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सुदर्शन की तपस्या

  कथा 

कथा :

जिन्हें इन्द्र,धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आदि संसार के महापुरुष पूजते हैं, और जो संसार-समुद्र में बहते हुए, अवलम्बन रहित निराधार प्राणियों को सहारा देकर पार करते हैं । सब सुखों को देते हैं, उन पाँचों परमेष्ठियों को मैं श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ ।

विमलवाहन मुनिराज के द्वारा अपने और मनोरमा के भवों का वर्णन सुनकर सुदर्शन संसार-भ्रमण के कारण पर यों विचार करने लगा । संसार बड़ा ही दुर्गम है, महा भयानक है । इसमें सुख का नाम भी नहीं; किन्तु यह उल्टा अनन्त दु:खों से परिपूर्ण है । तब सत्पुरुष इससे कैसे प्रेम कर सकते हैं । पाप-कर्मरूपी साँकल से बंधे और विषयरूपी शत्रुओं से ठगे गये प्राणी धर्म-कर्म रहित हो अनादि काल से इसमें घूमते-फिरते हैं, पर अबतक वे इसके पार न हुए । इसमें भ्रमण करानेवाले पापकर्म जीवों के लिए बड़े ही अनर्थ के करनेवाले हैं । इन संतति-क्रम से चले आये कर्मों का कारण मिथ्यात्व है । वह मोक्षमार्ग का नष्ट करनेवाला और महान दु:खों का देनेवाला है । उसे सहसा छोड़ देना बड़ा ही कठिन है । उसके पाँच भेद हैं । एकान्त, विनय, विपरीत, सांशयिक और अज्ञान । ये पाँचों ही मिथत्व महानिंद्य हैं, हलाहल विष हैं । इनके सम्बन्ध से संसार बढ़ता है, पाप बढ़ता है और अनन्त दु:ख उठाने पड़ते हैं । इसलिए जो धर्मात्मा हैं, धर्म-लाभ चाहते हैं, उन्हें सम्यक्त्व ग्रहण कर इस मिथ्यात्व शत्रु का नाश कर देना चाहिए । नहीं तो इस मिथ्यात्व से उनके धर्माचार-दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि गुण, जो संसार के उत्तमोत्तम सुख के कारण हैं, जहर से नष्ट होनेवाले दूध की भाँति बहुत शीघ्र नष्ट हो जाँएगे । कारण यह मिथ्यात्व-शत्रु बड़ा ही दुर्जय है, पाप का समुद्र है, संसार को दु:ख देनेवाला है । इसे तो नष्ट करने में ही आत्म-हित है ।

इसके सिवा पाँच इन्द्रिय और मन इन छहों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति और पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस, इन छहों प्रकार के जीवों की प्रमाद से विराधना-हिंसा, ये बारह अव्रत कहे जाते हैं । ये पाप के खान हैं और संसार के बढ़ानेवाले हैं । इसलिए जो अपना आत्महित चाहते हैं, उन्हें व्रत, संयम आदि के द्वारा इन अव्रतों को छोड़ने का यत्न करना चाहिए ।

