कथा :
शीलरूपी समुद्र में निमग्न और मोक्ष को प्राप्त हुए सुदर्शन आदि महात्माओं को मैं नमस्कार करता हूँ, वे मुझे सुदृढ़ शीलधर्म की प्राप्ति करावें । किसी ने जाकर राजा से कहा कि । महाराज, जिन नौकरों को आपने सुदर्शन को मार आने के लिए आज्ञा दी थी, सुदर्शन ने उनको मन्त्र से कील दिया । वे सब पत्थर की तरह मृत्युस्थल पर कीले हुए खड़े हैं । सुनते ही राजा को बड़ा क्रोध आया । उसने तब और बहुत से नौकरों को सुदर्शन को मार डालने को भेजा । उस यक्ष ने उन सबको भी पहले की तरह कील दिया । उनका कील देना भी जब राजा को ज्ञात हुआ, तब वह क्रोध से अधीर होकर स्वयं अपनी सेना लेकर सुदर्शन से युद्ध करने को पहुँचा । उस यक्ष को भी भला तब कैसे चैन पड़ सकता था । राजा के आते ही उसने भी मायामयी एक विशाल सेना देखते-देखते तैयार कर ली और युद्ध करने को वह रणभूमि में उतर आया । दोनों सेना में व्यूह-रचना हुई । दोनों ओर के वीर योद्धा हाथी, घोड़े आदि पर चढ़कर युद्धभूमि में उतरे । यक्ष सुदर्शन की रक्षा के लिए विशेष सावधान हुआ । दोनों सेना की मुठभेड़ हुई । बड़ा भयंकर और मृत्यु का कारण संग्राम होने लगा । बहुत देर हो गयी, परन्तु जयश्री ने किसी का साथ न दिया । दोनों ओर की सेना कुछ-कुछ पीछे हटी । सेना को पीछे हटती देखकर राजा और यक्ष दोनों ही वीर अपने-अपने हाथी पर चढ़कर आमने-सामने हुए । राजा को सामने देखकर यक्ष ने उसके हित की इच्छा से कहा । तू जानता है कि मैं कौन हूँ और मेरा बल कितना है? यदि नहीं जानता है तो सुन । मैं मनुष्य नहीं, किन्तु विक्रियाऋद्धि का धारी देव हूँ और मेरा बल प्रचण्ड है । मेरे सामने तू मनुष्य-जाति का एक छोटा-सा कीड़ा है । तब तू विचार देख कि मेरे बल के सामने तू कहाँ तक ठहर सकेगा? इसलिए मैं तुझे समझाता हूँ कि तू व्यर्थ ही मेरे हाथों से न मर! तू तो महात्मा सुदर्शन की चिन्ता छोड़कर सुख से राज्य कर । राजा क्षत्रिय था और क्षत्रियों के अभिमान का क्या ठिकाना! उसने तब बड़े गर्व के साथ उस यक्ष से कहा । तू यक्ष है । विक्रियाऋद्धि का धारी देव है तो इसमें आश्चर्य करने की कौन बात हुई? पर साथ ही तू क्या यह भूल गया कि राजाओं के तुझसे हजारों देव नौकर हो चुके हैं । गुलाम रह चुके हैं । फिर तुझे अपने तुच्छ देवपद का इतना अभिमान? यह सचमुच बड़े आश्चर्य की बात है और तुझमें अपार बल है तो उसे बता, केवल गाल फुलाने से तो कोई अपार बली नहीं हो सकता । नहीं, तो देख, मैं तुझे अपनी भुजाओं का पराक्रम बतलाता हूँ । राजा की एक देव के सामने इतनी धीरता! यह देखकर यक्ष भी चकित रह गया । इसके बाद उसने कुछ न कहकर राजा के साथ भयंकर युद्ध छेड़ ही दिया । थोड़ी देर तक युद्ध होता रहा, परन्तु जब उसका कुछ फल न निकला तो राजा ने क्रोध में आकर यक्ष के हाथी को बाणों से खूब वेध दिया । बाणों की मार से हाथी इतना जर्जरित हो गया कि उससे अपना स्थूल