पवित्र दयाधर्म संसार में सब धर्मों से उच्च धर्म है । उसमें जीवमात्र, फिर चाहे वह छोटा हो या बड़ा, समान दृष्टि से देखे जाते हैं । किसी भी जीव को प्रमाद या कषाय से जरा भी कष्ट पहुँचाना उसमें मना है और उसकी यह उदार भावना है कि । 'मा कार्षीत्कोपि पापानि मा च भूत्कोपि दु:खित: ।' मतलब यह कि न कोई पापकर्म करे और न कोई दु:खी होसंसार के जीवमात्र सुखलाभ करें । तब भव्यजनों! तुम इसी पवित्र धर्म को दृढ़ता के साथ धारण करो । देखो, यह दयामयी धर्म पापों का नाश करनेवाला और मोक्ष-सुख का देनेवाला है । इसी धर्म के प्रसाद से धर्मात्माजन तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त करते हैं । उसके लिये उन्हें कुछ प्रयत्न नहीं करना पड़ता । जो लोग इन्द्र और अहमिन्द्र का पद लाभ करते हैं, तीर्थंकर होते हैं, आचार्य या संघाधिपति होते हैं, वह सब इसी धर्म का फल है । तीन लोक में जो उत्तम से उत्तम सुख है, ऊँची से ऊँची भावनाँए हैं । मनचाही वस्तुओं की चाह है, वे सब हमें धर्म से प्राप्त हो सकती हैं । धर्मराज के भय से मौत भी भाग जाती है । उसका कोई वश नहीं चलता और पापरूपी राक्षस तो उसके सामने खड़ा भी नहीं होता । धर्म से बुद्धि निर्मल और पापरहित होती है, श्रेष्ठ और पवित्र होती है और उसमें सब पदार्थ प्रतिभासित होने लगते हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र आदि जितने संसार के हरनेवाले और मोक्ष-सुख के देनेवाले गुण हैं, वे सब धर्मात्माजन धर्म के प्रभाव से प्राप्त करते हैं । कला, विज्ञान, चतुरता, विवेक, शान्ति, संसार के दु:खों से भय, वैराग्य आदि पवित्र गुण धर्म से ही बढ़ते हैं । इस धर्मरूपी मन्त्र का प्रभाव बहुत बढ़ा-चढ़ा है । शिव-सुन्दरी भी इससे आकर्षित होकर धर्मात्मा जन को अपना समागम-सुख देती है, तब बेचारी स्वर्ग की देवांगनाओं की तो उसके सामने कथा ही क्या? इस प्रकार स्वर्ग और मोक्ष का सुख देनेवाला जो धर्म है, उसे जिन-भगवान ने दो भागों में बाँटा है । पहला-गृहस्थधर्म, जो सरलता से धारण किया जानेवाला एकदेशरूप है । इसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत; इस प्रकार ये बारह व्रत धारण किये जाते हैं और देव-पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान ये छह कर्म प्रतिदिन किये जाते हैं । इसी गृहस्थधर्म के विशेष भेदरूप ग्यारह प्रतिमाँए हैं । क्रम-क्रम से उन्हें धारण करता हुआ श्रावक इस धर्म की अन्तिम श्रेणी तक पहुँचकर फिर दूसरे मुनिधर्म के योग्य हो जाता है । इस गृहस्थधर्म का साक्षात् फल है सोलह स्वर्गों की प्राप्ति और परम्परा मोक्ष । दूसरा । मुनिधर्म है । यह सर्व-त्यागरूप होता है, अतएव कठिन भी है । सहसा उसे कोई धारण नहीं कर पाता । उसमें जिन बातों का त्याग किया जाता है या जो बातें ग्रहण की जाती हैं, वह त्याग और ग्रहण पूर्णरूप से होता है । कल्पना कीजिए, जैसे अणुव्रतों में पाँचवाँ अणुव्रत है 'परिग्रह-परिमाण' । अर्थात् धनधान्य, दासी-दास, सोना-चाँदी आदि दस प्रकार वस्तुओं का प्रमाण करना । अपनी लोकयात्रा के निर्वाह लायक वस्तुएँ रखकर बाकी वस्तुओं का त्याग कर देना । यह तो गृहस्थधर्म के योग्य एकदेश-त्यागरूप अणुव्रत है और इसी व्रत को मुनि जब धारण करते हैं तो वे सर्व-त्यागरूप धारण करेंगे । इन वस्तुओं में से वे कुछ भी न रखकर सबका त्याग कर देंगे । वे घर-बार छोड़कर जंगलों में रहेंगे । इसी धर्म का दूसरा नाम है महाव्रत । इसमें पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि अठ्ठाईस मूलगुण धारण किये जाते हैं । इस धर्म को वे ही धारण कर सकते हैं जो बड़े धीर-वीर और साहसी होते हैं । इसके धारण करनेवाले योगी लोग बड़ी कठिन तपस्या करते हैं । वे गर्मी के दिनों में पहाड़ों की चोटियों पर, वर्षा के दिनों में वृक्षों के नीचे और ठण्ड के दिनों में नदी या तालाब के किनारों पर तप तपा करते हैं । वे बड़े क्षमाशील, कोमल-परिणामी, सरल-स्वभावी, सत्य बोलनेवाले, निर्लोभी, संयमी, तपस्वी, त्यागी, निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी होते हैं । इस धर्म का साक्षात् फल है मोक्ष और गौण फल स्वर्गादिक का सुख । इस निष्पाप यतिधर्म को जैसा निर्मोही मुनि लोग ग्रहण कर सकते हैं, वैसा मोही गृहस्थ स्वप्न में भी उसे धारण नहीं कर सकते । इसीलिए कि उनका चित्त सदा आकुल-व्याकुल रहने के कारण उनके अशुभ कर्मों का आस्रव अधिक आता रहता है और यही कारण है कि वे मुनिधर्म की कारण वास्तविक चित्त-शुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते । इतने कहने का सार यह है कि यह मोह संसार का शत्रु है, इसलिए महात्मा पुरुषों को चाहिए कि वे इसे वैराग्यरूपी तलवार से मारकर धर्म को ग्रहण करें । सुदर्शन के पिता ने इस प्रकार निर्दोष मुनिधर्म का उपदेश सुनकर मन में विचारा-हाय, हम लोगों ने मोहरूपी शत्रु के वश होकर धर्म-साधन करने का बहुत सा समय संयम न धारण कर व्यर्थ ही गएवा दिया । न जाने कालरूपी शत्रु आजकल में कब लिवाने को आ जाय इसे कोई नहीं जान सकता । क्योंकि इस पापी काल को न बालकों का विचार है, न जवानों का और न बूढ़ों का । हर एक को अपनी इच्छानुसार यह चटपट अपने पेट में रख लेता है । आयु बिजली के समान चंचल है । कुटुम्ब-परिवार क्षणिक है । धन-दौलत बादलों के समान देखते-देखते नष्ट होनेवाली है । जवानी रोग से घिरी है । इन्द्रियों का सुख, दु:ख का कारण है । बुद्धिमान लोग उसे अच्छा नहीं कहते । इस संसार में पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहिन आदि जितने संयोग हैं या भोगोपभोग हैं, वे सब विनाशीक हैं-निश्चय से नष्ट होनेवाले हैं । इसलिए समझदार लोगों को उचित है कि जब तक शरीर निरोग है, इन्द्रियाँ समर्थ हैं, और आयु नष्ट नहीं हुई है, उसके पहले वे अपने आत्महित के लिए निर्दोष तप का साधन करें । तब मुझे योग्य है कि मैं भी योगी बनकर परम गुरु की कृपा से मोह का नाशकर निर्दोष तप ग्रहण करँ । इस विचार ने वृषभदास के हृदय में दूना वैराग्य बढ़ा दिया । उन्होंने तब अपने प्रिय पुत्र सुदर्शन को राजा की संरक्षकता में रखकर और आप बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का, सब धन-दौलत का तृण की तरह परित्याग कर, देव-दुर्लभ संयम-मुनिधर्म के धारक योगी हो गये । इधर उनकी स्त्री जिनमती भी समाधिगुप्त मुनिराज को नमस्कार कर और सब परिग्रह को छोड़कर कर्मों की नाश करनेवाल जिनदीक्षा ले आर्यिका हो गयी । इन दोनों ने जीवनपर्यन्त महान तप किया । अन्त में समाधिपूर्वक प्राणों को छोड़कर ये उसके फल से स्वर्ग में गये, जो कि दिव्य ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण है । सुदर्शन भी बड़ा ही धर्मात्मा था । उसने भी मुनिराज के पास मोक्ष की इच्छा से श्रद्धापूर्वक सम्यग्दर्शन और उसके साथ-साथ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत धारण किये और दान, पूजा, स्वाध्याय आदि के प्रतिदिन करने की प्रतिज्ञा की । अपनी इन्द्रियों की या विषयों की शान्ति के लिये उसने