संसार के बढ़ानेवाले पाँचों इन्द्रियों के विषय भी हैं । सो जो सच्चे सुख की इच्छा करते हैं, वे इन विषयरूपी चोरों को वैराग्य की रस्सी से खूब मजबूत बाँधकर तप-क्लेशरूपी कैदखाने में डाल देते हैं । फिर वे इनको कुछ हानि नहीं पहुँचा सकते । और जो बेचारे इन महान धूर्तों के फन्दे में फंस जाते हैं, उनकी सब विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है । फिर वे स्त्रियों के साथ विषय-भोगों में, जो अनन्त दु:खों के देनेवाले हैं, सुख देखने लगते हैं । पर असल में ये विषयभोग बड़े दुष्ट हैं, धूर्त हैं और संसार को धोखे में डालनेवाले हैं । इसलिए मुमुक्षुओं को चाहिए कि वे व्रत-धर्मरूपी तलवार से शत्रुओं की भाँति इन्हें नष्ट करने का यत्न करें । जो जड़ हैं । जिन्हें हिताहित का ज्ञान नहीं, वे ही इन पाप के समुद्र, अशुभ, और अन्त में अत्यन्त तीव्र दु:ख के देनेवाले और दु:ख के मूल कारण विषयभोगों को भोगते हैं । जिन विषयों को पशु म्लेच्छ आदि भोगते हैं, उन्हें बुद्धिमान लोग कैसे अच्छे समझें । उनमें सिवा अपने और स्त्रियों के शरीर नष्ट होने, शक्ति नष्ट होने और दु:ख होने के, कुछ लाभ नहीं । इन विषयों का सेवन तो किया जाता है काम-शान्ति के लिए, पर ज्यों-ज्यों वे भोगे जाते हैं, त्यों-त्यों कामाग्नि शान्त न होकर उल्टी अधिक-अधिक बढ़ती जाती है । तब बुद्धिमानों को यह समझकर, कि ये विषय सर्व अनर्थों के करनेवाले और बड़े दुष्ट हैं, इनके छोड़ने का यत्न करना चाहिए । जैसे कि रोग के मिटाने का यत्न किया जाता है । जिस संसार में सुख समझकर विषयी मूर्ख लोग शरीर द्वारा विषयों का सेवन करते हैं, वह संसार महानिंद्य है, तमाम अपवित्रताओं का स्थान है । और यह शरीर भी महा बुरा है, एक गिरी-पड़ी झोपड़ी के समान है । इसमें भूख-प्यासरूपी आग जल रही है । काम, क्रोध, लोभ, मान, मायारूपी भयंकर सर्पों ने अपने रहने का इसे बिल बना लिया है और एक ओर धर्म-रत्न के चुरानेवाले पंचेन्द्रियरूपी चोरों ने इसमें अपना डेरा डाल रखा है । तब ऐसी जगह कौन बुद्धिमान एक क्षणभर के लिए भी रहना पसन्द करेगा! इस शरीर को पाना तो उन्हीं लोगों का सफल है जिन्होंने स्वर्ग, मोक्ष और धर्म की प्राप्ति के लिए कठिन से कठिन तप कर शरीर को कष्ट दिया, और लोगों का नहीं । यह जानकर इस असार शरीर द्वारा स्वर्ग, मोक्ष और आत्म-कल्याण का परम कारण निर्दोष तप करना चाहिए । सब में मन बड़ा ही चंचल है । शरीर और इन्द्रियरूपी नौकरों का राजा है । इसी की प्रेरणा से इन्द्रियाँ विषयों की ओर जाती हैं । इसलिए सबसे पहले इस दुर्जय मन को वैराग्यरूपी खड्ग से मार डालना चाहिए । क्योंकि जिस बुद्धिमान ने अपने मन को रोक लिया, उसकी इन्द्रियाँ फिर कुछ कुकर्म नहीं कर पातीं और उनके लिए कोई आश्रय न रहने से वे स्वयं नष्ट हो जाती हैं । इसके अतिरिक्त धर्मात्मा पुरुषों को मोक्ष प्राप्ति के लिए व्रत, समिति आदि ग्रहण कर बड़ी सावधानी के साथ छह काय के जीवों की रक्षा करनी चाहिए । ये सब यत्न कर्मों के नाश करने के लिए बतलाये गये हैं । जिन भगवान ने जिस महान धर्म का उपदेश किया है, उसका मूल है । 'अहिंसा' । यह धर्म संसार का भ्रमण मिटाकर जीव को मोक्ष का सुख प्राप्त कराता है । इस धर्म में संयम ग्रहण द्वारा बारह अव्रत का त्याग करना कहा गया है । क्योंकि ये अव्रत पाप बन्ध के कारण हैं ।

चार विकथा और पन्द्रह प्रमाद, ये भी पाप-बन्ध के कारण हैं । आत्मकल्याण की कामना करनेवालों को ध्यान, अध्ययन आदि द्वारा इनके नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि प्रमादी पुरुषों के कर्मों का आस्रव सदा ही आता रहता है । उनके दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि नष्ट होकर संसार बढ़ने लग जाता है । मोक्ष का सुख चाहनेवालों को कषायों पर विजय करना चाहिए । क्योंकि ये कर्मों की स्थिति को बढ़ाती हैं और इन कषायों के आवेश में जब क्रोध आता है, तब उस क्रोधी मनुष्य का जप-तप, ध्यान-ज्ञान, आचार-विचार, क्रिया-चारित्र आदि सभी नष्ट होकर दु:ख, विपत्ति, संसार-स्थिति आदि खूब बढ़ जाते हैं । यह जानकर बुद्धिमानों को उत्तम-क्षमा आदि इस धर्मरूपी धनुष-बाण द्वारा इन दुष्ट कषायरूपी शत्रुओं को नष्ट कर देना चाहिए । तभी वे सुख प्राप्त करने के अधिकारी बन सकेंगे ।

