कथा :
महात्मा सुदर्शन ने जिस परम-गति को प्राप्त किया, उसके स्वामी सिद्ध भगवान को मोक्ष प्राप्ति के लिये मैं नमस्कार करता हूँ । एक दिन कपिल की स्त्री कपिला ने सुदर्शन को देखा । उसकी अलौकिक सुन्दरता को देखकर वह उस पर जी-जान से निछावर हो गयी । वह मन ही मन कहने लगी । इस खूबसूरत युवा के बिना मेरा जीवन निष्फल है । यह सुन्दरता जब तक मेरा आलिंगन न करे, तब तक मैं जीती हुई भी मरी हूँ । तब मुझे कोई ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे मैं इस स्वर्गीय-सुधा का पान कर सकूँ । वह अब ऐसे मौके को ढएूढ़ने लगी । इधर धर्मात्मा सुदर्शन को इस बात का कुछ पता नहीं, जिससे कि वह सावधान हो जाय । एक दिन सुदर्शन अपनी मित्र-मण्डली के साथ कहीं जा रहा था । वह कपिल के घर के नीचे होकर निकला । उसे जाता देखकर कपिल की स्त्री ने, जो कि काम के बाणों से बहुत ही कष्ट पा रही थी, अपनी एक सखी को बुलाकर कहा । सखी! सुदर्शन को मैं बहुत ही प्यार करती हूँ । मैं नहीं कह सकती कि उसके बिना मेरे प्राण बच सकेंगे या नहीं । इसलिए मैं तुझसे प्रार्थना करती हूँ कि तू जिस तरह बने सुदर्शन को मेरे पास ला । वह तब दौड़ती हुई जाकर सुदर्शन से बोली । कुँवरजी! आप तो ऐसे निर्दयी हो गये जो अपने मित्र तक की खबर नहीं लेते कि वह किस दशा में है? उनकी आज कई दिनों से आँखें बड़ी दुखती हैं । उससे वे बड़े कष्ट में हैं । भई! न जाने आप कैसे मित्र हैं, जो उनकी बात भी नहीं पूछते । सुदर्शन ने कहा । मुझे इस बात की कुछ खबर नहीं । नहीं तो भला ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं उनके पास न आता । यह कहकर सुदर्शन कपिल के घर पहुँचा । उसे मालूम न था कि कपिल कहाँ है? उसने कपिला की सखी से पूछा । मित्र कहाँ पर है? उसने झूठे ही सुदर्शन से कह दिया । वे ऊपर सोये हुए हैं । आप अपनी इस मण्डली को यहीं बैठाकर अकेले जाइए । सुदर्शन ने वैसा ही किया । अपने मित्रों को वह नीचे ही बैठाकर स्वयं बड़े प्रेम से मित्र के मिलने की इच्छा से ऊपर पहुँचकर एक सुन्दर सजे हुए कमरे में दाखिल हुआ । इधर कामुकी कपिल की स्त्री सखी के जाते ही अपनी सेज पर, जिस पर कि एक बहुत कोमल और शरीर में गुदगुदी पैदा करनेवाला गदेला बिछा हुआ था, जा सोई और ऊपर से उसने एक बारीक कपड़ा मुँह पर डाल लिया । सुदर्शन जाकर धीरे से पलंग पर बैठ गया । कारण उसे तो यह ज्ञात न था कि इस पर कपिल की स्त्री सोई हुई है । बैठकर उसने बड़े प्रेम से पूछा । प्रिय मित्र! आपको क्या तकलीफ है? इतने में कपिला ने सुदर्शन का हाथ पकड़कर उसे अपने स्तनों पर रख लिया और बड़ी दीनता के साथ वह सुदर्शन से बोली । प्राणप्यारे! जिस दिन से आपको मैंने देख पाया है, तब से मैं अपने आपे तक को खो चुकी हूँ । मृत्यु की सेज पर पड़ी-पड़ी रात-दिन आपकी मंजुल मूर्ति का ध्यान किया करती हूँ । आज बड़े भाग्य से मुझे आपका समागम लाभ हुआ । आप दयावान हैं, इसलिए मैं आपसे प्रेम की भीख माँगती हूँ । मुझे सम्भोग-दान देकर कृतार्थ कीजिए । मुझे काल के मुँह से छुड़ाइए । सुदर्शन एकदम चौंक पड़ा । लज्जा के मारे वह अधमरा सा हो गया । उसे काटो तो खून नहीं । वह कपिला की इस वीभत्स वासना का क्या उत्तर दे । उस परम शीलवान के सामने बड़ी कठिन समस्या आकर उपस्थित हुई । उसने तब बड़े नम्र शब्दों में कहा । बहिन! तू जिसकी चाह करती है, वह पुरुषत्वपना तो मुझमें है ही नहीं । मैं तो विषय-सेवन