एक नियम किया । वह यह कि 'मैं अपनी प्रिय पत्नी मनोरमा के सिवा संसार की स्त्री-मात्र को अपनी माता-बहिन के समान गिनूँगा ।' इस धर्म-लाभ से तथा मुनिराज के पवित्र गुणों से सुदर्शन को बड़ा ही आनन्द हुआ । उसका चित्त बहुत ही प्रसन्न हुआ । वह उन्हें बारबार प्रणाम कर अपने घर लौट आया । सुदर्शन ने अब अपना घर का सब कारोबार सम्हाला । पुत्र को वह स्वयं विज्ञान, कला-कौशल आदि की शिक्षा देने लगा । धर्म की ओर भी उसकी पूर्ण सावधानी थी । वह भक्तिपूर्वक रोज देव-गुरु की सेवा-पूजा करता था, सुपात्रों को शक्ति और श्रद्धा से दान देता था, जिनवाणी का मनन-चिन्तन करता था, और धर्म की प्राप्ति हो, वैराग्य बढ़े, इसके लिये वह मन-वचन-काय की शुद्धि से निरतिचार बारह व्रतों का पालन करता था । इसके सिवा वह अष्मी और चतुर्दशी को घरगृहस्थी का सब आरम्भ-सारम्भ छोड़कर प्रौषधोपवास करता था और रात में मुनिसमान सर्वत्यागी हो मसान में कायोत्सर्ग ध्यान करता था । शंकादि दोषरहित सम्यग्दर्शन, पवित्र आचार-विचारों, और शुभ भावनाओं से धर्मलाभ करता हुआ वह ऐसा शोभता था जैसा मानों धर्म की साक्षात् प्रतिमा हो-मूर्तिमान धर्म हो । इस धर्म के फल से उसे जो सुख, जो ऐश्वर्य, जो भोगोपभोग-सामग्री प्राप्त हुई, उसे उसने अपनी प्रिया के साथ-साथ खूब भोगा । सच है धर्म से मनचाही धनस म्पत्ति प्राप्त होती है और धन-सम्पत्ति से काम-पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है और जो निस्पृह होकर इन्हें भी छोड़ देता है, फिर उसके सुख का तो पूछना ही क्या । वह तो मोक्ष के सुख को प्राप्त कर लेता है, जो सुख का समुद्र है । यही जानकर सुदर्शन सेठ अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये बड़े यत्न से धर्म-साधन करता था । इस प्रकार वह स्वयं हृदय में धर्म का चिन्तन करता था और लोगों को उसका उपदेश करता था । उसके शुद्ध आचार-विचारों को देखकर यह जान पड़ता मानों वह धर्ममय हो गया है । देखिये, सुदर्शन जो इतना सुख भोग रहा है, उसका राजा-प्रजा में मान है, वह गुणों का समुद्र कहा जाता है, यह सब उसने जो धर्म-साधन कर पुण्य कमाया है, उसका फल है । तब जो बुद्धिमान हैं और सुख की चाह करते हैं, उन्हें भी चाहिए कि वे मन-वचन-काय की पवित्रता के साथ एक धर्म ही की आराधना करें । मेरी भी यह पवित्र भावना है कि धर्म गुणों का खजाना है, इसलिए मैं उसका सदा आराधन करता रहूँ । धर्म का मुझे आश्रय प्राप्त हो । धर्म द्वारा मैं मोक्षमार्ग का आचरण करता रहूँ । मेरी सब क्रियाँए धर्म के लिये हों । मेरा दृढ़ विश्वास है । धर्म को छोड़कर मेरा कोई हितु नहीं । मुझे वह शक्ति प्राप्त हो, जिससे मैं धर्म के कारणों का पालन करता रहूँ । धर्म में मेरा चित्त दृढ़ हो और हे धर्म! मेरी तुझसे प्रार्थना है कि तू मेरे हृदय में विराजमान हो । धर्म पापरूपी शत्रु का नाश करनेवाला और मनचाहे सुखों का देनेवाला है । जो स्वर्ग चाहता है, उसे स्वर्ग; जो चक्रवर्ती बनना चाहता है, उसे चक्रवर्ती-पद; जिसे इन्द्र होने की चाह है, उसे इन्द्रपद; जो पुत्र चाहता है, उसे पुत्र; जो धन-दौलत चाहता है, उसे धन-दौलत; जो सुख चाहता है, उसे सुख और जो मोक्ष चाहता है, उसे मोक्ष अर्थात् जिसे जो कुछ इच्छा है-चाह है, वह सब उसे एक धर्म के प्रसाद से प्राप्त हो सकती है । इसलिए हे भव्यजनों! मैं बहुत कहकर आडम्बर बढ़ाना पसन्द नहीं करता । आप एक धर्म ही की सावधानी से प्रतिदिन आराधना करें । उससे आप सबकुछ मनचाहा सुख लाभ कर सकेंगे । |