मन-वचन-काय के कर्म-व्यापार को योग कहते हैं । इसके पन्द्रह भेद हैं । ये योग शुभ-पुण्यबन्ध और अशुभ-पापबन्ध के कारण हैं । इन तीनों ही प्रकार के योगों को रोकना चाहिए । सत्यमनोयोग और अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग और अनुभय वचनयोग, ये चार योग शुभबन्ध के कारण हैं और असत्यमनोयोग तथा उभयमनोयोग, और असत्यवचनयोग तथा उभयवचनयोग, ये चार योग पापबन्ध के कारण हैं । अशुभ मनोयोगवाले के सदा कर्मों का आस्रव आता रहता है । इसलिए बुद्धिमानों को शुभ ध्यान द्वारा इस अशुभयोग के छोड़ने का यत्न करना चाहिए । और अशुभवचनयोग को, जो अत्यन्त निंद्य और पाप का कारण है, सत्यव्रत और मौनव्रत द्वारा रोकना चाहिए । यद्यपि उपदेश शुभ और अशुभ इन दोनों ही योगों के छोड़ने का है; परन्तु धर्मोपदेश, ध्यान-सिद्धि आदि के लिए कभी-कभी शुभयोग भी धारण किया जाता है । वह पुण्य के बढ़ाने का कारण है । रहा सात प्रकार का काययोग, सो वह पाप और अनर्थों का कारण-अशुभ है, इसलिए साधुओं को कायोत्सर्ग, ध्यान-अध्ययनादि द्वारा उसे नष्ट करना चाहिए । यहाँ जिन-जिन संसार के बढ़ानेवाले कारणों का उल्लेख किया गया, वे सब अनन्त दु:खों के कारण हैं । उन्हें भयंकर काले सर्प की तरह दूर ही से छोड़ देना चाहिए । तब ही कर्मों का आना रुक सकेगा और मोक्ष सुख का लाभ प्राप्त किया जा सकेगा । इन मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय, योग आदि के रुकते ही कर्मों का आना रुक जाँगा और कर्मों के रोकने के लिए वैराग्यरूपी शस्त्र से राग, द्वेष, मोह आदि शत्रुओं को नष्ट कर मुनिपद स्वीकार करना चाहिए । । इस प्रकार के विचारों से सुदर्शन का वैराग्य बहुत ही बढ़ गया । वह फिर स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, धन-दौलत, सुख-वैभव, तथा दस प्रकार बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि चौदह अन्तरंग परिग्रह-आत्म-शत्रु, इन सबको छोड़कर नि:शल्य- चिन्तारहित हो गया ।

इसके बाद वह श्रीविमलवाहन मुनिराज के पास आया और उन्हें अपना दीक्षा-गुरु बना, उसने नमस्कार किया । फिर उनके कहे अनुसार शुद्ध मन से यह संकल्प कर, कि । 'सारे संसार के जीवों पर मेरा समान भाव है' और अठ्ठाईस मूलगुणों की, जो केवलज्ञान आदि गुणों के प्राप्त करानेवाले हैं, भावना भाते हुए उस धर्मात्मा ने मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सब सुखों और मुक्ति की माता दिव्य जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ।

सुदर्शन का यह साहस देखकर राजा को बड़ा वैराग्य हुआ । वह भी तब संसार-शरीर-भोगों से विरक्त हो गया । उसने अपने पुत्र को राज्य का सब भार सौंपकर और सुदर्शन के पुत्र सुकान्त को राजसेठ बनाकर बाह्याभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर सुदर्शन के साथ ही विमलवाहन मुनिराज से जिनदीक्षा ले ली, जो संसार का भ्रमण मिटाकर कार्मों का नाश करती है । मोक्ष का सुख देती है ।