के बिल्कुल अयोग्य हूँ । और इसके सिवा तुझसी कुलीन घराने की स्त्रियों के लिये ऐसा करना महान कलंक और पाप का कारण है । तुझे तो उचित है कि तू इस अजेय कामरूपी शत्रु को वैराग्य की तलवार से मारकर शीलरूपी दिव्य अलंकार से अपने को भूषित करे-अपने कामी मन को काबू में रखे । क्योंकि जो स्त्री या पुरुष शीलरहित हैं, अपवित्र हैं, वे अपने शील-भंग के पाप से सातवें नरक में जाते हैं । इसलिए प्राणों का छोड़ देना कहीं अच्छा है, पर शील नष्ट करना अच्छा नहीं । कारण कि शील नष्ट कर देने से पाप का बन्ध होता है, संसार में अपकीर्ति होती है और अन्त में अनन्त कष्ट उठाने पड़ते हैं । इस प्रकार वचन सुनकर कपिला को सुदर्शन से बड़ी नफरत हो गयी । उसने सुदर्शन को छोड़ दिया । सुदर्शन भी उसके घर से निकलकर निर्विघ्न अपने घर पहुँच गया । अब से वह और दृढ़ता के साथ अपने शील-धर्म की रक्षा करने लगा । बर्डे धर्म-साधन और सुख से उसके दिन जाने लगे । पुण्य के उदय से उसे सब कुछ प्राप्त हुआ । बसन्त आया । जंगल में मंगल हुआ । वनश्री ने अपने घर को खूब ही सजाया । जिधर देखो उधर ही लतायें बसन्त का-अपने प्राण प्यारे का आगमन देखकर खिले फूलों के बहाने मन्द-मन्द मुस्करा रही थीं । आम्रवृक्ष अपनी सुगंधित मंजरी के बहाने पुष्पवृष्टि कर रहे थे । उन पर कूजती हुई कोकिलाँए बधाई के गीत गा रही थीं । था वन, पर वसन्त ने अपने आगमन से उसे अच्छे-अच्छे शहरों से भी सुहावना और मोहक बना दिया था । बसन्त आया जानकर राजा-प्रजा अपने-अपने प्रियजन को साथ लेकर वन-विहार के लिये उपवनों में आ जमा हुए । रानी अभयमती अपने सब अन्त:पुर और प्रिय सहेली कपिला के साथ पुष्पक रथ में बैठकर उपवन में जाने को राजमहल से निकली । इसी समय सुदर्शन की स्त्री मनोरमा भी प्रियपुत्र सुकान्त को गोद में लिये रथ में बैठी बसन्तोत्सव में शामिल होने को जा रही थी । इस स्वर्ग की सी सुन्दरी को जाते देखकर अभयमती ने अपनी सखी-सहेलियों से पूछा । जिसकी सुन्दरता आँखों में चकाचौंध किये देती है, वह रथ में बैठी हुई सुन्दरी कौन है? और किस पुण्यवान् का समागम पाकर वह सफल-मनोरथ हुई है? उनमें से किसी एक सखी ने कहा । महारानीजी! आप नहीं जानती, यह अपने राजसेठ सुदर्शनजी की प्रिया और गोद में बैठे हुए उनके पुत्र सुकान्त की माता मनोरमा है । यह सुनकर रानी ने एक लम्बी साँस लेकर कहा । वह माता धन्य है, जो ऐसे सुन्दर पुत्र-रत्न की माता और सुदर्शन-से खूबसूरत युवा की पत्नी है । इस पर कपिला ने कहा । पर महारानीजी! मुझे तो किसी ने कहा था कि सुदर्शन सेठ पुरुषत्व-हीन हैं, फिर भला उनके पुत्र कैसे हुआ? रानी बोली । नहीं कपिला! यह बात बिल्कुल झूठी है । सुदर्शन जैसा धर्मात्मा कभी पुरुषत्व-हीन नहीं हो सकता । किन्तु जो अत्यन्त पापी होता है, वही पुरुषत्व-हीन होता है, दूसरा नहीं । किसी दुष्ट ने सुदर्शन के सम्बन्ध में ऐसी झूठी बात तुझसे कह दी होगी । कपिला बोली । महारानीजी! मैं जो कुछ कहती हूँ, वह सब सत्य है और तो क्या, पर यह घटना स्वयं मुझ पर बीती है । मैं आपसे सच कहती हूँ कि मेरा सुदर्शन पर बड़ा अनुराग हो गया था । एक दिन मौका पाकर मैंने उससे प्रेम की प्रार्थना की; पर उसने स्वयं अपने को पुरुषत्व-हीन बतलाया, तब मुझे उससे बड़ी नफरत हो गयी । रानी ने फिर कहा । कपिला! बात यह है कि वह बड़ा धर्मात्मा पुरुष है । पाप की बातों की, पाप की क्रियाओं की जहाँ चर्चा हो, वहाँ तो वह जाकर खड़ा भी नहीं रहता । यही कारण था कि तुझे उस बुद्धिमान ने ऐसा उत्तर देकर ठग लिया । यह सुन दुष्ट कपिला को सुदर्शन से बड़ी ईर्षा हुई । उस पापिनी ने तब निर्लज्ज् होकर रानी से बड़े निन्दित शब्दों में, जो स्त्रियों के बोलने लायक नहीं और दुर्गति में ले जानेवाले थे, कहा । रानीजी! मैं तो मूर्ख ब्राह्मणी ठहरी, सो उसने जैसा कहा, वही ठीक मान लिया । पर आप तो क्या सुन्दरता में और क्या ऐश्वर्य में, सब तरह योग्य हैं, इसलिए मैं आपसे कहती हूँ कि आपकी यह जवानी, यह सौभाग्य तभी सफल है, जबकि आप उस दिव्यरूपधारी के साथ सुख भोगें । ऐशो आराम करें । रानी अभयमती पहले ही से तो सुदर्शन पर मोहित और उस पर कपिला की यह कुत्सित प्रेरणा, तब वह क्यों न इस काम में आगे बढ़े । उसने उसी समय अपने सतीत्व धर्म को जलांजलि देकर कहा । प्रतिज्ञा की । 'मैं या तो सुदर्शन के साथ सुख ही भोगूँगी और यदि ऐस योग न मिला तो उन उपायों के करने में ही मैं अपनी जिन्दगी पूरी कर दूँगी, जो सुदर्शन के शील-धर्म को नष्ट करने में कारण होंगे ।' इस प्रकार अभिमान के साथ प्रतिज्ञा कर वह कुल-कलंकिनी वन-विहार के लिये आगे बढ़ी । उपवन में पहुँचकर उसने थोड़ी-बहुत जल-केलि की सही, पर उसका मन तो सुदर्शन के लिये तड़प रहा था; सो उसे वहाँ कुछ अच्छा न लगा । वह चिन्तातुर होकर अपने महल लौट आयी । यहाँ भी उसकी वही दशा रही । काम ने उसकी विउीलता और भी बढ़ा दी । वह तब अपनी सेज पर औंधा मुँह किये पड़ रही । उसकी यह दशा देखकर उसकी धाय ने उससे पूछा । बेटी! आज ऐसी तुझे क्या चिन्ता हो गयी, जिससे तुझे चैन नहीं है । अभयमती ने बड़े कष्ट से उससे कहा । माँ! मैं जिस निर्लज्ज्ता से आपसे बोलती हूँ, उसे क्षमा करना । मैं इस समय सर्वथा परवश हो रही हूँ और असम्भव नहीं कि जिस दशा में मैं अब हूँ, उसी में कुछ दिन और रहूँ तो मेरे प्राण चले जाएँ । इसलिए मुझे यदि तुम जिन्दा रखना चाहती हो, तो जिस किसी उपाय से बने एकबार मेरे प्यारे सुदर्शन को लाकर मुझसे मिलाओ । वही मुझे जिलाने के लिये संजीवनी है । रानी अभयमती की यह असाध्य वासना सुनकर उस धाय ने उसे समझाया । देवी! तूने बड़ी ही बुरी और घृणित इच्छा की है । जरा आँखें खोलकर अपने को देख तो सही कि तू कौन है? तेरा कुल कौन है? तू किसकी गृहिणी है? और ये निन्दनीय विचार, जो तेरे पवित्र कुल को कलंकित करनेवाले हैं, तेरे-तुझसी राजर ानी के योग्य हैं क्या? तू नहीं जानती कि ऐसे बुरे कामों से महान पाप का बन्ध होता है, अपना सर्वनाश होता है और सारे संसार में अपकीर्ति-अपवाद फैल जाता है । क्या तुझे इन बातों का भय नहीं? यदि ऐसा है तो बड़े ही दु:ख की बात है । कुलीन घराने की स्त्रियों के लिये पर-पुरुष का समागम तो दूर रहे, किन्तु उसका चिन्तन करना । उसे हृदय में जगह देना भी महा पाप है, अनुचित है और सर्वस्व नाश का कारण है । और तुझे यह भी मालूम नहीं कि सुदर्शन बड़ा शीलवान है । उसके एक पत्नीव्रत है । वह दूसरी स्त्रियों से तो बात भी नहीं करता । इसके सिवा यह भी सुना गया है कि वह पुरुषत्व-हीन है । भला, तब तू उसके साथ क्या सुख भोगेगी? और ऐसा सम्भव भी हो, तो इस पाप से तुझे दुर्गति के दु:ख भोगना पड़ेंगे । यह काम महान निंद्य और सर्वस्व नाश करनेवाला है; और एक बात है वह यह कि तेरा महल कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्य का घर नहीं, जो उसमें हर कोई बे-रोकटोक चला आवे । उसे बड़े-बड़े विशाल सात कोट घेरे हुए हैं । तब बता, उस शीलवान का यहाँ ले-आना कैसे संभव हो सकता है? इसलिए तुझे ऐसा मिथ्या और निन्दनीय आग्रह करना उचित नहीं । इससे सिवा सर्वनाश के तुझे कुछ लाभ नहीं है । मैंने जो तेरे हित के लिए इतना कहा । तुझे दो अच्छी बातें सुझाईं, इन पर विचार कर और अपने चंचल चित्त को वश करके इस दुराग्रह को छोड़ । अभयमती को धाय माँ का यह सब उपदेश कुछ नहीं रुचा । काम ने उसे ऐसी अन्धी बना दिया कि उसका ज्ञान-नेत्र मानों सदा के लिए जाता रहा । वह अपनी धाय से जरा जोर में आकर बोली । माँ, सुनो, बहुत कहने से कुछ लाभ नहीं । मेरा यह निश्चय है कि यदि मैं प्यारे सुदर्शन के साथ सुख न भोग सकी तो कुछ परवाह नहीं, इसलिए कि वह सुख पर-वश है । पर तब अपने प्यारे के वियोग में स्वाधीनता से मरते हुए मुझे कौन रोक सकेगा? मैं अपने प्यारे को याद करती हुई बड़ी खुशी के साथ प्राणविसज र्न करँगी । उन्हें प्रेम की बलि दूँगी । अभयमती का यह आग्रह देखकर उसकी धाय ने सोचा । यह किसी तरह अपने दुराग्रह को छोड़ती नहीं दिखती । तब लाचार हो उसने कहा । ना, ऐसा बुरा विचार न कर । थोड़ी धीरता रख । मैं इसके लिए कोई उपाय करती हूँ । इस प्रकार अभयमती को कुछ धीर बंधाकर वह एक कुम्हार के पास गई और उससे कहकर उससे सात पुरुष-प्रतिमाँए बनवायीं । उनमें से पड़वा की रात को एक प्रतिमा को अपने कन्धे पर रखकर वह राजमहल के दरवाजे पर आयी । अपना कार्य सिद्ध होने के लिए दरवाजे के पहरेदार को अपनी मुट्ठी में कर लेना बहुत जरूरी समझा और इसीलिए उसने यह कपट-नाटक रचा । वह दरवाजे पर जैसी आई, वैसी ही किसी से कुछ न कह-सुनकर भीतर जाने लगी । उसे भीतर घुसते देखकर पहरे के सिपाही ने रोककर कहा । माँ जी! आप भीतर न जाएँ । मैं आपको मना करता हूँ । इस पर बनावटी क्रोध के साथ उसने कहा । मूर्ख कहीं के, तू नहीं जानता कि मैं रानी के महल में जा रही हूँ । मुझे तू क्यों नहीं जाने देता? सिपाही भी फिर क्यों चुप होनेवाला था । उसने कहा । राँड! चल लम्बी हो! दिखता नहीं कि रात कितनी जा चुकी है? इस समय मैं तुझे किसी तरह नहीं जाने दे सकता । सिपाही के मना करने पर भी उसने उसकी कुछ न सुनी और आप जबरदस्ती भीतर घुसने लगी । सिपाही को गुस्सा आया सो उसने उसे एक धक्का मारा । वह जमीन पर गिर पड़ी । साथ ही उसके कन्धे पर रखी हुई वह पुरुष-प्रतिमा भी गिरकर टूट गयी । उसने तब एकदम अपना भाव बदलकर गुस्से के साथ उस पहरेदार से कहा । मूर्ख, ठहर, घबरा मत । मैं तुझे इसका मजा चखाती हूँ । तू नहीं जानता कि आज महारानी ने उपवास किया था । सो वे इस मिट्टी के बने कामदेव की पूजा कर आज जागरण करतीं और आनन्द मनातीं । सो तूने इसे फोड़ डाला । देख, अब सबेरे ही महारानी इस अपराध के बदले में तेरा क्या हाल करती हैं? तुझे सकुटुम्ब वे सूली पर चढ़ा देंगी । उसकी इस विभीषिका ने बेचारे उस पहरेदार के रोम-रोम को कँपा दिया । वह उसके पाँवों में पड़कर गिड़गिड़ाने लगा । रोने लगा । माँ! क्षमा करो । मुझ गरीब पर दया करो । आज के बाद मैं कभी आपके काम में किसी प्रकार की बाधा न दूँगा । माँ! क्रोध छोड़ो । मेरे बाल-बच्चों की रक्षा करो । इस प्रकार कूटक पट से उस बेचारे को जाल में फँसाकर उसने अपनी मुट्ठी में कर लिया । अपने प्रयत्न में सफलता हो जाने से उसे बड़ा आनन्द हुआ । वह उस दिन बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने घर गयी । इसी