शरीर सम्हाला न जा सका । वह पर्वत की तरह धड़ाम से पृथ्वी पर गिरकर धराशायी हो गया । राजा के इस बढ़े हुए प्रताप को देखकर यक्ष को बड़ा आश्चर्य हुआ । वह तब दूसरे हाथी पर चढ़कर युद्ध करने लगा । अबकी बार उसने राजा के हाथी की वैसी ही दशा कर डाली जैसी राजा ने उसके हाथी की थी । तब राजा भी दूसरे हाथी पर चढ़कर युद्ध करने लगा । और उसने यक्ष के ध्वजा-छत्र को फाड़कर हाथी को भी मार डाला । यक्ष तब एक बड़े भारी रथ पर सवार होकर युद्ध करने लगा । दोनों का बड़ा ही घोर युद्ध हुआ । दोनों अपनी-अपनी युद्ध-कुशलता और शर-निक्षेप में बड़ी ही कमाल करते थे । लोगों को उसे देखकर आश्चर्य होता था । बेचारे डरपोक-युद्ध के नाम से डरनेवाले लोगों के डर का तो उस समय क्या पूछना? वे तो मारे डर के मर जाते थे । दोनों के इस महा युद्ध में राजा ने अपने तीक्ष्ण बाणों से यक्ष के रथ को छिद्वा-भिद्वा कर डाला । यक्ष तब जमीन पर ही लड़ने लगा । अब भी उसे सुरक्षित देखकर राजा को बड़ी वीरश्री चढ़ी । उसने अपना खड्ग निकालकर इस जोर से यक्ष के सिर पर मारा कि उसका सिर भुट्टे सा दो टुकड़े होकर अलग जा गिरा । यक्ष ने तब उसी समय विक्रिया से अपने दो रूप बना लिये । राजा ने उन दोनों को भी काट दिया । यक्ष ने तब चार रूप बना लिये । इस प्रकार राजा ज्यों-ज्यों उन बहु संख्यक यक्षों को काटता जाता था, त्यों-त्यों वह अपनी दूनी-दूनी संख्या बढ़ाता जाता था । फल यह हुआ कि थोड़ी देर में सारा युद्धस्थल केवल यक्षों ही यक्षों से व्याप्त हो गया । जिधर आँख उठाकर देखो, उधर यक्ष ही यक्ष देख पड़ते थे । अब तो राजा घबराया । भय से काँपने लगा । आखिर उससे वह भयंकर दृश्य न देखा गया । सो वह युद्धस्थल से भाग खड़ा हुआ । उसे भागता देखकर वह यक्ष भी उसके पीछे-पीछे भागा और राजा से बोला । अरे! दुरात्मन्, देखता हूँ, अब तू भागकर कहाँ जाता है? जहाँ तू जाँगा, वहाँ मैं तुझे मार डालूँगा । हाँ, एक उपाय तेरी रक्षा का है और वह यह कि यदि तू महात्मा सुदर्शन की शरण जाय तो मैं तुझे जीवनदान दे सकता हूँ । इसके सिवा और कोई उपाय तेरे जीने का नहीं है । भय के मारे मर रहा राजा जब लाचार होकर सुदर्शन की शरण में पहुँचा और सुदर्शन से गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करने लगा । कि महापुरुष! मुझे बचाइए, मेरी रक्षा कीजिए । मैं अपनी रक्षा के लिए आपकी शरण में आया हूँ । यह कहकर राजा सुदर्शन के पाँवों में गिर पड़ा । सुदर्शन ने तब हाथ उठाकर यक्ष को रोका और उससे पूछा । भाई! तू कौन है और यहाँ क्यों आया? तब उस यक्ष ने सुदर्शन को बड़ी भक्ति से नमस्कार कर और बड़े सुन्दर शब्दों में उसकी प्रशंसा करना आरम्भ की । वह बोला । हे बुद्धिवानों के शिरोमणि! तू धन्य है, तू बड़े-बड़े महात्माओं का गुरु है और धीरों में महाधीर है, धर्मात्माओं में महा धर्मात्मा और गुणवानों में महान गुणी