अपने स्वामी को योगी होते देख सब राज-रानियाँ भी एक साड़ी के सिवा सब परिग्रह को छोड़कर दीक्षा ले आर्यिका हो गयीं । अब वे जप-तप, ध्यानाध्ययन करती हुईं आर्यिकाओं के साथ रहने लगीं । अपने स्वीकार किये संयम को पालती हुईं और धर्म साधन करती हुइर्ं, उन्होंने वहीं पारणा किया । यहाँ से वे सब मुनि विहार कर अनेक देशों और शहरों में धर्मोपदेशार्थ घूमे-फिरे । अपने व्रतों को उन्होंने प्रमाद रहित होकर पालन किया । सुदर्शन बड़ा बुद्धिमान और जितेन्द्रिय था, सो उसने अभ्यासरूपी खेवटिये द्वारा खेये गये और अप्रमादरूप वायु वेग से बहनेवाले श्रीगुरु के मुखरूपी जहाज पर चढ़कर थोड़े ही दिनों में द्वादशांगरूपी महान समुद्र को, जो कि अनमोल रत्नों से भरा हुआ है, पार कर लिया ।

मुनिराज सुदर्शन ने तपस्या द्वारा अपनी आत्मशक्ति को खूब बढ़ा लिया । वे बड़े ही धीर और तेजस्वी हो गये । दु:सह परीषहों को सहने लगे । नाना देशों और नाना गाँवों में घूमने-फिरने से अनेक भाषाँए उन्हें आ गयीं । ऐसा कोई गुण न बचा जो उनमें न हो । वे वज्रवृषभनाराचसंहनन का धारक थे । उन्हें इस प्रकार सहनशील और तेजस्वी देखकर उसके गुरु ने अकेले रहने की आज्ञा दे दी । गुरु महाराज की आज्ञा पाकर वे अपने मूल और उत्तर गुणों का मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक पालन करते हुए अकेले ही नाना देशों में पर्यटन करने लगे । उन्होंने अब कर्मों के नाश करने की खूब तैयारी की । अपनी शक्ति को प्रगट कर वह बारह प्रकार तप करने लगे । (१) अनशन-तप के लिए वे पन्द्रह-पन्द्रह दिन, एक-एक, दो-दो, तथा चार-चार, छह-छह महीना के उपवास करते थे । इसलिए कि उनसे उत्पन्न हुई तपरूपी अग्नि कर्मरूपी वन को भस्म कर मोक्ष का सुख दे । (२) अवमौदर्य-तप के लिए वे पारणा के दिन भी थोड़ा सा आहार ग्रहण करते और फिर दिनों दिन आधा-आधा आहार घटाते जाते थे । जिससे कि प्रमाद-अलास न बढ़ पाये । (3) वृत्तपरिसंख्यान-तप के लिए वे बड़ी-बड़ी कड़ी प्रतिज्ञाँए करते । कभी वह प्रतिज्ञा करते कि आज मुझे चौराहे पर आहार मिलेगा तो करँगा, अथवा एक ही घर तक आहार के लिए जाऊँगा । कभी इससे और कोई विलक्षण ही प्रतिज्ञा करते । उसी दशा में यदि आहार मिल गया तो कर लेते, नहीं तो वापिस तपोवन में लौट आते । (4) रसपरित्याग-तप के लिए वे कभी केवल एक ही अन्न ग्रहण करते, कभी कोई रस छोड़ देते और कभी कोई । जिससे विकार न बढ़े-इन्द्रियों की विषय-लालसा नष्ट हो, ऐसा आहार वे सदा करते थे । (५) विविक्तशय्यासन-तप के लिए वे कभी सूने घरों में, कभी गुफाओं में, कभी वनों में, कभी मसानों में और कभी पर्वतों में रहते, जहाँ कोई न होता । जो निर्जन-एकान्त स्थान होते । और कभी ऐसे भयंकर स्थानों में, जहाँ सिंह, व्याघ्र, रीछ, चीते, गेंर्डे आदि हिंसक जीव रहते, सिंह की तरह निर्भय-निडर होकर निवास करते । उनका लक्ष्य था 'ध्यानसिद्धि' और उसी के लिए वे सब कुछ करते और सहते थे । (६) कायक्लेश तप के लिए वे वर्षा समय वृक्षों के नीचे ध्यान करते । ऊपर मूसलधार पानी बरस रहा है, बड़ी प्रचण्ड हवा बह रही है और वृक्ष विषैले साँप, बिच्छु आदि जीवों से युक्त हो रहे हैं । ऐसी भयंकर जगह में जहाँ अच्छे से अच्छा हिम्मतीबहादुर भी एक क्षण नहीं रह सकता, वहाँ वे महीनों एकासन से व्यतीत कर देते । शीत के दिनों में जब कड़कड़ाहट ठण्ड पड़ती, वृक्ष झुलस जाते, शरीर थरथर काँपने लगता, उस समय वे शरीर से सब माया-ममता छोड़कर नंगे-शरीर काठ की भाँति खड़े होकर ध्यान करते । वह भी खुले मैदान में या नदी अथवा तालाब आदि के किनारों पर । गर्मी के दिनों में जब खूब गर्मी पड़ती, पर्वतों के ऊँचे शिखर उस गर्मी के मारे तपकर आगवत् लाल हो जाते, सारे शरीर से पसीना निकलने लगता, उस पर हवा से उड़ी धूल आ-आकर चारों ओर से गिरती, प्यास के मारे गला सूखने लगता, और हृदय छटपटाने लगता । जहाँ पर एक मिनिट के लिए ठहरने की किसी की हिम्मत न पड़ती, वहाँ सुदर्शन-से धीरवीर महात्मा महीनों बिता देते और