उपाय से उसने और भी छह पहरेदारों को छह रात में अपने काबू में कर लिया । यह पहले लिखा जा चुका है कि पुण्यात्मा सुदर्शन अष्मी और चतुर्दशी को घर-गृहस्थी का सब आरम्भ छोड़कर प्रोषधोपवास करता था और रात में कुटुम्ब, परिग्रह तथा शरीरादिक से ममत्व छोड़कर बड़ी धीरता के साथ श्मशान में प्रतिमा-योग द्वारा ध्यान करता था । आज अष्मी का दिन था । अपने नियम के अनुसार सुदर्शन ने सूर्यास्त होने के बाद श्मशान में जाकर मुनियों के समान प्रतिमा-योग धारण किया । सुदर्शन की यह श्मशान में आकर ध्यान करने की बात रानी अभयमती की धाय को पहले से ही ज्ञात थी । इसलिए कुछ रात बीतने पर सुदर्शन को राजमहल में लिवा ले-जाने को वह आयी । उसने सुदर्शन को देखा । वह इस समय अरहन्त भगवान के ध्यान में लीन हो रहा था । मच्छर आदि जीव बाधा न करें, इसलिए उसने अपने पर वस्त्र डाल रखा था । उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों कोई ध्यानी मुनि उपसर्ग सह रहे हैं । निश्चलता उसकी सुमेरुवत् थी । शरीर से उसने बिल्कुल मोह छोड़ दिया था । बड़े धीरज के साथ वह ध्यान कर रहा था । गंभीरता उसकी समुद्र सरीखी थी । क्षमा पृथ्वी सरीखी थी । हृदय उसका निर्मल पानी जैसा था । कर्मरूपी वन को भस्म करने के लिए वह अग्नि था । एकाकी था । शरीर भी उसका बड़ा ग्राण्डील बना था । उसे इस रूप में देखकर वह धाय आश्चर्य के मारे चकित हो गयी । तब वह ध्यान से किसी तरह चल जाये, इसके लिए उस दुष ने सुदर्शन से कुत्सित-विकार पैदा करनेवाले शब्दों में कहना शुरु किया । धीर, तू धन्य है । तू कृतार्थ हुआ, जो रानी अभयमती आज तुझ पर अनुरक्त हुई । मैं भी चाहती हूँ कि तू सैकड़ों सौभाग्यों का भोगनेवाला हो । उठ चल । रानी ने तुझसे प्रार्थना की है कि तू उसके साथ दिव्य भोगों को भोगे । आनन्द-विलास में अपनी जिन्दगी पूरी करे । इत्यादि बहुत देर तक उसने सुदर्शन को ध्यान से डिगाने के लिए प्रयत्न किया, परन्तु उसका सुदर्शन पर कुछ असर न हुआ । वह एक रत्तीभर भी ध्यान से न डिगा । यह देखकर सुदर्शन पर उसकी ईर्षा और अधिक बढ़ गयी । तब उस दुष्टिनी ने, उस पापिनी ने सुदर्शन के शरीर से लिपटकर, उसके मुँह में अपना मुँह देकर, तथा उसकी उपस्थ इन्द्री, नेत्र आदि से अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ । कामविकार पैदा करनेवाली क्रियाँए कर, नाना भाँति भय, लोभ बताकर उस पर उपसर्ग किया । उसके हृदय में काम की आग भड़काकर उसे ध्यान से चलाना चाहा; पर वह महा धीर-वीर, और दृढ़ निश्चयी सुदर्शन ऐसे दु:सह उपसर्ग होने पर भी न चला और मेरु की भाँति अडिग बना रहा । इतना सब कुछ करने पर भी उसे जब ऐसा निश्चल देखा, तब वह खीजकर उसे अपने कन्धे पर उठाकर चलती बनी । सुदर्शन तब भी अपने ध्यान में वैसा ही अचल बना रहा, मानों जैसा काठ का पुतला हो । उस काम के काल को धाय ने छुपाकर महारानी के सोने के महल में ला रखा । अभयमती सुदर्शन की अनुपम रूपस ुन्दरता देखकर बड़ी प्रसन्न हुई । उसने तब स्वयं सुदर्शन से प्रेम की भीख माँगी । वह बोली । प्राणनाथ! स्वामी! आप मुझे अत्यन्त प्यारे हैं । आपकी इस अलौकिक सुन्दरता को देखकर ही मैंने आप पर प्रेम किया है । मैं आप पर जी-जान से न्यौछावर हो चुकी हूँ । इसलिए हे प्राण प्यारे! मेरे साथ प्रेम की दो बातें कीजिए और कृपाकर मुझे संभोग-सुख से परितृप्त कीजिए । मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे साथ जिन्दगी के सफल करनेवाले भोगों को भोगें । । इत्यादि काम-विकार पैदा करनेवाले शब्दों से अभयमती ने पवित्र हृदयी सुदर्शन से बहुत कुछ प्रार्थना कर उसे उत्तेजित करना चाहा, पर सुदर्शन ने अपने शरीर और मन को तिलतुष मात्र भी न हिलाया चलाया । उसकी यह हालत देखकर अभयमती बड़ी खदि्वा हुई । उसने तब ईर्षा से चिढ़कर सुदर्शन को उठाकर अपनी सेज पर सुला लिया और अपनी कामलिप्सा पूर्ण हो, इसके लिए उसने नाना भाँति कुचेष्टाएँ करना शुरु किया । वह हाव-भाव-विलास करने लगी, गाने लगी, नाचने लगी, नाना भाँति का श्रृंगार कर उसे मोहने लगी, कटाक्ष फेंकने लगी, सुदर्शन का बारबार मुँह चूँमने लगी, उसके शरीर से लिपटने लगी, उसके हाथों को उठाउ ठाकर अपने स्तनों पर रखने लगी, अपनी और उसकी गुप्तेन्द्रिय से सम्बन्ध कराने लगी, उसकी गुप्तेन्द्रिय को अपने हाथों से उत्तेजित करने लगी । इत्यादि जितनी ब्रह्मचर्य के नष्ट करने और कामाग्नि की बढ़ानेवाली विकार चेष्टाएँ हैं, और जिन्हें यदि किसी साधारण पुरुष पर आजमाई जाय तो वह कभी अपनी रक्षा नहीं कर सकता, उन सबको करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी । सुदर्शन उसके साथ विषय-सेवन करे, इसके लिए उसने उस पर बड़ा ही घोर उपसर्ग किया । पर धन्य सुदर्शन की धीरता और सहनशीलता को, जो उसने काम-विकार की भावना को रंचमात्र भी जगह न दी; किन्तु उसकी वैराग्य-भावना अधिक बढ़े, इसके लिए उसने यों विचार करना शुरु किया । स्त्रियों का शरीर जिन चीजों से बना है, उन पर वह इस प्रकार विचार करने लगा । यह शरीर हड्डियों से बना हुआ है । इसके ऊपर चमड़ा लपेटा हुआ है । इसलिए बाहर से कुछ साफ-सा मालूम पड़ता है, परन्तु वास्तव में यह साफ नहीं है । जितनी अपवित्र से अपवित्र वस्तुएँ संसार में हैं, वे सब इसमें मौजूद हैं । दुर्गन्ध का यह घर है । तब स्त्रियों के शरीर में ऐसी उत्तम वस्तु कौन सी है, जो अच्छी और प्रेम करने योग्य हो? कुछ लोग स्त्रियों के मुख की प्रशंसा करते हैं, पर यह उनकी भूल है । क्योंकि वास्तव में उसमें कोई ऐसी वस्तु नहीं जो प्रशंसा के लायक हो । वह रक्त-श्लेष्म से भरा हुआ है । उसमें लार सदा भरी रहती है । फिर किस वस्तु पर रीझकर उसे अच्छा कहें? क्या उस पर लपेटे हुए कुछ गोरे चमड़े पर? नहीं । उसे भी जरा ध्यान से देखो तब जान पड़ेगा कि वह भी उन चीजों से जुदा नहीं है । स्त्रियों के स्तनों को देखिए तो वे भी रक्त और माँस के लोंदे हैं । आँखों में ऐसी कोई खूबी नहीं जो बुद्धिमान लोग उन पर रीझें । उनका उदर देखिए तो वह भी विष, मल, मूत्र आदि दुर्गन्धित वस्तुओं से भरा हुआ, महा अपवित्र और बिलबिलाते कीड़ों से युक्त है । तब बुद्धिमान लोग उसकी किस मुद्दे पर प्रशंसा करें? रहा स्त्रियों का गुप्तांग, सो वह तो इन सबसे भी खराब है । उसमें मूत्र आदि अपवित्र वस्तुएँ स्रवती हैं और इसीलिए वह ग्लानि का स्थान है, बदबू मारता है, और ऐसा जान पड़ता है मानों नारकियों के रहने का बिल हो । तब वह भी कोई ऐसी वस्तु नहीं जिस पर समझदार लोग प्रेम कर सकें । स्त्रियों के शरीर में जो-जो वस्तुएँ हैं, उन पर जितना-जितना अच्छी तरह विचार किया जाय तो सिवा उपेक्षा करने के कोई ऐसी अच्छी वस्तु न देख पड़ेगी, जिससे प्रेम किया जाय । इसके सिवा यह परस्त्री है और परस्त्री को मैं अपनी माता, बहिन और पुत्री के समान गिनता हूँ । उनके साथ बुरा काम करना महान पाप का कारण है और