है, चतुरों में महा चतुर और श्रावकों में महान् श्रावक है । तेरे समान गम्भीर, गुणों का समुद्र, ब्रह्मचारी, लोकमान्य और पर्वत के समान अचल कोई नहीं देखा जाता । तुझे स्वर्ग के देवता भी नमस्कार करते हैं, तब औरों की तो बात ही क्या । यह तेरे ही शील का प्रभाव था, जो हम लोगों के आसन कम्पायमान हो गये । देवता आश्चर्य के मारे चकित रह गये । सारे लोक में एक विलक्षण क्षोभ हो उठा-सब घबरा गये । तू ही काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि शत्रुओं और पंचेन्द्रियों के विषयों पर विजय प्राप्त करनेवाला संसार का एक महान विजेता और दु:सह उपसर्गों को सहनेवाला महान बली है । तेरे ही शीलरूपी मन्त्र से आकृष्ट होकर यहाँ आये मैंने तेरा उपसर्ग दूर किया । मुझे भी इस महान धर्म की प्राप्ति हो, इसलिए हे धीर! हे गुणों के समुद्र! और कष्ट के समय भी क्षोभ को न प्राप्त होनेवाले । न घबरानेवाले हे सच्चे ब्रह्मचारी! तुझे नमस्कार है । उस धर्मात्मा यक्ष ने इस प्रकार सुदर्शन की प्रशंसा और पूजा कर उस पर फूलों की वर्षा की, मन्द-सुगन्ध हवा चलाई और नाना भाँति के मनोहर बाजों के शब्दों से सारा आकाश पूर दिया । इसके सिवा उसने और भी कितनी ऐसी बातें कीं जो आश्चर्य पैदा करती थीं । इन बातों से उस यक्ष ने बहुत पुण्यबन्ध किया । इसके बाद वह यक्ष अभयमती की जितनी नीचता और कुटिलता थी, वह सब राजा और सर्व साधारण लोगों के सामने प्रगट करके, तथा राजा की जितनी सेना उसकी माया से हत हुई थी, उसे जिलाकर और सुदर्शन के चरणों को बारंबार नमस्कार कर स्वर्ग चला गया । अभयमती को जब यह सुन पड़ा कि एक देवता ने सुदर्शन की रक्षा कर ली और अपनी जितनी कुटिलता और नीचता थी, उसे राजा पर प्रगट कर दिया, तब वह राजा के भय से गले में फाँसी लगाकर मर गयी । उसने पहले जो कुछ पुण्य उपार्जन किया था, उसके फल से वह पाटलीपुत्र या पटना में एक दुष्ट व्यन्तरी हुई और वह अभयमती की धाय, जो सुदर्शन को श्मशान से लाई थी, सुदर्शन के शील के प्रभाव को देखकर राजा के भय से भागकर पटना में आ गयी । वह यहाँ एक देवदत्ता नाम की वेश्या के पास ठहरी । दो-चार दिन बीतने पर उसने उस वेश्या से अपना सब हाल कहकर कहा । देखोजी, बुद्धिमान सुदर्शन बड़ा ही अद्भुत ब्रह्मचारी है! उसने कपिला-सी चतुर और सुन्दर स्त्री को झूठ-मूठ कुछ का कुछ समझकर ठग लिया । एक दिन वह ध्यान में बैठा था, उस समय मैंने अनेक विकार चेष्टाएँ कीं, तो भी मैं उसे किसी तरह ध्यान से न डिगा सकी । इसी तरह रानी अभयमती ने उस पर मोहित होकर अनेक उपाय किये और अनेक उपद्रव किये, परन्तु वह भी उसके ब्रह्मचर्य को नष्ट न कर सकी और आखिर मर ही गयी । इस प्रकार स्त्रियों द्वारा किये गये सब उपसर्गों को सहकर वह अपने शील-धर्म में बड़ा दृढ़ बना रहा । ऐसा विजेता मैंने कोई नहीं देखा । यह सुनकर दुरभिमानिनी देवदत्ता बोली । तूने कहा, यह सब