कथा :
मैं सुख-मोक्ष प्राप्ति के लिए पाँचों परमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ । वे धर्मतीर्थ के चलानेवाले, जगत्पूज्य और सब सुखों के देनेवाले हैं । सुदर्शन, विमलवाहन मुनिराज के मुख-चन्द्रमा से झरा धर्मामृत पीकर बहुत सन्तुष्ट हुआ । इसके बाद उसने उनसे पूछा । योगीराज! मैं जानता हूँ कि स्नेह-प्रेम धर्म में बाधा करनेवाला है, पर तो भी न जाने क्यों मनोरमा पर मेरा अधिक प्रेम है? इसका कारण कृपाकर आप बतलाइए और यह भी बतलाइए कि मैं किस पुण्य के उदय से ऐसा धनी, सुन्दर और कामदेव-पद का धारी हुआ? सुदर्शन के इस प्रश्न को सुनकर मुनिराज ने अपनी दिव्य वाणी द्वारा पुण्य-पाप का फल बतलाते हुए यों कहना आरम्भ किया । इसलिए कि उससे भव्यजनों का उपकार हो । सुदर्शन! तेरी पूर्व जन्म की कथा बड़ी ही वैराग्य पैदा करनेवाली है, इसलिए तू उसे जरा सावधान मन से सुन । (राजा वगैरह की ओर इशारा करके) और आप लोग भी जरा अपने मन को इधर लगावें । ''इस भरतक्षेत्र में बसे हुए आर्यखण्ड में बन्ध्य नाम का एक प्रसिद्ध देश है । धर्म-साधन और सुख-साधन के कारणों से वह युक्त है । उसमें काशीकोशल नाम का एक बड़ा ही सुन्दर नगर था । उसके राजा का नाम भूपाल था । भूपाल की रानी का नाम वसुन्धरा था । उनके एक पुत्र था । उसका नाम था लोकपाल । वह बड़ा प्रतापी था । एक दिन राजा राजसभा में सिंहासन पर बैठे हुए थे । उनके पास उनका पुत्र लोकपाल तथा मन्त्री आदि भी बैठे हुए थे । इतने में राजमहल के खास दरवाजे पर राजा ने प्रजा के कुछ लोगों को कष्ट से रोते-गुहार मचाते हुए देखा । देखकर राजा ने अपने पास ही बैठे हुए अनन्तबुद्धि मन्त्री को पूछा । देखो तो ये लोग ऐसे क्यों चिल्ला रहे हैं? अनन्तबुद्धि ने राजा से कहा । महाराज! यहाँ से दक्षिण की ओर विन्ध्यगिरि नाम का एक विशाल पर्वत है । उसमें व्याघ्र नाम का एक भीलों का राजा रहता है । उसकी स्त्री का नाम कुरंगी है । वह राजा बड़ा दुष्ट है । सदा प्रजा को कष्ट दिया करता है । उस कष्ट को दूर करने के लिए प्रजा आपसे प्रार्थना करने को आयी है । यह सुनकर राजा ने उसी समय सेनापति अनन्त को फौज लेकर उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी । सेनापति बड़ी भारी सेना लेकर विन्ध्यगिरि पर पहुँचा । भीलराज के साथ उसका घोर युद्ध हुआ । परन्तु पाप का उदय होने से जयलक्ष्मी अनन्त को न मिलकर भीलराज को मिली । भीलराज के इस प्रकार बलवान होने की जब भूपाल को खबर मिली तो इस बार वे स्वयं युद्ध हेतु जाने को तैयार हुए । पिता की यह तैयारी देखकर उनके पुत्र लोकपाल ने उन्हें रोककर स्वयं संग्राम के लिए भीलराज पर जा चढ़ा । दोनों का बड़ा भारी युद्ध हुआ । राजकुमार लोकपाल ने अपने तीक्ष्ण बाणों से भीलराज को मारकर विजयलक्ष्मी प्राप्त की । इधर भीलराज पाप के उदय से बड़े बुरे भावों से मरकर