इसीलिए आचार्यों ने परस्त्री को दर्शन-ज्ञान आदि गुणों की चुरानेवाली और धर्म की नाश करनेवाली, नरकों में ले जाने का रास्ता और पाप की खान, कीर्ति की नष्ट करनेवाली और वध-बन्धन आदि दु:खों की कारण बतलाया है और सचमुच परस्त्री बड़ी ही निन्दनीय वस्तु है । जहरीली नागिन को, जो उसी समय प्राणों को नष्ट कर दे, लिपटा लेना कहीं अच्छा है, पर इस सातवें नरक में ले जानेवाली दीपिका का तो हंसी विनोद से भी छूना अच्छा नहीं । आज मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मेरा शुद्ध शीलधर्म सफल हुआ । इन उपद्रवों को सहकर भी वह अखण्डित रहा । । इस प्रकार पवित्र भावनाओं से अपने हृदय को अत्यन्त वैराग्यमय बनाकर बड़ी निश्चलता के साथ सुदर्शन शुभध्यान करने लगा और अभयमती द्वारा किये गये सब उपद्रवों को । सब विकारों को जीतकर बाह्य और अन्तरंग में वज्र की तरह स्थिर और अभेद्य बना रहा । अभयमती अपने इस प्रकार नाना भाँति विकार-चेष्टा के करने पर भी सुदर्शन को पक्का जितेन्द्री और मेरु के समान क्षोभरहित निश्चल देखकर बड़ी उद्विग्न हुई-बड़ी घबरायी । तृण-रहित भूमि पर गिरी अग्नि जैसे निरर्थक हो जाती है, नागदमनी नाम की औषधि से जैसे सर्प निर्विष हो जाता है, उसी तरह रानी अभयमती का झूठा अभिमान ब्रह्मचारी सुदर्शन के सामने चूर-चूर हो गया । उसके साथ वह बुरी से बुरी चेष करके भी उसका कुछ न कर सकी । तब चिढ़कर उसने अपनी धाय को बुलाकर कहा । जहाँ से तू इसे लायी है, वहीं जाकर इसी समय इसे फैंक आ । उसने बाहर आकर देखा तो उस समय कुछ-कुछ उजाला हो चुका था । उसने जाकर रानी से कहा । देवीजी! अब तो समय नहीं रहा-सवेरा हो चुका है । इसे अब मैं नहीं ले जा सकती । सच है, जो दुर्बुद्धि लोग दुराचार करते हैं, वे अपना सर्वनाश कर क्लेश भोगते हैं और पापबन्ध करते हैं । इसके सिवा उन्हें और कोई अच्छा फल नहीं मिलता । इस संकट दशा को देखकर रानी बड़ी घबराई । उससे उसे अपने पर बड़ी भारी विपत्ति आती जान पड़ी । उसने तब अपनी रक्षा के लिए एक कुटिलता की चाल चली । किसी की बुराई ईर्षा, द्वेष, मत्सरता आदि से सम्बन्ध न रखनेवाले धीर सुदर्शन को उसने कायोत्सर्ग से खड़ा कर और अपनी शरीर में नखों, दाँतों आदि के बहुत से घाव करके वह एकदम बड़े जोर से किल्कारी मारकर रोने लगी और लोगों को पुकारने लगी, दौड़ो! दौड़ो!! यह पापी मुझ शीलवती का सतीत्व नष्ट करना चाहता है । इस दुराचारी ने काम से अन्धे होकर मेरा सारा शरीर नोंच डाला । अभयमती का आक्रन्दन सुनकर बहुत से नौकर-चाकर दौड़ आये । उनमें से कुछ ने तो सुदर्शन को गिर्यतार कर बाँध लिया और कुछ ने पहुँचकर राजा से फरियाद की । महाराज! कामान्ध हुए सुदर्शन ने आपके रनवास में घुसकर रानीजी की बड़ी दुर्दशा की । उनके सारे शरीर को उस पापी ने नखों से नोंचकर लहूलुहान कर दिया । राजा ने जाकर स्वयं भी इस घटना को देखा । देखते ही उनके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । उसकी कुछ विशेष तपास न कर अविचार से उन्होंने नौकरों को आज्ञा दी कि । जाओ इस कामान्ध हुए अन्यायी सेठ को मृत्युस्थान पर ले जाकर मार डालो! राजा की आज्ञा पाते ही वे लोग सुदर्शन को केश पकड़कर खींचते हुए मारने की जगह ले गये । सुदर्शन के मारे जाने की खबर जैसी ही चारों ओर फैली कि सारे शहर में हा-हा कार मच गया । क्या स्वजन और क्या परजन, सभी बड़े दुखी हुए । सब उसके लिए रो-रोकर कहने लगे कि हे सुभग! आज