कष्ट की कुछ परवाह न करते । बड़ी शान्ति के साथ उन्हें सहते । यह कायक्लेश-तप बड़ा ही दु:सह है, पर सुदर्शन मुनि का ध्येय था अनन्त सुख-मोक्ष की प्राप्ति और पापों का नाश । इसलिए वह इन सबको बड़ी धीरता के साथ सह लेते थे । यह हुआ छह प्रकार का बाह्य तप और इसी तरह छह ही प्रकार का अभ्यन्तर तप है । अभ्यन्तर तप जिस लिए किया जाता है, वह कारण योगियों को प्रत्यक्ष है । यह तप बड़ा दु:सह है, जिनका हृदय डरपोक है, वे इसे धारण नहीं कर सकते । यह कर्मरूपी वन को जलाने के लिए दावानल के समान है । योगी लोग कर्म शत्रुओं की शान्ति के लिए इसे धारण करना अपना कर्तव्य समझते हैं । साधु लोग यद्यपि बड़ी सावधानी रखते हैं कि उनसे कोई प्रकार प्रमाद न बन जाय तथापि यदि दैवी-घटना से उनके व्रतों में कोई दोष लग जाय तो उनकी शुद्धि के लिए वे प्रायश्चित लेते हैं । प्रायश्चित से उनके सब व्रत-आचरण निर्दोष होकर परम शुद्ध हो जाते हैं । यह पहला प्रायश्चित-तप है । दूसरा विनय-तप है । उसके लिए वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप और इनके धारण करनेवाले पवित्र तपस्वियों का मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक विनय करता । इस विनय-गुण के प्रभाव से उन्हें सब विद्याँए सिद्ध हो गयीं थीं, जो संसार के पदार्थों का ज्ञान कराने के लिए दीपक की भाँति हैं । तीसरा वैयावृत्य-तप है । इसके लिए वे अपने से जो तप, ध्यान, योग और गुणों में अधिक थे, उनकी बड़े हर्ष के साथ जितनी अपने में शक्ति होती, उसके अनुसार वैयावृत्य करते । जिससे कि उन्हें भी उनके समान शक्तियाँ प्राप्त हों । इस तप के प्रभाव से उन्हें बड़ी शक्ति प्राप्त हो गयी थी । उससे वे कठिन से कठिन तप करने में कभी विमुख नहीं होते । उनका रत्नत्रय जो सब सिद्धियों का देनेवाला, बड़ा निर्दोष-निर्मल हो गया था । चौथा स्वाध्याय-तप है । इसके लिए वे अप्रमादी, जितेन्द्री सुदर्शन सदा स्वाध्याय में लीन रहते थे । स्वाध्याय के पाँच भेद हैं, सो वह कभी स्वयं शास्त्रों का अध्ययन करते, कभी अपने से अधिक ज्ञानियों से अपनी शंकाओं का समाधान करते, कभी तत्त्वज्ञान का बारबार मनन या चिन्तन करते । उस पर विचार करते, कभी पाठ को शुद्धता के साथ घोखते और कभी मिथ्या मार्ग को दूर करने और सत्यार्थ मार्ग को प्रगट करने के लिए धर्म का पवित्र उपदेश करते । यह पाँचों प्रकार का स्वाध्याय अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाला है । इसे निरन्तर करते रहने से साधुओं का चित्त स्वप्न में भी अपने ध्यान से नहीं डिगता और वैराग्य में बड़ा ही स्थिर हो जाता है । पाँचवाँ व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग-तप है । इसके लिए वे काठ की भाँति निश्चल होकर एकान्त स्थान में नाना प्रकार कायोत्सर्ग करते । पन्द्रह-पन्द्रह दिन, महीना-महीना ध्यान में खड़े ही रहते । इस तप के प्रभाव से वे सुदर्शन महामुनि संसार-विषय-भोगसम्बन्धी सुखों के प्रति अत्यन्त निर्मोही हो गये थे । यह तप कर्मों का जड़मूल से नाश करनेवाला है । छठा ध्यान नामक तप है । ध्यान के चार भेद हैं । आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इसमें आर्तध्यान के भी चार भेद हैं । पहला अनिष्ट-संयोग नाम आर्तध्यान, अर्थात् जिस वस्तु को मन नहीं चाहता, उसके नष्ट होने का बार-बार चिन्तन करते रहना । वह कब नष्ट होगी । दूसरा, इष्ट-वियोग नामक आर्तध्यान, अर्थात् जिसे मन चाहता है, उसकी प्राप्ति के लिये चिन्तन करते रहना । तीसरा, रोग से होनेवाला (पीड़ाचिंतन) आर्तध्यान है । रोगजनित कष्ट का चिन्तन करना, अधीर होना, रोना-धोना आदि । चौथा, निदान नामक आर्तध्यान है । निदान अर्थात् आगामी विषय-भोगादिक की इच्छा करना, उसका विचार करना । यह आर्तध्यान बड़ा ही बुरा और पुण्य-कर्म का नाश करनेवाला है । सुदर्शन ने इसे शुभध्यान द्वारा जड़मूल से नष्ट कर दिया था । इसलिए उनके निर्मल हृदय को यह आर्तध्यान स्वप्न में भी न छू पाया ।