वत्सदेश के किसी छोटे गाँव में कुत्ता हुआ । वहाँ से वह एक ग्वालिन के साथ-साथ कौशाम्बी में आ गया । वहाँ वह एक जिनमन्दिर के मुहल्ले में रहने लगा । पाप के उदय से वहाँ से मरकर वह चम्पानगरी में प्रियसिंह और उसकी स्त्री सिंहनी के लोध नाम का पुत्र हुआ । अशुभ कर्मों के उदय से उसके माता-पिता बालपन में ही मर गये । वह अनाथ हो गया । कोई इसकी साल-सम्हाल करनेवाला न रहा । मातृ-सुख रहित होकर, भूख-प्यास का उसने बहुत कष्ट सहा । अन्त में अशुभ कर्म ने उसे भी माता-पिता का साथी बना दिया । इसी चम्पानगरी में एक महा धनी वृषभदास सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम जिनमती था । उनके यहाँ एक ग्वाल था । वह बड़ा खूबसूरत था-भव्य था । बड़ा सीधा-साधा और बुद्धिमान था । वह ग्वाल उसी लोध का जीव था । एक दिन सूर्य के अस्त होने का समय था । सर्दी खूब पड़ रही थी । उस समय वह ग्वाल अपने घर पर आ रहा था । रास्ते में उसे एक चौराहा पड़ा । वहाँ उसने एक मुनिराज ध्यान करते देखे । वे अनेक ऋद्धियों से युक्त थे । उस समय एकत्वभावना का विचार कर रहे थे । आत्मध्यान से उत्पन्न होनेवाले परम सुख में वे लीन थे । महा धीर-वीर थे । एकाविहारी थे । ध्येय उनका था केवल मुक्ति-प्रिया की प्राप्ति । वे राग-द्वेष से रहित थे । धर्मध्यान और शुक्लध्यान के द्वारा अपने हृदय को उन्होंने दोनों ध्यानमय बना लिया था । दोनों प्रकार के परिग्रह से वे रहित थे । द्रव्यकर्म और भावकर्म, इन दोनों कर्मों के नाश करने के लिए उनका पूर्ण प्रयत्न था । वे रत्नत्रय से भूषित थे । माया, मिथ्या और निदान इन तीन प्रकार के शल्य से रहित थे । वे तीनों बार सामायिक करते थे, त्रिकालयोग धारण करते थे और सबके उपकारी-हितैषी थे । क्रोध, मान, माया, लोभरूपी चारों शत्रुओं के नाश करनेवाले और चारों आराधनाओं की आराधना करनेवाले थे, पंचास्तिकाय के जाननेवाले और पाँचवीं सिद्धगति का ध्यान करनेवाले थे । पाँचों परमेष्ठियों की सेवा करनेवाले और पाँचों इन्द्रियों के विषयों के घातक थे । छहों द्रव्यों के स्वरूप को अच्छे जाननेवाले और छहों प्रकार के जीवों की रक्षा करनेवाले थे । मुनियों के सामायिकादि छह आवश्यक हैं, उनके करनेवाले और छहों अनायतन । कुदेव-कुगुरु-कुधर्म की सेवा और उनके माननेवालों की प्रशंसा, इनसे रहित थे । सातों तत्त्वों के स्वरूप के जाननेवाले और सातों भयों से रहित थे । सातवें गुणस्थान के धारी और सातों ऋद्धियों को प्राप्त करनेवाले थे । आठ कर्मरूपी शत्रुओं के घातक और सिद्धों के आठ गुणों के चाहनेवाले थे, आठवीं पृथ्वी-मोक्ष के मार्ग में स्थित थे । नौ पदार्थों के सार को जाननेवाले और ब्रह्मचर्य की नौ बाढ़-दोषों से रहित थे । उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों के पालनेवाले और दस प्रकार के ध्यान में अपने मन को लगानेवाले थे । ग्यारह प्रतिमाओं का श्रावकों को उपदेश करनेवाले और बारह प्रकार के तप के करनेवाले महान साधु थे । तेरह प्रकार चारित्र के पालनेवाले और चौदह गुणस्थान, चौदह जीव समासों के जाननेवाले थे । पन्द्रह प्रकार के प्रमाद रहित और सोलहकारण भावनाओं के भानेवाले थे । हृदय के वे बड़े पवित्र थे । निस्पृह थे । वनवासी थे । भव्यजनों का हित करने के लिए वे सदा तत्पर रहते थे । उनके चरणकमलों की सब पूजा करते थे-उन्हें सब मानते थे । इन गुणों के सिवा उनमें और भी अनन्त गुण थे । शील के वे समुद्र थे, परम धीरजवान थे और सर्दी से जैसे वृक्ष जलकर विवर्ण हो जाता है, वैसे ही वे हो रहे थे । उन परम तपस्वी योगिराज को देखकर उस ग्वाल को बड़ी दया आयी । उसने अपने मन में कहा । अहा, ऐसी जोर की सर्दी और ओस गिर रही है और इनके पास कोई वस्त्र नहीं, तब ये सारी रात कैसे बितावेंगे? मेरे पास ज्यादा वस्त्र नहीं जो उन्हें ओढ़ाकर इनकी ठण्ड वगैरह से रक्षा कर दूँ । तब क्या करँ, कुछ सूझ नहीं पड़ता । इसके बाद ही उसे एक उपाय सूझ गया । वह मुनिभक्ति के वश होकर उसी समय अपने घर जाकर लकड़ियों का एक भारी गट्ठा बाँध लाया और साथ में थोड़ी सी आग भी लेता आया । मुनिराज के पास उसने आग जलायी, जिससे उन्हें उसकी गर्मी पहुँचती रहे । और आप उनके पाँवों के पास बैठकर थोड़ी-थोड़ी लकड़ी उस आग में जलाता गया । इसी तरह करते उसे सारी रात बीत गयी । ग्वाल ने मुनिराज की शीत-बाधा अवश्य दूर की, पर इससे वे खुश हुए हों, सो नहीं । कारण कि चाहे दु:ख हो या सुख, वीतरागी मुनियों को उसमें न द्वेष होता है और न प्रेम होता है । उनके लिए तो दोनों दशा एकसी होती हैं । दोनों में उनके समभाव होते हैं और ऐसे ही मुनि कर्मों का नाश कर सकते हैं । जो दु:खों से डरकर सुख की चाह करते हैं, वे कभी कर्मों का नाश नहीं कर सकते । सूर्योदय हुआ । योगिराज ने उस ग्वाल को भव्य समझकर हाथ के इशारे से उठाया और इस प्रकार धर्मोपदेश दिया । ''वत्स, मैं तुझे जो कुछ कहूँ, उसे सावधानी से सुनकर उस पर चलने का यत्न करना । उससे तुझे बहुत कुछ लाभ होगा । देख! तू जो कुछ काम करे, वह फिर छोटा हो या बड़ा, उसे शुरु करने के पहले तू 'णमो अरिहंताणं' इस मन्त्र को एक बार याद कर लिया करना । इस महामन्त्र में अरहन्त भगवान को नमस्कार किया है । इससे तू जो चाहेगा, वही तुझे प्राप्त होगा ।'' इस प्रकार उस ग्वाल को समझाकर और उस पर उसका विश्वास हो । प्रेम हो, इसके लिए आप स्वयं भी 'णमो अरिहंताणं' कहकर वे आकाश में गमन कर गये । उन्हें आकाश में जाते देखकर उसने समझा मुनिराज इसी मन्त्र के प्रभाव से आकाश में चले गये । मन्त्र के इस साक्षात् फल को देखकर वह बड़ा खुश हुआ । उसने तब मन में विचारा । अहा, जैसे ये मुनिराज इस महामन्त्र के उच्चारण मात्र से ही आकाश में चले गये, वैसे मैं भी तब इस मन्त्र की शक्ति से आकाश