तुझ-समान सत्पुरुष के हाथों से ऐसा कौन सा अकारज हो गया जिससे तुझे मौत के मुँह में जाना पड़ा! हाय! तुझ-समान धर्मात्मा को और प्राणदण्ड? यह कभी सम्भव नहीं कि तू ऐसा भयंकर पाप करे । पर जान पड़ता है दैव आज तुझसे सर्वथा प्रतिकूल है । इसीलिए तुझे यह कठोर दण्ड भोगना पड़ेगा । सुदर्शन, ले जाकर मृत्यु स्थान पर खड़ा किया गया । इतने में एक जल्लाद ने उसके कामदेव से कहीं बढ़कर सुन्दर और फूल से कोमल शरीर में तलवार का एक वार कर ही दिया । पर क्या आश्चर्य है कि उसके महान शीलधर्म के प्रभाव से वह तलवार उसके गले का एक दिव्य हार बन गयी । इस आश्चर्य को देखकर उस जल्लाद को अत्यन्त ईर्षा बढ़ गयी । उस मूर्ख ने तब एक पर एक ऐसे कोई सैकड़ों वार सुदर्शन के शरीर पर कर डाले । पर धन्य सुदर्शन के व्रत का प्रभाव, जो वह जितने ही वार किये जाता था, वे सब दिव्य पुष्पमाला के रूप में परिणत होते जाते थे । इतना सब कुछ करने पर भी सुदर्शन को कोई किसी तरह का कष्ट न पहुँचा सका । उधर सुदर्शन की इस सुदृढ़ शील-शक्ति के प्रभाव से देवों के आसन सहसा कम्पायमान हो उठे । उनमें से कोई धर्मात्मा यक्ष इस आसनकम्प से सुदर्शन पर उपसर्ग होता देखकर उसे दूर करने के लिए शीघ्र ही मृत्यु-स्थल पर आ उपस्थित हुआ और उस शरीर से मोह छोड़े महात्मा सुदर्शन को बार-बार नमस्कार कर उसने उन मारनेवालों को पत्थर के खम्भों की भाँति कील दिया । सच है, शील के प्रभाव से धर्मात्मा पुरुषों को क्या-क्या नहीं होता । और तो क्या, परन्तु जिसका तीन लोक में प्राप्त करना कठिन है, वह भी शीलव्रत के प्रभाव से सहसा पास आ जाता है । इस शील के प्रभाव से देवता लोग, नौकर-चाकरों की तरह चरणों की सेवा करने लगते हैं और सब विघ्न-बाधाँए नष्ट हो जाती हैं । जो सच्चे शीलवान् हैं, उन्हें देव, दानव, भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी आदि कोई कष्ट नहीं पहुँचा सकता । तब बेचारे मनुष्य की तो बात ही क्या? वह कौन गिनती में? सुदर्शन ने जो दृढ़ शीलव्रत का पालन किया, उसके माहात्म्य से एक यक्ष ने उसके सब उपसर्ग-सब विघ्न क्षणमात्र में नष्ट कर उसकी पूजा की । इसका मतलब यह हुआ कि शील के प्रभाव से दु:ख नष्ट होते हैं और सब प्रकर का सुख प्राप्त होता है । तब भव्यजनों, अपनी आत्मशुद्धि के लिए इस परम पवित्र शीलव्रत को दृढ़ता के साथ तुम भी धारण करो न, जिससे तुमको सब सुखों की प्राप्ति हो । देखो, यह शील मुक्तिरूपी स्त्री को बड़ा प्रिय है और संसार के परिभ्रमण को मिटानेवाला है । जो सुशील हैं, सत्पुरुष हैं, वे इस शीलधर्म को बड़ी दृढ़ता से अपनाते हैं । इसका आश्रय लेते हैं, शीलधर्म से मोक्ष का सुख मिलता है । उस पवित्र शीलधर्म के लिए मैं नमस्कार करता हूँ । शील के बराबर कोई सुधर्म को प्राप्त नहीं करा सकता । जहाँ शील है, समझो कि वहाँ सब गुण हैं और हे शील, मैं तुझमें अपने मन को लगाता हूँ, तू मुझे मुक्ति में ले चल । उन मुनिराजों की मैं स्तुति करता हूँ जो पवित्र बुद्धि के धारी और शीलव्रतरूपी आभूषण को पहने हुए हैं । इन्द्र, चक्रवर्ती आदि से पूज्य और काम-शत्रु के नाश करनेवाले हैं । स्वयं संसार-समुद्र से पार को पहुँच चुके हैं और दूसरों को पहुँचाकर मोक्ष का सुख देते हैं तथा जिन्होंने कामदेव-पद के धारी होकर कर्मों का नाश किया है, वे मुझे भी ऐसा पवित्र आशीर्वाद दें कि जिससे मैं शीलव्रत को बड़ी दृढ़ता के साथ धारण कर सकूँ । |