ठीक ही है । क्योंकि वेश्या को छोड़कर और स्त्रियाँ उसके मन को किसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं । वह कपिला ब्राह्मणी, जो भीख माँग-माँगकर पेट भरती है, लोगों के मन को मोहनेवाले हाव-भाव-विलासों को क्या जाने? और वह सदा रनवास में रहनेवाली बेचारी रानी अभयमती स्त्रियों के दुर्धर चरित्रों, पुरुषों के लक्षणों और दासीपने के कामों को क्या समझे? इस प्रकार उन सबकी हँसी उड़ाकर मूर्खिणी देवदत्ता ने उस धाय के सामने प्रतिज्ञा की । कि देख, तुम लोगों ने भी उस धीर और नर-श्रेष्ठ को चाहा और उसे प्राप्त करने का यत्न किया, पर वह तुम्हारा चाहना और वह यत्न करना नाम मात्र का था । उसे वास्तव में मैं चाहती हूँ । मेरा उस पर सच्चा प्रेम है और इसीलिए देख, जिस तरह होगा मैं अपनी सब शक्तियों को लगाकर उसका ब्रह्मचर्य नष्ट करँगी और अवश्य नष्ट करँगी । इधर राजा, सुदर्शन के सामने अपनी निन्दा और उसकी प्रशंसा करने लगा । हे महापुरुष! तू बड़ा ही धीरजवान् है । पर्वत की धीरता को भी तूने जीत लिया । तू बड़ा शीलवान धर्मात्मा है । संसार का पूज्य महात्मा है । हे वैश्य-कुल-भूषण! मुझ अविवेकी दुरात्मा ने स्त्रियों का चरित न जानकर तेरा बड़ा भारी अपराध किया । मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि अपनी दिव्य क्षमा मुझे दान कर, मेरे सब अपराधों को तू क्षमा कर । हे संसार में श्रेष्ठता पाये हुए, हे देवों द्वारा पूजे जानेवालो और हे सच्चे सुशील! मुझे विश्वास है कि तू मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे अवश्य क्षमा करेगा । इसके सिवा मैं तुझसे एक और प्रार्थना करता हूँ । वह यह कि मैं तेरी इस दृढ़ता पर बहुत ही प्रसन्न हुआ हूँ, इसलिए मैं तुझे अपना आधा राज्य भेंट करता हूँ । तू इसे स्वीकार कर । इसके उत्तर में पुण्यात्मा सुदर्शन ने निस्पृहता के साथ कहा कि राजन्! चाहे कोई मेरा शत्रु हो या मित्र, मेरी तो उन सबके साथ पहले ही से क्षमा है । मेरा किसी पर क्रोध नहीं । सिर्फ क्रोध है तो मेरे आत्म-शत्रु क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और इन्द्रियों पर, और उन्हें नष्ट करने का मैं सदा प्रयत्न भी करता रहता हूँ । यही कारण है कि मैंने जिनभगवान का उपदेश किया हुआ और सुखों का समुद्र उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव आदि दसलक्षणरूप धर्म ग्रहण कर रखा है और इस समय जो मुझ पर उपद्रव हुए । मुझे कष्ट दिया गया, यह सब तो मेरे पूर्व पापकर्मों का उदय है । अथवा यों समझिँ कि यह भी मेरे महान पुण्य का उदय था, जो मेरे ब्रह्मचर्य-व्रत की परीक्षा हो गयी । राजन्! मेरा तो विश्वास है कि दु:ख या सुख, गुण या दुर्गुण, दूषण या भूषण, आदि जितनी बातें हैं, वे सब पूर्व कमाये कर्मों से होती हैं । उन्हें छोड़कर इन बातों को कोई नहीं कर सकता । तब मुझ पर जो उपद्रव हुए, उसमें तुम तो निमित्तमात्र हो । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं । अथवा तुम तो मेरे उपकारक हुए । क्योंकि जब मैं श्मशान भूमि से लाया गया, तब ही से मैंने नियम कर लिया था कि यदि इस घोर उपसर्ग में वध-बन्धन आदि से मेरी मौत हो जाय तब तो मैं मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए इसी समय से ही चार प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ और पूर्व पुण्य से यदि इस समय मेरी रक्षा हो जाय तो मैं फिर जिनदीक्षा अंगीकार करके ही भोजन करँगा । इसलिए हे महाराज! अब तो परम सुख का कारण जिनदीक्षा ही मैं ग्रहण करँगा । मुझे तो उस मोक्ष के राज्य का लोभ है । फिर मैं आपके इस क्षणस्थायी राज्य को लेकर क्या करँगा? इस प्रकार सन्तोषजनक उत्तर देकर सुदर्शन, राजा वगैरह के मना करने पर भी जिनमन्दिर पहुँचा । उसके साथ राजा वगैरह भी गये । वहाँ उसने विघ्नों की नाश करनेवाली और सब प्रकार का सुख देनेवाली रत्नमयी जिन प्रतिमाओं की बड़ी भक्ति से पूजावन्दना की । इसके बाद वह तीन ज्ञान के धारी और संसार का हित करनेवाले विमलवाहन मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपना मन शान्त करने के लिए उनसे धर्मोपदेश सुनने को बैठ गया । उसके साथ राजा आदि भी बैठ गये । मुनिराज ने उसे धर्मामृत का प्यासा । धर्मोपदेश सुनने को उत्कण्ठित देखकर धर्मवृद्धि दी और इस प्रकार धर्मोपदेश करना शुरु किया । सुदर्शन! तू बुद्धिमान् है और इसीलिए मैं तुझे मोक्षसुख देनेवाले जिस मुनिधर्म का उपदेश करँ, उसका स्वरूप समझकर तू उसे ग्रहण कर । उस धर्म की कल्पवृक्ष के साथ तुलना कर मैं तुझे स्पष्ट समझा देता हूँ । जरा ध्यान से सुन । इस धर्म से तेरे सब उपद्रवक ष्ट नष्ट होंगे और शिव-सुन्दरी की तुझे प्राप्ति होगी । इसमें किसी तरह का सन्देह नहीं है । जैसे वृक्ष का मूल भाग होता है, वैसे इस धर्मरूपी कल्पवृक्ष का मूल है क्रोधादि से नष्ट न होनेवाली पृथ्वी समान श्रेष्ठ क्षमा । वृक्ष पानी से सींचा जाता है और यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष उत्तम मार्दवरूपी अमृत भरे घड़ों से, जो सारे जगत को सन्तुष करते हैं, सींचा जाकर प्रतिदिन बढ़ता है । वृक्ष के चारों ओर चबूतरा बना दिया जाता है, इसलिए कि वह हवा वगैरह के धक्कों से न गिरेप ड़े और यह धर्मरूपी वृक्ष उत्तम आर्जवरूपी सुदृढ़ चबूतरे से युक्त है, इसलिए इसे माया-प्रपंच की प्रचण्ड वायु तोड़-मोड़ नहीं सकती । यह सदा एक सा स्थिर बना रहता है । वृक्ष के स्कन्ध होता है और यह धर्म-कल्पवृक्ष सत्यरूपी स्कन्धवाला है, जिसे सब पसन्द करते हैं और इसी कारण यह असत्यरूपी कुठार से काटा न जाकर बड़ा मजबूत हो जाता है । वृक्ष के डालियाँ होती हैं और उनसे वह बहुत विस्तृत हो जाता है । यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष निर्लोभतारूप