में उड़ सकूँगा । इस विचार ने उसके कोमल-सरल हृदय में मन्त्र जपने की पवित्र श्रद्धा को खूब ही बढ़ा दिया । इसके बाद वह इस मन्त्र का ध्यान करता हुआ अपने घर पहुँचा । अब से वह जो कुछ भी काम करता, उसके पहले इस मन्त्र का स्मरण कर लिया करता था । इस प्रकार मन्त्र का स्मरण करते देखकर एक दिन उसके मालिक वृषभदास ने उससे पूछा । क्यों रे, तू जो रोज-रोज 'णमो अरिहंताणं' इस मन्त्र का स्मरण किया करता है, इसका क्या कारण है? ग्वाले ने तब मुनिराज की शीत बाधा का दूर करना और उनके द्वारा अपने को मन्त्र-लाभ होना आदि, सब बातें आदि से इतिपर्यन्त सेठ को सुना दीं । सुनकर सेठ बड़े खुश हुए और उन्होंने उसकी प्रशंसा कर कहा । भाई! तू धन्य है । तेरा यह धर्म-प्रेम देखकर मुझे बड़ी खुशी हुई । इस मन्त्र-लाभ से तेरा जन्म सफल हो गया । इस मन्त्र के जपने से तू दोनों लोक में सुख लाभ करेगा । तुझे उत्तम गति प्राप्त होगी । इस प्रकार सेठ ने उसकी प्रशंसा कर बड़े प्रेम से उसे भोजन कराया और अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण उपहार दिए । सच है धर्म का जब इस लोक में भी महान फल मिलता है । धर्मात्मा पुरुष लोगों द्वारा आदर-सत्कार, पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं, तब परलोक में वे धर्म के फल से धन-दौलत, राज्य-वैभव, स्वर्ग-मोक्ष आदि का सुख प्राप्त करें तो इसमें आश्चर्य क्या? एक दिन वह ग्वाल भैंसें चराने को जंगल में गया था । किसी मनुष्य ने आकर उससे कहा । भाई! तेरी भैंसें तो गंगा के उस पार चली गयीं । यह सुनकर वह उन्हें लौटाने को दौडा और उस महामन्त्र का स्मरण कर झट से नदी में कूद पड़ा । जहाँ वह कूदा, वहाँ एक तीखा लकड़ा गड़ा हुआ था । सो उसके कोई ऐसा पाप का उदय आया कि उससे उसका पेट फट गया । मरते हुए उसने निदान किया । इस महामन्त्र के फल से मैं इन सेठ के यहीं पुत्रजन्म लूँ! वह मरकर फिर उस निदान के फल से तू अत्यन्त सुन्दर कामदेव हुआ । सुदर्शन! यह कामदेवपना, यह अलौकिक धीरता, यह दिव्य रूप-सुन्दरता, यह मान-मर्यादा, यह अनन्त यश, ये उत्तम उत्तम गुण और यह एक से एक बढ़कर सुख आदि जितनी बातें तुझे प्राप्त हैं, वे सब एक इसी महामन्त्र का फल है । सुदर्शन, इस अरहन्त भगवान के नाम-स्मरणरूप महामन्त्र के प्रभाव से अरहन्तों की श्रेष्ठ विभूति प्राप्त होती है, और शुद्ध सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का लाभ होकर जगत्पूज्य मुक्ति प्राप्त होती है । तीन लोक की लक्ष्मी इस मन्त्र का ध्यान करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों की दासी हो जाती है । इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती, बलभद्र आदि जितने महान पद हैं, वे सब इस मन्त्र का स्मरण करनेवाले बड़ी आसानी से लाभ करते हैं । धर्मात्मा पुरुषों को स्वर्ग या चक्रवर्ती आदि की