इसी प्रकार रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं । पहला, हिंसानंदी रौद्रध्यान अर्थात् हिंसा में आनन्द मानना । दूसरा, मृषानन्द रौद्रध्यान अर्थात् झूठ बोलने में आनन्द मानना । तीसरा, स्तेयानन्द-आर्तध्यान, अर्थात् चोरी करने में आनन्द मानना । चौथा, परिग्रहानन्द-आर्तध्यान, अर्थात् भोगोपभोग की वस्तुओं की रक्षा का चिन्तन करना और उसमें आनन्द मानना । इस ध्यान में सिवा कष्ट के सुख का नाम नहीं । यह बड़ा बुरा ध्यान है । परन्तु सुदर्शन ने अपने निर्मल आत्मा पर इसका तनिक भी असर न होने दिया । सो ठीक ही है । सामान्य योगियों के महाव्रत में भी जब यह कुछ हानि नहीं कर सकता, तब सुदर्शन-से महायोगी के अत्यन्त शुद्ध आत्मा पर यह कैसे अपना प्रभाव डाल सकता है । ये आर्तध्यान और रौद्रध्यान बुरे हैं, इसलिए छोड़ने योग्य हैं और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान आत्मकल्याण के परम साधन हैं, इसलिए ग्रहण करने योग्य हैं । उक्त दोनों ध्यानों की भाँति इनक भी चार-चार भेद हैं । धर्मध्यान के चार भेदों में पहला आज्ञाविचय-धर्मध्यान, अर्थात् सर्वज्ञ भगवान ने जो सत्यार्थ प्रतिपादन किया और कम बुद्धि होने के कारण यदि वह समझ में न आवे तो उस पर वैसा ही विश्वास कर बार-बार विचार करना । दूसरा, अपायविचय-धर्मध्यान, अर्थात् करुणाद्र्र अन्त:करण से, हाँ! मिथ्यामार्ग पर चलते हुए ये संसारी जीव कब सुमार्ग पर चलने लगेंगे, इस प्रकार मिथ्यामार्ग के अपायनाश का बार-बार चिन्तन करना । तीसरा, विपाकविचय-धर्मध्यान, अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मों के फल पर बार-बार विचार करना । चौथा, संस्थानविचय-धर्मध्यान, अर्थात् लोक के संस्थान का । आकारप ्रकार का चिन्तन करना । यह धर्मध्यान उत्कृष्ट ध्यान है, सुख का देनेवाला है, धर्म का समुद्र है और सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त ले जानेवाला है । महायोगी सुदर्शन अपने योगों को रोककर इस ध्यान को करते थे ।