डालियों से शोभित है; और इसीलिए फिर इसका लोभरूपी भील आश्रय नहीं ले पाते । यह चारों ओर खूब बढ़ जाता है । वृक्ष, पत्तों से युक्त होकर लोगों के गर्मी का कष्ट दूर करता है और यह धर्म-कल्पवृक्ष दो प्रकार संयमरूप पत्तों से, जो सत्पुरुषों का संसार-ताप मिटाते हैं, युक्त है । इसे असंयमरूपी वायु का वेग कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता । यह सदा सघन और शीतलता लिए रहता है । वृक्ष फूलों से युक्त होता है और यह धर्मक ल्पवृक्ष बारह प्रकार तपरूपी सुगन्धित फूलों से शोभित है । संसार का आताप मिटानेवाला है और सबको प्रिय है । वृक्ष परिग्रह फलों का त्याग करता है और क्यारी में आये दान-पानी की अपनी वृद्धि के लिए रक्षा करता है और धर्म-कल्पवृक्ष परिग्रह । धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चाँदी आदि का त्याग करता है और आहार, औषधि, अभय और ज्ञान, इन चार प्रकार के दानों की रक्षा करता है । इन दानों को देता है । इसलिए वह तबतक बढ़ता ही जाता है, जबतक कि मोक्ष न प्राप्त हो जाय । वृक्ष ऋतु का सम्बन्ध पाकर फलते हैं और उन फलों को लोगों को देते हैं; और धर्मक ल्पवृक्ष आ्रुचन्य-परिग्रहरहितपनारूप ऋतु का सम्बन्ध पाकर निर्ममत्व-भाव से लोगों को स्वर्ग-मोक्ष का फल देता है । वृक्ष अपने स्थूल शरीर से बढ़कर परिपूर्णता लाभ करता है और मनचाहे सुन्दर फलों को देता है और धर्म-कल्पवृक्ष ब्रह्मचर्यरूपी तेजस्वी शरीर से बड़ा होकर परिपूर्णता लाभ करता है और धर्मात्माओं को सर्वार्थसिद्धि आदि का सुख देता है । सुदर्शन! इस प्रकार उत्तम क्षमादि, दसलक्षणमय धर्म-कल्पवृक्ष का तुझे मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिए सेवन करना चाहिए । यह मोह संसार के जीवों को महान कष्ट देनेवाला है । इसलिए वैराग्य-खड्ग से इसे मारकर पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और मुनियों के मूलगुण तथा उत्तरगुण, इसके सिवा रत्नत्रय आदिक तप,जो धर्म के मूल हैं, इन सबको तू धारण कर । यह यतिधर्म महान सुख का कारण है । मैं चाहता हूँ कि तुझसे बुद्धिमान धर्म को सदा धारण करें । उसका आश्रय लें । धर्म के द्वारा मोक्षमार्ग का आचरण करें । धर्म प्राप्ति के लिए दीक्षा लें । तुझे खूब याद रखना चाहिए कि एक धर्म को छोड़कर कोई तुझे मोक्ष का सुख प्राप्त नहीं करा सकता । इसलिए तू धर्म के मूल को प्राप्त करने का यत्न कर । धर्म में सदा स्थिर रह और धर्म से यह प्रार्थना कर कि हे धर्म! तू मुझे मोक्ष प्राप्त करा । क्योंकि यही धर्म इन्द्र, चक्रवर्ती आदि का पद और मोक्ष का देनेवाला है, अनन्त गुणों का स्थान और संसार का भ्रमण मिटानेवाला है, पापों का नाश करनेवाला और सब सुखों का देनेवाला है, दु:खों का नाशक और मनचाही वस्तुओं को देनेवाला है । इस धर्म को बड़े आदर से मैं स्वीकार करता हूँ । वह मुझे मोक्ष का सुख दे । |