सम्पत्ति बड़ी उत्कण्ठा के साथ बरती है । विघ्न, दुष्ट राजा, भूत-पिशाच, शाकिनीडाकिनी आदि के द्वारा दिये गये कष्ट-वगैरह, मन्त्र से कीले हुए सर्प की तरह सत्पुरुषों को कभी नहीं सता सकते । अनेक प्रकार की तकलीफें देनेवाले महापाप इस मन्त्र की आराधना करनेवाले के इस तरह नष्ट होते हैं, जैसे सूर्य से अन्धकार । सोना जैसे आग से शुद्धि लाभ करता है, उसी तरह जो लोग पापी हैं । कलंकित हैं, वे इस मंत्र के ध्यानरूपी अग्नि से परम शुद्धि लाभ करते हैं । इस मन्त्र के प्रभाव से शत्रु मित्र बन जाते हैं; दुष्ट, क्रूर, भूति पशाच आदि वश हो जाते हैं; भयंकर सर्प गले का हार हो जाता है, कितना ही तेज विष क्यों न हो, वह फौरन उतर जाता है और तलवार फूलों की माला हो जाती है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । इस महामन्त्र की शक्ति से विपत्तियाँ सम्पत्ति के रूप में और दु:ख सुख के रूप में परिणत हो जाय और सिंह, व्याघ्र आदि भयंकर जीव वश हो जाँए । यह सहज है । इस मन्त्र का प्रभाव तो देखिए, जिन्होंने जीवन भर सातों व्यसनों का सेवन किया; हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों को किया, वे लोग भी इस मन्त्र के स्मरण से । केवल मृत्यु समय प्राप्त हुए मन्त्र का ध्यान कर स्वर्ग गये । सुदर्शन! यह मन्त्र कल्पना के अनुसार समस्त सुख देनेवाला है, इसलिए कल्पवृक्ष है । चिन्तित वस्तु का देनेवाला है, इसलिए अमोल चिन्तामणि है । सब भोगोपभोग की सामग्री का देनेवाला है, इसलिए अक्षय निधि है और कामना किये हुँ अर्थ का देनेवाला है, इसलिए कामधेनु है । जैसे परमाणु से कोई छोटा नहीं और आकाश से कोई बड़ा नहीं, उसी भाँति इस महामन्त्र के समान संसार में कोई मन्त्र नहीं, जो सब सिद्धियों का देनेवाला हो । क्षुद्र विद्या और स्तम्भनादिक जितने मन्त्र यन्त्र हैं, सब इस अरहन्त भगवान के ध्यानरूप मन्त्र के प्रभाव से बे-काम के हो जाते हैं । इस मन्त्र के प्रभाव से वश हुई मुक्तिश्री उस धर्मात्मा को, जिसने इस मन्त्र की आराधना की है, कन्या की तरह स्वयं वरती है । अपना स्वामी बनाती है । इस मन्त्र का ध्यान करनेवाला अर्थात् मन्त्र के विषयभूत पंच परमेष्ठी जिस आत्मा का ध्यान करते हैं, वैसे ही अपने निज आत्मा का ध्यान करनेवाला अवश्य मोक्ष जाता है । तब स्वर्ग की देवकुमारियाँ उस पुरुष को चाहें तो इसमें आश्चर्य क्या । तात्पर्य यह कि इस मन्त्र का मुख्य फल मोक्ष है और स्वर्गीय सुखों का प्राप्त होना गौण फल है । मेरी समझ के अनुसार इस परममन्त्र का जो प्रभाव है, उसे पूर्णपने यदि कोई कह सकते हैं, तो वे केवली भगवान; और कोई कहने समर्थ नहीं । सुदर्शन! इस मन्त्र के 'अरहन्त' पद में एक और विशेषता है । वह यह कि इसमें पाँचों ही परमेष्ठी गर्भित हैं । सकल परमात्मा अरहन्त भगवान तो सिद्ध हैं, वे पंचाचार का उपदेश देते हैं, इसलिए