इसके बाद उन्होंने अपने मन को निर्विकल्प और परम वैरागी बनाकर अप्रमत्तगुणस्थान में शुक्लध्यान के पहले पाये पृथक्त्ववित र्कवीचार का ध्यान करना आरम्भ किया । यह ध्यान आत्मतत्त्व को प्रकाशित करने के लिए रत्नमयी दीपक के समान है और कर्मरूपी वन के जलाने को आग के समान है । शुक्लध्यान के शेष रहे तीन पायों को आगे पूर्ण कर सुदर्शन मोह के कारण केवलज्ञान को प्राप्त करेंगे । इस ध्यान के द्वारा हृदय में बड़ा ही अपूर्व आनन्द उत्पन्न होता है और पापकर्मों का क्षणमात्र में नाश होता है ।

यह जिनभगवान के द्वारा कहा गया और आन्तरिक क्रोध, मान, माया, राग, द्वेष आदि शत्रुओं की शक्ति को नाश करनेवाला छह प्रकार का परम अभ्यन्तर तप है । महातपस्वी सुदर्शन इसे कर्म शत्रुओं के नाशार्थ प्रतिदिन धारण करते । इससे उनका अन्तरंग बड़ा ही पवित्र हो गया था । मन्त्र की शक्ति से जैसे सर्प सामर्थ्यहीन हो जाते हैं, काट नहीं सकते और काटे भी तो उनका जहर नहीं चढ़ता, उसी तरह इस तप द्वारा सुदर्शन के कर्म बड़े ही अशक्त हो गये थे । अपना कार्य वे कुछ न कर पाते थे । उस तप के प्रभाव से सुदर्शन की आत्म-शक्ति अत्यधिक बढ़ गयी, उन्हें कई ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं, जो कि मोक्षमार्ग की सहायक थीं । सुदर्शन संसार के प्राणी मात्र में मित्रता की भावना भाते, अपने से अधिक गुणधारी मुनियों में आनन्द मानते, रोगादि के कष्ट से दु:ख पा रहे जीवों पर करुणा करते और अपने से वैर करनेवाले पापी लोगों में समभाव रखते । इन पवित्र भावनाओं को वे सदा भाते रहते थे । इसलिए उनके हृदय में राग-द्वेषादि दोषों ने स्वप्न में भी स्थान न पाया । किन्तु उसके निर्मल हृदय में रत्नमयी दीपक के समान एक प्रकाशमान पवित्र ध्यान-ज्योति, जो मोक्षमार्ग में पहुँचानेवाली है, सदा जला करती थी ।

इस प्रकार चारित्र और व्रतों को जिसने धारण किया, धर्म और शुक्लध्यान में अपने आत्मा को स्थिरता से लगाया, इन्द्रियों और कामदेव को पराजित किया, सब दोषों को नष्ट किया, संसार की चरम सीमा प्राप्त की और जो गुणों का समुद्र कहलाया, वह सुदर्शन मोक्षमार्ग में जय-लाभ करे । उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ, वे मेरी आत्मशक्तियों को बढ़ावे ।

व्रतों के धारण करने से सब गुण प्राप्त होते हैं और आत्महित होता है । बुद्धिमान लोग व्रतों का आश्रय इसीलिए प्राप्त करते हैं कि इनसे शिव-वधू का सुख प्राप्त होता है । ऐसे व्रतों के लिए मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ । मेरी यह श्रद्धा है कि व्रतों को छोड़कर सुख-सम्पत्ति का देनेवाला और कोई नहीं है । इन व्रतों का मूल है क्रिया-चारित्र । ऐसे व्रतों में मैं अपने चित्त को लगाता हूँ और व्रतों से प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरी सदा रक्षा करें ।

सुदर्शन और विमलवाहन मुनिराज मुझे अपने-अपने गुण प्रदान करें । जो मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, जो ध्यान के द्वारा सब पापरूपी विष को नष्ट कर ज्ञानरूपी समुद्र के पार पहुँच चुके हैं, जो शीलव्रत आदि उत्तम-उत्तम गुणों से युक्त हैं और धर्मात्माजन जिनकी सदा पूजा-प्रशंसा करते हैं, उन परम वीतरागी मुनिराजों को मेरा नमस्कार है ।