आचार्य हैं, दिव्यध्वनि द्वारा सब पदार्थों का स्वरूप कहते हैं, इसलिए उपाध्याय हैं और मुक्तिरूपी स्त्री की साधना करने से परम साधु हैं । इस प्रकार पाँचों परमेष्ठी के सब गुणों से युक्त यह मन्त्र सब मन्त्रों का महान मन्त्र है । इसकी उपमा को कोई मन्त्र नहीं पा सकता । ऐसे महामन्त्ररूप अरहन्त पद का ध्यान करने से यह सब सिद्धियों को देता है । क्योंकि इसका ध्यान करने से पाँचों ही परमेष्ठी का ध्यान हो जाता है । सुदर्शन! जो मोक्ष के सुख की इच्छा करते हैं, उन्हें इस अरहन्त भगवान के उच्च गुणस्वरूप और सत्य के प्राप्त करानेवाले नमस्कार-गर्भित पवित्र मन्त्र का मनवचन- काय के योगपूर्वक सब अवस्थाओं में । सुख में, दु:ख में, भय में, रास्ते में, समुद्र में, घोर युद्ध में, पर्वत में, आग लगने पर, या आग के और कोई उपद्रव में, सोते समय, सर्प-व्याघ्र आदि हिंसक जीवों द्वारा किये गये कष्ट में, चोरों के उपद्रव में, असाध्य रोग में, मृत्यु के समय, या और किसी प्रकार के कष्ट या विघ्नों के उपस्थित होने पर ध्यान करना चाहिए । यह महान मन्त्र है, इसका प्रभाव सबसे बढ़ा चढ़ा है । अरहन्त भगवान के सब उच्च गुण इसमें समाये हुए हैं । यह सत्य का प्राप्त करानेवाला है । इसलिए पापों का नाश और मोक्ष का सुख प्राप्त करने के लिए इस मन्त्र को हृदय से और वचन से कभी न भुलाना चाहिए । प्रतिदिन इसका ध्यान-आराधन करते रहना उचित है । कर्तव्य है । इस मन्त्र के वाच्यभूत अरहन्त को जो जीव द्रव्य-गुण और पर्यायरूप से जानता है, वह अपनी आत्मा को जानता है और अपनी आत्मा को जाननेवाले उस भव्यजीव के दर्शनमोह नष्ट हो जाता है; निकट काल में ही स्वरूपसाधना की पूर्णता कर वह मुक्तिश्री का वरण करता है । जब तक मुक्तिश्री का वरण न हो, तब तक उस ज्ञानी धर्मात्मा को सातिशय पुण्य के प्रभाव से लौकिक समृद्धियाँ तो सहज ही प्राप्त हो जाती हैं, किन्तु उस ज्ञानी की दृष्टि में उस पुण्यभाव और पुण्यकर्म का तथा उनसे प्राप्त भोगोपभोग का कोई मूल्य नहीं होता, वह तो उन सबसे पार निज शुद्धात्मतत्त्व की भावना में ही वृद्धि करते हुए भवसागर से पार हो जाता है । इस मन्त्र का ऐसा उत्कृष्ट माहात्म्य सुनकर सुदर्शन, राजा और प्रजाजन बड़े खुश हुए और सभी ने यथाशक्ति इस मन्त्र के स्मरण की प्रतिज्ञा अंगीकार की । मुनिराजश्री ने आगे कहा । सुदर्शन! पूर्व भव में तुम्हारी जो कुरंगी नाम की स्त्री थी, वह बुरे परिणामों से मरकर बनारस में भैंस हुई । उस पर्याय में उसने बड़ी-बड़ी तकलीफें उठायीं । तिर्यंचगति के दुस्सह दु:खों को चिर काल तक भोगा । फिर जब उसका पापकर्म कुछ हल्का हुआ तो वह वहाँ से मरकर इसी चम्पानगरी में साँवल नाम के धोबी की स्त्री यशोमती के वत्सिनी नाम की पुत्री हुई । काललब्धि से एक दिन उसे आर्यिकाओं का संघ मिल गया । उसने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उन सब आर्यिकाओं की वन्दना की । संघ की प्रधान आर्यिका को उसकी दशा पर बड़ी दया आयी । उसने इससे कहा । बेटा! तुझे धर्म के ग्रहण करने का सम्बन्ध अब तक न मिला । देख, यह उसी पाप का फल है जो तू ऐसे दरदि्र, मदिरा-माँस खानेवाले और पाप के कारण नीच कुल में पैदा हुई । इसलिए अब तुझे उचित है कि तू इस पवित्र धर्म को ग्रहण करे, जिससे तुझे इस भव में सुख-सम्पत्ति और परभव में अच्छी गति, अच्छा कुल और रूप-सौभाग्य प्राप्त हो । उस धर्म का संक्षेप स्वरूप है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, इन बारह व्रतों का पालना, रात में भोजन का त्याग करना, उपवास करना, दान देना, पंच नमस्कार मन्त्र की आराधना करना और जैनधर्म पर विश्वास करना । इन पवित्र आचार-विचारों से तुझे धर्म की प्राप्ति हो सकेगी । आर्यिका के उपदेश पर उसकी बड़ी श्रद्धा हो गयी । उसने उसके उपदेशानुसार माँस-मदिरा आदि का खाना छोड़ दिया, त्रस जीवों की हिंसा करनी छोड़ दी और अपने अनुकूल व्रतों को ग्रहण कर वह अब उन आर्यिकाओं के ही साथ रहने लगी । सुदर्शन! उनके साथ रहकर उसने जो पवित्रता प्राप्त की, उससे और व्रतपालन से उसे जो पुण्यबन्ध हुआ उसके प्रभाव से वह शुभ परिणामों से मरकर यह तेरी रूप-सौभाग्यवती और बड़ी धर्मशील स्त्री मनोरमा हुई है और यही कारण है कि इसका तुझ पर और तेरा इस पर अत्यधिक प्रेम है । सुदर्शन! ये प्रेम, मित्रता, शत्रुता आदि जितनी बातें हैं, वे सब पूर्व जन्म के संस्कार से हुआ करती हैं, इसलिए बुद्धिमानों को इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं । इस प्रकार विमलवाहन मुनिराज के मएुह से सुदर्शन अपने पुण्य-पाप के फलरूप पूर्व जन्मों का वर्णन सुनकर संसार-दु:ख के कारण पापाचरण से भयभीत हो गया और इसीलिए वह जिनदीक्षा लेने को तैयार हो गया । एक ग्वाल ने । क्षुद्र कुल में जन्में मनुष्य ने 'णमो अरिहंताणं' इस मन्त्र की आराधना की । उसके प्रभाव से वह बड़ा भारी सेठ हुआ, गुणी हुआ, महान धीरजवान् हुआ, चरमांगधारी । उसी भव से मोक्ष जानेवाला हुआ; और अन्त में मोक्ष प्राप्ति के कारण वैराग्य को प्राप्त होकर मुनि हो गया । तब भव्यजनों, तुम भी इस महान पंच नमस्कार-मन्त्र का मनोयोगपूर्वक ध्यान करो, जिससे तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सके । उन अरहन्त भगवान को, जो संसार के बुद्धिमानों द्वारा पूज्य और इन्द्रिय तथा मोक्ष सुख के देनेवाले हैं, उन सिद्ध भगवान को, जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि आठ गुणों के धारक और शरीररहित हैं, उन आचार्य को, जो सदा पंचाचार के पालने में तत्पर रहते हैं, उन उपाध्याय को, जो पठन-पाठन में लगे रहते हैं और उन साधु को, जो निस्पृही और परम वीतरागी हैं, मैं नमस्कार करता हूँ । वे मुझे अपने-अपने गुण प्रदान करें । |